जब हम अपने देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास पर नजर डालते हैं तो एक बार उश्भर आती है। कामरेड पूरन चन्द्र जोशी या कामरेड पीसीजे के नेतृत्व में कम्युनिस्ट आंदोलन में बड़ी ही निहित संभावनाएं पैदा हो गईं। जोशी के रूप में आंदोलन को एक ऐसा नेता मिल गया जो सच्चे मानों में ‘निहित बुद्धिजीवी’ था। वे सिर्फ मजदूरों और किसानों की फौरी समस्याओं तक नहीं, और सिर्फ मजदूरों और किसानों तक ही सीमित नहीं रहे। जोशी ने आंदोलन के दूरगामी उद्देश्यों की गहराई में जाकर उसका सार समझने की कोशिश की।
फासिज्म, संस्कृति और साहित्य
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों के बीच के काल का मुसोलिनी और हिटलर के रूप में फासिज्म के उभार का समय था। साथ ही फासिज्म और नाजीवाद के विरोध का भी। उस काल में यूरोप में तथा भारत में भी ‘पापुलर फ्रंट’ तथा संयुक्त मोर्चे संबंधी दिमित्रोव थीसिस पर घनघोर बहस चल रही थी।
रूसी क्रांति के विचारों ने भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को गहराई और व्यापकता से प्रभावित किया। सारे विश्व के पैमाने पर बुद्धिजीवियों का काफी बड़ा तबका फासिज्म-विरोध पर उतर पड़ा। लेकिन बात सिर्फ फासिज्म-विरोध तक सीमित नहीं थी।
बुद्धिजीवियों में आशावादी आंदोलन बहुत बड़े पैमाने पर चल पड़ा। फासिज्म से न सिर्फ लड़ना था बल्कि एक नए समाज का निर्माण करना हमारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है, बुद्धिजीवियों में इस जिम्मेदारी का अहसास गहराता गया और इस भावना ने एक विशाल आंदोलन का रूप ले लिया। सोवियत संघ में अपनी सारी कमियों के बावजूद औद्योगिक विकास की सफलताओं ने समाजवाद के प्रति आकर्षण बढ़ा दिया।
भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण
आजादी का आंदोलन सांस्कृतिक एवं साहित्य बहसों, आंदोलनों एवं संग्इनों के लिए अनुकूल परिस्थिति थी। यह वह काल था जब रोम्यां रोलां, मक्सिम गोर्की, राल्फ फाॅक, क्रिस्टोफर काॅडवेल सरीखे दिग्गज सांस्कृतिक-साहित्यिक पटल पर नक्षत्रों के समान उभर रहे थे। भारत में भी सज्जाद जहीर, मुल्क राज आनन्द, मखदूम मोहिउद्दीन सरीखे साहित्यकार तक सांस्कृतिक क्षेत्र में अनेकानेक नाम उभर रहे थे। आजादी का आंदोलन बुद्धिजीवी को आम जनता, किसानों, मजदूरों एवं मध्यवर्ग से जोड़े दे रहा था। दोनों में अंतरसंबंध निर्मित हो रहे थे। पुनर्जागरण की प्रक्रिया तेज हो रही थी और सांस्कृतिक आशावाद का संचार हो रहा था।
फ्रांस में बढ़ते प्रगतिशील साहित्यक आंदोलन ने नए आयाम जोड़े। रोम्यां रोलां, आंद्रे माल्रो और हेलरी बारब्यूस ने जो विचार-प्रवाह निर्मित किया उसने फासिज्म विरोधी संयुक्त मोर्चा आंदोलन में जान फूंक दी। परिणामस्वरूप 1935 में पेरिस में ‘संस्कृति की रक्षा के लिए लेखकों का विश्व सम्मेलन’ आयोजित किया गया जो एक मील का पत्थर साबित हुआ। 1936-39 का स्पेनी गृह-युद्ध फासिज्म के समर्थकों और फासिज्म के विरोधी प्रगतिशील शक्तियों के बीच विभाजन रेखा बन गई।
कामरेड पूरन चन्द्र जोशी - निहित बुद्धिजीवी की भूमिका में
भारत में साहित्य एवं संस्कृति भी भूमिका और उद्देश्यों के बारे में बहस छिड़ गई। भाषा और संस्कृति को अब अधिकाधिक साधन के रूप में देखा जाने लगा, न कि सिर्फ उद्देश्य के रूप में। साहित्य एवं संस्कृति जीवन की आलोचना का माध्यम भी हो सकते हैं और युग का प्रतिबिम्ब भी। संस्कृति, साहित्य, कला इत्यादि जनगण को प्रेरित एवं आंदोलन कर विशाल मूलगामी पुनर्जागरण का रूप धारण कर सकते हैं।
इस सच्चाई को कामरेड जोशी तथा अन्य साथियों ने पहचाना। इसका एक परिणाम हुआ 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन।
दूसरा परिणाम था 1943 में इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) का गठन।
ये दोनों ही घटनाएं भारत के सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पुनर्जागरण की महत्वपूर्ण कड़िया थीं।
कामरेड पी.सी. जोशी ने कला, साहित्य एवं संस्कृति की भूमिका पहचानी; मात्र राजनैतिक दृष्टि से नहीं, मात्र संगठन की दृष्टि से नहीं। उन्होंने इन माध्यमों को जन आंदोलनों एवं जनशिक्षा का साधन बनाया। जनता जब इन माध्यमों को बड़े पैमाने पर अपना लेती है तो जनमानस तथा जनचेतना के परिवर्तन का वे साधन बन जाते हैं।
पार्टी की देख-रेख में सांस्कृतिक मंच के गठन पर काफी समय से विचार हो रहा था। बम्बई में पहले ही इप्टा का गठन किया जा चुका था। कुछ स्थानों में किसी न किसी रूप में सांस्कृतिक गतिविधियां जोर पकड़ रहीं थीं और संगठन बनाए जा रहे थे।
भाकपा की प्रथम कांग्रेस और सांस्कृतिक गतिविधि
मई 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहली अखिल भारतीय कांग्रेस बम्बई में आयोजित की गयी। इस अवसर पर अत्यंत ही समृद्ध, विकसित एवं विविध सांस्कृतिक गतिविधि आयोजित की गई - शायद फिर कभी ऐसा आयोजन न हो पाया। आंध्र प्रदेश, केरल, हैदराबाद, बंगाल, पंजाब, गुजरात, बम्बई, महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों एवं इलाकों की सांस्कृतिक मंडलियों एवं संगठनों ने अत्यंत ही आकर्षक संस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये। इसमें 150 से अधिक कलाकारों ने भाग लिया। दामोदर हाल, कामगार मैदान तथा अन्य स्थानों में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। गीतों, नाटकों, नृत्यों, सम्पूर्ण प्रहसनों इत्यादि के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलू प्रस्तुत किए गए और राष्ट्र के पुनरूत्थान और पुनर्जागरण का चित्र खींचा। जनता के कलारूप प्रस्तुत गये। उदाहरण के लिए आंध्र की ‘बर्रकथा’ ‘बर्र’ नामक बाजे के सहारे गीत की प्रस्तृति, ‘पिचीकुन्तला’: आल्हा की तरह सामूहिक गायन का रूप; बहुरूपिया नृत्य, हरिजन नृत्य, फासिस्ट विरोधी लोरी इत्यादि।
इन कार्यक्रमों को हजारों लोगों ने बड़ी ही दिलचस्पी से देखा। जनता की चेतना विकसित करने के वे अत्यंत ही प्रभावशाली माध्यम थे।
उन्हें प्रेरित व विकसित करने का अधिकतर श्रेय कामरेड पी.सी. जोशी को जाता है।
इप्टा एवं सांस्कृतिक आन्दोलन
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की प्रथम कांग्रेस के अवसर पर आयोजित यह कार्यक्रम आकस्मिक नहीं था।
विभिन्न प्रदेशों में काफी पहले से प्रगतिशील, राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट शक्तियों की पहल पर जन संस्कृति मंच एवं आंदोलन संगठित हो रहे थे। उनका अपना-अपना अलग इतिहास है।
बम्बई इप्टा की हम चर्चा कर आये हैं। आंध्र क्षेत्र तथा देश के कई अन्य इलाकों में प्रभावशाली सांस्कृतिक आंदोलन विकसित हो रहा था। जिसका पार्टी के केन्द्र से सक्रिय संबंध था। इस बीच बंगाल में यूथ कल्चरल इंस्टीट्यूट (युवा सांस्कृतिक संस्थान) (1940-42) का गठन किया गया।
1939 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने एक शोध संस्थान बनाने का प्रस्ताव रखा जो किन्हीं कारणवश सम्भव नहीं हो पाया। इनमें से कई विद्यार्थी ड्रामे इत्यादि लिखा करते थे और उनका मंचन किया करते थे। इसी वक्त प्रगतिशील लेखक संघ नामक संस्था का निर्माण किया गया था जिसका नाम बाद में बदलकर प्रगतिशील लेखक एवं कलाकार संघ कर दिया गया। इससे तथा अन्य से संबंधित विद्यार्थियों ने 1940 के मध्य में युवा सांस्कृतिक संस्थान की स्थापना की। वह 1942 तक सक्रिय रहा।
इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) की स्थापना में उपर्युक्त संस्थान की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसने कई प्रकार के प्रयोग किये, गीत लिखे, उन्हें धुनें दीं, साहित्यक एवं सांस्कृतिक रचनाएं तैयार कीं। उनमें एक नाटक जापानी फासिस्टों के बढ़ते के सम्बंध में ”एक हाओ“ कामरेड पी.सी. जोशी को भी दिखाया गया।
केन्द्रीय सांस्कृतिक दल और कामरेड जोशी
इप्टा के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी की देखरेख में एक केन्द्रीय सांस्कृतिक दल (सेन्ट्रल कल्चरल स्क्वाड) की स्थापना भी की गई। इसका निर्माण 1944 के मध्य में किया गया। यह पार्टी द्वारा सांस्कृतिक मोर्चे पर बड़ा ही महत्वपूर्ण कदम था। इसे ‘सेन्ट्रल ट्रूप’ भी कहते थे। शांतिवर्धन और उदय शंकर जैसे महान कलाकार कला की खोज में बम्बई तथा अन्य स्थानों में सांस्कृतिक दलों एवं कार्यक्रमों का गठन तथा आयोजन कर रहे थे। शांतिवर्धन तथा अन्य कलाकार जैसे रेखा जैन इत्यादि की मुलाकात इस सिलसिले में कामरेड पी.सी.जोशी से हुई। कामरेड जोशी उदय शंकर की आधुनिक शैली से बड़े ही प्रभावित हुए और जन-माध्यम का रूप देने पर जोर देने लगे। सेन्ट्रल स्क्वाड बनाने में कामरेड पी.सी.जोशी की सक्रिय भूमिका रही। 1944-46 के दौरान इस स्क्वाड ने सारे देश में जगह-जगह कार्यक्रम आयोजित कर धूम मचा दी। इसके साथ कई फिल्मी और गैर-फिल्मी हस्तियां जुड़ गईं।
सुप्रसिद्ध भाषाविद एवं साहित्यकार तथा कला के पारखी गोपाल हालदार के अनुसार चालीस के दशक में बंगाल के महा अकाल, फासिज्म विरोधी युद्ध तथा आजादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि में कम्युनिस्टों के इर्द-गिर्द संस्कृति भी दुनिया के दिग्गज इकट्ठा हो गए। वह कविता, कहानी, नाटक, गीत, चित्रकला इत्यादि के अभूतपूर्व सृजन का युग था। उनके अनुसार संस्कृति में आए इस उफान को कामरेड पी.सी. जोशी ने मुख्यतः प्रोत्साहित और संगठित किया।
1943-44 का बंगाल तथा अन्य क्षेत्रों के महा अकाल को पार्टी के नेतृत्व में प्रगतिशील और क्रांतिकारी आंदोलन ने एक सृजनशील शक्ति में बदल दिया। संस्कृति और कला अकाल तथा निराशा से संघर्ष का साधन बन गए। यह नोट करने लायक तथ्य है कि इप्टा का जन्म इसी दुर्भिक्ष के दौरान हुआ जब साहित्य, कला, कहानी, कविता, गीतों के जरिए सृजनशीलता फूट पड़ी और जनगण को एक बेहतर कल के लिए गोलबंद किया जा सका।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान कामरेड पी.सी.जोशी क्रांतिकारी जनांदोलन के निहित बुद्धिजीवी के रूप में उभर आए।
(का. अनिल राजिमवाले)
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