उनके शब्दों में ”उस समय कानपुर मजदूर सभा और सूती मिल मजदूर आन्दोलन पूंजीपतियों के दलालों के हाथ में था, मुझको उस वक्त एक भी कम्युनिस्ट साथी नहीं मिला।“
बहुत मेहनत के बाद भी मजदूरों में से कामरेड अजय घोष एक क्रान्तिकारी ग्रुप नहीं बना पाये, उसी निराशा में वह टी.बी. के बीमार भी हो गये, डाक्टरों ने उनको सलाह दी कि अगर जिन्दा रहना चाहते हो तो तुम राँची के टी.बी.सैनेटोरियम में चले जाओ। उस समय टी.बी. का कोई विशेष इलाज नहीं था। प्राकृतिक हवा ही एक इलाज थी। बहुत लम्बे अर्से तक वह राँची में रहे। बीच में पार्टी के बम्बई स्थित राष्ट्रीय मुख्यालय में आते-जाते रहते थे। राँची में उन्होंने कई महत्वपूर्ण लेख लिखे। यह सब लेख झारखण्ड के आदिवासी जीवन से सम्बन्धित थे। आदिवासी जीवन की सामूहिकता की कार्य प्रणाली और जनवादी शैली ने उनके ऊपर बहुत प्रभाव डाला था, इसका जिक्र हम बाद में करेंगे।
1947 अगस्त में जब देश आजाद हुआ तो पार्टी के बहुमत ने इस आजादी को न सिर्फ झूठा करार दिया बल्कि राष्ट्रीय पूंजीवादी वर्ग का साम्राज्यवाद के सामने आत्मसमर्पण भी करार दे डाला। कामरेड पूरन चन्द जोशी को महासचिव पद से हटा दिया गया और का. बी.टी. रणदिवे नये महासचिव बने। 1948 में कलकत्ता में हुई पार्टी कांग्रेस में निर्णय लिया गया कि हथियार बन्द लड़ाई के द्वारा ही साम्राज्यवाद से आजादी छीनी जा सकती है।
यहाँ एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि पार्टी के बहुमत का आशय क्या है? दिसम्बर 1947 में आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन का अखिल भारतीय सम्मेलन बम्बई में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में मैं भी उपस्थित था। का. बी.टी.रणदिवे ने इस सम्मेलन के प्रतिनिधियों को अलग से सम्बोधित किया था। का. रणदिवे ने जब सुन रहे युवाओं को समझाया कि हम क्रान्ति की दहलीज पर हैं तो नौजवानों का जवान खून उबलने लगा, और पार्टी की युवा शक्ति (पार्टी उस समय लगभग पूरी की पूरी युवा ही थी) जो उछली तो पार्टी केे परिपक्व साथी हक्के-बक्के से हो गये और इसके पहले कि वे स्थिति को समझ कर कुछ रणनीति बना पाते, कलकत्ता में हुए पार्टी महाधिवेशन में का. बी.टी.रणदिवे ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। नौजवानों के उफान के आगे उस रिपोर्ट के खिलाफ केवल कामरेड पूरन चन्द्र जोशी ने रोते हुए कहा कि, ”इस रिपोर्ट को मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ।“ कामरेड अजय घोष कलकत्ता महाधिवेशन में नहीं थे। रिपोर्ट महाधिवेशन में पारित हो गयी।
जनवरी 1950 तक 90 प्रतिशत पार्टी नेता और सदस्य जेलों के अन्दर ठूंस दिये गये। जो बाहर बच गये, वह अपने घरों और डेन में छुपे रहते थे। ऐसे समय में कामरेड अजय घोष राँची से बम्बई पहुंचे।
पार्टी के कुछ नेता कामरेड अजय घोष से मिले। एक साथी कामरेड एस.आर.चारी (जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय के बहुत ही मशहूर वकील हुए) ने कामरेड अजय घोष को सुझाव दिया कि अगर पार्टी को कानूनी करवाना है तो हथियार बन्द क्रान्ति का प्रस्ताव वापस लेना होगा। कामरेड अजय घोष के नेतृत्व में एक कमेटी बनी और उसके द्वारा यह घोषणा की गई कि ”हम सच्ची आजादी का संघर्ष शान्तिपूर्ण, वैधानिक जनसंघर्षों के द्वारा करेंगे।“ और उसके बाद ही पार्टी को जनता के मध्य काम करने का अधिकार मिला। अब कामरेड अजय घोष के सामने दूसरा महत्वपूर्ण सवाल था कि क्या सचमुच में यह आजादी झूठी है? उन्होंने खुद से कुछ सवाल पूछे और उनका जवाब तलाशा:
प्रश्न ः क्या दूसरे महायुद्ध के बाद साम्राज्यवाद और ज्यादा शक्तिशाली बना या कमजोर पड़ा?
उत्तर ः दूसरे महायुद्ध में साम्राज्यवाद का एक दूसरा बेरहम भाई फासिज्म न सिर्फ लड़ाई हारा बल्कि उसका पूरी तौर से विनाश भी हो गया। इसलिए साम्राज्यवाद समाजवादी सोवियत यूनियन के साथ मिलकर महायुद्ध जीतने के बावजूद बहुत कमजोर हो गया है।
प्रश्न ः दूसरे महायुद्ध के बाद क्या समाजवादी दुनिया कमजोर हो गयी?
उत्तर ः नहीं, समाजवादी दुनिया और उसकी लाल सेना का दबदबा सारी दुनिया में छा गया तो समाजवादी दुनिया की शक्ति अभूतपूर्व बढ़ गयी।
प्रश्न ः क्या आजाद हुए तीन चैथाई गुलाम देशों में मुक्ति संघर्ष कमजोर हो गये।
उत्तर ः सभी औपनिवेशिक देशों में विशेषकर हिन्दुस्तान में मुक्ति संघर्षों का एक तूफान सा खड़ा हो गया। साम्राज्यवाद हर जगह पूंजीवादी वर्गों से समझौता करने, गुलाम देशों को छोड़ने पर मजबूर हो गया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक विभाजन के आधार पर पाकिस्तान और हिन्दुस्तान बना डाला। हिन्दुस्तान में यह सत्ता कांग्रेस के हाथ में सौंप दी गई इसलिए हिन्दुस्तान की आजादी झूठी नहीं थी। प्रश्न सिर्फ यह है कि हम इस आजादी में मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों की हिस्सेदारी बढ़ाये कैसे?
कामरेड अजय घोष को अपने आप को समझाना तो आसान था पर पूरी पार्टी को समझाने में उन्हें कई वर्ष लग गये। कामरेड घोष माक्र्सवाद के सिद्धांतों को किसी फार्मूला के रूप में नहीं बताया करते थे, बल्कि जन आन्दोलनों से नतीजे निकाल कर वह पार्टी को मजबूत कर रहे थे कि अपने संकुचित विचारों को छोड़े, नई दुनिया को समझें और जन आन्दोलनों के कन्धों पर पूंजीपति वर्ग से अपने अधिकार को प्राप्त करेें।
हमारे पार्टी इतिहास का यह एक महत्वपूर्ण अध्याय है और इसके सम्पूर्ण नेता कामरेड अजय घोष थे।
1957 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार
1957 में केरल के अन्दर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव में बहुमत प्राप्त किया और वहाँ राज्य सरकार चलाने का अधिकार मिला। यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना न केवल अपने देश बल्कि विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए भी पथ प्रदर्शक साबित हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सामने यह प्रश्न पैदा हुआ, ”क्या अगर हम केरल में चुनाव के द्वारा प्रान्तीय सरकार बना सकते हैं तो पूरे देश में कुछ सहयोगियों के साथ हम संसद में बहुमत क्यों नहीं प्राप्त कर सकते?“ कामरेड अजय घोष ने इस प्रश्न को माक्र्सवाद का एक महत्वपूर्ण प्रश्न बना डाला। उन्होंने फैसला किया कि पार्टी कांग्रेस करके हम अपने पार्टी विधान को बदलेंगे और उस विधान में यह समझदारी अंकित की जायेगी कि जब हम देश के संविधान के अन्तर्गत चुनाव में संसद में बहुमत प्राप्त कर लेंगे तो जो अधिकार हमें आज प्राप्त हैं, हम अपनी सरकार बनाने के बाद विपक्षी पार्टियों के लिए उन्हें सुरक्षित रखेंगे। इसी समझदारी को लेकर कामरेड अजय घोष ने कम्युनिस्ट पार्टी का महाधिवेशन 1958 में अमृतसर में बुला डाला। महाधिवेशन का केवल एक ही एजेन्डा था - पार्टी विधान में परिवर्तन। उस कांग्रेस में पहली बार एक प्रतिनिधि साथी पुलिस की देख-रेख में आया था - उनका नाम था का. ई.एम.एस.नम्बूदरीपाद (मुख्यमंत्री, केरल सरकार)।
दो दिन तक बहुत तीखी बहस के बाद कामरेड अजय घोष का प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पास हुआ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विश्व में पहली कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसने इस तरह का प्रस्ताव पास किया था। आज तो दुनिया की तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस तरह के प्रस्ताव पास कर लिये हैं और वे इस रास्ते पर आगे बढ़ रहीं हैं परन्तु इस रास्ते को दिखाने वाले पहले व्यक्ति थे कामरेड अजय घोष।
भारत-चीन सीमा विवाद
भारत और चीन में मैकमोहन के दिये हुए नक्शे के आधार पर 1950 से ही कड़े मतभेद शुरू हो चुके थे। चीन और भारत की सरकारों में लगातार बातचीत भी चल रही थी लेकिन जिस तरह से चीन की सरकार आसाम से कश्मीर तक मैकमोहन लाईन से आगे बढ़ कर अपने फौजी अधे बना रही थी, उससे भारत-चीन सम्बंधों में कटुता पैदा हो रही थी। कामरेड अजय घोष का दृढ़ विचार था कि एक कम्युनिस्ट देश को सीमा विवाद तय करने के लिए फौज का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उनके नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल चीन गया। चीन के कम्युनिस्ट नेतृत्व को कामरेड अजय घोष ने भाकपा का मत बतलाया और उनसे आग्रह किया कि सीमा विवाद हल करने के लिए फौज और शक्ति का प्रयोग न करें लेकिन कामरेड अजय घोष चीन से बहुत निराश वापस आये।
अक्टूबर 1962 में चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने आसाम में घुसकर हिन्दुस्तानी फौज को हरा दिया परन्तु जब क्यूबा में ख्रुश्चेव और कैनेडी के बीच समझौता हो गया तो चीन की सरकार ने अपनी फौज तुरन्त अपने आप ही वापस बुला ली। इस घटनाक्रम के पहले ही कामरेड अजय घोष का निधन हो चुका था और उनको एक कम्युनिस्ट देश का ऐसा गैर समाजवादी कर्तव्य का साक्षी नहीं बनना पड़ा अन्यथा उन्हें बहुत ही दुख होता।
1960 का 81 कम्युनिस्ट पार्टियों का मास्को महाधिवेशन
स्तालिन के मरने के बाद का. ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत यूनियन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने दो दिशाओं में अभूतपूर्व प्रगति की:
(1) युद्ध के निर्णायक हथियारों अर्थात परमाणु बम और बैलेस्टिक मिसाइल के क्षेत्रों में सोवियत यूनियन ने साम्राज्यवादी दुनिया को पीछे छोड़ दिया। उसके बाद से तीसरा महायुद्ध विश्व के एजेन्डे से हट गया लेकिन फिर यह प्रश्न उठ गया कि लेनिन की उस प्रस्थापना का क्या होगा जिसमें कहा गया था कि साम्राज्यवाद का विकास हमेशा असमान रहेगा और इसलिए पुनः बटवारे का महायुद्ध अनिवार्य है और साम्राज्यवाद का यह युद्ध ही समाजवादी क्रान्तियों की जड़ है।
(2) सोवियत रूस ने घोषणा की कि वह नवस्वतंत्र देशों को अपने-अपने देशों में बुनियादी उद्योग यानी विभाग-1 के उद्योगों को लगाने और विकसित करने में हर तरह की सहायता उपलब्ध करायेगा जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। उल्लेख जरूरी होगा कि कम्युनिस्ट शासन न होने के बावजूद रूस अभी उसी नीति पर कायम है और अभी हाल में क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो और रूस के राष्ट्रपति मेवदेयेव के मध्य यह समति बनी है कि रूस उसे न केवल बुनियादी उद्योगों को लगाने के लिए सहायता मुहैया करायेगा बल्कि उसे तकनीकी विकसित करने लायक ज्ञान भी मुहैया करायेगा और वायुयान से तरलीकृत ईंधन गैस की आपूर्ति भी करेगा।
सोवियत यूनियन लगातार महायुद्ध का विरोध कर रहा था। रूस समाजवादी और साम्राज्यवादी दुनिया के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व पर जोर दे रहा था। इसी प्रश्न पर विचार करने के लिए सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने 80 कम्युनिस्ट पार्टियों का सम्मेलन मास्को में बुलाया था। दिलचस्प बात यह है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और उसके साथ 12 अन्य पार्टियों ने एक समानान्तर सम्मेलन पेकिंग में बुलाया था। इन तेरह कम्युनिस्ट पार्टियों में से जापान और इन्डोनेशिया की पार्टियां बहुत बड़ी पार्टियां थीं।
मास्को में जो सम्मेलन हुआ, उसके ड्राफ्टिंग कमीशन में कामरेड अजय घोष को रखा गया था। यह इस बात का सबूत था कि 80 बिरादराना पार्टियां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सैद्धान्तिक सृजनात्मकता (ideological creativity) को स्वीकारते थे। भाकपा ने इस नये युग के मुताबिक शान्तिपूर्वक ढंग से समाजवाद तक पहुंचने की सम्भावना अपने 1958 के महाधिवेशन में स्वीकार कर ली थी।
मास्को में हुए 80 पार्टियों के सम्मेलन ने भी मजबूती से अपने दस्तावेज में कहा कि तीसरा महायुद्ध सम्भव नहीं है। साम्राज्यवादी दुनिया आपस में पुनः बटवारे का युद्ध भी नहीं कर सकती और साम्राज्यवादी दुनिया पुनः बटवारे के लिए समाजवादी दुनिया से भी नहीं लड़ सकती। इसलिए शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का संघर्ष हर कम्युनिस्ट पार्टी का कर्तव्य बन जाता है और इसीलिए हर देश में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर शान्ति एवं जनवाद के रास्ते पर चलकर समाजवाद तक पहुंचने के रास्ते खोजने पड़ेंगे।
जाहिर है चीन की कम्युनिस्ट पार्टी व अन्य बारह कम्युनिस्ट पार्टियों ने मास्को सम्मेलन के प्रस्ताव पर सुधारवाद का आरोप लगा दिया और अपना दृढ़ निश्चय घोषित किया: ”सत्ता बन्दूक की नाल से निकलती है“ Power arrises out of the barrel of a gun"। इसी प्रयास में एशिया की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी यानी इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा के लिए समाप्त हो गई। उल्लेख जरूरी होगा कि उस वक्त एशिया में इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बहुत बड़ी थी। उसकी सदस्य संख्या 7 लाख से भी ज्यादा थी। उस समय वहां संयुक्त मोर्चे की सरकार वामपंथी सुकर्णो के नेतृत्व में चल रही थी। इस नारे के बाद वहां की कम्युनिस्ट पार्टी में यह गलत समझ बनी कि अगर सेना के जनरलों को मार दिया जाये तो क्रान्ति हो जायेगी। जोश में इस बात को नजरंदाज किया गया कि एक लोकतांत्रिक देश में इससे जनता में प्रतिक्रिया बहुत भयानक होगी। 6 जनरलों की हत्या से इंडोनेशिया की पूरी जनता गुस्से से बौखला गयी और गली-कूचों तथा गांव-गांव में कम्युनिस्टों को सरेआम मार डाला गया। इंडानेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी समाप्त हो गयी। आज तक फिर वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी बन नहीं पाई।
स्वतंत्र आर्थिक विकास
यह विचार कोई नया नहीं था। सभी नव स्वतंत्र देशों में इस रास्ते पर चलने की ख्वाहिश थी। साम्राज्यवाद ने जब गुलाम देशों में पूंजीवाद का विकास किया तो केवल उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन के उद्योगों (आर्थिक विकास का विभाग-2) और ऊपरी ढांचे - यानी यातायात, ऊर्जा और संचार (आर्थिक विकास का विभाग-3) का ही विकास किया। बुनियादी उद्योगों यानी भारी उद्योगों (आर्थिक विकास का विभाग-1) का विकास न तो किया और न ही किसी को करने दिया। इसलिए इन सभी नव स्वतंत्र देशों का आर्थिक ढांचा निर्भर अर्थव्यवस्था कहलाता था। उस समय कोई भी नव स्वतंत्र देश बगैर विकसित देशों की मदद के भारी उद्योगों (यानी विभाग-1 के उद्योग) का विकास नहीं कर सकता था।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि कार्ल माक्र्स ने अपने अध्ययन के बाद यह सूत्रबद्ध किया था कि साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों में पूंजीवाद का विकास करेगा परन्तु केवल उन सामानों के निर्माण के उद्योग लगायेगा जो बनते ही उपभोक्ता द्वारा उपभोग के लिए बाजार में पहुंच जाते हैं। माक्र्स ने इसे विभाग-2 के उद्योग कहा था। उन्होंने आगे यह स्पष्ट किया था कि पूंजीवादी में विभाग-2 के उद्योगों के विकास के लिए आधुनिक यातायात, आधुनिक संचार और आधुनिक ऊर्जा के उद्योगों का विकास करना साम्राज्यवादियों की मजबूरी होगी। उन्होंने इसे विभाग-3 के उद्योग कहा था। माक्र्स ने स्पष्ट किया था कि साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों में बुनियादी उद्योगों (विभाग-2 और विभाग-3 को विकसित करने वाले उद्योगों) को कभी विकसित नहीं होने देंगे यानी उन्हें आत्मनिर्भर नहीं बनने देंगे। इन बुनियादी उद्योगों को उन्होंने विभाग-1 कहा था। पं. नेहरू ने कार्ल माक्र्स के उपरोक्त सूत्र का
अध्ययन कर रखा था और वे महसूस करते थे कि विभाग-1 के विकास के बिना विकास का कार्य अधूरा रहेगा।
स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू ने इंग्लैंड और अमरीका के कई चक्कर लगाये और उनके विभाग-1 के उद्योगों के विकास का मार्ग मुहैया कराने की याचना की लेकिन इन देशों ने पंडित नेहरू का सिर्फ मजाक उड़ाया। तब पं. नेहरू 1954 में सोवियत यूनियन गये, जहां सोवियत यूनियन ने उनको यकीन दिलाया कि आप भारी उद्योग के विकास की एक योजना बनाईये। हम आपकी पूरी मदद करेंगे। तभी दूसरी पंचवर्षीय योजना पंडित नेहरू और महलनवीस के नेतृत्व में बन गई। भारत-सोवियत सहयोग के आधार पर बहुत तेजी से विभाग-1 का निर्माण शुरू हो गया।
इसी समझदारी के आधार पर और पंडित नेहरू की पहल पर 1955 में बान्डूग (इंडोनेशिया) में नव स्वतंत्र देशों का एक सम्मेलन बुलाया गया और सभी नव स्वतंत्र देशों में सोवियत यूनियन के सहयोग से स्वतंत्र आर्थिक विकास की योजनायें बन गईं। यह एक अलग कहानी है।
कामरेड अजय घोष ने स्वतंत्र आर्थिक विकास का न सिर्फ स्वागत किया बल्कि उसमें मजदूर और इन्जीरियरों को ट्रेड यूनियन बनाकर इस नये विकास के मार्ग में अपनी भूमिका को शक्तिशाली बनाने का रास्ता सुझाया।
इसी बीच में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता ने लेख लिख डाला कि यह सार्वजनिक क्षेत्र एक समाजवादी क्षेत्र है। कामरेड अजय घोष ने फौरन उसके जवाब में एक दूसरा लेख लिखा कि जब तक सत्ता पूंजीवादी वर्ग के हाथ में है सार्वजनिक क्षेत्र समाजवादी नहीं हो सकता वह केवल राज्य नियंत्रित पूंजी क्षेत्र ;(state capitalist sector) हो सकता है। कामरेड घोष ने कहा कि राज्य नियंत्रित पूंजी क्षेत्र ;(state copitalist sector) बाजार आधारित पूंजीवाद (market capitalism) से बहुत ज्यादा गतिशील है लेकिन वह समाजवादी क्षेत्र नहीं हो सकता है। समाजवादी क्षेत्र के लिए सत्ता का वर्ग चरित्र बदलना पड़ेगा अर्थात राज्यसत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार कायम होना चाहिए।
सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने कामरेड अजय घोष की प्रस्थापनाओं का समर्थन किया।
राष्ट्रीय एकीकरण समिति
1958, 1959 तथा 1960 इन तीन वर्षों में हिन्दुस्तान के कई शहरों में हिन्दू मुस्लिम बलवे हुए। पंडित नेहरू एक संसदीय समिति गठित करना चाहते थे लेकिन कामरेड अजय घोष ने पं. नेहरू को एक पत्र भेजा कि यह कमेटी एक राष्ट्र की होनी चाहिए। बहुत सी पार्टियों के नेता संसद के सदस्य नहीं है। बहुत से हमारे सामाजिक विज्ञान के ज्ञाता जो हमारी धर्मनिरपेक्ष विरासत का ज्ञान रखते हैं, वे भी संसद सदस्य नहीं है। इसलिए इन सबको शामिल करके संसद के बाहर एक कमेटी बननी चाहिए। पंडित नेहरू ने कामरेड अजय घोष के इस सुझाव को मान लिया।
कामरेड अजय घोष ने इस समिति की पहली बैठक में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कहा कि हमें कई पहलुओं पर विचार करना पड़ेगा।
(1) हमारी विरासत किसी एक धर्म से नहीं जुड़ी है। उन्होंने कहा कि हमारी अधिसंख्यक जनता धर्मनिरपेक्ष है हालांकि वह किसी न किसी धर्म से जुड़ी है। इस समय कुछ पार्टियां हमारी विरासत को केवल हिन्दू धर्म से ही जोड़ना चाहती हैं इसलिए धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वालों के लिए जरूरी है कि हम अपनी धर्मनिरपेक्ष विरासत को जनता तक पहुंचायें।
(2) हम हर दंगेे की जांच के लिए राष्ट्रीय एकता समिति की तरफ से एक आयोग बनायें क्योंकि कई दंगे निहित स्वार्थ के लिए किये जा रहे हैं जैसे अलीगढ़ के दंगे ताला उद्योग को मुसलमानों से छीनने के लिए, मेरठ में कैंची और प्रकाशन उद्योग को मुसलमानों से छीनने के लिए और आगरा में चमड़े और पत्थर के उद्योग को मुसलमानों से छीनने के लिए आदि। इसलिए हमारी समिति का कर्तव्य बन जाता है कि हम साम्प्रदायिकता की आड़ में निहित स्वार्थ वालों को बेनकाब भी करें।
विजयवाडा पार्टी कांग्रेस - सन 1961
जब मास्को और पेकिंग में दो अलग-अलग सम्मेलन हुए तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी सैद्धान्तिक संघर्ष तेज हो गया और आशंका व्यक्त की जाने लगी कि उस आधार पर हमारी पार्टी का भी विभाजन हो जायेगा लेकिन कामरेड अजय घोष की सैद्धान्तिक पकड़ इतनी शक्तिशाली थी कि विजयवाड़ा महाधिवेशन में कोई भी उनके प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाया। उन्होंने जो दस्तावेज पेश किया वह तो पास नहीं हुआ लेकिन बहस के बाद जो आखिरी भाषण उन्होंने किया था, वह पास हो गया। उन्होंने यही कहा कि 1962 जनवरी-फरवरी में तीसरे आम चुनाव होने जा रहे हैं। हम एक होकर आगे बढ़ने का प्रयास करें। उन्होंने कहा कि ”पूंजीवादी वर्ग समझता है कि 1959 में केरल की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करके हमने बढ़ते हुए कम्युनिस्ट आन्दोलन को पीछे धकेला है तो हमारा कर्तव्य बन जाता है कि हम पूंजीपति वर्ग को दिखा दें कि हम पीछे नहीं आगे बढे़ंगे।“
1962 के चुनाव में अजय घोष एक शहर से दूसरे शहर घूमते रहे। कानपुर भी आये थे। यहाँ से वे पटना गये। 1962 की जनवरी थी। मतदान की तिथि नजदीक ही थी लेकिन पटना में उनका निधन हो गया। वह यह नहीं देख पाये कि विजयवाड़ा में कहा गया उनका कथन सच्चा साबित हुआ है। इस चुनाव में पार्टी ने कुल 494 सीटों में से केवल 137 पर अपने प्रत्याशी अपने चुनाव निशान पर उतारे थे जिसमें 29 विजयी हुए थे और पार्टी को कुल मतदान का 9.94 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था। इसमें पार्टी द्वारा निर्दलीय उतारे गये कुछ प्रत्याशी (जैसे कानपुर से का. एस.एम.बनर्जी) को प्राप्त मत शामिल नहीं हैं। अगर उन मतों को भी शामिल कर लिया जाये तो यह मत प्रतिशत 10 प्रतिशत से अधिक हो जाता है। यह मत प्रतिशत अब तक पार्टी को मिले मत प्रतिशत में सबसे ज्यादा था।
पार्टी जरूर बदकिस्मत रही कि चुनाव की तैयारियों में उनकी शोक सभायें भी नहीं कर पाई।
कामरेड अजय घोष की विरासत और हमारी जिम्मेदारियाँ
मुश्किल से 11 साल मिले थे कामरेड अजय घोष को 1950 से 1962 के बीच लेकिन वे अपनी छाप न सिर्फ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर बल्कि विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन पर भी छोड़ गये। उनकी कार्यशैली की सबसे प्रमुख विशेषता थी पार्टी का विचारधारात्मक विभाग Ideological department। विचारधारात्मक विभाग के लिए वे एक पत्रिका भी छपवाते थे।
वे पार्टी एकता के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे, हर कदम पर लड़ते रहे लेकिन एकता की खातिर सिद्धांतों के प्रश्न पर एक इंच भी पीछे हटना कभी भी स्वीकार नहीं किया। हर चीज क्षण-क्षण बदलती है। यह सिद्धांत तो गौतम बुद्ध ने देश को दिया था। उसको हेगेल ने और फिर माक्र्स ने दोहराया था। कामरेड अजय घोष भी हमेशा सजग रहते थे कि कौन सा शक्ति संतुलन किस दिशा में बदल रहा है और फौरन उसके अनुसार माक्र्सवाद पर आधारित नया रास्ता और नई सोच खोजते रहते थे। हम भी आज के युग में कामरेड अजय घोष की तरह कुछ ज्वलंत प्रश्नों पर नए तरीके से सोचें। हमारे देश में इस समय सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि नव उदारवाद (neo liberalisation) जिस पर भाजपा और कांग्रेस मिलकर चल रही हैं, उस रास्ते के विरोध में हम तीसरा मंच कैसे बनायें?
हमारे देश में इस वक्त धर्मनिरपेक्ष उद्देश्य को तो कांग्रेस ने छोड़ दिया है। उसने नरम हिन्दुत्व (soft Hinduism) का रास्ता अपना लिया है। हम अपनी धर्मनिरपेक्ष विरासत का संघर्ष सिर्फ कुछ बुद्धिजीवियों के लिए न छोड़े बल्कि हर जन मोर्चे पर इस संघर्ष को जारी रखें।
भारत-पाक सम्बंधों को बम्बई कांड ने एक अंधी गली में डाल दिया है। हम पाकिस्तान की फौज और उनके पालतू लश्करे तैय्यबा के उकसावे में न आयें। इस वक्त पाकिस्तान की जनता को, पाकिस्तान के जनतंत्र को हमारी मदद की जरूरत है। हम हर ऐसा प्रयास करें जिसमें भारत-पाकिस्तान युद्ध किसी हालत में एजेन्डा न बन पाये।
और एक क्षण के लिए भी कामरेड अजय घोष के उस आदेश को न भूलें कि हर कीमत पर वामपंथी एकता लेकिन विचारधारात्मक आधार पर आत्मसमर्पण किये बगैर
का. हरबंस सिंह
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