भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उसने देश के लोकतंत्र की सबलता के प्रतीक ˜सूचना का अधिकार कानून की मर्यादा का खयाल रखा और पार्टी से संबंधित सवालों का बेबाकी से जवाब दिया। हैरानी यह है कि जिस कांग्रेस की अगुवाई में देश को यह युगांतरकारी अधिकार मिला था वही पार्टी इस कानून के लिहाज में पीछे रह गई। यह और अफसोसनाक है कि लोकतांत्रिक लिहाज की इस अवज्ञा में बीजेपी, सीपीएम, एनसीपी और बीएसपी जैसे राष्ट्रीय दलों ने भी उसका साथ दिया। राजनीतिक दलों को इस कानून की जद में लाए जाने की विरोधी खुद सीपीआई भी है लेकिन तिरस्कार की जगह उसने इस व्यवस्था का सम्मान रखा और साथ में लोकतांत्रिक अंदाज में अपनी आलोचना भी रखी। लेकिन बाकी पार्टियों के आचरण से झलक गया है कि वे किसी भी हालत में अपनी ˜सूचना अपने वोटरों के साथ साझा करने को तैयार नहीं हैं। खबर है कि कानून मंत्रालय ने सूचना अधिकार कानून में वे संशोधन भी तैयार कर लिए हैं जो राजनीतिक पार्टियों के लिए कवच का काम करेंगे। पहले र्चचा थी कि अध्यादेश के रास्ते ये संशोधन प्रभावी कर दिए जाएंगे। लेकिन खाद्य सुरक्षा के तुरंत बाद दूसरा अध्यादेश, वह भी ऐसे संवेदनशील मसले पर लाए जाने से शायद बचना चाह रही थी सरकार। सरकार को मालूम है कि सूचना कानून में इस सेंध के बाद कैसा बवाल मचना है। इसीलिए वह सभी पार्टियों को साथ कर संसद के रास्ते इस कानून की धार को मंद करने की राह पर चलना चाहेगी। अब यह देखिए कि सीपीआई ने इस कानून के तहत यही तो बताया कि उसे पिछले वर्षो में कहां से और कितना फंड मिला। बड़े चंदों की रसीदें भी उसने दिखाई। पारदर्शिता के इस आचरण से पूरे देश के दिल पर थोड़ा मरहम तो जरूर लगा होगा जो महाभ्रष्टाचारों की अनंत कथा सुन-सुन कर सुलगने लगा है। सूचना के अधिकार को अपने कामकाज में दखलंदाजी के रूप में क्यों ले रही हैं पार्टियां! सभी पार्टियां चंदे पर चलती हैं और रकम की मात्रा सत्ता में उनकी हनक के अनुपात में घटती-बढ़ती रहती है। चंदे के स्रेत और मात्रा को गोपनीयता के चादर में छुपाना पार्टियों की विश्वसनीयता पर सवाल उठा देता है। राजनीतिक पार्टियों की हैसियत वोटर बनाते हैं और पार्टियों को आज नहीं तो कल उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझनी होगी। केंद्रीय सूचना आयोग की डेडलाइन खत्म होने के बाद अब उन पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई का रास्ता खुल गया है जिन्होंने मांगी गई सूचना निर्धारित समय तक नहीं दी। लेकिन, कार्रवाई के लिए भी डेढ़ महीने का अंतराल है। जाहिर है कि पार्टियां इस अंतराल के अंदर ही कानून में बदलाव लाना चाहेंगी। जनहित के लिए बनने वाले कानून भले पार्टियों के बीच घमासान में दब कर दम तोड़ देते हों, सूचना अधिकार पर चलने वाली तलवार का हाथ कोई रोक नहीं पाएगा। कानून में बदलाव वही लोग करने वाले होंगे जिन्हें देश ने इसी काम के लिए चुन कर भेजा है। यह बात दीगर है कि वे ताकत का इस्तेमाल लोकतंत्र की मजबूती नहीं, बल्कि अपने हितों की पूर्ति के लिए कर रहे होंगे।
बुधवार, 17 जुलाई 2013
सी पी आई का साहस ---राष्ट्रीय सहारा
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उसने देश के लोकतंत्र की सबलता के प्रतीक ˜सूचना का अधिकार कानून की मर्यादा का खयाल रखा और पार्टी से संबंधित सवालों का बेबाकी से जवाब दिया। हैरानी यह है कि जिस कांग्रेस की अगुवाई में देश को यह युगांतरकारी अधिकार मिला था वही पार्टी इस कानून के लिहाज में पीछे रह गई। यह और अफसोसनाक है कि लोकतांत्रिक लिहाज की इस अवज्ञा में बीजेपी, सीपीएम, एनसीपी और बीएसपी जैसे राष्ट्रीय दलों ने भी उसका साथ दिया। राजनीतिक दलों को इस कानून की जद में लाए जाने की विरोधी खुद सीपीआई भी है लेकिन तिरस्कार की जगह उसने इस व्यवस्था का सम्मान रखा और साथ में लोकतांत्रिक अंदाज में अपनी आलोचना भी रखी। लेकिन बाकी पार्टियों के आचरण से झलक गया है कि वे किसी भी हालत में अपनी ˜सूचना अपने वोटरों के साथ साझा करने को तैयार नहीं हैं। खबर है कि कानून मंत्रालय ने सूचना अधिकार कानून में वे संशोधन भी तैयार कर लिए हैं जो राजनीतिक पार्टियों के लिए कवच का काम करेंगे। पहले र्चचा थी कि अध्यादेश के रास्ते ये संशोधन प्रभावी कर दिए जाएंगे। लेकिन खाद्य सुरक्षा के तुरंत बाद दूसरा अध्यादेश, वह भी ऐसे संवेदनशील मसले पर लाए जाने से शायद बचना चाह रही थी सरकार। सरकार को मालूम है कि सूचना कानून में इस सेंध के बाद कैसा बवाल मचना है। इसीलिए वह सभी पार्टियों को साथ कर संसद के रास्ते इस कानून की धार को मंद करने की राह पर चलना चाहेगी। अब यह देखिए कि सीपीआई ने इस कानून के तहत यही तो बताया कि उसे पिछले वर्षो में कहां से और कितना फंड मिला। बड़े चंदों की रसीदें भी उसने दिखाई। पारदर्शिता के इस आचरण से पूरे देश के दिल पर थोड़ा मरहम तो जरूर लगा होगा जो महाभ्रष्टाचारों की अनंत कथा सुन-सुन कर सुलगने लगा है। सूचना के अधिकार को अपने कामकाज में दखलंदाजी के रूप में क्यों ले रही हैं पार्टियां! सभी पार्टियां चंदे पर चलती हैं और रकम की मात्रा सत्ता में उनकी हनक के अनुपात में घटती-बढ़ती रहती है। चंदे के स्रेत और मात्रा को गोपनीयता के चादर में छुपाना पार्टियों की विश्वसनीयता पर सवाल उठा देता है। राजनीतिक पार्टियों की हैसियत वोटर बनाते हैं और पार्टियों को आज नहीं तो कल उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझनी होगी। केंद्रीय सूचना आयोग की डेडलाइन खत्म होने के बाद अब उन पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई का रास्ता खुल गया है जिन्होंने मांगी गई सूचना निर्धारित समय तक नहीं दी। लेकिन, कार्रवाई के लिए भी डेढ़ महीने का अंतराल है। जाहिर है कि पार्टियां इस अंतराल के अंदर ही कानून में बदलाव लाना चाहेंगी। जनहित के लिए बनने वाले कानून भले पार्टियों के बीच घमासान में दब कर दम तोड़ देते हों, सूचना अधिकार पर चलने वाली तलवार का हाथ कोई रोक नहीं पाएगा। कानून में बदलाव वही लोग करने वाले होंगे जिन्हें देश ने इसी काम के लिए चुन कर भेजा है। यह बात दीगर है कि वे ताकत का इस्तेमाल लोकतंत्र की मजबूती नहीं, बल्कि अपने हितों की पूर्ति के लिए कर रहे होंगे।
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