भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

About The Author

Communist Party of India, U.P. State Council

Get The Latest News

Sign up to receive latest news

फ़ॉलोअर

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

कामरेड पूरन चन्द्र जोशी की कुछ यादें

मेरे एक पुराने मित्र डा. पी.सी.जोशी ने कामरेड पी.सी.जोशी की जन्म शताब्दी पर उनके बारे में कुछ लिखने को कहा। उनके इस अनुरोध से मेरे दिलो-दिमाग में पुरानी यादें घूम गयीं और उनमें से कुछ को मैं लिखने की कोशिश कर रहा हूं।
मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कानपुर जिला पार्टी का अंग 1950 में बना। विद्यार्थी मोर्चे पर काम करना मैंने बन्द ही किया था और यह सीखना चाहता था कि लाल कानपुर के मजदूर वर्ग को किस तरह संगठित किया जाता है। 1950 में पार्टी और कानपुर मजदूर सभा दोनों के हालात बहुत खराब थे जिसका कारण सन 1947 से 1950 तक पार्टी द्वारा चलाई गयी संकीर्ण नीति जुम्मेदार थी। कानपुर में कम्युनिस्ट पार्टी का कोई कार्यालय नहीं था और कानपुर मजदूर सभा के कार्यालय को पुलिस ने बर्बाद कर दिया था। मैं रिहा होने वाला पहला व्यक्ति था। पार्टी और कानपुर मजदूर सभा के तमाम वरिष्ठ साथी अभी जेल में ही थे। काफी ढूंढने पर मुझे छंटनीशुदा एक सूती मिल मजदूर साथी मिला जो अनपढ़ होने के बावजूद बहुत ही ऊर्जावान था। मैंने उसे अपना गुरू बना लिया। हम दोनों ने मिलों के गेट पर मीटिंगे करना और मिल मजदूरों से फण्ड एकत्रित करना शुरू किया। मजदूरों ने कानपुर मजदूर सभा के कार्यालय की मरम्मत के लिए हम दोनों को काफी पैसा दिया।
1951 के आम चुनावों में हमने का. संत सिंह यूसूफ को विधान सभा के एक क्षेत्र से खड़ा किया। वे केवल दो सौ वोटों से हार गये। लोकसभा की सीट पर कांग्रेस के हरिहर शास्त्री विजयी हुये। लेकिन 1952 में ही एक वायु दुर्घटना में वे मारे गये। 1953 में उप चुनाव हुआ। केन्द्रीय पार्टी ने उप चुनाव में का. युसूफ को लोकसभा का प्रत्याशी बनाना तय किया और का. पी.सी. जोशी को चुनावों का सांगठनिक प्रभारी बनाने के निर्णय से मैं हतप्रभ था।
का. जोशी जब पार्टी आफिस आये तो मैं बैठा हुआ था। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था। पार्टी मुखपत्रांे में मैं उनके लेख पढ़ा करता था। मुझसे बाद में कहा गया कि मैं उनके द्वारा लिखा गया कुछ भी न पढूं। सन 1947-50 के मध्य का. जोशी को वास्तव में अछूत बना दिया गया था। रणनीति और कार्यनीति में बदलाव सन 1950 के बाद से आना शुरू हुआ। हमारे खुद के अनुभवों और अंतर्राष्ट्रीय साथियों के सन्देशों से विचार-मंथन शुरू हुआ। का. अजय घोष पार्टी के महासचिव हो गये।
इसके पहले कि मैं कोई प्रश्न पूछता का. जोशी ने बताया कि वे केन्द्र से राज्य पार्टी के प्रतिनिधि के तौर पर कानपुर भेजे गये हैं, उन्होंने का. पुरूषोत्तम कपूर के साथ निवास ले लिया है और जिला मंत्री का. संतोष कपूर से वे मिल चुके हैं। सूती मिल मजदूरों के सोच में आये बदलाव के बारे मैंने उन्हें बतालाया। सूती मिल बरतानवी पूंजीपतियों के थे परन्तु 1948 में उन्होंने इन्हें भारतीय पूंजीपतियों को बेच दिया था। कोरिया युद्ध के समय सूती मिलों ने बेतहाशा मुनाफा कमाया था लेकिन युद्ध की समाप्ति पर मालिकों ने छंटनी और काम में बढ़ोत्तरी के लिए आक्रामकता शुरू कर दी थी। मजदूर बहुत ही परेशान थे और सभी मिलों में अलग अलग इसका विरोध कर रहे थे। वे छः यूनियनों में बंटे होने के कारण (इंटक के अलावा) कोई संयुक्त संघर्ष नहीं छेड़ सके थे।
का. जोशी ने मुझसे कहा कि मैं उन्हें बाकी पांच यूनियनों (छठी कानपुर मजदूर सभा खुद थी) के दफ्तरों में ले चलूं। उन्होंने हर यूनियन नेता से कहा कि वे छहों यूनियनों का आपस में विलय कर लें। कुछ ही दिनों के अन्दर सभी यूनियनों ने एक नई यूनियन - ”सूती मिल मजदूर सभा“ के संविधान को अंतिम रूप देने के लिए एक संयुक्त बैठक बुलाई। पांचों नेताओं - अर्जुन अरोड़ा, गणेश दत्त बाजपेयी, मकबूल अहमद खां, गंगा सहाय चैबे और बिमल मेहरोत्रा ने का. जोशी के बताये हुए सभी सुझावों को मान लिया।
यह उनका पहला करिश्मा था।
का. जोशी जानते थे कि सूती मिल मजदूरों के रिहायशी इलाकों में पार्टी के कुलवक्ती कार्यकर्ताओं के बगैर पार्टी को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। हमारे पास काफी संख्या में कार्यकर्ता थे परन्तु पैसा नहीं था। उन्होंने पार्टी के हमदर्दो की एक सूची बनाई और एक महीने के अन्दर उन्हांेने पांच सौ रूपये प्रतिमाह की व्यवस्था कर ली। सन 1953 में पांच सौ रूपए बहुत होते थे। हमने 13 कुलवक्ती कार्यकर्ताओं को चुना। यह उनका दूसरा करिश्मा था।
जब उप चुनावों की तिथियां घोषित हुयीं तो मुख्यतः तीन उम्मीदवार - का. संत सिंह यूसूफ, समाजवादी राजा राम शास्त्री और कांग्रेस के राजा राम शास्त्री सामने आये। शिव नारायण टंडन को 78 हजार, राजा राम शास्त्री को 54 हजार और का. यूसूफ को 36 हजार वोट मिले। का. जोशी ने इसकी गंभीर मीमांसा की। यह मीमांसा पूरी तरह आत्मालोचनात्मक थी।
अब हम सूती मिल मजदूर सभा के बैनर के नीचे सूती मिल मजदूरों के बीच काम करने लगे। का. जोशी ने इप्टा के कलाकारों को इकट्ठा करना शुरू किया। हमने दो आयोजन किये। यह सभी सांस्कृतिक कलाकारों से मैं परिचित था। वस्तुतः मैं ही उन्हें लाया था। मैंने अपने को कोसना शुरू किया कि का. जोशी को यह सब क्यों करना पड़ा, यह सब मैंने खुद क्यों नहीं किया।
अब मैं का. जोशी के सहायक के रूप में काम कर रहा था। मैंने देखा कि वे तमाम सांस्कृतिक एवं बौद्धिक लोगों को पत्र लिखा करते थे। मुझे उन पत्रों को पोस्ट करना पड़ता था।
काफी बाद में मैंने यह महसूस किया कि का. जोशी का सोच था कि हिन्दुस्तान में राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक वर्चस्व की भी जरूरत होगी। यह वैसा ही है जैसाकि ग्राम्ची ने अपनी जेल डायरी में लिखा है। लेकिन का. जोशी ने ग्राम्ची की जेल डायरी को नहीं पढ़ा था। यह उन्होंने सन 1935-42 के मध्य पार्टी के अभूतपूर्व उभार की अवधि में सीखा था। यह उनका तीसरा करिश्मा था।
सन 1954 में शिव नारायण टंडन ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। एक साल के भीतर ही दूसरा उपचुनाव हुआ। का. जोशी चाहते थे कि पार्टी सोशलिस्ट राजा राम शास्त्री का समर्थन करे। सूती मिल मजदूर सभा ने एक स्वर से शास्त्री के नाम पर मुहर लगा दी। लेकिन पार्टी के कुछ साथियों ने का. जोशी के खिलाफ गुप-चुप अभियान चला दिया कि वे कानपुर की पार्टी को सुधार के रास्ते पर ले जा रहे हैं। लेकिन ऐसे साथी बहुत कम थे। इन लोगों ने शास्त्री के लिए चुनावों में काम नहीं किया परन्तु फिर भी शास्त्री ने कांग्रेस प्रत्याशी तथा इंटक के नेता को चुनाव में पराजित कर दिया।
चुनाव में शास्त्री की विजय से सूती मिल मजदूरों की संघर्ष की आकांक्षा उबाल पर आ गयी। आम हड़ताल की नोटिस दे दी गयी। आम हड़ताल 2 मई 1955 को शुरू होनी थी। सम्पूर्णानन्द सरकार तथा मिल मालिकों ने सोचा था कि एक सप्ताह में हड़ताल टूट जायेगी। अप्रैल में ही मेरे समेत सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। हड़ताल को दिशानिर्देश देने के लिए भूमिगत हो गये का. जोशी अकेले बचे थे। मजदूर वर्ग की संघर्ष करने की क्षमता सामने आ गयी। अस्सी दिनों तक हड़ताल चलती रही। सन 1955 में यह हड़ताल का विश्व रिकार्ड था। न केवल पूरे हिन्दुस्तान से बल्कि विश्व के दूसरे हिस्सों से भी एकजुटता प्रस्तावों तथा आर्थिक सहायता कानपुर पहुंचने लगी। यह उनका चैथा करिश्मा था।
अक्टूबर 1955 में मैं जेल से बाहर आया। बाहर निकल कर मैंने बहुत ही परेशान करने वाले हालात देखे। हड़ताल से हुए समझौते पर अमल कराने के बजाय कानपुर की पार्टी का. जोशी के खिलाफ अभियान चला रही थी। मंै इससे बहुत निराश हुआ परन्तु का. जोशी पर इसका कोई प्रभाव नहीं था। मैंने का. जोशी के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान की अनदेखी की और थके एवं परेशानहाल मजदूर वर्ग के बीच अपने को व्यस्त कर लिया। इस काम से मुझे काफी सफलता मिली।
पालघाट पार्टी महाधिवेशन के पहले कानपुर जिला पार्टी सम्मेलन में का. जोशी के समर्थकों को जिला कार्यकारिणी से निकाल दिया गया। परन्तु पालघाट पार्टी कांग्रेस में का. अजय घोष ने का. जेाशी को केन्द्रीय समिति का सदस्य और न्यू एज का प्रभारी बना दिया।
इस बीच मैं हर मिल में हड़ताल के कारण हुए समझौते को लागू कराने के लिए प्रयास करता रहा। भाकपा की केरल सफलता के बाद सन 1958 में अमृतसर में विशेष अधिवेशन होना था। सन 1957 में सम्पन्न पार्टी के कानपुर जिला अधिवेशन में मेरे नेतृत्व में का. जोशी के खिलाफ अभियान चलाने वालों को बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा। यह पांचवां करिश्मा था।
अमृतसर पार्टी सम्मेलन में मुख्य झगड़ा का. अजय घोष द्वारा प्रस्तावित संविधान संशोधन के इर्द-गिर्द था। चीन के साथ सीमा विवाद पर केन्द्रीय समिति छोड़ देने वाले साथियों ने संशोधनों का कड़ा विरोध किया जिसमें चुनावों के द्वारा शांतिपूर्ण बदलाव की बात कही गयी थी। लेकिन उनके तमाम विरोधों के बावजूद संशोधन दो तिहाई के भारी बहुमत से पारित हो गया।
का. जोशी आसफ अली रोड़ स्थित पार्टी कार्यालय में ही रहते थे लेकिन कुछ समय के बाद उन्हें किसी सांसद के निवास पर एक कमरा दे दिया गया था। उस समय मैं दिल्ली बहुत जाया करता था और जब भी मैं दिल्ली जाता मैं का. जोशी से अवश्य मिलता था। उनके मित्रों की तादाद बढ़ती जा रही थी।
का. अजय घोष की मृत्यु का. जोशी के लिए तगड़ा झटका थी। का. अजय घोष को का. जोशी के प्रति बहुत ही लगाव था और सम्मान की भावना थी।
का. अजय घोष की मृत्यु के बाद चीन के साथ हमारे संबंध बद से बदतर होते चले गये। अक्टूबर 1962 में क्यूबा संकट के समय ही चीनी सेना भारत में प्रवेश कर गयी। जैसे ही क्यूबा संकट खत्म हुआ चीनी सेना वापस चली गयी। लेकिन इसके कारण पूरा देश चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ हो गया। का. डांगे ने माओवाद का खुलासा करते हुए एक पैम्पलेट लिखा और पार्टी के अन्दर और बाहर दोनों जगह हीरो बन गये।
पार्टी के अन्दर संघर्ष हमेशा निर्ममता के साथ किये जाने चाहिए। लेकिन संघर्ष करते समय पार्टी के जन-मानस की बदलती मानसिकता और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में हो रहे लगातार बदलावों को ध्यान में रखना चाहिए। कामरेड जोशी ने हमेशा सभी संघर्षो को धैर्य और साहस के साथ लड़ा लेकिन कामरेड अजय घोष की मृत्यु के बाद उन्होंने जो भी संघर्ष किये दुर्भाग्य से उसमें वे विजयी नहीं हो सके। सन 1966-69 के मध्य अंध-कांग्रेस विरोध और उसके बाद एकदम उल्टी धारा से वे बहुत हताश हो गये थे। लगातार कुंठा, त्रास और हताशा का ही परिणाम था कि उन्हें जुलाई 1975 में पहला हृदयाघात हुआ। का. जोशी की विरासत कभी भुलाई नहीं जा सकेगी। कामरेड जोशी लेनिन की राष्ट्रीय एवं औपनिवेशिक समस्याओं पर थीसिस के साथ अंत तक दृढ़ता से खड़े रहे। कामरेड जोशी अपने खुद के निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि - सांस्कृतिक वर्चस्व के बिना भारत में राजनीतिक वर्चस्व कायम नहीं किया जा सकता।

का. हरबंस सिंह

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

Share |

लोकप्रिय पोस्ट

कुल पेज दृश्य