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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बुरे समय में नई शुरूआत का स्वप्न

पुस्तक समीक्षा: उपन्यास बरखारचाई - लेखक: असगर वज़ाहत

बहुमुखी प्रतिभा के धनी असग़र वजाहत का ताजा उपन्यास बरखारचाई कई दूसरे कारणों के अतिरिक्त इस कारण भी महत्वपूर्ण है कि उम्मीदों के टूटने व स्वप्न भंग के दौर में उम्मीद एक चिर यथार्थ के समान उसमें उपस्थित है। उम्मीद एक लौ की तरह उसमें से फूटती है। ऐसे समय में जबकि कथा साहित्य में बहुत कुछ बदल गया है, भाषा, टेक्निक, विषय चयन की पद्धति तथा उसकी प्रस्तुति का अंदाज, पक्षधरताओं की भंगिमाएं। तक कुछ रिवायती अंदाज में नये विवेक के साथ पुरानी पक्षधरता को दोहराना षण्ड्यंत्र पूर्वक हरा दिये गये उपेक्षित दमित जन की ओर जाने की शुरूआत की जरूरत का रेखांकित होना अपने आप में बड़ी घटना है। अवाम की ओर जाते हुए उपन्यास का नायक साजिद समझ रहा है कि उधार ली गई शब्दावली और बाहरी उपकरणों पर अत्याधिक भरोसा उसकी असफलता का बड़ा कारण है। यह उसकी मात्र व्यक्तिगत नहीं बल्कि एक सोच एक विचार की असफलता है।

यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि साजिद अप्रांसगिक मान ली गई वामपंथी चेतना व विचार धारा का प्रतिनिधि है। एक जरूरी लड़ाई को आकार देनेे की इच्छा के तहत ही अपने गांव व शहर में कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन खड़ा करने की कोशिश करता है। फलस्वरूप उपन्यास चेतना के होने और न होने के बीच लम्बे संघर्ष का साक्षी भी बनता है। जो लोग साहित्य में विचार धारा के हस्तक्षेप को मृत प्राय माने बैठे हैं, उन्हें इससे थोड़ी निराशा हो सकती है।

“बरखारचाई” एक तरह से असग़र वजाहत के पूर्व प्रकाशित उपन्यास “कैसी आगि लगाई” का अगला पड़ाव है। जिसका तीसरा खण्ड आना अभी शेष है फिर भी कथावस्तु की स्वायत्त कहीं आहत नहीं होती। उपन्यास का ताना बाना विभिन्न घटना-चक्रों से बुना गया है, जिनका प्रतिनिधित्व अलग-अलग पात्र करते हैं जैसे कि शकील, उसका बेटा कमाल, रावत, निगम, नवीन जोशी, जावेद कमाल, अहमद, अनुराधा इत्यादिः-

साजिद जिसमें कई बार असग़र वजाहत की झलक दिख जाती है (कि वह भी विज्ञान के स्नातक हैं, के.पी.0 सिंह उन्हें, हिन्दी तथा साहित्य की आरे लाये) विज्ञान का स्नातक है, लेेकिन तृतीय श्रेणी में ए.एम.यू. से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद जब दिल्ली में नौकरी प्राप्त कर पाने में असफल होता है तो वह अपने पैतृक गांव लौट कर खेती करने का विचार बनाता है। व्यवस्था द्वारा अपमानित होने का भाव उसे भीतर-भीतर सालता है। गांव के जीवन में रमने की कोशिश करता है और खेती किसानी की चुनौतियों को स्वीकार करता है। इस बहाने ग्रामीण जीवन के कई उत्तेजक, चाक्षुष और डरावने चित्र उभरते हैं। विपरीत हालत कैसे खेती किसानी करने वालों का हौसला तोड़ते हैं कैसे पूंजी तथा बाहुबल का गठजोड़ जातिवादी-सामंती शक्तियों का प्रभुत्व खेती करने के नये संकल्पियों के लिए हताशा और घाटे का वातावरण बनाता है, उपन्यास पढ़कर जाना जा सकता है। एक जीवन जो अभावों व असुविधाओं की गहरी जकड़न में है। लेकिन जहां एक खास तरह की स्वच्छन्दता भी है। रूढ़ियों और परम्पराओं में जकड़े इस जीवन में सेक्स कर्म का एक अलग बहुत मादक आस्वाद है। साजिद नदी में डुबकी लगाने जैसे अंदाज में जिसके मजे लेता है। कभी सल्लो से कभी बिंदेसरी से। जहां उसे सेक्स सम्बन्धों का एक जरूरी शब्द “चिन्हारी” का ज्ञान होता है।

“मान लेव रात हो... हमारे पास आओ... तो चिन्हारी देख के समझे न कि तुम हो” रात के समय इसे ही उपन्यास में जाति बिरादरी का बदल जाना कहा गया है।

हाड़ तोड़ मेहनत खुली गांठ पैसा खर्च करने के बावजूद लोग कहां हार रहे हैं उपन्यासकार इस रहस्य को पाने की कोशिश करता है। उसकी चिंता है आखिर क्यों एकाधिकार वादीताना शाही, तानाशाही (सामंतवाद) व विदेशी गुलामी से लोकतंत्र की ओर प्रस्थान के बावजूद कई सारे बदलावों के बाद भी भारतीय जन के बड़े हिस्से के जीवन में बुनियादी तब्दीलियां संभव नहीं हो पा रही है। प्रशन यह भी है कि लोकतंत्र की भीतरी खाइयां किस तरह का संकट पैदा कर रही है। उपन्यासकार की पैनी नजर स्थितियों की भीतरी तहों तक जाती है।

उपन्यास का फलक बहुत व्यापक है। भारतीय जीवन के वर्तमान की विविध परिधियों में जाने की बेचैनी इसमें दिखती है। यानी गांव से शहर तक का जीवन। शहर भी दिल्ली जैसा जो अपने आप में कई शहर छिपाये है। जहां लोकतंत्र की सीमाएं बनती और बिगड़ती हैं। जहां के फैसलों पर नागरिकों की खुशहाली और बदहाली निर्भर करती है। उस दिल्ली में जीवन की कितनी गतियां है। कितने रूप हैं। भयानक चकाचौंध वैसा ही अंधेरा, एक ओर सम्पन्नता की अट्टालिकाएं दूसरी ओर सागर की लहरों सा उछाल मारता भ्रष्टाचार जिसने समूचे सिस्टम को ही औंधे मुहं गिरा दिया है। अपराध और राजनीति के सम्बन्धों की नित नई ऊंचाइयां, कोढ़ में खाज सा जातिवाद उसके सम्मुख भारतीय राजनीति का समर्पण। न्याय व्यवस्था, शिक्षा सब पर उपन्यासकार की गहरी नजर है। सभी जगह कमजोर आदमी को
अधिक कमजोर करने के उपक्रम हैं। लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में जन संचार माध्यमों की पतनशीलता उनका मुनाफाखोर ताकतों का दलाल बनतें जाना। बुद्धिजीवियों का कैरियरोन्मुखी अवसरवाद तथा चारों ओर व्याप्त होती वैचारिक गिरावट, नैतिक मूल्यों की पराजय, पूंजी की सत्ता का लगातार मजबूत होते जाना। उपन्यासकार का व्यापक जीवनानुभव नैरेटर साजिद के बहुत काम आता है, वह इस जीवन के विविध रोमांचक और उदास करने वाले चित्र दिखाता है। प्रतिष्ठित पत्र “दनेशन” में नौकरी मिल जाने के बाद गांव में किये गये अपने प्रयासों से निराश साजिद दिल्ली चला आता है। उसी दिल्ली में जिस पर उसने कभी न थूकने का संकल्प लिया था। अखबार में नौकरी करने तथा काफी हाउस में बैठने की लत के कारण वह कई दुनियाओं को बहुत करीब से देखने का अवसर प्राप्त करता है, नित नये अनुभव उसकी दृष्टिगत पौढ़ता को सघन बनाते चलते हैं। इसी दिल्ली के व्हाईट हाउस तक पहुंचने के लिए शकील कैसे-कैसे हथकण्डे अपनाता है, जिलाध्यक्ष से केन्द्रीय मंत्री की हैसियत तक पहुंचे शकील पर उसी का बेटा उसकी सत्ता को हथियाने के लोभ में जान लेवा हमला करवाता है, पर्वतीय क्षेत्र से दिल्ली आये रावत के पिता को एक दिन जंगली भेड़िये जिन्दा खा गये थे, रावत को शहर के जातिवादी भेड़िये खा जाते हैं,.... इसी दिल्ली में साजिद को अपने मीनिंग लेस होने का बोध होता है।

“कभी-कभी अपने अर्थहीन होने का दौरा पड़ जाता है लगता है मेरा होने या न होने का कोई मतलब नहीं मैं पूरी तरह मीनिंग लेस हूं।”

इसी दिल्ली में ऐसे बहुत लोग हैं जो अपने तरीके से अपने आस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, ऐसे भी बहुत लोग हैं जो दूसरों का अस्तित्व समाप्त करने की मुहिम में लगे हुए हैं। साजिद के वे मित्र हैं जिन्होंने मूल्यों पर अवसर को प्राथमिकता दीं, पश्चाताप उनकी नियति बनी। सिंद्धातवादी लेबर कमिश्नर विनय टण्डन हैं, जिन्होंने उसके आदिवासी प्रोजेक्ट में बहुत मदद की लेकिन जहां उसकी लन्दन वासी पत्नी “नूरी” बहुत दिन नहीं रह पाती। उस आलीशान बंगले में भी जो उसके पिता ने अपने दामाद को उपहार में दिया है। उसी दिल्ली में एक कॉफी हाउस था, जो सोचनें वालों को अपने घर जैसा लगता था। “कॉफी हाउस के अन्दर आते ही लगता है जैसे घर में आ गये हांे” कॉफी हाउस का अपना एक लोक हैं, जहां अन्य के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाईमर का. जोगेश्वर को देखा जा सकता है जिन्होंने मूवमेंट के लिए सब कुछ वार दिया लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी। देश की राजधानी के बहु आयामी वृतांत के साथ ही छोटे शहरों की भी पीड़ा है, जिसके विवरण अवसाद को अधिक गहरा करते हैं। छोटा शहर, जहां उसके वाल्दैन और बचपन के साथी रहते है, जो उसके अन्दर हर क्षण सांस लेता है। उपन्यास के वे हिस्से खासे महत्वपूर्ण और विचलित करने वाले हैं जिसमें आदिवासियों की व्यथा को शब्द बद्ध करने का प्रयास हुआ है। गहरी संवेदनात्मकता से उकेरे गये हैं ये चित्र। इस पूरी स्थिति पर साजिद “दनेशन” के लिए एक रिपोर्ट तैयार करता है, जिसके प्रकाशित होते ही कोहराम मच जाता है, मैनेजमेंट उससे जवाब तलब करती है, उसने इण्डस्ट्री को टारगेट क्यों किया। व्यथित साजिद के कानों में शकील के शब्द गूंजते हैं “आखिर अखबार का मालिक भी इण्डस्ट्रीयलिस्ट है, पार्यलयामेन्ट में इनके कितने लोग हैं....”। (पृ. 95)

“एडीटर इनचीफ विस्तार से बता रहे थे कि अब अखबार का वह रोल नहीं रह गया है जो तीस साल पहले हुआ करता था। अब अखबार भी एक प्रोडेक्ट है और उसे खरीदने वाले पाठक नहीं बल्कि बायर हैं....” (पृ. 163)

यही वह क्षण है जब पराजय का भाव साजिद को अपनी चपेट में लेता प्रतीक होता है।

“देखो अकेले आदमी के बोलने और झगड़ने से क्या होगा। थोड़ा चीजों को समझने की कोशिश करते हैं, मैंने जिन्दगीभर रूरल इण्डिया की रिर्पोर्टिंग की। चार किताबें हैं, अवार्ड्स हैं लेकिन आज जब किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं तो मेरा अखबार मुझसे यह नहीं कहता कि मैं उन इलाकों का दौरा करूं और लिखंूः” (पृ. 163)

लेकिन इसकी परिणति आधुनिकतावादी आत्मोन्मुखता में नहीं बल्कि इस आत्म विश्लेषण में होती है-

“...सवाल यह है कि मैं ऐसा क्या करूं जो मेरे लिए और दूसरे लोगों के लिए छोटे बेसहारा लोगों के लिए अच्छा हो... सार्थकता को तलाश करने की कोशिश न की तो शायद अपने को क्षमा नहीं कर पाऊंगां” (पृ. 224)

सार्थकता की यह तलाश ही उसे एक बार फिर गांव की ओर ले जाती है इस बार उसका वहां जाना नौकरी के विकल्प के तौर पर नहीं बल्कि एक संवेदनात्मक वैचारिक उद्देश्य लिये हुए है, जो उसके लिए एक शुरूआत की तरह है-

“यहीं से शुरूआत होती है... और इसी शुरूआत की जरूरत है... बाकी चीजें तो बाद की हैं... केवल जाना और देखना... देखना बहुत बड़ी चीज है।”

दरअसल बरखारचाई को घटनाओं स्थितियों विवरणों तथा पात्रों के जरिये मौजूदा जीवन को समझने और उसके वास्तविक संकट को उद्घाटित करने की गंभीर कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। जिसमें यथार्थ की कई पर्तें हैं, लेकिन केन्द्रीय सच तो एक ही है। राजनीति, अपराध एवम् लूटवादी मुनाफाखोर शक्तियों की निर्लज सांठ गांठ के कारण सत्ता का मजबूत होता जन विरोधी चरित्र तथा इस भयावह यथार्थ के प्रति गहरे तक विचलित करने वाला सघन मौन।

उपन्यास को असाधारण घटना न मानते हुए भी कहा जा सकता है कि जीवन में गहरे पैठे तथा निश्चित वैचारिक दृष्टिकोण के बिना ऐसा उपन्यास नहीं लिखा जा सकता। प्रवाहमयी भाषा असगर वजाहत की बड़ी पूंजी है, जिस पर उर्दू का प्रभाव साफ दिख जाता है, चरित्रों से गहरी पहचान और उनका स्वाभाविक विकास तथा अलग दिखती विविध घटनाओं के बीच आन्तरिक सूत्रबद्धता कथानक को चुस्त बनाती है। स्त्री पात्रों के प्रति उपन्यासकार का रवैया अवश्य चौंकाता है। कथ्य में ज्यादातर स्त्रियां देह की तरह प्रवेश करती हैं, वो अपने साथ अपने दुख भी लाती हैं लेकिन शेष रहती है देह की तरह। साजिद जिनसे मन चाहा सम्बन्ध बनाता है। सल्लो हो, बिन्देसरी हो या अनुराधा और सुप्रिया। इनके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते हुए उसेे तनिक भी हिचकिचाहट क्यों नहीं होती। आखिर वह पारीस्थितियों का लाभ ही तो उठाता है। यह प्रश्न इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि साजिद निश्चित सोच वाला व्यक्ति है। यकीनन उपन्यास में ऐसी भी स्त्रियां हैं जो पुरुषवादी प्रभुत्व को चुनौती देती हैं लेकिन शेष तो इस प्रभुत्व की चपेट में हैं। बहरहाल गंगाजमुनी भाषा में रचे गये बहुत जीवन्त गद्य, यथार्थ के चित्रण में सामाजिक आलोचना की धार, उम्मीद के बचे रह जाने के विश्वास, बहुरंगी चरित्रों, वर्तमान समय के कुछ जरूरी दस्तावेजी विवरणों तथा बेहतर की तलाश में वैचारिकता के हस्तक्षेप की प्रभावपूर्ण अनुभूतिपरक प्रस्तुति के कारण यह उपन्यास पाठकों को आकृष्ट करेगा।

- शकील सिद्दीकी

1 comments:

बेनामी ने कहा…

Nice.

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