भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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शनिवार, 29 सितंबर 2012

राजनीतिक विरोध की वास्तविकता

संप्रग-2 सरकार एक ऐसे भंवर में फंस गयी है जिससे वह निकल नहीं पा रही है। वह इस भंवर से जितना निकलने की कोशिश करती है वह ही अधिक वह उस भंवर में फंसती चली जा रही है। लोगों को याद होगा कि सन 1991 में देश का विदेशी मुद्रा भंडार इतना कम हो गया था कि तत्कालीन केन्द्रीय सरकार को सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा का इंतजाम करना पड़ा था। लोगों ने उस समय इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि ऐसी दुर्गति का कारण क्या था। चूंकि कारण जानने की कोशिश नहीं की गयी तो उस कारण के निदान की भी कोई कोशिश नहीं हुई।
विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है आवश्यक वस्तुओं के विदेशों से होने वाले निर्यात के लिए, विदेशों से प्राप्त ऋणों की अदायगी के लिए और विदेशी निवेश पर प्राप्त लाभांश की वापसी के लिये। विदेशी मुद्रा की आय का मुख्य जरिया होता है निर्यात से प्राप्त आय। इसके अतिरिक्त जिन श्रोतों से विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है वे हैं विदेशों से प्राप्त ऋण, अनुदान और निवेश के लिए आई राशि। इन दोनों के मध्य संतुलन को भुगतान संतुलन या ‘बैलेन्स आफ पेमेन्ट’ के नाम से जाना जाता है। किसी भी देश के लिए विदेशी मुद्रा का संतुलन बहुत जरूरी होता है। आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले राजनेताओं ने शुरूआत से ही निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा की आय के अतिरिक्त अन्य श्रोतों को प्रयोग करने में कोताही बरती। उन्होंने निर्यात से अधिक आयात को हमेशा हतोत्साहित किया और इसी के फलस्वरूप वे भारतीय रूपये की कीमत को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में स्थिर रखने में सफल रहे। सन 1980 तक भुगतान संतुलन का ग्राफ एक सीध में हल्के-फुल्के उतार-चढ़ाव के साथ संतुलित रहा। आज की युवा पीढ़ी को सुनकर शायद यह आश्चर्य हो कि उस दौर में अमरीकी डालर की औकात भारतीय रूपये के सामने बहुत कम थी। केवल पौने पांच रूपये खर्च करने पर एक अमरीकी डालर मिल जाया करता था।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही सत्ता की राजनीति में नई पीढ़ी सामने आयी जिसने न तो आजादी की लड़ाई में भाग लिया था और न ही उसने अर्थशास्त्र को समझने की इच्छा। संचार क्रांति की ओर देश बढ़ा परन्तु अमरीका से अनाप-शनाप मूल्यों पर कम्प्यूटर एवं दूसरे यंत्रों के अंधाधुंध निर्यात से विदेशी मुद्रा का भंडार खाली होने लगा। आज जो कम्प्यूटर बीस हजार रूपये में मिल जाता है, उससे कई गुना कम क्षमता वाला कम्प्यूटर उस दौर में हिन्दुस्तान में दो-दो लाख रूपये में लाया गया। लोगों को दस साल पहले मिलने वाले मोबाईल की कीमत भी याद ही होगी और उसके फीचर्स भी। कभी यह ध्यान नहीं दिया गया कि इस निर्यात के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का प्रबंध कैसे होगा। उसी का परिणाम सन 1990 में सामने आया जब विदेशी मुद्रा भंडार पूरी तरह चुक गया था और भारतीय रिजर्व बैंक को अपना सोने का भंडार गिरवी रखना पड़ा था। निश्चित रूप से देश के लिए वह शर्मनाक हालत थी। देश का हर नागरिक इस स्थिति के लिए दुखी था परन्तु अधिसंख्यक को इसका कारण ज्ञात नहीं था।
फिर उसके बाद दौर शुरू हुआ एक ऐसे दौर का जिसमें सत्ता से जुड़े राजनीतिज्ञों की वह पीढ़ी आई जिसने कभी भी देश के गरीबों की हालत नहीं देखी थी, जिसे कभी बेरोजगारी के दंश का सामना नहीं करना पड़ा था और जिसने देश के लिए कभी कोई ख्वाब नहीं देखा था। उसने जिन आर्थिक नीतियों पर चलने का फैसला किया उसी का परिणाम है कि कहने को तो देश की विकास दर आसमान छू रही है परन्तु अमरीकी डालर के सामने भारतीय रूपया इतना बौना हो गया है कि 55 रूपये खर्च करने पर भी एक अमरीकी डालर नहीं खरीदा जा सकता। इसी का परिणाम है कि आज हमे पेट्रोल और डीजल की कीमतें इतनी अधिक भुगतनी पड़ रही हैं। विदेशी मुद्रा भंडार एक बार फिर शून्य की ओर बढ़ रहा है। हमने आयात को निर्यात से अधिक कर दिया। विदेशी ऋणों से फौरी हल निकालने की कोशिश की जिससे एक ओर तो भ्रष्टाचार बढ़ा तो दूसरी ओर उस ऋण की ब्याज सहित अदायगी के लिए और अधिक विदेशी मुद्रा की जरूरत हुई। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए आया धन मुनाफे के साथ वापस चला गया। जितना लेकर आया था उससे कई गुना ज्यादा विदेशी मुद्रा लेकर गया।
मनमोहन सिंह जैसे अमरीका परस्त नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने लोग अब भी सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। इस संकट का हल अभी भी वे उसी तरह फौरी तौर पर निकालना चाहते हैं। अमरीका के इशारे पर विदेशी पूंजी को खुदरा व्यापार तक करने की इजाजत दे दी गयी है। वे अभी भी उसी दिवास्वप्न में जी रहे हैं, जिस दिवास्वप्न को उन्होंने 1991 में देखा था। कहते हैं कि ठोकर लगने से आदमी सीखता है परन्तु मनमोहन सिंह और उनके साथी अभी भी सीखने को तैयार नहीं हैं।
संप्रग-2 आज एक डूबता हुआ जहाज है जो अपने साथ पूरे देश को डूबो देना चाहता है। भाजपा अपने जन्मकाल से अमरीका परस्त रही है। इस देश के समाजवादी भी अमरीका परस्त रहे हैं। वे बात तो देश के गरीबों की करते हैं परन्तु आजादी के अगले दशक में ही उन्होंने देश में विचारधाराविहीनता का परचम बुलन्द करने की कोशिश की थी। वे बात अल्पसंख्यकों की करते हैं परन्तु अल्पसंख्यकों के लिए लालू और मुलायम जैसे मुख्यमंत्रियों ने क्या किया, इसे जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि बेवकूफ बनाने के सिवा उनके भले के लिए कुछ किया ही नहीं। उल्टे ऐसे-ऐसे कदम उठाये कि क्या कहना। उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा बुनकरों का है, उसे बर्बाद करने के लिए हैण्डलूम कारपोरेशन से लेकर कताई मिलों को बंद करवा दिया था। बुनकर अब रिक्शा चलाते हैं या फिर अभी भी करघा लेकर भूखों मर रहे हैं। प्रदेश की बेशकीमती सम्पत्ति को औने पौने दामों पर बेच दिया। बसपा की बातें और काम भी इससे अलग नहीं रहे हैं। वास्तव में दोनों ही मौसेरे भाई-बहन हैं।
डीजल के दाम बढ़े, गैस सिलेण्डरों की संख्या अतिसीमित कर दी गयी और खुदरा व्यापार में एफडीआई को अनुमति दे दी गयी तो समाजवादी भी सड़कों पर उतरे विरोध करने के लिए। लेकिन उन्होंने तुरन्त घोषणा कर दी कि साम्प्रदायिकता के प्रेत के डर से वे संप्रग-2 सरकार को समर्थन देना जारी रखेंगे। विरोध और समर्थन की यह फितरत तो केवल हिन्दुस्तान के समाजवादियों में ही देखने को मिलती रही है। संप्रग-2 की तरह साम्प्रदायिकता की नाव पर सवार दल भी आज डूबता जहाज हैं। राजग ने भी भ्रष्टाचार के आरोप में संसद न चलने देकर किस प्रकार संप्रग-2 को वह सब करने का मौका मुहैया कराया जो अमरीका और विदेशी पूंजी चाहती है। उनकी राजनीति तो विरोध के जरिये सहयोग पर चलती रही है।
भाजपा और समाजवादियों की इस फितरत को समझना होगा। जनता के हर तबके को सोचना चाहिए कि कौन विरोध के लिए विरोध कर रहा है और कौन वास्तव में विरोध कर रहा है। केन्द्र सरकार के जन विरोधी कार्यों का विरोध करने के लिए जनता के विशाल तबके को उन वामपंथी ताकतों के इर्दगिर्द ही इकट्ठा होना चाहिए जो वास्तव में इन कदमों का विरोध कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नागरिकों को तो इस पर ज्यादा ही गौर करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी, 26 सितम्बर 2012
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का आह्वान


चलो दिल्ली!                                                                                                                         पहुंचो दिल्ली!!
 1 नवम्बर 2012 को दिल्ली पहुंचो
किसान सभा एवं खेत मजदूर यूनियन की विशाल रैली

प्रमुख मांगे
  • कृषि का निगमीकरण रोको! खेतिहर मजदूरों, दस्तकारों तथा किसानों के हितों की रक्षा हेतु नया कानून बनाओ!!
  • विशेष आर्थिक परिक्षेत्र रद्द करो! किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को बदलो!!
  • भूमिहीनों को भूमि दो! आवासहीनों को आवास दो!! बेरोजगारों को रोजगार दो!!!
  • किसानों की उपज का लाभकारी मूल्य दो! उन्हें जरूरी चीजें कम दामों पर दो!!
  • सभी को खाद्य सुरक्षा दो! हर परिवार को हर माह 35 किलो अनाज 2 रू. किलो पर दो!!
  • पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस तथा केरोसिन पर सब्सिडी बरकरार रखो!
  • मंहगाई को नीचे लाओ! भ्रष्टाचार मिटाने को कड़े कदम उठाओ!!
 निवेदक
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, 
उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल
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बुधवार, 19 सितंबर 2012

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का राष्ट्रीय कन्वेंशन

20-21 फरवरी 2013 को राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल का फैसला
नई दिल्ली 4 सितम्बर। आज यहां देश के सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संगठनों और मजदूरों एवं कर्मचारियों के स्वतंत्र फेडरेशनों के आह्वान पर तालकटोरा स्टेडियम में एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। समूचे देश के संगठित एवं असंगठित मजदूरों एवं कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग 5000 ट्रेड यूनियन नेताओं ने सम्मेलन में हिस्सा लिया और अपने अधिकारों के लिए, सम्मान के साथ जीने के लिए और संप्रग-2 सरकार की जनविरोधी, मजदूर विरोधी नव उदारवादी नीतियों के विरूद्ध अपने संघर्ष को तेज करने का फैसला किया। सम्मेलन में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें भारत के मजदूर वर्ग का आह्वान किया गया कि वह सम्मेलन में तय किये गये आन्दोलन कार्यक्रम के लिए आज से ही तैयारियों में जुट जाये। सम्मेलन ने 18-19 दिसम्बर 2012 को पूरे देश में व्यापक स्तर पर कानून तोड़ने और सत्याग्रह/जेल भरो/गिरफ्तारियां देने का कार्यक्रम आयोजित करने, 20 दिसम्बर 2012 को संसद मार्च और उसके बाद 20-21 फरवरी को दो दिन की राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल करने का फैसला किया और भारत के मजदूर वर्ग का आह्वान किया कि अपनी एकता की ताकत के बल पर संघर्ष के इन कार्यक्रमों को पूरी तरह सफल बना कर केन्द्र सरकार को जन विरोधी और मजदूर विरोधी नीतियों को वापस लेने के लिए मजबूर करें।
सम्मेलन में बोलते हुए सभी ट्रेड यूनियनों और स्वतंत्र फेडरेशनों के नेताओं ने इस बात पर गंभीर आक्रोश एवं चिन्ता व्यक्त की कि देश के समूचे ट्रेड यूनियन आन्दोलन द्वारा पिछले तीन सालों में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, धरने-प्रदर्शन, यहां तक कि राष्ट्रव्यापी आम हड़तालों के बावजूद सरकार महंगाई को रोकने, असंगठित क्षेत्र मजदूरों के लिए सभी सामाजिक सुरक्षा अधिकार प्रदान करने, समुचित न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करने, बड़े पैमाने पर ठेके पर काम कराने, श्रम कानूनों के व्यापक स्तर पर उल्लंघन और ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले जैसे मजदूर वर्ग के ज्वलंत मुद्दों के सम्बंध में कोई भी सार्थक कदम उठाने को तैयार नहीं है और सरकार अपनी मजदूर विरोधी और पूंजीपति परस्त नीतियों पर आगे बढ़ती ही जा रही है।
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए एटक महासचिव गुरूदास दासगुप्ता ने कहा कि यह भारत के मजदूर वर्ग के अस्तित्व मात्र की लड़ाई है। मजदूर वर्ग की एकता का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा - ”एकताबद्ध होंगे तो हम जीतेंगे, हमारे बीच फूट रहेगी तो नव उदारवाद जीतेगा। देश पर अमीर और ताकतवर लोग हावी हो गये हैं। देश के लोगों को गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार और अन्याय से निजात पाना बाकी है। इसके लिए हमें निरन्तर संघर्ष करना होगा। सम्मेलन में दो दिन की हड़ताल का जो फैसला किया है, उसके लिए हमें अभी से तैयारी में जुट जाना है।
सम्मेलन को सीटू महासचिव एवं राज्य सभा सदस्य तपन सेन, इंटक अध्यक्ष जी. संजीवा रेड्डी, भारतीय मजदूर संघ के महासचिव बी.एन. राय, हिन्दू मजदूर सभा के महासचिव हर भजन सिंह सिद्धू, सेवा नेता मनाली शाह, एआईयूटीयूसी महासचिव कृष्ण चक्रवर्ती, एक्टू महासचिव स्वप्न मुखर्जी, यूटीयूसी महासचिव अशोक घोष, टीयूसीसी महासचिव एस.पी. तिवारी और एलपीएफ महासचिव एम. शन्मुगमे ने सम्बोधित किया और सम्मेलन में मजदूर वर्ग ने जो एकता प्रदर्शित की है, उसकी सराहना करते हुए इस एकता को कायम रखते हुए और बढ़ाते हुए आगे के संघर्षों में जुट जाने की अपील की।
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विश्व रोजगार में डबल डिप-आईएलओ

जी 20 देशों के नेताओं के शिखर सम्मेलन से ठीक पहले जारी एक कड़े विश्लेषण में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने कहा कि विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था एक नई और गहरी रोजगार मंदी के कगार पर है। इससे विश्वव्यापी आर्थिक बहाली में और अधिक समय लगेगा। इसका असर अनेक देशों पर पड़ सकता है। वहां सामाजिक अशांति उत्पन्न हो सकती है।
    इस नई रिपोर्ट का शीर्षक है, ‘वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट 2011: मेकिंग मार्केट्स वर्क फॉर जॉब्स’ (श्रम की दुनिया पर रिपोर्ट 2011ः बाजार को रोजगारो के लिये तैयार करना)। रिपोर्ट कहती है कि एक थकी हुई विश्वव्यापी आर्थिक बहाली ने नाटकीय श्रम से श्रम बाजारों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। वर्तमान प्रवृत्तियों के अनुसार यह विकसित देशों में संकट के पूर्व के दौर के रोजगारों के स्तरों पर पहुंचने में कम से कम पांच साल का समय लेगी, जो कि पिछले वर्ष की रिपोर्ट में दिये पूर्वानुमान से एक वर्ष ज्यादा है।
    ‘‘हम सच्चाई के बिंदु तक पहुंच चुके हैं। रोजगार में एक गहरा गोता खाने से बचने के लिये हमारे पास एक ही चारा है, वह है अवसरों का लाभ उठाना’। यह कहना है, अंतर्राष्ट्रीय श्रम अध्ययन संस्थान के निदेशक रेमंड टौरेस का। टौरेस ने 31 अक्टूबर 2011 को इस रिपोर्ट को जारी किया था।
    यह बताते हुए कि वर्तमान श्रम बाजार पहले से ही एक आर्थिक धीमेपन और रोजगार पर उसके प्रभावों के छह माह के सामान्य चरण की सीमाओं से बंधा हुआ है, रिपोर्ट संकेत देती है कि संकट पूर्व के दौर की रोजगार दरों पर पहुंचने के लिये अगले दो सालों में आठ करोड़ रोजगारों के सृजन की आवश्यकता है। हालांकि वृद्धि में आई हालिया मंदी से पता चलता है कि विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था केवल 50 प्रतिशत रोजगार ही सृजित कर पाई है।
    रिपोर्ट में एक नया सामाजिक अशान्ति सूचकांक भी है जो रोजगारों की कमी के कारण पैदा हुए असंतोष और इस मान्यता के बाद उपजे गुस्से के स्तरों को दिखाता है कि संकट के बोझ का बंटवारा निष्पक्षता से नहीं किया जा रहा है। इससे पता चलता है कि जिन 118 देशों में अध्ययन किया गया है, उनमें से 45 से अधिक देशों में सामाजिक असंतोष का खतरा बढ़ता जा रहा है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं, जैसे यूरोपीय संघ, अरब क्षेत्र और कुछ हद तक एशियाई क्षेत्र में यह स्थिति है। इसके विपरीत उपसहारा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में सामाजिक अशांति का खतरा ठहरा हुआ या काफी कम है।
    अध्ययन दिखाता है कि लगभग दो तिहाई विकसित देशों और उबरते तथा विकासशील देशों में से आधे देशों में हालिया उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि वहां रोजगार दर सुस्त है। इससे इन क्षेत्रों में रोजगार की स्थिति खराब हो जाती है। वैसे भी विश्वव्यापी बेरोजगारी अपने अब तक के शीर्ष बिंदु पर है, यानी 20 करोड़ से भी ज्यादा बेरोजगार दुनिया में हैं।
    आर्थिक सुस्ती रोजगार परिदृश्य पर विशेष रूप से क्यों ठोस प्रहार कर रही है, रिपोर्ट इसके तीन कारण बताती है: पहला, संकट की शुरुआत की तुलना में उपक्रम आज श्रमिकों को नौकरी पर बरकरार रखने के मामले में कमजोर स्थिति में है। दूसरा, जैसे-जैसे वित्तीय खर्चों में कटौती के उपायों को अपनाने का दबाव बढ़ रहा है, सरकारें नये रोजगार और आय समर्थक कार्यक्रमों को स्वीकार करने या बनाये रखने के प्रति कम उत्सुक हो गई है। सभी क्षेत्रों में अधिकतर लोग उपलब्ध रोजगार की गुणवत्ता से असंतुष्ट हैं। खासकर यूरोपीय संघ में उत्कृष्ट रोजगार का जबर्दस्त अभाव है। इस क्षेत्र में अस्थायी नौकरियों में ही बढ़त देखी गई।
    मध्य और पूर्वी यूरोप और सीआईएस तथा उपसहारा अफ्रीका में रोजगार के प्रति असंतोष सबसे ज्यादा, 70 और 80 प्रतिशत है। मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में, जहां पिछले दिनों सामाजिक और राजनैतिक अस्थिरता चरम पर थी, रोजगार के प्रति असंतोष थोड़ा कम, 60 प्रतिशत के करीब है। अलग-अलग देशों में यह अलग-अलग दर्ज की गई है। ईजिप्ट, जोर्डन और लेबनान में वर्ष 2010 में तीन चौथाई लोग अच्छी नौकरियों की उपलब्धता से असंतुष्ट थे।
    विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, स्लोवेनिया और स्पेन जैसे देशों में समस्या जटिल है। वहां सर्वे में शामिल 70 प्रतिशत से अधिक लोगों ने बताया कि वे रोजगार बाजार से असंतुष्ट हैं।
    संकट के बाद से जिन देशों ने आर्थिक बहाली की दिशा में अच्छा कार्य किया है, जैसे पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया और लैटिन अमेरिका, वहां लोगों में असंतोष कुछ कम है। चीन में 50 प्रतिशत से अधिक लोगों ने असंतोष जताया। इसी तरह लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों, जैसे डोेमिनिक रिपब्लिक, इक्वेडोर, हैती, निकारागुआ और उरुग्वे में 60 प्रतिशत से अधिक लोग रोजगार बाजार से असंतुष्ट हैं।
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सोमवार, 17 सितंबर 2012

वैश्वीकरण के दौर में कफन कहानी की प्रासंगिकता

हिन्दी मंे यथार्थवादी कहानी लेखन की शुरूआत प्रेमचंद ने की। उसका अन्यतम् उदाहरण ‘कफन’ है। इसीलिये बहुत से कथा समीक्षकों ने कथावस्तु तथा शिल्प की दृष्टि से कफन कहानी को पहली नई कहानी स्वीकार किया है। ‘कफन’ कहानी भारत में अंग्रेजी राज के दौर में सामन्ती समाज के क्रूर शोषण के शिकार दलित कृषि मजदूर की कथा है जिसमें धीसू-माधव जैसे पात्र अपने शोषण का प्रतिरोध अकर्मण्यता प्रदर्शित करते हैं।घीसू और माधव उस सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज हैं जहां गालियां भी पड़ती हैं, लात-घूंसे भी पड़ते हैं बेगार भी लिया जाता है। ऊपर से अस्पृश्यता का दंश।
    कहानी की कथावस्तु से परिस्थितियों के साथ-साथ घीसू-माधव के चरित्र का उद्घाटन होता है। जाड़े की रात, अंधकार में सारा गांव डूबा हुआ है। घीसू और माधव झोपड़े के द्वार पर अलाव के सामने दूसरों के खेत से चोरी किये हुए आलू भूनते हुए बैठे हैं। माधव की जवान बीवी प्रसव-पीड़ा से कराह रही है। दोनों शायद इसी इंतजार में हैं कि वह मर जाये तो आराम से सोयें। लेखक ने घीसू और माधव की प्रकृति का चित्रण इस तरह किया है साक्षात हमारे सामने उपस्थित हो। ‘‘चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम’’ घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम। माधव आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिये उन्हे कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में फांके की नौबत आ जाती तब दोनों मजदूरी की तलाश करते। गांव मंे काम की कमी नहीं थी। किसानों का गांव था मेहनती आदमी के लिये पचास काम थे, मगर इन दोनों को लोग उसी वक्त बुलाते जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा नहीं होता।’
    बड़ा विचित्र जीवन था, घर में मिट्टी के दो चार-बर्तनों के सिवा कोई संपत्ति नहीं थी, फटे चीथड़ों में अपनी नग्नता को ढंके हुए जी रहे थे, उन्हें कोई सांसारिक चिंता नहीं थी। कर्ज से लदे हुए, गालियां भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। इनकी गरीबी देखकर वसूली की बिल्कुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे ही देते थे। दूसरों के खेत से चोरी कर लाये आलू-मटर भूनकर खाते, गन्ने तोड़कर रात मंे चूसते। बुधिया के आने पर इस घर में व्यवस्था की नींव पड़ी। वह दूसरों के घर चुनाई-पिसाई कर, घास काट कर सेर भर आटे का इन्तजाम कर लेती थी और दोनों का पेट भरती थी। इससे ये दोनोे और आलसी हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई उन्हें कार्य पर बुलाता, तो दुगुनी मजदूरी मांगते। वहीं बुधिया प्रसव-पीड़ा से तड़प रही है और दोनों उसकी मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अलाव से गर्म-गर्म आलू निकाल कर खा रहे हैं। घीसू द्वारा उसे देख-आने के लिये कहने पर माधव बहाना बना देता है। उसे डर है वह कोठरी में गया तो आलू का बड़ा भाग भीखू खा जायेगा।
    यह अकर्मण्यता, अमानवीयता घीसू और माधव में कैसे पैदा होती है। प्रेमचंद ने इस कहानी में इसका खुलासा किया है। हमारी व्यवस्था में उसके बीज मौजूद है-प्रेमचंद ने लिखा है-’’ जिस समाज में दिन-रात मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी, वे लोग जो किसानों की कमजोरियों का फायदा उठाना जानते थे ज्यादा सम्पन्न थे। मेहनत करने वाले विपन्न थे और शोषण करने वाले फल-फूल रहे थे’’। प्रेमचंद ने घीसू को ज्यादा विचारवान बताया है जो किसानों के विचार शून्य समूह में सम्मिलित होने के बजाय उन लोगों के साथ उठते-बैठते हैं जो गांव के सरगना या मुखिया बने हुए हैं। यद्यपि यहां उन्हें सम्मान नहीं मिलता। उनके इस कृत्य को देखकर सारा गांव उन पर उंगली उठाता है। पर घीसू को  इस बात का संतोष है कि उसे कम से कम किसानों की तरह जी-तोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ती। उनकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग फायदा तो नहीं उठाते।
    घीसू और माध्व कामचोरी क्यों करते हैं अकर्मण्यता क्यों करते हैं यहां समझ में आता है। काम की कमी नहीं है गांव में पर काम नहीं करते। भूखों मरने की नौबत आती है तब काम की तलाश करते हैं। शोषण उनसे बेहतर स्थिति वाले किसानों का भी हो रहा है, लेकिन विचार शून्य होने के कारण वे अपना शोषण बर्दाश्त कर रहे हैं घीसू और माधव को यह मंजूर नहीं। बुधिया मर रही है, पर उसे बचाने का उद्यम नहीं करते। अलाव से गर्म-गर्म आलू निकालकर खाते हैं। घीसू को अपने जवानी के समय एक दिन-दरयाव ठाकुर के यहाँ बेटी के विवाह मे दिया गया भोज याद आता है। माधव कहता है ‘‘अब हमें कोई भोज नहीं खिलाता। घीसू कहता है’’ अब कोई क्या खिलायेगा ? अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रियाकर्म में मत खर्च करो, पूछो गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे ? बटोरने में तो कभी नहीं है। हाँ खर्च में किफायत सूझती है।’ दोनों इसकी चर्चा करते आलू खाकर पानी पीकर सो जाते हैं। रात में बुधिया मर गई थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था दोनों रोते-पीटते हैं। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे होकर सान्त्वना देते हैं। अंतिम संस्कार के लिये बांस, लकड़ी का इंतजाम करते हैं। लेकिन कफन के लिये पैसे नहीं हैं पहले जमींदार के पास जाते हैं। जमींदार उनसे नफरत करता है फिर दो रूपये का ढिंढोरा पीटकर सेठ-साहूकारों से दो-दो चार-चार आने वसूल कर लेते हैं। जब पांच रूपये की अच्छी रकम हो जाती है तब कफन लेने निकलते हैं। लेकिन कफन के पैसे से शराब पीते हैं-दावत उड़ाते हैं।
    प्रेमचंद ने यहां घीसू-माधव की अकर्मण्यता, अमानवीयता की चरम स्थिति का चित्रण किया है। और यह भी बताया है कि घीसू और माधव को अमानवीय कौन बना रहा हैं। ऐसा नहीं है कि घीसू और माधव में मानवीय संवेदना नहीं है-मानवीय संवेदना उनमें भी है-‘‘बुधिया प्रसव पीड़ा से पछाड़ खा रही थी रह-रहकर उसके मुँह से ही ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज निकलती थी कि दोनें कलेजा थाम लेते थे।’ यह उद्धरण और दूसरी जगह कफन के पैसे मिलने पर वे कहते हैं-यही पांच रूपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’ कफन के पैसे से दावत उड़ाने के बाद ‘‘बची हुई पूड़ियां-भिखारी को देना’ इस बात के प्रमाण है।
    प्रेमचंद ने उस व्यवस्था के चरित्र को उजागर किया है-जो दान, धर्म, उदारता का नाटक करती है और दोनों हाथों से गरीबों को लूटती है। समाज की यह व्यवस्था ही घीसू माधव को अकर्मण्य, अमानवीय बनाती है।
    प्रेमचंद की इस कहानी को पढ़ते हुए आज की व्यवस्था पर हम दृष्टि डालें तो आज भी घीसू-माधव को मौजूद पाते है। प्रेमचंद की कफन कहानी हमें यह सोचने के लिये विवश करती है कि घीसू-माधव अकर्मण्य, अमानवीय होकर जीते रहे, किसान विचार शून्य बने रहे, अपनी स्थिति को नियति का खेल मानकर उसे स्वीकार करके बदहाली में जीते रहे या उससे उबरने के लिये-उसे अमानवीय बनाने वाली व्यवस्था से मुक्ति के लिये एक होकर संघर्ष करें ? यह सवाल हमारे सामने हैं और आज के समय में इस कहानी के नये सिरे से पाठ की आवश्यकता है।
- थान सिंह वर्मा
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मूल्यवृद्धि और विदेशी निवेश के खिलाफ 20 सितम्बर को सड़कों पर उतरेगी भाकपा

लखनऊ 17 सितम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य मंत्रिपरिषद की एक आपात्कालीन बैठक राज्य सचिव डा. गिरीश की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। बैठक में केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया गया कि वह एक के बाद एक जनता के ऊपर कहर बरपाने वाले कदम उठा रही है। उसने किसानों एवं आम जनता पर भारी बोझ लादने वाला कदम उठाते हुये डीजल के दामों में पांच रूपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी। उच्च श्रेणी के पेट्रोल की कीमतों में बिना किसी सार्वजनिक घोषणा के रू. 6.74 की वृद्धि कर दी। गैस सिलेंडर प्रति परिवार साल में 6 ही देने और शेष को बाजार के मूल्य पर उपलब्ध कराने जैसा जघन्य कदम उठा दिया। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के सारे रास्ते खोल दिये जिससे हमारे छोटे उद्योग एवं व्यापार के सामने संकट खड़ा हो गया। नाल्को जैसे नवरत्न सार्वजनिक उद्योग, जोकि लाभ दे रहे हैं, के शेयर बेचने का फैसला ले डाला। इन सारे कदमों से पहले से ही आसमान छू रही महंगाई तथा बेकारी को और भी बढ़ावा मिलेगा, भाकपा ने आरोप लगाया है।
भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद ने निर्णय लिया कि केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देशानुसार 20 सितम्बर को उपर्युक्त सवालों के खिलाफ आयोजित प्रतिरोध दिवस में पूरे उत्तर प्रदेश में जन प्रतिरोध आयोजित किये जायें। पार्टी ने अपनी जिला कमेटियों को निर्देश दिया है कि वे बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर कर सरकार के इन कदमों का विरोध करें। भाकपा ने किसानों, मजदूरों, महिलाओं से अपील की है कि वे सब इस प्रतिरोध में शामिल हों। पार्टी ने ट्रान्सपोर्र्ट्स, दुकानदारों एवं व्यापारियों के संगठनों से भी अपील की है कि वे इस प्रतिरोध में मजबूती से भागीदारी करें। साथ ही जनता से, खास तौर से देशभक्त नागरिकों से, अपील की कि वे भी इस आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभायें। हमको इन सारी कार्रवाईयों का पुरजोर विरोध करना है ताकि सरकार के जनविरोधी कदमों को वापस कराया जा सके और जनता के जीवन की सुरक्षा की जा सके।
भाकपा ने राज्य सरकार से भी अनुरोध किया है कि वह पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले वैट को कम करके और हाल ही में बिजली एवं अन्य जिन्सों के ऊपर बढ़ाये गये करों को वापस ले कर उत्तर प्रदेश की जनता को राहत प्रदान करें।
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शनिवार, 15 सितंबर 2012

भाकपा ने रिटेल में विदेशी भागीदारी पर जताया कड़ा विरोध

डीजल, गैस मूल्यवृद्धि के खिलाफ पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन किये
लखनऊ 15 सितम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने केन्द्र सरकार द्वारा मल्टीब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश, विमानन क्षेत्र में 49 प्रतिशत विदेशी निवेश, सार्वजनिक क्षेत्र की चार कंपनियों में विनिवेश तथा ब्राडकास्टिंग क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा कर 74 प्रतिशत किये जाने के फैसलों को देश को विदेशी आर्थिक शक्तियों का गुलाम बनाने की संज्ञा देते हुए इन फैसलों को तत्काल वापस लेने की मांग की है।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने आरोप लगाया कि संप्रग-2 सरकार ने देश और देश की आम जनता के विरूद्ध घृणित युद्ध छेड़ दिया है। अब जनता को भी इस सरकार को इसी भाषा में जवाब देना होगा।
भाकपा राज्य सचिव ने कहा है कि इन फैसलों से घरेलू उद्योग एवं व्यापार बुरी तरह प्रभावित होंगे और बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ेगी। भाकपा ने अपेक्षा जाहिर की है कि उत्तर प्रदेश सरकार इन फैसलों को प्रदेश में लागू नहीं करेगी। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि प्रदेश में इस फैसले को लागू किया गया तो भाकपा प्रदेश में विदेशी कंपनियों की घेराबंदी करेगी।
भाकपा राज्य सचिव ने बताया कि डीजल एवं रसोई गैस की मूल्यवृद्धि के विरूद्ध और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के खिलाफ भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के आह्वान पर आज प्रदेश के जिलों-जिलों में विरोध प्रदर्शन आयोजित किये गये और प्रधानमंत्री के पुतले फूंके गये। लखनऊ में विधान सभा पर प्रधानमंत्री का पुतला फूंका गया। आगरा में तो भाकपा ने इस आन्दोलन को ग्रामीण क्षेत्रों तक फैला दिया है और कई गांवों और कस्बों में प्रधानमंत्री के पुतले दहन किये गये। भाकपा का यह आन्दोलन आगे भी जारी रहेगा और गांव और शहरों में सभायें, नुक्कड़ सभायें, साईकिल मार्च और पद यात्रायें लगातार जारी रहेंगी।
भाकपा ने अपनी जिला कमेटियों को निर्देश दिया है कि वे इस सम्बंध में व्यापारिक एवं सामाजिक संगठनों द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलनों का पुरजोर समर्थन करें और एकजुटता कार्रवाईयां आयोजित करें।


कार्यालय सचिव
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शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

डीजल एवं रसोई गैस की मूल्य वृद्धि के खिलाफ भाकपा विरोध प्रदर्शन आयोजित करेगी

लखनऊ 14 सितम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने केन्द्र सरकार द्वारा डीजल की कीमतों में की गयी पांच रूपये प्रति लीटर की वृद्धि की आलोचना की है। भाकपा ने नियंत्रित मूल्य पर रसोई गैस के साल में केवल 6 सिलिंडर ही दिये जाने तथा बाकी सिलिंडर साढ़े सात सौ रूपये की कीमत पर दिये जाने की भी निन्दा की है। पार्टी ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली पर अधिभार बढ़ाये जाने की भी तीखी आलोचना की है।
भाकपा इस भारी वृद्धि के खिलाफ कल दिनांक 15 सितम्बर को समूचे उत्तर प्रदेश में विरोध प्रदर्शन आयोजित करेगी। कई जिलों में आज भी विरोध प्रदर्शन किये गये।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि सरकार के इस कदम से पहले से ही आसमान छू रही महंगाई और भी बढ़ेगी। खेती करना किसानों के और कठिन हो जायेगा और कृषि उत्पादनों की लागत भी बढ़ जायेगी। इसी तरह माल भाड़ा एवं यात्री भाड़ा बढ़ने से आम जनता पर भारी बोझ पड़ेगा। उन्होंने कहा कि छोटे से छोटे परिवार को भी साल में कम से कम 12 सिलिंडरों की आवश्यकता होती है। लेकिन सरकार ने इसे 6 सिलिंडरों तक सीमित कर दिया जिससे गैर सिलेंडरों की काला बाजारी तो बढ़ेगी ही खाने पीने की तमाम वस्तुयें और घर की रसोई महंगी हो जायेगी। अतएव भाकपा केन्द्र सरकार से मांग करती है कि डीजल पर की गयी 5 रूपये की वृद्धि को फौरन वापस लिया जाये, गैस सिलिंडर हर परिवार की जरूरत के मुताबिक नियंत्रित मूल्य पर ही दिये जायें तथा राज्य सरकार पेट्रªोलियम पदार्थों पर वैट घटा कर इनकी कीमतें दिल्ली और चंडीगढ़ के समकक्ष लाये और बिजली पर बढ़ाये गये अधिभार को भी वापस ले।
भाकपा राज्य सचिव मंडल ने अपनी समस्त जिला इकाईयों का आह्वान किया है कि वे 15 सितम्बर को अपने-अपने जिलों में इस मूल्य के विरोध में तथा बढ़ी कीमतों को वापस लिये जाने की मांग को लेकर धरने-प्रदर्शन और पुतला दहन के कार्यक्रम आयोजित करें।

कार्यालय सचिव
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गुरुवार, 13 सितंबर 2012

भारतीय वामपंथ: दृष्टि और चुनौतियां

कौंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट ने 8-9 अगस्त, 2012 को दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल संेटर में एक सेमिनार का आयोजन किया जिसका विषय था: ‘‘ भारतीय वामपंथ: दृष्टि और चुनौतियां’’। सेमिनार की अध्यक्षता विख्यात इतिहासकार रोमिला थापर ने की। सेमिनार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने भाषण दिया, जिसे नीचे दिया जा रहा है:
   "देश आज एक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक संकट-का सामना कर रहा है। यह एक बड़ी चुनौती है।
    सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण से अभूतपूर्व चुनौतियां एवं सामाजिक जीवन में समस्याएं पैदा हुई हैं। अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से बदल रही है। बुनियादी ढांचा, शहरीकरण, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी आदि में यह बात नजर आती है। दो दशकों में देश में उदारीकरण, भूमंडलीकरण की जिन नीतियों पर अमल चल रहा है उससे पूंजीवाद की वृद्धि तेज हो गयी है और वह कारपोरेट पंूजीवाद के नये दौर में दाखिल है जो असल में जीहजूरिया पूंजीवाद का एक रूप है।
    इन आर्थिक बदलावों के बावजूद समाज की सामंती सोच-समझ कमोबेशी पहले जैसे ही है। खाप पंचायतें सामने आ रही हैं जो प्रेम विवाह और मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लगा रही हैं ओर यहंा तक कि सजा के रूप में मृत्यु दंड तक सुना रही हैं। लिंग भेद चल रहा है जिससे सेक्स अनुपात में अनुचित असंतुलन पैदा हो गया है। आज भी देश में अस्पृश्यता जारी है और दलितों पर शारीरिक हमले भी हो रहे हैं। धार्मिक कट्टरता, और जाति पहचान के संघर्ष धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। इनके विरुद्ध संघर्ष किया जाना है।
    शासक वर्गों द्वारा अनुचित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण चन्द लोगों के हाथ में धन-दौलत का जबर्दस्त केन्द्रीकरण हुआ है और अमीर और गरीब के बीच फासला बढ़ा है। इससे हमारे आम लोगों के बीच अभूतपूर्व गरीबी ओर कंगाली पैदा हुई है।
    पिछले दो दशकों के दौरान वामपंथी राजनीति और विचारधारा को काफी झटका लगा है। मैं राज्य विधान सभाओं और संसद में चुनावी विफलताओं के संबंध में बात नहीं कह रहा हूं। मैं समाज के दबे कुचले तबकों के बीच वामपंथ और कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रभाव में क्षरण की बात कर रहा हूं। परन्तु गरीबों एवं शोषित तबकों के हिमायती के रूप में वामपंथ की छवि आज भी कमोबेश आम जनता के बीच बरकरार है। हमें इस छवि के आधार पर अपने ठोस आधारों को फिर से बनाना है।
    वामपंथ की दृष्टि एवं नीतियां सुस्पष्ट रहनी चाहिए। अनेक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर वामपंथ की सुस्पष्ट समझ है। पर उन राज्यों में, जहां वामपंथ शासन कर रहा था और जहाँ सत्ता के दृश्यमान अहंकार और वामपंथ के नेतृत्व में सरकारों के कामकाज में पारदर्शिता के अभाव के कारण जनता के कुछ तबके वामपंथ से बेगाने हो गये, इन नीतियों पर अमल एक समस्या बन गया था। इससे कन्फ्यूजन पैदा हुआ और एक गलत छवि बनी कि वामपंथ और अन्य पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई बहुत फर्क नहीं है।
    वर्तमान ढांचे में राज्य सरकारें विस्तारित जिला परिषदों के अलावा और कुछ नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था और संविधान के अंतर्गत अपनी नीतियों पर अमल करने की बहुत कम गुंजाइश रहती है।
    औद्योगिकीकरण एक आवश्यकता है अतः वामपंथ शासित राज्यों को भूमि अधिग्रहण के काम को अन्य राज्यों से अलग तरीके से करना होगा। किसानों को जमीन के बदले जमीन के अलावा अधिक बड़े पैकेज और मुआवजे की पेशकश की जानी चाहिए और उन्हें अधिग्रहण की आवश्यकता के बारे में संतुष्ट किया जाना चाहिए। आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया और अधिक उदार, मानवीय एवं तर्कसंगत रहना चाहिए। कम्युनिस्टों को नौकरशाही एवं नियमों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जहां कहीं जरूरी हो नियमों को जनता के पक्ष में बदलना होगा। तब ही जाकर कम्युनिस्ट अन्य पार्टियों और सरकारों के लिए मॉडल बनेंगे।
    आत्म आलोचना की यह टिप्पणियां करने के बाद मैं कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित करने की कोशिश करूंगा जिनके संबंध में जनता को एक सुस्पष्ट दृष्टि पेश करने के लिए वामपंथ को अपना ध्यान केन्द्रित करना है। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर और जनता को और अधिक विस्तार से समझाने की जरूरत है और नवउदारवाद के विनाशकारी रास्ते के एक विकल्प के रूप में एक सुस्पष्ट सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है।
    अर्थव्यवस्था में हमें कारपोरेट घरानों और उनके लालच पर लगाम लगाने की जरूरत है। यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। आज के दौर में वामपंथ को अंधाधुंध राष्ट्रीयकरण की मांग करने की जरूरत नहीं है। परन्तु निश्चय ही ऊर्जा, गैस, खान, खदानें और खनिज पदार्थ और ऐसे ही अन्य प्राकृतिक एवं राष्ट्रीय संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र के पूरे नियंत्रण में रहने चाहिए।
    कारपोरेटों को दी गयी सभी सियायतों को वापस किया जाना चाहिए और टैक्सेशन की ग्रेडिड व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। धन-दौलत के केन्द्रीयकरण की एक हद से आगे इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
    खाद्यान्नों और अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं के वितरण के लिए सार्वभौम जन वितरण प्रणाली होनी चाहिए। सबसे अधिक और सबसे कम वेतन के बीच छह गुने से अधिक का फर्क नहीं होना चाहिए। न्यूनतम वेतन और पेंशन को जरूरत के अनुसार हर तीन साल बाद संशोधित किया जाना चाहिए। देश के लोगों के ठीक-ठाक रहन सहन के लिए मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध किया जाना चाहिए। सार्थक भूमि सुधारों को लागू किया जाना चाहिए, उन पर सही अमल होना चाहिए।
    केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्निरीक्षण होना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में नये राज्यों और क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए जनता की आकांक्षाओं को स्वीकार करना चाहिए। सरकारिया कमीशन की सिफारिशों पर संसद में बहस की जानी चाहिए और उन पर अमल किया जाना चाहिए। केन्द्र के पास सत्ता का केन्द्रीकरण है और उसने अधिकार के नये क्षेत्रों में भी आर्थिक एवं राजनैतिक शक्तियां हासिल कर ली है, इन्हें वापस किया जाना चाहिए। सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून (अफस्पा), सीमा सुरक्षा बल और एनसीसीटी आदि को दी गई विस्तारित शक्तियों आदि को वापस किया जाना चाहिए।
    वित्त को राज्यों के बीच तर्कसंगत तरीके से बांटा जाना चाहिए ताकि वे केन्द्र के रहमोकरम पर ना रहें। एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी कानून पारित किया जाना चाहिए और साथ ही सीबीआई और उस जैसी अन्य संस्थाएं स्वतंत्र रहनी चाहिए।
    लिंग, जाति और धार्मिक भेदभाव खत्म किया जाना चाहिए। योजना का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि नहीं बल्कि मानव विकास होना चाहिए।
    देश का संघात्मक ढांचे और समाज की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति-जिसमें सभी को समान अधिकार मिले और खासतौर पर समाज के सबसे अधिक शोषित एवं दबे कुचले लोगों के अधिकारों की रक्षा की जाये-की जानी चाहिए ताकि भारत की अखंडता बनी रहे।
    दृष्टि साफ है पर इस पर अमल कैसे किया जाए, उसे हासिल कैसे किया जाये? वामपंथ को इन नीतियों का प्रचार करना है और इन मुद्दों पर जनता को लामबंद करना है। अपने संघर्षों के जरिये वामपंथ को जनता की चेतना को जगाना चाहिए, वह समाज के रूपांतरण का अंतिम लक्ष्य है।
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पटना में अपनी पिछली कांग्रेस (21वीं कांग्रेस) में जमीन, आवास स्थल, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अधिकार जैसे मुद्दों के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योग, खान आदि के नाम पर किसानों से उसकी जमीन को जबरन छीेने जाने जैसे मुद्दों की पहचान की है।
    वामपंथ को नीचे संघर्षों को संगठित करना होगा और साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण, एफडीआई, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर भी संघर्ष छेड़ने होंगे। वामपंथ की टेªड यूनियनों, इंटक और भारतीय मजदूर संघ द्वारा मिलकर मजदूर वर्ग विभिन्न मुद्दों पर हाल में जो संघर्ष चलाये गये वह एक बड़ी छलांग है। इस संदर्भ में किसान, खेत मजदूर, महिला, युवा और छात्रों को भी ठोस एवं सुस्पष्ट सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष छेड़ने के लिए अपने-अपने क्षेत्र में इस तरह के व्यापक मंच बनाने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए।
    जनता को लम्बे अरसे तक चलने वाले संघर्षों के लिए तैयार किया जा सकता है। उड़ीसा में कोरिया की कम्पनी पोस्को के विरुद्ध संघर्ष जनता के इस तरह के दृढ़संकल्प का एक ज्वलंत उदारहण है। कोरिया की इस बहुराष्ट्रीय निगम के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए जनता से जमीन छीनने की कोशिश के विरुद्ध उड़ीसा के गरीब लोग कई सालों से लगातार संघर्ष कर रहे हैं। देश में कई संघर्ष चल रहे हैं, कुछ एक साथ मिलकर और कुछ स्वतंत्र रूप से। परमाणु प्लांट के विस्तार के विरुद्ध कुडमकुलम में एक वर्ष से चल रहा संघर्ष और परमाणु प्लाटं के ही विरुद्ध जैतापुर में चल रहा संघर्ष-ये ऐसे संघर्ष हैं जो बहुत लम्बे अरसे से चल रहे हैं और जो जापान में परमाणु बिजली घर में विभीषिका के बाद देश में इस खतरे के संबंध में सभी का ध्यान आकर्षित कर सके। अब इन संघर्षों का महत्व और भी बढ़ गया है। वन अधिकारों के मुद्दे पर विभिन्न राज्यों में आदिवासियों और किसानों के संघर्ष चल रहे है।। किसानों के सामने उर्वरक, बिजली ओर उनके उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे मुद्दे संघर्ष के लिए सामने हैं। दलित अपने आत्मसम्मान और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम राजनीतिक भावुकतावाद को छोड़ रहे हैं और वास्तविक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।
    जनता की बुनियादी समस्याओं पर सरकार की संवदेनशीलता से जनता में बहुत आक्रोश है। कभी-कभी जनता के संघर्ष स्वतःस्फूर्त फैलते चले जाते हैं तो कभी-कभी मारुति जैसे जुझारू आंदोलन भी हो जाते हैं। मारुति में ठेका मजदूरों को प्रबंधन द्वारा शोषण, प्रबंधन का ट्रेड यूनियन विरोधी रुख जैसे बातों ने मजदूरों को जुझारू होकर लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। पुडुचेरी में रीजेंसी फैक्ट्री के मजदूरों का संघर्ष भी इसी तरह का था। प्रबंधक देश के कानूनों, खासकर श्रम कानूनों पर अमल करने को तैयार नहीं है। वे इन कानूनों को अपने पक्ष में बदलने की मांग कर रहे हैं। इस तरह के संघर्ष सरकार की नीतियों के विरुद्ध जनता के विभिन्न तबकों के आक्रोश एवं दृढ़ संकल्प को अभिव्यक्त करते हैं। वामपंथ को इन तमाम तबकों को लामबंद करने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए और इस तरह का वातावरण उनके बीच बनाने के लिए उन्हें लामबंद करना चाहिए कि उनमें ये विश्वास पैदा हो कि वे सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध कर सकते हैं और उन्हें उलट कर सकते हैं। इस किस्म के संघर्ष आम जनता के राजनीतिकरण की दिशा में ले जाते हैं।
    सरकार के ऊपर कारपोरेटरों और बहुराष्ट्रीय निगमों का दबाव बढ़ रहा है। सरकार सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर में तेजी लाने के नाम पर उनकी मांगों को मानने के लिए तत्पर हैं। देश के कई राज्यों में सूखे की स्थिति है और इस हालत में भी कारपारेटों की लूट का हमला तेज हो रहा है। ऐसे में हमारे करोड़ों लोगों के लिए जीना दूभर हो जायेगा।
    मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की साख भ्रष्टाचार के कारण खत्म हो गयी है और वह जनता के मुद्दों पर आंदोलन करने में नाकामयाब है। ऐसे में वह एक बार फिर हिन्दुत्व का पत्ता खेलने की कोशिश कर सकती है।
    जनता के आंदोलन एवं संघर्षों को सही राह देकर उन्हें कारगर बनाना होगा। ये संघर्ष वर्ग संघर्षों के लिए पथ प्रशस्त करेंगे। बहुत संभव है कि ऐसे आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकार दमन का सहारा लेगी।
    वामपंथ में इस तरह के संघर्ष करने की क्षमता है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। वामपंथ का देश भर में एक समान असर नहीं है। परन्तु मुद्दों के आधार पर कहीं छोटे कहीं बड़े स्तर पर आंदोलन करना सम्भव है। यह वामपंथ की एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है और यदि वामपंथ जनता के मुद्दों पर व्यापक, विशाल और जुझारू संघर्ष चलाने में कामयाब हो जाये तो अन्य धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतें भी उसमें शामिल होने को मजबूर हो जायेंगी।
    वामपंथ को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसका लक्ष्य समाज का आमूलचूल रूपांतरण करना है। उसे निरंतर वर्ग संघर्षों के जरिये ही हासिल किया जा सकता है। वह एक क्रांतिकारी कार्यदायित्व है। वामपंथ को इसे अपने हाथ में लेना है। यही चीज हमारी दृष्टि और जिस लक्ष्य को हासिल करना है उसे निर्धारित करती है।"
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बुधवार, 12 सितंबर 2012

प्रत्येक परिवार को 2 रूपये किलो की दर से हर माह 35 किलो अनाज के लिए भाकपा एवं वाम दलों का ऐतिहासिक आन्दोलन

लखनऊ 12 सितम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य मंत्रिपरिषद की ओर से जारी प्रेस बयान में पार्टी के राज्य सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप ने कहा है:
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं अन्य वामपंथी दलों के राष्ट्रीय आह्वान पर उत्तर प्रदेश के समस्त जनपदों में आम जनता के लिये खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर आज ‘राष्ट्रीय मांग दिवस’ मनाया गया।
विभिन्न जनपदों की पार्टी इकाइयों ने मांग दिवस मनाने के लिए धरने, प्रदर्शनों एवं जुलूसों का आयोजन किया। राष्ट्रीय नेतृत्व ने निर्णय किया था कि मांग दिवस पर विरोध प्रदर्शन जिला मुख्यालयों अथवा शहर की सीमाओं में एफसीआई के गोदामों के समक्ष कार्यक्रम आयोजित किया जाये।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं अन्य वाम दलों ने आम जन की खाद्य सुरक्षा की प्राप्ति के लिये मांग की है कि बीपीएल एवं एपीएल के बटवारे के स्थान पर समस्त जनता के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू की जाये। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अधिकतम दो रूपये प्रति किलो के हिसाब से कम से कम 35 कि.ग्रा. अनाज हर परिवार को उपलब्ध कराया जाये, योजना आयोग के गरीबी पर जारी किये गये फर्जी आंकडे खारिज किये जायें तथा इन आंकड़ों को कल्याणकारी योजनाओं के आबंटन का आधार न बनाया जाये, किसानों की उपज की लाभकारी कीमतें दी जायें और उनकी जरूरतों की सामग्री कम दामों पर उपलब्ध कराई जाये तथा इस विषय में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाये, समस्त जनता के लिए राशन की गारंटी की जाये, कैश कूपन देने का फैसला निरस्त किया जाये तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक और भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जाये। इन मांगों के साथ-साथ मंहगाई, भ्रष्टाचार एवं काले धन के सवालों को भी उठाया गया।
12 सितम्बर के पूर्व इन मुद्दों को आम जनता के बीच ले जाने के लिए पूरे प्रदेश में 27 अगस्त से 11 सितम्बर तक पूरे पखवाडे व्यापक प्रचार अभियान चलाया गया तथा इस अभियान में पद यात्रायें, आम सभायें, नुक्कड़ सभायें, साईकिल मार्च और संवाददाता सम्मेलन आयोजित किये गये।
समाचार भेजे जाने तक भाकपा राज्य कार्यालय पर 60 जिलों से सूचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। लखनऊ, सीतापुर, कानपुर, कानपुर (देहात), वाराणसी, गोरखपुर, इलाहाबाद, फैजाबाद, आगरा, हाथरस, अलीगढ़, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, गाजियाबाद, मऊ, आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, बागपत, मैनपुरी, देवरिया, चंदौली, बांदा, अलीगढ़, गाजियाबाद, बलरामपुर आदि जिलों में असरदार कार्यक्रम सम्पन्न हुए। उरई में हजारों की संख्या में जनता ने भागीदारी की तथा कलेक्ट्रेट में पुलिस घेरे को तोड़ कर बड़ी आम सभा की। कार्यक्रम को सम्पन्न करने के बाद प्रधानमंत्री के नाम सम्बोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को दिये गये।
इस अवसर पर पार्टी की राज्य मंत्रिपरिषद के साथियों एवं पदाधिकारियों ने विभिन्न जिलों में उपस्थित रहकर कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन किया। हाथरस में राज्य सचिव डा. गिरीश ने, लखनऊ में राज्य सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप, अशोक मिश्र तथा आशा मिश्रा ने, मऊ में राज्य सह सचिव इम्तियाज अहमद, पूर्व विधायक ने कार्यक्रमों में भागीदारी की। राज्य कार्यकारिणी के सदस्यगण भी विभिन्न जिलों के कार्यक्रमों में व्यस्त रहे।
धरनों एवं प्रदर्शनों के बाद सम्पन्न हुई सभाओं में वक्ताओं ने कहा कि मई 2012 को सरकारी गोदामों में गेहूं और चावल का 7 करोड 70 लाख टन का बड़ा भण्डार भरा पड़ा है परन्तु इस इनाज को सरकार बर्बाद अथवा चूहों के खाने के लिये देने को तत्पर है परन्तु आम जनता को बांटने में उसको मजबूरी दिखाई देती है। किसान आत्महत्यायें करते हैं पर खाद्यान्न नीति बड़े पूंजीपतियों तथा अमरीका और यूरोप के देशों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से बनाई गयी हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इन नीतियों के खिलाफ आन्दोलन कर रही है और आम जनता की खाद्य सुरक्षा मांग रही है। नेताओं ने कहा कि यह संघर्ष ऐतिहासिक है और एक-आध करोड़ को छोड़ कर देश की 120 करोड जनता का आन्दोलन है।


कार्यालय सचिव
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धार्मिक रुकावटों से बड़ी है संस्कृति - एस.सुधाकर रेड्डी

भारत-पाकिस्तान एक भौगोलिक बंटवारा है परन्तु उनकी जनता की सांस्कृतिक विरासत सांझी हैं। उनके दुश्मन गरीबी और साम्राज्यवाद होने चाहिए। उन्हें एक-दूसरे से नहीं लड़ना चाहिए। संस्कृति अधिक महत्वपूर्ण और धार्मिक बाधाओं से बड़ी है। लोग कोई सीमाएं नहीं जानते हैं। उन्हें दोनों देशों में शांति और समृद्धि के लिए काम करना चाहिए। भारत-पाकिस्तान की सीमा पर दोनों देशों से आए 50 हजार से भी अधिक लोगों को संबोधित करते हुए भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने यह बातें कही।
    आजादी की लड़ाई के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़े इस जन-सैलाब ने शांति और मित्रता का संदेश दिया। उन्होंने 14 अगस्त को पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया तो वहीं 15 अगस्त को भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाने का निश्चय भी दिखाया। उन्हें इसकी बड़ी ओर सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली और उन्होंने ये दोनों विशेष दिन मनाएं।
    सुधाकर रेड्डी ने कहा कि दोनों देशों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण ही इनकी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुनहरा बना सकता है। सुधाकर रेड्डी ने अमृतसर में मीडिया से मुखातिब होते हुए अमेरिका के ऑक क्रीक में सिख गुरुद्वारे पर हमने की निन्दा करते हुए कहा कि अमेरिका को बंदूक की संस्कृति पर रोग लगानी चाहिए जिसके कारण उनके देश में ढेरों लोग अपनी जान गंवा देते हैं।
    दोनों देशों के लोगों को एक दूसरे के करीब लाने के क्रम में आयोजित इस दोस्ती उत्सव में शािमल लोगों में काफी उत्साह था। उन्होंने पतंगे उड़ाई, केक काटे, खाना बनाया, इफ्तार दावतों का आयोजन किया और दोनांे तरफ जलियावाले बाग के शहीदों को श्रद्धांजति आर्पित की।
    गोवा से अमृतसर और उसके बाद वाघा बार्डर की थका देने वाली यात्रा के बाद भी भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी दो देशों के बीच दोस्ती और मोहब्बत के इस दुर्लभ समारोह में शामिल हुए जबकि वही ंदूसरी तरफ देश में साम्प्रदायिक तत्व इस सांझी संस्कृति की भावना को बांटने का झण्डा उठाए हुए हैं। फॉल्कलोर रिसर्च अकादमी के रमेश यादव और करांची के यूथ एलायंस के नेता, अध्यापक शुमेल जैदी ने इस समारोह के द्वारा बंटवारे के जख्मों को मरहम लगाने, उन्हें भरने का काम किया।
    भाकपा महासचिव किसी भी राजनीतिक दल के ऐसे पहले नेता हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान दोस्ती मंच और तीन अन्य संगठनों द्वारा भारत-पाकिस्तान दोस्ती मंच और तीन अन्य संगठनों द्वारा भारत-पाकिस्तान स्वतंत्रता दिवसों के मौके पर आयोजित इस दोस्ती उत्सव में भाग लिया। उन्होंने दोनों तरफ देशों के स्वतंत्रता दिवस समारोह आयोजित किए। हालांकि वह भौगोलिक रूप से बंटे हुए हैं मगर उनके संदेश एक हैं शांति और मित्रता ना कि दुश्मनी और नफरत के।
    13 अगस्त की शाम को दक्षिण एशिया में शंाति का वातावरण बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले सूफीवाद पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया। जिसमें सांसदों, लेखकों, बुद्धिजीवियों की बड़ी तादाद के अलावा न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर ने भी भाग लिया। सूफीवाद एक ऐसा ख्याल, ऐसी भावना है, जो किसी भी प्रकार के धार्मिक आग्रह, पक्षपात और सीमाओं से परे है। दक्षिण एशिया की मीडिया एसोसिएशन द्वारा फॉल्कलोर रिसर्च अकादमी, हिन्द-पाक दोस्ती मंच और पंजाब जागृति मंच के सहयोग से आयोजित इस सेमिनार ने सूफीवादी सिद्धांतों के माध्यम से आतंकवाद जैसी समस्याओं के जवाब खोजने की कोशिश की।
    पाकिस्तान राष्ट्रीय एसेम्बली के सदस्य खालिद अहमद और एसएएफएमए के खुशनूर अली खान कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि थे।
    सेमिनार में भाग लेने वाले अन्य प्रसिद्ध एवं प्रबुद्ध लोगों में सूफी गायक हंसराज हंस, समाजवादी पार्टी नेता अम्बिका चौधरी, सतनाम सिंह मानेक और पूर्व सांसद एवं नई दुनिया के संपादक शाहीद सिद्दि भी शामिल थे। इस साझे मंच पर एक सामन जज्बातों का साझा किया गया और दोनों देशों के उलझे हुए राजनीतिक सवालों को हल करने और दो बंटे हुए समाजों के बीच में पुल का काम करने के लिए सूफीवाद को प्रोत्साहित करने की बात की गई।
    तत्पश्चात् 14 अगस्त को जलियांवाला बाग से वाघा बार्डर तक ‘‘अमन कारवां’’ के रूप में एक कैंडिल मार्च किया गया। भाकपा महासचिव ने इस ऐतिहासिक स्थल से अन्तर्राष्ट्रीय सीमा तक इस कैंडिल मार्च की मशाल संभाली और भारत पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवसों 14-15 अगस्त की रात्रि को 66वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। मध्यरात्रि को अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के पास आयोजित इस कैंडिल मार्च में कई हजार लोगों ने भाग लिया।
    जैसे ही आधी रात का समय हुआ सीमा के दोनों तरफ हजारों भारतीय और पाकिस्तानी लोग इस संकट के दौर में सौहार्द और सांझी विरासत की ज्योति रूपी कैंडल संभाले खड़े थे। दोनों देशांे की सीमा रेखाओं के बीच महज 15-20 फुट का फासला है। जिसके दोनों तरफ हाथों में मोमबत्ती लिए लोग एक दूसरे को बधाई दे रहे थे और शांति और दोस्ती के नारे लगा रहे थे। वह नारे लगा रहे थे कि ‘‘हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं’’ और एक आवाज जब पाकिस्तान से उठती तो उसका जवाब हिन्दुस्तान की सीमा रेखा से आता था और यह नारा भारतीय सीमा से शुरु होता तो उसका जवाब पाकिस्तानी सीमा रेखा से आता था। वहां जोरदार नारे गूंज रहे थे ‘‘हिन्दी-पाकिस्तानी मैत्री जिन्दाबाद’’, ‘‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’’, ‘‘हिन्दुस्तान जिन्दाबाद’’। एक ओर नारा जो हवा में गूंज रहा था ‘‘भाई को भाई से मिलन दो’’। इसमें औरत, बच्चे ओर हर आयु वर्ग के लोग शामिल थे। दोनांे तरफ के सीमा क्षेत्रों को शानदार ढंग से सजाया गया था।
    सीमा पर बीटिंग रीट्रिट एक नियमित कार्य है। दोनों तरफ के लोग इसमें उल्लासपूर्ण तरीके से शामिल होते हैं यह समारोह दरवाजों के बंद होने तक का है। 15 अगस्त को देशभक्ति की मजबूत भावना इसे और अधिक विशेष बना रही थी।
    औरतें और बच्चे जोश में ‘‘रंग दे बसन्ती’’ और ‘‘सुनो गौर से दुनिया वालों’’ जैसे गीत गा रहे थे। दूसरी तरफ भी ऐसे ही गाने थे ‘‘सबसे प्यारा है मेरा पाकिस्तान’’ जो उधर भी माहौल में देशभक्ति का जोश भर रहे थे।
    शाम का एक सांस्कृति कार्यक्रम में 5000 से अधिक लोगों ने भाग लिया। इस कार्यक्रम में सुधाकर रेड्डी को मुख्य अतिथि बनाना भाकपा का बड़ा सम्मान करना था। इसी अवसर पर आधी रात को उन्होंने दोनों देशों के लोगों को संबोधित किया।
    इस समय पर बोलते हुए भाकपा नेता ने कहा कि दोनों देशों के बीच रक्षा बजट में कटौती करके सामान्य संबंध बहाल किए जा सकते हैं और बजट का बचा हुआ भाग दोनों देशों के विकास में सहायक होगा। उनके भाषण को लोगों ने काफी सराहा। उनका साथ भाकपा के पूर्व राज्य सचिव डा. जोगिन्दर सिंह दयाल और जिला सचिव अमरजीत सिंह असल के और कार्यक्रम के आयोजक रमेश यादव ने दिया।
    डा. दयाल ने पाकिस्तानी हिन्दुओं की समस्याओं को देखने के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा तीन सदस्यी कमेटी के गठन का स्वागत किया।
    आयोजकों ने दोनों देशों की सरकारों से अपने देशों के अल्पसंख्यकों की हिफाजत और देख-रेख की अपील की। उन्होंने दोंनों देशों की सरकारों से अल्पसंख्यकों, औरतों और बच्चों के जनवादी और मौलिक अधिकारों की रक्षा की भी अपील की। यह अपील उनके 11 प्रस्तावों का एक हिस्सा थी। अपील में आतंकवाद पर अंकुश और साम्प्रदायिक हिंसा पर रोक की मांग भी शामिल थी। इसी में सार्क देशों द्वारा पारित प्रस्तावों को लागू करने की अपील भी शामिल थी।
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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

बेरोजगारी भत्ते की ओर ताकते नौजवान

कल 9 सितम्बर को लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़े जोर-शोर के प्रचार के साथ नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देना शुरू कर दिया। हर बेरोजगार को उत्तर प्रदेश में कल से मिलने लगा हर माह एक हजार रूपये का बेरोजगारी भत्ता। पिछले विधान सभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देने की बात की थी। बड़ी चतुराई से चुनाव घोषणापत्र में यह लिखा गया था कि 35 साल के ऊपर के बेरोजगार नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। चुनाव घोषणापत्र में लिखा कौन पढ़ता है। मुलायम सिंह और अखिलेश सिंह पूरे प्रदेश में अपनी चुनाव सभाओं के दौरान नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देने की बात करते रहे। अखबारों में उनका यह उद्घोष मोटे-मोटे टाईप में मुखपृष्ठों पर छपता रहा। बेरोजगार नौजवान उनके पीछे दौड़ने लगे और लम्बी-लम्बी लाईन लगाकर समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाकर सत्ता में पहुंचा दिया।
सत्ता में पहुंचने के बाद सरकार ने चुनाव घोषणापत्र दिखाते हुए घोषणा कर दी कि केवल 35 साल के ऊपर के नौजवान बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। चर्चा शुरू हुई, असंतोष शुरू हुआ। चुनाव घोषणापत्र में जो छापा था, वह तो नौजवानों को दिखाया नहीं गया था। 35 साल की उम्र तक आदमी रोजगार न मिलने पर कुछ न कुछ तो करने लगता है चाहे रिक्शा चलाये या जूता गांठे या मजदूरी करे। बेरोजगारी के असली दंश को उसे शिक्षा पूरी करने के बाद 18-20 साल की उम्र में ही झेलना शुरू करना पड़ता है। जहां नौकरी निकलती है, वहां आवेदन देने के पैसे भी भरने पड़ते हैं फिर दौड़ कर टिकट खरीद कर जाना भी पड़ता है। उससे 35 साल की उम्र तक बेरोजगार रहने और इंतजार करने को कहना निश्चित रूप से उसकी बेरोजगारी का मजाक उड़ाना नहीं तो क्या था। दूसरे 35 साल की उम्र में आदमी प्रौढ़ होना शुरू कर देता है, जवानी तो उसकी खत्म ही हो जाती है।
हल्ला मचना शुरू हुआ, रोष उपजना शुरू हुआ तो उम्र कम करते करते पहले 30 फिर 25 साल कर दी गयी। कम से कम लोगों को बेरोजगारी भत्ता देना पड़े इसके लिए कई शर्ते लगाई जाने लगीं - मसलन बेरोजगारी भत्ता पाने वाले को जब बुलाया जायेगा, उसे काम करने के लिए हाजिर होना होगा नहीं तो भत्ता बन्द कर दिया जायेगा और दिये गये भत्ते की वसूली कर ली जायेगी। विरोध होने पर कुछ शर्तों को तो वापस ले लिया गया लेकिन एक नई शर्त के साथ कि बेरोजगार नौजवान की कुल श्रोतों से पारिवारिक आमदनी 3000 रूपये से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और उसे कम से कम ग्रैजुएट तो होना ही चाहिए।
बेरोजगार आखिर बेरोजगार ही होता है। चाहे कितना भी पढ़ा लिखा हो या फिर न पढ़ा लिखा हो, बेरोजगारी का दंश को उसे ही झेलना होता है। उसका परिवार चाहे कितना भी कमाता हो अथवा भूखा मरता हो। बेरोजगारी की पीड़ा तो किसी बेरोजगार से पूछिये।
कल के इस समारोह के समाचार कई दिनों से समाचार पत्रों में छप रहे थे। अधिकारिक आंकड़े को अभी तक मालूम नहीं हुए हैं परन्तु इतना पता चला है कि सरकार ने लगभग सत्तर-पचहत्तर हजार नौजवानों को चिन्हित कर लिया है जोकि प्रदेश में बेरोजगार हैं।
जानकर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि जिस तरह से सरकार बेरोजगारी भत्ता देना चाहती थी और नही भी देना चाहती थी, उसको देखते हुए लगभग इतने ही लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिलने का अंदाजा हमें था। लेकिन उत्तर प्रदेश के बेरोजगार नौजवानों को शायद आश्चर्य हुआ हो।
योजना आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश में लगभग 6 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं जिसमें से लगभग 1 करोड़ लोग नौजवान हैं। योजना आयोग द्वारा गरीबी की परिभाषा के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय 26 रूपये और शहरी क्षेत्र में 32 रूपये है। इस प्रकार यदि 30 दिनों का महीना माना जाये और 4 व्यक्तियों का परिवार को ग्रामीण क्षेत्र में गरीबों की प्रति परिवार मासिक आय 3120 रूपये और शहरी क्षेत्र में 3840 रूपये बनती है। उत्तर प्रदेश ने 3000 रूपये प्रतिमाह की आमदनी का आंकड़ा उससे भी कम रख दिया। गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के बच्चे ग्रैजुएट बन कहां पाते हैं? अगर बन भी जाते हैं तो बेरोजगार कहां रह पाते हैं दस-पांच रूपये के लिए किसी न किसी पंचर बनाने की दुकान या होटल पर बर्तन साफ करने की नौकरी करने लग जाते हैं।
लोगों को कायल होना चाहिए कि ऐसी विषम परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश सरकार को कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी पात्र बेरोजगारों को ढूंढने के लिए। लोगों को बेवकूफ बनाने के हुनर के लिए हमें समाजवादियों की तारीफ करनी चाहिए। लेकिन जो बार-बार बेवकूफ बन कर भी न समझ सके ...........?
- प्रदीप तिवारी
10 सितम्बर 2012
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खाद्य सुरक्षा के लिए एवं महंगाई तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ वामपंथी दलों का आन्दोलन कल 12 सितम्बर को

    लखनऊ 11 सितम्बर। वामपंथी दलों - भाकपा, माकपा, आरएसपी तथा फारवर्ड ब्लाक के संयुक्त आह्वान पर बीपीएल-एपीएल के मानक को समाप्त कर देश के हर परिवार को हर महीने 2 रूपये कि.ग्रा. के हिसाब से 35 कि.ग्रा. खाद्यान्न मुहैया करवाने की कानूनी गारंटी के लिए, दिन दूनी रात चौगुनी गति से लगातार बढ़ती महंगाई एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के क्रम में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) कल 12 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में विशाल धरने, प्रदर्शन एवं जुलूस का आयोजन करेगी।
    यह जानकारी देते हुए भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने यहां बताया कि जिन जिलों में अन्य वामपंथी दलों का सांगठनिक आधार है, वहां पर भाकपा कार्यकर्ता संयुक्त धरना-प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं।
    भाकपा राज्य सचिव ने बताया कि उत्तर प्रदेश में भाकपा के कार्यकर्ता प्रदेश सरकार द्वारा महंगाई नियंत्रित करने के उपाय करने के बजाय लगातार करों की दरों में वृद्धि कर तमाम जिंसों के भाव बढ़ाने के कार्य का भी विरोध करेंगे।
    लखनऊ में यह आन्दोलन धरना स्थल (विधान सभा के सामने) पर धरना के रूप में होगा।



कार्यालय सचिव

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शनिवार, 8 सितंबर 2012

CPI PLANS MASS STRRUGGLES IN COMING MONTHS


The three days session of the National Council of the Communist Party of India (CPI) concluded here on September 7, 2012. BKMU leader Comrade Nagendranath  Ojha presided  over the session. It was preceded by the meeting of the National executive on September 5, 2012.
CPI General Secretary Comrade S. Sudhakar Reddy presented a comprehensive report on economic and political developments since the 21st Party Congress held at Patna in March this year. The report noted the deepening of the global economic crisis that has started affecting the developing world including India adversely. As the UPA2 government   refuses to review the disastrous course of neo-liberalism, the country is facing serious economic crisis. There is all round deterioration with decline in industrial production, in service sector and overall decline in GDP growth rate that has plunged to all time low of 5.3 per cent. The government in place of tackling the serious problems of price rise, unemployment and attacks on working class is intending to aggressively pursue the course of economic neo-liberalism by showering concessions on Corporates and denying the people small benefits of subsidy. Government is threatening to once more increase prices of petrol, diesel and LPG that will have cascading impact on the price situation as a whole.  People are restive and are joining the struggles in large number.
The National Council condemned the continued disruption of Parliamentary proceedings and termed it as a “fixed Match” between Congress and BJP both of whom are equally mired in corruption. Actually corruption is a bye-product of economic neo-liberalism that facilitate loot of natural resources and sharing of the loot among politicians corporate and bureaucracy.
Apart from preparing for observance of NATIONAL FOOD SECURITY DAY on SEPTEMBER 12 called by the four Left parties, the National Council has called upon the entire party to observe OCTOBER 2, as Day in defense of Secularism and National unity. This day has assumed urgency in the background of sinister attempts by the communal forces of all hues to rouse communal passion in the context of ethnic riots in Assam.  Cyberspace has been used to spread communal poison. The situation is becoming alarming as forces wanting to hasten the communal polarization of the population are taking vicious measures for limited political gains.
 Re-emphasizing the need for conducting result-oriented struggles at grass root level to build a stronger CPI, the National Council also decided to support the mass struggles to be launched by various mass organizations. Major actions in the coming months will be:
  •  The call by  all Central Trade Unions (CTUs)  for intensified struggles ;  
  •  Jail Baharo in November, Parliament March in December and  two days general strike in February 2013;
  • March to Parliament by All India Kisan Sabha and Bhartiya Khet Mazdoor Union on November 1.
  • March to Parliament by AISF and AIYF on November 2 for right to education and right to employment.
  • Food Security Day by NFIW on September 18 and Day against atrocities on women on October 2.
  • National campaign for proper implementation of SC-ST Sub plan on December 10, 2012.
The National Council also considered a note on preparations for the  elections to nine state  assemblies  in 2012 and 2013 as well as preliminary  review  of preparations for Lok Sabha elections. The National Council is of the firm opinion that the  party should bid for winning and increasing its representation in the state assemblies and work for a strong Left Block with impressive presence of the CPI in it, in the new Lok Sabha.  Party   is committed for the Left unity and along with other Left parties will work out the detailed electoral tactics as per the concrete situation prevailing in states at the time of the election.
The National Council filled the vacancies in National executive by inducting Comrades Rajendra Nath Singh, Badri Narayan Lal and Ram Naresh Pande from Bihar, UP state Council secretary Dr. Girish and Odhisha state secretary Dibakar  Nayak.
The National Council adopted a number of resolutions on immediate issues.
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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

Gurudas Dasgupta's Note of dissent on present economic situation


Communist Party of India (CPI) parliamentary group leader and CPI National Council secretary Gurudas Das Gupta has said that the UPA-II government has miserably failed over the years to stimulate inclusive growth and rather did not succeed even to maintain the rate of GDP growth attained earlier, which is today at an all-time low of 5.3 per cent.  It could not even hold the price line mainly of the essential commodities including food articles.

The veteran parliamentarian, also the AITUC general secretary, made these observations in his dissent note on the report of the parliamentary standing committee on finance concerning the present economic situation, submitted on August 29, 2012.

Unfortunately, the standing committee’s draft report as prepared failed to critically examine the fundamentals of the economic policy and suggest effective alternatives instead objectively approved the policy that has been pursued by the government, he said.  “It does not even refer to the futility of the policies and non-performance of the government.  In my view, the committee did not discharge its responsibility by patting on the back of the government.”

Saying that the present crisis cannot be attributed solely to the international crisis, second in two years, Dasgupta said that the present policy of unguarded liberalisation, reckless privatisation, unusual dependence on foreign funds, over dependence on export market, failure to curb speculation in a situation of scarcity, its total inability to provide economic empowerment to a vast section of the majority of the people, galloping disparity of income and increasing unprecedented concentration of wealth in the hands of the few form the basic negative feature that has been overlooked by the committee. 

The report speaks of economic incentive regime for accelerating and sustaining growth.” It also states that “the committee, hence recommend that the FDI policy may be reviewed by the government to ensure the above and make India an increasingly attractive and investor-friendly destination for foreign investors.” It further says: Our policies should attract more long-term capital inflows and push investments through reforms.

Thus, the CPI group leader pointed out that the observations clearly approve the government of Indias FDI-friendly policy of economic reform, spelling out the undeniable message that it is the foreign investment that will engineer the process of accelerated economic growth obviously taking care of the basic human problems. “This proposition has not been found to be correct anywhere in the world.  The committee rejecting all the Indian realities, by implication seeks to strengthen the hands of the government to bulldoze its people-unfriendly economic reform.  The report will give a free hand to the government to allow FDI in the retail trade, further tax concession to the corporates in the SEZs, it will lead to more violation of labour laws and enable the government to infuse FDI in the banking and insurance having proportionate voting rights.  In the name of attracting foreign funds it will bestow more concessions undermining the national interest, making India the most attractive hunting ground for the international players looking for unlimited profits exploiting national resources and manpower.”
 
             Stating that primarily the growth of the economy depends on national resources augmenting progressive tax revenue, broadening the tax base, reducing the tax concession, holding up tax avoidance, by waging all out war to retrieve black money, curbing unaccounted income, effectively fighting corruption and reducing wasteful expenditure and relocating priorities in the process of budget making, he said that nobody is denying the role of FDI in  national development, which by all means is subsidiary. 
               The direction of the report, which is extremely flawed is stereotyped and does not search for alternative policy which the nation is looking for. There is no word for stimulating the domestic market, enlarging the empowerment of the marginalised majority.

              The report in the background of the agricultural crisis does not call for heavy public investment in agriculture, only asks for infusion of fundswithout indentifying the source of funds.  While investment in agriculture has been dwindling down over years, both public and private, the report does not “look beyond the nose, makes a superfluous comment on the need of infusion of funds, which is unlikely to happen.” 

“Nevertheless it is correct to say that private investment has a crucial role in a mixed economy like India.   But in a situation of gloom and downturn, it is massive government investment targeted to augment the income of the common people, for creating job, ensuring stability of income of the disadvantaged, even incurring budget deficit can turn around the economy.  Heavy government investment will stimulate the market, generate the income, improve aggregate demand and as a result market shall look up creating the atmosphere for the inflow of profit oriented private investment, even draw foreign funds.  Unfortunately, the alternative perception is ignored and discarded by the Report and in fact it strengthens the hands of the government to carry forward the present anti-people economic policies”, the dissent note adds.
 
Criticising the government for recommending the sale of family silver to meet the grocers bill, he said that the report suggests disinvestment for raising revenue, when the market sentiment is so negative. “The Committee unfortunately goes so far as to suggest 10 per cent reduction in the non-plan expenditure which essentially suggests to reduce subsidy obviously hurting the common people.  This is quite in line with what the present government wants to do.  In the name of quoting RBI, the report puts on record with concern the question of overshooting of subsidies.”

The committee, he says, “even refers to with concern the impact of retrospective tax lawsand general anti-tax avoidance rules. It calls upon the Government to modify/withdrawal these laws so that investorsinterest is not hurt.  It calls upon the government for the speedy enactment of the financial reform Bill including Pension Fund Regulatory and Development Authority Bill, the Companies Law Amendment Bill.  The report undoubtedly shall be a feather in the cap of Dr Manmohan Singhs government.”

The report in the name of strengthening the health of the banks “seeks to permit the government for going for merger of the banks undermining the national interest.  It also opens the door for private investment in banks diluting its public sector character.”
              Since the report is one sided, seeks to strengthen the hand of the government in pushing through all its corporate friendly reform programme at the cost of the interest of the people, since the report does not locate the fundamental anachronism in the economic policy that has led to a situation of slowdown and food inflation, almost taking the country to the threshold stagflation, since the report is in fact an apology for the inaction of the government and since the report does not find any fundamental flaw in the policy and refrains from outlining people friendly suggestions Dasgupta made it clear that he has no other alternative but to put on record his dissent.  “It is unfortunate that the report is likely to serve as a readymade weapon in the hand of the government to defend its failed economic policy running the country.”

             
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