भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 30 जनवरी 2010

और भी ग़म हैं ज़माने में.........

आज लेखकों के हजारों संगठन हैं। गली-गली चैराहे-चैराहे में। राजनीतिक दलों की छाया में और उनसे बाहर भी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा संचालित भी। अलग-अलग भाषाओं में सत्ता पोषित और अपोषित। उत्सवधर्मी। अपने-अपने नायकों को याद करने के लिए। गहोई समाज याद करेगा- मैथिलीशरण गुप्त को। कान्यकुब्जों के लिए नायक होंगे- निराला। कबीर जयन्ती या वाल्मीकी जयन्ती के अपने-अपने समाज हैं। समाज को विखण्डित करने के लिए इनका इस्तेमाल होता है। मनुष्य के दुख-दर्द की गाथा कहने वाले रचनाकारों को आध्यात्मिक रंग में रंगने की कोशिशें होती हैं। कवियों-रचनाकारों का पूजा के लिए इस्तेमाल होने लगता है। पूजीवादियों ने तुलसीदास की कृति रामचरित मानस को लाल कपड़े में बंाधकर पूजा घर में रख दिया है। रोज पंाच दोहे का पाठ करके पूजा करते हैं। लेखकों के संगठनों की शायद आज तक किसी ने सूची नहीं बनायी होगी। ये क्या काम करते हैं कैसे व्यवस्था का पोषण करते हैं, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। चिन्ता है तो प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की। इनका होना उन्हें अखरता है। इनको तोड़ने के लिए चारों ओर से कोशिशें होती हैं। सत्ताएं इन्हें या इनसे जुड़े लेखकों को दंडित करती हैं। फूटी आंख नहीं देखतीं।
आज के सात दशक पहले दुनिया के लेखकों-बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों एवं समाज वैज्ञानिकों ने मिलकर तय किया कि उन्हें केवल मनुष्य कल्याा की सदेच्छाएं पालने और लिखने के बजाय सामाजिक परिवतर्न में हिस्सेदारी निभानी चाहिए। बोलना और लिखना काफी नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध ने जिस तरह जनप्रतिरोध की हत्या की, नस्लवाद को थोपने की कोशिश की, लेखकों, कलाकारों को जेलों में ठूंसा, पता नहीं क्यों लोगों को लेखक संगठनो ंपर हमला करते हुए इतिहास के इन क्रूर दिनों की याद नहीं आती। लेखकों ने संस्कृति की रक्षा के लिए संगठित होने का जो संकल्प लिया था- उसे भूल जाते हैं। उपभोक्तावादी समय में चैन की खुशी इतनी मधुर हो गई है कि दूरगामी अवचेतन की गांठे नहीं खुलती। लगता है कि सब जगाह खुशहाली है। अमन चैन है। मजदूरों-किसानों के संगठनों-कर्मचारी संगठनों को तोड़ने की कोशिशें तो होती ही हैं।’ अब लेखकों को तोड़ने का काम हो रहा है। स्वयं लेखक इसमें सक्रिय हैं। प्रायः प्रेमचन्द्र को उद्धत कर कहा जाता है कि लेखक स्वयं प्रगतिशील होता है, इसलिए इसके लिए संगठनों की जरूरत नहीं है। मौजूद तीनों संगठनों को पार्टीबद्ध घोषित कर दिया जाता है। सामान्य मान्यता है कि प्रलेस-भाकपा, जलेस-माकपा और जसम-माकपा (माले) से सम्बद्ध हैं। चलिए थोड़ी देर के लिए पार्टी सम्बद्धता के प्रश्न को अभी स्थगित कर लेखक संगठनों की वर्तमान स्थिति और जरूरतों के बारे में बातें करें।
हिन्दुस्तान में आजादी की लड़ाई दुनिया के मुक्ति संग्राम का हिस्सा थी। पूरी बीसवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण पहलू यही है कि धीरे-धीरे उपनिवेशवाद से जनता को मुक्ति मिली। राष्ट्रीयताएं जन्मीं-पुष्ट हुईं और भौतिक रूप से जनता के बीच वैश्विक दृष्टि का विकास हुआ। बीसवीें शताब्दी जैसे महान विचारक, रचनाकर और बुद्धिजीवी पहले नहीं थे। सामाजिक संघर्ष में भागीदारी, विश्व दृष्टि और यथार्थ की कोख से जन्मे स्वप्नों के कारण ही महान रचनाकारों का उदय हुआ। भारतीय भाषाओं के अलावा हिन्दी भाषा और साहित्य में इसके प्रमाण कम नहीं हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे रचनाकार ने अपनी निजी दुनिया से बाहर आने की घोषणा की। प्रगतिशील लेखक संघ के साथ जुड़ने की अनिवार्यता अनुभव की। ठीक है, प्रेमचन्द्र जैसे लेखकों को प्रगतिशील लेखक संघ ने नहीं बनाया। सामाजिक प्रतिबद्धता के चलते उन्हें ही संगठन की जरुरत अनुभव हुई। इसी प्रतिबद्धता से वे महान लेखक बने। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के पूर्व वे लेखकों के संगठन के लिए बेचैन थे। सज्जाद जहीर ने लंदन से प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के लिए घोषण-पत्र भेजा तो प्रेमचन्द्र उछल पड़े- ‘हां, मुझे इसी तरह के लेखक संगठन का इंतजार था।’ वे संगठन में न केवल शामिल हुए, वरन् उसकी नींव रखी तथा घूम-घूमकर इकाइयां गठित करने लगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कलकत्ता में होने वाले प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन के उद्घाटन भाषण के रूप में जो शब्द कहे- उसकी कुछ पंक्तियां यों हैं-‘मेरी तरह गोशानशीनी से काम नहीं चल सकता। एक लम्बे समय तक समाज से अलग रहकर मैंने जो बहुत बड़ी गलती की है, अब मैं उसे समझ गया हूं, और यही वजह है कि अब मैं नसीहत कर रहा हूं।’
मित्रों, लेखको संगठनों के पीछे छिपा मंत्र सामाजिक प्रतिबद्धता का है। सामाजिक प्रतिबद्धता समाज में मात्र रहने से नहीं आती। घर, परिवार, नौकरी में कैद रहकर दिनचर्या निभाना सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए काफी नहीं है। सामूहिकता का भाव-बोध एक अलग प्रयत्न है। मध्ययुगीन संत कवि सामाजिकता के लिए गृहत्यागी तक हो गए। प्रेमचन्द्र या रवीन्द्रनाथ टैगोर लेखन के जरिए नहीं अपनी सामाजिकता के जरिए व्यवस्था परिवर्तन में हिस्सेदार बनना चाहते थे। इसी उद्देश्य से अनुप्राणित होकर हिन्दुस्तान की सभी भारतीय भाषाओं के बड़े-बड़े लेखकों ने इस मंत्र की सार्थकता समझी और संगठन में शामिल हुए।
सात दशकों बाद इक्कीसवीं शताब्दी की दुनिया बदल चुकी है। माना कि पहले से जैसा जज्बा नहीं बचा। सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी संरचना का जो रास्ता खुला था, वह बिखर गया। सामन्तवाद-पूंजीवाद समाप्त नहीं हुआ था तो उहीं के कलुषित जोड़ से समाजवाद की दिशा में बढ़ते कदमों से दुनिया में बन रही वैश्विक मानवीय एकता को खण्डित किया जाने लगा। एशिया के देशों में आपसी युद्ध के बीज बोये जाने लगे। तीसरी दुनिया की एकता टूट गई। लेखकों-कलाकारों का समाज सस्ती लोकप्रियता और निजी महत्वाकांक्षओं का शिकार होने लगा। लोकतंत्र के लिए समरसता मूलक सपने देखे जा रहे थे। वह दूर की कौड़ी लगने लगा। खोज-खोजकर वामपंथी राजनीतिक दलों-बुद्धिजीवियों-लेखकों के साथ दबाव बनाकर प्रलोभन और मत्वाकांक्षओं को जगाते हुए संगठनों तथा इससे जुड़े लेखकों की सामाजिक प्रतिबद्धता को खंडित किया जाने लगा। यह काम अचानक चन्द दिनों में नहीं हुआ। स्वतंत्र भारत में स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ के संगठनकर्ता सज्जाद जहीर ने अपने जीवित रहते-रहते ही देख लिया था और कहा था- ‘अवाम की इच्छाशक्ति, विवेक और समझदारी को काम में लाए बिना वह सामूहिक क्रिया असंभव है जिसे ‘इंकलाब’ कहते हैं। कभी धर्म, मजहब और परम्परा के नाम पर लोक में जात-पात और नस्ल के नाम पर कभी उग्र राष्ट्रवाद के ज़ज़्वे को उभारकर, कभी भाषा और संस्कृति के सवाल में तंग नज़रिए, संकुचित विचारधारा फैलाकर और ज़हालत फैलाने का ज़रिया बनाकर इंसानों और इंसानों में फूट डाली जाती है। अवाम की ताकतों को तोड़ा और प्रदूषित किया जाता है कभी ऐसे दार्शनिक ख़्यालात और विचारों को फैलाकर जिनसे इंसानियत और उसके उज्जव भविष्य, इंसान और विकासशीलत की ओर से दिलों में मायूसी और घुटन पैदा हो जाती है। और हम बेहिसी और निष्क्रियता का शिकार हो जाते हैं।’ बन्ने भाई की ये पंक्तियां कितने दिनों बाद आज की लग रही हैं। अवाम की शक्ति और लेखकों की सामाजिकता को तोड़ने के लिए ये सारे प्रयत्न चरम पर हैं। इतिहास का अन्त कहा जा चुका है। कभी आधुनिकता के आने से हमारे देश में नवजागरण की लहर उठी थी। पुनरुत्थानवादी शक्तियां कमजोर- शिथिल हो चली थीं। आजादी के बाद अपने-अपने सियासी हित में वे फिर मजबूत हो गईं। समाजवादी संरचना सबके लिए शत्रु बन गई। साम्राज्यवाद, समाजवादी व्यवस्था को मनुष्य के स्वप्नों से भी निकालने के लिए कटिबद्ध है। अमरीका कितने ऐसे लोगों को फेलोशिप देकर कहता है कि समाजवाद को जड़ों से उखाड़ने के उपाय खोजो। ऐसे में तमाम देशी-विदेशी विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए लेखकों के प्रगतिशील संगठन हैं। जिन्दा हैं। माना कि उनमें पूरी जिम्मेदारी के निर्वाह की क्षमता नहीं है। हो भी नहीं सकती। निश्चय ही जटिल स्थितियों को सुलझाने की बौद्धिक क्षमता का हृास हुआ है। मध्यवर्गीय निजबद्धताओं की घेराबन्दी है। शहरों में रहने वाले व्यवसायजीवी लेखकों ने मीडिया का सहयोग लेकर परस्पर शत्रुता को हवा दी है। सांगठनिक वैरभाव, आपसी दलबन्दी और वैचारिक संघर्ष के व्यापक क्षेत्रों के प्रति उदासीनता-निरन्तर इन्हें कमजोर करती है। युवा लेखक साथ आते हैं। कूटनीतिक व्यवहार के चलते वापस लौट जाते हैं। रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें कैरियर की चिन्ता रात-दिन सताती है। बड़ी-बड़ी नौकरियां निश्चिन्त नहीं करतीं। असुरक्षा की मनोग्रंथियां हैं। ऐसे में समाजिकता का भाव और लेखकीय प्रतिबद्धता गौण हो जाती है। गरीब-वंचित अवाम से तो कोई नाता नहीं रह जाता। मजहबी कर्मकाण्ड ने तमाम दृश्य संचार को जकड़ लिया है। विश्वविद्यालयों के परिसर से ज्ञान की आवाज नहीं आती। गोष्ठियां-संगोष्ठियां कर्मकाण्ड में बदल गई हैं। हमारे लेखक संघों में जो लोग शामिल हैं वे आसमान से नहीं आते। ज्यादातर सरकारी-गैर सरकारी नौकरी में ही तो हैं। अपने-अपने धंधे हैं। मंच की कविता का स्वभाव अलग है। वहां मुकुट बिहारी सरोज, वीरेन्द्र मिश्र, रमेश रंजक नहीं हैं। आशु कवि हैं पर उन तक पहुंच नहीं। गांव-देहात में लिखी जाती लोक-कविता से रिश्ता नहीं। समूची लोक कविता अछूत हो गई है। तथाकथित लेखन आकस्मिक और सांगठनिक चिन्ता तो और भी आकस्मिक। इसी को आप मुख्यधारा कहते हैं। आप लेखन के क्षेत्र में थोड़ा प्रतिष्ठित हुए तो संगठनों की सदस्यता के बावजूद सामाजिक जिम्मेदारियांें से उदासीन। ऐसे माहौल में वे तथाकथित वामपंथी मुखर दिखते हैं जो कहते हैं कि लिखने के लिए या वैचारिकता के लिए संगठन जरूरी नहीं हैं। संगठनों की गतिविधियां भी यह प्रमाणित नहीं कर पातीं- कि नहीं, अच्छा-बेहतर लिखने के लिए भी सामाजिक हिस्सेदारी और संगठन जरूरी हैं। संगठन मशीन नहीं - परिवर्तनकारी सपनों को पालने निराशा-हताशा से लड़ने के केन्द्र होते हैं। संगठनों में निष्ठापूर्वक रहकर लेखकों को पता नहीं चलता कैसे वे बेहतर से बेहतर हो रहे हैंः पर संगठन यदि अपनी व्यापक भूमिका को पहचानें तब तो। जनता के लिए प्रतिबद्ध उनके स्वभाव का हिस्सा हो तब तो। अनजाने ही संगठनों में लेखकों की ‘मानसिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक टेªनिंग’ (सज्जाद जहीर) होती है।
अब जब हम स्वयं संगठनों की कमजोरियों को स्वीकार करते हैं और आत्मलोचन की जरूरत अनुभव करते हैं- तब यदि कोई कहता है कि संगठनों की प्रासंगिकता नहीं है, तो आपत्ति क्यों होती हैं? हाल में कुछ पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपे हैं। अखबारों में बहसें हुई हैं। कुछ ऐसी नियमित पत्रिकाएं हैं जो संगठनों के विघटन को हवा देती हैं। अराजक मनोविज्ञान के लेखकों को अपने साथ जोड़कर व्यक्तिग हमले करवाती हैं। हमारे एक मित्र गोपेश्वर सिंह ने एक लेख के जरिए संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाकर सलाह दी है, ‘किसी भी राजनीतिक सामाजिक घटना या राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सिर उठाने वाले संकट के समय लेखक के कर्तव्य और भूमिका को उसके विवेक पर छोड़िए। वह समाज का सबसे संवेदनशील सदस्य है। वह मनुष्यता पर आए संकट को पहचानने की किसी भी राजनीतिज्ञ से अधिक क्षमता रखता है। इसके लिए लम्बे-चैड़े घोषणा पत्र के अनुशासन में बांधने का काम बन्द होना चाहिए।’ गोपेश्वर सिंह की राय मानें तो संगठनों को तोड़ देना चाहिए।
मैं पिछले लगभग तीस-पैंतीस वर्षों से संगठन में कार्यकर्ता की तरह रहा हूं। हरिशंकर परसाई के नेतृत्व में मध्यप्रदेश में काम करने का मौका मिला। एक समय था- जब इस प्रदेश के अधिकांश लेखक प्रलेस से जुड़े थे। जितनी पत्रिकाएं यहां से निकलींः और प्रदेशों से नहीं। गजब की सक्रियता थी। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी संगठन से जुड़े थे इसलिए उनके सहयोग से युवा लेखकों के पन्द्रह-पन्द्रह दिन के रचना शिविर हुए। वैचारिक प्रशिक्षण हुआ। पंचगढ़ के शिविर में पन्द्रह दिन तक महाकवि शमशेर शामिल रहे। अंतिम दिन उन्होंने कहा कि यदि उनके ज़माने में ऐसे शिविर होते-तो उनका लेखन और बेहतर होता। मुझे याद है कि प्रतिवर्ष होने वाले शिविरों में मार्गदर्शन के लिए देश के बहुत से लेखक युवा लेखकों के साथ रहे। अद्भुत उत्साह था तब। उसका नतीजा हुआ कि वे युवा रचनाकार समृद्ध हुए और सामाजिक संघर्ष के लिए जुझारू और जगारूक भी बने। वे प्रलेस के साथ जुड़ते गए। उनसे कोई पूंछे तो आज भी वे संगठन के महत्व पर बोलते लिखते हैं। चालीस वर्षों की यात्रा में मैंने कर्तव्य समझा है कि संगठनों में शामिल वरिष्ठ लेखकों को युवा लेखकों के साथ कुछ समय रचनात्मक माहौल बनाकर बिताना चाहिए। यह जरूरी काम है। संगठनों का काम दफ्तर चलाना नहीं है। किसी के लेखन में कोई दबाव डालना नहीं। मौलिक प्रतिभा में हस्तक्षेप नही। मुझे नहीं लगता कि किसी लेखक संगठन में ऐसी स्थितियां हैं। लेखकीय आजादी में कहीं हस्तक्षेप है। जहां तक पार्टीबद्धता का प्रश्न उठाया जाता है तो जानिए कि प्रश्न उठाने वाले बाहरी लोग हैं। हमले के लिए बहाने के तौर पर इसे चुनते हैं। यह सही है कि इन्हें पार्टियों का सहयोग है। सहयोग के बिना संगठनों को खड़ा करना असंभव है? कम्युनिस्ट पार्टियां जब समाजवादी सामाजिक संरचना के लिए काम करती हैं और प्रलेस-जलेस-जसम से जुड़े लेखकों के सपनों में वही समाज है तो इस आपसी संगति से किसी को आपत्ति क्यों है? हां, उनके पास कोई नकारात्मक उदाहरण है तो बताएं। संगठनों में कितने पार्टी सदस्य हैं, वे यह देखें। पार्टी लाइन का भूत उन्हें सताता है तो कोई क्या करें? कम्युनिस्ट पार्टियों के काम से या लेखक-संगठनों के काम और कमजोरियों से शिकायत है तो यह अर्थ नहीं होता कि उन्हें तोड़ दिया जाए? शिकायत है तो बेहतरी के लिए हो। प्रायः दिखता है कि संगठन विरोधी लोग अपने व्यवहार में घनघोर वैचारिक अवसरवाद के शिकार होते हैं। अपनी आकांक्षाओं के लिए कहीं भी जाना-आना करना न करना के बीच आत्म नियंत्रण नहीं रखते।वे नहीं चाहते कि कोई उनके भीतर झांके। उनके स्त्रोंतों की खबर रखे। बेहतर तरीका होता है कि हमला करें और पहले से ही उन्हें सुरक्षात्मक बना दें। मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों की तारीफ करते हैं। पर भूल जाते हैं कि इसी कवि ने पूछा था- ‘पार्टनर! तुम्हारी पालिटिक्स क्या है’ मुक्तिबोध ने स्वयं संगठन बनाने की पहल की थी। संगठन विरोधी क्या स्वयं से कभी पूछते हैं कि उनकी पाॅलिटिक्स क्या है? मैंने संगठन में काम करते हुए कुछ कमजोरियों के बावजूद एक सकारात्मक अनुभव पाया है। वह यह कि सामान्य परिस्थितियों में संगठन या इसके सदस्य चाहे जितने ढीले नजर आते हों- विरीत परिस्थितियों में ये लड़ाकू हो जाते हैं। लोगों को याद होगा, जब-जब देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए, भोपाल में गैस त्रासदी हुई, गुजरात में भूकम्प आया और इसी प्रदेश में सरकारी मशीनरी द्वारा गोधरा से लेकर पूरे गुजरात में अल्पसंख्यकों का संहार हुआ। दक्षिणी प्रदेशों में सुनामी का कहर बरपा हुआ, मुुंबई में आतंकी घटना हुई। लेखकों संस्कृतिकर्मियों ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की। लाखों रुपए लेखकों ने एकत्र किए और पीड़ितों तक भेजा। गैस त्रासदी में महीनों प्रभावितों की सेवा की। दंगों के समय लोगों ने सीधे जूझकर खतरे उठाए। जिन्हें पता न हो- वे पूंछे। उन्हें ब्यौरा दिया जाएगा।
देश में राजग सरकार के दौर की स्थितियां याद होंगी। लेखक संगठनों ने राष्ट्रव्यापी चुनाव घोषणा पत्र जारी किया था और साम्प्रदायिक शक्तियों को हराने के लिए जनता का आह्वान किया। अखबारों में लेख लिखे और जगह-जगह नुक्कड़ नाटक खेले गये। प्रेमचन्द को पाठ्क्रम से हटाने का मामला हो या एम.एफ. हुसैन के चित्रों को लेकर तोड़-फोड़, लेखक संगठनों ने व्यापक संघर्ष किया। पोस्टर युद्ध हुए। गुजरात की घटनाओं को उजागर करने के लिए लेखकों ने गुजरात का दौरा किया। पत्रिकाओं के विशेषांक निकले। मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने संस्कृति विभाग के दो लेखक अधिकारियों को निलम्बित किया तो लेखक संगठनों ने सांस्कृतिक मोर्चा बनाया। एकजुट होकर सरकारी गतिविधियों का बहिष्कार किया। स्थिति यह बनी कि उनकी सभाओं में महत्वपूर्ण लेखकों का आना बन्द हो गया। अनजााने कोई आता तो अपने किराए से लौट जाता। महीनों उनके सभागार सुने रहे। अन्ततः निलम्बित लेखकों को बहाल करना पड़ा। हबीब तनवीर के नाटक - ‘पोंगा पंडित’ की प्रस्तुति पर हमला हुआ तो लेखक संगठनों ने मोर्चा सम्हाला। छत्तीसगढ़ सरकार ने कुछ दिन पहले चरणदास चोर नाटक के वाचन पर प्रतिबंध लगाया तो लेखक संगठनों ने आवाज उठायी। प्रतिबन्ध वापस हुआ। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं, जब लेखक संगठन अभिव्यक्ति की आजादी के लिए संघर्ष करते रहे हैं। संगठनों की पहल के बिना ऐसे मौकों पर कौन आवाज उठाता है, कोई बताए? बकौल गोपेश्वर जी लेखकों को अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए। तो इसमें हर्ज क्या है? जो संगठन में नहीं हैं वे नहीं है। न रहें विवेक की सुनें। मुझे नहीं लगता कि इसके लिए संगठनों को कुछ करने की जरूरत है। संगठनों की सदस्यता लेखकों के विवेक पर ही तो निर्भर है। वे हमेशा आजाद होते हैंः इच्छा से आते-जाते हैं। देखने की बात यह है कि संगठनों के बिना तथाकथित कितने स्वतंत्र लेखक हैं जो परिस्थिति के अनुसार अपनी पहल पर सामाजिक संघर्ष का सक्रिय हिस्सा बनते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोकतंत्र में शक्ति संचय संगठन के बिना संभव है। व्यक्तिगत निष्क्रिय प्रतिरोध, निष्क्रिय आदर्श, आदर्शहीन अवसरवादी सक्रियता अथवा केवल लिखकर प्रकट होने वाला प्रतिरोध कुछ नहीं होता।
प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़ने और परिणामतः गुणात्मक रूप से महत्वपूर्ण बने लेखकों की लम्बी सूची है। उर्दू में फैज, फिराक़, मख्दूम, जोश मलीहाबादी-मौलाना हसरत मोहानी अली सरदार जाफ़री, कैफी आज़मी जैसे लेखकों ने उर्दू साहित्य की फ़िजा बदल दी। संगठन से जुड़ाव का ही कारण था कि फै़ज ने अपने समकालीनों से राह बदलने की अपील की -
‘और भी ग़म हैं, ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा’
आगे जो उर्दू लेखक इससे अलग हुए और ज़दीदियत (आधुनिकवाद) की ओर मुड़े उन दोनों धाराओं की तुलनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए। हिन्दी में नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर, केदार, शील जैसे कवियों का जो अवदान है - वह संगठन से जुड़े बगैर असंभव था। इसी तरह गद्य लेखकों की लम्बी चैड़ी सूची देखी जा सकती है। आज तब किसी को आलोचना या रचना के क्षेत्र में गुणवत्ता, व्यापक स्वीकृति, अकादमिक गुणवत्ता, नये सौन्दर्य शास्त्र की चिन्ता तथा वैचारिक संघर्ष की जरूरत नहीं अनुभव होती तब युवा लेखकों बरगलाने एवं मीडिया में फैलने के लिए बार-बार अपरीक्षित नकली स्वायतत्ता और अपरिक्षित ढंग से पार्टीबद्धता का ढिंढोरा पीटा जाता है। उन्हें किसी तरह लेखक संगठनों को तोड़ने की ज्यादा फिक्र हैं। ऐसे साथियों की अपनी समझ और आजादी है। उन्हें कौन रोक सकता है। जानना चाहिए कि लेखक संगठनों का काम दिनचर्या के कार्यालय चलाना नहीं है। शुरुआत से अभी तक इनका कोई भवन नहीं बना। स्थायी कोष नहीं है। वार्षिक सरकारी अनुदान नहीं मिलता। यहां सम्पत्ति और पदों का झगड़ा नहीं है। इसीलिए ये संगठन अपनी सक्रियता के लिए हर दिन जमीन में भटकते हैं। लोगों को पता है कि बहुत दिनों तक इनका पंजीकरण नहीं था। इनकी प्रकृति आन्दोलन धर्मी थी। आज भी प्रकृति में परिवर्तन नहीं हुआ। आन्दोलन के मुद्दे और समय बार-बार निर्धारित होते हैं। घोषणा पत्र सामान्य नियम होते हैं जिनमें किंचित भी कठोरता नहीं रहती। वे सिद्ध करते हैं कि लेखक अवाम के साथ हैं। संगठन जानते हैं कि आज चुनौतियां ज्यादा हैं, क्षमताएं कम हैं। संगठनों की पत्रिकाएं हैं। नियमित-अनियमित निकलती हैं। प्रायः सभी भाषाओं में उनके लेखक-पाठक हैं। संगठनों की प्रेरणा या संगठन की ओर से निकलने वाली पत्रिकाएं केवल संगठनों के लेखकों की नहीं है। वे सांस्कृतिक धुव्रीकरण का काम करती हैं। सांस्कृतिक विकल्प की कोशिश में प्रलेस-जलेस-जसम से जुड़े नाट्य दल हैं। रंगकर्मी हैं। कहीं-कहीं चित्रकारों-कलाकारों के समूह भी इनसे जुड़े हैं। लोकतंत्र में जन संस्कृति का विकल्प क्या हो, इसकी समवेत चिन्ता संगठनों के बाहर समग्रता में और कहां होती है, इस बात पर निगाह रखी जाती है। जरूरत पर संयुक्त मोर्चे बनते हैं।
अंत में कहना यह है कि हमारे संगठन अपने आप में लक्ष्य नहीं हंै। उनका लक्ष्य लोकतंत्र के अनुकूल सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण करना है। जनसंस्कृति के लिए संघर्ष के बीज बोना है। जनविरोधी संस्कृति से लड़ने की प्ररेणा देना है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के संदेश से इसे जाना जा सकता है - ‘याद रखो कि सृजनात्मक साहित्य बहुत जोखिम भरा काम है। सच्चाई और सौन्दर्य की तलाश करना है तो पहले अहं की केंचुली उतार दो। कली की तरह सख्त डंठल से बाहर निकलने की मंजिल तय करो। फिर देखों कि हवा कितनी साफ है। रोशनी कितनी सुहानी है और पानी कितना स्वच्छ।’


प्रो. कमला प्रसाद
(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव हैं।)

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