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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
at 8:01 pm | 0 comments | डी. राजा
शिक्षा गरीबों की पहुंच से बाहर
1915 में केरल के एक गांव अरूहाबलम में दलित क्रांतिकारी अय्यान्कली एक अछूत लड़की पुलैया को एक मलयालम स्कूल में दाखिला दिलाने ले गये। ऊंची जाति वालों ने दाखिला लेने से मना कर दिया और स्कूल में आग लगा दी ताकि अछूत बच्चे ‘शिक्षा संस्था को अपवित्र‘ न कर सकें। इसके बाद देश के इतिहास में पहली कृषि हड़ताल हुई। यह हड़ताल मजदूरी बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि स्कूलों में प्रवेश की मांग को लेकर हुई। इस घटना के करीब सौ साल बाद तथा भारतीय गणतंत्र के 60 साल के प्रयासों के बाद आज भी शिक्षा तथा शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश उतना ही दुर्लभ होगा जितना कि उस छोटी लड़की पुलैया के लिए था। इस बार प्रवेश के अधिकार के बारे में पूछा नहीं जायेगा बल्कि शिक्षा के खर्च के बारे में सवाल उठेगा।कर्ज-प्रेरित शिक्षाएक राष्ट्र के रूप में दलितों, आदिवासियों के बच्चों, लड़कियों तथा ग्रामीण इलाकों में छोटे एवं मझोले किसानों और शहरी क्षेत्रों में मेहनतकश औद्योगिक मजदूरों के बच्चों को पढ़ाने में आने वाली कठिनाइयों से गुजर चुके हैं। यहां तक कि नौकरी करने वाले मध्यवर्ग के लोग भी अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कम फीस वाले सरकारी स्कूलों में जाना पसन्द करते हैं। यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस-2 के मानव संसाधन विकास मंत्री का सपना पूरा होना है तो हमारे देश के नौकरीयाफ्ता तमाम मध्यवर्ग के लोग बैंकों के कर्जों से लद जायेंगे। अब से 10 साल बाद विदर्भ और तेलंगाना के कर्ज से लदे किसानों तथा अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्य एवं उच्च मध्य वर्गों के नौकरी करने वालों के बीच कोई अंतर नहीं रह जायेगा।कोई उन बच्चों के अभिभावकों की पीड़ा की कल्पना कर सकता है जो अपने बच्चों को आस्ट्रेलिया भेजने के लिए बैंकों से कर्ज लेते हैं और कर्ज चुकाने के लिए परेशानी उठाते हैं? निजी बीमा कंपनियां और बैंक टेलीविजन पर लाइव क्रिकेट मैच के दौरान विज्ञापन देते हैं ताकि अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कर्ज के जाल में फंस सकें। ऐसा इस तथ्य के कारण कि शिक्षा जो अभी तक महंगी, काफी खर्चीली, भूमंडलीकृत एंव निजीकृत बिजनेस की चीज हो गयी है जिसे बेचा जा सकता है। दुर्भाग्यवश ऐसा लगता है कि भारतीय मध्यवर्ग संप्रग-2 द्वारा भावी शिक्षा पर होने वाला खर्च के तैयार किए जा रहे खाके से अनभिज्ञ है। पहला सबूत यह है कि संप्रग-2 सरकार का संविधान के 95वें संशोधन को, जिसने अनुच्छेद 15(5) को शामिल करके दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों के लिए शिक्षा को सुगम कर दिया है, लागू करने के प्रति न तो दिलचस्पी है और न ही प्रतिबद्धता। इस संविधान संशोधन के जरिए सभी सरकारी तथा सहायता प्राप्त और सहायता नहीं प्राप्त करने वाले शिक्षण संस्थाओं में इन वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन वह संप्रग-2 सरकार में होने वाला नहीं है।महंगी होती शिक्षासंप्रग-2 सरकार के आने के बाद शिक्षा अचानक बिकाऊ चीज बन गयी है और इसीलिए इस तरह का बयान सुनने को मिलता है कि शिक्षा को सरकार के चंगुल से मुक्त किया जा रहा है, उच्च शिक्षा परिदृश्य को बेहतर किया जा रहा है आदि आदि। भविष्य में इस तरह की जो दूसरी बात है वह यह कि शिक्षण संस्थाओं के आवेदन फार्म को ऊंची कीमत पर बेचा जायेगा। निजी शिक्षण संस्थाओं में आवेदन फार्म का मूल्य 500 रू. से शुरू होता है और 500 रू. से कभी कम नहीं रहता है, बाद में सरकारी शिक्षण संस्थाओं में भी यही होने वाला है। उसके बाद गरीबी रेखा से नीचे के छात्र जिनके परिवार की आमदनी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार रोजाना 20 रू. से अधिक नहीं है, क्या इस खर्च को वहन कर पाएगा? एक आवेदन फार्म खरीदने के लिए पूरे परिवार को एक महीना तक भूखे रहना पड़ेगा। आवेदन फार्म के मूल्य इतने ज्यादा हैं कि वे दैनिक मजदूरी करने वाले दो लोगों के पूरे एक महीने के वेतन के बराबर हैं। इसमें आश्चर्य नहीं कि संप्रग-2 सरकार का इरादा यह है कि शिक्षा को गरीबों की पहुंच के बाहर रखा जाए चाहे उनकी कोई भी जाति हो।दुर्भाग्य से शिक्षा का अधिकार केवल सरकार की संस्थाओं तक सीमित होगा तथा उन गरीब बच्चों को किसी ‘इलीट’ (विशिष्ट) पब्लिक स्कूल में प्रवेश पाने का अधिकार नहीं होगा क्योंकि न तो सरकार पब्लिक स्कूल की ऊंची फीस देगी और न ही पब्लिक स्कूल गरीब बच्चों को लेने के लिए तैयार हैं। इस प्रकार 2015 तक फिर कोई गरीब लड़की पुलैया होगी जो किसी पब्लिक स्कूल के बाहर खड़ी इंतजार कर रही होगी और उस समय तक आत्महत्या करने का दृश्य विदर्भ के किसानों से हटकर शहरी भारत के शिक्षित मध्य वर्ग तक पहुंच जायेगा। संप्रग-2 सरकार जो कुछ भी कर रही है वह है मानव संसाधन विकास मंत्री के इस सपने को साकार करना कि भारत को ‘बिजनेस हब’ बना देना है जहां शिक्षा बिकाऊ है। यह ‘शिक्षा के अधिकार’ के बावजूद होगा।शिक्षा बिल और मुकदमेंइन लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एचआरडी मंत्री ने शिक्षा ट्रिब्यूनल बिल लाया है जिसमें छात्रों और संस्थाओं के बीच होने वाले विवादों को निपटाया जायेगा। इसका मतलब होगा कि हमारे देश के वकीलों को ज्यादा काम मिल जायेगा। वे फौजदारी और अन्य मुकदमों के अलावा ऐसे मुकदमें भी लड़ेंगे जो शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच होंगे तथा विश्वविद्यालयों एवं कालेजों के विद्यार्थी अपने विवाद सुलझाने के लिए अदालत के चक्कर लगाते रहेंगे जिसका कोई अंत नहीं होगा। इसलिए यह वही है जो संप्रग सरकार चाहती है! यह वही है जो वकील से बने मंत्री चाहते हैं!इसके बाद आता है विदेशी शिक्षा प्रदायक बिल जो देश में विदेशी संस्थाओं को काम करने की इजाजत देंगे। वे शायद डालरों या यूरो में फीस लें जिससे विदेशी शिक्षा के पीछे पागल मध्यवर्गीय लोग बैंकों और कर्जदारों के पीछे भागंेगे ताकि वे शिक्षण शुल्क अदा कर सकें। संप्रग सरकार यहीं नहीं रूकती। अब अधिकृत प्रामाणिकता देने वाली एजेंसियों को देश में कार्य करने का अधिकार होगा, देशी और विदेशी दोनों। वे सारे देश में घूमकर निजी शिक्षण संस्थाओं को अंकित करेंगे - एक से पांच ‘तारे’ देकर। इस प्रकार विदेशी शिक्षण संस्थाएं और तब विदेशी प्रामाणिकता प्रदान करने वाली एजेंसियां हमारी संस्थाओं का मूल्यांकन करेंगी। हमारे देश में पहले ही एन.ए.ए.सी अर्थात राष्ट्रीय आकलन और प्रामाणिकता परिषद है। इसे यूजीसी ने सर्वोत्तम और प्रामाणिक संस्था के रूप में विकसित किया है। यह बंगलौर में है और इसकी देखरेख गोवर्धन महंता और प्र्रो. एच.ए.रंगनाथ सरीखे उच्च कोटि के विद्वान कर रहे हैं। फिर भी सरकार ने विदेशी संस्थाओं के लिए द्वार खोल दिये हैं।हमारे देश में वकीलों के पास अब बड़ा काम रहेगा। अब सरकार एक और बिल ला रही है। इसमें कैपिटेशन फीस पर रोक लगाने की बात की जा रही है। लेकिन वास्तव में अध्यापकों पर तकनीकी, मेडिकल संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में अनियमितताओं पर रोक लगाने के नाम पर अंकुश लगाए जाएंगे। इसके पास होने के बाद पुलिस बार-बार किसी न किसी बहाने परिसरों में जाया करेगी। सुविधाएं न होने या अध्यापकों की वास्तविक/अवास्तविक गलतियों के नाम पर पुलिस को छूट मिल जायेगी। बिल में 25 किस्म के उल्लंघनों का जिक्र है। बिल का उल्लंघन करने पर केन्द्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकार छीनते हुए शिक्षकों को सीधे 50 लाख रूपयों का दंड या 10 वर्षों तक की सजा दे सकती है! मौका मिलने पर हमारी पुलिस भारतीय दंड संहिता की धारा 420 तथा अन्य धाराएं भी लगा सकती है। यह सब जालसाजी से संबंधित होगा अर्थात हमारे शिक्षक अपराधी कहलाएंगे।इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे देश में लोगों को उल्लू बनाने वाली संस्थाएं नहीं हैं। लेकिन संसद को इस बात का ध्यान देना होगा कि आपराधिक रूझान है या नहीं। आखिर शिक्षण संस्थाएं ज्ञानार्जन के केन्द्र हैं न कि मुकदमेंबाजी के।हमारा मानव संसाधन मंत्रालय और संप्रग सरकार को देश के संघीय ढांचे के अंतर्गत राज्य सरकारों के अधिकारों की जरा भी चिन्ता नहीं है। शिक्षा देने या भाषाई संस्कृति एवं एकता संबंधी उनके अपने कुछ अधिकार हैं। एक समय ऐसा आएगा जब राज्यों में केन्द्रीय सरकार के हस्तक्षेप या किसी मानव संसाधन मंत्री द्वारा शिक्षा क्षेत्र में किसी को दबाने, नियंत्रित करने, प्रमाणपत्र देने, अपराधी घोषित करने के दखल पर पछतावा करना पड़ेगा। विश्व व्यापार संगठन के पीछे चलने के कारण संप्रग-2 शिक्षा के बाजारीकरण और निजीकरण की परिस्थितियां पैदा कर रही है। ये ‘विशेष शिक्षा क्षेत्र’ अलग किस्म के ‘सेज’ होंगे। बिना शक इससे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ेगी, भेदभाव बढ़ेगा, वह भी एक ऐसे देश में जहां शिक्षा गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी में विभाजन का मुख्य प्रेरक है।
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