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बुधवार, 23 दिसंबर 2009

बाबरी मस्जिद का ध्वंस एक राष्ट्रीय विश्वासघात

नयी दिल्लीः लोकसभा में भाकपा के नेता गुरुदास दासगुप्त ने लिब्रहान अयोध्या जांच आयोग की रिपोर्ट तथा सरकार द्वारा की गयी कार्रवाई के मेमोरंेडम पर हुई बहस में भाग लेते हुए कहा:
मैं समझता हूं कि बहस को नियंत्रित होना चाहिए और हमें उस विपदा पर जो घटित हुई, एक सामान्य दृष्टिकोण प्रतिबिंबित करना चाहिए जो 17 वर्ष पहले घटित हुई। मैं इसे बहस नहीं कहता हूं। मैं इसे इस बात पर विचार करने के लिए एक आत्मनिरीक्षण कहता हूं कि क्यों ऐसी विपदा ने 6 दिसम्बर 1992 को देश पर भारी आघात किया जैसा भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ। हम विचार करें कि ऐसा क्यों हुआ। संसद का सत्र चल रहा था, बहुमत के साथ एक सरकार मौजूद थी जिसका नेतृत्व एक धर्मनिरेपक्ष पार्टी कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट भी था। मेरा सवाल है कि एक ऐसी स्थिति में क्यों एक कट्टरतावादी राजनीतिक ताकत राष्ट्र पर अपनी इच्छा थोप सकी जबकि जनता का विशाल बहुमत उस खास धारा की राजनीतिक विचारधारा का विरोध करता था। क्यों उस महाविपदा को रोका नहीं जा सका? क्यों राजनीतिक व्यवस्था विफल हो गयी? व्यवस्था में अंतर्निहित कमजोरी क्या है जिसके चलते यह विफलता हुई और राजनीतिक महाविपदा आयी जिसने देश को प्रभावित किया?
हमें बड़ी शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी, हमारी राष्ट्रीय नीतियां प्रभावित हुई। इस सदन में बोलते हुए मैं काफी आहत महसूस कर रहा हूं क्योंकि मुझे उस घातक घटना को संक्षेप में दोहराना पड़ रहा है जो 6 दिसम्बर 1992 को घटित हुई थी।
मुझे काफी दुख है कि बाद की अवधि में पूरा देश महासंकट में फंस गया। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर गंभीर हमला किया गया। यह अत्यधिक अफसोस की बात है कि राष्ट्र को दिये गये आश्वासन का घोर उल्लंघन किया गया। न्यायपालिका को गुमराह किया गया, सरकार के साथ जो उस समय सत्ता में थी, छल किया गया। लेकिन सवाल है कि क्यों उस समय की सत्तासीन सरकार ने अपने को छलने दिया। मैं समझता हूं कि उस समय केन्द्र में सत्तासीन सरकार ने वह काम नहीं किया जो उसे पूर्व प्रहारक कार्रवाई के रूप में करना चाहिए था। दुर्भाग्य से, रिपोर्ट में केन्द्र सरकार की भूमिका के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिए यह रिपोर्ट व्यापक नहीं है और एक तरह से आंशिक है। मुझे यह कहते हुए शर्म हो रही है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस गंुंडागर्दी की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति की कार्रवाई नहीं थी। यह एक धूर्ततापूर्ण योजना का परिणाम था जिसका एक घृणित राजनीतिक एजेंडा था। मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि बाबरी मस्जिद, रामजन्मभूमि एक मसला नहीं था, 1975 तक तो वह कोई मसला नहीं था। उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा की कार्यवाहियों में उसका कोई उल्लेख नहीं है। किसी तरह कुछ खास राजनीतिक इरादे के लिए इस मसले को उठाया गया। अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा कर ने के लिए देश की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के साथ साठगांठ करके कट्टरतावादी ताकतों की मंडली द्वारा उसे ध्वस्त कर दिया गया। दुर्भाग्य से, मुझे क्षमा करेंगे, उस घातक नाटक के कुछ खिलाड़ी आज इस सदन में हमारे सहयोगी हैं। 1992 में मैं राज्यसभा का एक सदस्य था। मैं 1985 में संसद में आया। मैं यह देखते बूढ़ा हो गया हूं कि राजनीति को प्रदूषित किया जा रहा है। मैं यह भी पा रहा हूं कि कैसे राष्ट्रीय हित को सांप्रदायिक विभाजन के दर्शन, घृणा के मत तथा हिंसा के सिद्धांतों के अधीनस्त किया जा रहा है। मैंने 1992 में राज्यसभा में बहस में हिस्सा लिया था। मैंने वरिष्ठ सहयोगी श्री आडवाणी जी से साफ पूछा था कि क्या उन्होंने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करना चाहा था। जहां तक मुझे याद है, उनका जवाब था नहीं। उन्होंने कहा कि वे ढांचे को स्थानांतरित करना चाहेंगे ताकि राम मंदिर स्थापित किया जा सके।
मुझे याद है कि मैं किसी भी सांसद से पहले अयोध्या गया था। वह बुधवार का दिन था। रविवार को वह त्रासदी हुई थी और मैं बुधवार को गया था। मैंने पाया कि न केवल ढांचे को ध्वस्त किया गया बल्कि उस ढांचे यानी बाबरी मस्जिद के हर चिन्ह को मिटा दिया गया। मलबे तक को हटा दिया गया। फिर कामचलाऊ मंदिर तक निर्मित कर दिया गया, हो सकता है, राम मंदिर। मैं नहीं जानता। मैंने स्थानीय लोगों से भेंट की। दोनों समुदायों के लोग थे। उन्होंने मुझसे कहा कि ढांचे ध्वंस में उनका कोई हाथ नहीं था, बाहरी लोगों ने यह दुष्कृत्य किया, वे गाड़ियों से आये थे। मुझे तीन पैराग्राफ को उद्धृत करने दें जो उस घटना के बारे में बताता है। इसे मैंने एक प्रमुख पत्र में 17 वर्ष पहले लिखा था। ‘उस दिन रविवार की सुबह करीब 11 बजे सुबह मस्जिद के गिर्द बैरिकेेड पर हमला हुआ। कुछ घंटे के भीतर भीड़ ने कुछ आंसू के गैस के गोले तथा हल्के लाठीचार्ज पर भी काबू पा लिया जब वे ढांचे के अंदर घुसे और गुम्बद पर प्रहार करना एवं तोड़ना शुरू कर दिया जो ढांचा 400 वर्षों से खड़ा था। वह टुकड़े-टुकड़े होने लगा क्योंकि वे हाथ जो हमला कर रहे थे, वे सभी ध्वंस के लिए प्रशिक्षित थे।’
मैंने 17 वर्ष पहले लिखे जो आयोग ने आज कहा। मैं उद्धृत करता हूं।
”12 बजे दोपहर तथा 1 बजे दोपहर के बीच स्थानीय प्रशासन ने राज्य मुख्यालय से निर्देश मांगा और पैनिक संदेश लखनऊ भेजा गया। जिला मजिस्ट्रेट को सीआरपीएफ को लामबंद करने की सलाह दी गयी। क्योंकि व्यापक रोडब्लाक ने अतिरिक्त कर्मियों की आवाजाही पर रोक दी। किसी भी समय बाबरी मस्जिद पर हमले को रोकने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाया गया।
जबकि तथाकथित कारसेवाकों का बड़ा दस्ता धार्मिक शो चलाता रहा। दूसरे दस्ते ने मस्जिद पर हमला किया और तीसरे दस्ते ने जो अत्यधिक दुखद है, उस क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदाय के घरों पर हमला किया। मस्जिद ध्वस्त कर दी गयी, मंदिर निर्मित किया गया तथा मुसलमालनों के सभी मकानों को ध्वस्त कर दिया गया। इनमें किसी ने भी कारसेवकों का प्रतिरोध नहीं किया।“
यह तस्वीर रिपोर्ट नहीं है। रिपोर्ट में घृणित कहानी दफना दी गयी है कि कैसे एक स्थानीय मसला देश के राष्ट्रीय विवेक पर एक धब्बा हो गया। स्थानीय विवाद वक्फ बोर्ड और रामचन्द्र दास तथा उनके अखाड़ा के बीच था। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा अपने हाथ में लेने के पहले वह कोई मसला नहीं था। 1980 में विश्व हिन्दू परिषद ने उसे अपने हाथ में लिया। 1982 में विश्व हिन्दू परिषद ने उसे मुक्त करने की अपील की। किसे मुक्त किया जाये? एक मस्जिद के विध्वंस पर मंदिर को मुक्त किया जाये। 1984 में विश्व हिन्दू परिषद के युवा संगठन ने जो बजरंग दल के रूप में सामने आ चुका था, आंदोलन को एक नयी गति प्रदान की। 1985 में विश्व हिन्दू परिषद ने पचास लाख कैडर बनाने का निर्णय लिया जिसे रामभक्त का नाम दिया गया।
देश में एक मिलिटेंट ढांचा निर्मित करने का इरादा व्यक्त किया गया जो राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को चुनौती देगा।
1989 में भाजपा की एक बैठक पालमपुर में हुई। वह एक सुंदर जगह थी। उन्होंने क्या निर्णय लिया? उन्होंने उस लड़ाई में कूदने तथा आंदोलन में भाग लेने का निर्णय लिया। उस समय दो मुहावरे ईजाद किये गये। एक मुहावरा है ”अल्पसंख्यक तुष्टीकरण“ और दूसरा है ”छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद“। इस तरह से देश का ध्रुवीकरण करने के निश्चित उद्देश्य से एक राजनीतिक आंदोलन का जन्म हुआ।
दो अन्य कारकें को ध्यान में रखा जाना चाहिए। फरवरी 1986 को फैजाबाद जिला कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि द्वार को खोल देना चाहिए ताकि पूजा की जा सके। यह अभी तक रहस्य ही बना हुआ है कि उस समय सरकार क्यों नहीं द्वारा पर खोलने पर रोक लगाने के लिए हायर कोर्ट गयी। क्या उसके पीछे कोई राजनीतिक इरादा था? क्या कट्टरतावादी तबके को रिआयत देने के लिए ऐसा किया गया या क्या कुछ अन्य राजनीतिक पार्टी को निरुत्तर करने के इरादे से ऐसा किया गया?
शिलान्यास किया गया। यह कैसे किया गया। यह सुविदित है। इसने मुक्ति आंदोलन को गति प्रदान की। जनवरी 1986 में धर्मसंसद ने शिलापूजा के लिए एक योजना बनायी। इस तरह से एक सांप्रदायिक टकराव की जानबूझकर योजना बनायी गयी। एक राजनीतिक दल के साथ मिलकर राजनीतिक ताकतों के एक ग्रुप ने इसे संगठित किया और भाजपा की भागीदारी ने आंदोलन को ताकतवर तथा प्रभावी बना दिया। रिपोर्ट क्या कहती है? रिपोर्ट कहती है: एक आंदोलन के लिए भी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है? ”मुझे एक व्यक्ति का नाम लेना है जो सदन में उपस्थित नहीं है। मैं रिपोर्ट को उद्धृत कर रहा हूं।“
रिपोर्ट कहती है: ”एक आंदोलन के लिए इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती है कि मेरे वरिष्ठ सम्मानित भारत के नेता जिनका मैं सम्मान करता हूं, अटल बिहारी वाजपेयी, मेरे वरिष्ठ सहयोगी श्री आडवाणी, श्री जोशी संघ परिवार के इरादे को नहीं जानते थे।“ रिपोर्ट कहती है कि यह विश्वास नहीं किया जा सकता है? इसका अर्थ है? आंदोलन का राजनीतिक नेतृत्व इस बात से अवगत था कि उनका गंतव्य कहां है। वे सभी अपने लक्ष्स से अवगत थे, अपने उद्देश्य से अवगत थे जो उनके दिमाग में था। इसे सार्वजनिक नहीं बनाया गया बल्कि वह उनके दिमाग में था।
रिपोर्ट के अनुसार, ”यह एक संयुक्त आम उद्यम था“ मैं उनके मुहावरे का इस्तेमाल कर रहा हूं। कौन साझेदार थे? वे थे आर.एस.एस., विहिप, शिवसेना, भाजपा तथा बजरंग दल। यह सुविदित है। अब यह रिपोर्ट में है जो विलंब से पेश की गयी और दूसरे सदन में किसी ने कहा कि इस आयोग पर पैसा बर्बाद किया गया। यह राजनीतिक मसले को कम करके आंकने का एक तरीका है।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री की इसमें सांठगांठ थी। वे इस बात के लिए मुस्तैद थे कि केन्द्र सरकार द्वारा या सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई पूर्व प्रहारक कार्रवाई न हो। इसका अर्थ है? कानून प्रवर्तन एजेंसी का कैप्टन स्वयं एक धर्मयोद्धा हो गया और स्वयं उस अपराध का सहभागी हो गया। एक सभ्य विश्व में इससे अधिक भयावह और क्या हो सकता है? इसे हमारे विवेक को झकझोर देना चाहिए। आंसू बहने चाहिए। हमें अवश्य ही इस त्रासदी की गहराई तथा उसके आयाम में जाना चाहिए। यह बाबरी मस्जिद के खिलाफ धर्मयुद्ध नहीं है, यह कानून प्रवर्तन ऐजेंसियों की साठगांठ है, यह केन्द्र सरकार की विफलता है। यह सुप्रीम कोर्ट की विफलता है। यह राष्ट्र की विफलता है कि हम उसे रोक नहीं पाये। जब यह घटना घटी तो मैं उस समय सदन में था। हम प्रधानमंत्री के पास गये। हम चाहते थे कि सेना को भेजा जाये। भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि किसी संवैधानिक मर्यादा से अधिक महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से कोई पूर्व प्रहारक कार्रवाई नहीं की गयी।
आंदोलन की तैयारी के लिए रथयात्रा संगठित की गयी। श्री आडवाणी उसके सूत्रधार थ। जानबूझकर कट्टरतावादी ताकतों, अंधराष्ट्रवादी ताकतों को मजबूत करने के लिए ऐसा किया गया। ऐसा एक अपराध को अंजाम देने के इरादे से किया गया। एक उन्माद पैदा करने के लिए ऐसा किया गया। रथयात्रा एक उन्माद था। अयोध्या में रास्ता को आसान बनाने के लिए ऐसा किया गया।
बाबरी मस्जिद पर हमले के पूर्व वहां एक तथाकथित धर्मानुष्ठान, धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। भजन गाये गये। क्या त्रासदी है? भारतीय संस्कृति द्वारा रचे गये महान भजन का अपने नारों तथा धर्मनिरपेक्ष भारत के खिलाफ मुहिम को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया। वहां नेता उपस्थित थे। वे बोेले भाषण क्या थे? मस्जिद के ध्वंस के बचाव के लिए सभी भाषण दिये गये। यह कहा गया, उनके वहां राम का जन्म हुआ था। वहां मुस्लिम संप्रदायवादियों द्वारा मस्जिद की स्थापना की गयी। हमें अवश्य ही एक खास धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए उसे ध्वस्त करना चाहिए।
एक धार्मिक उन्माद फैलाया गया और पुलिस के साथ सांठगंाठ करके कायराना अपराध किया गया। आज विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं द्वारा इस कायराना कार्रवाई के वीरता की कार्रवाई कहा जा रहा है। इस तरह बड़ी ही धूर्तता से मस्जिद को ध्वस्त करने की योजना बनायी गयी। घृणित राजनीतिक प्रचार अभियान चलाया गया। शिला पूजा की गयी। रथयात्रा निकाली गयी और हजारों कारसेवक संगठित किया गये जिन्हें ध्वस्त करने के काम में प्रशिक्षित किया गया। उन सबों को गाड़ियों से, बसों से वहां लाया गया। राज्य सरकार ने अपनी आंखे मूंदी थी तो केन्द्र सरकार ने क्यों नहीं अपनी आंखे खोली?
इसलिए मैं इस सदन में सीधा सवाल करना चाहता हूं। 6 दिसम्बर 1992 को जो कुछ हुआ उनकी जिम्मेवारी एवं दोष को भी अपने ऊपर लें। उन लोगों के राजनीतिक साहस को भी देखें जिन्होंने चुनावी लाभ के लिए पुलिस तथा प्रशासन की साठगंाठ से कायराना ढंग से यह काम किया। दुर्भाग्य से भारतीय इतिहास यह दिखलाता है कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस से उन्होंने अपनी चुनावी संभावना बढ़ायी। यह इतिहास का एक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है। या तो आप सभ्य जीवन के सभी मानदंडो के उल्लंघन की जिम्मेवारी लें और उसका बचाव करें या 1992 में जो कुछ हुआ, उसे अस्वीकार करें और राष्ट्र से क्षमा मांगे। यह सीमित विकल्प उपलब्ध है। कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता। या तो 6 दिसम्बर राष्ट्रीय विश्वासघात का दिन, ब्लैकमेल की कार्रवाई का दिन था या वीरता का दिन। देश को निर्णय करने दें। हम कब्र को नहीं खोद रहे हैं, किसी पुरानी चीज पर बहस नहीं कर रहे हैं। हम एक सबक लेने के लिए बहस कर रहे हैं। मैं उन नेताओं के खिलाफ किसी दंडात्मक कार्रवाई की वकालत नहीं कर रहा हूं जिन पर रिपोर्ट में दोषारोपण किया गया है। मैं समझता हूं कि राजनीतिक अलगाव एकमात्र उपाय है। यह समय है कि देश की सभी धर्मनिरेपक्ष ताकतें एकताबद्ध होने के लिए सबक लें। कांग्रेस पार्टी की एक जिम्मेवारी है यदि वह समझती है कि वह देश की एक सबसे बड़ी पार्टी है। पर एक चीज है। संप्रदायवाद के खिलाफ संघर्ष फलदायी नहीं हो सकता है यदि भूख के खिलाफ संघर्ष, बेकारी के खिलाफ संघर्ष को संयुक्त नहीं किया जाये।
इसीलिए देश को चैकस करने का यह समय है। देश को आयोग की रिपोर्ट के आधार पर चैकस किया जाना है। यह कट्टरतावाद क्या है और आज यह किससे संबंधित है? कट्टरतावाद ने महात्मा गांधी की हत्या की। वही कट्टरतावाद है जिसने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या की वे उसी राजनीतिक श्रेणी या दर्शन से संबद्ध है जो बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए जिम्मेदार है, उसी कट्टरतावाद के ब्रांड से संबंद्ध है जिन्होंने गुजरात में हजारों लोगों का कत्ल किया।
मैं यहां कहना चाहता हूं कि कट्टरतावाद का खतरा खत्म नहीं हुआ है। यह एक बड़ा खतरा बना हुआ है। इसलिए कार्रवाईगत एकता की जरुरत है। रिपोर्ट एक चेतावनी देती है और इस चेतावनी से एक बोध होना चाहिए और इस बोध को कार्रवाई में परिणत होना चाहिए। रिपोर्ट के बाद एकताबद्ध होने एवं ऐसी ताकतों को पराजित करने की चिन्ता होनी चाहिए। यह चिन्ता की बात है कि ध्वंस करके तथा अपराधिक कार्रवाई करके राजनीतिक ताकतों ने अपनी शक्ति बढ़ायी।
हमें अवश्य ही पीछे की ओर देखना चाहिए, हमें अवश्य ही विचार करना चाहिए। हमें एक आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिए कि क्यों मस्जिद को ध्वस्त किया गया, राजनीतिक पार्टियों की क्या भूमिका थी, केन्द्र सरकार की क्या भूमिका थी। देश को आगे बढ़ना चाहिए एवं पूरी गरिमा तथा निष्ठा के साथ हर कीमत पर देश की धर्मनिरपेक्ष छवि की रक्षा की जानी चाहिए।

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