भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 30 जनवरी 2010

अलगाववादी नारों से सावधान

कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग-2 सरकार ने जिस जल्दबाजी में अर्द्धरात्रि को अपनी अदृश्य एवं स्तुतियोग्य उच्च कमान का हवाला देते हुए पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की घोषणा की उसकी देश भर में जो प्रतिक्रिया होनी थी, वही हुई। देश के लगभग हर प्रांत में अलग राज्य के जो अविकसित भ्रूण गर्भ में पड़े थे, उन्हें हवा पानी देकर जीवित करने की कोशिशें तेज हो गईं तो आंध्र प्रदेश में विभाजन के विरोध में ऐसा आन्दोलन खड़ा हुआ कि सारा देश दांतों तले उंगली दबा गया। पृथक तेलंगाना अब बन ही जाना चाहिए इससे हमें ऐतराज नहीं। लेकिन जब संसद में भाकपा ने सुझाव दिया था कि इससे पूर्व सभी राजनीतिक दलों की बैठक बुलाई जानी चाहिए, उसे न बुलाकर भारी अवसरवादी रवैये का परिचय दिया गया।
अब यह बात साफ हो गई है कि महंगाई की विकराल समस्या का निदान तो दूर उसको रोकने तक में नाकाम संप्रग-2 की सरकार जनता की अन्य समस्याओं को भी सुलझा नहीं पा रही है, उसने जनता का ध्यान बंटाने और उसे क्षेत्रीय आधार पर बांटने की गरज से ही इस मुद्दे को यह रूप दे डाला। देश के दूसरे राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी पृथक राज्यों के कई अविकसित भ्रूण जो जन समर्थन न मिलने के कारण गर्भ में सोये पड़े थे, को जगाने की कोशिश अन्य किसी ने नहीं सत्तासीन प्रदेश की मुखिया ने ही की। पहले उन्होंने प्रदेश को बांटकर तीन राज्य बना डालने और अगले ही दिन उसे चार भागों में बांटने को खत केन्द्र सरकार को लिख डाले। ऊपर से तुर्रा यह कि प्रदेश की जनता को उकसाया कि वह राज्य विभाजन के लिए सड़कों पर उतर कर संधर्ष करे। इस उकसावे को प्रदेश की जनता से विनम्रतापूर्वक ठुकरा कर साबित कर दिया कि वह एक अविभाजित उत्तर प्रदेश को ही अपने सीने से लगाये हुये है।
यहां राज्य की मुखिया के बारे में ही आम जनों की राय है कि अन्यों की भांति वह भी जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं। महंगाई, जमीनों का अधिग्रहण, सूखा, बाढ़, अपराधों की बाढ़, भ्रष्टाचार और यहां तक दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न को रोक पाने में असफल साबित हुई हैं। अतएव प्रदेश की जनता का ध्यान विभाजन की ओर मोड़ना और उसकी एकता को टुकड़े-टुकड़े कर देना ही उनका लक्ष्य है। शासक पूंजीपति वर्ग की कोई भी पार्टी ऐसा करेगी ही यह स्वाभाविक है। लेकिन इन उकसावों के बावजूद प्रदेश की जनता तो खामोश बनी ही रही, उन परम्परागत शक्तियों, जो पृथक राज्य की मांग पर जब तब अपनी राजनीतिक रोटियां सेकती रहती हैं, की भी आगे जाने में हिचकिचाहट यह दर्शाती है कि उन्हें जनता की भावना का अहसास है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकदल हरित प्रदेश के नाम पर राजनीति करता रहा है। लेकिन उसका जातीय आधार गन्ने, आलू, बिजली, पानी के सवालों पर तो उनके साथ जुटता है, हरित प्रदेश के नाम पर कभी नहीं जुटा। जुटे भी क्यों? पृथक राज्य की बात पिछड़े भागों से उठे, यह तो माना जा सकता है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश को विकसित होने का दावा करने वाला लोकदल अपने मुद्दे को ही न्यायोचित नहीं ठहरा पाता। उसकी आवाज इस भ्रामक प्रचार पर टिकी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आमदनी का 80 प्रतिशत भाग पूर्व को भेज दिया जाता है। यह उतना ही भ्रामक है जितना गरीबी, बेरोजगारी आदि के लिए पूर्व जन्म के कार्यों को जिम्मेदार ठहराना।
अलग बुन्देलखंड की मांग उठाने वालों को भी जन समर्थन नहीं मिल पा रहा। बुन्देलखंडवासी जानते हैं कि उस क्षेत्र के विकास की जरूरत है कि जिसके लिए केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों को प्रयास करने होंगे। झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि का उदाहरण भी उनके सामने है जहां अलग राज्य बनने के बाद दल-बदलुओं, जनता की सम्पत्तियों का दोहन करने वालों तथा पूंजीपति-उद्योगपतियों के हाथों बिकने वालों के हाथ में शासन तंत्र चला गया। बुन्देले यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी यह दशा क्षेत्र के सामंती और पूंजीपतियों के बेइंतहा शोषण के कारण है। बुन्देलखंड का जनमानस अच्छी तरह समझता है कि अलग राज्य बनने के बाद तो पूरा शासन तंत्र इन्हीं शोषकों के हाथों चला जाएगा और जनता की निर्मम लूट होगी।
निश्चित ही पूर्वांचल बुन्देलखंड के बराबर न सही लेकिन पिछड़ा हुआ है। क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने की आवाज वहां भी उठती है और इस आवाज को समूचे प्रदेश से समर्थन मिलता है। पूर्वांचल के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाये जाने चाहिए। लेकिन अलग राज्य बनने के बाद संसाधन कहां से आयेंगे और कैसे विकास होगा, इन बातों को जनता गहराई से सोचती है। अतएव कुछ चुके मोहरों की कोरी बयानबाजी के अलावा पूर्वांचल के लोगों ने मुख्यमंत्री के सड़कों पर उतरने के तुर्रे को कोई महत्व नहीं दिया।
फिर अंतिम बचा मौजूदा प्रदेश का वह भाग जहां राजधानी लखनऊ है। यह इलाका दूसरे क्षेत्रों के लोगों को अपने में समाहित करने के लिए विख्यात है, जहां अलगवादी मांग कभी उठी ही नहीं।
दरअसल छोटे राज्यों में जनता की ताकत कम हो जाती है और शोषक पूंजीपतियों की ताकत बढ़ जाती है। छोटे सूबों की सरकारें खरीद-फरोख्त के इस दौर में आसानी से पूंजीपतियों द्वारा मैनेज कर ली जाती हैं और किसान-मजदूरों को उसका परिणाम भुगतना पड़ता है। हरियाणा का उदाहरण सामने है जहां हाल ही में मजदूरों के कई आन्दोलनों को उद्योगपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में सरकार ने कुचलने की कोशिश की।
उत्तर प्रदेश के मौजूदा स्वरूप में किसानों-मजदूरों की संयुक्त ताकत है जिसके बल पर सरकार के झपट्टे से एक हद तक संयुक्त आन्दोलन चलाकर वे बच पाते हैं। दादरी की भूमियों के अधिग्रहण के सवाल पर भाकपा-जनमोर्चा के नेतृत्व में प्रदेश भर में आन्दोलन चलाया गया और आज मामला किसानों के पक्ष में है। लेकिन यही किसान और कामगारों की ताकत अलग-अलग राज्यों में बंट जायेगी तो उनके सामने सरकार के हाथों पहंुच लुटने-पिटने के अलावा कुछ शेष नहीं होगा।
प्रदेश की जनता को इस पर गौरव है कि मथुरा, काशी, अयोध्या, गोरखनाथ, नैमिषारण्य, देवा जैसे गौरवशाली सांस्कृतिक स्थल उसके पास हैं। ताजमहल और अवध के स्मारक उसकी हृदयस्थली में हैं। अवध-आगरा संयुक्त प्रदेश के गौरव को समेटे भव्य विधान भवन उसके पास है। गंगा, यमुना, बेतवा, घाघरा, शारदा, राप्ती जैसी नदियाँ उसके वक्षस्थल को प्रक्षालित करती हैं। खेती, बागवानी और उद्योगों में वह अग्रणी है। हिन्दी की उपभाषाओं - ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, बुन्देली और खड़ी बोली के साथ उर्दू सभी का यहां अलग ही महत्व है। ऐसे में प्रदेश की एकता और एकता के भीतर ही विकास यहां की जनता का सपना है जिसे तोड़ने की कोशिशों को जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।
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और भी ग़म हैं ज़माने में.........

आज लेखकों के हजारों संगठन हैं। गली-गली चैराहे-चैराहे में। राजनीतिक दलों की छाया में और उनसे बाहर भी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा संचालित भी। अलग-अलग भाषाओं में सत्ता पोषित और अपोषित। उत्सवधर्मी। अपने-अपने नायकों को याद करने के लिए। गहोई समाज याद करेगा- मैथिलीशरण गुप्त को। कान्यकुब्जों के लिए नायक होंगे- निराला। कबीर जयन्ती या वाल्मीकी जयन्ती के अपने-अपने समाज हैं। समाज को विखण्डित करने के लिए इनका इस्तेमाल होता है। मनुष्य के दुख-दर्द की गाथा कहने वाले रचनाकारों को आध्यात्मिक रंग में रंगने की कोशिशें होती हैं। कवियों-रचनाकारों का पूजा के लिए इस्तेमाल होने लगता है। पूजीवादियों ने तुलसीदास की कृति रामचरित मानस को लाल कपड़े में बंाधकर पूजा घर में रख दिया है। रोज पंाच दोहे का पाठ करके पूजा करते हैं। लेखकों के संगठनों की शायद आज तक किसी ने सूची नहीं बनायी होगी। ये क्या काम करते हैं कैसे व्यवस्था का पोषण करते हैं, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। चिन्ता है तो प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की। इनका होना उन्हें अखरता है। इनको तोड़ने के लिए चारों ओर से कोशिशें होती हैं। सत्ताएं इन्हें या इनसे जुड़े लेखकों को दंडित करती हैं। फूटी आंख नहीं देखतीं।
आज के सात दशक पहले दुनिया के लेखकों-बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों एवं समाज वैज्ञानिकों ने मिलकर तय किया कि उन्हें केवल मनुष्य कल्याा की सदेच्छाएं पालने और लिखने के बजाय सामाजिक परिवतर्न में हिस्सेदारी निभानी चाहिए। बोलना और लिखना काफी नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध ने जिस तरह जनप्रतिरोध की हत्या की, नस्लवाद को थोपने की कोशिश की, लेखकों, कलाकारों को जेलों में ठूंसा, पता नहीं क्यों लोगों को लेखक संगठनो ंपर हमला करते हुए इतिहास के इन क्रूर दिनों की याद नहीं आती। लेखकों ने संस्कृति की रक्षा के लिए संगठित होने का जो संकल्प लिया था- उसे भूल जाते हैं। उपभोक्तावादी समय में चैन की खुशी इतनी मधुर हो गई है कि दूरगामी अवचेतन की गांठे नहीं खुलती। लगता है कि सब जगाह खुशहाली है। अमन चैन है। मजदूरों-किसानों के संगठनों-कर्मचारी संगठनों को तोड़ने की कोशिशें तो होती ही हैं।’ अब लेखकों को तोड़ने का काम हो रहा है। स्वयं लेखक इसमें सक्रिय हैं। प्रायः प्रेमचन्द्र को उद्धत कर कहा जाता है कि लेखक स्वयं प्रगतिशील होता है, इसलिए इसके लिए संगठनों की जरूरत नहीं है। मौजूद तीनों संगठनों को पार्टीबद्ध घोषित कर दिया जाता है। सामान्य मान्यता है कि प्रलेस-भाकपा, जलेस-माकपा और जसम-माकपा (माले) से सम्बद्ध हैं। चलिए थोड़ी देर के लिए पार्टी सम्बद्धता के प्रश्न को अभी स्थगित कर लेखक संगठनों की वर्तमान स्थिति और जरूरतों के बारे में बातें करें।
हिन्दुस्तान में आजादी की लड़ाई दुनिया के मुक्ति संग्राम का हिस्सा थी। पूरी बीसवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण पहलू यही है कि धीरे-धीरे उपनिवेशवाद से जनता को मुक्ति मिली। राष्ट्रीयताएं जन्मीं-पुष्ट हुईं और भौतिक रूप से जनता के बीच वैश्विक दृष्टि का विकास हुआ। बीसवीें शताब्दी जैसे महान विचारक, रचनाकर और बुद्धिजीवी पहले नहीं थे। सामाजिक संघर्ष में भागीदारी, विश्व दृष्टि और यथार्थ की कोख से जन्मे स्वप्नों के कारण ही महान रचनाकारों का उदय हुआ। भारतीय भाषाओं के अलावा हिन्दी भाषा और साहित्य में इसके प्रमाण कम नहीं हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे रचनाकार ने अपनी निजी दुनिया से बाहर आने की घोषणा की। प्रगतिशील लेखक संघ के साथ जुड़ने की अनिवार्यता अनुभव की। ठीक है, प्रेमचन्द्र जैसे लेखकों को प्रगतिशील लेखक संघ ने नहीं बनाया। सामाजिक प्रतिबद्धता के चलते उन्हें ही संगठन की जरुरत अनुभव हुई। इसी प्रतिबद्धता से वे महान लेखक बने। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के पूर्व वे लेखकों के संगठन के लिए बेचैन थे। सज्जाद जहीर ने लंदन से प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के लिए घोषण-पत्र भेजा तो प्रेमचन्द्र उछल पड़े- ‘हां, मुझे इसी तरह के लेखक संगठन का इंतजार था।’ वे संगठन में न केवल शामिल हुए, वरन् उसकी नींव रखी तथा घूम-घूमकर इकाइयां गठित करने लगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कलकत्ता में होने वाले प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन के उद्घाटन भाषण के रूप में जो शब्द कहे- उसकी कुछ पंक्तियां यों हैं-‘मेरी तरह गोशानशीनी से काम नहीं चल सकता। एक लम्बे समय तक समाज से अलग रहकर मैंने जो बहुत बड़ी गलती की है, अब मैं उसे समझ गया हूं, और यही वजह है कि अब मैं नसीहत कर रहा हूं।’
मित्रों, लेखको संगठनों के पीछे छिपा मंत्र सामाजिक प्रतिबद्धता का है। सामाजिक प्रतिबद्धता समाज में मात्र रहने से नहीं आती। घर, परिवार, नौकरी में कैद रहकर दिनचर्या निभाना सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए काफी नहीं है। सामूहिकता का भाव-बोध एक अलग प्रयत्न है। मध्ययुगीन संत कवि सामाजिकता के लिए गृहत्यागी तक हो गए। प्रेमचन्द्र या रवीन्द्रनाथ टैगोर लेखन के जरिए नहीं अपनी सामाजिकता के जरिए व्यवस्था परिवर्तन में हिस्सेदार बनना चाहते थे। इसी उद्देश्य से अनुप्राणित होकर हिन्दुस्तान की सभी भारतीय भाषाओं के बड़े-बड़े लेखकों ने इस मंत्र की सार्थकता समझी और संगठन में शामिल हुए।
सात दशकों बाद इक्कीसवीं शताब्दी की दुनिया बदल चुकी है। माना कि पहले से जैसा जज्बा नहीं बचा। सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी संरचना का जो रास्ता खुला था, वह बिखर गया। सामन्तवाद-पूंजीवाद समाप्त नहीं हुआ था तो उहीं के कलुषित जोड़ से समाजवाद की दिशा में बढ़ते कदमों से दुनिया में बन रही वैश्विक मानवीय एकता को खण्डित किया जाने लगा। एशिया के देशों में आपसी युद्ध के बीज बोये जाने लगे। तीसरी दुनिया की एकता टूट गई। लेखकों-कलाकारों का समाज सस्ती लोकप्रियता और निजी महत्वाकांक्षओं का शिकार होने लगा। लोकतंत्र के लिए समरसता मूलक सपने देखे जा रहे थे। वह दूर की कौड़ी लगने लगा। खोज-खोजकर वामपंथी राजनीतिक दलों-बुद्धिजीवियों-लेखकों के साथ दबाव बनाकर प्रलोभन और मत्वाकांक्षओं को जगाते हुए संगठनों तथा इससे जुड़े लेखकों की सामाजिक प्रतिबद्धता को खंडित किया जाने लगा। यह काम अचानक चन्द दिनों में नहीं हुआ। स्वतंत्र भारत में स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ के संगठनकर्ता सज्जाद जहीर ने अपने जीवित रहते-रहते ही देख लिया था और कहा था- ‘अवाम की इच्छाशक्ति, विवेक और समझदारी को काम में लाए बिना वह सामूहिक क्रिया असंभव है जिसे ‘इंकलाब’ कहते हैं। कभी धर्म, मजहब और परम्परा के नाम पर लोक में जात-पात और नस्ल के नाम पर कभी उग्र राष्ट्रवाद के ज़ज़्वे को उभारकर, कभी भाषा और संस्कृति के सवाल में तंग नज़रिए, संकुचित विचारधारा फैलाकर और ज़हालत फैलाने का ज़रिया बनाकर इंसानों और इंसानों में फूट डाली जाती है। अवाम की ताकतों को तोड़ा और प्रदूषित किया जाता है कभी ऐसे दार्शनिक ख़्यालात और विचारों को फैलाकर जिनसे इंसानियत और उसके उज्जव भविष्य, इंसान और विकासशीलत की ओर से दिलों में मायूसी और घुटन पैदा हो जाती है। और हम बेहिसी और निष्क्रियता का शिकार हो जाते हैं।’ बन्ने भाई की ये पंक्तियां कितने दिनों बाद आज की लग रही हैं। अवाम की शक्ति और लेखकों की सामाजिकता को तोड़ने के लिए ये सारे प्रयत्न चरम पर हैं। इतिहास का अन्त कहा जा चुका है। कभी आधुनिकता के आने से हमारे देश में नवजागरण की लहर उठी थी। पुनरुत्थानवादी शक्तियां कमजोर- शिथिल हो चली थीं। आजादी के बाद अपने-अपने सियासी हित में वे फिर मजबूत हो गईं। समाजवादी संरचना सबके लिए शत्रु बन गई। साम्राज्यवाद, समाजवादी व्यवस्था को मनुष्य के स्वप्नों से भी निकालने के लिए कटिबद्ध है। अमरीका कितने ऐसे लोगों को फेलोशिप देकर कहता है कि समाजवाद को जड़ों से उखाड़ने के उपाय खोजो। ऐसे में तमाम देशी-विदेशी विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए लेखकों के प्रगतिशील संगठन हैं। जिन्दा हैं। माना कि उनमें पूरी जिम्मेदारी के निर्वाह की क्षमता नहीं है। हो भी नहीं सकती। निश्चय ही जटिल स्थितियों को सुलझाने की बौद्धिक क्षमता का हृास हुआ है। मध्यवर्गीय निजबद्धताओं की घेराबन्दी है। शहरों में रहने वाले व्यवसायजीवी लेखकों ने मीडिया का सहयोग लेकर परस्पर शत्रुता को हवा दी है। सांगठनिक वैरभाव, आपसी दलबन्दी और वैचारिक संघर्ष के व्यापक क्षेत्रों के प्रति उदासीनता-निरन्तर इन्हें कमजोर करती है। युवा लेखक साथ आते हैं। कूटनीतिक व्यवहार के चलते वापस लौट जाते हैं। रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें कैरियर की चिन्ता रात-दिन सताती है। बड़ी-बड़ी नौकरियां निश्चिन्त नहीं करतीं। असुरक्षा की मनोग्रंथियां हैं। ऐसे में समाजिकता का भाव और लेखकीय प्रतिबद्धता गौण हो जाती है। गरीब-वंचित अवाम से तो कोई नाता नहीं रह जाता। मजहबी कर्मकाण्ड ने तमाम दृश्य संचार को जकड़ लिया है। विश्वविद्यालयों के परिसर से ज्ञान की आवाज नहीं आती। गोष्ठियां-संगोष्ठियां कर्मकाण्ड में बदल गई हैं। हमारे लेखक संघों में जो लोग शामिल हैं वे आसमान से नहीं आते। ज्यादातर सरकारी-गैर सरकारी नौकरी में ही तो हैं। अपने-अपने धंधे हैं। मंच की कविता का स्वभाव अलग है। वहां मुकुट बिहारी सरोज, वीरेन्द्र मिश्र, रमेश रंजक नहीं हैं। आशु कवि हैं पर उन तक पहुंच नहीं। गांव-देहात में लिखी जाती लोक-कविता से रिश्ता नहीं। समूची लोक कविता अछूत हो गई है। तथाकथित लेखन आकस्मिक और सांगठनिक चिन्ता तो और भी आकस्मिक। इसी को आप मुख्यधारा कहते हैं। आप लेखन के क्षेत्र में थोड़ा प्रतिष्ठित हुए तो संगठनों की सदस्यता के बावजूद सामाजिक जिम्मेदारियांें से उदासीन। ऐसे माहौल में वे तथाकथित वामपंथी मुखर दिखते हैं जो कहते हैं कि लिखने के लिए या वैचारिकता के लिए संगठन जरूरी नहीं हैं। संगठनों की गतिविधियां भी यह प्रमाणित नहीं कर पातीं- कि नहीं, अच्छा-बेहतर लिखने के लिए भी सामाजिक हिस्सेदारी और संगठन जरूरी हैं। संगठन मशीन नहीं - परिवर्तनकारी सपनों को पालने निराशा-हताशा से लड़ने के केन्द्र होते हैं। संगठनों में निष्ठापूर्वक रहकर लेखकों को पता नहीं चलता कैसे वे बेहतर से बेहतर हो रहे हैंः पर संगठन यदि अपनी व्यापक भूमिका को पहचानें तब तो। जनता के लिए प्रतिबद्ध उनके स्वभाव का हिस्सा हो तब तो। अनजाने ही संगठनों में लेखकों की ‘मानसिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक टेªनिंग’ (सज्जाद जहीर) होती है।
अब जब हम स्वयं संगठनों की कमजोरियों को स्वीकार करते हैं और आत्मलोचन की जरूरत अनुभव करते हैं- तब यदि कोई कहता है कि संगठनों की प्रासंगिकता नहीं है, तो आपत्ति क्यों होती हैं? हाल में कुछ पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपे हैं। अखबारों में बहसें हुई हैं। कुछ ऐसी नियमित पत्रिकाएं हैं जो संगठनों के विघटन को हवा देती हैं। अराजक मनोविज्ञान के लेखकों को अपने साथ जोड़कर व्यक्तिग हमले करवाती हैं। हमारे एक मित्र गोपेश्वर सिंह ने एक लेख के जरिए संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाकर सलाह दी है, ‘किसी भी राजनीतिक सामाजिक घटना या राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सिर उठाने वाले संकट के समय लेखक के कर्तव्य और भूमिका को उसके विवेक पर छोड़िए। वह समाज का सबसे संवेदनशील सदस्य है। वह मनुष्यता पर आए संकट को पहचानने की किसी भी राजनीतिज्ञ से अधिक क्षमता रखता है। इसके लिए लम्बे-चैड़े घोषणा पत्र के अनुशासन में बांधने का काम बन्द होना चाहिए।’ गोपेश्वर सिंह की राय मानें तो संगठनों को तोड़ देना चाहिए।
मैं पिछले लगभग तीस-पैंतीस वर्षों से संगठन में कार्यकर्ता की तरह रहा हूं। हरिशंकर परसाई के नेतृत्व में मध्यप्रदेश में काम करने का मौका मिला। एक समय था- जब इस प्रदेश के अधिकांश लेखक प्रलेस से जुड़े थे। जितनी पत्रिकाएं यहां से निकलींः और प्रदेशों से नहीं। गजब की सक्रियता थी। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी संगठन से जुड़े थे इसलिए उनके सहयोग से युवा लेखकों के पन्द्रह-पन्द्रह दिन के रचना शिविर हुए। वैचारिक प्रशिक्षण हुआ। पंचगढ़ के शिविर में पन्द्रह दिन तक महाकवि शमशेर शामिल रहे। अंतिम दिन उन्होंने कहा कि यदि उनके ज़माने में ऐसे शिविर होते-तो उनका लेखन और बेहतर होता। मुझे याद है कि प्रतिवर्ष होने वाले शिविरों में मार्गदर्शन के लिए देश के बहुत से लेखक युवा लेखकों के साथ रहे। अद्भुत उत्साह था तब। उसका नतीजा हुआ कि वे युवा रचनाकार समृद्ध हुए और सामाजिक संघर्ष के लिए जुझारू और जगारूक भी बने। वे प्रलेस के साथ जुड़ते गए। उनसे कोई पूंछे तो आज भी वे संगठन के महत्व पर बोलते लिखते हैं। चालीस वर्षों की यात्रा में मैंने कर्तव्य समझा है कि संगठनों में शामिल वरिष्ठ लेखकों को युवा लेखकों के साथ कुछ समय रचनात्मक माहौल बनाकर बिताना चाहिए। यह जरूरी काम है। संगठनों का काम दफ्तर चलाना नहीं है। किसी के लेखन में कोई दबाव डालना नहीं। मौलिक प्रतिभा में हस्तक्षेप नही। मुझे नहीं लगता कि किसी लेखक संगठन में ऐसी स्थितियां हैं। लेखकीय आजादी में कहीं हस्तक्षेप है। जहां तक पार्टीबद्धता का प्रश्न उठाया जाता है तो जानिए कि प्रश्न उठाने वाले बाहरी लोग हैं। हमले के लिए बहाने के तौर पर इसे चुनते हैं। यह सही है कि इन्हें पार्टियों का सहयोग है। सहयोग के बिना संगठनों को खड़ा करना असंभव है? कम्युनिस्ट पार्टियां जब समाजवादी सामाजिक संरचना के लिए काम करती हैं और प्रलेस-जलेस-जसम से जुड़े लेखकों के सपनों में वही समाज है तो इस आपसी संगति से किसी को आपत्ति क्यों है? हां, उनके पास कोई नकारात्मक उदाहरण है तो बताएं। संगठनों में कितने पार्टी सदस्य हैं, वे यह देखें। पार्टी लाइन का भूत उन्हें सताता है तो कोई क्या करें? कम्युनिस्ट पार्टियों के काम से या लेखक-संगठनों के काम और कमजोरियों से शिकायत है तो यह अर्थ नहीं होता कि उन्हें तोड़ दिया जाए? शिकायत है तो बेहतरी के लिए हो। प्रायः दिखता है कि संगठन विरोधी लोग अपने व्यवहार में घनघोर वैचारिक अवसरवाद के शिकार होते हैं। अपनी आकांक्षाओं के लिए कहीं भी जाना-आना करना न करना के बीच आत्म नियंत्रण नहीं रखते।वे नहीं चाहते कि कोई उनके भीतर झांके। उनके स्त्रोंतों की खबर रखे। बेहतर तरीका होता है कि हमला करें और पहले से ही उन्हें सुरक्षात्मक बना दें। मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों की तारीफ करते हैं। पर भूल जाते हैं कि इसी कवि ने पूछा था- ‘पार्टनर! तुम्हारी पालिटिक्स क्या है’ मुक्तिबोध ने स्वयं संगठन बनाने की पहल की थी। संगठन विरोधी क्या स्वयं से कभी पूछते हैं कि उनकी पाॅलिटिक्स क्या है? मैंने संगठन में काम करते हुए कुछ कमजोरियों के बावजूद एक सकारात्मक अनुभव पाया है। वह यह कि सामान्य परिस्थितियों में संगठन या इसके सदस्य चाहे जितने ढीले नजर आते हों- विरीत परिस्थितियों में ये लड़ाकू हो जाते हैं। लोगों को याद होगा, जब-जब देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए, भोपाल में गैस त्रासदी हुई, गुजरात में भूकम्प आया और इसी प्रदेश में सरकारी मशीनरी द्वारा गोधरा से लेकर पूरे गुजरात में अल्पसंख्यकों का संहार हुआ। दक्षिणी प्रदेशों में सुनामी का कहर बरपा हुआ, मुुंबई में आतंकी घटना हुई। लेखकों संस्कृतिकर्मियों ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की। लाखों रुपए लेखकों ने एकत्र किए और पीड़ितों तक भेजा। गैस त्रासदी में महीनों प्रभावितों की सेवा की। दंगों के समय लोगों ने सीधे जूझकर खतरे उठाए। जिन्हें पता न हो- वे पूंछे। उन्हें ब्यौरा दिया जाएगा।
देश में राजग सरकार के दौर की स्थितियां याद होंगी। लेखक संगठनों ने राष्ट्रव्यापी चुनाव घोषणा पत्र जारी किया था और साम्प्रदायिक शक्तियों को हराने के लिए जनता का आह्वान किया। अखबारों में लेख लिखे और जगह-जगह नुक्कड़ नाटक खेले गये। प्रेमचन्द को पाठ्क्रम से हटाने का मामला हो या एम.एफ. हुसैन के चित्रों को लेकर तोड़-फोड़, लेखक संगठनों ने व्यापक संघर्ष किया। पोस्टर युद्ध हुए। गुजरात की घटनाओं को उजागर करने के लिए लेखकों ने गुजरात का दौरा किया। पत्रिकाओं के विशेषांक निकले। मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने संस्कृति विभाग के दो लेखक अधिकारियों को निलम्बित किया तो लेखक संगठनों ने सांस्कृतिक मोर्चा बनाया। एकजुट होकर सरकारी गतिविधियों का बहिष्कार किया। स्थिति यह बनी कि उनकी सभाओं में महत्वपूर्ण लेखकों का आना बन्द हो गया। अनजााने कोई आता तो अपने किराए से लौट जाता। महीनों उनके सभागार सुने रहे। अन्ततः निलम्बित लेखकों को बहाल करना पड़ा। हबीब तनवीर के नाटक - ‘पोंगा पंडित’ की प्रस्तुति पर हमला हुआ तो लेखक संगठनों ने मोर्चा सम्हाला। छत्तीसगढ़ सरकार ने कुछ दिन पहले चरणदास चोर नाटक के वाचन पर प्रतिबंध लगाया तो लेखक संगठनों ने आवाज उठायी। प्रतिबन्ध वापस हुआ। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं, जब लेखक संगठन अभिव्यक्ति की आजादी के लिए संघर्ष करते रहे हैं। संगठनों की पहल के बिना ऐसे मौकों पर कौन आवाज उठाता है, कोई बताए? बकौल गोपेश्वर जी लेखकों को अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए। तो इसमें हर्ज क्या है? जो संगठन में नहीं हैं वे नहीं है। न रहें विवेक की सुनें। मुझे नहीं लगता कि इसके लिए संगठनों को कुछ करने की जरूरत है। संगठनों की सदस्यता लेखकों के विवेक पर ही तो निर्भर है। वे हमेशा आजाद होते हैंः इच्छा से आते-जाते हैं। देखने की बात यह है कि संगठनों के बिना तथाकथित कितने स्वतंत्र लेखक हैं जो परिस्थिति के अनुसार अपनी पहल पर सामाजिक संघर्ष का सक्रिय हिस्सा बनते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोकतंत्र में शक्ति संचय संगठन के बिना संभव है। व्यक्तिगत निष्क्रिय प्रतिरोध, निष्क्रिय आदर्श, आदर्शहीन अवसरवादी सक्रियता अथवा केवल लिखकर प्रकट होने वाला प्रतिरोध कुछ नहीं होता।
प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़ने और परिणामतः गुणात्मक रूप से महत्वपूर्ण बने लेखकों की लम्बी सूची है। उर्दू में फैज, फिराक़, मख्दूम, जोश मलीहाबादी-मौलाना हसरत मोहानी अली सरदार जाफ़री, कैफी आज़मी जैसे लेखकों ने उर्दू साहित्य की फ़िजा बदल दी। संगठन से जुड़ाव का ही कारण था कि फै़ज ने अपने समकालीनों से राह बदलने की अपील की -
‘और भी ग़म हैं, ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा’
आगे जो उर्दू लेखक इससे अलग हुए और ज़दीदियत (आधुनिकवाद) की ओर मुड़े उन दोनों धाराओं की तुलनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए। हिन्दी में नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर, केदार, शील जैसे कवियों का जो अवदान है - वह संगठन से जुड़े बगैर असंभव था। इसी तरह गद्य लेखकों की लम्बी चैड़ी सूची देखी जा सकती है। आज तब किसी को आलोचना या रचना के क्षेत्र में गुणवत्ता, व्यापक स्वीकृति, अकादमिक गुणवत्ता, नये सौन्दर्य शास्त्र की चिन्ता तथा वैचारिक संघर्ष की जरूरत नहीं अनुभव होती तब युवा लेखकों बरगलाने एवं मीडिया में फैलने के लिए बार-बार अपरीक्षित नकली स्वायतत्ता और अपरिक्षित ढंग से पार्टीबद्धता का ढिंढोरा पीटा जाता है। उन्हें किसी तरह लेखक संगठनों को तोड़ने की ज्यादा फिक्र हैं। ऐसे साथियों की अपनी समझ और आजादी है। उन्हें कौन रोक सकता है। जानना चाहिए कि लेखक संगठनों का काम दिनचर्या के कार्यालय चलाना नहीं है। शुरुआत से अभी तक इनका कोई भवन नहीं बना। स्थायी कोष नहीं है। वार्षिक सरकारी अनुदान नहीं मिलता। यहां सम्पत्ति और पदों का झगड़ा नहीं है। इसीलिए ये संगठन अपनी सक्रियता के लिए हर दिन जमीन में भटकते हैं। लोगों को पता है कि बहुत दिनों तक इनका पंजीकरण नहीं था। इनकी प्रकृति आन्दोलन धर्मी थी। आज भी प्रकृति में परिवर्तन नहीं हुआ। आन्दोलन के मुद्दे और समय बार-बार निर्धारित होते हैं। घोषणा पत्र सामान्य नियम होते हैं जिनमें किंचित भी कठोरता नहीं रहती। वे सिद्ध करते हैं कि लेखक अवाम के साथ हैं। संगठन जानते हैं कि आज चुनौतियां ज्यादा हैं, क्षमताएं कम हैं। संगठनों की पत्रिकाएं हैं। नियमित-अनियमित निकलती हैं। प्रायः सभी भाषाओं में उनके लेखक-पाठक हैं। संगठनों की प्रेरणा या संगठन की ओर से निकलने वाली पत्रिकाएं केवल संगठनों के लेखकों की नहीं है। वे सांस्कृतिक धुव्रीकरण का काम करती हैं। सांस्कृतिक विकल्प की कोशिश में प्रलेस-जलेस-जसम से जुड़े नाट्य दल हैं। रंगकर्मी हैं। कहीं-कहीं चित्रकारों-कलाकारों के समूह भी इनसे जुड़े हैं। लोकतंत्र में जन संस्कृति का विकल्प क्या हो, इसकी समवेत चिन्ता संगठनों के बाहर समग्रता में और कहां होती है, इस बात पर निगाह रखी जाती है। जरूरत पर संयुक्त मोर्चे बनते हैं।
अंत में कहना यह है कि हमारे संगठन अपने आप में लक्ष्य नहीं हंै। उनका लक्ष्य लोकतंत्र के अनुकूल सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण करना है। जनसंस्कृति के लिए संघर्ष के बीज बोना है। जनविरोधी संस्कृति से लड़ने की प्ररेणा देना है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के संदेश से इसे जाना जा सकता है - ‘याद रखो कि सृजनात्मक साहित्य बहुत जोखिम भरा काम है। सच्चाई और सौन्दर्य की तलाश करना है तो पहले अहं की केंचुली उतार दो। कली की तरह सख्त डंठल से बाहर निकलने की मंजिल तय करो। फिर देखों कि हवा कितनी साफ है। रोशनी कितनी सुहानी है और पानी कितना स्वच्छ।’


प्रो. कमला प्रसाद
(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव हैं।)
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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

राजनीतिक रिपोर्ट

आठ माह पूर्व सम्पन्न हुये लोकसभा चुनावों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन एवं उसकी धुरी कांग्रेस ने पूर्व से अधिक सीटें हासिल कर पुनः सत्तारूढ़ होने के बाद अति उत्साह के साथ जिस सौ दिन के एजेण्डे की बढ़-चढ़ कर घोषणा की थी वह आज 250 दिन बीत जाने के बाद भी कहीं पूरा होते नहीं दिख रहा। उलटे इन 250 दिनों में जनता की समस्यायें कई गुना बढ़ी हैं।
देश में राजनीतिक और आर्थिक संकट तेजी से गहरा रहा है लेकिन दक्षिणपंथी और वामपंथ विरोधी शक्तियों के वामपंथ के विरोध में हमलों में भी वृद्धि हुई है और वामपंथ अस्थाई रूप से प्रतिरक्षात्मक स्थिति में है तथा कुछ कठिनाई के दौर से गुजर रहा हैं।
अमरीका में पैदा हुई आर्थिक मंदी जिसने कि दूसरे पूंजीवादी देशों को भी गिरफ्त में ले लिया था, का सीधा और गहरा प्रभाव भारत जैसे विकासशील देशों पर भी पड़ा। परिणामतः निर्यातपरक उद्योग, लघु उद्योग, कुटीर उद्योग और यहां तक कि सूचना तकनीकी उद्योग गहरे मांग के संकट में फंस गये ओर 30 से 40 लाख लोगों को नौकरी की हानि, बंदी, छंटनी या वेतन कटौती झेलनी पड़ी। भाकपा और वामपंथ ने गत संप्रग सरकार को बैंक, बीमा और दूसरे वित्तीय निकायों के निजीकरण करने की कोशिशों को न रोका होता तो स्थिति और भी खराब होती।
देश का आर्थिक संकट वस्तुतः पूंजीवादी व्यवस्था का संकट है। आर्थिक सुधारों के नाम पर अमरीका, विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुदा कोष-विश्व व्यापार संगठन के दिशानिर्देशों पर उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का जो मार्ग अख्तियार किया गया है, वह दिन-प्रति-दिन इस संकट को गहरा बनाता जा रहा है। लेकिन शेष विश्व की भांति यहां भी सरकार मंदी के प्रभाव को रोकने के नाम पर बड़े उद्योग घरानों को आर्थिक पैकेज देती रही है और इसका भार आम जनता के उपर लादती चली जा रही है। आसमान छूती महंगाई इस संकट का सबसे रौद्र रूप है।
इस महंगाई, खासकर खाद्यपदार्थों की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि जो हर सप्ताह 20 पांइट की दर से हो रही है, और चावल की खुदरा कीमत तो 51 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, की वजह है खाद्यान्न व्यापार में सट्टेबाजी (वायदा कारोबार) पर रोक लगाने में केन्द्र सरकार की पूरी तरह विफलता और मांग-आपूर्ति के बेमेल होने की स्थिति में सरकार द्वारा वायदा कारोबार की इजाजत देना, खाद्य पदार्थों का बेरोकटोक निर्यात तथा मुख्य तौर से उदारीकरण की नीति एवं एक बाधा रहित बाजार अर्थव्यवस्था की स्थापना। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की पंगुता और जमाखोरी तथा कालाबाजारी को खुली छूट ने भी महंगाई की दर में और इजाफा किया है। केन्द्र-राज्य सरकारों पर और राज्य सरकार केन्द्र पर जिम्मेदारी डाल कर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं और तबाह आम जनता हो रही है। केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री द्वारा दिये गये बयानातों ने भी महंगाई बढ़ाने वालों के हौसले बार-बार बढ़ाये हैं और केन्द्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया है। ऊपर से पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि ने भी महंगाई को बड़ा आकार मुहैया कराया। दिसम्बर माह में तो थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर 7.31 प्रतिशत पहुंच गयी जो नवम्बर में 4.78 थी। यह रिजर्व बैंक के 6.5 प्रतिशत के पूर्वानमुमान को भी पार कर गयी।
इस बीच महाराष्ट्र, हरियाणा, अरूणांचल प्रदेश एवं झारखण्ड में विधान सभाओं के चुनाव हुए हैं जिनमें हमें असफलता ही हाथ लगी है। हमें झारखंड में कुछ उम्मीद थी लेकिन वह भी पूरी नहीं हुई। वहां झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस को फायदा पहुंचा है यद्यपि जेएमएम ने भाजपा और कुछ अन्य के साथ मिलकर सरकार बना ली है। महाराष्ट्र, हरियाणा और अरूणांचल प्रदेश में यद्यपि कांग्रेस जीती है मगर बहुत कम अन्तर के साथ। उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्यों में हुए उप चुनावों में न केवल हम हारे हैं बल्कि वोट भी काफी कम मिले हैं। पश्चिम बंगाल तक में केवल एक ही सीट वाम मोर्चे के घटक फारवर्ड ब्लाक को मिली है। हमारे लिए बड़ी चिन्ता की बात है कि हम सीटें तो हार ही रहे हैं पूर्व में मिलने वाले वोट भी नहीं हासिल कर पा रहे। हमें गहरे आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। संसद में भले ही हम पहले से कम तादाद में हैं लेकिन कारगर भूमिका निभा रहे हैं। जनता के सामने मौजूद बेहद कठिनाईयों की इस घड़ी में हमें सड़कों पर ज्यादा संघर्ष चलाने होंगे। वामपंथी दलों के साथ मिलकर संघर्ष करने के साथ अपनी स्वतंत्र पहलकदमियों को बढ़ाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
2004 में सत्ताच्युत होने के बाद और पुनः 2009 में पराजित होने के बाद भाजपा कमजोर हुई है और उस पर आरएसएस ने अपना शिकंजा कसा है। इससे वह ज्यादा खतरनाक दिशा की ओर - साम्प्रदायिकता की ओर बढ़ रही है। आज भी भाजपा पांच राज्यों में शासन में है और तीन में सत्ता में भागीदार है, अतएव भाजपा के खतरे के प्रति पूर्ण जागरूकता जरूरी है।
गत लोकसभा चुनावों में पूर्व से अधिक सीटें हासिल कर लेने और वामपंथी दलों के नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में न रहने के बाद कांग्रेस अब मनमाने तौर-तरीकों से सरकार चला रही है। अपने सहयोगी दलों से सलाह-मशविरा तो दूर संसद तक को वह नजरंदाज करती आ रही है। तेलंगाना के सवाल पर उसकी तथाकथित हाईकमाण्ड द्वारा अर्धरात्रि को लिए गए निर्णय से न केवल आंध्र प्रदेश बल्कि समूचे देश में राज्यों के विभाजन की चिन्गारी पैदा हो गयी है। अब वह बड़ी चतुराई से दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन का आधार तैयार कर रही है जिसके सहारे सारे अन्य मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जायें और राज्यों के अनगिनत विभाजन का पिटारा खुल जाये।
यदि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र की बात करें तो यह सरकार भारत को अमरीकी साम्राज्यवाद, जो बेहद आक्रामक है, का रणनीतिक साझेदार बनाने में जुटी है जबकि भारत का हित विकासशील देशों के साथ खड़े होने में हैं। भारत-अमरीकी परमाणु करार के बाद अब भारत सरकार ने कोपेनहेगन में सम्पन्न जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अमरीका और विकसित देशों के समक्ष घुटने टेके हैं। प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री तक ने स्वीकार किया है कि कोपेनहेगन में भारत को विकसित देशों के सामने झुकना पड़ा। यह स्थिति आगे भी जारी रह सकती है। भाकपा और वामपंथ को लगातार दवाब बनाना होगा तथा जनता को प्रशिक्षित करना होगा कि हमारी सरकार क्योटो प्रोटोकाॅल, जिसेकि पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया है, को लागू कराने के लक्ष्य के साथ ही विकासशील देशों के साथ तालमेल बैठाये और उन्हें नेतृत्व प्रदान करे।
भारत में, जहां हमारी आबादी का 65 फीसदी भाग अपने जीवनयापन के लिए खेती पर निर्भर है तथा गांवों में निवास करता है, किसानों और खेत मजदूरों के बीच हमें प्राथमिकता के साथ काम करना चाहिए। किसानों और खेत मजदूरों के जन संगठनों - किसान सभा एवं खेत मजदूर यूनियन के निर्माण और उनके जीवन से जुड़े सवालों पर आन्दोलन के बिना न तो कोई परिवर्तन सम्भव है और न ही पार्टी का विकास। इनको नजरंदाज करने का अर्थ है पार्टी को ही नजरंदाज करना।
खेती का लगातार चला आ रहा संकट सूखा और बाढ़ के कारण और बढ़ा है। खेती के उपयोगी उपकरणों और अन्य उपादानों की कीमतें लगातार बढ़ी हैं जबकि उपजों का उचित मूल्य किसानों को नहीं मिल पा रहा। विभिन्न विकास योजनाओं के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण जारी है जिससे कृषि क्षेत्र लगातार सिमट कर खाद्यान्न संकट को गहरा बना रहा है। किसानों में भारी आक्रोश है जिसे संगठित कर सड़कों पर उतारा जाना चाहिए।
नरेगा में भ्रष्टाचार, बीपीएल कार्ड मामले में धांधली तथा उचित मजदूरी और उसके समय से भुगतान न होने के सवालों ने खेतिहर मजदूरों को बेचैन बना रखा है। महंगाई, भूमि सुधार, रोजगार और शिक्षा आदि सवाल भी प्रमुख हैं, जिन्हें जोड़ कर आन्दोलन में उतारा जाना चाहिए।
असंगठित और संगठित दोनों ही किस्म के मजदूर नौकरियां छीने जाने, बेरोजगारी, ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले, निजीकरण और महंगाई के सवाल पर प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं। एटक ने इन सवालों पर तमाम राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनों को जोड़ कर सिलसिलेवार आन्दोलन की पहलकदमी ली है।
देश में मौजूद आर्थिक और राजनीतिक संकट तथा भाकपा एवं वामपंथ के समक्ष मौजूद दूसरी चुनौतियां हमारे विकास के लिए पर्याप्त आधार हो सकती हैं लेकिन अभी हम ठहराव की स्थिति में हैं, पिछड़ भी रहे हैं तथा हमारे परम्परागत आधार सिकुड़ रहे हैं। ऐसे में भाकपा और उसके जन-संगठनों को तमाम सवालों पर संघर्षों में उतर कर भोजन, भूमि, रोजगार और जनवादी अधिकारों के लिए व्यापक आन्दोलन खड़े करने होंगे। पार्टी संगठन को इस जरूरी काम के लिए तैयार करना होगा।
उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत वाली बसपा की सरकार है जो राजनैतिक तौर पर संप्रग के विपक्ष में खड़ी है परन्तु यह सरकार भी विकास का पूंजीवादी मार्ग ही अपनाये हुए है और उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की राह पर चल रही है। लेकिन सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक उथलपुथल के इस दौर में यह अपने सामाजिक आधार (दलित, अति पिछड़े और आदिवासी) को अपने साथ संजोये रखने को कई कदम उठाती रहती है।
सरकार की मुखिया यह जानते हुए भी कि अरबों-खरबों रूपये खर्च कर बन रहे विशालकाय एवं भव्य स्मारकों के निर्माण से वंचित तबकों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन चूंकि यह उन तबकों के बहुमत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनरूत्थान की आकांक्षा की पूर्ति करने हेतु प्रतीक चिन्ह स्थापित करना चाहती है, अतएव वह दृढ़ता से उसके निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं। विपक्ष की सारी तीखी आलोचनाओं एवं न्यायालयों के आदेशों तक से वे बेपरवाह हैं।
गरीब दलितों के लिए आवास, निःशुल्क कोचिंग, बीपीएल कार्ड रहित गरीबों को रू. 300.00 प्रतिमाह की सहायता आदि कई कार्य हैं जो बसपा सुप्रीमो की वंचित तबकों को राजनैतिक तौर पर जोड़े रखने की कवायद का हिस्सा हैं भले ही वह सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कोई ठोस पहलकदमी न हों।
अपने जन्मदिवस को ”आर्थिक सहयोग दिवस“ के स्थान पर ”जन-कल्याणकारी दिवस“ के रूप में आयोजित करना (भले ही आयोजन में सामंती राजाओं और साम्राटों का अनुकरण किया गया हो) तथा ”बहुजन समाज“ की जगह ”सर्वजन समाज“ की बात करना - ‘सर्वजनहिताय’ का नारा बुलन्द करना जताता है कि लोकसभा चुनावों में आशा के अनुकूल परिणाम न मिलने के बाद बसपा ने अपनी रणनीति में थोड़ी सी तब्दीली की है।
लेकिन जनता के अनेक सवालों पर राज्य सरकार कोई ठोस कदम उठाने के बजाय राजनैतिक हथकंडे के तौर पर इनकी जिम्मेदारी केन्द्र सरकार पर डाल कर बच निकलने की रणनीति अपनाती रही है। चाहे बुन्देलखंड की समस्या हो, सूखे और बाढ़ से निपटने का सवाल हो, चाहे पिछड़े क्षेत्रों के विकास का सवाल हो - केन्द्र से आर्थिक पैकेज मांगने के अतिरिक्त सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया है। अब महंगाई के सवाल पर राज्य सरकार के हिस्से की जिम्मेदारी निभाने से बचने के लिये वे केन्द्र द्वारा बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में भाग लेने से कतरा रही हैं और केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री को हटाने का बहाना ले रही हैं। कृषि मंत्री की मुजरिमाना करतूतों का पर्दाफाश बैठक में जा कर ही किया जा सकता है।
गन्ने का मूल्य रू. 280.00 प्रति कुन्तल दिलाने के सवाल पर भी वह केन्द्र सरकार के खिलाफ खड़ी तो दिखीं, अपनी ओर से कोई पहलकदमी नहीं की। फलतः राज्य में गन्ने का अपेक्षित मूल्य किसान को मिल नहीं पाया। कच्ची चीनी से चीनी निर्माण के काम को उत्तर प्रदेश में रोक लगा कर किसानों का हित जरूर साधा गया है लेकिन धान के उत्पादक उसका लागत मूल्य तक न मिलने से तबाह हो रहे हैं। खाद और बिजली का संकट लगातार बना रहा है। अब घटतौली और भुगतान गन्ना किसानों की समस्या बने हैं।
राज्य सरकार द्वारा केन्द्र से विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली राशि का भी समुचित उपयोग नहीं किया गया है। अब तक इन राशियों का 50 फीसदी भाग भी उपयोग नहीं किया गया है। प्रदेश में इस बीच गरीबी बढ़ी है। तेन्दुलकर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार सूबे में गरीबों (गरीबी की सीमा के नीचे रहने वालों) की तादाद 40.9 प्रतिशत है जबकि पहले यह 37 प्रतिशत थी। प्रदेश में हर पांच में से दो लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। गरीबी के पायदान पर हम उड़ीसा (57.2 प्रतिशत), बिहार (54.4 प्रतिशत), छत्तीसगढ़ (49.4 प्रतिशत) तथा मध्य प्रदेश (48.6 प्रतिशत) के बाद पांचवें नम्बर पर हैं। शहरों में गरीबी 34.1 प्रतिशत के मुकाबले गांवों में 42.7 प्रतिशत है। यह तब है जबकि इन दस सालों में प्रदेश में अधिकतर समय दलितों-पिछड़ों-अति पिछड़ों की बात करने वाली - बसपा और सपा की सरकारें सत्ता में रही हैं।
महंगाई के मोर्चे पर भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने और व्यापक बनाने, उसे भ्रष्टाचार से मुक्त करने, आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा 3/7 का कड़ाई से पालन करने, जमाखोरी तथा कालाबाजारी पर अंकुश लगाने आदि से यह सरकार बचती रही है। केवल केन्द्र सरकार पर जिम्मेदारी डाल कर बचने की कारगुजारी चलती रही है हालांकि जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ कार्रवाई करने की घोषणायें बार-बार की जाती रही हैं। रोडवेज भाड़े में भारी वृद्धि और भूमि-भवनों की रजिस्ट्री फीस दोगुनी कर इसने जनता पर बड़ा बोझ लादा है, सो अलग। अब सरकार बिजली की दरों को बढ़ाने की जुगत में लगी है।
सरकार की किसानों, कामगारों, कर्मचारियों, शिक्षकों, नौजवानों, महिलाओं, कामकाजी महिलाओं, आदिवासियों, बुनकरों और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा के चलते राज्य में दर्जनों आन्दोलन फूट पड़े हैं। राजधानी लखनऊ इस मध्य कई बड़े जमावड़ों की गवाह बनी है। इन समस्याओं का समाधान करने के बजाय सरकार ने आन्दोलन स्थल विधान सभा से हटा कर गोमती किनारे सुनसान शहीद स्मारक पर पहुंचा दिया। यह शुतुरमुर्गी वृत्ति है, समाधान नहीं।
विभिन्न विकास योजनाओं के नाम पर ऊसर, बंजर, वन विभाग की वृक्ष रहित भूमि, बंद उद्योगों की जमीन का उपयोग करने के स्थान पर किसानों की उपजाऊ जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण किया जा रहा है। आगरा, मथुरा, हाथरस, अलीगढ़ में यमुना एक्सप्रेस वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण के नाम पर 850 ग्रामों की जमीनें लेने की अधिसूचना जारी की है। लखनऊ औद्योगिक विकास प्राधिकरण के नाम पर लखनऊ-उन्नाव के 89 ग्रामों की उस जमीन जो फलपट्टी के अंतर्गत आती है, के अधिग्रहण की कार्रवाई जारी है। विद्युत गृह बनाने के नाम पर ललितपुर के आधा दर्जन ग्रामों की बेहद उपजाऊ जमीनों का अधिग्रहण प्रस्तावित है। इसके अलावा एक दर्जन से अधिक एक्सप्रेस हाईवेज के निर्माण के लिए तमाम जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है। रेलवे के फ्रेट काॅरीडोर की चपेट में चन्दौली की 10,000 हेक्टेयर जमीन आ सकती है।
भाकपा ने खेती, किसान और प्रदेश के व्यापक हित में इन अधिग्रहणों के खिलाफ आवाज उठाई है। कई जगह अभी तक जमीनें बचाने में हम कामयाब रहे हैं। अलीगढ़, आगरा, मथुरा, हाथरस में प्रशासन ने फिलहाल जमीने न लेने की घोषणा की है। दादरी के आन्दोलन में हमने अग्रणी भूमिका अदा की थी। वहां उच्च न्यायालय से किसानों को राहत मिली है। एनटीपीसी के नाम पर ललितपुर जिले में जमीनें लिए जाने की योजना को भी फिलहाल रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। कृषि भूमि बचाओ आन्दोलन को और अधिक मजबूती प्रदान करने की जरूरत है।
केन्द्र सरकार द्वारा अवसरवादी ढंग से पृथक तेलंगाना राज्य निर्माण की घोषणा के फौरन बाद उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने उतना ही अवसरवादी रूख अख्तियार करते हुए प्रदेश को चार भागों में बांटने के लिए केन्द्र को पत्र लिख डाला। इतना ही नहीं सरकार की मुखिया ने आम जनता को उकसाया कि वह राज्य विभाजन के लिए सड़कों पर उतरें।
यह समस्याओं से ध्यान हटाने और जनता को विभाजित करने की साजिश थी जिसे जनता ने विनम्रता से ठुकरा दिया। शोषित-पीड़ित जनता, किसान और मजदूर एक संयुक्त उत्तर प्रदेश में ही संयुक्त ताकत के साथ न्याय पा सकते हैं और पूंजीवादी शोषण का मुकाबला कर सकते हैं। एक विभाजित राज्य में उनकी ताकत भी टुकड़े-टुकड़े हो जायेगी। हमें संयुक्त उत्तर प्रदेश की जरूरत को जनता को समझाते रहना है और बताना है कि विभाजनों का फिर कोई अन्त नहीं है।
भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर यह सरकार बेहद विफल रही है। भ्रष्टाचार इसके दर्शन में वर्षों से चले आ रहे शोषण का जवाब है। उनके अनुसार इसकी आलोचना का नैतिक अधिकार भी किसी को प्राप्त नहीं है। लेकिन भ्रष्टाचार में डूबा शासन-प्रशासन कानून-व्यवस्था को दुरूस्त कर ही नहीं सकता अतएव कानून-व्यवस्था की स्थिति चरम सीमा तक बिगड़ चुकी है। एक दलित एवं महिला मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बनी यह सरकार दलितों और महिलाओं की रक्षा तक नहीं कर पा रही है।
लोकसभा चुनावों के बाद विधान सभा की लगभग डेढ़ दर्जन सीटों पर हुए उपचुनाव में बसपा ने अधिकतर सीटें हथिया लीं। हाल ही में विधान परिषद की 36 सीटों के चुनाव में भी उसने चैतीस सीटें हासिल कीं। बसपा का दलित वोट आधार अभी भी उसके साथ है। अति पिछड़ों के अलावा पिछड़ों का भी एक भाग बसपा के साथ है। आदिवासियों में भी बसपा की पैठ है। भाजपा को हराने में सक्षम होने के कारण अल्पसंख्यकों का एक भाग भी बसपा को वोट देता है। सर्वजन समाज के नाम पर सामान्य जातियों के बाहुबली, धनबली और माफियाओं का गठबंधन शासन सत्ता का संरक्षण हासिल करके बसपा की विजय के रथ को आगे बढ़ाता है।
राम मंदिर जैसे मुद्दों के ओझल हो जाने के कारण और अन्दरूनी फूट के चलते भाजपा प्रदेश में लगातार अपनी प्रासंगिकता खो रही है। पहले ही कहा जा चुका है कि उग्र हिन्दुत्व का चोंगा पहन कर वह पुनर्वापसी का प्रयास जरूर करेगी।
सत्ता से वंचित सपा चुनावों में एक के बाद एक पराजय और एक के बाद एक बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने के कारण गहरे संकट में है। धीरे-धीरे सपा एक परिवार की पार्टी बनती चली जा रही है। अलबत्ता महंगाई के खिलाफ आन्दोलन करके वह क्षतिपूर्ति करने के प्रयास में है।
भाजपा एवं सपा के कमजोर होने का जहां बड़ा लाभ प्रदेश में शासक दल बसपा को मिला है वहीं केन्द्र में शासन और राज्य में विपक्ष की भूमिका निभा रही कांग्रेस को भी कुछ फायदा मिल रहा है। कांग्रेस के युवराज यू.पी. को अपना एजेण्डा नंम्बर एक बनाये हुए हैं तथा कारपोरेट जगत और मीडिया उन्हें शख्सियत नम्बर एक बनाये हुए है। लेकिन केन्द्र सरकार की जन विरोधी नीतियां खासकर महंगाई कांग्रेस के रथ के पहिये ज्यादा आगे बढ़ने नहीं दे रहीं।
ऐसी स्थिति में जहां किसान बेहद दयनीय स्थिति में धकेल दिये गये हों, मजदूरों को अधिकारों से वंचित किया जा रहा हो, भूमिहीनों को व्यापक भूमि-सुधार की दरकार हो और बेरोजगारों को रोजगार की, शिक्षा व्यापार बना दी गयी हो, ग्रामीण जीवन की जीवन रेखा नरेगा भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ रही हो, कानून और प्रशासन सत्ताधारियों के इशारों पर नाचता हो और गरीब से लेकर मध्यवर्ग तक महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रहा हो, ऐसे में इन तबकों को आन्दोलनों के जरिये चैतन्य करना और उस चेतना को समाजवाद की चेतना में बदलना प्रदेश में भाकपा का प्रमुख कर्तव्य बन जाता है।
 इसके लिए धरातल पर पार्टी को गतिशील बनाने की जरूरत है - जिसका सीधा अर्थ है कि पार्टी की शाखाएं सक्रिय हों और कार्य करें। इसके लिए ब्रांच सचिवों का शिक्षण-प्रशिक्षण किया जाना चाहिए।
 सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने हेतु स्थानिक निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण के विधेयक पारित किया जा रहा है, संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग भी जारी है। यदि पार्टी अभी से महिला कार्यकर्ताओं को पार्टी एवं जन जीवन में शामिल नहीं करती है तो आगे समस्या का सामना करना पड़ेगा। अतएव महिलाओं को पार्टी में लाने पर खास ध्यान दिया जाना चाहिए।
 आदिवासी, दलितों तथा मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मध्य काम को सघन किया जाना चाहिए।
 पार्टी का निर्माण हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, अपनी स्वतंत्र भूमिका को ध्यान में रखते हुए हमें मुद्दों को चिन्हित करने की पहल करनी चाहिए, मुद्दों पर आन्दोलन की पहल करते हुए हमें अपनी कतारों को संघर्ष में उतारना चाहिए तथा वाम, लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी साथ लाना चाहिए। लेकिन धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक ताकतों का मतलब किसी पार्टी अथवा दल विशेष से नहीं लगाया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में हमारी अपनी पहचान, हमारी विचारधारा, हमारे मूल्यों तथा सिद्धांतों की हमें हमेशा रक्षा करनी चाहिए। तभी हम आगे बढ़ सकते हैं और वर्तमान स्थिति से उबर सकते हैं।
फौरी कदम जो उठाये जाने हैं:
(अ) अभियान एवं आन्दोलन:
 5 मार्च को ट्रेड यूनियनों के संयुक्त जेल भरो आन्दोलन को सक्रिय सहयोग एवं समर्थन।
 12 मार्च को महंगाई, खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण, नरेगा के सही अमल, रोजगार और शिक्षा के सवाल पर दिल्ली में होने वाली वाम दलों की रैली में भाकपा की ओर से बड़ी संख्या में जनता को संगठित कर दिल्ली ले जाना।
 इससे पूर्व 20 दिनों तक उपर्युक्त सवालों पर जन-जागृति एवं जन-संपर्क अभियान चलाना (20 फरवरी से 8 मार्च प्रस्तावित)
 अप्रैल-मई में प्रस्तावित ग्राम पंचायत सदस्यों एवं ग्राम प्रधान के चुनाव की अभी से तैयारी और चुनाव में व्यापक भागीदारी।
 जून-जुलाई में प्रस्तावित क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत सदस्यों के चुनावों की तैयारी और चुनाव में व्यापक भागीदारी।
 नवम्बर-दिसम्बर माह में प्रस्तावित नगर निकायों के चुनावों की तैयारी और उनमें व्यापक भागीदारी।
 जहां-जहां उपजाऊ जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है, वहां आन्दोलन संगठित करना।
(आ) सांगठनिक:
 पार्टी सदस्यता का नवीनीकरण और नई सदस्यता भर्ती का काम 31 जनवरी 2010 तक पूरा करना, राज्य केन्द्र पर चार्ट शुल्क के साथ 28 फरवरी तक हर हालत में जमा करना।
 पार्टी का फण्ड जमा करने की व्यापक रूपरेखा तैयार करना जिसमें प्रदेश से राष्ट्रीय परिषद सदस्य से लेकर साधारण सदस्यों तक की भागीदारी सुनिश्चित हो।
 प्रत्येक शाखा स्तर पर जन संगठनों का निर्माण करना और उन्हें सक्रिय करना।
 पार्टी पत्र-पत्रिकाओं के ग्राहक बनाना।
 आगामी माहों (फरवरी-मार्च) में पार्टी शाखाओं के सम्मेलन तथा शाखा सचिवों का प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना।
 पार्टी शाखाओं की नियमित बैठकें आयोजित करना ताकि रिपोर्टिंग, विचार-विमर्श, स्थानीय समस्याओं पर चर्चा और चयन तथा आन्दोलन की रूपरेखा बनाई जा सके।
 हर स्तर पर उच्च कमेटियों द्वारा अधीनस्थ कमेटियों के काम की चेकिंग।
 कम्युनिस्ट नैतिकता एवं मूल्यों का प्रशिक्षण तथा उन्हें अमल में लाने के काम को प्राथमिकता देना।
 पार्टी सिद्धांतों एवं नैतिकता को क्षति पहुंचाने वालों के विरूद्ध अनुशासन की कार्यवाही करना। इससे पार्टी की छवि भी बनेगी और साथियों में आत्मविश्वास भी पैदा होगा।
 जिन विभागों की बैठक नहीं हुई है, उनकी बैठकें प्राथमिकता के तौर पर आयोजित करना।
 मध्यमवर्गीय कर्मचारियों - बैंक, बीमा एवं सार्वजनिक क्षेत्र, पत्रकारों तथा शिक्षकों के भीतर पार्टी सदस्यता का फैलाव।
 जिला स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन।

कार्य रिपोर्ट
राज्य काउंसिल की पिछली बैठक 30 मई और 1 जून 2009 को संपन्न हुई थी जिसमें लोकसभा चुनाव परिणामों की समीक्षा की गई थी तथा आन्दोलन, संगठन तथा जनसंगठनों को ऊर्जित करने पर बल दिया गया था। गौर करने की बात है कि ये अवधि हमारी बेहद सक्रियता की अवधि रही है। हमने लगातार आन्दोलन चलाये है, कई सांगठनिक गतिविधियों को अंजाम दिया है तथा जनसंगठनों के मोर्चे पर ठहराव को तोड़ने का प्रयास किया है। विधानसभा के उप चुनावों में भी भागीदारी की गई है।
आन्दोलन
 कमरतोड़, महंगाई, खाद्य सुरक्षा, नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार विभिन्न योजनाओं के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण, शिक्षा की फीस बढ़ाने, सरकारी रिक्त पदों को भरे जाने, चहुंतरफा फैले भ्रष्टाचार आदि सवालों पर 20 जुलाई से 30 जुलाई तक पूरे प्रदेश में जन-जागरण अभियान चलाया गया। इस अभियान के अंतर्गत ग्रामों, शहरों, कस्बों में सभायें व नुक्कड़ सभायें की गईं। राज्य केन्द्र से मांग पत्र छपवा कर जिलों को भेजा गया था जिस पर लाखों हस्ताक्षर जनता से कराये गये।
 इस अभियान की परिणति 31 जुलाई को जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शनों के साथ हुई। जिलों से मिली सूचना के अनुसार इन प्रदर्शनों में अपेक्षा से अधिक लोगों ने शिरकत की। ज्ञात हो कि यह आन्दोलन लोकसभा चुनाव परिणामों से उपजी पस्ती के माहौल में हुआ था फिर भी संतोषजनक रूप से सफल रहा। जिलों-जिलों में जनता द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन जिलाधिकारी के माध्यम से महामहिम राष्ट्रपति और राज्यपाल को भेजे गये।
उपर्युक्त सवालों पर सूबे के चारों वामपंथी दलों की ओर से जनसंपर्क अभियान चलाया गया। बड़ी-छोटी तमाम सभायें आयोजित की गईं।
इस अभियान की परिणति 9 सितंबर 2009 को जिला मुख्यालायों पर व्यापक धरने/प्रदर्शनों के रूप में हुई जो बेहद सफल हुई। राज्यपाल महोदय के नाम ज्ञापन जिलाधिकारियों के माध्यम से प्रेषित किये गये। यह आन्दोलन और अधिक सफल रहा।
इन्हीं सवालों पर पार्टी की ओर से 25 नवंबर से 5 दिसंबर तक फिर से जन अभियान चलाने का निश्चय किया गया जिसके तहत सभायें/नुक्कड़ सभायें प्रदेश भर में आयोजित की गईं।
7,8,9 दिसंबर को पूरे प्रदेश में तहसील मुख्यालयों पर धरने एवं प्रदर्शन आयोजित किये गये तथा उपजिलाधिकारियों के माध्यम से राज्यपाल महोदय को ज्ञापन सौंपे गये। इस कार्यक्रम के 300 में से 260 तहसीलों पर आयोजित किये जाने की रिपोर्ट राज्य मुख्यालय को प्राप्त हुई है।
यमुना एक्सप्रेस वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण के नाम पर आगरा, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस जनपदों के 850 ग्रामों की उपजाऊ जमीनांे के अधिग्रहण की योजना के विरूद्ध चारों जनपदों के पार्टी और जनसंगठनों के कार्यकताओं का एक संयुक्त सम्मेलन अक्टूबर के शुरू में मथुरा में आयोजित किया गया। सम्मेलन में लिये गये निर्णयानुसार चारों जनपदों में पहले तहसील स्तर पर फिर जिला स्तर धरनों/प्रदर्शनों का दौर चला जो अभी भी जारी है। चारों जनपदों का एक संयुक्त कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर भी मथुरा में होना तय है।
 अभियान के परिणाम स्वरूप चारों जनपदों के जिलाधिकारियों ने घोषणा की कि फिलहाल अधिग्रहण नहीं होने जा रहा है।
 लेकिन हमें अधिसूचना के रद्द होने तक आन्दोलन जारी रखना होगा।
 उपर्युक्त मुद्दों एवं सूखा तथा बाढ़ राहत के लिये चारों वाम दलों का संयुक्त सम्मेलन 26 नवंबर को गंगा प्रसाद मैमोरियल हाल, लखनऊ में संपन्न हुआ जिसमें पार्टी की केन्द्रीय सचिव का. अमरजीत कौर ने भी भाग लिया। भागीदारी और संयोजन में पार्टी की भूमिका औरों से बढ़ ़कर थी।
9 सितंबर और 26 नवंबर के संयुक्त कार्यक्रमों में माकपा की संकीर्णता, हठवादिता और प्रभुत्ववादी प्रवृत्ति से भी लड़ना पड़ा।
विधान सभा उपचुनाव - उत्तर प्रदेश में दो बार हुये विधान सभा उपचुनावों में हम ने कुल पांचों सीटों पर चुनाव लड़ा इनमें क्रमशः मुरादाबाद पश्चिम पर 2130, औरैय्या (विधूना) में 1540, ललितपुर में 2120, पुवायां (शाहजहांपुर) में 1500 तथा कोलसला में 1300 मत प्राप्त किये।
धनसंग्रह अभियान - पार्टी राज्य कार्यकारिणी बैठक में निर्णय लिया गया था कि 11,12,13 दिसंबर को जनता से धन संग्रह अभियान चलाया जाये। कई कारणों से अभियान असफल रहा है। पार्टी निर्माण में धन की बड़ी ही भूमिका है इसे ध्यान में रखते हुए कमजोरियों को चिन्हित कर नये सिरे से अभियान चलाया जाना चाहिये। रु. 10 प्रति सदस्य के हिसाब से वांछित फंड जिला कमेटियों को तत्काल राज्य को अदा करना है।
सांगठनिक
आन्दोलन के साथ-साथ इस अवधि में तमाम सांगठनिक गतिविधियां भी जारी रहीं।
(अ) संगठन पर राज्य स्तरीय कार्यशाला
11 अक्टूबर 2009 को पार्टी संगठन विभाग के फैसले के अनुसार पार्टी संगठन पर एक राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन लखनऊ में किया गया जिसमें राज्य कार्यकारिणी के सदस्यों एवं जिला सचिवों ने भाग लिया। इस कार्यशाला के मुख्य अतिथि पार्टी के केन्द्रीय सचिव मंडल सदस्य का. सी.के. चन्द्रप्पन थे। दूसरा क्लास डा. गिरीश ने लिया। का. अतुल कुमार अंजान ने भी संबोधित किया। का. चन्द्रप्पन के भाषण का अनुवाद का. अरविन्द राज स्वरूप ने किया।
(आ) जिला स्तरीय कार्यशालायें
राज्य स्तरीय कार्यशाला में ही निर्णय लिया गया था कि जिलास्तर पर भी संगठन संबन्धी कार्यशालायें आयोजित की जायें। अब तक औरैय्या, आगरा, बाराबंकी, जौनपुर, वाराणसी, गोरखपुर, फैजाबाद, आजमगढ़ आदि ने ही कार्यशालायें आयोजित की है।
शेष जिलों ने इस काम को गंभीरता से नहीं लिया। इसे अगले दो माह में पूरा कर लेना है।
शिक्षण शिविर
यद्यपि कई जिलों से शिक्षण शिविर लगाने के प्रस्ताव हैं लेकिन इस बीच केवल जौनपुर में ही दो दिवसीय शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया।
विभागों की बैठकें
इस बीच राज्य कार्यकारिणी द्वारा गठित विभिन्न विभागों को सक्रिय करने की कोशिश की गई है। संगठन विभाग की एक, सांस्कृतिक कमेटी की एक, टेªड यूनियन विभाग की एक, शांति मैत्री की एक, अल्पसंख्यक कमेटी की एक तथा खेत मजदूर विभाग की एक बैठक आयोजित की गई।
अन्य विभागों/कमेटियों की बैठक अपेक्षित है।
जन संगठन
यूपीटीयूसी - ए.आई.टी.यू.सी. के आहवान प्रदेश स्तर पर कई कार्यक्रम आयोजित किये गये हैं। अब सभी टेªड यूनियनों के साथ 5 मार्च को सत्याग्रह एवं जेल भरों की तैयारी चल रही है।
किसान सभा - किसानों से जुड़े सवालों पर 30 नवंबर को लखनऊ में धरना/प्रदर्शन आयोजित किया गया।
उ.प्र. महिला फैडरेशन - गत राज्य सम्मेलन के बाद काफी सक्रियता से कार्य कर रही है। एक के बाद एक कई सफल कार्यक्रम राज्य और जिलों के स्तर पर संपन्न हुये हैं।
भारतीय ख्ेात मजदूर यूनियन - ठहराव को तोड़ने की कोशिश हुई है और राज्य सम्मेलन संपन्न हो चुका है।
इप्टा - वामिक जौनपुरी स्मृति यात्रा हाल ही में आजमगढ़ और जौनपुर में संपन्न हुई।
इंसाफ - काम आगे बढ़ा है। कई क्षेत्रीय सम्मेलन अल्पसंख्यकों के सवालों पर प्रस्तावित हैं।
प्रगतिशील लेखक संघ - राज्य सम्मेलन 20-21 फरवरी को बनारस में प्रस्तावित है।
इस्कफ - पहला राज्य सम्मेलन हाल ही में इलाहाबाद में आयोजित किया जा चुका है।
ऐप्सो - महानगरों में कमेटियां गठित करने के लक्ष्य को पूरा किया जाना है।
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शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

राजनीतिक-संठनात्मक रिपोर्ट

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने जिसकी बैठक बंगलौर में 27-28 दिसम्बर 2009 को आयोजित हुई जिसने निम्नलिखित राजनीतिक-संगठनात्मक रिपोर्ट स्वीकृत की:
पिछली राष्ट्रीय परिषद की बैठक के बाद गुजरे छः महीने में देश में आर्थिक तथा राजनीतिक संकट और अधिक गहरा हुआ है। उसके साथ ही दक्षिणपंथी और वाम-विरोधी ताकतों का हमला बढ़ा है एवं कम्युनिस्ट तथा अन्य वामपंथी पार्टियां कमजोर हुई हैं, जो बचाव में आ गयी हैं। कुल स्थिति जिसका हम आज सामना कर रहे हैं, काफी कठिन है।
आर्थिक संकट
वित्तीय और आर्थिक संकट का जो अमरीका में पैदा हुआ एवं जिसने पूंजीवादी विश्व के देशों को अपनी चपेट में ले लिया, भारत समेत विकासशील देशों पर गहरा प्रभाव पड़ा। निर्यात के लिए सामान बनाने वाले उद्योगों, लघु क्षेत्र के उद्योगों, हस्तशिल्प और यहां तक कि आईटी को भी मांग में भारी कमी का सामना करना पड़ा एवं करीब 30 से 40 लाख कर्मचारियों को रोजगार के नुकसान, बंदी, छंटनी तथा वेतन कटौती का सामना करना पड़ा। यदि उसका असर काफी बदतर नहीं हुआ और यदि खासकर वित्तीय क्षेत्र को बचा लिया गया तो उसका यही कारण है कि भाकपा, भाकपा (एम) एवं अन्य वामपंथी पार्टियों ने यूपीए को बैंक, बीमा तथा वित्तीय क्षेत्र का निजीकरण करने से रोक दिया था।
‘आर्थिक सुधार’ के नाम पर पूंजीवादी पथ के लिए प्रतिबद्ध सरकार ने जो अमरीका और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन से प्रेरित तथा निर्देशित होकर तेज आर्थिक विकास के इंजिन के रूप में नव-उदारवाद की व्यवस्था - उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण की व्यवस्था एवं मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में लग गयी। पूंजीवादी प्रचार को जनमानस में बैठाया गया कि ”दूसरा कोई विकल्प नहीं है“ (टिना)।
अभूतपूर्व आर्थिक संकट ने जो वास्तव में स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था का संकट है, उन लोगों के इस दावे को तार-तार कर दिया जिनके लिए मुनाफा जनता से अधिक महत्वपूर्ण है।
सभी पूंजीवादी देशों में सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कार्पोरेट घरानों तथा बड़े व्यापारिक घरानों को बचाने के लिए तथाकथित प्रोत्साहन फंड के रूप में भारी बेलआउट (बचाव) पैकेज दिया और इस तरह यह दिखला दिया कि उनके लिए मुनाफा निजी विनियोग के लिए है जबकि नुकसान सार्वजनिक खजाने को उठाना है। पर गरीब लोगो ंके लिए कोई बेल आउट नहीं है जो इस संकट के शिकार रहे हैं और जिनकी कीमत पर पूंजीवादी सरकारें उसका
समाधान निकालने की कोशिश कर रही हैं।
अनुभव ने यह दिखला दिया है कि पूंजीवादी देशों में संकट से रिकवरी धीमी है एवं मनमौजी ढंग से हो रही है। चीन ने जो एक समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण कर रहा है, इस संकट से उबरने वाला पहला देश रहा है।
महंगाई
आर्थिक क्षेत्र में सबसे बदतर परिणाम रहा है सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण सभी आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की आसमान छूती कीमते। एक वर्ष में चावल और गेहूं की खुदरा कीमत 51 प्रतिशत, दाल खाद्य तेल की कीमत 100 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गयी। सामान्य सब्जियों, दूध, अंडों, चीनी की कीमतें भी बढ़ गयी हैं। महीना दर महीना और सप्ताह दर सप्ताह यह रूझान जारी है।
इस बढ़ती कीमतों के रूझान के प्रति सरकार इतनी असंवेदनशील है कि उसने भी पेट्रोल तथा डीजल के दाम बढ़ाकर उसमें योगदान दे दिया। गरीब मुसीबतों के दलदल में फेंक दिये गये और मध्यम वर्ग भी इस अभूतपूर्व मूल्यवृद्धि से बुरी तरह आहत हो गया।
राजनीतिक स्थिति - भाकपा और वामपंथ को आघात
राजनीतिक क्षेत्र में, इन छह महीनों के दौरान, महाराष्ट्र, हरियाणा तथा अरुणाचल प्रदेश राज्य विधानसभाओं के चुनाव हुए। झारखंड में भी जहां हमें कुछ आशा थी, हमें कुछ भी नहीं मिला। झामुमो ने अच्छा किया हैं। झामुमो, भाजपा और आजसु के गठबंधन ने सरकार का गठन किया है। यह देखना है कि वह कितना टिकाऊ होता है।
कांग्रेस तीन राज्यों में सत्ता में आ गयी, हालांकि घटी हुई बढ़त तथा घटे हुए वोट के साथ, अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर जहां कोई दमदार विपक्ष नहीं है। हरियाणा में जहां कांग्रेस ने भारी जीत की आशा की थी, उसे 90 सीटों में केवल 40 सीटों ही मिली जबकि चौटाला के लोकदल को 30 सीटें मिलीं। अपने सामान्य तरीके के अनुरूप कांग्रेस ने निर्दलीय तथा भजनलाल के लोगों को खरीद लिया और सत्ता में बने रहने की व्यवस्था कर ली।
महाराष्ट्र में कांग्रेस एनसीपी के साथ मिलकर जीत हासिल कर सकी क्योंकि राज ठाकरे के एमएनएस ने भाजपा-शिवसेना के वोट काट लिये।
लेकिन यह गंभीर चिन्ता की बात है कि इस बार भी इन तीनों राज्यों में भाकपा को एक सीट भी नहीं मिली जबकि भाकपा (एम) अपनी तीन सीटों में केवल एक सीट बरकरार रख सकी। उस मोर्चे ने जो दोनों पार्टियों ने महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी तथा पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टियों एवं कुछ अन्य ग्रुपों के साथ मिलकर बनाया था, काम नहीं किया।
इस अवधि के दौरान अनेक उपचुनाव भी हुए। वे प्रायः सभी राज्यों में हुए। वहां भी वामपंथ कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सका। पश्चिम बंगाल में जहां 11 सीटों में केवल एक सीट फारवर्ड ब्लाक जीत सका, वामपंथ के आधार में और क्षरण हुआ। कई नगर निकायों के चुनावों में भी इस रूझान की पुष्टि हुई। इससे यह भी पता चला कि तृणमूल कांग्रेस ने जिसने राज्य के दक्षिणी हिस्से में सफलता हासिल की थी, अब उत्तर में भी अपनी पैठ बना ली है। यह कहा जा सकता है कि केरल में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने अच्छा प्रदर्शन किया है (खासकर अलेप्पी में भाकपा ने) और उन विधानसभा क्षेत्रों में लोकसभा चुनावों के दौरान मार्जिन की तूलना में हार के मार्जिन को कम किया है।
हमारी पार्टी तथा सबद्ध इकाइयों को इस बात का गंभीर नोट लेना चाहिए कि क्यों सीटें गंवाने पर भी हम उतना वोट बरकरार रखने में कामयाब नहीं होते हैं जो हमने उन निर्णाचन क्षेत्रों में पहले चुनाव में प्राप्त किये थे।
तृणमूल-माओवादी गठजोड़
इस कठिन स्थिति में माओवादी लड़ाई में कूद पड़े हैं और लालगढ़ में (पश्चिमी मिदनापुर झाग्राम का एक हिस्सा) तथा बांकुड़ा एवं पुरूलिया जिलों में निकटवर्ती क्षेत्रों को अपनी कारवाई का आधार बना लिया है। यह क्षेत्र झारखंड की सीमा पर है जहां माओवादी पिछले कुछ समय से कार्रवाइयां कर रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस को वाममोर्चा से लड़ने और सत्ता से हटाने के समान उद्देश्य के साथ माओवादियों से हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं हुई है। घने वन क्षेत्र का लाभ उठाते हुए और तृणमूल कांग्रेस से साठगांठ एवं नैतिक समर्थन के साथ माओवादियों ने आम आदिवासी जनों के खिलाफ खासकर भाकपा (एम) कैडरों तथा सदस्यों को निशाना बनाते हुए आतंक, हत्याओं एवं अपहरण का दौर-दौरा शुरू कर दिया है। हालांकि केन्द्र सरकार माओवादियों के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई में राज्य के साथ सहयोग कर रही है पर राज्य की कांग्रेस ने अपने तंग उद्देश्यों के लिए इस स्थिति से अपनी आंखे मूंद ली है।
पश्चिम बंगाल में वाम-विरोधी
गठबंधन: नयी चुनौती
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, एसयूसीआई और सभी वाम-विरोधी एवं कम्युनिस्ट विरोधी ताकतें वाममोर्चा को हटाने के लिए एक साथ मिल गयी हैं। सिंगूर और नंदीग्राम ने उन्हें भाकपा (एम) और वाममोर्चे का मुकाबला करने के लिए विश्वास प्रदान किया है। चुनावी लड़ाई में सफलताओं ने उनका मनोबल बढ़ाया है और ममता बनर्जी के गिर्द वे एकजुट हो गयी हैं। कांग्रेस को उनके निर्देशों के सामने नतमस्तक होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह संघर्ष का एक संभावित श्रोत है।
वाममोर्चा के 32 वर्षों के निर्बाध शासन तथा 2006 के चुनाव में उसकी भारी जीत के संदर्भ में पश्चिम बंगाल का यह घटनाक्रम अचानक का घटनाक्रम जैसा मालूम पड़ता है। वे वास्तव में वाममोर्चा द्वारा की गयी गलतियों और शासन के दौरान उसकी खामियों एवं कमियों के चलते उभरे हैं। उसने किसानों, मध्यमवर्ग तथा अल्पसंख्यकों के बड़े तबके को अलग-थलग कर दिया जो उसके समर्थन के स्तंभ रहे हैं। उन्हें वापस अपने पक्ष में लाना है। लंबे शासन के दौरान अनेक कम्युनिस्ट मूल्य कुंद हो गये और अनेक गलत प्रवृत्तियां घर कर गयी जिनका काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
मोर्चा के सभी घटकों द्वारा पिछले समय की आत्मालोचनात्मक समीक्षा की जा रही है। वाममोर्चा द्वारा एवं प्रत्येक पार्टी द्वारा सुधारात्मक कदम उठाये जा रहे हैं - बड़ी पार्टी को परिवर्तन के लिए बड़ी जिम्मेवारी लेनी है। कुछ सकारात्मक संकेत दिखने लगे हैं। हम आशा करते हैं कि कुछ और कदम उठाये जायेंगे। लोगों ने तृणमूल के असली चेहरे एवं माओवादियों के साथ उसके खतरनाक गठबंधन को देखना शुरू कर दिया है।
राज्य विधानसभा के चुनाव अप्रैल-मई 2011 में होने हैं। कुछ महीनों के बाद कोलकाता कार्पोरेशन के चुनाव होने वाले हैं। स्थिति को बदलने और विनम्रता के साथ जनता के साथ संपर्क सूत्र को पुनः मजबूत करने के लिए भारी प्रयास करने की जरूरत है। इसके लिए हमें वाममोर्चे के एक बेहतर संस्करण के लिए, बेहतर सलाह-मशविरे एवं सामूहिक कार्यप्रणाली के लिए काम करना है। यथास्थिति की ओर नहीं लौटा जा सकता है। मोर्चे के अंदर नया चिन्तन होना चाहिए। हमें उसके लिए कठिन काम करना है।
पश्चिम बंगाल में मिले गंभीर आघात तथा संसदीय चुनाव के दौरान केरल में एलडीएफ को मिली पराजय ने राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथ के प्रभाव को काफी कम कर दिया है। संसद में वामपंथ का प्रतिनिधित्व 61 से घटकर 24 हो गया जिसके फलस्व्रूप देश के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक जीवन में कम्युनिस्ट पार्टियों का हस्तक्षेप गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है। नीतिगत सवालों पर सरकार को प्रभावित करने तथा जनता के फौरी मसलों का समाधान करने में वामपंथ की क्षमता में आम लोगों का विश्वास कम हो गया है। पर यह अच्छी बात है कि संसद में इतनी घटी संख्या के साथ भी हमारे कामरेड काफी अच्छा कर रहे है।
भाजपा पर आरएसएस का कसता नियंत्रण
संसद में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा लंबे समय से, जबसे उसने 2004 में सत्ता खो दी और 2009 के चुनाव में और अधिक कमजोर हो गयी, गहरे संकट में है। इस दुर्गति से उबरने के हताश प्रयास में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने न केवल भाजपा पर अपना नियंत्रण मजबूत कर लिया है बल्कि वास्तव में उसने उस पर कब्जा कर लिया है। इसका यही अर्थ है कि उसकी सांप्रदायिक राजनीति, उसका हिंदुत्व एजेंडा और अधिक तीखा होगा। उसका पंाच राज्यों में शासन है और दो राज्यों में वह सत्ता में साझेदार है। इसलिए भाजपा के खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
हालांकि लिब्रहान आयोग ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस में संघ परिवार तथा भाजपा के बड़े नेताओं के आपराधिक दोष की अभिपुष्टि कर दी है, वहीं जांच परिणाम सौंपने में 17 वर्षों के विलंब, उसे रोकने में तत्कालीन कांग्रेस सरकार एवं प्रधानमंत्री नरसिंह राव की विफलता तथा सहअपराधिकता एवं कांग्रेस की भूमिका को बताने में जिससे वह शर्मनाक त्रासदी हुई, आयोग की विफलता और स्पष्ट पक्षपात से आयोग की विश्वसनीयता को गंभीर क्षति पहुंची है। भाजपा ने बड़ी ही निर्लज्जता से इस अपराध की एवं जिम्मेवारी का सामना किया है और इस बीच अन्य गंभीर घटनाक्रमों ने लिब्रहान को पृष्ठभूमि में डाल दिया है।
कांग्रेस का घमंड
2009 के संसदीय चुनाव में कंाग्रेस की सफलता (2004 की तुलनाएं में उसने 60 सीटें बढ़ा लीं), हालांकि उसे बहुमत से कम सीटें मिलीं, उत्तर प्रदेश की तुलना में उसके बेहतर प्रदर्शन, वामपंथ की संख्या में कमी जिससे उसे उन पर समर्थन के लिए निर्भर नहीं होना पड़ा है और अनेक मसलों पर उसके दबाव से छुटकारा ने कांग्रेस के व्यवहार में काफी हद तक घमंड ला दिया और अपने सहयोगियों के प्रति भी उसका एक लापरवाही का रूख हो गया है। वह नीतिगत मामलों पर भी दूसरी पार्टियों से परामर्श करने या प्रमुख राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर निर्णय लेने के पूर्व आम सहमति विकसित करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करती है।
वह अपने अच्छे प्रदर्शन को अपनी नीतियों की अभिपुष्टि समझती है। आर्थिक संकट से कोई सबक नहीं लेते हुए वह नवउदारवाद यानी निजीकरण के उसी नुस्खे को और तेजी से आगे बढ़ा रही है। वह इस बात को स्वीकार करने से इन्कार कर रही है कि यदि भारत में वित्तीय क्षेत्र पूंजीवादी विश्व में वित्तीय विक्षोभ से अप्रभावित रहा एवं इसलिए स्थिर बना रहा तो उसका यही कारण था कि वामपंथ ने यूपीए-1 को उसका निजीकरण करने से रोक दिया और उसे सार्वजनिक क्षेत्र में बनाये रखा। वह कतिपय सामाजिक एवं आर्थिक कदम उठाने तथा अनेक अच्छे कानून बनाने में वामपंथ के योगदान से इन्कार करती है जो समाज के वंचित एवं कमजोर तबकों को लाभ पहुंचाते है। उसने इनके लिए सारा श्रेय स्वयं ले लिया है। प्रसंगवश वामपंथ को इसका दोष लेना चाहिए क्योंकि वह जनता की चेतना में इन बातों को पर्याप्त रूप से बैठाने में विफल रहा।
सरकार ने शेयरों को बेचने तथा इस तरह मुनाफा कमाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में सरकार के हिस्से को कम करने का अभियान शुरू कर दिया है। यह उनके अंततः निजीकरण की दिशा में ही एक कदम है। बैंक कर्मचारियों के संयुक्त विरोध की उपेक्षा करते हुए वह बैंकों का विलय करने का प्रयास कर रही है जो वास्तव में बैंक से कर्ज पाने के लिए आम लोगों की पहुंच को ही काफी कम कर देगा। उसकी दोषपूर्ण आर्थिक नीतियां खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों की जड़ है जो न केवल गरीब लोगों की मुसीबतें एवं कठिनाइयां बढ़ा रही है बल्कि समाज के मध्यम वर्गीय तबके की भी। फिर भी यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापक बनाने, खाद्य पदार्थों के वायदा कारोबार पर पाबंदी लगाने, राज्य सरकारों के सहयोग से जखीरा खाली कराने से इन्कार कर रही है। केवल इन कदमों तथा पर्याप्त सब्जिडी से कीमतें कम हो सकती है। ऐसा करने के बजाय वह राज्यों पर जिम्मेवारी डाल रही है। वास्तव में अपनी सीमित संसाधनों से कुछ राज्य जनता के बड़े तबकों को सहायता प्राप्त सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध करा रहे हैं ‘खाद्य सुरक्षा बिल’, जिसका केन्द्र ने वायदा किया है, इन राज्यों के कामकाज पर नकारात्मक प्रभाव ही डालेगा और उन राज्यों में जनता की ‘खाद्य सुरक्षा’ के बजाय ‘खाद्य असुरक्षा’ ही लायेगा। यह आज और कल जन आंदोलन एवं अभियान का एक बड़ा मसला बना हुआ है। हमें ऐसे अभियान और आंदोलन संगठित करने हैं।
नवउदारवाद, जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के बजाय मुनाफों को अधिकतम बढ़ाने, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की नीतियां कार्पोरेट घरानों और बहुराष्ट्र्रीय निगमों को मालामाल कर रही है, उन्हें सार्वजनिक सम्पत्तियों (गैस, बहुमूल्य खनिजों की खदानों आदि) को हड़पने और लूटने की छूट दे रही है और अपराधियों एवं भ्रष्ट तौर-तरीकों को बढ़ावा दे रही हैं। चारों तरफ भ्रष्टाचार और घोटाले (जैसे कि टेलीकाम आदि के घोटाले) का बोलबाला है। अनैतिक प्रवृत्ति और दोषान्वेषण में वृद्धि हो रही है।
धनशक्ति का अधिकाधिक प्रयोग राजनीतिक स्तर पर स्थानीय निकायों से लेकर संसद तक के चुनावों पर असर डाल रहा है, करोड़पति लोग विधायिका में भारी तादाद में पहुंच रहे है। धनशक्ति के इस बढ़ते प्रयोग से लोकतंत्र और देश में जनता की ताकत को खतरा बढ़ रहा है। इसके साथ ही साथ सरकार द्वारा संसद की अनदेखी कर महत्वपूर्ण फैसले लेने और घोषणा करने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। हमारी तरफ से निरंतर चैकसी और जनता को लामबंद करके ही लोकतंत्र को बचाया जा सकता है और उस पर किसी खतरे को दूर किया जा सकता है।
तेलंगाना
एक अन्य लिहाज से भी आज एक गंभीर राजनीतिक संकट बढ़ रहा है। तेलंगाना के लिए जनता के आंदोलन की समस्या से कांग्रेस ने किस तरह निपटा है, उस पर गौर करें। उसने तमाम पार्टियों से सलाह-मशविरा करने, तमाम पार्टियों की एक मीटिंग बुलाने, तमाम तबकों को समझा-बुझाकर आम सहमति बनाने की कोशिश करने और उसके बाद उनके सुझावों आदि को ध्यान में रखने की कोई जरूरत नहीं समझी। वह समझती है कि उसका हाईकमान आधी रात में कुछ भी फैसला ले सकता है और मामला हल हो जायेगा। उसका नतीजा न केवल आंध्र प्रदेश पर, जहां अन्य क्षेत्रों के तबके अब आंदोलन के रास्ते पर हैं, बल्कि अन्य राज्यों पर भी पड़ा है। किसी राज्य का विभाजन एक जटिल मामला है और इसका तरीका यह नहीं है कि उसकी लम्बे अरसे तक अनदेखी की जाये और फिर अचानक ही एक जल्दबाजी भरी घबराहट में किसी फैसले की घोषणा कर दी जाये। ये लोकतांत्रिक नहीं बल्कि षडयंत्रपूर्ण तौरतरीके हैं।
माओवादी रणनीति हानिकर
देश के अनेक इलाकों में आज आम असुरक्षा एवं असंतोष की भावना है। ऐसे इलाकों में, जहां सामान्यता आदिवासी रहते हैं जहां वे स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद भी उपेक्षा एवं अविकास के शिकार हैं, माओवादियों ने जड़े जमा ली हैं। इसे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या मानने और इसके सामाजिक-आर्थिक आयामों को न देखने के सरकार के दृष्टिकोण के फलस्वरूप आम लोग क्रास फायर में फंस जाते हैं और निर्दोष लोग मारे जाते हैं। दुर्भाग्यवश, हमारी पार्टी भी इन सर्वाधिक शोषित क्षेत्रों में घुसने में और वहां अपनी जड़ें जमाने में विफल रही है और इस तरह मैदान को माओवादियों के लिए खुला छोड़ दिया है। “लम्बे जनयुद्ध” और चुनावों के बहिष्कार के नाम पर कत्ल एवं हत्या करने, राजनीतिक प्रतिद्वंदियों (जैसे लालगढ़ में भाकपा (मा)) को अपना निशाना बनाने, जबरन लेवी जमा करने और जबरन पैसा वसूली करने की माओवादियों की रणनीति क्रांति के ध्येय को नुकसान पहुंचा रही है। हमें विचारधारात्मक एवं राजनीतिक तरीके से उनके संघर्ष करना होगा। साथ ही, उन्हें खत्म करने के लिए सशस्त्र बलों के प्रयोग और विकास की उपेक्षा की सरकार की नीति का हमें विरोध करना चाहिए। उनके साथ संवाद शुरू करने के लिए कोशिश करनी होगी ताकि सशस्त्र टकराव खत्म हो सके। सरकार माओवादियों के विरूद्ध अपने अभियान को कम्युनिस्टों एवं लालझंडों के विरूद्ध एक आम आक्रमण बनाने की कोशिश कर रही है। ये तमाम बातें आदिवासियों के बीच और दूरदराज के इलाकों में पार्टी के काम की आवश्यकता पर ही जोर डालती हैं।
उत्तर-पूर्व: मणिपुर के घटनाक्रम
पूर्वोत्तर में अनेक विद्रोही ग्रुप कार्यरत है और भारत की स्थिरता एवं सम्प्रभुता को चुनौती दे रहे हैं। यह एक गंभीर चिंता का विषय है। असम में हमारी पार्टी मांग कर रही है कि उल्फा के साथ बिना किसी पूर्व शर्त के एक राजनीतिक संवाद किया जाना चाहिए ठीक उसी तरह जैसे कि नागालैंड में एनएससीएन (आईएम) के साथ किया जा रहा है। असम पुलिस द्वारा उल्फा के शीर्ष नेता को पकड़े जाने का सरकार द्वारा दुरूपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
मणिपुर के घटनाक्रम से हमारी पार्टी को गंभीर चिंता हो रही है क्योंकि उस राज्य में हम एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत है। पिछली बार यद्यपि हमने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा, पर उस अस्थिर सीमावर्ती राज्य में सरकार की स्थिरता में मदद देने के लिए हम कांग्रेस कैबिनेट में शामिल हुए। इस समय 60 सदस्यों वाली विधानसभा में हमारे चार विधायक हैं। पहले हमारे पांच विधायक थे। वहां 34 विद्रोही ग्रुप हैं जिनमें से तीन ग्रुप बड़े है। अधिकांश विद्रोही ग्रुप ब्लैकमेल और जबरन वसूली के जरिये अपना कामकाज चलाते हैं। लोगों की हत्या दिनप्रतिदिन की बात हो गयी है। दूसरी तरफ सरकार की पुलिस और सशस्त्र बल भी एनकाउंटरों का तरीका अपना रहे हैं और निर्दोष लोगों को मार रहे हैं। मणिपुर की सीमा म्यांमार से लगती है। लोकतांत्रिक तरीकों से सामान्य राजनीतिक कार्यकलाप चलाना मुश्किल होता जा रहा है।
अगस्त 2009 में, एक पूर्व मिलिटेंट और एक गर्भवती महिला को पुलिस ने दिनदहाड़े मुख्य बाजार में जान से मार दिया था। तहलका समाचार पत्रिका ने पुलिस द्वारा नृशंसतापूर्ण हत्या के रूप में इसका पर्दाफाश किया। इम्फाल और अन्य इलाकों में लम्बा कफ्र्यू चलता रहा। बाद में छात्रों की हड़तालें चलती रही है। विद्रोही ग्रुप रिमोट कंट्रोल के जरिये अभियानों और आंदोलनों को दिशा दे रहे हैं, चला रहे हैं। जनता शांति और सामान्य जीवन चाहती है।
मणिपुर की जनता उस सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून को वापस लेने की मांग भी कर ही है जो सेना को उस राज्य में जो भी कार्रवाई करे उसकी जिम्मेदारी से छूट प्रदान करता है। इस प्रकार स्थिति अत्यंत जटिल है। केन्द्र और राज्य का नेतृत्व हर समुचित कदम उठाने के लिए लगातार सम्पर्क में है।
अमरीका की तरफ झुकाव
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में, सरकार भारत को वर्तमान समय के सर्वाधिक शक्तिशाली, साम्राज्यवादी आक्रामक अमरीका के साथ रणनीतिक भागीदारी में शामिल करने की कोशिश कर रही है। यहां तक कि वह इस्राइल के साथ भी गिरोहबंद होने की कोशिश कर रही है। साथ ही विकासशील विश्व में भारत की श्रेष्ठ स्थिति का तकाजा है कि वह चीन, रूस, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि के साथ संबंध विकसित करे। हमें, वामपंथियों को इस दुविधा को खत्म करना होगा और भारत को साम्राज्यवादी अमरीका और उनके प्रतिनिधि इस्राइल के साथ किसी रणनीतिक भागीदारी से बाहर लाना है। हम इस दिशा में कोशिश कर रहे हैं।
चाहे वह विश्व व्यापार संगठन की दोहा दौर की वार्ता के मामले में हो या जलवायु परिवर्तन की वार्ताएं हों, सरकार अपने राष्ट्रीय हितों की कीमत पर अमरीका की हां में हां मिलाने और उसके दवाब के सामने झुकने की लगातार कोशिश कर रही है। कोपेनहेगन में ऐसा करते हुए उसने स्वयं को विकासशील राष्ट्रों के समूह की कतारों से अलग कर लिया है। हमें इसका विरोध करना होगा।
पर यह समझना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा कि अमरीका एवं इस्राइल के साथ विभिन्न समझौतों और सौदों के फलस्वरूप भारत की सम्प्रभुता का आत्मसमर्पण किया जा रहा है या उस पर कम्प्रोमाइज किया जा रहा है। भारत की जनता इसकी कभी भी इजाजत नहीं देगी। पर सरकार जिस नीति पर चल रही है वह हानिकारक और कई क्षेत्रों में निर्भरता की दिशा में ले आती है। साम्राज्यवाद-विरोधी, गुटनिरपेक्षता और स्वतंत्रता एवं प्रगति के लिए संघर्ष करने वाले तमाम लोगों के साथ एकजुटता की अपनी परम्पराओं पर आधारित रहते हुए हमें सरकार की इन समझौता करने वाली नीतियों का दृढ़तापूर्वक विरोध करना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट मीटिंग
हाल में कम्युनिस्ट और मजदूर पार्टियों की ग्यारहवीं अंतर्राष्ट्रीय मीटिंग दिल्ली में हुई जिसकी मेजबानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माकपा ने संयुक्त रूप से की। इस अंतर्राष्ट्रीय मीटिंग ने उस आर्थिक संकट का विश्लेषण किया जो अमरीका से शुरू हुआ और फिर उसने पूरे विश्व पर असर डाला। इस संकट ने पूंजीवाद में अंतर्निहित उन अंतर्विरोधों को और गरीबी, भूख, भुखमरी, बेरोजगारी और विश्व के पर्यावरण की भी समस्याओं का समाधान करने में पूंजीवाद की असमर्थता का पर्दाफाश किया। इससे पता चला कि केवल समाजवाद ही इन समस्याओं का समाधान कर सकता है और मानवता एवं पृथ्वी, जिस पर हम सब बसते हैं, को बचा सकता है।
हमने अपने देश के वर्तमान आर्थिक एवं राजनीतिक संकट और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं वामपंथ के सामने दरपेश चुनौतियों का विश्लेषण किया है, पर इस स्थिति में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ एक गंभीर स्थिति में हैं। पार्टी के परम्परागत आधारों का क्षरण हो रहा है। आक्रामक स्थिति अपनाने और पहलकदमी को हाथ में लेने की स्थिति में होने के बजाय वह बचाव की मुद्रा में है और उसे अपने वर्तमान आधारों को बचाना मुश्किल हो रहा है। वस्तुगत स्थिति जनता के उभार के लिए अत्यंत अनुकूल है। पर आत्मपरक कारक बहुत पीछे चल रहा है।
मुख्य कर्तव्य - जनसंघर्ष चलाओं, खासकर ग्रामीण इलाकों में
राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथ की स्थिति मुख्यतः तीन राज्यों-पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा- में उसकी अत्यंत मजबूत स्थिति के कारण थी। कुछ अन्य राज्यों में उसके प्रभाव के केवल चंद ही इलाके थे। जहां तक हिन्दी भाषी क्षेत्रों की बात है, काफी समय से वामपंथ की स्थिति कमजोर चल रही है और जाति एवं क्षेत्रीय कारकों ने, जिनसे कुछ अन्य ताकतें उभर कर सामने आयी, वामपंथ को नुकसान पहुंचाया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को जिसकी पहले के समय में इन अधिकांश राज्यों में अच्छी स्थिति थी - यह नुकसान उठाना पड़ा। इसके अलावा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों के नेतृत्व में चलने वाले जनसंगठनों के प्रभाव को उसी हद तक राजनीतिक प्रभाव के रूप में नहीं बदला जा सका। नेशनल फ्रंट और युनाइटेड फ्रंट की अवधि में और खासतौर पर यूपीए-1 सरकार के दौरान पार्टी और वामपंथ का कुल मिलाकर राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण दखल था। हम उस अनुकूल अवसर की जनता पर खासकर गांवों की जनता पर असर डालने वाले मुद्दों पर जबर्दस्त जन आंदोलन और संघर्ष चलाने के लिए और इस तरह अपने राजनीतिक कार्य और पार्टी आधार को विस्तारित करने एवं मजबूत बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकें। संसदीय कार्यकलाप और सहयोगी पार्टियों एवं समूहों के बीच वार्ताओं एवं समझौतों पर अधिक ध्यान दिया गया और अधिक समय लगाया गया। पार्टी के नेतृत्व में स्वाधीनता से ठीक बाद जिस तरह के महान किसान आंदोलन चलाये गये थे, उनके संघर्षशील जोश और तौरतरीकों की परम्परा को कायम नहीं रखा गया। यहां तक कि संसद के बाहर और अंदर के कामकाज के बीच तालमेल और संयोजन के रिवाज का भी उचित रूप से पालन नहीं किया गया। इस विचलन को दूर करना होगा।
हमारी 65 प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है और गांवों में रहती है। इस किसान समुदाय के बीच कामकाज हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उनके जनसंगठनों (अखिल भारतीय किसान सभा, भारतीय खेत मजदूर यूनियन) का निर्माण किये बगैर और उनके जन आंदोलनों एवं संघर्षों को चलाये बगैर कोई बदलाव नहीं हो सकता न ही पार्टी बढ़ सकती है। इसकी उपेक्षा करने से पार्टी को भारी नुकसान पहुंचेगा।
संघर्षों के मुख्य मुद्दे
कृषि में चला आ रहा चिरकालिक संकट-जो सूखे और बाढ़ से और भी बढ़ गया है- जारी है; एक तरफ कृषि में निवेश की कीमतों में वृद्धि और कृषि उत्पादों के लिए लाभकारी मूल्यों का न मिलना और दूसरी ओर खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार वृद्धि होने से किसानों के बीच और नाराजगी बढ़ रही है। यहां तक छुटपुट आंदोलन हो रहे हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम किसान जनसमुदाय को कार्रवाइयों में उतारें और उन्हें सड़कों पर आंदोलन के लिए लायें।
आज खेत मजदूर भी नरेगा, बीपीएल राशन कार्ड जैसे मुद्दों पर आंदोलित है। न्यूनतम वेतन और नियमित भुगतान की मांगे, बढ़ती महंगाई के संदर्भ में दोनों बीपीएल तथा एपीएल के लिए सब्सिडी पर खाद्य पदार्थ की मांगे और जमीन एवं बटाईदार अधिकारों के लिए संघर्ष उन्हें झकझोर रहे हैं। बिहार में, भूमि सुधारों पर बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट एजेंडे पर है। इस प्रकार एक नये भूमि संघर्ष की तैयारी की जानी है और यह संघर्ष शुरू किया जाना है।
संगठित एवं असंगठित दोनों तरह के मजदूर रोजगार छिनने, बेरोजगार, अपने टेªड यूनियन अधिकारों पर हमलों, निजीकरण, महंगाई आदि के विरुद्ध प्रतिरोध कर रहे हैं।
 नयी व्यापक एकता - जिसमें इटक-भामस से लेकर एटक-सीटू और अन्य वामपंथी नेतृत्व वाले टेªेड यूनियन केन्द्र शामिल हो रहे हैं - मजदूरों को कार्रवाई में उतार रही है।
 बैंक कर्मचारी अपने मुद्दों के संबंध में बारम्बार एकताबद्ध कार्रवाइयों पर उतरे हैं।
 नये तबके - उदाहरणार्थ कामकाजी महिलाएं - अपनी मांगों को बुलंद करने के लिए सामने आये हैं।
संगठित टेªड यूनियनों का कर्तव्य है कि वे अपने वर्गीय भाइयों को खासकर गांवों के मजदूरों को संघर्ष के लिए आगे बढ़ने में मदद करें और उनकी अगुवाई करें।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंगठनों का लक्ष्य होना चाहिए कि वे विभिन्न छुटछुट, कार्यक्षेत्रीय एवं स्थानीय कार्रवाइयों को जनता पर प्रभाव डालने वाले जैसे कि खाद्य, जमीन, रोजगार और लोकतांत्रिक अधिकारों के मुद्दों पर बड़े जनआंदोलनों के रूप में समन्वित करें।
इन राजनीतिक एवं जन कार्यों को चलाने के लिए पार्टी संगठन को तदनुकूल चुस्त-दुरुस्त करना होगा।
इसके लिए आवश्यक है कि पार्टी को जमीनी स्तर पर क्रियाशील बनाया जाये, जिसका अर्थ है कि पार्टी शाखाएं काम करें। शाखा सचिवों को इस उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित एंव शिक्षित करना होगा। केवल इस तरीके से और सही राजनीतिक नारों के साथ हम जनता के साथ अपने नजदीकी संबंध जोड़ सकते हैं। यह आवश्यक है कि पार्टी को ”सुधारने, क्रियाशील बनाने एवं पार्टी का कायाकल्प करने“ के दिशानिर्देश को याद किया जाये। यह एक सतत अभियान है और पार्टी नेतृत्व को इस पर निगरानी रखनी होगी।
नागरिक एवं राजनीतिक जीवन में महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण के लिए कानून पारित किये जा रहे हैं। विधानसभाओं एंव संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग भी पूरी होने के करीब पहुंचने वाली है। यदि पार्टी अभी से महिला कार्यकर्ताओं को पार्टी और सार्वजनिक जीवन में लाना शुरू नहीं करती है तो उसे आगामी दिनों में कठिनाइयों को सामना करना पड़ेगा। यह महिलाओं को महज इन निर्वाचित संस्थाओं में लाने की बात नहीं है। यह सामाजिक रूपांतरण लाने के लिए भी आवश्यक है।
आदिवासियों, दलितों, मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर ध्यान केन्द्रित करने के बार-बार किये गये फैसलों पर अमल किया जाना है।
पार्टी का निर्माण करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है। इसके स्वतंत्र कार्यकलाप का अर्थ है कि उसे मुद्दे तैयार करने में, आंदोलन की पहल करने और अपना अनुसरण करने वालों को लामबंद करने में उसे पहल करनी है, पर इसका अर्थ पार्टी को इसके वामपंथी, धर्मनिरेपक्ष एवं लोकतांत्रिक सहयोगियों से अलग-थलक करना नहीं है। वर्तमान गंभीर स्थिति का तकाजा है कि वाम एकता अधिक एवं बेहतर हो और संभावित लोकतांत्रिक सहयोगियों को अपने नजदीक लाया जाये, न कि उनसे दूर हुआ जाये। पर निश्चय लाया जाये, न कि उनके दूर हुआ जाये। पर निश्चय ही इस प्रक्रिया में अपनी पहचान, अपनी विचारधारा, अपने मूल्यों की हमेशा रक्षा की जानी चाहिए। केवल तभी हम हालत में बदलाव ला सकते हैं और वर्तमान स्थिति पर पार पा सकते हैं।
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सीआरएफ ओल्डएज होम की 10वीं जयंती


कामरेड सीआर को एक श्रद्वांजलि

महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति से विश्व भर में अनेक लोगों को यह प्रेरणा मिली कि एक ऐसे नये समाज के निर्माण के लिए संघर्ष किया जाये जो एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग को या एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण से विहीन हो। उससे प्रेरणा पाकर लोगों ने एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश की जिसमें गरीबी, बेरोजगारी और असमानता न हो, ऐसे लोगों में एक नाम है का. चन्द्र राजेश्वर राव का। उन्हें लोग प्यार से का. सी.आर. कहा कहते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन मेहनतकश लोगों के हित में संघर्ष के लिए समर्पित किया। वह एक जाने-माने देशभक्त और महान कम्युनिस्ट नेता थे। सभी उनका अत्यंत सम्मान करते थे। वह ढाई दशक तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे। अपनी अंतिम सांस तक जनता के निर्विवाद नेता बने रहे। उन्होंने पैतृक सम्पत्ति में अपने हिस्से को पार्टी के तेलुगु दैनिक ”विशालांध्र“ को दान कर दिया था।
मृत्यु से ठीक पहले उन्होंने अपनी विरासत में लिखा था कि उनकी किताबें पार्टी को दी दी जाये और उनके कपड़े जरूरतमंद लोगों को दे दिये जाये। सीआर कहा करते थे कि हरेक कम्युनिस्ट की यह जिम्मेदारी है कि वह बुद्ध लोगों की सामान्यतः और जिन लोगों ने समाज के हितों के लिए अपने जीवन को पूरी तरह खपाया उन वयोवृद्ध लोगों के लिए खास कर मदद के लिए आगे आयें।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जन संघर्षों के साथ ही साथ रचनात्मक कार्यों को भी अपने हाथ में लेती रही है। सीआर के नाम पर एक फाउंडेशन बनाना इसी का एक उदाहरण है। पार्टी की पहल पर सीआर फाउंडेशन का गठन किया गया। अपने गठन के बाद से यह फाउंडेशन तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष के हीरो एवं दबे-कुचले लोगों के लिए जीवन भर संघर्षरत रहने वाले का. सी.आर. राजेश्वर राव की स्मृति में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम करता रहा है।
पार्टी को उन लोगों के लिए बड़ी चिंता थी जिन्होंने मेहनतकश जनता के लिए अपने पूरे जीवन का बलिदान कर दिया था। इनमें ऐसे भी अनेक साथी होते हैं जिनकी वृद्धावस्था में देखभाल के लिए भी कोई नहीं होता। पार्टी का विचार था कि ऐसे लोगों की ठीकठाक से देखभाल की कोई व्यवस्था की जानी चाहिए, ऐेसे वरिष्ठ नागरिकों को पार्टी कार्यालयों में रखने के स्थान पर पार्टी को उनके सम्मान एवं आराप के साथ रहने ही व्यवस्था करनी चाहिए। इसी विचार के अनुसार सीआर फाउंडेशन फाॅर प्रोग्रेस का गठन किया गया जो अपने प्रिय नेता सीआर की स्मृति में उपरोक्त उद्देश्य के लिए विविध कार्यकलापों का आयोजन करता है।
का. नीलम राजशेखर रेधी, का. एन. गिरिप्रसाद और का. दासारी नागभूषण राव की पहलकदमी पर सीआर फाउंडेशन ने एक ‘ओल्डएज होम’ और अनुसंधान केन्द्र का निर्माण किया। इस उदात्त कार्य के लिए राज्य सरकार ने 5 एकड़ जमीन 33 वर्ष की लीज पर दी। तत्कालीन गृहमंत्री इन्द्रजीत गुप्त ने उसका शिलान्यास किया।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री चतुरानन मिश्र, टीडीपी प्रमुख नारा चन्द्रबाबू नायडू, कांग्रेस नेता वाई.एस. राजशेखर रेधी (पूर्व मुख्यमंत्री), के.पी. रघुनाथ रेधी (पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल) आदि अनेक नेताओं ने फाउंडेशन के कार्यक्रमों में आकर गरिमा बढ़ायी है। उन लोगों ने कम्युनिस्टों के योगदन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अनेक रानैतिक हस्तियों और गैर सरकारी संस्थाओं ने फाउंडेशन को आर्थिक सहयोग दिया है। केरल और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों ने भी सीआर फाउंडेशन को आर्थिक सहयोग देकर इस काम में मदद की है।
सीआर फाउंडेशन के तहत एक ‘ओल्डएज होम’, नीलम राजशेखर रेधी अनुसंधान केन्द्र, एक मेडिकल सेन्टर और दो महिला कल्याण केन्द्र चल रहे हैं। यह सब संगठन सुन्दर फूलों, सब्जियों की क्यारियों वाले गार्डन और साथ ही हरे-भरे घूमने के रास्तों के मनोहर वातावरण के बीच बने हैं। ‘ओल्डएज होम’: इसकी स्थापना राष्ट्रपति महात्मा गांधी जन्मदिवस दो अक्टूबर के दिन दस वर्ष पहले की गयी थी। इसकी शुरूआत में यहां पांच ही लोग रहते थे। अब उनकी संख्या बढ़कर 112 हो गयी है जिनमें 59 महिलाएं हैं। दो मंजिल ‘ओल्डएज होम’ में 68 कमरे और चार सामूहिक शयनगृह (डारमिटरी) हैं। हाल ही में एक लिफ्ट भी लगायी गयी है। ग्राउंड फ्लोर में डाइनिंग हाल है जिसमें 54 व्यक्ति एक साथ भोजन कर सकते हैं। पहली मंजिल पर भी एक अन्य डाइनिंग हाल बनाया गया है। पानी गर्म करने के लिए एक सोलर हीटर लगाया गया है जो 200 लोगों के लिए गर्म पानी देता है।
‘ओल्डएज होम’ का मासिक खर्च तीन लाख रुपये के लगभग होता है जिसका कुछ भार वहां रहले वाले भी उठाते हैं। वहीं पर उगने वाली सब्जियां रसोई में काम आती है। वहीं होने वाले फल भी खाने में दिये जाते हैं। ‘ओल्डएज होम’ में एक पुस्तकालय, वाचनालय और टीवी की सुविधाएं उपलब्ध है।
मेडिकल सेंटर: ” स्वाथ्स्य ही धन है“ की कहावत ‘ओल्डएज होम’ के लिए सटीक बैठती है। यहां स्थित मेडिकल सेंटर आस-पास की बस्तियों को चिकितया सेवा दे रहा है। यह सेंटर जनवरी 2003 में शुरू किया गया था। जर्मनी में प्रशिक्षित एक लेडी डाक्टर और एक नर्स ‘ओल्डएन होम’ में रहनेे वाले लोागें एवं अन्य रोगियों की देखभाल करती है। एक सुप्रशिक्षत और अनुभवी नर्स ‘ओल्डएज होम’ में ही रहती है। केयर अस्तपाल ने ‘ओल्डएज होम’ को गोद लिया और वही इस नर्स का खर्च उठाती है। हाल ही में एक डायोनिस्टिक केन्द्र भी शुरू किया गया है। जांच के लिए मामूली शुल्क लिया जाता है जिससे इस केन्द्र का रखरखाव किया जाता है।
वर्ष में तीन बार स्वास्थ्य कैम्प लगाये जाते हैं। इन कैम्पों में स्त्रीरोग विशेषज्ञों, जनरल फिजीशयिनों, दंतचिकित्सकों, नेत्र चिकित्सकों, मधुमेह विशेषज्ञों को बुलाया जाता है और मरीजों को मुफ्त दवाएं दी जाती है। इन केम्पों में औसतन 800 मरीजों को रोग निदान किया जाता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय महिला फेडरेशन के स्थानीय नेता इन कैम्पों को सफलतापूर्वक चलाने में डाक्टरों की सहायता करते हैं। आंख के आपरेशन भी किये जाते हैं। राष्ट्रीय डीओटी कार्यक्रम की मदद से तपेदिक की दवाएं दी जाती है। यहां कई युवा महिलाओं का सफलतापूर्वक इलाज किया गया है और उन्हें बच्चे हुए हंै। यहां गर्भाशय की बीमारियों से पीड़ित अनेक महिलाओं का भी सफलतापूर्वक इलाज किया गया है। मेडिकल सेंटर पोलियो कार्यक्रम में हिस्सा लेता है। हाल के कार्यक्रम में 500 बालकों को पोलियो ड्राप पिलायी गयी। मेडिकल सेंटर चिकनगुनिया के मरीजों को होम्यो पिल्स बांटता है।
नीलम राजशेखर रेधी अनुसंधान केन्द्र: इस अनुसंधान केन्द्र में 56000 पुस्तकें हैं। पुस्तकालय में 6 दैनिक पत्र और 10 पत्रिकाएं आती हैं। केन्द्र अब तक 20 पुस्तकें प्रकाशित कर चुका है। विभिन्न अवसरों पर अनेक विषयों पर जैसे कि इटली के महान चिंतक ग्रेम्शी, 21वीं सदी में समाजवाद, कृषि एवं उद्योगीकरण पर सेमिनार किये गये है। 21 से 24 दिसम्बर 2009 तक ”माक्र्सवाद और समकालीन विश्व पर सेमिनार हो रहा है। इन सेमिनारों को प्रखात हस्तियों ए.बी. बर्धन, प्रभात पटनायक, जयति घोष, राम मनोहर रेधी, शोभनलाल दत्तागुप्त आदि ने संबोधित किया है।“
महिला कल्याण केन्द्र: केन्द्र ने महिला सशक्तीकरण के मुद्दे को बड़े पैमाने पर हाथ में लिया है। सभी जानते है कि 1940 के दशक तक शिक्षा सामान्यतः महिलाओं की पहुंच से दूर थी। जो महिलाएं स्कूलों में जाने की हिम्मत करती थी उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। तो भी अरूतला कमला देवी जैसी महिलाओं ने साहस किया, हर तरह के उत्पीड़न का मुकाबला किया और शिक्षा प्राप्त की। वह तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष के प्रमुख लड़ाकों में भी थी। वह लगातार तीन बार राज्य विधानसभा के लिए चुनी गयी। बाद में उन्हें डाक्टरेट भी प्रदान किया गया। महिला कल्याण केन्द्र का नाम उनके नाम पर रखा गया है। यह केन्द्र इस इलाके में विज्ञान केन्द्र के रूप में भी काम करता है। केन्द्रीय मंत्री डग्गुबती पुरदेश्वरी ने अरूतला कमलादेवी भवन का उद्घाटन किया था।
आंध्र प्रदेश महिला समख्या (भारतीय महिला फेडरेशन) की विख्यात नेता यारलगधा भाग्यवादी की स्मृति में एक वोकेशनल टेªनिंग सेंटर खोला गया। उसका शिलान्यास आंध्र प्रदेश विधानसभा की तत्कालीन अध्यक्ष प्रतिभा भारती ने किया था। उसका भवन निर्माण होने के बाद तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री पानाबाकी लक्ष्मी ने उसका उद्घाटन किया। इस केन्द्र में अनेक युवा महिलाएं और विधवाएं सिलाई और कढ़ाई का काम सीख रही है, कुछ महिलाएं कम्प्यूटर का कोर्स भी कर रही है। इसमें केवल तीन महीने की प्रशिक्षण अवधि है। यहां पर साड़ी रोलिंग, मेहंदी और ब्यूटीशियन के कोर्स की कोचिंग भी की जाती है। इसके अलावा जरदोजी और बैग बनने के कोर्स भी चलाये जाते हैं।
अरतला कमलादेवी भवन में हाल में 540 युवा महिलाओं ने सिलाई में, 244 ने कढ़ाई में और 257 ने कम्प्यूटर कोर्स में प्रशिक्षण पाया है। इनमें से 75 प्रतिशत महिलाएं अब 2000 से 3000 रुपये मासिक कमा रही हैं। हाल ही में 155 महिलाओं ने जरदोजी में और 155 ने बैग बनाने में प्रशिक्षण समाप्त किया। वे 3000 रुपये मासिक से भी अधिक कमा रही हैं। यहां प्रशिक्षित कुछ महिलाओं को कई प्रतिष्ठित संस्थाओं में भी काम मिल गया है।
नेपाल के प्रधालमंत्री माधव कुमार नेपाल, मणिपुर के मंत्री पारिजात सिंह, उड़ीसा के पूर्व संसद पंडा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस के डेलीगेटों और अन्य अनेक प्रख्यात हस्तियां फाउंडेशन में आ चुकी है। विदेशों से जैसे की जर्मनी के क्लोज पीटर्स, कनाडा के श्री राजवी और श्रीमती राजवी भी यहां आ चुके हैं।
महिला कल्याण केन्द्रों में महिलाओं को जागरूक बनाने, स्वतंत्र होकर काम करने के संबध में क्लासें चलायी जाती है। ”कुटीर उद्योगों के लिए ऋण कैसे लें“, ”कल्याण योजनाएं“, ”साम्प्रदायिक सौहार्द“ जैसे विषयों पर भी क्लासें चलायी गयी हैं।
सीआर फाउंडेशन ने अपनी लगातार कार्रवाइयों के जरिये इस क्षेत्र की जनता के दिलों दिमाग में अपनी जगह बनायी है।
6 नवंबर 2009 को फाउंडेशन के ‘ओल्डएज होम’ की स्थापना की दसवीं जयंती समारोहपूर्वक मनायी गयी। इस मौके पर अनेक स्वतंत्रता सेनानी, कम्युनिस्ट नेता और तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष में भाग लेने वाले वयोवृद्ध लोग वहां आये। सीआर फाउंडेशन की जनरल बाडी मीटिंग की अध्यक्षता फाउंडेशन के अध्यक्ष एवं पूर्व संसद सदस्य सुरवरम सुधाकर रेधी ने की। जनरल बोडी ने फाउंडेशन के नये नेतृत्व का चयन किया, जिसमें ए.बी. वर्धन को मानद अध्यक्ष, सुरवरम सुधाकर रेधी को अध्यक्ष, डा. के. नारायणा और अजीज पाशा को उपाध्यक्ष, पुवधा नागेश्वर राव एमएलसी को महासचिव, वी. चेन्नाकेशव को सचिव और वी. रामनरसिन्हा राव को कोषाध्यक्ष चुना गया।
जनरल बोडी मीटिंग को संबोधित करते हुए ए.बी. वर्धन ने कहा कि जिन लोगों ने पार्टी और देश की सेवा में अपनी पूरी जिन्दगी लगा दी उनके लिए कोई आराम की जगह बने इसकी बड़े लम्बे अरसे से जरूरत थी। सीआर फाउंडेशन ने उस जरुरत को पूरा किया और फाउंडेशन के कार्यकलाप अत्यंत संतोषजनक रहे हैं।
विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के कुशल देखरेख में फाउंडेशन का काम आगे बढ़ रहा है। जो लोग यहां रहते हैं उनकी सेवा करना और साथ ही आम लोगों की सेवा करना, असल में, का. सी. आर. को यही समुचित श्रद्धांजलि होगी।

वी.एम. नरसिम्हा राव
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आदमी का बच्चा

जिन्दगी सुधारने नागपुर गया था। राज्यों की राजधानियां शायद वे जगहें हैं, जहां टूटी हुई जिन्दगियां सुधारी जाती हैं। सुना है, सैक्रैटेरियेट और विष्वविद्यालयों में जिन्दगीसाज रहते हैं, जो एक कदम से टूटी-फूटी और कबाड़खाने में रखी जिन्दगी को अच्छी से अच्छी दूकान के शो-केस में रख देते हैं।
लोगों ने कहा - बी.ए. किये चार-पांच साल हो गये। एम.ए. कर डालो, तो जिन्दगी सुधर जायगी, वरना यहीं पड़े-पड़े सड़ जाओगे। सोचा, बदबू आने के पहले नागपुर जाकर एम.ए. का इम्तहान दे डालूं।
ठहरा एक कवि मित्र के यहां। वे कवि भी थे और क्वांरे भी। याने करेला नीम चढ़ा। घर क्या था? किसी गांव की गौशाला थी। मगर मित्र के प्रेम का गलीचा कुछ ऐसा बिछा था और आत्मीयता के ऐसे बेलबूटे सजे थे कि मन रम गया।
कवि मित्र दफ्तर जाने लगे, तो एक दस-बारह साल के लड़के को बुला कर कहा - देख जग्गू, ये तेरे नये काका हैं, इनका सब काम करना। कोई तकलीफ न होने देना।
लड़का बोला - नहीं काका, तुम बिलकुल जाओ। तकलीफ हो ही नहीं सकती। सब काम कर दूंगा। वह चला गया।
मित्र ने कहा - यहीं पड़ोस में रहता है, मेरा काम कर देता है। आने-दो आने दे देता हूं।
मित्र चले गये। मैं बिस्तर फैला कर लेट गया। थोड़ी देर बाद लड़का आया। बोला - काका, नहाने कू पानी ला दूं? मैंने हां कहा, तो वह फौरन दो बाल्टी पानी भर लाया।
नहाकर मैं किताब खोल पढ़ने बैठ गया। थोड़ी देर बाद वह आया और द्वार से टिक कर खड़ा हो गया। मैंने निगाह उठाकर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - काका चाय ला दूं?
हां - मैंने कहा।
- पानी भी?
- हां।
- सिगरेट भी?
हां - कहकर मैंने एक रूपये का नोट फेंका। वह चला गया और थोड़ी देर बाद एक हाथ में केतली और प्याला तथा दूसरे में पान-सिगरेट लेकर आ गया। मैंने चाय पी ली और सिगरेट जला कर बैठ गया। वह बाकी पैसे टेबिल पर रख कर केतली लेकर चला गया।
थोड़ी देर बाद वह फिर आकर दरवाजे के पास खड़ा हो गया। मैंने निगाह उठाई, तो बड़े सकुचाते हुए बोला -
काका तुम्हारे पास एक आना है क्या?
मैंने इकन्नी उसकी ओर फेंक दी और वह उसे उठाकर इतनी जल्दी जीने से उतरा, जैसे ऊपर से एकदम कूद गया हो।
मैं पढ़ने में जुट गया था। बीच-बीच में वह लड़का आता और उसका मेरा बंधा-बंधाया वार्तालाप होता:
- काका चाय ला दूं?
- हां।
- पानी भी?
- हां।
- सिगरेट भी?
- हां।
और फिर वह वहीं दरवाजे के पास खड़े होकर अंगुली मुंह में दबाये नीचे रखते हुए सकुचा कर बोलता -
काका, तुम्हारे पास एक आना है क्या?
दस-बारह साल का लड़का था। मैला-कुचैला। एक आंख ठीक, दूसरे में मोतियाबिन्दु। बाल बेतरतीब रूखे। पेट बड़ा, हाथ-पांव पतले। जैसे बढ़ते पौधे को गरीबी के ढेर ने रौंद डाला हो। पर लड़के की एक आंख में बड़ी चमक आती।
शाम को पूछने लगा - काका, कुछ और तो नहीं चाहिए?
उसकी आंखों में बड़ी चपलता आ गयी। शरारत की रोशनी चमकने लगी। उसने कुछ ऐसे ढंग से बात कही कि उसे मैं सिगरेट, पान, चाय के सिलसिले में नहीं बांध सका। वह कुछ अलग ही चीज थी। मैंने पूछा - और क्या?
वह उसी तरह बोला - कुछ दारू-वारू, अच्छी वाली?
मैं थोड़ी देर को अचकचा गया। वह लड़का बड़ा दिलचस्प लगा। मैंने कहा - यहां तो शराबबंदी है, कहां से लायेगा?
अरे काका! वह बड़े सयानेपन से बोला - मेरे कू कोई बात मुष्किल नहीं। सब अड्डे वाले जानते हैं जग्गू को। अच्छी से अच्छी ला दूंगा। थोड़ा पैसा ऊपर लगेगा।
मैंने कहा - तू दूसरे वाले काका के लिए लाता है क्या? मेरा मतलब कवि-मित्र से था।
लड़का बोला - अरे राम-राम! वो काका तो नाम लेने से भी गुस्सा होता है। इधर मोहल्ले में एक दो लोगों को लाता हूं। तुम कू ला दूं?
मैंने कहा - नहीं रे, मैं भी नहीं पीता।
वह एकदम बुजुर्ग बन गया। जैसे मेरी पीठ ठोककर बोला - बहुत अच्छी बात है, काका! बड़ी खराब चीज है। कभी नहीं पीना चाहिए।
अब मैं उससे यहां-वहां की बातें भी करने लगा। उसने बतलाया कि वह दूसरी तक पढ़ा है। उसके बाद उसकी मां मर गयी, तो उसने पढ़ना छोड़ दिया।
मैंने पूछा - पढ़ना क्यों छोड़ दिया, रे?
वह बोला - वाह काका, फिर दादा के लिए रोटी कौन बनाता? छोटे भैया को कौन खिलाता? दादा सबेरे ही सात बजे काम पर चला जाता है कारखाने में। मैं उठकर उसके लिए रोटी बना देता हूं। फिर दिन भर छोटे भैया को खिलाता हूं। मैं बड़ा हो जाऊंगा, तो मैं भी काम पर जाऊंगा, उधर बहुत से पैसे मिलते हैं काका, पर सब दारू में उड़ा देते हैं।
- तेरा दादा भी दारू में उड़ा देता है?
- पहले तो उड़ा देता था। खूब पीकर आता था और मां को मारता था। पर जबसे मां मरी, वह बिलकुल नहीं पीता। मालूम है काका, क्या बोलता है मेरा दादा? कहता है, शादी कर देगा, तब हम दोनों काम पर चलेंगे। और मेरी घरवाली हमारे लिए रोटी बना देगी।
ब्याह की बात करते वक्त उसके मुख पर जरा भी लज्जा, संकोच के भाव नहीं आये, जैसे स्त्री हर मजदूर के लिए जरूरी चीज है और उसका यह उपयोग है कि वह सबेरे रोटी बना कर, एक कपड़े में बांधकर काम पर जाने वाले पुरूड्ढ के हाथ में दे देती है।
शाम को मेरे कवि-मित्र अपने एक और मित्र को ले आये। वे बड़ी दार्शनिक शैली में बातें करते थे। खूब शिक्षा पायी थी। बढ़िया सूट पहिने थे, महक रहे थे। परिचय होते ही खुलकर बातें करने लगे। वे आत्मा, परमात्मा, मानवजीवन आदि पर बातें कर रहे थे। कहने लगे - आखिर जीवन का उद्देष्य क्या है? क्यों इंसान पैदा हुआ? यह जीवन आखिर क्या है?
मैंने सीधी बात कह दी - भाई साहब, मुझे जीने से ही फुरसत नहीं मिलती, जीवन के बारे में सोचूं कैसे? कुछ लोग जीवन जीते हैं, कुछ जीवन के बारे में सोचते हैं। आपको सोचने की सुविधा है। मुझे जीने का शौक है।
उन्हें संतोड्ढ नहीं हुआ। उठते-उठते वे आदमी के पतन पर चर्चा करने लगे। कहने लगे - भाई साहब, आजकल आदमी देखने को नहीं मिलता, याने सच्चा आदमी। सब चार पैरों वाले जानकर हैं, जिन्होंने पीछे के दो पैरों से चलना सीख लिया है और आगे के पैरों को हाथ कहने लगे हैं।
खाना खाने जा रहा था। भूख के सामने उनके दर्शन ने हाथ टेक। हम उठ दिये।
तीसरे दिन वह लड़का फिर आया।
बोला - नहाने कू पानी ला दूं?
मैंने कहा - नहीं।
वह बोला - अरे काका, नहाओगे क्यों नहीं?
- नहीं नहाने से तबीयत खराब होती है।
मैंने उसे जाने के लिए कह दिया। और पढ़ने बैठ गया।
थोड़ी देर बाद वह फिर आया।
बोला - काका, चाय ला दूं?
मैंने कहा - नहीं। मैं बाहर से चाय पीकर आया था।
- पान ला दूं?
नहीं - पाने मेरे मुंह में दबा था।
- सिगरेट?
अरे काका, आज तो न चाय, न पान, न सिगरेट?
मैं कुछ बोला नहीं, तो वह चला गया।
थोड़ी देर बाद वह फिर आया। थोड़ी देर खड़ा रहा। फिर पूछने लगा - काका चाय ला दूं?
मैं पढ़ने में मशगूल था, कह दिया - नहीं।
- पान, सिगरेट?
किताब पर आंख गड़ाये ही मैंने कह दिया - नहीं।
फिर सोचा कि वह बार-बार परेशान करेगा। चाय, पान, सिगरेट इसलिए पूछता है कि उसके बाद उसको एक-दो आने पैसे मिल जाते हैं। अगर अभी नहीं दूंगा, तो फिर परेशान करगा। इसलिए मैं उठा और जब में से दुअन्नी निकाल कर उसे पास बुलाया और उसके हाथ में रखकर बोला - ले जा, जब बुलाऊं, तब आना।
थोड़ी देर तो वह मेरी ओर देखता रहा। फिर बोला - काका बुम काम तो कराते नहीं, दुअन्नी देते हो। मैं मुफ्त की दुअन्नी थोड़े ही लेता हूं। उसने दुअन्नी वहीं टेबिल पर फेंक दी और एकदम चला गया।
मुझे तमाचा सा लगा - पर दर्द नहीं हुआ। आदमीयत कही दिखे, तो अच्छा ही लगता है।
उस दिन शाम को वे दार्शनिक मित्र फिर आये। उसी लहजे में बोले - आजकल आदमी नहीं मिलता।
मैंने तपाक से कहा - भाई साहब, आदमी तो नहीं, पर फिलहाल मेरे पास आदमी का बच्चा है।
- दिखाऊं?
मैंने उस जग्गू की ओर संकेत पर दिया।

का. हरि शंकर परसाई
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प्रजातंत्र के कुत्ते

व्यंग्य
रोज की तरह सुबह सैर करने को निकला तो मुझे देखकर नुक्कड़ वाली नीम के नीचे सोया मरियल कुत्ता पंजे झाड़ कर उठ खड़ा हुआ। इससे पहले शायद ही मैंने उसे अपने पांव पर खड़े देखा हो। किसी ने रोटी डाल दी तो उसी प्रकार लेटे-लेटे खा ली नहीं तो हरि इच्छा।
नजदीक आने पर वह मेरे पांव के पास आकर कुंऽकुंऽऽ करने लगा। मैंने भरपूर नजर से उसे देखा, उसने भरपूर नजर से मुझे देखा, सहानुभूति अंकुरित तो होनी ही थी। फिर अचानक वह जोर-जोर से भौंकने लगा। मुझे लगा भूख उसे भौंकने को मजबूर कर रही है। सहानुभूति का अंकुर दया में परिवर्तित होने लगा। मैं उल्टे पांव घर लौटा और रात की बासी रोटी पत्नी से मांग कर लाया और उसी सहानुभूति के भाव से उसे भेंट कर दी। उस पट्ठे ने रोटी की तरफ मुंह उठाकर देखा तक नहीं। मुझे लगा यह जरूर कोई खानदानी है, भूखा मर जाना मंजूर किन्तु बासी रोटी नहीं खाएगा।
वह उसी तरह भौकते-भौकते पड़ोस वाली गली में गया और भौकते-भौकते तुरन्त लौट भी आया। इस बार उसने अपने अगले दोनों पांवों से हाथों का काम लेते हुए झंडा थाम रखा था, जिस पर लिखा था - ‘रोटी नहीं वोट चाहिए’। मैं एकदम सकते में आ गया। आखिर कुत्तों को भी वोट की अहमियत का पता चल गया। देखते ही देखते कई कुत्ते उसी प्रकार अगले दोनों पांवों से हाथों का काम लेते हुए उसी प्रकार के झंडे थामे हुए वहां पर इकट्ठे हो गए। वे सब एक सुर में भौक रहे थे यानी अपने प्रिय उम्मीदवार के लिए चुनाव प्रचार के लिए तैयार थे।
मैं अपनी हैरानी से उबरता कि शर्मा जी दिखाई दे गए। शर्माजी आर.डब्लू.यू. के प्रेसीडेंट थे। मुझे हैरान परेशान होते हुए देखकर बोले - ”क्यों गुप्ताजी! खबर बनती है या नहीं?“ मैं उनका आशय नहीं समझा, इसलिए आंखें फाड़-फाड़ कर उनकी ओर देखने लगा।
”अरे भाई अपने चहेते उम्मीदवार को चुनाव का टिकट न मिलने के कारण पार्टी के सभी कार्यकर्ता बागी हो गए। अब नए कार्यकर्ता कहां से लाएं? इसीलिए यह तरीका निकाला है।“
पर शर्मा जी, यह तो सिर्फ भौक ही सकते हैं, वोटरों को प्रभावित तो नहीं कर सकते।“
इस बार शर्मा जी ने भेदभरी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ”कार्यकर्ता क्या करते हैं? शोर मचाकर भीड़ ही तो इकट्ठी करते हैं। वे क्या बोल रहे हैं, उन्हें खुद पता नहीं होता।“
”पर शर्मा जी राजनीति इस स्तर पर आ जाएगी, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी“ मैंने हताश होकर कहा।
”भइया जी प्यार और तकरार में सब जायज है, देश तरक्की पर है, फिर घिसे-पिटे तरीकों का क्या मतलब?“
मैं इसका क्या जवाब देता। अब कुत्तों के भौंकने पर प्रजातंत्र का दारो-मदार होगा। मैंने वहां से खिसकना ही बेहतर समझा। गली पार कर पार्क तक पहुंचा तो वहां अजीब दृश्य था। एक सज्जन तमाम कुत्तों को इकट्ठा करके उन्हें दो पांवों पर चलने का अभ्यास करा रहे थे। एक सज्जन पार्टी के झंडों पर अलग-अलग इबारत लिख रहे थे। मैं वहीं पर ठिठक गया। जानने की इच्छा भी थी, घिर जाने की आशंका भी थी, पर मैं वहां से हिल नहीं सका। ‘चमत्कार’ चैनल के संवाददाता और कैमरामैन मेरे पहुंचने से पहले ही इस घटना को दिलचस्प खबर बना कर कैमरे में कैद करने में मशगूल थे। मुझे देखकर ‘चमत्कार’ के संवाददाता मेरी ओर मुखातिब हुआ।
”क्यों गुप्ताजी ‘चमत्कार’ के अनुकूल है न यह खबर?“
मैं क्या कहता.... कुछ कहने को था ही नहीं। दरअसल मैं वहां से भाग जाना चाहता था। पता नहीं उसने या उसके कैमरामैन ने भूरे बाबा को कब इशारा कर दिया कि भूरे बाबा के इशारे पर तमाम कुत्तों ने मेरे गिर्द घेरा डाल दिया। वे सब सुर-ताल में भौक रहे थे। भूरे बाबा दूर बैठे अपने सोड़े दांत निकाल कर हंस रहे थे और अपनी खिचड़ी दाढ़ी में सूखी भिण्डी जैसी उंगलियां लगतार फिरा रहे थे।
‘चमत्कार’ के संवाददाता ने कुछ ज्यादा ही संजीदा होते हुए कहा - ”जब तक आप भूरे बाबा का इण्टरव्यू लेकर प्रसारित नहीं करते तब तक ये कुत्ते आपके इर्द-गिर्द भौक-भौक कर लगातार अपना प्रस्ताव पेश करते रहेंगें।“
मेरे लिए यह एक विकट समस्या थी। इस तरह की स्थिति में मैं इससे पहले कभी पड़ा नहीं था, पर मार्किट में आजकल इस तरह की चीजें धड़ल्ले से बिक रही हैं। हर चैनल इसी तरह का कोई न कोई नायाब नुस्खा लेकर आ रहा है। पिछले दिनों एक चैनल ने एक गांव का किस्सा निर्मित किया। वहां रामचरित मानस की कथा सुनने हर शाम को एक सांप आता और कथावाचक से थोड़ी दूर पर पसर जाता, किसी कोई कुछ नहीं कहता, उसकी इस श्रद्धा से श्रोता (टेलीविजन के दर्शक) भाव-विभोर हो गये; चर्माेत्कर्ष और भी निराला ज्योंही कथा सम्पन्न हुई नाग देवता ने प्राण त्याग दिए। दर्शक वाह-वाह कर उठे, क्या पुण्य आत्मा थी। चैनल की बल्ले-बल्ले। इस संस्मरण से मेरा उत्साह बढ़ा। कुत्तों का चुनाव प्रचार भी दिखाया जा सकता है, जरूर दिखाया जा सकता है। कुत्ता सांप की तरह दहशत तो पैदा नहीं करता।
मैंने बाबा की मुस्कराहट का जवाब उसी प्रकार मधुर मुस्कान से दिया। कुत्तों ने ना जाने कैसे यह भांप लिया कि बात बन गई इसीलिए अनुशासित सिपाही की भांति पंक्तिबद्ध होकर वे बाबा के पीछे जा बैठे। कुत्ता स्वामीभक्त होता है, इतना तो मैंने सुन रखा था परन्तु कुत्ता इतना अनुशासित भी होता है, यह मैं पहली बार देख रहा था। टाॅकी, जैकी जैसे कुत्तों की बात अलग है, वह नसलें ही दूसरी होती हैं, जो हिन्दी के बजाए मालिक की अंग्रेजी हिदायतों का अनुसरण करना पसंद करते हैं। मालिक के इशारे पर करतब करके दिखाते हैं और इस प्रकार नमक का हक अदा करते हैं। इस प्रकार ये कार्यकुशल कुत्ते कार्यकर्ताओं से अधिक प्रभावी हो सकते हैं। कल्पना कीजिए जब अगले दोनों पांव उठाकर उनमें पार्टी का घोषणापत्र थाम कर कुत्ते जंतर-मंतर से गुजरेंगे तो कैसा मंजर होगा? अपनी इस कल्पना से मैं स्वयं ही गदगद हो गया।
मैं भूरे बाबा के सम्मुख आज्ञाकारी शिष्य की तरह पालथी मारकर बैठ गया। बाबा ने तनाव मुक्त होने के लिए तम्बाकू और चूना मिलाकर हथेली पर रगड़ा, फटकी मारी और चुटकी में लेकर जीभ के नीचे दबा लिया। लगा तैयारी पूरी हुई।
”बाबा, आपको यकीन है कि यह नौटंकी कामयाब होगी?“
बाबा ने पिच्च करके एक ओर थूका, फिर थोड़ा संजीदा होकर बोले - ”आप पत्रकारों के साथ यही दिक्कत है। सही स्थिति के लिए गलत भाषा का इस्तेमाल करते हैं। अरे भाई, यह नौटंकी नहीं, यह एक सांस्कृतिक अनुष्ठान है। पंक्ति के बीचों-बीच वह जो भूरे रंग का कुत्ता बैठा है, वह कोई साधारण कुत्ता नहीं है। उसके पूर्वज ने सशरीर महाराज युधिष्ठर के साथ स्वर्गारोहण किया था। हम भारतीय संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। हम इसके सिर पर मुकट पहना कर इस बात को दर्शाएंगे। उसको उसके पूरे परिचय के साथ प्रस्तुत करेंगे।“
”आपके पास क्या सबूत है कि यह कुत्ता उसी का वंशज है?“ मैं आदतन कह बैठा।
बाबा बिगड़ गये। बोले - ”तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुम अपने ही बाप की सन्तान हो, अरे भाई तुम्हें तुम्हारी मां ने ही तो बताया न कि वह तुम्हारे पिता हैं। इसी प्रकार हमें भी संत ज्ञानियों ने यह बताया।“
मेरे शरीर से चिन्गारियां निगलने लगी। शरीर कांपने लगा, पर मैं कुत्तों के सामने कुत्तों जैसी कोई हरकत नहीं करना चाहता था। गुस्सा पी गया, चूंकि मेरे सामने टीआरपी का सवाल था, मैं अगर बाबा से बिगाड़ता तो कोई दूसरा इस प्रोजेक्ट को लपक लेता। यह मैं किसी कीमत पर भी होने नहीं देना चाहता था।
”अरे भाई जब फिल्मी सितारे लिखे हुए भाषण को मंच पर लटके झटके साथ पढ़कर मतदाताओं को रिझा सकते हैं तो फिर ये कुत्ते अगर लिखित इबारत लेकर मतदाताओं के सामने उपस्थित होते हैं तो किसी को क्या एतराज हो सकता है।“ बाबा आत्मविश्वास से लबरेज थे।
नायक कुत्ते को गौर से देखने पर उसके वंश के बारे में मेरे सारे सन्देह जाते रहे। जंतर-मंतर पर उस मुकुटधारी कुत्ते को चलते देखने की कल्पना मुझे हौसला दे रही थी। मुझे यकीन था कि हमारा ‘चमत्कार’ चैनल सब चैनलों को पानी पिला देगा।
”यदि आपकी सरकार बनती है तो इन कुत्तों की स्थिति सुधारने के लिए आपके पास कोई योजना है?“ मैंने आखिरकार पूछ ही लिया।
”है, है क्यों नहीं। हम आगे की सोचकर ही कोई कदम उठाते हैं। एक तो यह कि कोई किसी कुत्ते को अपने दरवाजे से दुत्कारेगा नहीं, अन्यथा उस पर उचित कानून के अन्तर्गत कार्रवाई की जाएगी। अगर भारतीय दंड संहिता में ऐसी कोई धारा नहीं होगी तो उसे डाला जाएगा। कोई कुत्ता, कुत्ते की मौत नहीं मरेगा। मरणोपरांत उसे सद्गति मिलेगी, जो सर्वसाधारण को मिलती है।“
बाबा का उत्साह देखकर मेरे मन में फिर प्रश्न उभरने लगे। रोज-रोज होने वाली प्रेस कांफ्रेसों ने हमारी आदत जो बिगाड़ दी है।
”बाबा, यह बताने की कृपा करें कि ये सब किस प्रकार संभव हो पाएगा?“
बाबा ने दाढ़ी में उंगलियां फिराते हुए कहा - एक आश्रम के निर्माण की हमारी योजना है जहां कुत्तों और मनुष्यों के बीच फासले को पाटने की कोशिश की जाएगी। उसकी देख रेख के लिए एक ट्रस्ट बनाई जाएगी।
उसके बाद कुछ पूछना बाकी नहीं रहा था यद्यपि कई सवाल मुझे साल रहे थे, शंकाओं को दबा कर मैंने बाबा को प्रणाम किया, प्रणाम किए बिना साक्षात्मकार पूरा जो नहीं होना था, मैं मन ही मन स्वयं को तसल्ली दे रहा था कि प्रणाम वाले दृश्य को प्रसारण से पूर्व सम्पादित कर दिया जाएगा, बाबा को कहां याद रहेगा यह सब।
लौटते हुए लगा कि मैं घुटनों तक पानी में चल रहा हूं, कपड़ों को गीला होने से बचाने का व्यर्थ प्रयास कर रहा हूँ, पर टीआरपी वाली बात भी अपनी जगह सच थी, बल्कि यही एक मात्र सच था। किसी सीरियल के एक विदूषक संवाद बार-बार मेरे कानों से टकरा रहा था -
”पैसा फेकों मुंह पे मैं कुछ भी करूंगा।“

का. केवल गोस्वामी
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रोजगार का आउटसोर्सिंग-एक बड़ा खतरा

1. प्रस्तावना
1. बैंकों के नियमित एवं स्थायी काम का आउटसोर्सिंग टेक्नालाजी से ज्यादा खतरनाक है। यह उस प्रक्रिया का अंग है जिसके तहत किसी संस्थान का काम बाहरी एजेंसियों को दिया जाता है जो ये काम मजदूरों से कराती हैं। यह तरीका विश्व भर में मालिकों द्वारा अपनाया गया ताकि कर्मचारियों पर खर्च को कम किया जा सके तथा अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके, साथ ही यूनियन न बनने दिया जाये और यदि यूनियन है तो उसे काम करने नहीं दिया जाय। आउटसोर्सिंग की प्रक्रिया में असंगठित मजदूरों की संख्या बढ़ गयी है तथा संगठित या यूनियनकृत मजदूरों की संख्या घट गयी है। इससे मालिकों को मजदूर वर्ग का ज्यादा से ज्यादा शोषण करने और हायर एंड फायर नीति (जब चाहो रखो, जब चाहो निकाल दो) पर अमल करने में मदद मिली है। लगभग सभी विकसति और विकासशील या अविकसित देशों में संगठित या असंगठित मजदूरों की संख्या 7 प्रतिशत से 8 प्रतिशत घट गयी है।
ऊंचे स्तर और नीचे स्तर के मजदूरों के बीच अपवाद नहीं है। पिछले दशक में नव-उदारवादी आर्थिक नीति के तहत ऐसे तरीके अपनाने से संगठित/यूनियनकृत मजदूरों की संख्या कम होती जा रही है तथा असंगठित मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है जिसके लिए कोई सेवाशर्तें नहीं हैं, सामाजिक सुरक्षा और श्रम कानून नहीं है।
2. आउटसोर्सिंग या ठेके पर काम करने या सेवा लेने के कारण बैंकिंग उद्योग में संगठित कर्मचारियों की संख्या कम होत जा रही है तथा असंगठित कर्मचारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बैंकिंग सेवाओं तथा नियमित और स्थायी काम का आउटसोर्सिंग बढ़ते जाने से स्थायी कर्मचारियों की संख्या कम होती जा रही है जिससे यूनियनों की समझौता वार्ता करने की शक्ति क्षीण होती जा रही है तथा नौकरी की सुरक्षा और अस्तित्व को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। जन-बैंकिग को वर्ग-बैंकिंग में बदला जा रहा है। ग्राहकों पर भी सेवा सुरक्षा तथा उनके एकाउंट एवं ट्रांजेक्शन के मामले में इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। आउटसोर्सिंग किये जाने से धोखाधड़ी बढ़ती जा रही हंै।
3. बैंक उद्योग में आउटसोर्सिंग या ठेके पर काम करने वाले मजूदरों की संख्या बढ़ती जा रही है। मालिक और मजदूर के बीच का संबंध बदल रहा है। फलस्वरूप इस समय बैंकों में काम करने वाले कुल कर्मचारियों में से असंगठित कर्मचारियों की संख्या करीब 38 प्रतिशत है और यदि इसे रोका नहीं गया तो एक दिन ऐसा आ सकता है जब रोजगार तो होगा, बैंक की ब्रांचे होंगी, बैंकों को मुनाफा भी होगा लेकिन स्थायी कर्मचारी नहीं रहेंगे और उनकी यूनियनों भी नहीं हांेगी। इससे हमारी सामूहिक समझौता वार्ता करने की ताकत भी धीरे-धीरे कम हो जायगी।
4. बैंकों में खासकर विदेशी बैंकों में वहां की यूनियनों के साथ द्विपक्षीय समझौते के जरिए बैंकों में आउटसोर्सिंग आॅफ जाॅब की अनुमति दी गयी है। नई पीढ़ी के निजी बैंकों में कामकाज पूरी तरह से बाहरी एजेंसियों या ठेके पर निर्भर है। पुराने निजी क्षेत्र के बैंक तेजी से बाहरी एजेंसियों के जरिये आउटसोर्सिंग कर रहे हैं या ठेके पर कर्मचारियों को रख रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भी अपना काम आउटसोर्सिंग कर रहे हैं। 2 जून 2005 को हुए द्विपक्षीय समझौते के अनुसार जहां बैंक के पास अपनी क्षमता एवं सुविधा नहीं है वहां बैंक आईटी एवं इससे संबंधित काम को आउटसोर्स कर सकते हैं।
2. बैंकिंग उद्योग एवं आउटसोर्सिग-वर्तमान स्थिति
5. पिछले दस वर्षों से बैंक अपने नियमित एवं स्थायी काम का आउटसोर्सिंग कर रहे हैं। वर्तमान में भारतीय रिजर्व बैंक और भारत सरकार द्वारा बैंकों में आउटसोर्सिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है तथा अधिकृत किया जा रहा है। बैंक तेजी से अपना काम आउटसोर्सिंग कर रहे हैं तथा खर्चा कम करने और निपुणता हासिल करने के नाम पर उसे उचित ठहरा रहे हैं। बैंक की सेवाओं या काम को आउटसोर्सिंग करने को तीसरी पार्टी को यह काम सौंपने या अधिकृत करने के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिसके बदले में कमीशन या बैंक और तीसरी पार्टी के बीच हुए समझौते के अनुसार भुगतान किया जाता है।
6. हमारे उद्योग में निम्नलिखित क्षेत्रों में सेवा और रोजगार को आउटसोर्सिंग किया जा रहा हैः
(ए) सुरक्षागार्ड/सेवाएं-एटीएम, ब्रांच, आफिस एवं कैश रेमिटेंस।
(बी) एटीएम, ब्रांच एवं आफिसों में झाडू लगाना।
(सी) चपरासी/सबोर्डिनेट स्टाफ- क्लीयरिंग चैकों को ब्रांच से सर्विस सेंटर लाना-ले जाना। कैश रेमीटेंस, डिस्पैच, डिपार्टमेंट का काम, ब्रांच और आफिस
(डी) ब्रांचों से क्लीरिंग चेक लाना तथा उन्हें क्लीयरिंग हाउसेज ले जाना-लाना।
(ई) करेंसी चेस्ट का कमा करना तथा ब्रांचों को एक ब्रांच से दूसरी ब्रंाच में कैश रेमीटेंस करना।
(एफ) एटीएम में कैश भरना।
(जी) डाटा इन्ट्री, डाटा प्रोसेसिंग, डाटा तैयार करना आदि।
(एच) बैंक एकाउंट खोलना तथा ग्राहकों के बारे में जानकारी प्राप्त करना और डोर बैंकिंग के नाम पर चेक/इंस्ट्रुमेंट/आर्डर का ग्राहकों के घर नगदी भुगतान करना और लाना।
(आई) ऋण लेने वालों की पहचान करना, ऋण आवेदन जमा करना, ऋण लेने वालों के बारे में प्राथमिक जानकारी की जांच करना, ऋण से संबंधित कागजात तैयार करना तथा कम कर्जें के चेक या स्वीकृत पत्र ग्राहकों को देना और स्वीकृति के बाद मानीटरिंग करना
(जे) कर्ज, एनपीए की वसूली आदि।
(के) बैंक के विभिन्न उत्पादों-क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, हाउसिंग लोन, पर्सनल लोन आदि की मार्केटिंग करना, प्रोसेसिंग, मानीटरिंग तथा लोन की वसूली संबंधी काम।
(एल) क्लर्क, कंप्युटर आपरेटर, ब्रांचों/आफिसों में सब-स्टाफ का काम करना।
(एम) विभागीय जांच करना।
7. भारतीय रिजर्व बैंक में करेंसी मैनेजमेंट, सार्वजनिक ऋण प्रबंधन, विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन, नोटों क जांच आदि में आउटसोर्सिंग शुरू की गयी है।
8. आउटसोर्सिंग का काम 1. बाहरी एजेंसियों, 2. उसी बैंक के सहायक या संबंद्ध ब्रांच, 3. कर्मचारियों/अधिकारियों जिन्हें व्यक्तिगत ठेके पर रखा जाता है,
4. सेवानिवृत्त बैंक कर्मचारियों, डाकघरों, एनजीओ, फार्मर्स क्लब, कोपरेटिव, सामुदायिक, संगठनों, कार्पोरेट संगठनों, बीमा एजेंटो, पंचायतों, ग्रामीण ज्ञान केन्द्रों, सोसाइटियों, ट्रस्टों, 1956 के कम्पनी कानून की धारा 25 के अंतर्गत बनी कंपनियों को दिया गया है। गैर बैंकिग वित्त निगम को भी कमीशन के आधार पर नियुक्त किया जाता है जो आरबीआई द्वारा 25.01.2006 को जारी किये गये सर्कुलर की शर्तों के अनुसार बिजनेस फेसिलिटेटर या बिजनेस करस्पोंडेंट के रूप में नियमित या सामान्य बैंक कामकाज करते हैं।
3. अतीत में बैंकिंग उद्योग में ठेके पर काम कराना
9. 1946 के पहले जब एआईबीए नहीं बना था, बैंक तो थे लेकिन कर्मचारियों के लिए कोई सेवाशर्तें नहीं थीं। मुख्य रूप से कैश विभाग और गोदामों में ठेके पर काम कराने की प्रथा और आउटसोर्सिंग से काम कराने का रिवाज था। इसे कंट्रेक्टर ट्रेजरी सिस्टम कहा जाता था। 20 अप्रैल, 1946 को एआईबीईए के गठन के बाद बैंक कर्मचारियों ने समुचित मजदूरी और सेवाशर्तों के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया तथा कंट्रेक्टर ट्रेजरी सिस्टम आदि का विरोध किया। शास्त्री अवार्ड में बैंक कर्मचारियों को इस प्रकार वर्गीकृत किया गया (ए) स्थायी कर्मचारी, (बी) प्रोबेशनर, (सी) अस्थायी कर्मचारी तथा (डी) पार्टटाइम कर्मचारी। साथ ही उनका दर्जा परिभाषित किया गया और उनकी मजदूरी एवं सेवा शर्तें तय की गयी। शास्त्री अवार्ड में बैंक द्वारा नियुक्त किये जाने वाले वेतन प्राप्त प्रशिक्षुओं और रसोइये तथा घरेलू नौकरों को भी कर्मचारी माना गया। एआईबीईए द्वारा लगातार संघर्ष चलाने के कारण बाद में बैंकों में कंट्रेक्टुअल ट्रेजरी सिस्टम भी समाप्त हो गया तथा सभी कैशियर और गोदाम के रखवाले बैंक के नियमित कर्मचारी बन गये। कैशियर और गोदाम के रखवाले जब कंट्रेक्री ट्रेजरी सिस्टम के अंतर्गत थे तब भी उन्हें समान काम के लिए समान मजदूरी दी जाती थी, क्लर्क के लिए जो सेवाशर्र्तें थी वहीं उनके लिए भी थी।
4. टेक्नालाजी और आउटसोर्सिंग
10. आमतौर पर यह कहा जाता है कि टेक्नालाजी आने से रोजगार में कमी हो जाती हैं। यह आंशिक रूप से सच है। टेक्नालाजी ने हमेशा परंपरागत रोजगार को छीना है। लेकिन इससे विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न तरह के रोजगार के सृजन में भी मदद मिलती है। उदाहरण के लिए बैंकिंग उद्योग में टेक्नालाजी के इस्तेमाल से हाथ से काम करने वाले कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है। लेकिन इससे आईटी से संबंधित रोजगार का सृजन भी हुआ है तथा बिजनेस प्रोफाइल को बदलकर और नयी प्रतिस्पर्धात्मक जरूरतों को पूरा करके उत्पादों की बिक्री आदि के रोजगार भी बढ़े हैं।
11. हमारे चारो तरफ एटीएम खुल गये हंै। आमतौर पर एक एटीएम में तीन सुरक्षा गार्ड, स्वीपर, कैश स्टाफ आदि की जरूरत पड़ती है। लेकिन ज्यादातर बैंकों में,चाहे सार्वजनिक क्षेत्र बैंक हो या निजी क्षेत्र के, ये काम बिना यह सोचे कि कितना खर्च आयेगा, बाहरी एजेंसियों को आउटसोर्सिंग कर दिया गया है। ज्यादातर विदेशी बैंकों तथा नई पीढ़ी के निजी बैंकों में जो नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की देन है, जहां विकसित टेक्नालाजी बैंकिग कारोबार को नियंत्रित करती है, वहां बैंक के काम को आउटसोर्स कर दिया गया है। वहां नवसृजित काम जैसे क्रेडिट कार्डों की मार्केटिंग करना, अन्य उत्पादों की मार्केटिंग करना, पर्सनल एवं हाउसिंग लोन के वितरण आदि को आउटसोर्स कर दिया गया है। एक दशक पहले कोलकाता में स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक की ब्रांचों में करीब 700 कर्मचारी काम करते थे। अब कर्मचारियों की संख्या घट कर केवल 70 रह गयी है। लेकिन 2500 से अधिक आउटसोर्स कर्मचारी हैं जिन्हें बाहरी एजेंसियों या बैंक की सबसिडियरी द्वारा रखा गया है जो ठेके पर रखे गये हैं, वे बैंकों के रोजाना के कामकाज कर रहे हैं। अनेक विदेशी बैंकों और नई पीढ़ी के निजी बैंकों में केवल आउटसोर्स या ठेके पर रखे कर्मचारी ही कामकाज संभाल रहे हैं। वहां अब स्थायी कर्मचारी नहीं हैं। निजी बैंक आउटसोर्स तथा ठेके पर रखे गये कर्मचारियों की संख्या बढ़ा रहे हैं।
5. आउटसोर्स कर्मचारियों का शोषण
12. लेकिन आज ठेके पर रखे गये या आउटसोर्स कर्मचारियों को समान काम के लिए समान वेतन नहीं दिया जा रहा है। बाहरी एजेंसियों को बैंक से जो पैसे मिलते हैं उन्हीं में से वे वेतन देती हैं जो बैंकों में नवनियुक्त कर्मचारियों की शुरू के वेतन से काफी कम होते हैं। अनेक मामलों में ऐसे कर्मचरियों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती। भारत के संविधान के अनुच्छेद 39वें में समान काम के लिए समान वेतन देने को नीति निर्देशक सिद्धांत के यप में स्वीकार किया गया है। आउटसोर्स या ठेके पर रखे जाने वाले कर्मचरियों को 40 साल की उम्र में नौकरी से हटा दिया जाता है और उन्हें बेकार का आदमी घोषित कर दिया जाता है ताकि उन्हें कहीं और काम पर नहीं रखा जा सके। यही कारण है कि हमारे देश में ऐसे कर्मचारियों में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। मजदूर वर्ग के अंग के रूप में हमें इस प्रकार के शोषण पर खामोश नहीं रहना चाहिए।
6. ठेका मजदूरी (नियमन एवं खत्म करने का) कानून, 1970
13. ठेका मजदूरी (नियमन एवं खत्म करने का) कानून, 1970 को संक्षेप में सीएलआरए एक्ट कहा जाता है जो 10 फरवरी, 1971 को लागू हुआ ताकि ठेका मजदूरी के तहत दिये जाने वाले रोजगार को नियमित किया जा सके तथा कुछ श्रेणियों में इसे समाप्त किया जा सके। यह कानून उन सभी कारखानों पर लागू होता है जहां 20 या उससे ज्यादा कर्मचारी रखे जाते हैं तथा प्रत्येक उस ठेकेदार पर लागू होता है जो 20 या उससे ज्यादा मजदूर काम पर रखते हैं। सीएलआरए एक्ट के खंड 10 में नियमित एवं स्थायी रोजगार के मामले में ठेके पर मजदूर रखने पर प्रतिबंध है। इस खंड के अंतर्गत सरकार को ऐसी किसी प्रतिष्ठाान में जिसमें स्थायी स्वभाव का काम है ठेके पर काम कराने पर रोक लगाने के लिए अधिसूचना जारी करने का अधिकार है। केन्द्र सरकार ने 9.12.1996 को अधिसूचना जारी करके ऐसे प्रतिष्ठान के भवन को साफ-सुथरा रखने और देखभाल करने जैसे काम के लिए ठेके पर मजदूरों को रखने पर रोक लगा दी जिनका समुचित नियंत्रण केन्द्र सरकार के पास है। लेकिन सवोच्च न्यायालय ने स्टील आथोरिटी आॅफ इंडिया लि. बनाम नेशनल यूनियन्स आॅफ वाटर फ्रंट वर्कमैन मामले में तकनीकी आधार पर इस अधिसूचना को रद्द कर दिया। बैंक वाले इस फैसले का फायदा उठा रहे हैं। इससे बैंकों को अपना काम आउटसोर्स करने का अधिकार नहीं मिलता। इस फैसले के बाद भी केन्द्र सरकार ने अपने विभिन्न प्रतिष्ठानों में झाडू-पोंछा, सफाई आदि के लिए ठेके पर मजदूरों को रखने से रोकने के लिए समय-समय पर अधिसूचना जारी की। लेकिन हमारे उद्योग में हमारी मांग के बावजूद स्वीपिंग, क्लीनिंग, डस्टिंग, वाचमैन, सुरक्षागार्ड, क्लर्क, चपरासी आदि जैसे काम को जो स्थायी स्वभाव के हैं, आउटसोर्स करने से रोकने के लिए केन्द्र सरकार ने अभी तक अधिसूचना जारी नहीं की है; और बैंकों में काम अस्थायी नहीं होते जिसके लिए ठेके पर काम कराने या आउटसोर्स करने की जरूरत हो। किसी प्रतिष्ठान में ठेका मजदूरी को नियमित करने तथा स्थायी काम के लिए ठेके पर मजदूर रखने को रोकने के लिए सीएलआरए एक्ट लागू किया गया था।
14. बैंकिंग उद्योग में मालिक सीएलआरए एक्ट के प्रावधानों का पालन नहीं कर रहे हैं। इस कानून के खंड-7 के अनुसार किसी प्रतिष्ठान के मालिक को जहां यह कानून लागू होता है, ठेके पर मजदूर रखने के लिए अपने प्रतिष्ठान को समुचित आथारिटी के यहां पंजीकृत कराना जरूरी है। ठेकेदार को भी अपने को पंजीकृत कराना होगा। यदि इस कानून के अंतर्गत प्रतिष्ठान या ठेकेदार पंजीकृत नहीं है तो ठेके पर मजदूरी कराने पर रोक है। प्रतिष्ठान के पंजीकृत नहीं होने पर ठेका मजदूर उस मुख्य (प्रिंसीपल) मालिक का सीधा मजदूर समझा जायेगा। खंड-7 के अंतर्गत प्रतिष्ठान का पंजीकरण नहीं कराने का प्रभाव यह होगा कि ठेकेदार का मजदूर प्रतिष्ठाान के मालिक का मजदूर समझा जायेगा। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट किया है कि इस कानून के तहत ठेकेदार द्वारा नियुक्त किये गये मजदूरों को नियमित मजदूरों को मिलने वाले वेतन पाने का अधिकार होगा। ठेका मजदूर को इस कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत मिलने वाले कल्याणकारी लाभों से भी वंचित रखा जाता है।
15. सुरक्षा गार्डों को बंदूक मुहैया कराने के मामले में ठेकेदार आम्र्स एक्ट, 1959 और उसके तहत बने आम्र्स रूल, 1962 के प्रावधानों का पालन नहीं कर रहे हैं।
7. आउटसोर्सिंग और ग्राहक
बैंकों में स्थायी स्वभाव के काम में आउटसोर्सिंग मजदूरों तथा ठेका मजदूरों से काम लेना जमाकर्ताओं और बैंक कारोबार के हित में भी नहीं है। ऐसे में जमाकर्ताओं और ग्राहकों के लिए खतरा एवं परेशानी की संभावना रहती है। आउटसोर्सिंग के बाद हमारे उद्योग में वसूली प्रक्रिया में जोर-जबर्दस्ती, ग्राहकों को ब्लैकमेल करने, धोखाधड़ी, सेवा चार्ज और दंडनीय चार्ज अधिक लेने की घटनाएं बढ़ी हैं। ग्राहकों की शिकायतें मुख्यरूप से निजी क्षेत्र बैंकों में, जहां आउटसोर्सिंग एवं ठेके पर बहुत ज्यादा काम होता है, आउटसोर्स कर्मचारियों द्वारा जोर जबर्दस्ती करने, परेशान करने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं तथा अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में इस बारे में बराबर खबरें आ रही हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी आईसीआईआई बैंक को वसूली के लिए अपराधियों को रखने के लिए फटकार लगायी थी।
8. आउटसोर्सिंग के खिलाफ संघर्ष
17. आउटसोर्सिंग के खिलाफ संघर्ष भी शुरू हो गया है। जब आरियंटल बैंक आॅफ कामर्स ने ग्लोबल ट्रस्ट बैंक को खरीदा तो ओरियंटल बैंक आॅफ कामर्स में एआईबीईए एवं एआईबीओए यूनियनों ने आउटसोर्सिंग के खिलाफ संघर्ष किया और संघर्ष के फलस्वरूप पूर्व जीटीबी के आउटसोस्र्ड एवं ठेका मजदूरों को ओबीसी में रखना पड़ा। फेडरेल बैंक में एआईबीईए यूनियन आउटसोर्सिंग का विरोध कर रही है तथा इसके लिए हड़ताल भी करवाती है। आउटसोर्सिंग का विरोध करने के लिए केरल में यूनियन के एक पदाधिकारी को बर्खास्त कर दिया गया। बर्खास्तगी का आदेश वापस लेने के लिए यूनियन संघर्ष कर रही है।
पश्चिम बंगाल में विभिन्न यूनियनों ने खासकर यूबीआई, बैंक आॅफ बड़ौदा, कार्पोरेशन बैंक आदि में आउटसोर्सिंग आॅफ जाॅब के खिलाफ सफलतापूर्वक संघर्ष किया और इन बैंकों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। एआईबीईए की राज्य इकाई बीपीबीईए ने आउटसोस्र्ड एवं ठेका मजदूरों की यूनियन बनाने के लिए उन्हें संगठित करना शुरू कर दिया है। यूएफबीयू भी आउटसोर्सिं का विरोध कर रही है।
9. हामरा कर्तव्य
आउटसोर्सिंग के खिलाफ हमें अपना रूख तय करना है तथा सामूहिक कार्रवाई के जरिए जिसमें हड़ताल भी शामिल हैं, इसे रोकना है। हमें निम्नलिखित मांगे करनी चाहिए तथा इसे अत्यंत महत्वपूर्ण काम समझना चाहिए ताकि हम अपने रोजगारों को बचा सकें और रोजगार की सुरक्षा बनाये रखे तथा हमारे उद्योग में आउटसोस्र्ड एवं ठेका मजदूरों का शोषण और उनके साथ होने वाले अन्याय को खत्म किया जा सके।
(ए) भारत सरकार को कंट्रक्ट लेबर (आरएंडए) एक्ट 1970 के खंड-10 के तहत स्वीपर, वाच एंड वार्ड स्टाफ,सब-ओरिडिनेट स्टाफ, क्लर्क आदि नियमित एवं स्थायी रोजगार को ठेका पर देने या आउटसेर्स करने को रोकने के लिए अधिसूचना जारी करना चाहिए।
(बी) 2 जून, 2005 को द्विपक्षीय समझौते में जिन पर सहमति हुई उसके अलावा किसी और जाॅब का आउटसोर्सिंग नहीं हो।
(सी) बैंक कर्मचारियों को ठेके के आधार पर नहीं रखा जाये।
(डी) बैंकों के वे सारे काम जो नियमित एवं स्थायी हैं स्थायी कर्मचारियों एवं अधिकारियों को सौंपे जाने चाहिए तथा ऐसे काम आउटसोर्सिंग या ठेके पर नहीं कराये जाने चाहिएं।
(ई) बैंकों के वे सारे काम जो नियमित और स्थायी हैं और जिन्हें आउटसोर्सिंग किया गया है या ठेके पर दिया गया है उन्हें तुरन्त स्थायी कर्मचारियों को सौंपा जाना चाहिए।
(एफ) आटसोस्र्ड या ठेका मजदूर जो अभी काम कर रहे हैं उन्हें बैंकों के स्थायी कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले उसी काम के लिए जो वेतन दिये जाते हैं वहीं वेतन उन्हें भी दिया जाना चाहिए तथा उनकी सेवा शर्तें शास्त्री अवार्ड या बाद के अवार्ड में जो संशोधन किये गये या जो समझौते हुए उसके अनुसार निर्धारित होनी चाहिए।
(जी) वर्तमान सभी कंट्रैक्ट और आउटसोस्र्ड कर्मचारियों को नियमित किया जाना चाहिए तथा उन्हें बैंकों के स्थायी कर्मचारियों के रूप में रखा जाना चाहिए।
(एच) आउटसोस्र्ड एवं ठेके पर रखे गये कर्मचारियों को ट्रेड यूनियन के रूप में संगठित किया जाना चाहिए।
आइये, हम आउटसोस्र्ड एवं ठेके पर रखे गये कर्मचरियों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ और हमारे रोजगार एवं रोजगार सुरक्षा पर हो रहे हमले के खिलाफ अभियान को तेज करें।

राजेन नागर
(लेखक आल इंडिया बैंक इम्पलाइज एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं।)
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