भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

स्मरण - जन्म शताब्दी वर्ष कामरेड अजय घोष


कामरेड अजय घोष शहीदे आजम भगत सिंह के साथियों के साथ गिरफ्तार हुए थे। लेकिन जब लाहौर जेल में मुकदमा शुरू हुआ तो उनको उस मुकदमे से अलग कर दिया गया क्योंकि किसी भी गवाह ने उनकी शिनाख्त नहीं की। लाहौर सेन्ट्रल जेल से छूटने के बाद उनके शब्दों में ”किस्मत ने मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया और मैं भगत सिंह के साथ नहीं रह सका।“ एक दुःख भरा दिल लिए वह कानपुर आ गये जहाँ उनका परिवार रहता था और सूती मिल मजदूरों में उन्होंने काम शुरू कर दिया।
उनके शब्दों में ”उस समय कानपुर मजदूर सभा और सूती मिल मजदूर आन्दोलन पूंजीपतियों के दलालों के हाथ में था, मुझको उस वक्त एक भी कम्युनिस्ट साथी नहीं मिला।“
बहुत मेहनत के बाद भी मजदूरों में से कामरेड अजय घोष एक क्रान्तिकारी ग्रुप नहीं बना पाये, उसी निराशा में वह टी.बी. के बीमार भी हो गये, डाक्टरों ने उनको सलाह दी कि अगर जिन्दा रहना चाहते हो तो तुम राँची के टी.बी.सैनेटोरियम में चले जाओ। उस समय टी.बी. का कोई विशेष इलाज नहीं था। प्राकृतिक हवा ही एक इलाज थी। बहुत लम्बे अर्से तक वह राँची में रहे। बीच में पार्टी के बम्बई स्थित राष्ट्रीय मुख्यालय में आते-जाते रहते थे। राँची में उन्होंने कई महत्वपूर्ण लेख लिखे। यह सब लेख झारखण्ड के आदिवासी जीवन से सम्बन्धित थे। आदिवासी जीवन की सामूहिकता की कार्य प्रणाली और जनवादी शैली ने उनके ऊपर बहुत प्रभाव डाला था, इसका जिक्र हम बाद में करेंगे।
1947 अगस्त में जब देश आजाद हुआ तो पार्टी के बहुमत ने इस आजादी को न सिर्फ झूठा करार दिया बल्कि राष्ट्रीय पूंजीवादी वर्ग का साम्राज्यवाद के सामने आत्मसमर्पण भी करार दे डाला। कामरेड पूरन चन्द जोशी को महासचिव पद से हटा दिया गया और का. बी.टी. रणदिवे नये महासचिव बने। 1948 में कलकत्ता में हुई पार्टी कांग्रेस में निर्णय लिया गया कि हथियार बन्द लड़ाई के द्वारा ही साम्राज्यवाद से आजादी छीनी जा सकती है।
यहाँ एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि पार्टी के बहुमत का आशय क्या है? दिसम्बर 1947 में आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन का अखिल भारतीय सम्मेलन बम्बई में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में मैं भी उपस्थित था। का. बी.टी.रणदिवे ने इस सम्मेलन के प्रतिनिधियों को अलग से सम्बोधित किया था। का. रणदिवे ने जब सुन रहे युवाओं को समझाया कि हम क्रान्ति की दहलीज पर हैं तो नौजवानों का जवान खून उबलने लगा, और पार्टी की युवा शक्ति (पार्टी उस समय लगभग पूरी की पूरी युवा ही थी) जो उछली तो पार्टी केे परिपक्व साथी हक्के-बक्के से हो गये और इसके पहले कि वे स्थिति को समझ कर कुछ रणनीति बना पाते, कलकत्ता में हुए पार्टी महाधिवेशन में का. बी.टी.रणदिवे ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। नौजवानों के उफान के आगे उस रिपोर्ट के खिलाफ केवल कामरेड पूरन चन्द्र जोशी ने रोते हुए कहा कि, ”इस रिपोर्ट को मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ।“ कामरेड अजय घोष कलकत्ता महाधिवेशन में नहीं थे। रिपोर्ट महाधिवेशन में पारित हो गयी।
जनवरी 1950 तक 90 प्रतिशत पार्टी नेता और सदस्य जेलों के अन्दर ठूंस दिये गये। जो बाहर बच गये, वह अपने घरों और डेन में छुपे रहते थे। ऐसे समय में कामरेड अजय घोष राँची से बम्बई पहुंचे।
पार्टी के कुछ नेता कामरेड अजय घोष से मिले। एक साथी कामरेड एस.आर.चारी (जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय के बहुत ही मशहूर वकील हुए) ने कामरेड अजय घोष को सुझाव दिया कि अगर पार्टी को कानूनी करवाना है तो हथियार बन्द क्रान्ति का प्रस्ताव वापस लेना होगा। कामरेड अजय घोष के नेतृत्व में एक कमेटी बनी और उसके द्वारा यह घोषणा की गई कि ”हम सच्ची आजादी का संघर्ष शान्तिपूर्ण, वैधानिक जनसंघर्षों के द्वारा करेंगे।“ और उसके बाद ही पार्टी को जनता के मध्य काम करने का अधिकार मिला। अब कामरेड अजय घोष के सामने दूसरा महत्वपूर्ण सवाल था कि क्या सचमुच में यह आजादी झूठी है? उन्होंने खुद से कुछ सवाल पूछे और उनका जवाब तलाशा:
प्रश्न ः क्या दूसरे महायुद्ध के बाद साम्राज्यवाद और ज्यादा शक्तिशाली बना या कमजोर पड़ा?
उत्तर ः दूसरे महायुद्ध में साम्राज्यवाद का एक दूसरा बेरहम भाई फासिज्म न सिर्फ लड़ाई हारा बल्कि उसका पूरी तौर से विनाश भी हो गया। इसलिए साम्राज्यवाद समाजवादी सोवियत यूनियन के साथ मिलकर महायुद्ध जीतने के बावजूद बहुत कमजोर हो गया है।
प्रश्न ः दूसरे महायुद्ध के बाद क्या समाजवादी दुनिया कमजोर हो गयी?
उत्तर ः नहीं, समाजवादी दुनिया और उसकी लाल सेना का दबदबा सारी दुनिया में छा गया तो समाजवादी दुनिया की शक्ति अभूतपूर्व बढ़ गयी।
प्रश्न ः क्या आजाद हुए तीन चैथाई गुलाम देशों में मुक्ति संघर्ष कमजोर हो गये।
उत्तर ः सभी औपनिवेशिक देशों में विशेषकर हिन्दुस्तान में मुक्ति संघर्षों का एक तूफान सा खड़ा हो गया। साम्राज्यवाद हर जगह पूंजीवादी वर्गों से समझौता करने, गुलाम देशों को छोड़ने पर मजबूर हो गया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक विभाजन के आधार पर पाकिस्तान और हिन्दुस्तान बना डाला। हिन्दुस्तान में यह सत्ता कांग्रेस के हाथ में सौंप दी गई इसलिए हिन्दुस्तान की आजादी झूठी नहीं थी। प्रश्न सिर्फ यह है कि हम इस आजादी में मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों की हिस्सेदारी बढ़ाये कैसे?
कामरेड अजय घोष को अपने आप को समझाना तो आसान था पर पूरी पार्टी को समझाने में उन्हें कई वर्ष लग गये। कामरेड घोष माक्र्सवाद के सिद्धांतों को किसी फार्मूला के रूप में नहीं बताया करते थे, बल्कि जन आन्दोलनों से नतीजे निकाल कर वह पार्टी को मजबूत कर रहे थे कि अपने संकुचित विचारों को छोड़े, नई दुनिया को समझें और जन आन्दोलनों के कन्धों पर पूंजीपति वर्ग से अपने अधिकार को प्राप्त करेें।
हमारे पार्टी इतिहास का यह एक महत्वपूर्ण अध्याय है और इसके सम्पूर्ण नेता कामरेड अजय घोष थे।
1957 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार
1957 में केरल के अन्दर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव में बहुमत प्राप्त किया और वहाँ राज्य सरकार चलाने का अधिकार मिला। यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना न केवल अपने देश बल्कि विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए भी पथ प्रदर्शक साबित हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सामने यह प्रश्न पैदा हुआ, ”क्या अगर हम केरल में चुनाव के द्वारा प्रान्तीय सरकार बना सकते हैं तो पूरे देश में कुछ सहयोगियों के साथ हम संसद में बहुमत क्यों नहीं प्राप्त कर सकते?“ कामरेड अजय घोष ने इस प्रश्न को माक्र्सवाद का एक महत्वपूर्ण प्रश्न बना डाला। उन्होंने फैसला किया कि पार्टी कांग्रेस करके हम अपने पार्टी विधान को बदलेंगे और उस विधान में यह समझदारी अंकित की जायेगी कि जब हम देश के संविधान के अन्तर्गत चुनाव में संसद में बहुमत प्राप्त कर लेंगे तो जो अधिकार हमें आज प्राप्त हैं, हम अपनी सरकार बनाने के बाद विपक्षी पार्टियों के लिए उन्हें सुरक्षित रखेंगे। इसी समझदारी को लेकर कामरेड अजय घोष ने कम्युनिस्ट पार्टी का महाधिवेशन 1958 में अमृतसर में बुला डाला। महाधिवेशन का केवल एक ही एजेन्डा था - पार्टी विधान में परिवर्तन। उस कांग्रेस में पहली बार एक प्रतिनिधि साथी पुलिस की देख-रेख में आया था - उनका नाम था का. ई.एम.एस.नम्बूदरीपाद (मुख्यमंत्री, केरल सरकार)।
दो दिन तक बहुत तीखी बहस के बाद कामरेड अजय घोष का प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पास हुआ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विश्व में पहली कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसने इस तरह का प्रस्ताव पास किया था। आज तो दुनिया की तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस तरह के प्रस्ताव पास कर लिये हैं और वे इस रास्ते पर आगे बढ़ रहीं हैं परन्तु इस रास्ते को दिखाने वाले पहले व्यक्ति थे कामरेड अजय घोष।
भारत-चीन सीमा विवाद
भारत और चीन में मैकमोहन के दिये हुए नक्शे के आधार पर 1950 से ही कड़े मतभेद शुरू हो चुके थे। चीन और भारत की सरकारों में लगातार बातचीत भी चल रही थी लेकिन जिस तरह से चीन की सरकार आसाम से कश्मीर तक मैकमोहन लाईन से आगे बढ़ कर अपने फौजी अधे बना रही थी, उससे भारत-चीन सम्बंधों में कटुता पैदा हो रही थी। कामरेड अजय घोष का दृढ़ विचार था कि एक कम्युनिस्ट देश को सीमा विवाद तय करने के लिए फौज का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उनके नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल चीन गया। चीन के कम्युनिस्ट नेतृत्व को कामरेड अजय घोष ने भाकपा का मत बतलाया और उनसे आग्रह किया कि सीमा विवाद हल करने के लिए फौज और शक्ति का प्रयोग न करें लेकिन कामरेड अजय घोष चीन से बहुत निराश वापस आये।
अक्टूबर 1962 में चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने आसाम में घुसकर हिन्दुस्तानी फौज को हरा दिया परन्तु जब क्यूबा में ख्रुश्चेव और कैनेडी के बीच समझौता हो गया तो चीन की सरकार ने अपनी फौज तुरन्त अपने आप ही वापस बुला ली। इस घटनाक्रम के पहले ही कामरेड अजय घोष का निधन हो चुका था और उनको एक कम्युनिस्ट देश का ऐसा गैर समाजवादी कर्तव्य का साक्षी नहीं बनना पड़ा अन्यथा उन्हें बहुत ही दुख होता।
1960 का 81 कम्युनिस्ट पार्टियों का मास्को महाधिवेशन
स्तालिन के मरने के बाद का. ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत यूनियन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने दो दिशाओं में अभूतपूर्व प्रगति की:
(1) युद्ध के निर्णायक हथियारों अर्थात परमाणु बम और बैलेस्टिक मिसाइल के क्षेत्रों में सोवियत यूनियन ने साम्राज्यवादी दुनिया को पीछे छोड़ दिया। उसके बाद से तीसरा महायुद्ध विश्व के एजेन्डे से हट गया लेकिन फिर यह प्रश्न उठ गया कि लेनिन की उस प्रस्थापना का क्या होगा जिसमें कहा गया था कि साम्राज्यवाद का विकास हमेशा असमान रहेगा और इसलिए पुनः बटवारे का महायुद्ध अनिवार्य है और साम्राज्यवाद का यह युद्ध ही समाजवादी क्रान्तियों की जड़ है।
(2) सोवियत रूस ने घोषणा की कि वह नवस्वतंत्र देशों को अपने-अपने देशों में बुनियादी उद्योग यानी विभाग-1 के उद्योगों को लगाने और विकसित करने में हर तरह की सहायता उपलब्ध करायेगा जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। उल्लेख जरूरी होगा कि कम्युनिस्ट शासन न होने के बावजूद रूस अभी उसी नीति पर कायम है और अभी हाल में क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो और रूस के राष्ट्रपति मेवदेयेव के मध्य यह समति बनी है कि रूस उसे न केवल बुनियादी उद्योगों को लगाने के लिए सहायता मुहैया करायेगा बल्कि उसे तकनीकी विकसित करने लायक ज्ञान भी मुहैया करायेगा और वायुयान से तरलीकृत ईंधन गैस की आपूर्ति भी करेगा।
सोवियत यूनियन लगातार महायुद्ध का विरोध कर रहा था। रूस समाजवादी और साम्राज्यवादी दुनिया के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व पर जोर दे रहा था। इसी प्रश्न पर विचार करने के लिए सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने 80 कम्युनिस्ट पार्टियों का सम्मेलन मास्को में बुलाया था। दिलचस्प बात यह है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और उसके साथ 12 अन्य पार्टियों ने एक समानान्तर सम्मेलन पेकिंग में बुलाया था। इन तेरह कम्युनिस्ट पार्टियों में से जापान और इन्डोनेशिया की पार्टियां बहुत बड़ी पार्टियां थीं।
मास्को में जो सम्मेलन हुआ, उसके ड्राफ्टिंग कमीशन में कामरेड अजय घोष को रखा गया था। यह इस बात का सबूत था कि 80 बिरादराना पार्टियां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सैद्धान्तिक सृजनात्मकता (ideological creativity) को स्वीकारते थे। भाकपा ने इस नये युग के मुताबिक शान्तिपूर्वक ढंग से समाजवाद तक पहुंचने की सम्भावना अपने 1958 के महाधिवेशन में स्वीकार कर ली थी।
मास्को में हुए 80 पार्टियों के सम्मेलन ने भी मजबूती से अपने दस्तावेज में कहा कि तीसरा महायुद्ध सम्भव नहीं है। साम्राज्यवादी दुनिया आपस में पुनः बटवारे का युद्ध भी नहीं कर सकती और साम्राज्यवादी दुनिया पुनः बटवारे के लिए समाजवादी दुनिया से भी नहीं लड़ सकती। इसलिए शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का संघर्ष हर कम्युनिस्ट पार्टी का कर्तव्य बन जाता है और इसीलिए हर देश में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर शान्ति एवं जनवाद के रास्ते पर चलकर समाजवाद तक पहुंचने के रास्ते खोजने पड़ेंगे।
जाहिर है चीन की कम्युनिस्ट पार्टी व अन्य बारह कम्युनिस्ट पार्टियों ने मास्को सम्मेलन के प्रस्ताव पर सुधारवाद का आरोप लगा दिया और अपना दृढ़ निश्चय घोषित किया: ”सत्ता बन्दूक की नाल से निकलती है“ Power arrises out of the barrel of a gun"। इसी प्रयास में एशिया की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी यानी इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा के लिए समाप्त हो गई। उल्लेख जरूरी होगा कि उस वक्त एशिया में इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बहुत बड़ी थी। उसकी सदस्य संख्या 7 लाख से भी ज्यादा थी। उस समय वहां संयुक्त मोर्चे की सरकार वामपंथी सुकर्णो के नेतृत्व में चल रही थी। इस नारे के बाद वहां की कम्युनिस्ट पार्टी में यह गलत समझ बनी कि अगर सेना के जनरलों को मार दिया जाये तो क्रान्ति हो जायेगी। जोश में इस बात को नजरंदाज किया गया कि एक लोकतांत्रिक देश में इससे जनता में प्रतिक्रिया बहुत भयानक होगी। 6 जनरलों की हत्या से इंडोनेशिया की पूरी जनता गुस्से से बौखला गयी और गली-कूचों तथा गांव-गांव में कम्युनिस्टों को सरेआम मार डाला गया। इंडानेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी समाप्त हो गयी। आज तक फिर वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी बन नहीं पाई।
स्वतंत्र आर्थिक विकास
यह विचार कोई नया नहीं था। सभी नव स्वतंत्र देशों में इस रास्ते पर चलने की ख्वाहिश थी। साम्राज्यवाद ने जब गुलाम देशों में पूंजीवाद का विकास किया तो केवल उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन के उद्योगों (आर्थिक विकास का विभाग-2) और ऊपरी ढांचे - यानी यातायात, ऊर्जा और संचार (आर्थिक विकास का विभाग-3) का ही विकास किया। बुनियादी उद्योगों यानी भारी उद्योगों (आर्थिक विकास का विभाग-1) का विकास न तो किया और न ही किसी को करने दिया। इसलिए इन सभी नव स्वतंत्र देशों का आर्थिक ढांचा निर्भर अर्थव्यवस्था कहलाता था। उस समय कोई भी नव स्वतंत्र देश बगैर विकसित देशों की मदद के भारी उद्योगों (यानी विभाग-1 के उद्योग) का विकास नहीं कर सकता था।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि कार्ल माक्र्स ने अपने अध्ययन के बाद यह सूत्रबद्ध किया था कि साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों में पूंजीवाद का विकास करेगा परन्तु केवल उन सामानों के निर्माण के उद्योग लगायेगा जो बनते ही उपभोक्ता द्वारा उपभोग के लिए बाजार में पहुंच जाते हैं। माक्र्स ने इसे विभाग-2 के उद्योग कहा था। उन्होंने आगे यह स्पष्ट किया था कि पूंजीवादी में विभाग-2 के उद्योगों के विकास के लिए आधुनिक यातायात, आधुनिक संचार और आधुनिक ऊर्जा के उद्योगों का विकास करना साम्राज्यवादियों की मजबूरी होगी। उन्होंने इसे विभाग-3 के उद्योग कहा था। माक्र्स ने स्पष्ट किया था कि साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों में बुनियादी उद्योगों (विभाग-2 और विभाग-3 को विकसित करने वाले उद्योगों) को कभी विकसित नहीं होने देंगे यानी उन्हें आत्मनिर्भर नहीं बनने देंगे। इन बुनियादी उद्योगों को उन्होंने विभाग-1 कहा था। पं. नेहरू ने कार्ल माक्र्स के उपरोक्त सूत्र का
अध्ययन कर रखा था और वे महसूस करते थे कि विभाग-1 के विकास के बिना विकास का कार्य अधूरा रहेगा।
स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू ने इंग्लैंड और अमरीका के कई चक्कर लगाये और उनके विभाग-1 के उद्योगों के विकास का मार्ग मुहैया कराने की याचना की लेकिन इन देशों ने पंडित नेहरू का सिर्फ मजाक उड़ाया। तब पं. नेहरू 1954 में सोवियत यूनियन गये, जहां सोवियत यूनियन ने उनको यकीन दिलाया कि आप भारी उद्योग के विकास की एक योजना बनाईये। हम आपकी पूरी मदद करेंगे। तभी दूसरी पंचवर्षीय योजना पंडित नेहरू और महलनवीस के नेतृत्व में बन गई। भारत-सोवियत सहयोग के आधार पर बहुत तेजी से विभाग-1 का निर्माण शुरू हो गया।
इसी समझदारी के आधार पर और पंडित नेहरू की पहल पर 1955 में बान्डूग (इंडोनेशिया) में नव स्वतंत्र देशों का एक सम्मेलन बुलाया गया और सभी नव स्वतंत्र देशों में सोवियत यूनियन के सहयोग से स्वतंत्र आर्थिक विकास की योजनायें बन गईं। यह एक अलग कहानी है।
कामरेड अजय घोष ने स्वतंत्र आर्थिक विकास का न सिर्फ स्वागत किया बल्कि उसमें मजदूर और इन्जीरियरों को ट्रेड यूनियन बनाकर इस नये विकास के मार्ग में अपनी भूमिका को शक्तिशाली बनाने का रास्ता सुझाया।
इसी बीच में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता ने लेख लिख डाला कि यह सार्वजनिक क्षेत्र एक समाजवादी क्षेत्र है। कामरेड अजय घोष ने फौरन उसके जवाब में एक दूसरा लेख लिखा कि जब तक सत्ता पूंजीवादी वर्ग के हाथ में है सार्वजनिक क्षेत्र समाजवादी नहीं हो सकता वह केवल राज्य नियंत्रित पूंजी क्षेत्र ;(state capitalist sector) हो सकता है। कामरेड घोष ने कहा कि राज्य नियंत्रित पूंजी क्षेत्र ;(state copitalist sector) बाजार आधारित पूंजीवाद (market capitalism) से बहुत ज्यादा गतिशील है लेकिन वह समाजवादी क्षेत्र नहीं हो सकता है। समाजवादी क्षेत्र के लिए सत्ता का वर्ग चरित्र बदलना पड़ेगा अर्थात राज्यसत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार कायम होना चाहिए।
सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने कामरेड अजय घोष की प्रस्थापनाओं का समर्थन किया।
राष्ट्रीय एकीकरण समिति
1958, 1959 तथा 1960 इन तीन वर्षों में हिन्दुस्तान के कई शहरों में हिन्दू मुस्लिम बलवे हुए। पंडित नेहरू एक संसदीय समिति गठित करना चाहते थे लेकिन कामरेड अजय घोष ने पं. नेहरू को एक पत्र भेजा कि यह कमेटी एक राष्ट्र की होनी चाहिए। बहुत सी पार्टियों के नेता संसद के सदस्य नहीं है। बहुत से हमारे सामाजिक विज्ञान के ज्ञाता जो हमारी धर्मनिरपेक्ष विरासत का ज्ञान रखते हैं, वे भी संसद सदस्य नहीं है। इसलिए इन सबको शामिल करके संसद के बाहर एक कमेटी बननी चाहिए। पंडित नेहरू ने कामरेड अजय घोष के इस सुझाव को मान लिया।
कामरेड अजय घोष ने इस समिति की पहली बैठक में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कहा कि हमें कई पहलुओं पर विचार करना पड़ेगा।
(1) हमारी विरासत किसी एक धर्म से नहीं जुड़ी है। उन्होंने कहा कि हमारी अधिसंख्यक जनता धर्मनिरपेक्ष है हालांकि वह किसी न किसी धर्म से जुड़ी है। इस समय कुछ पार्टियां हमारी विरासत को केवल हिन्दू धर्म से ही जोड़ना चाहती हैं इसलिए धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वालों के लिए जरूरी है कि हम अपनी धर्मनिरपेक्ष विरासत को जनता तक पहुंचायें।
(2) हम हर दंगेे की जांच के लिए राष्ट्रीय एकता समिति की तरफ से एक आयोग बनायें क्योंकि कई दंगे निहित स्वार्थ के लिए किये जा रहे हैं जैसे अलीगढ़ के दंगे ताला उद्योग को मुसलमानों से छीनने के लिए, मेरठ में कैंची और प्रकाशन उद्योग को मुसलमानों से छीनने के लिए और आगरा में चमड़े और पत्थर के उद्योग को मुसलमानों से छीनने के लिए आदि। इसलिए हमारी समिति का कर्तव्य बन जाता है कि हम साम्प्रदायिकता की आड़ में निहित स्वार्थ वालों को बेनकाब भी करें।
विजयवाडा पार्टी कांग्रेस - सन 1961
जब मास्को और पेकिंग में दो अलग-अलग सम्मेलन हुए तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी सैद्धान्तिक संघर्ष तेज हो गया और आशंका व्यक्त की जाने लगी कि उस आधार पर हमारी पार्टी का भी विभाजन हो जायेगा लेकिन कामरेड अजय घोष की सैद्धान्तिक पकड़ इतनी शक्तिशाली थी कि विजयवाड़ा महाधिवेशन में कोई भी उनके प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाया। उन्होंने जो दस्तावेज पेश किया वह तो पास नहीं हुआ लेकिन बहस के बाद जो आखिरी भाषण उन्होंने किया था, वह पास हो गया। उन्होंने यही कहा कि 1962 जनवरी-फरवरी में तीसरे आम चुनाव होने जा रहे हैं। हम एक होकर आगे बढ़ने का प्रयास करें। उन्होंने कहा कि ”पूंजीवादी वर्ग समझता है कि 1959 में केरल की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करके हमने बढ़ते हुए कम्युनिस्ट आन्दोलन को पीछे धकेला है तो हमारा कर्तव्य बन जाता है कि हम पूंजीपति वर्ग को दिखा दें कि हम पीछे नहीं आगे बढे़ंगे।“
1962 के चुनाव में अजय घोष एक शहर से दूसरे शहर घूमते रहे। कानपुर भी आये थे। यहाँ से वे पटना गये। 1962 की जनवरी थी। मतदान की तिथि नजदीक ही थी लेकिन पटना में उनका निधन हो गया। वह यह नहीं देख पाये कि विजयवाड़ा में कहा गया उनका कथन सच्चा साबित हुआ है। इस चुनाव में पार्टी ने कुल 494 सीटों में से केवल 137 पर अपने प्रत्याशी अपने चुनाव निशान पर उतारे थे जिसमें 29 विजयी हुए थे और पार्टी को कुल मतदान का 9.94 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था। इसमें पार्टी द्वारा निर्दलीय उतारे गये कुछ प्रत्याशी (जैसे कानपुर से का. एस.एम.बनर्जी) को प्राप्त मत शामिल नहीं हैं। अगर उन मतों को भी शामिल कर लिया जाये तो यह मत प्रतिशत 10 प्रतिशत से अधिक हो जाता है। यह मत प्रतिशत अब तक पार्टी को मिले मत प्रतिशत में सबसे ज्यादा था।
पार्टी जरूर बदकिस्मत रही कि चुनाव की तैयारियों में उनकी शोक सभायें भी नहीं कर पाई।
कामरेड अजय घोष की विरासत और हमारी जिम्मेदारियाँ
मुश्किल से 11 साल मिले थे कामरेड अजय घोष को 1950 से 1962 के बीच लेकिन वे अपनी छाप न सिर्फ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर बल्कि विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन पर भी छोड़ गये। उनकी कार्यशैली की सबसे प्रमुख विशेषता थी पार्टी का विचारधारात्मक विभाग Ideological department। विचारधारात्मक विभाग के लिए वे एक पत्रिका भी छपवाते थे।
वे पार्टी एकता के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे, हर कदम पर लड़ते रहे लेकिन एकता की खातिर सिद्धांतों के प्रश्न पर एक इंच भी पीछे हटना कभी भी स्वीकार नहीं किया। हर चीज क्षण-क्षण बदलती है। यह सिद्धांत तो गौतम बुद्ध ने देश को दिया था। उसको हेगेल ने और फिर माक्र्स ने दोहराया था। कामरेड अजय घोष भी हमेशा सजग रहते थे कि कौन सा शक्ति संतुलन किस दिशा में बदल रहा है और फौरन उसके अनुसार माक्र्सवाद पर आधारित नया रास्ता और नई सोच खोजते रहते थे। हम भी आज के युग में कामरेड अजय घोष की तरह कुछ ज्वलंत प्रश्नों पर नए तरीके से सोचें। हमारे देश में इस समय सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि नव उदारवाद (neo liberalisation) जिस पर भाजपा और कांग्रेस मिलकर चल रही हैं, उस रास्ते के विरोध में हम तीसरा मंच कैसे बनायें?
हमारे देश में इस वक्त धर्मनिरपेक्ष उद्देश्य को तो कांग्रेस ने छोड़ दिया है। उसने नरम हिन्दुत्व (soft Hinduism) का रास्ता अपना लिया है। हम अपनी धर्मनिरपेक्ष विरासत का संघर्ष सिर्फ कुछ बुद्धिजीवियों के लिए न छोड़े बल्कि हर जन मोर्चे पर इस संघर्ष को जारी रखें।
भारत-पाक सम्बंधों को बम्बई कांड ने एक अंधी गली में डाल दिया है। हम पाकिस्तान की फौज और उनके पालतू लश्करे तैय्यबा के उकसावे में न आयें। इस वक्त पाकिस्तान की जनता को, पाकिस्तान के जनतंत्र को हमारी मदद की जरूरत है। हम हर ऐसा प्रयास करें जिसमें भारत-पाकिस्तान युद्ध किसी हालत में एजेन्डा न बन पाये।
और एक क्षण के लिए भी कामरेड अजय घोष के उस आदेश को न भूलें कि हर कीमत पर वामपंथी एकता लेकिन विचारधारात्मक आधार पर आत्मसमर्पण किये बगैर

"Left unity at all costs but without surrendering on the ideological ground"।


का. हरबंस सिंह




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बैंक कर्मचारियों द्वारा प्रतिगामी आर्थिक नीतियों के खिलाफ संसद पर जुझारू प्रदर्शन


दिल्ली: देश के बैंक कर्मचारी आन्दोलन की यह परिपाटी रही है कि इस क्षेत्र में काम करने वाले हमारे साथी न केवल अपने वेतन और सेवाशर्तों के लिए जुझारू कार्रवाईयों में उतरते रहे हैं बल्कि देश की आम जनता से संबंधित मुद्दों पर भी उनके तेवर उतने ही जुझारू रहते हैं। जब उनके वेतन पुनरीक्षण पर सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हो चुके थे, कुछ इन्हीं जुझारू तेवरों के साथ बैंकों के राष्ट्रीयकरण की रक्षा के लिए 3 दिसम्बर को सुबह से ही तमाम राज्यों से आ रहे एआईबीईए और एआईबीओए के साथियों का राम लीला मैदान पहुंचना शुरू हो गया था। साढ़े दस बजे तक हजारों की संख्या में बैंक कर्मचारी राम लीला मैदान पहुंच चुके थे। हर प्रदर्शनकारी के चेहरे पर जोश एवं उत्साह तथा निष्ठा एवं विश्वास झलक रहा था जोकि बैंक कर्मचारी आन्दोलन का ट्रेडमार्क है। वे राज्यवार अपने-अपने संगठनों के बैनर के पीछे कतारबद्ध होकर संसद की ओर कूच के लिए तैयार हो रहे थे। वे देश के कोने-कोने से और सभी राज्यों से आये थे। देश के सुदूर पूर्व - इंफाल एवं गंगटोक से लेकर पश्चिम - राजकोट एवं जामनगर तक तथा उत्तर में कश्मीर की पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक का वे वास्तविक प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जुलूस में अंशकालिक सफाईकर्मी, चपरासी, लिपिक एवं अधिकारी सभी एक दूसरे के कंधे से कंधा मिला कर गगनभेदी नारे लगाते हुए रामलीला ग्राउन्ड से कूच किए। जुलूस में ऐसे प्रदर्शनकारी भी थे जिन्हें दिखाई नहीं देता लेकिन संगठन के आह्वान पर तमाम दुश्वारियों को झेलते हुए वे दिल्ली पहुंचे थे। जुलूस का पहला हिस्सा जब सभा स्थल पार्लियामेन्ट स्ट्रीट पर दाखिल हो चुका था, उस समय उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली के साथी रामलीला ग्राउन्ड पर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जुलूस से विशालकाय दृश्य से ही दिल्ली पहुंचे प्रदर्शनकारियों की संख्या का पता चलता है।
संसद मार्ग पहुंच कर जुलूस आम सभा में परिवर्तित हो गया। आमसभा को बैंक कर्मचारियों के नेताओं के अलावा सम्बोधित करने वालों में प्रमुख थे - भाकपा के उप महासचिव का. सुधाकर रेधी, भाकपा के राष्ट्रीय सचिव का. गुरूदास दासगुप्ता, का. डी. राजा तथा का. अमरजीत कौर, भाकपा के राज्य सभा सांसद का. आर.सी. सिंह, डब्लूएफटीयू के उप महासचिव का. एस. महादेवन, एटक के एचिवगण का. जी.एल.धर एवं का. डी.एल. सचदेवा एवं उपाध्यक्ष का. एस.एस.त्यागराजन, इंटक के अध्यक्ष डा. संजीव रेधी, माकपा नेता का. सीता राम येचुरी तथा बासुदेव आचार्य, बीएमएस के उपाध्यक्ष सुब्बाराॅव, सीटू के सचिव का. तपन सेन, एआईयूटीयूसी के महासचिव आर.के.शर्मा, टीयूसीसी के महासचिव एस.पी.तिवारी आदि। वक्ताओं ने एआईबीईए और एआईबीओए के नेतृत्व एवं सदस्यों को बैंकों के राष्ट्रीयकरण की रक्षा के लिए संघर्ष करने के लिए बधाई दी और सहयोग का वायदा किया।

सायंकाल एक प्रतिनिधिमंडल वित्तमंत्री से मिला और उन्हें एक ज्ञापन दिया। इस मुलाकात के दौरान भाकपा के सचिव का. गुरूदास दासगुप्ता एवं का. डी. राजा भी मौजूद थे। प्रतिनिधि मंडल में का. सी.एच.वेंकटाचलम, का. राजेन नागर, का. आलोक खरे, का. एस. नागराजन, का. विश्वास उतंगी तथा का. पी. बालाकृष्णन शामिल थे। प्रतिनिधि मंडल ने सरकार द्वारा चलाये जा रहे तथाकथित बैंकिंग रिफार्म के कदमों के खिलाफ अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया तथा इन प्रतिगामी कदमों को वापस लेने की जोरदार मांग की।
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बुधवार, 16 दिसंबर 2009

हर जोर जुल्म की टक्कर में (शंकर शैलेन्द्र)

हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
संघर्ष हमारा नारा है

तुमने मांगें ठुकराई हैं तुमने तोड़ा है हर वादा
छीना हमसे सस्ता अनाज तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है तो हमने भी ललकारा है

मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है
इन बनियों-चोर-लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है
बगलें मत झांको दो जवाब क्या यही स्वराज तुम्हारा है!

मत समझो हमको याद नहीं वो जून छियालीस की रातें
जब काले गोरे बनियों में चलती थीं सौदे की बातें
रह गई गुलामी बरक़रार हम समझे अब झुटकारा है।

क्या धमकी देते हो साहब दम दांती में क्या रक्खा है
यह वार तुम्हारे अग्रज अंग्रेजो ने भी तो चक्खा है,
दहला था सारा साम्राज्य जो तुमको इतना प्यारा है।

समझौता? कैसा समझौता हमला तो तुमने बोला है
महँगी ने हमें निगलने को दानव जैसा मुंह खोला है,
हम मौत के जबड़े तोड़ेंगे एका अधिकार हमारा है!

अब संभलें समझौतापरस्त घुत्नातेकू ढुलमुल यकीन
हम सब समझौतेबाजों को अब अलग करेंगे बीन बीन
जो रोकेंगा वह जायेगा, यह वह तूफानी धारा है।

हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

अल्पशंख्यकों के मध्य काम करने वाले भाकपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते भाकपा राज्य सचिव डॉक्टर गिरीश




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शनिवार, 12 दिसंबर 2009

महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के समर्थन में एकजुट हों!

{देश की नारियां अभी भी अपने लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए अब तक संघर्ष कर रहीं हैं। इस मुद्दे पर महिला-विरोधी ताकतें अपने निहित स्वार्थो के चलते तमाम तरीकों से शंकायें और भ्रान्तियां पैदा करने के प्रयास किया करती हैं। सन 1996 के अंतिम दिनों में इस आन्दोलन की हमारी दिवंगत पुरोधा कामरेड गीता मुखर्जी ने एक पैम्पलेट अंग्रेजी में लिखा था जिसमें उन्होंने आरक्षण के मार्ग में अवरोधों को स्पष्ट करते हुए शंकाओं और भ्रान्तियों के श्रोत और कारणों को स्पष्ट किया था। हम उस पैम्पलेट का हिन्दी भावानुवाद अपने पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए प्रकाशित करते हुए आशा करते हैं कि हमारे साथी उससे लाभान्वित होंगे। पाठकों से हमारा निवेदन है कि वे इसके अध्ययन के समय तिथियों आदि के बारे में भ्रमित न हों क्यांेकि इसे लगभग 15 साल पहले लिखा गया है। इस आलेख को अद्यतन करते हुए पाठन का अनुरोध किया जाता है। - कार्यकारी सम्पादक}
वर्तमान संसद के प्रथम सत्र में संयुक्त मोर्चा सरकार ने संविधान संशोधन (81वां) संशोधन विधेयक 1996 प्रस्तुत किया। यह वह विधेयक है जिसके जरिये लोक सभा और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का प्रस्ताव है। लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणा पत्रों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के वायदों के चलते इस विधेयक का पास होना लगभग तय माना जा रहा था।
राज्य सभा में महिला सदस्यों ने प्रधान मंत्री पर इस विधेयक को उसी दिवस पास करवाने के लिए दवाब डाला और प्रधान मंत्री इसके लिए राजी हो गये।
लेकिन जब लोक सभा में विधेयक पर चर्चा शुरू हुई और प्रधान मंत्री वहां पहुंचे यह पाया गया कि स्थितियां वैसी आसान नहीं थीं जैसाकि सोचा गया था। वामपंथी दलों की ओर से, भाकपा से मेरे द्वारा, माकपा से का. सोम नाथ चटर्जी, आरएसपी से का. प्रमाथेश मुखर्जी और फारवर्ड ब्लाक से का. चित्त बसु ने विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग की और इन पार्टियों में कोई विरोध के स्वर नहीं थे। परन्तु अन्य दलों के तमाम वक्ताओं ने तमाम ऐसे बिन्दुओं को उठाया जिससे यह स्पष्ट था कि इस पर कोई एकमत नहीं है।
भाजपा के वक्ताओं में से जहां सुषमा स्वराज ने बिल का समर्थन करते हुए उसी दिवस उसे पास करने की मांग की तो उमा भारती ने अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए आरक्षण का मामला उठाया। कांग्रेस की गिरजा व्यास ने जहां विधेयक का समर्थन किया तो नागालैण्ड से इस पार्टी के सांसद ने चाहा कि इस विधेयक के प्राविधानों को नागालैण्ड विधान सभा पर न लागू किया जाये क्योंकि उनकी राय में साक्षरता की दर बहुत अधिक होने के बावजूद राज्य की महिलायें राजनीति में आने की इच्छुक नहीं हैं। समता पार्टी के नितीश कुमार ने इसी विधेयक में पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण के प्राविधान करने की मांग आक्रामक तरीके से उठाई। इसलिए यह साफ हो गया कि विधेयक उस दिन पास नहीं हो सकेगा और प्रधानमंत्री ने प्रस्ताव किया कि विधेयक को संयुक्त प्रवर समिति को सिपुर्द कर दिया जाये।
संयुक्त प्रवर समितियां लोक सभा और राज्य सभा दोनों के सदस्यों से बनती हैं और जन भावना और समिति के सदस्यों की भावना पर विचार कर अपनी राय संसद के दोनों सदनों को देती हैं। रिपोर्ट में समिति की राय, सिफारिश और संशोधन शामिल होते हैं। सामान्यतः संयुक्त प्रवर समितियां अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देने में महीनों का समय लेती हैं। जहां तक इस संयुक्त प्रवर समिति का सवाल है, मैंने इसके कार्य को समयबद्ध तरीके से समाप्त होने की बात उठाई और लोक सभाध्यक्ष इसके लिए राजी हो गये तथा उन्होंने घोषणा की कि समिति द्वारा संसद में अगले सत्र के प्रथम सप्ताह के अंतिम दिवस तक रिपोर्ट को पेश कर दिया जायेगा।
इस विधेयक को पेश करने की सम्भावनाओं और वास्तव में विधेयक को पेश करने से पूरे देश की महिलाओं में जबरदस्त उत्साह का संचार हुआ था। संसद शुरू होने के दिन सात महिला संगठनों - नेशनल फेडरेशन आॅफ इंडियन वीमेन, आल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन, महिला दक्षता समिति, सेन्टर फाॅर वीमेन्स डेवलपमेन्ट स्टडीज, आल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस, यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन तथा ज्वांइट वीमेन्स प्रोग्राम ने संसद के बाहर एक बड़ी रैली की जिसमें पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाम, पूर्वोत्तर राज्यों और दिल्ली की हजारों महिलायें प्ले कार्डो और बैनरों के साथ शामिल हुयीं।
विधेयक पेश होने के बाद विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग करते हुए ज्ञापनों पर लाखों हस्ताक्षर इकट्ठा होने लगे। न केवल संगठित महिला आन्दोलन बल्कि असंगठित महिलाओं ने भी अभूतपूर्व तरीके से प्रतिक्रिया दी। उदाहरण के लिए संयुक्त प्रवर समिति की अध्यक्षा के नाते मुझे खून से लिखे ऐसे हजारों पोस्टकार्ड मिले जिसमें विधेयक को उसी सत्र यानी जिस सत्र में उसे पेश किया गया था, उसी सत्र में पास करने की मांग की गयी थी।
एक पुरानी महिला कार्यकर्ता होने के नाते मैंने तमाम तरह के शक्तिशाली आन्दोलन देखे थे परन्तु मुझे कहना ही चाहिए कि मैंने अपने जीवन में कभी भी समाज के तमाम तबकों की महिलाओं द्वारा रक्त से लिखे गये इतने अधिक पोस्ट कार्ड नहीं देखे थे। मैं इसे इस उद्देश्य से लिख रहीं हूं जिससे आगामी बजट सत्र के पहले अपना दिमाग बनाते समय सभी सांसद इस मुद्दे पर विशेषकर महिलाओं में विद्यमान परिस्थितियों को दिमाग में रखें।
महिला आरक्षण नई मांग नहीं है !
इस तथ्य को नोट किया जाना चाहिए कि हालांकि पिछले चुनाव (1996 चुनाव) के पहले लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने चुनाव घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए आरक्षण का वायदा किया था, परन्तु महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रश्न पर विचार बहुत पहले ही शुरू हो चुका था।
भारतीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) की महाराष्ट्र राज्य कार्यकारिणी एवं परिषद ने सितम्बर 1991 में अपने नागपुर सत्र में एक प्रस्ताव पास करते हुए सभी निर्वाचित सदनों - पंचायतों, नगर पालिकों, विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी।
जो लोग यह सोचते हैं कि महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण उन्हें एक ऐसी सहूलियत देना होगा जिसके वे योग्य नहीं हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष (1975) की पूर्व बेला पर डा. फूलरेणू गुहा की अध्यक्षता में गठित स्टेट्स आॅफ वीमेन कमीशन के सामने उपरोक्त वर्णित सभी महिला संगठनों ने महिलाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ अपना विचार रखा था। उन्होंने सोचा था कि राजनीतिक दल और अधिक महिला उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करेंगे और संसद में महिलाओं की संख्या में इजाफा होगा।
परन्तु कठिन वास्तविकताओं के चलते उन्हें अपनी राय में बदलाव लाना पड़ा। यह पाया गया कि 1977-80 के मध्य लोक सभा में महिलायें केवल 3.4 प्रतिशत थीं और आजादी के पचास सालों में कभी भी यह संख्या 10 प्रतिशत के भी आस-पास नहीं पहुंच सकी जैसाकि नीचे की तालिका से स्पष्ट होता है।
इसलिए आबादी के आधे हिस्से यानी महिलाओं के साथ न्याय करने के लिए सीटों का आरक्षण ही एकमात्र तरीका है।
जो लोग ऐसा सोचते हैं कि लोक सभा और विधान सभाओं की एक तिहाई सीटों के लिए योग्य महिला उम्मीदवारों की निहायत कमी होगी, उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि आजादी के बाद पहले चुनाव में लोक सभा में केवल 22 महिला सांसद थीं जोकि कुल संख्या का केवल 4.4 प्रतिशत है। क्या आजादी की लड़ाई में योग्य महिलाओं की कमी थी? हर व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि आजादी की लड़ाई में कई उत्कृष्ट महिला नेत्रियों ने हिस्सा लिया था। इसके बावजूद राजनीतिक दलों ने उन्हें उम्मीदवार बनाना जरूरी नहीं समझा। इसलिए आरक्षण के प्रश्न को तो कभी पहले उठाया जाना चाहिए था। यदि इसे समय पर कर दिया गया होता और आज की परिस्थितियां बहुत ही बदली हुयी होतीं तो सम्भव है कि आरक्षण की आज जरूरत नहीं होती और समानता के लिए महिलाओं की आवाज बहुत ही प्रभावी होती।
पूर्व की गल्तियों को सुधारने की जरूरत
सन 1857 के शुरूआती क्षणों से वर्ष 1947 में ब्रिटिश शासकों से सत्ता हस्तांतरण तक चली आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। स्वतंत्र भारत के संविधान में महिलाओं के लिए पुरूषों के साथ समानता और लिंग सहित किसी भी आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित कर महिलाओं के इसी महती योगदान को मान्यता दी गयी थी।
वैसे हजारों साल पुराने रीति रिवाजों के कारण अधिकतर महिलायें शिक्षा और सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार से वंचित रखी गयीं और उन्हें घर की चहरदीवारों के अंदर के कामकाज करने के लिए कैद रखा गया। परिवार और समाज में उनके स्तर को ऊंचा बनाने के लिए कुछ कानून पास तो जरूर किये गये परन्तु वास्तविकता में वे कागजों पर बने रहे।
सरकार और राजनीतिक दलों दोनों ने महिलाओं की समस्या को सामाजिक समानता कायम करने के बजाय समाज-कल्याण के नजरिये से देखा और तमाम महिला संगठनों से अपनी गतिविधियों को समाज कल्याण तक ही सीमित रखा।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और उसके बाद में दस वर्ष सन 1976 से 1985 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक घोषित करने के फलस्वरूप महिला कल्याण की अवधारणा को महिला विकास के दृष्टिकोण में बदल दिया। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और महिला दशक की केन्द्रीय विषयवस्तु थी - ”समानता-विकास-शान्ति“।
सन 1948 में मानवाधिकारों पर भूमण्डलीय घोषणा-पत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वयं को नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र, राजनैतिक और अन्य विचारों, राष्ट्रीय या सामाजिक उत्पत्ति, सम्पत्ति, जन्म और अन्य आधारों पर विभेद के खिलाफ घोषित किया था। वैसे सदस्य राष्ट्रों ने उपरोक्त आधारों पर भेदभाव जारी रखा। इनमें से महिलाओं के खिलाफ भेदभाव धर्म, इतिहास और संस्कृति को आधार बना कर सबसे अधिक और सम्भवतः वैश्विक फैलाव लिए रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक की घोषणा को पूर्व में की गयी गल्तियों को सुधारने के लिए की जा रही अंतर्राष्ट्रीय शुरूआत बताया था।
पिछले दो दशकों के दौरान सन 1975 में मेक्सिको, 1980 में कोपेनहागन, 1985 में नैरोबी और 1995 में बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों में लिये गये निर्णयों के जरिये ये प्रयास जारी रहे। हर सम्मेलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ हजारों गैर सरकारी प्रतिनिधियों का विश्व फोरम और उसके पहले तैयारियों के सिलसिले में सभी महाद्वीपों में अनगिनत राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विचार गोष्ठियों और बहसों से करोड़ों-करोड़ महिलाओं को अपनी वास्तविक स्थिति के आकलन और अपने अधिकारों को समझने में जहां मदद मिली वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला दशक के घोषित उद्देश्यों को समर्पित तमाम महिला संगठनों और ग्रुपों ने जन्म लिया।
18 दिसम्बर 1979 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के तमाम तरीकों की समाप्ति पर एक अंतर्राष्ट्रीय परम्परा (कन्वेंशन) ;प्दजमतदंजपवदंस ब्वदअमदजपवद वित म्सपउपदंजपवद व ि।सस थ्वतउे व िक्पेबतपउपदंजपवद ंहंपदेज ॅवउमद . ब्म्क्।ॅद्ध अंगीकृत किया जिसे भारत सहित संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के बहुमत ने स्वीकार कर लिया है। यह परम्परा भी इसे पृष्ठांकित करने वाले सभी राष्ट्रों पर अन्य सभी अंतर्राष्ट्रीय परम्पराओं और संधियों जैसे ही बाध्य अंतर्राष्ट्रीय कानून के सदृश है।
सन 1985 में नैरोबी सम्मेलन द्वारा ”वर्ष 2000 तक महिलाओं के विकास के लिए रणनीति की ओर आगे बढ़ने“ की घोषणा अंगीकृत करने के फलस्वरूप प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने महिलाओं के लिए सापेक्ष योजना की घोषणा द्वारा महिला विकास हेतु नीतिगत दिशा तय करते हुए एक नए प्रशासकीय ढ़ांचे को स्थापित किया।
नैरोबी सम्मेलन के एक दशक के बाद सितम्बर 1995 में सम्पन्न बीजिंग सम्मेलन का उद्देश्य आगे बढ़ने की रणनीति के वैश्विक स्तर पर परिणामों का मूल्यांकन करने और नैरोबी तथा सन 1979 में अंगीकृत संयुक्त राष्ट्र संघ परम्परा द्वारा घोषित लक्ष्यों के रास्ते में आ रहे अवरोधों को हटाने में वर्तमान शताब्दी के बाकी वर्षो (1996-2000) का किस प्रकार उपयोग किया जाये इसका निर्धारण करना था।
बीजिंग में पहले से अधिक जागरूक, संगठित और एकताबद्ध महिला प्रतिनिधि इस बात पर दवाब बनाने में सफल रहे कि महिलाओं को हर स्तर पर अपने से संबंधित सभी मसलों पर निर्णय की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए चाहे वह मामला उनकी जिन्दगी से जुड़ा राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय मामला हो, पारिवारिक जीवन हो, उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का मामला हो, उनके स्वयं के निकायों का मामला हो, प्रजनन में उनकी भूमिका और कामुकता का मसला हो।
सन 1975 में लक्ष्य कल्याण से विकास तक पहंुचा तो सन 1995 में बीजिंग में लक्ष्य और आगे बढ़ कर ”महिला सशक्तीकरण“ के नारे तक जा पहुंचा।
बीजिंग में भारत सरकार के प्रतिनिधियों ने पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर देने की बात को बता कर खूब प्रशंसा लूटी। बीजिंग में अंगीकृत सिफारिशों में लोक सभा और विधान सभाओं में ऐसे आरक्षण की बात शामिल की गयी। भारत सरकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए वचनबद्ध है।
दूसरी ओर पूरे विश्व के अन्य हिस्सों की महिलाओं की भांति ही तमाम अवरोधों और परेशानियों के बावजूद भारत की महिलाओं ने पिछले पचास वर्षो में शिक्षा, कार्य अनुभवों और गरीबी एवं अशिक्षा के गम्भीर दुःखद स्थितियों से अपने परिवार और अपने बच्चों की रक्षा के लिए और स्वयं अपने जीवन एवं आजीविका (लिवलीहुड) की रक्षा के संघर्षो में भागीदारी द्वारा एक लम्बा सफर तय किया है। कई राज्यों के पिछले चुनावों ने यह दिखा दिया है कि महिलायें एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं जिन्हें राजनीतिक दल उपेक्षित नहीं कर सकते।
इससे स्पष्ट है कि क्यों राजनीतिक दल आकस्मात जग गये और महिलाओं की राजनीति में सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देने लगे तथा क्यों सभी राजनीतिक दल सन 1996 के चुनावों के अपने घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान सभाओं में एक तिहाई आरक्षण का वायदा करने लगे।
इससे यह कारण भी स्पष्ट होता है कि संविधान (81वां) संशोधन विधेयक ने पूरे भारत में क्यों महिलाओं के मध्य उत्तेजना उत्पन्न कर दी।
मूल बिल और संयुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट
आइये देखते हैं संसद में पेश मूल विधेयक क्या था, किन संशोधनों को संयुक्त प्रवर समिति ने स्वीकार किया और किन्हें रद्द कर दिया और संयुक्त प्रवर समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में क्या सिफारिशें की गयीं थीं।
भारत सरकार द्वारा संसद में रखे गये मूल विधेयक में निम्न प्राविधान थे:
(1) लोक सभा एवं विधान सभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई से कम नहीं आरक्षित की जायेंगी जिनमें से अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं के लिए उसी अनुपात में आरक्षित होंगी जिस अनुपात में संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण उपलब्ध है।
(2) जिन राज्यों में लोक सभा की तीन से कम सीटें हैं, वहां आरक्षण नहीं होगा।
मूल बिल में राज्य सभा और विधान परिषदों का जिक्र नहीं था। इसमें केन्द्र शासित राज्यों का भी जिक्र नहीं था।
संयुक्त प्रवर समिति ने अपने सदस्यों द्वारा प्रस्तुत तमाम संशोधनों को स्वीकार किया। विधेयक में शामिल किये गये संशोधन इस प्रकार थे:
(1) ”एक तिहाई से कम नहीं“ को ”यथासम्भव एक तिहाई के निकट“ से संशेाधित किया जाये। कारण यह कि ”एक तिहाई से कम नहीं“ का अर्थ एक तिहाई से अधिक निकाला जा सकता है जोकि मूल विधेयक का उद्देश्य नहीं था।
(2) जिन राज्यों में तीन से कम संसदीय क्षेत्र हैं, उनमें आरक्षण न देने के मुद्दे पर समिति ने महसूस किया कि यह प्राविधान भेदभावपूर्ण होगा। इसलिए समिति ने सुझाव दिया कि पन्द्रह वर्षो की कुल अवधि यानी तीन आम चुनावों को एक साथ रखा जाये। ऐसे राज्यों में आरक्षण का निर्धारण करते समय जहां दो संसदीय सीटें हैं वहां पहले चुनाव में एक सीट आरक्षित और दूसरी अनारक्षित रखी जाये, दूसरे चुनाव में पहली सीट अनारक्षित और दूसरी आरक्षित रखी जाये और तीसरे चुनाव में दोनों सीटे अनारक्षित कर दी जायें। जिन राज्यों में एक ही सीट है, इसी सिद्धान्त को लागू करते हुए तीन चुनावों में केवल एक बार सीट को आरक्षित रखा जाये। इस प्रकार एक तिहाई आरक्षण का सिद्धान्त लागू किया जा सकता है।
समिति ने एक संशोधन स्वीकार किया कि केन्द्र शासित क्षेत्र दिल्ली में आरक्षण रहना चाहिए। संबंधित कानूनों में आवश्यक संशोधन किया जाये जिससे इसे पांडीचेरी में भी लागू किया जा सके।
आरक्षित क्षेत्रों का निर्धारण कैसे होगा, इस पर संयुक्त प्रवर समिति ने कोई सिफारिश नहीं की और इस कार्य को सरकार और चुनाव आयोग द्वारा नियत करने के लिए छोड़ दिया।
जिन संशोधनों को समिति द्वारा स्वीकार नहीं किया गया, वे थे - अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण। इस संशोधन को इन सदस्यों द्वारा अलग-अलग पेश किया गया था - समता पार्टी के नितीश कुमार, जनता दल के राम कृपाल यादव तथा डीएमके के पी.एन. सिवा। समिति ने यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान में किसी भी स्तर पर अन्य पिछड़े दलों के लिए किसी भी निर्वाचित सदन में आरक्षण का प्राविधान न होने के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। वैसे समिति ने अपनी सिफारिशों में यह सिफारिश की थी कि सरकार इस मुद्दे पर उचित समय पर विचार करे जिससे अगर इस तरह का संविधान संशोधन किसी भी समय संसद द्वारा पारित किया जाये तो अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं को भी आरक्षण का लाभ मिल सके।
समिति ने कुछ और सिफारिशे भी की थीं जैसे राज्य सभा और विधान परिषदों में भी महिलाओं के आरक्षण करने के लिए सरकार किसी रास्ते को निकालने का प्रयास करे।
समिति ने विधेयक को बिना देरी किये पारित करने की बहुत स्पष्ट सिफारिश की थी। समिति की रिपोर्ट लोक सभा में 9 दिसम्बर 1996 को रख दी गयी थी जिससे सरकार और संसद दोनों को रिपोर्ट पर विचार करने और एजेन्डे में विधेयक को पास करने के लिए शामिल करने को 15 दिनों का पूरा समय था। संसद 20 दिसम्बर को स्थगित की गयी।
दुर्भाग्य से संसद के पुरूष सदस्यों के भयंकर दवाब के कारण 20 दिसम्बर तक सरकार ने कुछ नहीं किया और उसके कारण पूरा मुद्दा अभी तक लटका पड़ा है।
आपत्तियां हैं क्या?
आइये, अब विधेयक को पास न होने देने के लिए दिए जा रहे तर्को के गुण-दोषों की छानबीन करते हैं।
पहला, अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा लेते हैं। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो इस बात की मांग कर रहे हैं, उनमें से किसी ने अन्य पिछड़ी जातियों के पुरूषों और महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग अब तक क्यों नहीं की और संविधान में आवश्यक संशोधन के लिए कोई निजी बिल पेश क्यों नहीं किया गया? मंडल आयोग की रिपोर्ट को पूरे देश में नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए अंगीकृत करते समय ऐसा क्यों नहीं किया गया था? पंचायतों में विभिन्न स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था करने वाले संविधान संशोधन विधेयक पर विचार के समय अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए भी आरक्षण के लिए कोई संशोधन क्यों नहीं प्रस्तावित किया गया था? इन तथ्यों से यह शंका पैदा होती है कि पुरूष सांसद अपनी सीटों के महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाने के भय से इस विधेयक को पास होने से रोकने के लिए यह दलीलें दे रहे हैं और यह शंका अन्यायोचित भी नहीं है।
अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ सद्भावना रखने के लिए इस विधेयक के इसी रूप में पास हो जाने पर अन्य पिछड़ी जातियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं को खड़ा किया जा सकता है। इसके लिए तैयारी क्यों न की जाये?
दूसरे, कुछ लोग कहते हैं कि महिलाओं को सुरक्षा और अधिकार देने वाले तमाम कानून बने हैं। उन कानूनों को लागू करने के लिए पहले संघर्ष करना चाहिए और उसके पहले महिलायें संसद और विधान मंडलों में क्यों जाना चाहती हैं? स्पष्ट रूप से महिलायें पर्याप्त संख्या में संसद और विधान मंडलों में इसलिए जाना चाहती है जिससे कागजों पर बने उन कानूनों को लागू करने के लिए जोरदार आवाज उठाने का मौका पा सकें।
तीसरे, कुछ लोग कहते हैं कि पंचायतों में आरक्षण दूसरी बात थी क्योंकि पंचायतें उनके घरों के पास हैं परन्तु संसद और विधान मंडलों में जाने के लिए उन्हें अपने घरों से दूर रहना होगा जिससे परेशानियां पैदा होंगी। बहुत खूब! पूरे देश में महिलाओं की कुल संख्या और संसद एवं विधान सभाओं में जाने वाली महिलाओं की कुल संख्या से तुलना कीजिए - क्या यह अत्यंत सूक्ष्म नहीं होगी? क्या यह सत्य नहीं है कि अपने रोजगार के लिए घरों से दूर जाने वाली महिलाओं की तादाद इस संख्या से कहीं बहुत ज्यादा है।
चैथे, कुछ लोगों का कहना है कि महिलायें अभी इस लायक नहीं बनी हैं कि वे इतनी बड़ी संख्या में सांसद के कर्तव्य निभा सकें। इस कारण संसद और विधान मंडलों में एक तिहाई संख्या में महिलाओं के आगमन से लोक सभा और विधान सभाओं का कार्य निष्पादन की गुणवत्ता घट जायेगी। माफ कीजिएगा, वर्तमान लोक सभा में 7 प्रतिशत ही महिला सदस्य हैं, 93 प्रतिशत पुरूष सदस्यों वाली वर्तमान लोक सभा के कार्य निष्पादन का क्या स्तर है?
लोक सभा के अन्दर से अथवा टेलीविजन के माध्यम से लोक सभा की कार्यवाही देखने वालों से उनकी राय पूछिये - जवाब ऐसा मिलेगा कि कोई भी लज्जित हो जाये। दूसरी ओर, इन सदनों में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति से सम्भव है कि लोगों के व्यवहार और कार्य निष्पादन में व्यापक सुधार आ जाये।
पांचवे, समाचार पत्रों में लेखों द्वारा तथा ज्ञापनों द्वारा खड़ा किया गया एक सवाल है कि हर चुनाव के बाद चक्रानुक्रम से चाहे वह लाटों में किया जाये या किसी और तरह से निर्वाचित सदस्यों में अपने क्षेत्रों की देख-रेख के लिए जरूरी जोश नहीं होगा क्योंकि अगली बार उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने का अवसर उसे नहीं होगा। इसे सुलझाने के लिए कुछ लोगों ने यह सुझाव दिया कि तीन क्षेत्रों को एक में मिला दिया जाये और उसमें से तीन सदस्य चुने जायें। इनमें से एक को अवश्य ही महिला होना चाहिए। प्रत्याशियों में से सबसे अधिक मत पाने वाले दो पुरूष उम्मीदवार और महिला उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत पाने वाली उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया जाये।
विभिन्न दृष्टिकोणों से यह एक अजनबी मुद्दा है। पहला, निर्वाचित होने वाले सदस्य का दायित्व है कि वह अपने क्षेत्र की देख-रेख करे। यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि दूसरी बार निर्वाचित होने के लिए क्षेत्र की देख-रेख की जाये। किसी क्षेत्र पर किसी भी व्यक्ति का स्थाई एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
वैसे, अगर कोई भी पुरूष अथवा महिला अपने क्षेत्र की गम्भीरता से देख-रेख करता है तो उससे उसके कार्य क्षेत्र के आस-पड़ोस में ऐसी इज्जत बनती है कि वह किसी भी हैसियत में देश की सेवा बेहतर तरीके से कर सके। लोक सभा क्षेत्रों का इलाका इतना बड़ा होता है कि किसी भी व्यक्ति के लिए तीन क्षेत्रों में अपना प्रचार करना और देख-रेख का कार्य करना सम्भव नहीं है।
इसलिए ऐसे बेहूदे विचारों को रखने से बेहतर होगा कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को चुनावों में प्राप्त विजय, चाहे वह एक बार ही क्यों न हो, द्वारा प्राप्त जन-विश्वास के साथ न्याय करने के लिए प्रेरित किया जाये। इसके इलावा उम्मीदवारों के परिवर्तन द्वारा इस प्रकार के विशिष्ट कार्य में ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित करने का मौका पा सकते हैं, जो उनमें समर्पण भी भावना पैदा करेगा जो उन्हें विभिन्न आबंटित क्षेत्रों में जन-नेता बना सकता है।
और अंत में, आरक्षण के बारे में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा सामान्यतः उठाया जाने वाला सवाल - यदि इतना अधिक आरक्षण जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लिए, महिलाओं के लिए तथा उसके बाद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए, यदि अन्तोगत्वा एक अन्य संविधान संशोधन द्वारा ऐसा किया जाता है) तब इन श्रेणियों के अलावा लोगों के लिए विधान सदनों में पहुंचने के बहुत कम अवसर बचेंगे। इस प्रश्न से एक प्रति प्रश्न उठता है। आजादी के 50 सालों बाद भी लोगों के इतने बड़े तबके के मध्य पिछड़ापन क्यों व्याप्त है? क्या यह उचित है?
इसके अलावा उदाहरणार्थ, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण ही लेते हैं। संयुक्त प्रवर समिति ने सिफारिश की कि पन्द्रह वर्षो तक आरक्षण रहने के बाद, इसका पूनर्मूल्यांकन किया जाये और उस वक्त जैसी भी परिस्थितियां हो, आरक्षण को समाप्त कर दिया जाये या जारी रखा जाये।
सामाजिक न्याय और समानता सुनिश्चित करो!
इसलिए, अगर सामाजिक न्याय और समानता के लिए पूरा समाज संघर्ष करता है, और लगातार प्रयासों से पिछड़े तबकों को आगे लाया जा सकता है, आरक्षण के प्रश्न को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के मामले में पचास वर्षो के बाद संविधान में पूनर्मूल्यांकन का प्राविधान है। यह पचास साल पूरे हो रहे हैं, क्या हम ईमानदारी से उनके पिछड़ेपन के उन्मूलन का दावा कर सकते हैं? यदि नहीं तो क्यों? इसलिए इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय हेतु वृृहद प्रभावी संघर्ष की जरूरत है जिससे एक वक्त सभी नागरिकों के मध्य मोटा-मोटी समानता स्थापित हो सके। यही एकमात्र सबके लिए बराबर अवसर मुहैया करा सकने का रास्ता है।
फरवरी 1997 में संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है, पूरे देश की महिलायें और महिला संगठन बेसब्री से देखेंगी कि आरक्षण विधेयक पर क्या होता है? इस बीच वे चुप नहीं बैठेंगी। वे अपने को संगठित करेंगी, वे विधान सभाओं और लोक सभा के सभी वर्तमान सदस्यों से सम्पर्क कर उनसे पूछेंगी कि क्या वे विधेयक का समर्थन करने जा रहें हैं? वे सरकार पर विधेयक को एजेन्डे में शामिल करने के लिए दवाब बनायेंगी। यदि वे पाती हैं कि सरकार लोक सभा और राज्य सभा में विधेयक प्रस्तुत करती है और वह इसलिए पास नहीं होता क्योंकि कुल सदस्य संख्या के आधे सांसद अनुपस्थित हो जाते हैं अथवा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्य वोट नहीं देते तो ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार सांसदों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अगले चुनावों में वे खड़े होते हैं तो महिलायें उन्हें वोट नहीं देंगी।
हम ऐसे सदस्यों से अनुरोध करते हैं कि वे गंभीरता से देखे कि क्या यह बेहतर होगा कि उनकी कुछ सीटें महिलाओं को चली जायें न कि अगले चुनाव में वे बुरी तरह पराजित हों। हमें आशा करनी चाहिए कि अच्छी समझदारी व्याप्त होगी

(स्व. का. गीता मुखर्जी) ईन्डिया.org
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भाकपा द्वारा पार्टी संगठन पर कार्यशाला का सफल आयोजन

लखनऊ: राज्य संगठन विभाग की अनुशंसा पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य कार्यालय पर 11 अक्टूबर को पार्टी संगठन पर एक कार्यशाला का सफल आयोजन किया गया। कार्यशाला दो सत्रों में सम्पन्न हुई। कार्यशाला में राज्य कार्यकारिणी के अधिसंख्यक सदस्य तथा अधिकतर जिलों के सचिव शामिल हुए।
कार्यशाला के प्रथम सत्र में विषय था ”पार्टी संगठन“ जिस पर व्याख्यान देने आये थे भाकपा के राष्ट्रीय सचिव तथा पूर्व सांसद का. सी.के. चन्द्रप्पन।
का. चन्द्रप्पन ने एक लम्बे अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश में आने और काफी पुराने साथियों से मुलाकात पर अपनी प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा कि पार्टी के हैदराबाद महाधिवेशन ने एक बार फिर हिन्दी भाषी प्रदेशों में पार्टी संगठन को मजबूत करने का संकल्प दोहराया था। का. चन्द्रप्पन ने कहा कि जब हम हिन्दी भाषी प्रदेशों में पार्टी संगठन की बात करते हैं तो हमारे लिए उत्तर प्रदेश का विशेष महत्व होता है जिसके अपने कारण है। पहला, तो उत्तर प्रदेश लोकसभा की कुल ताकत का सातवां हिस्सा यानी 80 सांसद चुनता है। अगर यहां पार्टी नहीं है, तो यह एक कमजोरी है जिससे पार्टी को सरोकार है। दूसरा कारण उत्तर प्रदेश की पाटी्र का गौरवशाली इतिहास और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को विस्तार देने में यहां के नेताओं का योगदान है।
का.चन्द्रप्पन ने कहा कि इस कार्यशाला में राजनैतिक परिस्थितियों पर बोला नहीं जा सकता है। आप सबने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी के प्रस्ताव और समीक्षा रिपोर्ट पढ़ी होगी। पार्टी ने जन संगठनों को संगठित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि आप सब सांगठनिक एवम् राजनैतिक लक्ष्यों को अपने कार्यों से जोड़े। बिना राजनीति के आप सुसंगत संगठन का निर्माण नहीं कर सकते। कम्युनिस्ट आन्दोलन के शुरूआती दौर में कामरेड लेनिन ने सिद्धान्त को व्यवहार से मिलाया। पार्टी को समाज बदलने का हथियार बनाने हेतु उन्होंने पार्टी को पेशेवर क्रान्तिकारियों का संगठन बनाने पर जोर दिया ताकि क्रान्ति की जा सके। इसके मलतब हमें समझने चाहिए। उन्होने माक्र्स की इस उक्ति को भी इस सन्दर्भ में उद्घृत किया कि समाज की अपनी व्याख्यायें करने वाले दार्शनिक इतिहास में पाए जाते हैं, कम्युनिस्टों को और व्याख्यायें करने के बजाय समाज को बदलना होगा।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि अब हम भारतीय सन्दर्भ में आते हैं। हमें भारत में विद्यमान परिस्थितियो के आधार पर काम करना होगा। अब तक हमें बड़ी कामयाबियां अगर मिली हैं तो असफलताएं भी मिली हैं। हमें दोनेां से अपनी दिशा तय करनी होगी। एक कम्युनिस्ट को देशभक्त, क्रान्तिकारी और ईमानदार होना होता है और उसको धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र की रक्षा करते हुए समाजवाद को प्राप्त करने की कोशिश करनी होती है। समाजवाद को प्राप्त करने के कई चरण होते हैं।
का. चन्द्रप्पन ने कहा विशाल इजारेदारी एवम् साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ वामपंथी एवम् जनवादी, साम्राज्याद विरोधी एवम् देशभक्त शक्तियों केे एक साझा मंच को अमली जामा पहनाने का काम कामरेड पी.सी. जोशी ने किया। वे उत्तर प्रदेश से थे। पार्टी जब छोटी सी थी, 2000 कम्युनिस्ट पूरे देश में रहे होंगे, वे पार्टी के महासचिव बने। उनकी कार्यशैली परिवर्तनकारी थी, पार्टी में चारों तरफ से दोस्तों को लाने की थी। उनके समय में तमाम बुद्धिजीवी पार्टी में आये और तमाम पार्टी के हमदर्द बनें।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि सांसद होने के वक्त एक बार हवाई जहाज में एक सहयात्री ने मुझे ”न्यू एज“ पढ़ते देख कहा कि इसका स्तर गिर गया है। वे व्यक्ति थे - एटाॅमिक एनर्जी कमीशन के उपाध्यक्ष सतीश धवन। उन्होंने बताया कि कभी वे बम्बई के क्रास रोड पार्टी दफ्तर पर पार्टी का अखबार ”पीपुल्स फ्रन्ट“ बेचते थे। तत्कालीन शिक्षा मंत्री नुरूल हसन ने भी बताया कि वे भी कभी कम्युनिस्ट थे। ”इंदिरा इन इंडिया“ कहने वाले डी.के. बरूआ भी कम्युनिस्ट थे और उन्होंने बताया था कि बनारस में का. राजेश्वर राव को उन्होंने पार्टी सदस्य बनाया था। यह दिखाता है कि उस काल में पार्टी का असर बुद्धिजीवियों पर कितना था।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि सन् 1936 में इसी लखनऊ में एआईएसएफ बनीं थी। उस सम्मेलन का उद्घाटन जवाहर लाल नेहरू ने किया था और अध्यक्षता मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी। सम्मेलन को महात्मा गांधी ने बधाई सन्देश भेजा था। इसी दौर में किसान सभा भी यहीं लखनऊ में बनीं। इसी दौर में इसी लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ बना। मुंशी प्रेमचन्द्र भी उत्तर प्रदेश के थे। कार्यशैली वृहद जन संगठनों के निर्माण की थी। एटक पहले ही बन चुकी थी। इप्टा भी बना। बलराज साहनी पार्टी के कार्यकर्ता बनें। पार्टी स्वयं सेवक के कपड़े पहन कर बम्बई में पार्टी की रक्षा की। एक बार नरगिस को बुलाया गया तो उन्होंने शिकायत की कि पार्टी उन्हें बुलाती नहीं है। उस दौर में बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, किसान, विद्यार्थी आदि तमाम तबकों को संगठित किया गया। फिर कुछ घटनाक्रम हुए। बहुत सी बातें हैं, जिन्हें कह नहीं सकता। 1948 में पार्टी पर पाबंदी लगा दी गयी। पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल भेज दिया गया।
1950 में पार्टी ने दो-ढाई सालों से चली आ रही पार्टी नीतियों में बदलाव किया। इसे कामरेड अजय घोष ने शुरू किया। वैसे तो वे बंगाली थे परन्तु वे भी उत्तर प्रदेश के थे। कानुपर के रहने वाले थे। उनकी रणनैतिक समझ एवम् कार्यों से 1957 में केरल में पार्टी सत्ता में आयी। कांग्रेस ने धारा 356 लगाकर पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। राष्ट्रव्यापी अभियान पार्टी ने चलाया। उत्तर प्रदेश की पार्टी का विशेष योगदान रहा। शारदा मित्रा एवम् बनारस में पी.के. वासुदेवन के साथ मिल कर एआईवाॅयएफ का निर्माण किया गया। उसमें उत्तर प्रदेश का सराहनीय योगदान रहा। पूरी पार्टी को उत्तर प्रदेश के इन योगदानों का गौरव है।
उन्होंने प्रतिभागियों का आह्वान किया कि वे भी अपने इस गौरवशाली इतिहास पर गर्व करें और उसी जज्बे को एक बार फिर पैदा करें।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि उत्तर प्रदेश की पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी पार्टी ब्रांचों का सजीव एवम् सक्रिय न होना है। ब्रांचें सीधे जनता से जुड़ी होती हैं। वही जनता को संगठित करती हैं, वही जनता को संघर्षों मे उतारती हैं। राष्ट्रीय केन्द्र, राज्य केन्द्र और जिला केन्द्र निगरानी का कार्य करते हैं। जनता से वे सीधे सम्पर्क में नहीं होते। जनता से उनका सम्पर्क ब्रांचों के माध्यम से ही कायम होता हैं। का. चन्द्रप्पन ने कहा कि नेतृत्व को ब्रान्चों से जुड़ना होगा।
का. चन्द्रप्पन ने सवाल किया कि पार्टी का जनाधार कैसे बढ़ाया जा सकता है? उन्होंने कहा कि किताबों को लिखने और भाषण देने से जनाधार नहीं बढ़ाया जा सकता। उन्होंने कहा कि नेतृत्व को जमीन से जुड़ना होगा। गांव में जिला कौंसिल की बैठक करें। खेत मजदूरों, विद्यार्थियों, नौजवानों, किसानों, महिलाओं को संगठित करें। उन्हें जन संगठनों से जोड़ें। पार्टी के हर सदस्य के लिए जन संगठन निर्धारित करें। पार्टी की ब्रांचों को इस तरह अगर सक्रिय और सजीव करने में सफल हो जायें तो पार्टी जीवन्त और ऊर्जावान हो जायेगी।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि पार्टी का काम मशीनी ढंग से नहीं चलाया जा सकता। क्षेत्रीय और जमीनी समस्याओं को समझना होगा और उन्हें उठाना होगा। ब्रांचों को गांव की सड़क, नहरें, ताल-तलैया, सेहत, रोजगार के सवाल उठाना होगा। उनका नेता बनना पड़ेगा। तभी लोग जानेंगे कि अमुक व्यक्ति और कम्युनिस्ट पार्टी उनके लिए काम कर रहे हैं। पंचायतों में घुसना होगा। इन समस्याओं को वहां भी उठाना होगा।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि पार्टी का जनाधार बढ़ाने का काम महत्वपूर्ण है और इसके लिए जरूरी है कि ब्रांचों का विवेकपूर्ण एवं अनुशासित तरीके से काम करना। ब्रांच मंत्री दक्षतापूर्ण व्यक्तित्व का होना चाहिए। उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए - बैठक की कार्यवाही लिखने का, प्रार्थनापत्र लिखने का, पत्र लिखने का। उन्हें अपने इलाके का नेता बनाया जाये। उनकी छवि को जनता के मध्य बनाना होगा। सुनिश्चित करना होगा कि ब्रांचों की बैठक बार-बार हो, महीने में कम से कम एक बार जरूर। पार्टी को बढ़ाने के लिए जरूरी है - जन संगठन और ब्रांचों को बनाना।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि भाकपा दूसरी पार्टियों से अलग है। कांग्रेस और भाजपा भी अपने को जनतांत्रिक होने का दावा करते हैं। उनके यहां कोई भी कुछ भी कह सकता है। लेनिन ने कहा था कि पार्टी ”एक नए प्रकार की पार्टी है।“ पार्टी जनवादी केन्द्रियता पर कार्य करती है। पार्टी में यह जनवाद है कि आप कुछ भी विचार कर सकते हैं लेकिन पार्टी कमेटी अगर कोई फैसला ले लेती है तो वह पार्टी का फैसला है। यदि मैं अल्पमत में हूं तो बहुमत का निर्णय मुझे मानना ही होगा। इस तौर-तरीके से ही पार्टी और अधिक मजबूत और एकजुट होती है। आप अपने काम में पार्टी के फैसलों का लागू करें। हमारें यहां जन संगठन हैं, पार्टी कमेटियां हैं और सबसे ऊपर पार्टी महाधिवेशन होते हैं। यह किसी दूसरी पार्टी में नहीं होता। कह दिया जाता है कि अंतिम फैसला सोनिया गांधी पर छोड़ दिया गया। हम पार्टी महाधिवेशन में ही अन्तिम फैसला करते हैं।
जन संगठन स्वतंत्र हैं। इनमें जनता के विशाल तबके आते हैं। जनता के हित में काम करते हैं लेकिन हमारे काम करने के क्या तरीके हैं? मैं किसान सभा का अध्यक्ष हूं और अतुल महामंत्री। हम कम्युनिस्ट हैं। हम एक क्रान्तिकारी पार्टी के अनुशासित सदस्य हैं। हम स्वतंत्र नहीं हैं। हमें पार्टी के फैसले पर चलना ही होगा। किसान, टेªड यूनियन, विद्यार्थी, नौजवान, खेत मजदूर विभाग राज्य कार्यकारिणी बनाती है। वहां हम विचार करते हैं कि हम जन संगठनों पर कैसे काम करेंगे। यदि समस्या हो तो राज्य कार्यकारिणी विचार करेगी। पार्टी के राज्य सचिव उस पर विचार करवायेंगे। पार्टी के निर्णयों को विभिन्न प्रकार के जन संगठनों में समझदारी पूर्ण ढंग से रखे जाने चाहिए। यही तरीका कार्य एवम् व्यवहार में उतारा जाये। उत्तर प्रदेश में विभाग गठित किए गए हैं। उनको सक्रिय किया जाये। उन्हें संचालित किया जाये। अगर विभाग संचालित होते हैं तो टकराव पैदा नहीं होगा।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि अगर किसान सभा का राष्ट्रीय अधिवेशन होता है तो पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी यह तय करेगी कि चन्द्रप्पन या अतुल रहेंगे अथवा नहीं। यह पार्टी तय करती है कि आप कहां और क्या कार्य करेंगे।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि अधिक से अधिक चुनाव लड़े जायें। चुनाव में पार्टी झंडा और निशान जाने की बात सही है लेकिन बिना बुनियादी ढांचे के इन्हें जनता के मध्य ले जाया नहीं जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि पार्टी के बुनियादी ढांचे को मजबूत करें। पार्टी की ब्रांचों को सजीव करें। हर पार्टी सदस्य को पार्टी का काम करना सिखायें। लोकसभा में आम तौर पर 14-15 लाख वोटर होते हैं। बूथों पर केवल एक एजेन्ट काम नहीं कर सकता। उसकी सहायता करने वाले भी चाहिए। उनके पास हर वोटर का शजरा होना चाहिए। यदि कोई हमदर्द परिवार वोट डालने नहीं गया तो कार्यकर्ताओं को वहां जाना चाहिए। कम-से-कम 10 साथी बाहर काम करने वाले होने चाहिए। केरल में 50 से 100 साथी एक बूथ पर काम कर करते हैं, तब जाकर वोट निकाल पाते हैं।
लोक-सभा और विधान सभा की सभी सीटें लड़ना आपके लिए अभी सम्भव नहीं है। पंचायतों पर ध्यान दीजिए। आपके यहां चुनाव होने वाले हैं। तैयारी में जुट जाइए। नेताओं की छवि आम जनता में बनाइए। लामबंदी कीजिए। उन्हें चुनाव में उतारिए। कुछ हजार पंचायतों चिन्हित करें और उनमें कुछ सौ जीत लीजिए। अपने कामों से पार्टी की छवि को विस्तार दीजिए। नगर निकायों के चुनाव आसान नहीं फिर भी अधिक से अधिक लड़े।
का. चन्द्रप्पन ने कहा कि बड़े शहरों में हम कमजोर हो गये हैं। कभी बम्बई गढ़ हुआ करता था। चेन्नई, बंगलौर, लखनऊ, कानपुर, इन्दौर आज कमजोर पड़ गये हैं। शहरीकरण बढ़ता जा रहा था। शहरों में काम करना आसान नहीं। असामाजिक तत्व बढ़ते जा रहे हैं। दत्ता सामन्त की गुन्डों ने हत्या कर दी। शहरी केन्द्र और बड़े होंगे। हमें मध्यवर्ग के मध्य पैठ बनानी होगी। शहरों में काम करना होगा।
का. चन्द्रप्पन ने पार्टी शिक्षा की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए अपनी बात समाप्त की।
दूसरे सत्र में पार्टी संगठन में काम करने के तौर-तरीकों पर चर्चा राज्य सचिव का. (डा.) गिरीश ने की। उन्होंने उत्तर प्रदेश के पार्टी संगठन में व्याप्त तमाम समस्याओं और कमजोरियों पर चर्चा करते हुए उन्हें दूर करने का आह्वान किया। उन्होंने लेवी तथा फण्ड वसूली न किए जाने तथा उसका अभिलेख न रखे जाने पर विशेष चिन्ता प्रकट की।
कार्यशाला का समापन अध्यक्ष का. विजय कुमार के द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ। कार्यशाला में का. चन्द्रप्पन के अंग्रेजी व्याख्यान का अनुवाद का. अरविन्द राज स्वरूप ने किया। कार्यशाला को भाकपा के राष्ट्रीय सचिव का. अतुल कुमार अंजान ने भी सम्बोधित किया।
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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

यमराज को भी मिलेगा नोबेल शान्ति पुरस्कार

'शान्ति के लिए युद्ध' के नारे के साथ अमेरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने दुनिया का बहुचर्चित नोबेल शान्ति पुरस्कार प्राप्त किया व्हाईट हाउस के प्रवक्ता रोबेर्ट गिब्स ने बताया कि "श्री ओबामा युद्ध के नायक के रूप में नोबेल शान्ति पुरस्कार प्राप्त किया है" नोबेल शान्ति पुरस्कार ने साम्राज्यवादी देशों के मुखिया को शान्ति पुरस्कार देकर नोबेल समिति ने अपने को भी सम्मानित किया है और अपना नकली मुखौटा उतार दिया है आने वाले दिनों में नोबेल शान्ति पुरस्कार यमराज को भी दिया जा सकता है और इस पर किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए अफगानिस्तान में शान्ति के लिए 30 हजार सैनिक भेजे जा रहे हैं ईराक में भी प्रतिदिन उनके शोषण के ख़िलाफ़ युद्ध जारी है पकिस्तान में ओबामा के तालिबानी लड़ाके पाकिस्तानी सरकार शान्ति का पाठ अपने नागरिको को पढ़ा रही है शान्ति का अर्थ अमेरिकन साम्राज्यवादियों उसकी पिट्ठू मीडिया ने बदल दिया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ साम्राज्यवादियों के हितों की पूर्ति के लिए विश्व संगठन है उसी तरह नोबेल पुरस्कार समिति साम्राज्यवादियों के हितों की रक्षा के लिए लोगों को सम्मानित पुरस्कृत किया करती है नोबेल पुरस्कार अधिकांश विवादित होते हैं और साम्राज्यवादी शक्तियां उनका इस्तेमाल अपने हितों के लिए करती रहती हैं
इजारेदार ओद्योगिक घरानों द्वारा स्थापित सरकारें उन्ही के हितों के लिए कार्य करती हैं आज दुनिया में भूंख प्यास से लेकर प्रत्येक चीज पर इनका कब्ज़ा हो चुका है हवा पानी से लेकर सभी प्राकृतिक सोत्रों को भी इन लोगों ने बरबाद कर दिया है। मुनाफा इनका धर्म है, नरसंहार इनका अस्त्र है सारे नागरिकों को गुलाम बनाना इनका मुख्य उद्देश्य है। अपने उद्देश्य के लिए ये ताकतें सम्पूर्ण मानवता को भी नष्ट कर देंगी। इनका लोकतंत्र, स्वतंत्रता, न्याय, शान्ति में विश्वाश नही है ये शब्द इनके लिए मानवता को ध्वंश करने के औज़ार हैं

सुमन
loksangharsha.blogspot.com
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