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गुरुवार, 30 सितंबर 2010
आदिवासी स्वशासन के लिये समग्र एजेण्डा - शांति अभी, न्याय अभी, अनुपालन अभी
“आदिवासियों का संकट और समाधान” विषय पर अखिल भारतीय आदिवासी महासभा द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में प्रस्तुत आधार पत्र:-
छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में विकास की समस्याओं पर आयोजित इस सेमिनार में हम छत्तीसगढ़ की विशिष्ट समस्याओं पर गहराई से चर्चा करना चाहेंगे। किन्तु छत्तीसगढ़ के साथ अन्य आदिवासी बहुलता वाले राज्यों में समस्याएं एक जैसी हैं। इसलिए हमें समग्र आदिवासी आन्दोलन निर्मित करने के लिए विचार करना होगा।
देश का आदिवासी समाज अपने लंबे इतिहास में सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। कई प्रजातियों के मामले में यह ‘इतिहास का अंत’ साबित हो सकता है। यही नहीं, अगर यही हालत बनी रही तो विश्वव्यापी साम्राज्यवादी- पूंजीवादी हल्ले के सामने ‘ग्रामीण भारत’ भी बहुत दिनों तक नहीं टिक सकेगा। ग्रामीण भारत पर इस बढ़ते दबाव के चलते आदिवासी संकट और भी तेज होना समय की बात है। इसलिये हमें ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ के इस निर्णायक दौर में आदिवासी इलाकों पर अपना ध्यान ‘आज और अभी’ केन्द्रित करना होगा।
आजादी के बाद की विडंबना -
आदिवासियों और राज्य के बीच वर्चस्व का संघर्ष अंग्रेजी राज के समय से ही शुरू हो गया था। ताना भगत उसके सबसे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। आजादी के बाद उसमें कुछ ठहराव आया। परन्तु 1960 के दशक बाद वह फिर तीखा होने लगा। वह धीरे-धीरे अब इतना व्यापक हो गया है कि आज शासक वर्ग उसे ‘आन्तरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा’ मान रहा है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि उसी शासक वर्ग ने उनके संरक्षण के लिये औपचारिक रूप से संविधानिक प्रावधानों, कानूनों और नीतियों का अंबार जैसा लगा लिया है। इस नीतिगत ‘व्यवहार संपदा’ को दुनिया में कहीं भी ‘कानून के राज्य’ के प्रति आस्थावान देश के रूप में गर्व के साथ प्रदर्शित किया जा सकता है। परन्तु वहीं दूसरी ओर हमारा महान भारत देश ‘वायदा खिलाफी’ के ओलम्पिक आयोजन में ‘स्वर्ण पदक’ भी आनन-फानन जीत सकता है।
आज तक की कार्रवाई -
हमारे देश के अनेक संवेदनशील और संकल्पित लोगों ने आदिवासी इलाकों में अनगिनत मुद्दों में हस्तक्षेप किया है। उनसे लोगों को राहत भी मिली है। यही नहीं, कई बड़ी उपलब्धियां भी है जिन पर हमें गर्व है। तथापि अभी तक ये लाभ एकाकी और क्षणिक साबित हुये हैं। जागतिक साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों के बढ़ते दबाव के चलते आदिवासी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था लगातार कमजोर होती जा रही है। इसी के चलते कई भोले-भाले आदिवासी समाज विनाश के कगार पर पहुंचते जा रहे हैं। इस विनाश लीला से तब तक बचना असंभव है जब तक ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ वाली स्थिति के गहराई से अहसास के साथ ‘समग्र आदिवासी आन्दोलन’ छेड़ा जाय। इस आन्दोलन में वायदा खिलाफी सहित व्यवस्था के सभी जन-विरोधी पहलुओं को शामिल किया जाय। उसी हालत में, और सिर्फ उसी हालत में राज्य को अपनी गलतियों और कु-कृत्यों को मंजूर करने के लिये मजबूर किया जा सकता है। उसी के साथ-साथ समय-समय पर किये गये ‘वायदों’ को नये संकल्प के साथ पूरा करना सुनिश्चित किया जा सकता है।
मुझे इस बात का पूरा अहसास है कि साम्राज्यवादी पूंजीवादी दुर्दान्त हमले के आज के दौर में मेरे इस प्रस्ताव को आदर्शवादी कह कर खारिज किया जा सकता है। फिर भी आज की चुनौती का मुकाबला करने के लिये किसी भी संघर्ष का पहला कदम यही हो सकता है कि उसके भुक्त-भोगी उस चुनौती के सही रूप को पहिचाने और उसका एक जुट होकर मुकाबला करने का अवसर पैदा करें। मुझे विश्वास है कि वायदा खिलाफी, संकटकालीन एजेंडा और ‘समग्र आदिवासी एजेण्डा’ की यह प्रस्तुति इसके लिये उपयुक्त अवसर प्रस्तुत करेगी।
आइये अब हम वायदा खिलाफी का विन्दुसार जायजा ले कर संकटकालीन एजेंडे पर नजर डालते हुए समग्र आदिवासी एजेण्डे पर विचार विमर्ष के लिए आगे बढे़।
1. वायदा खिलाफी: आदिवासियों केा दिये गये वायदे बार-बार टूटते रहे!
- सन् 1950 में भारतीय संविधान लागू हो गया परंतु आदिवासी परंपरा के लिये कानून में स्थान नहीं बनाया गया जिसमें ‘आदिवासी समाज’ कानून की नजर में ‘अपराधी’ को गया।
- ‘अनुसूचित क्षेत्र’ के रक्षा-कवच को पहले तो सन् 1960 में ‘जरूरी नहीं’ मान लिया गया। उसके बाद 1975 में उसकी पुनर्प्रतिष्ठा हुई। परन्तु 1980 के बाद उसे फिर भुला दिया गया।
- अनुच्छेद 275 (1) के परंतुक में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन को सुयोग्य बनाने के लिये जो संविधान संकल्प है, उन पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।
- ‘सजा के बतौर नियुक्ति’ के चलन के बने रहने से आदिवासी इलाकों में शंाति और सुशासन के लिये राज्य का संकल्प एक फरेब है।
- आदिम जन जातियों की हालत बद से बदतर होती गई है।
- साहूकारों और जमीन हड़पने वालों के नियंत्रण के लिये कानून और नीतियों के सही अमल के बिना आदिवासी इलाकों में उनका भारी दबदबा है।
- बंधुआ मजदूरी के खिलाफ 1975 में प्रभावी पहल के बाद आज हालत और भी गंभीर हैं।
- शराब के व्यवसाय से राज्य द्वारा आदिवासियों का सीधा शोषण 1974 की आबकारी नीति के चलते समाप्त हुआ। वही शोषण आज और भी बुरी तरह हावी है।
- लघुवनोपज पर, जो आदिवासियों की आजीविका का विशेष आधार है, समाज की मालिकी की तीन बार (1976, 1996 और 2006) घोषणाओं के बावजूद, व्यवहार में आज भी उनकी मालिकी सपने जैसी है।
- पेसा की संवैधानिक व्यवस्था, जिसमें स्व-शासन, स्वयं-सशक्तीकरण और संसाधनों पर स्वाधिकार की मूलभूत व्यवस्थाऐं हैं, आज तक सही तौर से लागू नहीं हुई हैं।
- उन कंपनियों ने, जो आदिवासियों के नैसर्गिक संसाधनों को हड़पने के लिये शिकारी की तरह आमादा हैं, कई इलाकों को तहस-नहस कर दिया है और उसे जारी रखने के लिये भी सरकारी ‘इकरारनामों’ की बाढ़ जैसी आ गई है। इसमें भूरिया समिति व उच्चतम न्यायालय के समता के मामले में निर्णय को नजर-अन्दाज कर दिया गया है।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 में जमीन, लघुवनोपज और ग्राम सभा
संबंधी व्यापक अधिकारों की व्यवस्था होने के बावजूद उनका अमल न के बराबर है।
- हर बच्चे के अपने मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा के मौलिक अधिकार की अनदेखी होने से कई आदिवासी समाजों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।
- दण्डकारण्य विकास प्राधिकरण (1952) का मूल उद्देश्य आदिवासी- केन्द्रित क्षेत्रीय विकास था परंतु उसे शुरू आती दौर में ही भुला दिया गया।
2. संकटकालीन एजेंडा
- पेसा कानून के तहत जल-जंगल- जमीन और खनिज पर राज्य की प्रभुसत्ता की बजाय समाज की प्रभुसत्ता को स्थापित करना।
- सभी इकरारनामें (एम.ओ.यू.) तत्काल स्थगित हों। संसाधनों पर समाज के नैसर्गिक अधिकार में आस्था के साथ उन सबका पुनरावलोकन किया जाय।
- ग्राम सभाओं से परामर्श के उन सभी मामलों के निर्णयों का पुनरावलोकन कर खारिज किया जाय जहां हेरा-फेरी, जोर-जबरदस्ती या और किसी तरह का कोई गोलमाल हुआ हो।
- सजा के बतौर नियुक्तियों की समाप्ति, एक-रेखीय प्रशासनिक व्यवस्था और ‘पेसा’ की भावना के अनुरूप स्वशासी व्यवस्था सुनिश्चित हो।
- विकास खंडों, तालुक/तहसीलों या जिलों के सीमान्तों पर स्थित सभी आदिवासी इलाकों का प्रशासनिक पुनर्गठन हो।
- आज की घोर अराजकता के सही समाधान के लिये मैदानी हल्कों से लेकर सर्वोच्च स्तर तक स्पष्ट और खुले संवदेनशील व्यवस्था-तंत्र की स्थापना हो।
3. समग्र आदिवासी एजेण्डा: शांति अभी, न्याय अभी, अनुपालन अभी अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा के रूप में समाज द्वारा स्वयं सशक्तीकरण, संसाधनों पर समाज की प्रभुसत्ता और सामाजिक तथा व्यक्तिगत अधिकारों का प्रभावी संरक्षण ‘पेसा’ कानून के सार-तत्व हैं।
- ‘पेसा’ कानून के सभी प्रावधानों को आज और अभी स्वीकार किया जाय और भक्षक तत्वों को दूर किया जाय।
- आदिवासी उपयोजना में शामिल शेष आदिवासी इलाकों को तत्काल अनुसूचित किया जाये और उनके अलावा सभी राज्यों के अन्य आदिवासी इलाकों को एक साल में चिन्हित और अनुसूचित किया जाये।
- अपने कर्तव्यों के लिये ‘सक्षम’ ग्राम सभा सलाह तो किसी से भी कर सकती है परन्तु वह सरकारी नियमों के अधीन काम करने के लिये बाध्य नहीं है।
- अनुसूचित क्षेत्रों में समाज की प्रभुसत्ता के उसूल का पालन हो, जिसमें
संसाधनों के उपयोग पर आधारित उपक्रमों में समाज की मालिकी भी शामिल है।
- आबकारी नीति का पालन हो, संदिग्ध दायित्व खारिज हो, साहूकारी पर अंकुश लगे, बंधुआ व्यवस्था का सख्ती से निर्मूलन हो, अच्छा काम सम्मानित हो।
- पांचवी अनुसूची के तहत् ‘शांति और सुरक्षा’ के लिये संकल्पित पूरा प्रशासन ग्रामसभा के प्रति उत्तरदायी हो।
- सजा के बतौर नियुक्तियों की कुप्रथा समाप्त कर संघ सरकार अनुच्छेद 275 (1) के परंतुक के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन की वार्षिक समीक्षा कर उसे बेहतर बनाये।
- मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था तुरंत की जाय।
आर्थिक व्यवस्था पर प्रभावी अधिकार -
- ‘पेसा’ अधिनियम के तहत् सरकारी कार्यक्रमों सहित सभी आर्थिक
गतिविधियों की नियमित सामाजिक संपरीक्षा सुनिश्चित हो।
- लघु वनोपज पर मालिकी की व्यवस्था तुरंत प्रभावी हो, उसे इकट्ठा करनेवाले को पूरा-पूरा भाव मूल्य मिले, उसकी ढुलाई और अन्य व्यवसायिक खर्च सरकार वहन करे।
- हड़पी गई जमीनें वापिस हों, वनों पर ग्राम सभा के कानूनी अधिकारों पर अमल हो और वनीकरण में आदिवासियों को हिस्सेदार बनाया जाये।
- विलुप्त हो रही जनजातियों पर विशेष व्यक्तिगत ध्यान हो।
- विस्थापन नहीं होगा वरन् परियोजना की प्रकृति के अनुसार जैसे एकरेखीय, औद्योगिक या सिंचाई-बिजली, उनसे जुड़ी नई अर्थ-व्यवस्था में सम्मानपूर्ण स्थान सुनिश्चित हो।
एक श्रमिक के काम की हकदारी इस तरह तय की जाये जिससे ‘श्रमिक और उसके परिवार’ के लिये अच्छी जिन्दगी संभव हो।
आज सवाल है कि सरकार किसके साथ खड़ी है?
उधर आदिवासी के अधिकारों के मामले में माओवादी धीरे-धीरे उसके आगे निकल गये हैं। स्वाधिकार संपन्नता के बिना आदिवासी इलाकों के विकास की बात सिर्फ नौटंकी है।
पहली जीत
मेरा विश्वास है कि हमारी पहली जीत 24 जुलाई 2010 को सम्पन्न राष्ट्रीय विकास परिषद में हो गई है। उसके समापन सत्र में प्रधानमंत्री महोदय ने यह स्वीकार किया कि आदिवासी क्षेत्रों में ‘शांति और सुशासन’ की कुंजी ‘पेसा अधिनियम’ है। परंतु यहां पर मैं आगाह करना चाहूंगा कि अगर हम इस बावत सचेत नहीं रहे तो उनकी यह भंगिमा भी नौटंकी के प्रहसन जैसी हो जायेगी और ‘टूटे वायदों’ की आकाश गंगा में एक नई तारिका जैसी बन कर रह जायेगी।
आवाहन
आज आपकी इस सभा के माध्यम से मैं पूरे देश में सभी संवदेनशील मित्रों का आवाहन करना चाहूंगा कि आज तक के हर तरह के भेद भावों को भुला कर सच्चे अर्थाें में आदिवासी स्वशासन के इस अभियान में शामिल हों। यहां पर मैं पूरे विश्वास के साथ एक बात जोड़ना चाहूंगा कि आदिवासी इलाकों के संदर्भ में लोकतांत्रिक परंपरा की जो बुनियादी मान्यताएं ‘पेसा’ की संविधानिक व्यवस्था में उभरकर सामने आई है, वे सार्वभौम हैं। इसलिए आंदोलन देशव्यापी होना चाहिये। परंतु व्यवहारिक रणनीति के रूप में हमें इस संघर्ष की शुरूआत आदिवासी इलाकों में ही करना होगी जहां स्वशासन की परंपराए अभी भी जीवन्त और प्रभावी हैं।
आदिवासी इलाकों में आम लोग यदि एक बार साम्राज्यवादी ताकतों के सामने अपने ‘नैसर्गिक अधिकारों’ की पुनरस्थापना करने में सफल हो जाते हैं, तो वह विचार जंगल की आग की तरह तेजी से फैलेगा, उसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकेगी।
पहला राष्ट्रीय सम्मेलन
‘आदिवासी एजेंडा’ के बाबत हम साथियों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर प्रारंभिक बैठकंे सितम्बर महीने में कुछ क्षेत्रीय केन्द्रों पर करना चाहेंगे। मैं आपको यहां पर इस बात का ध्यान दिला दूं कि हमारे देश में कुल 9 राज्य ऐसे हैं जहां अनुसूचित क्षेत्र हैं। 6 राज्य और 2 संघीय क्षेत्र (यानि यूनियन टेरेटरी) ऐसे हैं जिनमें अनुसूचित जन जातियां तो हैं परन्तु अनुसूचित क्षेत्र नहीं हैं। उत्तर पूर्व के आदिवासी बहुल राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में आदिवासी बहुल इलाकों के लिये छठी अनुसूची की विशेष व्यवस्था है। उत्तर- पूर्व को छोड़ शेष राज्यों में प्रस्तावित क्षेत्रीय बैठकों के बाद हम अक्टूबर 2010 के अंत तक ‘आदिवासी एजेण्डा’ को पूरा करने के लिये कार्य-नीति तय करने के लिये एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करेंगे।
मुझे पूरा विश्वास है कि आज के सम्मेलन के सभी साथी हमारे इस आग्रह को स्वीकार करेंगे। मुुझे आपने अपनी बात रखने का अवसर दिया उसके लिये आप सबका और खास तौर से कामरेड चित्तरंजन बक्शी जी और मनीष कुन्जाम का आभारी हूं।
- ब्रह्मदेव शर्मा
छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में विकास की समस्याओं पर आयोजित इस सेमिनार में हम छत्तीसगढ़ की विशिष्ट समस्याओं पर गहराई से चर्चा करना चाहेंगे। किन्तु छत्तीसगढ़ के साथ अन्य आदिवासी बहुलता वाले राज्यों में समस्याएं एक जैसी हैं। इसलिए हमें समग्र आदिवासी आन्दोलन निर्मित करने के लिए विचार करना होगा।
देश का आदिवासी समाज अपने लंबे इतिहास में सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। कई प्रजातियों के मामले में यह ‘इतिहास का अंत’ साबित हो सकता है। यही नहीं, अगर यही हालत बनी रही तो विश्वव्यापी साम्राज्यवादी- पूंजीवादी हल्ले के सामने ‘ग्रामीण भारत’ भी बहुत दिनों तक नहीं टिक सकेगा। ग्रामीण भारत पर इस बढ़ते दबाव के चलते आदिवासी संकट और भी तेज होना समय की बात है। इसलिये हमें ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ के इस निर्णायक दौर में आदिवासी इलाकों पर अपना ध्यान ‘आज और अभी’ केन्द्रित करना होगा।
आजादी के बाद की विडंबना -
आदिवासियों और राज्य के बीच वर्चस्व का संघर्ष अंग्रेजी राज के समय से ही शुरू हो गया था। ताना भगत उसके सबसे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। आजादी के बाद उसमें कुछ ठहराव आया। परन्तु 1960 के दशक बाद वह फिर तीखा होने लगा। वह धीरे-धीरे अब इतना व्यापक हो गया है कि आज शासक वर्ग उसे ‘आन्तरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा’ मान रहा है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि उसी शासक वर्ग ने उनके संरक्षण के लिये औपचारिक रूप से संविधानिक प्रावधानों, कानूनों और नीतियों का अंबार जैसा लगा लिया है। इस नीतिगत ‘व्यवहार संपदा’ को दुनिया में कहीं भी ‘कानून के राज्य’ के प्रति आस्थावान देश के रूप में गर्व के साथ प्रदर्शित किया जा सकता है। परन्तु वहीं दूसरी ओर हमारा महान भारत देश ‘वायदा खिलाफी’ के ओलम्पिक आयोजन में ‘स्वर्ण पदक’ भी आनन-फानन जीत सकता है।
आज तक की कार्रवाई -
हमारे देश के अनेक संवेदनशील और संकल्पित लोगों ने आदिवासी इलाकों में अनगिनत मुद्दों में हस्तक्षेप किया है। उनसे लोगों को राहत भी मिली है। यही नहीं, कई बड़ी उपलब्धियां भी है जिन पर हमें गर्व है। तथापि अभी तक ये लाभ एकाकी और क्षणिक साबित हुये हैं। जागतिक साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों के बढ़ते दबाव के चलते आदिवासी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था लगातार कमजोर होती जा रही है। इसी के चलते कई भोले-भाले आदिवासी समाज विनाश के कगार पर पहुंचते जा रहे हैं। इस विनाश लीला से तब तक बचना असंभव है जब तक ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ वाली स्थिति के गहराई से अहसास के साथ ‘समग्र आदिवासी आन्दोलन’ छेड़ा जाय। इस आन्दोलन में वायदा खिलाफी सहित व्यवस्था के सभी जन-विरोधी पहलुओं को शामिल किया जाय। उसी हालत में, और सिर्फ उसी हालत में राज्य को अपनी गलतियों और कु-कृत्यों को मंजूर करने के लिये मजबूर किया जा सकता है। उसी के साथ-साथ समय-समय पर किये गये ‘वायदों’ को नये संकल्प के साथ पूरा करना सुनिश्चित किया जा सकता है।
मुझे इस बात का पूरा अहसास है कि साम्राज्यवादी पूंजीवादी दुर्दान्त हमले के आज के दौर में मेरे इस प्रस्ताव को आदर्शवादी कह कर खारिज किया जा सकता है। फिर भी आज की चुनौती का मुकाबला करने के लिये किसी भी संघर्ष का पहला कदम यही हो सकता है कि उसके भुक्त-भोगी उस चुनौती के सही रूप को पहिचाने और उसका एक जुट होकर मुकाबला करने का अवसर पैदा करें। मुझे विश्वास है कि वायदा खिलाफी, संकटकालीन एजेंडा और ‘समग्र आदिवासी एजेण्डा’ की यह प्रस्तुति इसके लिये उपयुक्त अवसर प्रस्तुत करेगी।
आइये अब हम वायदा खिलाफी का विन्दुसार जायजा ले कर संकटकालीन एजेंडे पर नजर डालते हुए समग्र आदिवासी एजेण्डे पर विचार विमर्ष के लिए आगे बढे़।
1. वायदा खिलाफी: आदिवासियों केा दिये गये वायदे बार-बार टूटते रहे!
- सन् 1950 में भारतीय संविधान लागू हो गया परंतु आदिवासी परंपरा के लिये कानून में स्थान नहीं बनाया गया जिसमें ‘आदिवासी समाज’ कानून की नजर में ‘अपराधी’ को गया।
- ‘अनुसूचित क्षेत्र’ के रक्षा-कवच को पहले तो सन् 1960 में ‘जरूरी नहीं’ मान लिया गया। उसके बाद 1975 में उसकी पुनर्प्रतिष्ठा हुई। परन्तु 1980 के बाद उसे फिर भुला दिया गया।
- अनुच्छेद 275 (1) के परंतुक में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन को सुयोग्य बनाने के लिये जो संविधान संकल्प है, उन पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।
- ‘सजा के बतौर नियुक्ति’ के चलन के बने रहने से आदिवासी इलाकों में शंाति और सुशासन के लिये राज्य का संकल्प एक फरेब है।
- आदिम जन जातियों की हालत बद से बदतर होती गई है।
- साहूकारों और जमीन हड़पने वालों के नियंत्रण के लिये कानून और नीतियों के सही अमल के बिना आदिवासी इलाकों में उनका भारी दबदबा है।
- बंधुआ मजदूरी के खिलाफ 1975 में प्रभावी पहल के बाद आज हालत और भी गंभीर हैं।
- शराब के व्यवसाय से राज्य द्वारा आदिवासियों का सीधा शोषण 1974 की आबकारी नीति के चलते समाप्त हुआ। वही शोषण आज और भी बुरी तरह हावी है।
- लघुवनोपज पर, जो आदिवासियों की आजीविका का विशेष आधार है, समाज की मालिकी की तीन बार (1976, 1996 और 2006) घोषणाओं के बावजूद, व्यवहार में आज भी उनकी मालिकी सपने जैसी है।
- पेसा की संवैधानिक व्यवस्था, जिसमें स्व-शासन, स्वयं-सशक्तीकरण और संसाधनों पर स्वाधिकार की मूलभूत व्यवस्थाऐं हैं, आज तक सही तौर से लागू नहीं हुई हैं।
- उन कंपनियों ने, जो आदिवासियों के नैसर्गिक संसाधनों को हड़पने के लिये शिकारी की तरह आमादा हैं, कई इलाकों को तहस-नहस कर दिया है और उसे जारी रखने के लिये भी सरकारी ‘इकरारनामों’ की बाढ़ जैसी आ गई है। इसमें भूरिया समिति व उच्चतम न्यायालय के समता के मामले में निर्णय को नजर-अन्दाज कर दिया गया है।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 में जमीन, लघुवनोपज और ग्राम सभा
संबंधी व्यापक अधिकारों की व्यवस्था होने के बावजूद उनका अमल न के बराबर है।
- हर बच्चे के अपने मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा के मौलिक अधिकार की अनदेखी होने से कई आदिवासी समाजों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।
- दण्डकारण्य विकास प्राधिकरण (1952) का मूल उद्देश्य आदिवासी- केन्द्रित क्षेत्रीय विकास था परंतु उसे शुरू आती दौर में ही भुला दिया गया।
2. संकटकालीन एजेंडा
- पेसा कानून के तहत जल-जंगल- जमीन और खनिज पर राज्य की प्रभुसत्ता की बजाय समाज की प्रभुसत्ता को स्थापित करना।
- सभी इकरारनामें (एम.ओ.यू.) तत्काल स्थगित हों। संसाधनों पर समाज के नैसर्गिक अधिकार में आस्था के साथ उन सबका पुनरावलोकन किया जाय।
- ग्राम सभाओं से परामर्श के उन सभी मामलों के निर्णयों का पुनरावलोकन कर खारिज किया जाय जहां हेरा-फेरी, जोर-जबरदस्ती या और किसी तरह का कोई गोलमाल हुआ हो।
- सजा के बतौर नियुक्तियों की समाप्ति, एक-रेखीय प्रशासनिक व्यवस्था और ‘पेसा’ की भावना के अनुरूप स्वशासी व्यवस्था सुनिश्चित हो।
- विकास खंडों, तालुक/तहसीलों या जिलों के सीमान्तों पर स्थित सभी आदिवासी इलाकों का प्रशासनिक पुनर्गठन हो।
- आज की घोर अराजकता के सही समाधान के लिये मैदानी हल्कों से लेकर सर्वोच्च स्तर तक स्पष्ट और खुले संवदेनशील व्यवस्था-तंत्र की स्थापना हो।
3. समग्र आदिवासी एजेण्डा: शांति अभी, न्याय अभी, अनुपालन अभी अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा के रूप में समाज द्वारा स्वयं सशक्तीकरण, संसाधनों पर समाज की प्रभुसत्ता और सामाजिक तथा व्यक्तिगत अधिकारों का प्रभावी संरक्षण ‘पेसा’ कानून के सार-तत्व हैं।
- ‘पेसा’ कानून के सभी प्रावधानों को आज और अभी स्वीकार किया जाय और भक्षक तत्वों को दूर किया जाय।
- आदिवासी उपयोजना में शामिल शेष आदिवासी इलाकों को तत्काल अनुसूचित किया जाये और उनके अलावा सभी राज्यों के अन्य आदिवासी इलाकों को एक साल में चिन्हित और अनुसूचित किया जाये।
- अपने कर्तव्यों के लिये ‘सक्षम’ ग्राम सभा सलाह तो किसी से भी कर सकती है परन्तु वह सरकारी नियमों के अधीन काम करने के लिये बाध्य नहीं है।
- अनुसूचित क्षेत्रों में समाज की प्रभुसत्ता के उसूल का पालन हो, जिसमें
संसाधनों के उपयोग पर आधारित उपक्रमों में समाज की मालिकी भी शामिल है।
- आबकारी नीति का पालन हो, संदिग्ध दायित्व खारिज हो, साहूकारी पर अंकुश लगे, बंधुआ व्यवस्था का सख्ती से निर्मूलन हो, अच्छा काम सम्मानित हो।
- पांचवी अनुसूची के तहत् ‘शांति और सुरक्षा’ के लिये संकल्पित पूरा प्रशासन ग्रामसभा के प्रति उत्तरदायी हो।
- सजा के बतौर नियुक्तियों की कुप्रथा समाप्त कर संघ सरकार अनुच्छेद 275 (1) के परंतुक के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन की वार्षिक समीक्षा कर उसे बेहतर बनाये।
- मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था तुरंत की जाय।
आर्थिक व्यवस्था पर प्रभावी अधिकार -
- ‘पेसा’ अधिनियम के तहत् सरकारी कार्यक्रमों सहित सभी आर्थिक
गतिविधियों की नियमित सामाजिक संपरीक्षा सुनिश्चित हो।
- लघु वनोपज पर मालिकी की व्यवस्था तुरंत प्रभावी हो, उसे इकट्ठा करनेवाले को पूरा-पूरा भाव मूल्य मिले, उसकी ढुलाई और अन्य व्यवसायिक खर्च सरकार वहन करे।
- हड़पी गई जमीनें वापिस हों, वनों पर ग्राम सभा के कानूनी अधिकारों पर अमल हो और वनीकरण में आदिवासियों को हिस्सेदार बनाया जाये।
- विलुप्त हो रही जनजातियों पर विशेष व्यक्तिगत ध्यान हो।
- विस्थापन नहीं होगा वरन् परियोजना की प्रकृति के अनुसार जैसे एकरेखीय, औद्योगिक या सिंचाई-बिजली, उनसे जुड़ी नई अर्थ-व्यवस्था में सम्मानपूर्ण स्थान सुनिश्चित हो।
एक श्रमिक के काम की हकदारी इस तरह तय की जाये जिससे ‘श्रमिक और उसके परिवार’ के लिये अच्छी जिन्दगी संभव हो।
आज सवाल है कि सरकार किसके साथ खड़ी है?
उधर आदिवासी के अधिकारों के मामले में माओवादी धीरे-धीरे उसके आगे निकल गये हैं। स्वाधिकार संपन्नता के बिना आदिवासी इलाकों के विकास की बात सिर्फ नौटंकी है।
पहली जीत
मेरा विश्वास है कि हमारी पहली जीत 24 जुलाई 2010 को सम्पन्न राष्ट्रीय विकास परिषद में हो गई है। उसके समापन सत्र में प्रधानमंत्री महोदय ने यह स्वीकार किया कि आदिवासी क्षेत्रों में ‘शांति और सुशासन’ की कुंजी ‘पेसा अधिनियम’ है। परंतु यहां पर मैं आगाह करना चाहूंगा कि अगर हम इस बावत सचेत नहीं रहे तो उनकी यह भंगिमा भी नौटंकी के प्रहसन जैसी हो जायेगी और ‘टूटे वायदों’ की आकाश गंगा में एक नई तारिका जैसी बन कर रह जायेगी।
आवाहन
आज आपकी इस सभा के माध्यम से मैं पूरे देश में सभी संवदेनशील मित्रों का आवाहन करना चाहूंगा कि आज तक के हर तरह के भेद भावों को भुला कर सच्चे अर्थाें में आदिवासी स्वशासन के इस अभियान में शामिल हों। यहां पर मैं पूरे विश्वास के साथ एक बात जोड़ना चाहूंगा कि आदिवासी इलाकों के संदर्भ में लोकतांत्रिक परंपरा की जो बुनियादी मान्यताएं ‘पेसा’ की संविधानिक व्यवस्था में उभरकर सामने आई है, वे सार्वभौम हैं। इसलिए आंदोलन देशव्यापी होना चाहिये। परंतु व्यवहारिक रणनीति के रूप में हमें इस संघर्ष की शुरूआत आदिवासी इलाकों में ही करना होगी जहां स्वशासन की परंपराए अभी भी जीवन्त और प्रभावी हैं।
आदिवासी इलाकों में आम लोग यदि एक बार साम्राज्यवादी ताकतों के सामने अपने ‘नैसर्गिक अधिकारों’ की पुनरस्थापना करने में सफल हो जाते हैं, तो वह विचार जंगल की आग की तरह तेजी से फैलेगा, उसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकेगी।
पहला राष्ट्रीय सम्मेलन
‘आदिवासी एजेंडा’ के बाबत हम साथियों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर प्रारंभिक बैठकंे सितम्बर महीने में कुछ क्षेत्रीय केन्द्रों पर करना चाहेंगे। मैं आपको यहां पर इस बात का ध्यान दिला दूं कि हमारे देश में कुल 9 राज्य ऐसे हैं जहां अनुसूचित क्षेत्र हैं। 6 राज्य और 2 संघीय क्षेत्र (यानि यूनियन टेरेटरी) ऐसे हैं जिनमें अनुसूचित जन जातियां तो हैं परन्तु अनुसूचित क्षेत्र नहीं हैं। उत्तर पूर्व के आदिवासी बहुल राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में आदिवासी बहुल इलाकों के लिये छठी अनुसूची की विशेष व्यवस्था है। उत्तर- पूर्व को छोड़ शेष राज्यों में प्रस्तावित क्षेत्रीय बैठकों के बाद हम अक्टूबर 2010 के अंत तक ‘आदिवासी एजेण्डा’ को पूरा करने के लिये कार्य-नीति तय करने के लिये एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करेंगे।
मुझे पूरा विश्वास है कि आज के सम्मेलन के सभी साथी हमारे इस आग्रह को स्वीकार करेंगे। मुुझे आपने अपनी बात रखने का अवसर दिया उसके लिये आप सबका और खास तौर से कामरेड चित्तरंजन बक्शी जी और मनीष कुन्जाम का आभारी हूं।
- ब्रह्मदेव शर्मा
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CUT IN PETROL-DIESEL PRICES TOO LATE, TOO LITTLE: CPI - *The National Secretariat of the Communist Party of India condemns the negligibly small cut in the price of petrol and diesel:* The National Secretariat of...6 वर्ष पहले
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No to NEP, Employment for All By C. Adhikesavan - *NEW DELHI:* The students and youth March to Parliament on November 22 has broken the myth of some of the critiques that the Left Parties and their mass or...8 वर्ष पहले
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रेल किराये में बढोत्तरी आम जनता पर हमला.: भाकपा - लखनऊ- 8 सितंबर, 2016 – भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने रेल मंत्रालय द्वारा कुछ ट्रेनों के किराये को बुकिंग के आधार पर बढाते चले जाने के कदम ...8 वर्ष पहले
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अखनूर बस हादसे के लिये उत्तर प्रदेश सरकार पूरी तरह जिम्मेदार: डा॰ गिरीश भाकपा नेता ने म्रतकों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की , घायलों क...
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REVERSE DEREGULATION OF FUEL PRICES The Congress led UPA II Government has totally failed to contain inflation and to cont...
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लखनऊ 3 सितम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं अन्य वामपंथी दलों द्वारा खाद्य सुरक्षा, महंगाई तथा भ्रष्टाचार के सवाल पर 12 सितम्बर को उत्तर...
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The three days session of the National Council of the Communist Party of India (CPI) concluded here on September 7, 2012. BKMU lead...
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प्रकाशनार्थ नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन को कुचलने की उत्तर प्रदेश और केन्द्र सरकार की दमनकारी कार्यवाहियों की वामपंथी दलों ने निंदा ...
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