देश में राजनीतिक और आर्थिक संकट तेजी से गहरा रहा है लेकिन दक्षिणपंथी और वामपंथ विरोधी शक्तियों के वामपंथ के विरोध में हमलों में भी वृद्धि हुई है और वामपंथ अस्थाई रूप से प्रतिरक्षात्मक स्थिति में है तथा कुछ कठिनाई के दौर से गुजर रहा हैं।
अमरीका में पैदा हुई आर्थिक मंदी जिसने कि दूसरे पूंजीवादी देशों को भी गिरफ्त में ले लिया था, का सीधा और गहरा प्रभाव भारत जैसे विकासशील देशों पर भी पड़ा। परिणामतः निर्यातपरक उद्योग, लघु उद्योग, कुटीर उद्योग और यहां तक कि सूचना तकनीकी उद्योग गहरे मांग के संकट में फंस गये ओर 30 से 40 लाख लोगों को नौकरी की हानि, बंदी, छंटनी या वेतन कटौती झेलनी पड़ी। भाकपा और वामपंथ ने गत संप्रग सरकार को बैंक, बीमा और दूसरे वित्तीय निकायों के निजीकरण करने की कोशिशों को न रोका होता तो स्थिति और भी खराब होती।
देश का आर्थिक संकट वस्तुतः पूंजीवादी व्यवस्था का संकट है। आर्थिक सुधारों के नाम पर अमरीका, विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुदा कोष-विश्व व्यापार संगठन के दिशानिर्देशों पर उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का जो मार्ग अख्तियार किया गया है, वह दिन-प्रति-दिन इस संकट को गहरा बनाता जा रहा है। लेकिन शेष विश्व की भांति यहां भी सरकार मंदी के प्रभाव को रोकने के नाम पर बड़े उद्योग घरानों को आर्थिक पैकेज देती रही है और इसका भार आम जनता के उपर लादती चली जा रही है। आसमान छूती महंगाई इस संकट का सबसे रौद्र रूप है।
इस महंगाई, खासकर खाद्यपदार्थों की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि जो हर सप्ताह 20 पांइट की दर से हो रही है, और चावल की खुदरा कीमत तो 51 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, की वजह है खाद्यान्न व्यापार में सट्टेबाजी (वायदा कारोबार) पर रोक लगाने में केन्द्र सरकार की पूरी तरह विफलता और मांग-आपूर्ति के बेमेल होने की स्थिति में सरकार द्वारा वायदा कारोबार की इजाजत देना, खाद्य पदार्थों का बेरोकटोक निर्यात तथा मुख्य तौर से उदारीकरण की नीति एवं एक बाधा रहित बाजार अर्थव्यवस्था की स्थापना। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की पंगुता और जमाखोरी तथा कालाबाजारी को खुली छूट ने भी महंगाई की दर में और इजाफा किया है। केन्द्र-राज्य सरकारों पर और राज्य सरकार केन्द्र पर जिम्मेदारी डाल कर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं और तबाह आम जनता हो रही है। केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री द्वारा दिये गये बयानातों ने भी महंगाई बढ़ाने वालों के हौसले बार-बार बढ़ाये हैं और केन्द्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया है। ऊपर से पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि ने भी महंगाई को बड़ा आकार मुहैया कराया। दिसम्बर माह में तो थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर 7.31 प्रतिशत पहुंच गयी जो नवम्बर में 4.78 थी। यह रिजर्व बैंक के 6.5 प्रतिशत के पूर्वानमुमान को भी पार कर गयी।
इस बीच महाराष्ट्र, हरियाणा, अरूणांचल प्रदेश एवं झारखण्ड में विधान सभाओं के चुनाव हुए हैं जिनमें हमें असफलता ही हाथ लगी है। हमें झारखंड में कुछ उम्मीद थी लेकिन वह भी पूरी नहीं हुई। वहां झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस को फायदा पहुंचा है यद्यपि जेएमएम ने भाजपा और कुछ अन्य के साथ मिलकर सरकार बना ली है। महाराष्ट्र, हरियाणा और अरूणांचल प्रदेश में यद्यपि कांग्रेस जीती है मगर बहुत कम अन्तर के साथ। उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्यों में हुए उप चुनावों में न केवल हम हारे हैं बल्कि वोट भी काफी कम मिले हैं। पश्चिम बंगाल तक में केवल एक ही सीट वाम मोर्चे के घटक फारवर्ड ब्लाक को मिली है। हमारे लिए बड़ी चिन्ता की बात है कि हम सीटें तो हार ही रहे हैं पूर्व में मिलने वाले वोट भी नहीं हासिल कर पा रहे। हमें गहरे आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। संसद में भले ही हम पहले से कम तादाद में हैं लेकिन कारगर भूमिका निभा रहे हैं। जनता के सामने मौजूद बेहद कठिनाईयों की इस घड़ी में हमें सड़कों पर ज्यादा संघर्ष चलाने होंगे। वामपंथी दलों के साथ मिलकर संघर्ष करने के साथ अपनी स्वतंत्र पहलकदमियों को बढ़ाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
2004 में सत्ताच्युत होने के बाद और पुनः 2009 में पराजित होने के बाद भाजपा कमजोर हुई है और उस पर आरएसएस ने अपना शिकंजा कसा है। इससे वह ज्यादा खतरनाक दिशा की ओर - साम्प्रदायिकता की ओर बढ़ रही है। आज भी भाजपा पांच राज्यों में शासन में है और तीन में सत्ता में भागीदार है, अतएव भाजपा के खतरे के प्रति पूर्ण जागरूकता जरूरी है।
गत लोकसभा चुनावों में पूर्व से अधिक सीटें हासिल कर लेने और वामपंथी दलों के नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में न रहने के बाद कांग्रेस अब मनमाने तौर-तरीकों से सरकार चला रही है। अपने सहयोगी दलों से सलाह-मशविरा तो दूर संसद तक को वह नजरंदाज करती आ रही है। तेलंगाना के सवाल पर उसकी तथाकथित हाईकमाण्ड द्वारा अर्धरात्रि को लिए गए निर्णय से न केवल आंध्र प्रदेश बल्कि समूचे देश में राज्यों के विभाजन की चिन्गारी पैदा हो गयी है। अब वह बड़ी चतुराई से दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन का आधार तैयार कर रही है जिसके सहारे सारे अन्य मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जायें और राज्यों के अनगिनत विभाजन का पिटारा खुल जाये।
यदि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र की बात करें तो यह सरकार भारत को अमरीकी साम्राज्यवाद, जो बेहद आक्रामक है, का रणनीतिक साझेदार बनाने में जुटी है जबकि भारत का हित विकासशील देशों के साथ खड़े होने में हैं। भारत-अमरीकी परमाणु करार के बाद अब भारत सरकार ने कोपेनहेगन में सम्पन्न जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अमरीका और विकसित देशों के समक्ष घुटने टेके हैं। प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री तक ने स्वीकार किया है कि कोपेनहेगन में भारत को विकसित देशों के सामने झुकना पड़ा। यह स्थिति आगे भी जारी रह सकती है। भाकपा और वामपंथ को लगातार दवाब बनाना होगा तथा जनता को प्रशिक्षित करना होगा कि हमारी सरकार क्योटो प्रोटोकाॅल, जिसेकि पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया है, को लागू कराने के लक्ष्य के साथ ही विकासशील देशों के साथ तालमेल बैठाये और उन्हें नेतृत्व प्रदान करे।
भारत में, जहां हमारी आबादी का 65 फीसदी भाग अपने जीवनयापन के लिए खेती पर निर्भर है तथा गांवों में निवास करता है, किसानों और खेत मजदूरों के बीच हमें प्राथमिकता के साथ काम करना चाहिए। किसानों और खेत मजदूरों के जन संगठनों - किसान सभा एवं खेत मजदूर यूनियन के निर्माण और उनके जीवन से जुड़े सवालों पर आन्दोलन के बिना न तो कोई परिवर्तन सम्भव है और न ही पार्टी का विकास। इनको नजरंदाज करने का अर्थ है पार्टी को ही नजरंदाज करना।
खेती का लगातार चला आ रहा संकट सूखा और बाढ़ के कारण और बढ़ा है। खेती के उपयोगी उपकरणों और अन्य उपादानों की कीमतें लगातार बढ़ी हैं जबकि उपजों का उचित मूल्य किसानों को नहीं मिल पा रहा। विभिन्न विकास योजनाओं के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण जारी है जिससे कृषि क्षेत्र लगातार सिमट कर खाद्यान्न संकट को गहरा बना रहा है। किसानों में भारी आक्रोश है जिसे संगठित कर सड़कों पर उतारा जाना चाहिए।
नरेगा में भ्रष्टाचार, बीपीएल कार्ड मामले में धांधली तथा उचित मजदूरी और उसके समय से भुगतान न होने के सवालों ने खेतिहर मजदूरों को बेचैन बना रखा है। महंगाई, भूमि सुधार, रोजगार और शिक्षा आदि सवाल भी प्रमुख हैं, जिन्हें जोड़ कर आन्दोलन में उतारा जाना चाहिए।
असंगठित और संगठित दोनों ही किस्म के मजदूर नौकरियां छीने जाने, बेरोजगारी, ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले, निजीकरण और महंगाई के सवाल पर प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं। एटक ने इन सवालों पर तमाम राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनों को जोड़ कर सिलसिलेवार आन्दोलन की पहलकदमी ली है।
देश में मौजूद आर्थिक और राजनीतिक संकट तथा भाकपा एवं वामपंथ के समक्ष मौजूद दूसरी चुनौतियां हमारे विकास के लिए पर्याप्त आधार हो सकती हैं लेकिन अभी हम ठहराव की स्थिति में हैं, पिछड़ भी रहे हैं तथा हमारे परम्परागत आधार सिकुड़ रहे हैं। ऐसे में भाकपा और उसके जन-संगठनों को तमाम सवालों पर संघर्षों में उतर कर भोजन, भूमि, रोजगार और जनवादी अधिकारों के लिए व्यापक आन्दोलन खड़े करने होंगे। पार्टी संगठन को इस जरूरी काम के लिए तैयार करना होगा।
उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत वाली बसपा की सरकार है जो राजनैतिक तौर पर संप्रग के विपक्ष में खड़ी है परन्तु यह सरकार भी विकास का पूंजीवादी मार्ग ही अपनाये हुए है और उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की राह पर चल रही है। लेकिन सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक उथलपुथल के इस दौर में यह अपने सामाजिक आधार (दलित, अति पिछड़े और आदिवासी) को अपने साथ संजोये रखने को कई कदम उठाती रहती है।
सरकार की मुखिया यह जानते हुए भी कि अरबों-खरबों रूपये खर्च कर बन रहे विशालकाय एवं भव्य स्मारकों के निर्माण से वंचित तबकों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन चूंकि यह उन तबकों के बहुमत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनरूत्थान की आकांक्षा की पूर्ति करने हेतु प्रतीक चिन्ह स्थापित करना चाहती है, अतएव वह दृढ़ता से उसके निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं। विपक्ष की सारी तीखी आलोचनाओं एवं न्यायालयों के आदेशों तक से वे बेपरवाह हैं।
गरीब दलितों के लिए आवास, निःशुल्क कोचिंग, बीपीएल कार्ड रहित गरीबों को रू. 300.00 प्रतिमाह की सहायता आदि कई कार्य हैं जो बसपा सुप्रीमो की वंचित तबकों को राजनैतिक तौर पर जोड़े रखने की कवायद का हिस्सा हैं भले ही वह सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कोई ठोस पहलकदमी न हों।
अपने जन्मदिवस को ”आर्थिक सहयोग दिवस“ के स्थान पर ”जन-कल्याणकारी दिवस“ के रूप में आयोजित करना (भले ही आयोजन में सामंती राजाओं और साम्राटों का अनुकरण किया गया हो) तथा ”बहुजन समाज“ की जगह ”सर्वजन समाज“ की बात करना - ‘सर्वजनहिताय’ का नारा बुलन्द करना जताता है कि लोकसभा चुनावों में आशा के अनुकूल परिणाम न मिलने के बाद बसपा ने अपनी रणनीति में थोड़ी सी तब्दीली की है।
लेकिन जनता के अनेक सवालों पर राज्य सरकार कोई ठोस कदम उठाने के बजाय राजनैतिक हथकंडे के तौर पर इनकी जिम्मेदारी केन्द्र सरकार पर डाल कर बच निकलने की रणनीति अपनाती रही है। चाहे बुन्देलखंड की समस्या हो, सूखे और बाढ़ से निपटने का सवाल हो, चाहे पिछड़े क्षेत्रों के विकास का सवाल हो - केन्द्र से आर्थिक पैकेज मांगने के अतिरिक्त सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया है। अब महंगाई के सवाल पर राज्य सरकार के हिस्से की जिम्मेदारी निभाने से बचने के लिये वे केन्द्र द्वारा बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में भाग लेने से कतरा रही हैं और केन्द्र सरकार के कृषि मंत्री को हटाने का बहाना ले रही हैं। कृषि मंत्री की मुजरिमाना करतूतों का पर्दाफाश बैठक में जा कर ही किया जा सकता है।
गन्ने का मूल्य रू. 280.00 प्रति कुन्तल दिलाने के सवाल पर भी वह केन्द्र सरकार के खिलाफ खड़ी तो दिखीं, अपनी ओर से कोई पहलकदमी नहीं की। फलतः राज्य में गन्ने का अपेक्षित मूल्य किसान को मिल नहीं पाया। कच्ची चीनी से चीनी निर्माण के काम को उत्तर प्रदेश में रोक लगा कर किसानों का हित जरूर साधा गया है लेकिन धान के उत्पादक उसका लागत मूल्य तक न मिलने से तबाह हो रहे हैं। खाद और बिजली का संकट लगातार बना रहा है। अब घटतौली और भुगतान गन्ना किसानों की समस्या बने हैं।
राज्य सरकार द्वारा केन्द्र से विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली राशि का भी समुचित उपयोग नहीं किया गया है। अब तक इन राशियों का 50 फीसदी भाग भी उपयोग नहीं किया गया है। प्रदेश में इस बीच गरीबी बढ़ी है। तेन्दुलकर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार सूबे में गरीबों (गरीबी की सीमा के नीचे रहने वालों) की तादाद 40.9 प्रतिशत है जबकि पहले यह 37 प्रतिशत थी। प्रदेश में हर पांच में से दो लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। गरीबी के पायदान पर हम उड़ीसा (57.2 प्रतिशत), बिहार (54.4 प्रतिशत), छत्तीसगढ़ (49.4 प्रतिशत) तथा मध्य प्रदेश (48.6 प्रतिशत) के बाद पांचवें नम्बर पर हैं। शहरों में गरीबी 34.1 प्रतिशत के मुकाबले गांवों में 42.7 प्रतिशत है। यह तब है जबकि इन दस सालों में प्रदेश में अधिकतर समय दलितों-पिछड़ों-अति पिछड़ों की बात करने वाली - बसपा और सपा की सरकारें सत्ता में रही हैं।
महंगाई के मोर्चे पर भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने और व्यापक बनाने, उसे भ्रष्टाचार से मुक्त करने, आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा 3/7 का कड़ाई से पालन करने, जमाखोरी तथा कालाबाजारी पर अंकुश लगाने आदि से यह सरकार बचती रही है। केवल केन्द्र सरकार पर जिम्मेदारी डाल कर बचने की कारगुजारी चलती रही है हालांकि जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ कार्रवाई करने की घोषणायें बार-बार की जाती रही हैं। रोडवेज भाड़े में भारी वृद्धि और भूमि-भवनों की रजिस्ट्री फीस दोगुनी कर इसने जनता पर बड़ा बोझ लादा है, सो अलग। अब सरकार बिजली की दरों को बढ़ाने की जुगत में लगी है।
सरकार की किसानों, कामगारों, कर्मचारियों, शिक्षकों, नौजवानों, महिलाओं, कामकाजी महिलाओं, आदिवासियों, बुनकरों और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा के चलते राज्य में दर्जनों आन्दोलन फूट पड़े हैं। राजधानी लखनऊ इस मध्य कई बड़े जमावड़ों की गवाह बनी है। इन समस्याओं का समाधान करने के बजाय सरकार ने आन्दोलन स्थल विधान सभा से हटा कर गोमती किनारे सुनसान शहीद स्मारक पर पहुंचा दिया। यह शुतुरमुर्गी वृत्ति है, समाधान नहीं।
विभिन्न विकास योजनाओं के नाम पर ऊसर, बंजर, वन विभाग की वृक्ष रहित भूमि, बंद उद्योगों की जमीन का उपयोग करने के स्थान पर किसानों की उपजाऊ जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण किया जा रहा है। आगरा, मथुरा, हाथरस, अलीगढ़ में यमुना एक्सप्रेस वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण के नाम पर 850 ग्रामों की जमीनें लेने की अधिसूचना जारी की है। लखनऊ औद्योगिक विकास प्राधिकरण के नाम पर लखनऊ-उन्नाव के 89 ग्रामों की उस जमीन जो फलपट्टी के अंतर्गत आती है, के अधिग्रहण की कार्रवाई जारी है। विद्युत गृह बनाने के नाम पर ललितपुर के आधा दर्जन ग्रामों की बेहद उपजाऊ जमीनों का अधिग्रहण प्रस्तावित है। इसके अलावा एक दर्जन से अधिक एक्सप्रेस हाईवेज के निर्माण के लिए तमाम जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है। रेलवे के फ्रेट काॅरीडोर की चपेट में चन्दौली की 10,000 हेक्टेयर जमीन आ सकती है।
भाकपा ने खेती, किसान और प्रदेश के व्यापक हित में इन अधिग्रहणों के खिलाफ आवाज उठाई है। कई जगह अभी तक जमीनें बचाने में हम कामयाब रहे हैं। अलीगढ़, आगरा, मथुरा, हाथरस में प्रशासन ने फिलहाल जमीने न लेने की घोषणा की है। दादरी के आन्दोलन में हमने अग्रणी भूमिका अदा की थी। वहां उच्च न्यायालय से किसानों को राहत मिली है। एनटीपीसी के नाम पर ललितपुर जिले में जमीनें लिए जाने की योजना को भी फिलहाल रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। कृषि भूमि बचाओ आन्दोलन को और अधिक मजबूती प्रदान करने की जरूरत है।
केन्द्र सरकार द्वारा अवसरवादी ढंग से पृथक तेलंगाना राज्य निर्माण की घोषणा के फौरन बाद उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने उतना ही अवसरवादी रूख अख्तियार करते हुए प्रदेश को चार भागों में बांटने के लिए केन्द्र को पत्र लिख डाला। इतना ही नहीं सरकार की मुखिया ने आम जनता को उकसाया कि वह राज्य विभाजन के लिए सड़कों पर उतरें।
यह समस्याओं से ध्यान हटाने और जनता को विभाजित करने की साजिश थी जिसे जनता ने विनम्रता से ठुकरा दिया। शोषित-पीड़ित जनता, किसान और मजदूर एक संयुक्त उत्तर प्रदेश में ही संयुक्त ताकत के साथ न्याय पा सकते हैं और पूंजीवादी शोषण का मुकाबला कर सकते हैं। एक विभाजित राज्य में उनकी ताकत भी टुकड़े-टुकड़े हो जायेगी। हमें संयुक्त उत्तर प्रदेश की जरूरत को जनता को समझाते रहना है और बताना है कि विभाजनों का फिर कोई अन्त नहीं है।
भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर यह सरकार बेहद विफल रही है। भ्रष्टाचार इसके दर्शन में वर्षों से चले आ रहे शोषण का जवाब है। उनके अनुसार इसकी आलोचना का नैतिक अधिकार भी किसी को प्राप्त नहीं है। लेकिन भ्रष्टाचार में डूबा शासन-प्रशासन कानून-व्यवस्था को दुरूस्त कर ही नहीं सकता अतएव कानून-व्यवस्था की स्थिति चरम सीमा तक बिगड़ चुकी है। एक दलित एवं महिला मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बनी यह सरकार दलितों और महिलाओं की रक्षा तक नहीं कर पा रही है।
लोकसभा चुनावों के बाद विधान सभा की लगभग डेढ़ दर्जन सीटों पर हुए उपचुनाव में बसपा ने अधिकतर सीटें हथिया लीं। हाल ही में विधान परिषद की 36 सीटों के चुनाव में भी उसने चैतीस सीटें हासिल कीं। बसपा का दलित वोट आधार अभी भी उसके साथ है। अति पिछड़ों के अलावा पिछड़ों का भी एक भाग बसपा के साथ है। आदिवासियों में भी बसपा की पैठ है। भाजपा को हराने में सक्षम होने के कारण अल्पसंख्यकों का एक भाग भी बसपा को वोट देता है। सर्वजन समाज के नाम पर सामान्य जातियों के बाहुबली, धनबली और माफियाओं का गठबंधन शासन सत्ता का संरक्षण हासिल करके बसपा की विजय के रथ को आगे बढ़ाता है।
राम मंदिर जैसे मुद्दों के ओझल हो जाने के कारण और अन्दरूनी फूट के चलते भाजपा प्रदेश में लगातार अपनी प्रासंगिकता खो रही है। पहले ही कहा जा चुका है कि उग्र हिन्दुत्व का चोंगा पहन कर वह पुनर्वापसी का प्रयास जरूर करेगी।
सत्ता से वंचित सपा चुनावों में एक के बाद एक पराजय और एक के बाद एक बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने के कारण गहरे संकट में है। धीरे-धीरे सपा एक परिवार की पार्टी बनती चली जा रही है। अलबत्ता महंगाई के खिलाफ आन्दोलन करके वह क्षतिपूर्ति करने के प्रयास में है।
भाजपा एवं सपा के कमजोर होने का जहां बड़ा लाभ प्रदेश में शासक दल बसपा को मिला है वहीं केन्द्र में शासन और राज्य में विपक्ष की भूमिका निभा रही कांग्रेस को भी कुछ फायदा मिल रहा है। कांग्रेस के युवराज यू.पी. को अपना एजेण्डा नंम्बर एक बनाये हुए हैं तथा कारपोरेट जगत और मीडिया उन्हें शख्सियत नम्बर एक बनाये हुए है। लेकिन केन्द्र सरकार की जन विरोधी नीतियां खासकर महंगाई कांग्रेस के रथ के पहिये ज्यादा आगे बढ़ने नहीं दे रहीं।
ऐसी स्थिति में जहां किसान बेहद दयनीय स्थिति में धकेल दिये गये हों, मजदूरों को अधिकारों से वंचित किया जा रहा हो, भूमिहीनों को व्यापक भूमि-सुधार की दरकार हो और बेरोजगारों को रोजगार की, शिक्षा व्यापार बना दी गयी हो, ग्रामीण जीवन की जीवन रेखा नरेगा भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ रही हो, कानून और प्रशासन सत्ताधारियों के इशारों पर नाचता हो और गरीब से लेकर मध्यवर्ग तक महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रहा हो, ऐसे में इन तबकों को आन्दोलनों के जरिये चैतन्य करना और उस चेतना को समाजवाद की चेतना में बदलना प्रदेश में भाकपा का प्रमुख कर्तव्य बन जाता है।
इसके लिए धरातल पर पार्टी को गतिशील बनाने की जरूरत है - जिसका सीधा अर्थ है कि पार्टी की शाखाएं सक्रिय हों और कार्य करें। इसके लिए ब्रांच सचिवों का शिक्षण-प्रशिक्षण किया जाना चाहिए।
सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने हेतु स्थानिक निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण के विधेयक पारित किया जा रहा है, संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग भी जारी है। यदि पार्टी अभी से महिला कार्यकर्ताओं को पार्टी एवं जन जीवन में शामिल नहीं करती है तो आगे समस्या का सामना करना पड़ेगा। अतएव महिलाओं को पार्टी में लाने पर खास ध्यान दिया जाना चाहिए।
आदिवासी, दलितों तथा मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मध्य काम को सघन किया जाना चाहिए।
पार्टी का निर्माण हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, अपनी स्वतंत्र भूमिका को ध्यान में रखते हुए हमें मुद्दों को चिन्हित करने की पहल करनी चाहिए, मुद्दों पर आन्दोलन की पहल करते हुए हमें अपनी कतारों को संघर्ष में उतारना चाहिए तथा वाम, लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी साथ लाना चाहिए। लेकिन धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक ताकतों का मतलब किसी पार्टी अथवा दल विशेष से नहीं लगाया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में हमारी अपनी पहचान, हमारी विचारधारा, हमारे मूल्यों तथा सिद्धांतों की हमें हमेशा रक्षा करनी चाहिए। तभी हम आगे बढ़ सकते हैं और वर्तमान स्थिति से उबर सकते हैं।
फौरी कदम जो उठाये जाने हैं:
(अ) अभियान एवं आन्दोलन:
5 मार्च को ट्रेड यूनियनों के संयुक्त जेल भरो आन्दोलन को सक्रिय सहयोग एवं समर्थन।
12 मार्च को महंगाई, खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण, नरेगा के सही अमल, रोजगार और शिक्षा के सवाल पर दिल्ली में होने वाली वाम दलों की रैली में भाकपा की ओर से बड़ी संख्या में जनता को संगठित कर दिल्ली ले जाना।
इससे पूर्व 20 दिनों तक उपर्युक्त सवालों पर जन-जागृति एवं जन-संपर्क अभियान चलाना (20 फरवरी से 8 मार्च प्रस्तावित)
अप्रैल-मई में प्रस्तावित ग्राम पंचायत सदस्यों एवं ग्राम प्रधान के चुनाव की अभी से तैयारी और चुनाव में व्यापक भागीदारी।
जून-जुलाई में प्रस्तावित क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत सदस्यों के चुनावों की तैयारी और चुनाव में व्यापक भागीदारी।
नवम्बर-दिसम्बर माह में प्रस्तावित नगर निकायों के चुनावों की तैयारी और उनमें व्यापक भागीदारी।
जहां-जहां उपजाऊ जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है, वहां आन्दोलन संगठित करना।
(आ) सांगठनिक:
पार्टी सदस्यता का नवीनीकरण और नई सदस्यता भर्ती का काम 31 जनवरी 2010 तक पूरा करना, राज्य केन्द्र पर चार्ट शुल्क के साथ 28 फरवरी तक हर हालत में जमा करना।
पार्टी का फण्ड जमा करने की व्यापक रूपरेखा तैयार करना जिसमें प्रदेश से राष्ट्रीय परिषद सदस्य से लेकर साधारण सदस्यों तक की भागीदारी सुनिश्चित हो।
प्रत्येक शाखा स्तर पर जन संगठनों का निर्माण करना और उन्हें सक्रिय करना।
पार्टी पत्र-पत्रिकाओं के ग्राहक बनाना।
आगामी माहों (फरवरी-मार्च) में पार्टी शाखाओं के सम्मेलन तथा शाखा सचिवों का प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना।
पार्टी शाखाओं की नियमित बैठकें आयोजित करना ताकि रिपोर्टिंग, विचार-विमर्श, स्थानीय समस्याओं पर चर्चा और चयन तथा आन्दोलन की रूपरेखा बनाई जा सके।
हर स्तर पर उच्च कमेटियों द्वारा अधीनस्थ कमेटियों के काम की चेकिंग।
कम्युनिस्ट नैतिकता एवं मूल्यों का प्रशिक्षण तथा उन्हें अमल में लाने के काम को प्राथमिकता देना।
पार्टी सिद्धांतों एवं नैतिकता को क्षति पहुंचाने वालों के विरूद्ध अनुशासन की कार्यवाही करना। इससे पार्टी की छवि भी बनेगी और साथियों में आत्मविश्वास भी पैदा होगा।
जिन विभागों की बैठक नहीं हुई है, उनकी बैठकें प्राथमिकता के तौर पर आयोजित करना।
मध्यमवर्गीय कर्मचारियों - बैंक, बीमा एवं सार्वजनिक क्षेत्र, पत्रकारों तथा शिक्षकों के भीतर पार्टी सदस्यता का फैलाव।
जिला स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन।
आन्दोलन
कमरतोड़, महंगाई, खाद्य सुरक्षा, नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार विभिन्न योजनाओं के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण, शिक्षा की फीस बढ़ाने, सरकारी रिक्त पदों को भरे जाने, चहुंतरफा फैले भ्रष्टाचार आदि सवालों पर 20 जुलाई से 30 जुलाई तक पूरे प्रदेश में जन-जागरण अभियान चलाया गया। इस अभियान के अंतर्गत ग्रामों, शहरों, कस्बों में सभायें व नुक्कड़ सभायें की गईं। राज्य केन्द्र से मांग पत्र छपवा कर जिलों को भेजा गया था जिस पर लाखों हस्ताक्षर जनता से कराये गये।
इस अभियान की परिणति 31 जुलाई को जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शनों के साथ हुई। जिलों से मिली सूचना के अनुसार इन प्रदर्शनों में अपेक्षा से अधिक लोगों ने शिरकत की। ज्ञात हो कि यह आन्दोलन लोकसभा चुनाव परिणामों से उपजी पस्ती के माहौल में हुआ था फिर भी संतोषजनक रूप से सफल रहा। जिलों-जिलों में जनता द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन जिलाधिकारी के माध्यम से महामहिम राष्ट्रपति और राज्यपाल को भेजे गये।
उपर्युक्त सवालों पर सूबे के चारों वामपंथी दलों की ओर से जनसंपर्क अभियान चलाया गया। बड़ी-छोटी तमाम सभायें आयोजित की गईं।
इस अभियान की परिणति 9 सितंबर 2009 को जिला मुख्यालायों पर व्यापक धरने/प्रदर्शनों के रूप में हुई जो बेहद सफल हुई। राज्यपाल महोदय के नाम ज्ञापन जिलाधिकारियों के माध्यम से प्रेषित किये गये। यह आन्दोलन और अधिक सफल रहा।
इन्हीं सवालों पर पार्टी की ओर से 25 नवंबर से 5 दिसंबर तक फिर से जन अभियान चलाने का निश्चय किया गया जिसके तहत सभायें/नुक्कड़ सभायें प्रदेश भर में आयोजित की गईं।
7,8,9 दिसंबर को पूरे प्रदेश में तहसील मुख्यालयों पर धरने एवं प्रदर्शन आयोजित किये गये तथा उपजिलाधिकारियों के माध्यम से राज्यपाल महोदय को ज्ञापन सौंपे गये। इस कार्यक्रम के 300 में से 260 तहसीलों पर आयोजित किये जाने की रिपोर्ट राज्य मुख्यालय को प्राप्त हुई है।
यमुना एक्सप्रेस वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण के नाम पर आगरा, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस जनपदों के 850 ग्रामों की उपजाऊ जमीनांे के अधिग्रहण की योजना के विरूद्ध चारों जनपदों के पार्टी और जनसंगठनों के कार्यकताओं का एक संयुक्त सम्मेलन अक्टूबर के शुरू में मथुरा में आयोजित किया गया। सम्मेलन में लिये गये निर्णयानुसार चारों जनपदों में पहले तहसील स्तर पर फिर जिला स्तर धरनों/प्रदर्शनों का दौर चला जो अभी भी जारी है। चारों जनपदों का एक संयुक्त कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर भी मथुरा में होना तय है।
अभियान के परिणाम स्वरूप चारों जनपदों के जिलाधिकारियों ने घोषणा की कि फिलहाल अधिग्रहण नहीं होने जा रहा है।
लेकिन हमें अधिसूचना के रद्द होने तक आन्दोलन जारी रखना होगा।
उपर्युक्त मुद्दों एवं सूखा तथा बाढ़ राहत के लिये चारों वाम दलों का संयुक्त सम्मेलन 26 नवंबर को गंगा प्रसाद मैमोरियल हाल, लखनऊ में संपन्न हुआ जिसमें पार्टी की केन्द्रीय सचिव का. अमरजीत कौर ने भी भाग लिया। भागीदारी और संयोजन में पार्टी की भूमिका औरों से बढ़ ़कर थी।
9 सितंबर और 26 नवंबर के संयुक्त कार्यक्रमों में माकपा की संकीर्णता, हठवादिता और प्रभुत्ववादी प्रवृत्ति से भी लड़ना पड़ा।
विधान सभा उपचुनाव - उत्तर प्रदेश में दो बार हुये विधान सभा उपचुनावों में हम ने कुल पांचों सीटों पर चुनाव लड़ा इनमें क्रमशः मुरादाबाद पश्चिम पर 2130, औरैय्या (विधूना) में 1540, ललितपुर में 2120, पुवायां (शाहजहांपुर) में 1500 तथा कोलसला में 1300 मत प्राप्त किये।
धनसंग्रह अभियान - पार्टी राज्य कार्यकारिणी बैठक में निर्णय लिया गया था कि 11,12,13 दिसंबर को जनता से धन संग्रह अभियान चलाया जाये। कई कारणों से अभियान असफल रहा है। पार्टी निर्माण में धन की बड़ी ही भूमिका है इसे ध्यान में रखते हुए कमजोरियों को चिन्हित कर नये सिरे से अभियान चलाया जाना चाहिये। रु. 10 प्रति सदस्य के हिसाब से वांछित फंड जिला कमेटियों को तत्काल राज्य को अदा करना है।
सांगठनिक
आन्दोलन के साथ-साथ इस अवधि में तमाम सांगठनिक गतिविधियां भी जारी रहीं।
(अ) संगठन पर राज्य स्तरीय कार्यशाला
11 अक्टूबर 2009 को पार्टी संगठन विभाग के फैसले के अनुसार पार्टी संगठन पर एक राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन लखनऊ में किया गया जिसमें राज्य कार्यकारिणी के सदस्यों एवं जिला सचिवों ने भाग लिया। इस कार्यशाला के मुख्य अतिथि पार्टी के केन्द्रीय सचिव मंडल सदस्य का. सी.के. चन्द्रप्पन थे। दूसरा क्लास डा. गिरीश ने लिया। का. अतुल कुमार अंजान ने भी संबोधित किया। का. चन्द्रप्पन के भाषण का अनुवाद का. अरविन्द राज स्वरूप ने किया।
(आ) जिला स्तरीय कार्यशालायें
राज्य स्तरीय कार्यशाला में ही निर्णय लिया गया था कि जिलास्तर पर भी संगठन संबन्धी कार्यशालायें आयोजित की जायें। अब तक औरैय्या, आगरा, बाराबंकी, जौनपुर, वाराणसी, गोरखपुर, फैजाबाद, आजमगढ़ आदि ने ही कार्यशालायें आयोजित की है।
शेष जिलों ने इस काम को गंभीरता से नहीं लिया। इसे अगले दो माह में पूरा कर लेना है।
शिक्षण शिविर
यद्यपि कई जिलों से शिक्षण शिविर लगाने के प्रस्ताव हैं लेकिन इस बीच केवल जौनपुर में ही दो दिवसीय शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया।
विभागों की बैठकें
इस बीच राज्य कार्यकारिणी द्वारा गठित विभिन्न विभागों को सक्रिय करने की कोशिश की गई है। संगठन विभाग की एक, सांस्कृतिक कमेटी की एक, टेªड यूनियन विभाग की एक, शांति मैत्री की एक, अल्पसंख्यक कमेटी की एक तथा खेत मजदूर विभाग की एक बैठक आयोजित की गई।
अन्य विभागों/कमेटियों की बैठक अपेक्षित है।
जन संगठन
यूपीटीयूसी - ए.आई.टी.यू.सी. के आहवान प्रदेश स्तर पर कई कार्यक्रम आयोजित किये गये हैं। अब सभी टेªड यूनियनों के साथ 5 मार्च को सत्याग्रह एवं जेल भरों की तैयारी चल रही है।
किसान सभा - किसानों से जुड़े सवालों पर 30 नवंबर को लखनऊ में धरना/प्रदर्शन आयोजित किया गया।
भारतीय ख्ेात मजदूर यूनियन - ठहराव को तोड़ने की कोशिश हुई है और राज्य सम्मेलन संपन्न हो चुका है।
इप्टा - वामिक जौनपुरी स्मृति यात्रा हाल ही में आजमगढ़ और जौनपुर में संपन्न हुई।
इंसाफ - काम आगे बढ़ा है। कई क्षेत्रीय सम्मेलन अल्पसंख्यकों के सवालों पर प्रस्तावित हैं।
प्रगतिशील लेखक संघ - राज्य सम्मेलन 20-21 फरवरी को बनारस में प्रस्तावित है।
इस्कफ - पहला राज्य सम्मेलन हाल ही में इलाहाबाद में आयोजित किया जा चुका है।
ऐप्सो - महानगरों में कमेटियां गठित करने के लक्ष्य को पूरा किया जाना है।
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