भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

कामरेड टीकाराम सखुन - महान क्रंतिकारी एवं एक सच्चे कम्युनिस्ट

महान क्रांतिकारी एवं हरियाणा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम राज्य सचिव कामरेड टीकाराम सखुन का जन्म 4 फरवरी 1912 को शिमला में हुआ। उनका पैतृक गांव भूंगा था जो उस समय कपूरथला रियासत में नायब तहसीलदार का मुख्य केन्द्र था और आज पंजाब के होशियारपुर जिले में खंड विकास अधिकारी के कार्यालय के रुप में जाना जाता है। उनकी माता जी का नाम ओमपति एवं पिता का नाम सोहन लाल था, सोहन लाल ब्रिटिश प्रशासन में सुरक्षा अधिकारी के पद पर शिमला में कार्यरत थे इसलिए टीकाराम सखुन का जन्म स्थान शिमला था।
बालक टीकाराम जन्म से ही श्वेत रंगी थे उनकी चमड़ी, केश यहां तक कि उनकी भवें एवं आंखों की पलके तक भी सफेद थी। ऐसी सूरत के कारण वह अंग्रेजो के बच्चों की तरह लगता था। उनकी माता जी का परिवार आर्य समाजी था इसलिए उनकी माता जी पर भी आर्य समाज का प्रभाव रहा और टीकाराम के लालन-पालन पर भी आर्य समाज का प्रभाव पड़ा। लेकिन जब यें मात्र साढ़े चार वर्ष के थे तो इनकी माता जी का देहांत हो गया और उनकी बड़ी बहन बिमला देवी ने उनका पालन पोषण किया। पांच वर्ष की आयु में उन्हें ‘बिशप कॉटन’ स्कूल शिमला में दाखिल करा दिया गया, 1859 में अंग्रेजों के बच्चों के लिए यह स्कूल खोला गया था लेकिन बाद में एक विशेष वर्ग के भारतीय बच्चों को भी इसमें प्रवेश दिया जाने लगा। स्कूल में अ्रग्रेजों के बच्चों की संख्या अधिक थी और वे भारतीय बच्चों से बहुत धृणा करते थे और उनका मजाक उड़ाया करते थे हांलाकि भारतीय बच्चे भी बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं के या उच्चाधिकारियों के होते थे।
विद्यार्थी जीवन में ही सखुन ने भारतीयों के प्रति अंग्रजों के व्यवहार को बहुत नजदीक से देखा, एक मामूली से मामूली अंग्रेज के सामने भी भारतीयों को बार बार गिड़गिडाते देखा। ऐसे वातावरण ने सखुन के दिल में अंग्रेजों के प्रति प्रबल संघर्ष की प्रवृति के बीज बो दिए। अंग्रेजो के बच्चों के व्यवहार के चलते उन्होंने छटी कक्षा में पढ़ते हुए बिशप कॉटन स्कूल छोड़ दिया और किसी को बिना बताए अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के पास लाहौर पहुंच गये, उसने सखुन को डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिला दिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था और रोल्ट एक्ट पास हो चुका था। इस एक्ट के खिलाफ गांधी जी ने जन-आंदोलन छेड़ दिया था, कालेजों के साथ-साथ स्कूलों के विद्यार्थी भी इस आंदोलन में भारी संख्या में भाग ले रहे थे। सखुन भी अपने स्कूल के छात्रों के साथ बड़े जोशो खरोश के साथ इस आंदोलन में शामिल हुए और मात्र 10 वर्ष की उम्र में उन्हें 30-40 बच्चों के साथ गिरफ्तार करके बोर्स्टल जेल में भेज दिया गया।
जब सखुन के पिता जी को इस बात की खबर लगी तो वे लाहौर आये और उन्होंने पुलिस व जेल अधिकारियों को रजामंद कर लिया कि बालक के माफी मांगने पर उन्हें छोड दिया जायेगा, लेकिन सखुन ने माफी मांगने से साफ मना कर दिया और उनके पिता जी को निराश होकर वापस लौटना पड़ा। सन 1922 कें अंत में जेल से बाहर आने के बाद जब सखुन घर गये तो उनके पिता जी ने कहा कि या तो अपनी शर्मनाक हरकत छोड़ दो या घर छोड़ दो तो उन्होंने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया कि ‘पिता जी मैं यह महसूस करता हूं कि इस घर को मेरी आवश्यकता नही है’। यह कह कर उन्होंने घर सदा के लिए छोड़ दिया। सखुन ने भाई कल्याण सिंह के पास आकर किसी तरह फिर डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला लिया और मेहनत व लगन से पढ़ाई के चलते दसवीं कक्षा पास की और डी.ए.वी. कालेज में दाखिला लिया। डी.वी.ए. कालेज उन दिनों राजनीति का केन्द्र था और सखुन भी देश की आजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गये और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अगली कतारों में खड़े हो गये। सरकार ने डी.ए.वी. कालेज के प्राचार्य से टीकाराम को ठीक करने के लिए कहा तो प्राचार्य ने उन्हें कुछ दिन राजनीति छोड़ देने की सलाह दी। उन्होंने राजनीति छोड़ने के बजाए कालेज ही छोड़ दिया और एफ.सी. कालेज लाहौर में दाखिला लेकर वहां से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की।
इसके बाद वे पूरे तौर पर सक्रिय राजनीति में उतर पड़े, बालकों वाला जोश अब होश में बदल गया था, सब बातें सोच-विचार कर करने लगे थे। हालांकि वे गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हुए थे लेकिन उन्हें गांधी जी के रास्ते पर चलने में कोई औचित्य नजर नही आया। इसी समय में उनका झुकाव क्रांतिकारियों की ओर हुआ, इन्ही दिनों पंजाव नौजवान भारत सभा का गठन हुआ और वे इसमें शामिल हो गये। सन 1928 में सभी राजनीतिक पार्टियों ने साईमन कमीशन का विरोध करने का फैसला किया और लाहौर में इस विरोध प्रदर्शन की तैयारी में सखुन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 30 अक्तुबर 1928 को जब ‘साईमन कमीशन’ लाहौर आया तो उसके विरोध में काले झंडे उठाये, साईमन कमीशन वापस जाओं के नारे लगाते हुए विशाल प्रदर्शन किया, सखुन इस प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाली टीम मे शामिल थे। इस प्रदर्शन से बौखलाकर प्रशासन ने जुलूस पर भंयकर लाठीचार्ज किया जिसमें काफी लोग घायल हो गये, लाला लाजपत राय की छाती पर काफी चोट आई और कुछ दिनों में ही लाला जी की मृत्यु हो गई।
इसी दौरान टीकाराम की मुलाकात हिन्दुस्तान सोशिलस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर चन्द्रशेखर आजाद से हुई, उन्होंने सखुन को सलाह दी कि तुम क्रांतिकारी समाजवादी विचारों का अपनी वाणी एवं लेखनी से जनता में प्रचार करों और उन्होंने अपनी इस कला का अंत तक प्रयोग किया। वे अपने समय के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शायर हुए और शायर होने के नाते ही उन्होंने अपना तखल्लुस ‘सखुन’ रखा था, सखुन का अर्थ है काव्य (शायरी)। इन्हीं दिनों सखुन भगतसिंह, चन्द्रशेखर जैसे बहुत सारे क्रांतिकारियों के विश्वसनीय साथी हो गये थे। सखुन ने युवा क्रांतिकारी बलदेव मित्र बिजली, इन्द्रपाल के साथ मिलकर उर्दू में ‘कड़क’ साप्ताहिक अखबार निकाला। क्रांतिकारी नजमों एवं राजनीतिक गतिविधियों के चलते सखुन पर विभिन्न धाराओं में मुकदमें चलाये गये और तीन मुकदमों में उन्हें एक-एक साल की कैद की सजा दी गई। लेकिन 5 मार्च 1931 को गांधी इर्विन समझौते के तहत सखुन सहित बहुत सारे क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया। परन्तु भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव के बारे में कोई चर्चा न हो पाने के कारण तीनों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। पंजाब सहित पूरे देश के नौजवाानों का गुस्सा चरम सीमा पर था। इस समय सखुन ने कई नज्में लिखी, एक नज़्म में उन्होंने लिखा:-
कटे जो चन्द डालिया तो दरख्त में हो ताजगी।
कटे जो चन्द गरदनें तो कौम हो हरी-भरी।।
शहीद की जो मौत है वह कौम की हयात है।
हयात तो हयात है मौत भी हयात है।।
बाद में सखुन को अन्य क्रंातिकारियों के साथ ‘लाल पर्चा’ लिखने एवं छापने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी दौरान जेल मे बंद टीकाराम सखुन के बड़े भाई कल्याण सिंह बीमार पड़ गए और उन्हें टी.बी. हो गई। वे टी.बी. से उबर नही पाये और उनकी दुखद मृत्यु हो गई। अपने क्रांतिकारी सहयोगी व बड़े भाई की मृत्यु पर सखुन को बहुत दुख हुआ लेकिन उन्हें संस्कार में शामिल होने के लिये घर नही जाने दिया गया। सखुन को 3 साल की सजा हुई और झेलम जेल और शाही किले की जेल तक उन्हे भेजा जाता रहा, उन्होंने जेल को क्रंातिकारी समाजवादी विचारों का अध्यन केन्द्र बना लिया। इस दौरान वें अनेक क्रांतिकारियों से मिले औैैर काम के अनुभवों का आदान-प्रदान किया। 1937 के अंत में वे जबरदस्त बीमार पड़ गये थे। बीमारी की हालत में उन्हें 1938 के शुरु में रिहा कर दिया गया। इस दौरान वामपंथी शक्तियां साम्राज्यवाद के विरोध में एकता के साथ मुखर हो गई और मेंहनतकशों, बुद्धिजीवियों में उत्साह की नई तरंग पैदा हो गई, जनांदोलनों का एक तूफान खड़ा हो गया। कई राष्ट्रीय संगठन उभर कर सामने आये। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा, आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन व प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। मजदूर यूनियनंे भी अपने मतभेद भुलाकर 1938 तक आल इंडिया टेªड यूनियन कंाग्रेस (एटक) के झंडे के नीचे एकताबद्ध हो गई थी। इन सब घटनाओं का सखुन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे बीमारी से थोड़ा ठीक होते ही साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे को मजबूत करने में जुट गये। इसी समय में अंग्रेजों ने बहुत सारे क्रंतिकारियों को काले पानी की सजा सुना कर अंडमान की जेल में भेज दिया। तमाम राजनीतिक पार्टियों की ओर से इन देश भक्तों की रिहाई की मांग उठने लगी और एक जबरदस्त आंदोलन खड़ा हो गया, लाहौर के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सखुन ने बंदी छुड़ाओं कमेटी का गठन किया औद गदरी बाबाओं से मिलकर कैदी छुड़ाओं आदांेलन में एक लाख लोगों का प्रदर्शन करने की योजना बनाई। सरकार ने प्रदर्शन से 10 दिन पहले ही सखुन को गिरफ्तार कर लिया लेकिन सखुन की गिरफ्तारी के बाद भी बहुत शानदार प्रदर्शन हुआ। बढ़ते जनांदोलनों को देखकर सरकार को झुकना पड़ा और अंडमान के बंदियों को अपने-अपने राज्यों से स्थानांतरित किया तथा कुछ बंदियों को रिहा भी किया गया।
इस समय तक जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फांसीवाद और जापान में सैन्यवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुके थे। युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी और सितम्बर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजो ने युद्ध के विरोध को देखते हुए भारत रक्षा अधिनियम भी पारित कर दिया और इस कानून के तहत 1940 में पूरे पंजाब से 40 कम्युनिस्टों एवं सोशलिस्टो को गिरफ्तार कर लिया गया, सखुन भी गिरफ्तार कर लिये गए और उन्हें लाहौर सेन्ट्रल जेल से शाही किले में भेज दिया गया, बाद में उन्हें मिंटगुमरी जेल में भेज दिया गया, वहंा कामरेड धनवतरी पहले से मौजूद थे, जेल में बंदियों को राजनीतिक कैदियों की सुविधा देने की मांग को लेकर भूख हड़ताल कर दी थी और सखुन भी इस भूख हड़ताल में शामिल थे। वे 87 दिन भूख हड़ताल पर रहे। सखुन का स्वास्थ्य पहले ही काफी कमजोर था परन्तु उनकी दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्होंने इतनी लम्बी भूख हड़ताल की और उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। इस कारण उन्हें मिंटगुमरी जेल से देवली शिविर में भेज दिया गया।
देवली कैम्प में सखुन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं - श्रीपाद अमृत डांगे, अजय घोष, जेड. ए. अहमद, एस.वी. घाटे, सोहनसिंह जोश एवं अन्य प्रबुद्ध नेताओं से राजनीतिक विचार विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ। हालांकि सखुन मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद का पहले ही काफी अध्ययन कर चुके थे, परन्तु यहां उनकी वैज्ञानिक समाजवाद के संबंध में समस्त शंकाओं का समाधान हो गया। इसलिए वे कंाग्रेस समाजवादी दल छोड़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये।
22 जून 1941 को सोवियत संघ पर जर्मनी द्वारा किये गये अचानक हमले के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी युद्ध के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया। कम्युनिस्टों ने कहा कि जहां पहले युद्ध साम्राज्यवादी देशों के बीच मंडियों के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ा जा रहा था वहीं अब युद्ध का मुख्य मोर्चा फांसीवादी ताकतों एवं समाजवादी व जनतांत्रिक शक्तियों के बीच बदल गया है। कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे लोकयुद्ध कहकर युद्ध में मित्र देशों का समर्थन करने का निर्णय लिया। इस निर्णय को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 23 जुलाई 1942 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध हटा लिया और बहुत सारे कम्युनिस्टों को जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन टीकाराम सखुन, धन्वंतरी, बाबा टहल सिंह, कुन्दनलाल, पं0 किशोरी लाल, बाबा गुरमुख सिंह सबसे अंत में 14 फरवरी 1946 को रिहा होकर लाहौर पहुंचे, जहां 20 हजार के जन समूह ने इन देश भक्तों का जोरदार अभिनन्दन किया।
एक परिपक्व कम्युनिस्ट के रुप में अब सखुन का लक्ष्य शोषित पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष, उन्हें संगठित करना तथा एक शोषण रहित समाज की स्थापना करना था। पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी ने सखुन की डयूटी लाहौर जिला में लगाई, सखुन बड़ी लगन से पार्टी के प्रचार में जुट गये। उन्होंने लाहौर में ट्रेड यूनियन फ्रंट पर काम किया और विशेष तौर पर लाहौर के रेलवे मजदूरों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया, लेकिन अंग्रेज जाते-जाते देश को हिन्दुस्तान एवं पाकिस्तान में बांटने में कामयाब हो गये। सखुन जी लाहौर से भारत आ गये और अमृतसर में रहकर पाकिस्तान से आये बेघर, असहाय लोगों की मदद में जुट गये, शरणार्थियों की उन्होंने हर सम्भव मदद की। थोडे दिन यहां ठहरने के बाद सखुन दिल्ली आ गये। दिल्ली में पार्टी ने एक दैनिक अखबार उर्दू में ‘नया दौर’ निकाला और डा. अशरफ एवं टीकाराम सखुन इस अखबार में सम्पादक बनाये गये, रिछपाल सिंह को मैनेजर बनाया गया। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की जघन्य हत्या पर सखुन ने अपनी प्रखर लेखनी से हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ दिया, 31 जनवरी को इन्हीं तत्वों ने गुडगांव के मेवात के क्षेत्र में मिठाई बांटी तो सखुन ने इसकी कठोर शब्दों में निदंा की। इसी क्षेत्र में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों को भी सखुन ने साहस के साथ नया दौर में प्रकाशित किया। इसके लिए सखुन एवं रिछपाल सिंह को गिरफ्तार करके गुडगांव जेल में बंद कर दिया गया। इस अभियोग में गुडगांव के मजिस्ट्रेट ने दोनों को 9-9 महीने की सजा सुनाई जो सेशंस कोर्ट में अपील के बाद 6-6 महीने कर दी गई। कभी गुडगांव तो कभी रोहतक की जेलों में रहते हुए 1951 के अंत में रिहा हुए।
1952 मंे हुए प्रथम आम चुनाव के समय पंजाब में पार्टी उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार में सखुन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसी दौरन पंजाब कम्युनिस्ट पार्टी ने जालन्धर से उर्दू में नया जमाना दैनिक अखबार निकालने का फैसला किया और सखुन को इसके संपादक मंडल मंे कार्य के लिए जालंधर बुला लिया और वे इस कार्य में लगन से जुट गये।
हरियाणा उन दिनों पंजाब का पिछड़ा हुआ इलाका था, कारण 1857 की क्रांति में इस इलाके के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। बाद में अंग्रेजों ने हरियाणावासियों पर भंयकर जुल्म किये, यहां कितने गांवों को जलाकर राख कर दिया, हजारों लोगों को जेलों में डाल दिया और सैंकड़ो लोगो को फांसी पर लटका दिया। शिक्षा आदि के क्षेत्र में यहां के लोगो को सहूलियत नही दी और नौकरी के द्वार इनके लिए बंद कर दिये। इस प्रकार यहां आर्थिक, समाजिक तौर पर पिछड़ापन रहना ही था। दुर्भाग्यवश आजादी के बाद भी इस इलाके के प्रति सोच में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया, उसी तरह के अत्याचार स्वतंत्र भारत में भी पुलिस करती रही। फरवरी 1954 मंे डाकुओं के सफाये के नाम पर रोहतक जिले के 12 गांवों में आम जनता पर पुलिस ने अमानवीय अत्याचार किये। पुलिस के इन जघन्य अपराधों के विरोध में सखुन ने नया जमाना में विस्तार से समाचार प्रकाशित किये और अपराधी पुलिस को दंडित किये जाने की मांग की। 12 मार्च 1954 को इसी संबंध में सम्पादकीय लिखने के कारण टीकाराम सखुन, सरदार गुलाब सिंह प्रीतलडी और बाबू गुरबक्श सिंह के खिलाफ मुकदमा चला दिया। इस अभियोग के लिए सखुन को काफी दिनों तक रोहतक में ठहरना पडा। इस दौरान रोहतक की मेहनतकश जनता से उनका काफी संम्पर्क बढ़ गया और उन्होंने हरियाणा में रहकर ही पार्टी का काम करने का निर्णय लिया।
रोहतक में कम्युनिस्ट पार्टी की एक ब्रांच पहले से ही काम कर रही थी, कामरेड आनन्द स्वरुप एडवोकेट ने इस ब्रांच को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सखुन के रोहतक आने के बाद यहां पार्टी एवं किसान सभा में काफी मजबूती आई। सखुन की मेहनत से यहां पार्टी ने किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों के कई बड़े-बड़े आंदोलन चलाये। इन आंदोलनों के परिणामस्वरुप 1957 के आम चुनाव में रोहतक लोकसभा सीट पर प्रताप सिंह दौलता कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रुप में 28000 वोटो से विजयी हुए और रोहतक जिले (वर्तमान में सोनीपत) के राई क्षेत्र से हुकम सिंह एवं झज्जर से फूल सिंह भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये।
थोडे समय बाद सखुन ने करनाल की तरफ भी ध्यान देना शुरु किया। पाकिस्तान से आने के बाद डा. हरनाम सिंह ने करनाल जिले में पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अन्य साथियों के साथ मिलकर सखुन को करनाल लाने का प्रयास किया। रोहतक में पार्टी की टीम बेहतर काम कर रही थी इसलिये सखुन फौरन करनाल चले आये। यहां आते ही उन्होंने पार्टी शिक्षा के कार्य को हाथ में लिया और थोड़े दिनों में ही पार्टी गुणात्मक रुप से सुदृढ़ हुई। वहीं पार्टी का जनाधार भी तेजी से बढ़ा। करनाल जिला पार्टी का दूसरा सम्मेलन 14 से 16 दिसम्बर 1955 को हुआ जिसमें कामरेड सखुन जिला सचिव चुने गये।
सखुन वास्तव में पार्टी के एक निस्वार्थ सेवक थे। यद्यपि उनका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था परन्तु उन्होंने अपना सब कुछ त्याग कर मेंहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का रास्ता अपना लिया। उन्हें व्यक्तिगत सम्पति से कोई लगाव नही था यहां तक कि उनके पास अपना घर तक नहीं था। इस संबंध में उनका कहना था कि ‘अभी तो कामरेड देश के करोड़ो लोगों के पास अपना घर नही है वे फुटपाथ पर रहते है, तो हमारा क्या?’। सखुन बार-बार कहा करते थे कि अगर सम्पति का लगाव एक क्रांतिकारी को रहता है तो उसे वह ले डूबता है, सम्पति उसे अपने इरादे से भटका देती है। क्रांतिकारियों का परस्पर विश्वास, पक्का इरादा और चट्टानी एकता ही क्रांतिकारियों की सम्पति होनी चाहिए, सखुन इन शब्दों को जीवन में उतार चुके थे। भारत सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन एवं ताम्रपत्र का एलान किया तो सखुन ने इन्हें लेने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस संबंध मंे जब एक पत्रकार ने पूछा कि ‘आपकी जिंदगी तो हमेशा जेलों और भूख हड़तालों में रही, आप पेंशन (200 रुपये मासिक) क्यों नही लेते’? तो उन्होंने कहा कि मैने ऐसा करके राष्ट्र पर कोई एहसान नही किया है बल्कि अपने कर्तव्य के पालन का प्रयास भर किया है। मुझे केवल दो रोटी ही चाहिए। वे आराम से मिल ही रही है।
सखुन ने हरियाणा में केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ही विस्तार नहीं किया बल्कि इस क्षेत्र में पंजाब सरकार एवं प्रशासन की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन भी चलाये और विपक्ष को एक जुट करने के लिए हरियाणा संयुक्त जनवादी मोर्चा भी बनाया। इसके झंडे के नीचे 11 नवम्बर 1956 को रोहतक में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 1000 लोगों ने भाग लिया। सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में इस बात को लेकर तीव्र मतभेद हो गया कि चीन हमलावर है या नही। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने बहुमत से प्रस्ताव पास किया कि चीन ने भारत पर आक्रमण करके गलती की है और सरकार को सहयोग करने का निर्णय लिया। कुछ लोग इस हक में नही थे और उनका कहना था कि चीन कम्युनिस्ट देश है इसलिए वह दूसरे देश पर हमला नही कर सकता। यही विचार सखुन के भी थे अतः उन्हें व उनकी धर्मपत्नी शकुन्तला सखुन को 21-22 नवम्बर 1962 को गिरफ्तार करके हिसार व गुडगांव जेल में बंद कर दिया और 11 महिने के बाद उन्हें रिहा किया गया।
जेल से आने के बाद भिन्न विचार के बाद भी सखुन ने दो पार्टी बनाने का कड़ा विरोध किया उन्होंने कहा कि ‘अगर हम इन्क्लाबी है और मार्क्सवाद में पक्का विश्वास है तो एक मुल्क में दो कम्युनिस्ट पार्टी नहीं हो सकती चाहे हमारे मतभेद कितने ही तीव्र हो’। इसके बाद सखुन ने कम्युनिस्ट पार्टी में बिदक रहे लोगों को सही रास्ते पर लाने का काम किया। बहुत मेहनत की, रात दिन एक कर दिया। सभाएं की, जलसे किये, इस्तहार निकाले और 20 अक्टूबर 1964 को ‘हरियाणा दर्पण’ नामक साप्ताहिक अखबार निकालना शुरु किया।
हरियाणा दर्पण में सखुन सम्पादकीय, विशेष लेख, नारद वाणी, आलोचना-समालोचना, सवाल आपके जवाब नारद के कालम स्वयं लिखते थे, यहां तक कि बीमारी की हालत में भी उन्होंने लिखना नही छोड़ा। उन्होंने हरियाणा दर्पण अखबार ही नही निकाला बल्कि अलग हरियाणा राज्य बनाने की मांग पर भी आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि ‘हरियाणा की बोली, परम्परा, संस्कृति एवं सामाजिक जीवन पंजाब से भिन्न है, वहीं अलवर, भरतपुर और मारवाड़ आदि की भी पंजाब से भिन्न संस्कृति है और यह सब इलाके दिल्ली से जुड़े हुए हैं इन सबकी बोली, रहन-सहन, परम्परा एवं संस्कृति एक है इसलिए इस सब इलाकों को मिलाकर ”विशाल हरियाणा“ का निर्माण किया जाना चाहिए’। काफी तीव्र आंदोलन एवं अनेको लोगों द्वारा अनेक बार जेल यात्राओं के बाद अन्ततः 1 नवम्बर 1966 को विधिवत रुप से हरियाणा राज्य का गठन किया गया। इसके निर्माण में सखुन की शानदार भूमिका रही। हरियाणा बनने के बाद उन्होंने हरियाणा के विकास के लिये अनेक लेख हरियाणा दर्पण एवं दूसरे पत्रों में लिखे और लोगों एवं सरकार द्वारा सराहे गए।  इस विषय में उनका सबसे महत्वपूर्ण सुझाव था कि ‘हरियाणा बड़ा छोटा सा राज्य है, यह केवल अपने साधनों के बलबूते अपना विकास नही कर सकता, इसलिए केन्द्र की ओर से विशेष सहायता की जरुरत है’।
हरियाणा राज्य बनने के बाद सखुन ने पार्टी के काम को ओर लगन से, तेजी से करना शुरु किया। इसमें साथ ही सखुन को भाकपा का हरियाणा में प्रथम राज्य सचिव बनाया गया और राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया। उनके कार्यकाल में हरियाणा में पार्टी ने दिन दूनी तरक्की की। 1968 में हरियाणा में मात्र 1500 पार्टी सदस्य थे। उनके राज्य सचिव रहते 1976 मंे सदस्य संख्या बढ़कर 5345 तक पहुंच गई। कामरेड सखुन 1968 में पहली, 1972 में दूसरी तथा 1975 में तीसरी बार लगातार राज्य सचिव चुने जाते रहे। सखुन ने दर्जनों कहानियां, नाटक लिखे। वें बहुत अच्छे साहित्यकार थे, उन्होंने बहुत सारे पत्रों में काम किया। वे कार्यकर्ताओं से बहुत प्यार करते थे। करनाल दफ्तर में आने वाले प्रत्येक कामरेड को अपने हाथ से चाय पिलाने, खाना खिलाने में स्वयं को गौरवांवित महसूस करते थें। दिसम्बर 1975 में पार्टी की पचासवी वर्षगांठ के अवसर पर करनाल में राज्य स्तरीय समारोह का फैसला किया गया और सखुन जी ने इसकी तैयारियों में दिन रात एक कर दिया, परिणामस्वरुप पहले से चल रही बीमारी और बढ़ गई और उन्हें हस्पताल में दाखिल होना पड़ा। सखुन इस समारोह में शामिल नही हो पाये। मुख्य अतिथि डा0 गंगाधर अधिकारी ने अस्पताल जाकर उन्हंे मेडल देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर टीकाराम सखुन, डा. हरनाम सिंह, रघबीर सिंह चौधरी, मक्खन ंिसह एवं बलदेव बक्शी पांच साथियों को पार्टी की सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया।
कुछ समय बाद उनकी स्थिति और बिगड़ गई, पार्टी ने ईलाज के लिए उन्हें बुल्गारिया भेजा, काफी ईलाज के बाद भी वे स्वस्थ नही हो सके और 1 सितम्बर 1976 को मौत ने मेहनतकशों के इस महान मित्र को सदा के लिए उठा लिया। सब जगह शोक की लहर दौड़ गई, समाचार पत्रों ने शोक संदेश प्रकाशित किये। हजारों किसानों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों, छात्रों, नौजवानो ने अपने प्रिय दिवंगत नेता टीकाराम सखुन को श्रद्धाजंलि अर्पित की।
- ¬दरियाव सिंह कश्यप
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सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के समर्थन में एकजुट हों!

अभी हाल में एक छात्रा के साथ दिल्ली में घटी हृदयविदारक घटना से उपजे गुस्से से दिल्ली की सड़कों पर एक आन्दोलन ने जन्म लिया था, जो केवल एक मुद्दे पर - बालिकाओं और महिलाओं की सुरक्षा और उनके साथ घटने वाली वारदातों के अभियुक्तों के लिए सजा तक सीमित रह गया। न्यायमूर्ति वर्मा की अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक समिति बना दी, जिसकी अनुशंसाओं पर एक आर्डीनेंश जारी कर दिया गया और सम्भवतः संसद के बजट सत्र में इसे स्थाई कानून का जामा बनाने के लिए बिल भी पेश कर दिया जायेगा। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान उपजे तमाम प्रश्न अभी तक जिन्दा जरूर हैं, पर उन पर बहस धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है। कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए बराबरी का संघर्ष होजरी के कारखाने में काम करने वाली क्लारा ज़ेटकिन ने शुरू किया था और उन्हीं के संघर्षों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाव देने के लिए हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की एकजुटता दिवस रूप में शुरू हुआ था। देश की आजादी के समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के साथ भेदभाव का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। 1948 में इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों पर घोषणापत्र जारी किया था, जिसमें अन्य तरह के भेदभाव साथ-साथ लैंगिक भेदभाव भी शामिल था। सत्तर के दशक में महिलाओं के लिए समानता का मुद्दा एक बार फिर उभरा और उसके बाद महिला वर्ष, महिला दशक, महिला सशक्तीकरण आदि तमाम आन्दोलन और नारे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरे।
इन्हीं आन्दोलनों की कोख से देश में महिलाओं के लिए संसद एवं विधायिकाओं में आरक्षण का मुद्दा पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उभरा था। देश की नारियां अभी तक अपने लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहीं हैं परन्तु कामरेड गीता मुखर्जी जैसी महिला नेत्रियों के निधन के साथ यह आन्दोलन धीरे-धीरे अपनी धार खोता चला गया है।
8 मार्च यानी महिलाओं का अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस एक बार फिर आने वाला है। बेहतर होगा अगर पूरे देश की महिलायें इस साल 8 मार्च से इस आन्दोलन को फिर से धार दें और एक बार फिर कोशिश करें कि महिला सशक्तीकरण के लिए 2014 के आम चुनावों के पूर्व या तो महिला आरक्षण कानून पास हो या फिर 2014 के चुनावों में महिलाओं के लिए यह एक मुद्दा हो - महिला आरक्षण का विरोध करने वालों के खिलाफ 2014 में महिलायें एकजुट हो और उन्हें सबक सिखायें।
इस मुद्दे पर महिला-विरोधी ताकतों ने अपने निहित स्वार्थो के चलते तमाम तरीकों से शंकायें और भ्रान्तियां पैदा करने के प्रयास किया था। सन 1996 के अंतिम दिनों में इस आन्दोलन की दिवंगत पुरोधा कामरेड गीता मुखर्जी ने एक पैम्पलेट अंग्रेजी में लिखा था जिसमें उन्होंने आरक्षण के मार्ग में अवरोधों को स्पष्ट करते हुए शंकाओं और भ्रान्तियों के श्रोत और कारणों को स्पष्ट किया था। हम उस पैम्पलेट का हिन्दी भावानुवाद मुद्दे पर आज की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने की जरूरत को महसूस करते हुए प्रकाशित कर रहे हैं। पाठकों से हमारा निवेदन है कि वे इसके अध्ययन के समय तिथियों आदि के बारे में भ्रमित न हों क्यांेकि इसे लगभग 17 साल पहले लिखा गया है। इस आलेख को अद्यतन करते हुए पाठन का अनुरोध किया जाता है।
साथ ही हम इसी अंक में कामरेड हरबंस सिंह का 10 साल पहले लिखा गया आलेख ”सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर“ भी महिलाओं की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने के उद्देश्य से प्रकाशित कर रहे हैं। हमें आशा है कि हमारे पाठक इन लेखों से लाभान्वित होंगे और महिला आन्दोलन को नए शिखर की ओर ले चलने के लिए महिला आन्दोलन का अंग बनेंगे।
ये दोनों पुराने लेख उन पुरोधाओं द्वारा लिखे गये हैं, जोकि महिला आन्दोलन से क्रमशः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं और उनके लेखन अधिकारिक होने के कारण हम नये लेख के स्थान पर इन्हें यथावत् प्रकाशित करने को प्राथमिकता दे रहे हैं।

- कार्यकारी सम्पादक

वर्तमान संसद के प्रथम सत्र में संयुक्त मोर्चा सरकार ने संविधान संशोधन (81वां) संशोधन विधेयक 1996 प्रस्तुत किया। यह वह विधेयक है जिसके जरिये लोक सभा और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का प्रस्ताव है। लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणा पत्रों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के वायदों के चलते इस विधेयक का पास होना लगभग तय माना जा रहा था।
राज्य सभा में महिला सदस्यों ने प्रधान मंत्री पर इस विधेयक को उसी दिवस पास करवाने के लिए दवाब डाला और प्रधान मंत्री इसके लिए राजी हो गये।
लेकिन जब लोक सभा में विधेयक पर चर्चा शुरू हुई और प्रधान मंत्री वहां पहुंचे यह पाया गया कि स्थितियां वैसी आसान नहीं थीं जैसाकि सोचा गया था। वामपंथी दलों की ओर से, भाकपा से मेरे द्वारा, माकपा से का. सोम नाथ चटर्जी, आरएसपी से का. प्रमाथेश मुखर्जी और फारवर्ड ब्लाक से का. चित्त बसु ने विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग की और इन पार्टियों में कोई विरोध के स्वर नहीं थे। परन्तु अन्य दलों के तमाम वक्ताओं ने तमाम ऐसे बिन्दुओं को उठाया जिससे यह स्पष्ट था कि इस पर कोई एकमत नहीं है।
भाजपा के वक्ताओं में से जहां सुषमा स्वराज ने बिल का समर्थन करते हुए उसी दिवस उसे पास करने की मांग की तो उमा भारती ने अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए आरक्षण का मामला उठाया। कांग्रेस की गिरजा व्यास ने जहां विधेयक का समर्थन किया तो नागालैण्ड से इस पार्टी के सांसद ने चाहा कि इस विधेयक के प्राविधानों को नागालैण्ड विधान सभा पर न लागू किया जाये क्योंकि उनकी राय में साक्षरता की दर बहुत अधिक होने के बावजूद राज्य की महिलायें राजनीति में आने की इच्छुक नहीं हैं। समता पार्टी के नितीश कुमार ने इसी विधेयक में पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण के प्राविधान करने की मांग आक्रामक तरीके से उठाई। इसलिए यह साफ हो गया कि विधेयक उस दिन पास नहीं हो सकेगा और प्रधानमंत्री ने प्रस्ताव किया कि विधेयक को संयुक्त प्रवर समिति को सिपुर्द कर दिया जाये।
संयुक्त प्रवर समितियां लोक सभा और राज्य सभा दोनों के सदस्यों से बनती हैं और जन भावना और समिति के सदस्यों की भावना पर विचार कर अपनी राय संसद के दोनों सदनों को देती हैं। रिपोर्ट में समिति की राय, सिफारिश और संशोधन शामिल होते हैं। सामान्यतः संयुक्त प्रवर समितियां अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देने में महीनों का समय लेती हैं। जहां तक इस संयुक्त प्रवर समिति का सवाल है, मैंने इसके कार्य को समयबद्ध तरीके से समाप्त होने की बात उठाई और लोक सभाध्यक्ष इसके लिए राजी हो गये तथा उन्होंने घोषणा की कि समिति द्वारा संसद में अगले सत्र के प्रथम सप्ताह के अंतिम दिवस तक रिपोर्ट को पेश कर दिया जायेगा।
इस विधेयक को पेश करने की सम्भावनाओं और वास्तव में विधेयक को पेश करने से पूरे देश की महिलाओं में जबरदस्त उत्साह का संचार हुआ था। संसद शुरू होने के दिन सात महिला संगठनों - नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन, आल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन, महिला दक्षता समिति, सेन्टर फॉर वीमेन्स डेवलपमेन्ट स्टडीज, आल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस, यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन तथा ज्वांइट वीमेन्स प्रोग्राम ने संसद के बाहर एक बड़ी रैली की जिसमें  पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाम, पूर्वोत्तर राज्यों और दिल्ली की हजारों महिलायें प्ले कार्डो और बैनरों के साथ शामिल हुयीं।
विधेयक पेश होने के बाद विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग करते हुए ज्ञापनों पर लाखों हस्ताक्षर इकट्ठा होने लगे। न केवल संगठित महिला आन्दोलन बल्कि असंगठित महिलाओं ने भी अभूतपूर्व तरीके से प्रतिक्रिया दी। उदाहरण के लिए संयुक्त प्रवर समिति की अध्यक्षा के नाते मुझे खून से लिखे ऐसे हजारों पोस्टकार्ड मिले जिसमें विधेयक को उसी सत्र यानी जिस सत्र में उसे पेश किया गया था, उसी सत्र में पास करने की मांग की गयी थी।
एक पुरानी महिला कार्यकर्ता होने के नाते मैंने तमाम तरह के शक्तिशाली आन्दोलन देखे थे परन्तु मुझे कहना ही चाहिए कि मैंने अपने जीवन में कभी भी समाज के तमाम तबकों की महिलाओं द्वारा रक्त से लिखे गये इतने अधिक पोस्ट कार्ड नहीं देखे थे। मैं इसे इस उद्देश्य से लिख रहीं हूं जिससे आगामी बजट सत्र के पहले अपना दिमाग बनाते समय सभी सांसद इस मुद्दे पर विशेषकर महिलाओं में विद्यमान परिस्थितियों को दिमाग में रखें।
महिला आरक्षण नई मांग नहीं है !
इस तथ्य को नोट किया जाना चाहिए कि हालांकि पिछले चुनाव (1996 चुनाव) के पहले लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने चुनाव घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए आरक्षण का वायदा किया था, परन्तु महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रश्न पर विचार बहुत पहले ही शुरू हो चुका था।
भारतीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) की महाराष्ट्र राज्य कार्यकारिणी एवं परिषद ने सितम्बर 1991 में अपने नागपुर सत्र में एक प्रस्ताव पास करते हुए सभी निर्वाचित सदनों - पंचायतों, नगर पालिकों, विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी।
जो लोग यह सोचते हैं कि महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण उन्हें एक ऐसी सहूलियत देना होगा जिसके वे योग्य नहीं हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष (1975) की पूर्व बेला पर डा. फूलरेणू गुहा की अध्यक्षता में गठित स्टेट्स ऑफ वीमेन कमीशन के सामने उपरोक्त वर्णित सभी महिला संगठनों ने महिलाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ अपना विचार रखा था। उन्होंने सोचा था कि राजनीतिक दल और अधिक महिला उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करेंगे और संसद में महिलाओं की संख्या में इजाफा होगा।
परन्तु कठिन वास्तविकताओं के चलते उन्हें अपनी राय में बदलाव लाना पड़ा। यह पाया गया कि 1977-80 के मध्य लोक सभा में महिलायें केवल 3.4 प्रतिशत थीं और आजादी के पचास सालों में कभी भी यह संख्या 10 प्रतिशत के भी आस-पास नहीं पहुंच सकी जैसाकि नीचे की तालिका से स्पष्ट होता है।
इसलिए आबादी के आधे हिस्से यानी महिलाओं के साथ न्याय करने के लिए सीटों का आरक्षण ही एकमात्र तरीका है।
जो लोग ऐसा सोचते हैं कि लोक सभा और विधान सभाओं की एक तिहाई सीटों के लिए योग्य महिला उम्मीदवारों की निहायत कमी होगी, उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि आजादी के बाद पहले चुनाव में लोक सभा में केवल 22 महिला सांसद थीं जोकि कुल संख्या का केवल 4.4 प्रतिशत है। क्या आजादी की लड़ाई में योग्य महिलाओं की कमी थी? हर व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि आजादी की लड़ाई में कई उत्कृष्ट महिला नेत्रियों ने हिस्सा लिया था। इसके बावजूद राजनीतिक दलों ने उन्हें उम्मीदवार बनाना जरूरी नहीं समझा। इसलिए आरक्षण के प्रश्न को तो कभी पहले उठाया जाना चाहिए था। यदि इसे समय पर कर दिया गया होता और आज की परिस्थितियां बहुत ही बदली हुयी होतीं तो सम्भव है कि आरक्षण की आज जरूरत नहीं होती और समानता के लिए महिलाओं की आवाज बहुत ही प्रभावी होती।
पूर्व की गल्तियों को सुधारने की जरूरत
सन 1857 के शुरूआती क्षणों से वर्ष 1947 में ब्रिटिश शासकों से सत्ता हस्तांतरण तक चली आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। स्वतंत्र भारत के संविधान में महिलाओं के लिए पुरूषों के साथ समानता और लिंग सहित किसी भी आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित कर महिलाओं के इसी महती योगदान को मान्यता दी गयी थी।
वैसे हजारों साल पुराने रीति रिवाजों के कारण अधिकतर महिलायें शिक्षा और सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार से वंचित रखी गयीं और उन्हें घर की चहरदीवारों के अंदर के कामकाज करने के लिए कैद रखा गया। परिवार और समाज में उनके स्तर को ऊंचा बनाने के लिए कुछ कानून पास तो जरूर किये गये परन्तु वास्तविकता में वे कागजों पर बने रहे।
सरकार और राजनीतिक दलों दोनों ने महिलाओं की समस्या को सामाजिक समानता कायम करने के बजाय समाज-कल्याण के नजरिये से देखा और तमाम महिला संगठनों से अपनी गतिविधियों को समाज कल्याण तक ही सीमित रखा।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और उसके बाद में दस वर्ष सन 1976 से 1985 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक घोषित करने के फलस्वरूप महिला कल्याण की अवधारणा को महिला विकास के दृष्टिकोण में बदल दिया। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और महिला दशक की केन्द्रीय विषयवस्तु थी - ”समानता-विकास-शान्ति“।
सन 1948 में मानवाधिकारों पर भूमण्डलीय घोषणा-पत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वयं को नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र, राजनैतिक और अन्य विचारों, राष्ट्रीय या सामाजिक उत्पत्ति, सम्पत्ति, जन्म और अन्य आधारों पर विभेद के खिलाफ घोषित किया था। वैसे सदस्य राष्ट्रों ने उपरोक्त आधारों पर भेदभाव जारी रखा। इनमें से महिलाओं के खिलाफ भेदभाव धर्म, इतिहास और संस्कृति को आधार बना कर सबसे अधिक और सम्भवतः वैश्विक फैलाव लिए रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक की घोषणा को पूर्व में की गयी गल्तियों को सुधारने के लिए की जा रही अंतर्राष्ट्रीय शुरूआत बताया था।
पिछले दो दशकों के दौरान सन 1975 में मेक्सिको, 1980 में कोपेनहागन, 1985 में नैरोबी और 1995 में बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों में लिये गये निर्णयों के जरिये ये प्रयास जारी रहे। हर सम्मेलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ हजारों गैर सरकारी प्रतिनिधियों का विश्व फोरम और उसके पहले तैयारियों के सिलसिले में सभी महाद्वीपों में अनगिनत राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विचार गोष्ठियों और बहसों से करोड़ों-करोड़ महिलाओं को अपनी वास्तविक स्थिति के आकलन और अपने अधिकारों को समझने में जहां मदद मिली वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला दशक के घोषित उद्देश्यों को समर्पित तमाम महिला संगठनों और ग्रुपों ने जन्म लिया।
18 दिसम्बर 1979 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के तमाम तरीकों की समाप्ति पर एक अंतर्राष्ट्रीय परम्परा (कन्वेंशन)  (International Convention for Elimination of All Forms of Discrimination against Women - CEDAW)  अंगीकृत किया जिसे भारत सहित संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के बहुमत ने स्वीकार कर लिया है। यह परम्परा भी इसे पृष्ठांकित करने वाले सभी राष्ट्रों पर अन्य सभी अंतर्राष्ट्रीय परम्पराओं और संधियों जैसे ही बाध्य अंतर्राष्ट्रीय कानून के सदृश है।
सन 1985 में नैरोबी सम्मेलन द्वारा ”वर्ष 2000 तक महिलाओं के विकास के लिए रणनीति की ओर आगे बढ़ने“ की घोषणा अंगीकृत करने के फलस्वरूप प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने महिलाओं के लिए सापेक्ष योजना की घोषणा द्वारा महिला विकास हेतु नीतिगत दिशा तय करते हुए एक नए प्रशासकीय ढ़ांचे को स्थापित किया।
नैरोबी सम्मेलन के एक दशक के बाद सितम्बर 1995 में सम्पन्न बीजिंग सम्मेलन का उद्देश्य आगे बढ़ने की रणनीति के वैश्विक स्तर पर परिणामों का मूल्यांकन करने और नैरोबी तथा सन 1979 में अंगीकृत संयुक्त राष्ट्र संघ परम्परा द्वारा घोषित लक्ष्यों के रास्ते में आ रहे अवरोधों को हटाने में वर्तमान शताब्दी के बाकी वर्षो (1996-2000) का किस प्रकार उपयोग किया जाये इसका निर्धारण करना था।
बीजिंग में पहले से अधिक जागरूक, संगठित और एकताबद्ध महिला प्रतिनिधि इस बात पर दवाब बनाने में सफल रहे कि महिलाओं को हर स्तर पर अपने से संबंधित सभी मसलों पर निर्णय की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए चाहे वह मामला उनकी जिन्दगी से जुड़ा राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय मामला हो, पारिवारिक जीवन हो, उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का मामला हो, उनके स्वयं के निकायों का मामला हो, प्रजनन में उनकी भूमिका और कामुकता का मसला हो।
सन 1975 में लक्ष्य कल्याण से विकास तक पहंुचा तो सन 1995 में बीजिंग में लक्ष्य और आगे बढ़ कर ”महिला सशक्तीकरण“ के नारे तक जा पहुंचा।
बीजिंग में भारत सरकार के प्रतिनिधियों ने पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर देने की बात को बता कर खूब प्रशंसा लूटी। बीजिंग में अंगीकृत सिफारिशों में लोक सभा और विधान सभाओं में ऐसे आरक्षण की बात शामिल की गयी। भारत सरकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए वचनबद्ध है।
दूसरी ओर पूरे विश्व के अन्य हिस्सों की महिलाओं की भांति ही तमाम अवरोधों और परेशानियों के बावजूद भारत की महिलाओं ने पिछले पचास वर्षो में शिक्षा, कार्य अनुभवों और गरीबी एवं अशिक्षा के गम्भीर दुःखद स्थितियों से अपने परिवार और अपने बच्चों की रक्षा के लिए और स्वयं अपने जीवन एवं आजीविका (लिवलीहुड) की रक्षा के संघर्षो में भागीदारी द्वारा एक लम्बा सफर तय किया है। कई राज्यों के पिछले चुनावों ने यह दिखा दिया है कि महिलायें एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं जिन्हें राजनीतिक दल उपेक्षित नहीं कर सकते।
इससे स्पष्ट है कि क्यों राजनीतिक दल आकस्मात जग गये और महिलाओं की राजनीति में सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देने लगे तथा क्यों सभी राजनीतिक दल सन 1996 के चुनावों के अपने घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान सभाओं में एक तिहाई आरक्षण का वायदा करने लगे।
इससे यह कारण भी स्पष्ट होता है कि संविधान (81वां) संशोधन विधेयक ने पूरे भारत में क्यों महिलाओं के मध्य उत्तेजना उत्पन्न कर दी।
मूल बिल और संयुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट
आइये देखते हैं संसद में पेश मूल विधेयक क्या था, किन संशोधनों को संयुक्त प्रवर समिति ने स्वीकार किया और किन्हें रद्द कर दिया और संयुक्त प्रवर समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में क्या सिफारिशें की गयीं थीं।
भारत सरकार द्वारा संसद में रखे गये मूल विधेयक में निम्न प्राविधान थे:
(1) लोक सभा एवं विधान सभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई से कम नहीं आरक्षित की जायेंगी जिनमें से अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं के लिए उसी अनुपात में आरक्षित होंगी जिस अनुपात में संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण उपलब्ध है।
(2) जिन राज्यों में लोक सभा की तीन से कम सीटें हैं, वहां आरक्षण नहीं होगा।
मूल बिल में राज्य सभा और विधान परिषदों का जिक्र नहीं था। इसमें केन्द्र शासित राज्यों का भी जिक्र नहीं था।
संयुक्त प्रवर समिति ने अपने सदस्यों द्वारा प्रस्तुत तमाम संशोधनों को स्वीकार किया।
विधेयक में शामिल किये गये संशोधन इस प्रकार थे:
(1) ”एक तिहाई से कम नहीं“ को ”यथासम्भव एक तिहाई के निकट“ से संशेाधित किया जाये। कारण यह कि ”एक तिहाई से कम नहीं“ का अर्थ एक तिहाई से अधिक निकाला जा सकता है जोकि मूल विधेयक का उद्देश्य नहीं था।
(2) जिन राज्यों में तीन से कम संसदीय क्षेत्र हैं, उनमें आरक्षण न देने के मुद्दे पर समिति ने महसूस किया कि यह प्राविधान भेदभावपूर्ण होगा। इसलिए समिति ने सुझाव दिया कि पन्द्रह वर्षो की कुल अवधि यानी तीन आम चुनावों को एक साथ रखा जाये। ऐसे राज्यों में आरक्षण का निर्धारण करते समय जहां दो संसदीय सीटें हैं वहां पहले चुनाव में एक सीट आरक्षित और दूसरी अनारक्षित रखी जाये, दूसरे चुनाव में पहली सीट अनारक्षित और दूसरी आरक्षित रखी जाये और तीसरे चुनाव में दोनों सीटे अनारक्षित कर दी जायें। जिन राज्यों में एक ही सीट है, इसी सिद्धान्त को लागू करते हुए तीन चुनावों में केवल एक बार सीट को आरक्षित रखा जाये। इस प्रकार एक तिहाई आरक्षण का सिद्धान्त लागू किया जा सकता है।
समिति ने एक संशोधन स्वीकार किया कि केन्द्र शासित क्षेत्र दिल्ली में आरक्षण रहना चाहिए। संबंधित कानूनों में आवश्यक संशोधन किया जाये जिससे इसे पांडीचेरी में भी लागू किया जा सके।
आरक्षित क्षेत्रों का निर्धारण कैसे होगा, इस पर संयुक्त प्रवर समिति ने कोई सिफारिश नहीं की और इस कार्य को सरकार और चुनाव आयोग द्वारा नियत करने के लिए छोड़ दिया।
जिन संशोधनों को समिति द्वारा स्वीकार नहीं किया गया, वे थे - अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण। इस संशोधन को इन सदस्यों द्वारा अलग-अलग पेश किया गया था - समता पार्टी के नितीश कुमार, जनता दल के राम कृपाल यादव तथा डीएमके के पी.एन. सिवा। समिति ने यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान में किसी भी स्तर पर अन्य पिछड़े दलों के लिए किसी भी निर्वाचित सदन में आरक्षण का प्राविधान न होने के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। वैसे समिति ने अपनी सिफारिशों में यह सिफारिश की थी कि सरकार इस मुद्दे पर उचित समय पर विचार करे जिससे अगर इस तरह का संविधान संशोधन किसी भी समय संसद द्वारा पारित किया जाये तो अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं को भी आरक्षण का लाभ मिल सके।
समिति ने कुछ और सिफारिशे भी की थीं जैसे राज्य सभा और विधान परिषदों में भी महिलाओं के आरक्षण करने के लिए सरकार किसी रास्ते को निकालने का प्रयास करे।
समिति ने विधेयक को बिना देरी किये पारित करने की बहुत स्पष्ट सिफारिश की थी। समिति की रिपोर्ट लोक सभा में 9 दिसम्बर 1996 को रख दी गयी थी जिससे सरकार और संसद दोनों को रिपोर्ट पर विचार करने और एजेन्डे में विधेयक को पास करने के लिए शामिल करने को 15 दिनों का पूरा समय था। संसद 20 दिसम्बर को स्थगित की गयी।
दुर्भाग्य से संसद के पुरूष सदस्यों के भयंकर दवाब के कारण 20 दिसम्बर तक सरकार ने कुछ नहीं किया और उसके कारण पूरा मुद्दा अभी तक लटका पड़ा है।
आपत्तियां हैं क्या?
आइये, अब विधेयक को पास न होने देने के लिए दिए जा रहे तर्को के गुण-दोषों की छानबीन करते हैं।
पहला, अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा लेते हैं। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो इस बात की मांग कर रहे हैं, उनमें से किसी ने अन्य पिछड़ी जातियों के पुरूषों और महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग अब तक क्यों नहीं की और संविधान में आवश्यक संशोधन के लिए कोई निजी बिल पेश क्यों नहीं किया गया? मंडल आयोग की रिपोर्ट को पूरे देश में नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए अंगीकृत करते समय ऐसा क्यों नहीं किया गया था? पंचायतों में विभिन्न स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था करने वाले संविधान संशोधन विधेयक पर विचार के समय अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए भी आरक्षण के लिए कोई संशोधन क्यों नहीं प्रस्तावित किया गया था? इन तथ्यों से यह शंका पैदा होती है कि पुरूष सांसद अपनी सीटों के महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाने के भय से इस विधेयक को पास होने से रोकने के लिए यह दलीलें दे रहे हैं और यह शंका अन्यायोचित भी नहीं है।
अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ सद्भावना रखने के लिए इस विधेयक के इसी रूप में पास हो जाने पर अन्य पिछड़ी जातियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं को खड़ा किया जा सकता है। इसके लिए तैयारी क्यों न की जाये?
दूसरे, कुछ लोग कहते हैं कि महिलाओं को सुरक्षा और अधिकार देने वाले तमाम कानून बने हैं। उन कानूनों को लागू करने के लिए पहले संघर्ष करना चाहिए और उसके पहले महिलायें संसद और विधान मंडलों में क्यों जाना चाहती हैं? स्पष्ट रूप से महिलायें पर्याप्त संख्या में संसद और विधान मंडलों में इसलिए जाना चाहती है जिससे कागजों पर बने उन कानूनों को लागू करने के लिए जोरदार आवाज उठाने का मौका पा सकें।
तीसरे, कुछ लोग कहते हैं कि पंचायतों में आरक्षण दूसरी बात थी क्योंकि पंचायतें उनके घरों के पास हैं परन्तु संसद और विधान मंडलों में जाने के लिए उन्हें अपने घरों से दूर रहना होगा जिससे परेशानियां पैदा होंगी। बहुत खूब! पूरे देश में महिलाओं की कुल संख्या और संसद एवं विधान सभाओं में जाने वाली महिलाओं की कुल संख्या से तुलना कीजिए - क्या यह अत्यंत सूक्ष्म नहीं होगी? क्या यह सत्य नहीं है कि अपने रोजगार के लिए घरों से दूर जाने वाली महिलाओं की तादाद इस संख्या से कहीं बहुत ज्यादा है।
चौथे, कुछ लोगों का कहना है कि महिलायें अभी इस लायक नहीं बनी हैं कि वे इतनी बड़ी संख्या में सांसद के कर्तव्य निभा सकें। इस कारण संसद और विधान मंडलों में एक तिहाई संख्या में महिलाओं के आगमन से लोक सभा और विधान सभाओं का कार्य निष्पादन की गुणवत्ता घट जायेगी। माफ कीजिएगा, वर्तमान लोक सभा में 7 प्रतिशत ही महिला सदस्य हैं, 93 प्रतिशत पुरूष सदस्यों वाली वर्तमान लोक सभा के कार्य निष्पादन का क्या स्तर है?
लोक सभा के अन्दर से अथवा टेलीविजन के माध्यम से लोक सभा की कार्यवाही देखने वालों से उनकी राय पूछिये - जवाब ऐसा मिलेगा कि कोई भी लज्जित हो जाये। दूसरी ओर, इन सदनों में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति से सम्भव है कि लोगों के व्यवहार और कार्य निष्पादन में व्यापक सुधार आ जाये।
पांचवे, समाचार पत्रों में लेखों द्वारा तथा ज्ञापनों द्वारा खड़ा किया गया एक सवाल है कि हर चुनाव के बाद चक्रानुक्रम से चाहे वह लाटों में किया जाये या किसी और तरह से निर्वाचित सदस्यों में अपने क्षेत्रों की देख-रेख के लिए जरूरी जोश नहीं होगा क्योंकि अगली बार उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने का अवसर उसे नहीं होगा। इसे सुलझाने के लिए कुछ लोगों ने यह सुझाव दिया कि तीन क्षेत्रों को एक में मिला दिया जाये और उसमें से तीन सदस्य चुने जायें। इनमें से एक को अवश्य ही महिला होना चाहिए। प्रत्याशियों में से सबसे अधिक मत पाने वाले दो पुरूष उम्मीदवार और महिला उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत पाने वाली उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया जाये।
विभिन्न दृष्टिकोणों से यह एक अजनबी मुद्दा है। पहला, निर्वाचित होने वाले सदस्य का दायित्व है कि वह अपने क्षेत्र की देख-रेख करे। यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि दूसरी बार निर्वाचित होने के लिए क्षेत्र की देख-रेख की जाये। किसी क्षेत्र पर किसी भी व्यक्ति का स्थाई एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
वैसे, अगर कोई भी पुरूष अथवा महिला अपने क्षेत्र की गम्भीरता से देख-रेख करता है तो उससे उसके कार्य क्षेत्र के आस-पड़ोस में ऐसी इज्जत बनती है कि वह किसी भी हैसियत में देश की सेवा बेहतर तरीके से कर सके। लोक सभा क्षेत्रों का इलाका इतना बड़ा होता है कि किसी भी व्यक्ति के लिए तीन क्षेत्रों में अपना प्रचार करना और देख-रेख का कार्य करना सम्भव नहीं है।
इसलिए ऐसे बेहूदे विचारों को रखने से बेहतर होगा कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को चुनावों में प्राप्त विजय, चाहे वह एक बार ही क्यों न हो, द्वारा प्राप्त जन-विश्वास के साथ न्याय करने के लिए प्रेरित किया जाये। इसके इलावा उम्मीदवारों के परिवर्तन द्वारा इस प्रकार के विशिष्ट कार्य में ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित करने का मौका पा सकते हैं, जो उनमें समर्पण भी भावना पैदा करेगा जो उन्हें विभिन्न आबंटित क्षेत्रों में जन-नेता बना सकता है।
और अंत में, आरक्षण के बारे में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा सामान्यतः उठाया जाने वाला सवाल - यदि इतना अधिक आरक्षण जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लिए, महिलाओं के लिए तथा उसके बाद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए, यदि अन्तोगत्वा एक अन्य संविधान संशोधन द्वारा ऐसा किया जाता है) तब इन श्रेणियों के अलावा लोगों के लिए विधान सदनों में पहुंचने के बहुत कम अवसर बचेंगे। इस प्रश्न से एक प्रतिप्रश्न उठता है। आजादी के 50 सालों बाद भी लोगों के इतने बड़े तबके के मध्य पिछड़ापन क्यों व्याप्त है? क्या यह उचित है?
इसके अलावा उदाहरणार्थ, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण ही लेते हैं। संयुक्त प्रवर समिति ने सिफारिश की कि पन्द्रह वर्षो तक आरक्षण रहने के बाद, इसका पूनर्मूल्यांकन किया जाये और उस वक्त जैसी भी परिस्थितियां हो, आरक्षण को समाप्त कर दिया जाये या जारी रखा जाये।
सामाजिक न्याय और समानता सुनिश्चित करो!
इसलिए, अगर सामाजिक न्याय और समानता के लिए पूरा समाज संघर्ष करता है, और लगातार प्रयासों से पिछड़े तबकों को आगे लाया जा सकता है, आरक्षण के प्रश्न को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में पचास वर्षो के बाद संविधान में पूनर्मूल्यांकन का प्राविधान है। यह पचास साल पूरे हो रहे हैं, क्या हम ईमानदारी से उनके पिछड़ेपन के उन्मूलन का दावा कर सकते हैं? यदि नहीं तो क्यों? इसलिए इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय हेतु वृृहद प्रभावी संघर्ष की जरूरत है जिससे एक वक्त सभी नागरिकों के मध्य मोटा-मोटी समानता स्थापित हो सके। यही एकमात्र सबके लिए बराबर अवसर मुहैया करा सकने का रास्ता है।
फरवरी 1997 में संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है, पूरे देश की महिलायें और महिला संगठन बेसब्री से देखेंगी कि आरक्षण विधेयक पर क्या होता है? इस बीच वे चुप नहीं बैठेंगी। वे अपने को संगठित करेंगी, वे विधान सभाओं और लोक सभा के सभी वर्तमान सदस्यों से सम्पर्क कर उनसे पूछेंगी कि क्या वे विधेयक का समर्थन करने जा रहें हैं? वे सरकार पर विधेयक को एजेन्डे में शामिल करने के लिए दवाब बनायेंगी। यदि वे पाती हैं कि सरकार लोक सभा और राज्य सभा में विधेयक प्रस्तुत करती है और वह इसलिए पास नहीं होता क्योंकि कुल सदस्य संख्या के आधे सांसद अनुपस्थित हो जाते हैं अथवा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्य वोट नहीं देते तो ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार सांसदों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अगले चुनावों में वे खड़े होते हैं तो महिलायें उन्हें वोट नहीं देंगी।
हम ऐसे सदस्यों से अनुरोध करते हैं कि वे गंभीरता से देखे कि क्या यह बेहतर होगा कि उनकी कुछ सीटें महिलाओं को चली जायें न कि अगले चुनाव में वे बुरी तरह पराजित हों। हमें आशा करनी चाहिए कि अच्छी समझदारी व्याप्त होगी।
- स्व. का. गीता मुखर्जी
(अनुवाद: प्रदीप तिवारी)
लोक सभा में महिला सदस्य
लोक सभा  वर्ष कुल संख्या महिला सांसद प्रतिशत
पहली 1951   499    22      4.4
दूसरी 1957   500    27      5.4
तीसरी 1962   503    34      6.7
चौथी 1967   523    31      5.9
पांचवी 1971   521    22      4.2
छठी 1977   544    19      3.4
सातवीं 1980   544    28      5.1
आठवी 1985   544    44      8.1
नवी 1990   529    28      5.3
दसवी 1991   509    36      7.1
गयारहवी 1996   537    34      6.3
बारहवीं 1998   543    43          7.9
तेरहवीं 1999   543   49  9.0
चौदहवीं 2004   543    45  8.3
पन्द्रहवीं 2009   543 61   11.2
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सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर

इस समय महिलाओं के सशक्तीकरण का वैष्विक संघर्ष सारे संसार में एक समान प्रबलता के साथ लड़ा जा रहा है। परन्तु दो सौ साल पहले भारत और यूरोप की महिलाओं ने अपना सफर अलग-अलग मार्गो से शुरू किया था।
यूरोप में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप की महिलाओं ने सबसे पहले आधुनिक उद्योगों के संसार में प्रवेश किया। क्लारा जे़टकिन का जन्म बर्लिन में सन 1857 में हुआ और उन्होंने पोशाक बनाने वाली एक फैक्ट्री में 18 वर्ष की आयु में नौकरी शुरू की। उन्होंने फैक्ट्री के अन्दर महिलाओं और पुरूषों के मध्य समानता का मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी महिला मजदूरों को ट्रेड यूनियन में शामिल करने के लिए प्रेरित किया। एक हड़ताल में भाग लेने के लिए क्लारा को उनके पति ओसिप सहित जर्मनी से निकाल दिया गया। दोनों पेरिस चले गये। फ्रांस की पुलिस ने भी उनका पीछा किया। भूख से क्लारा के पति ओसिप और उनके बच्चे मर गये। क्लारा बर्लिन वापस चली आयीं। क्लारा ने सन 1890 में लिब्नेख्त के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया।
कोपेनहागन में सन 1907 में क्लारा जे़टकिन ने समाजवादी महिलाओं का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। सन 1910 में ‘काम के घंटे आठ’ की मांग कर रही अमरीका की फैक्ट्रियों में काम कर रही महिलाओं पर गोली चलाई गयी जिसमें 8 महिला मजदूरों की मृत्यु हो गयी। क्लारा ने सन 1910 में समाजवादी महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 8 मार्च को महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया। उसके बाद से हर साल 8 मार्च को सारे संसार में रैलियां, प्रदर्शन, सभायें और तमाम आयोजन होते हैं और उनमें:
  • पूरे संसार की महिलाओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की जाती है;
  • संसार में शान्ति की स्थापना और युद्ध के अन्त की मांग की जाती है;
  • लैंगिक समानता की मांग करते हुए उनके लिए अनवरत संघर्ष का प्रण किया जाता है; और
  • तीन ‘के’ के अंत की मांग की जाती है।
आखिर क्या हैं यह तीन ‘के’
जर्मन भाषा में चर्च, शिशु और रसोई के शब्द ‘के’ अक्षर से शुरू होते हैं। चर्च की अगुआई में जर्मनी के सामन्ती समाज में कहा जाता था कि महिलायें केवल खाना बनाने वाली के रूप में, मां के रूप में और पादरियों की सेविका के रूप में ही अच्छी दिखाई देती हैं। क्लारा जे़टकिन ने सभी महिलाओं से इसी तीन ‘के’ के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान किया।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद का. क्लारा जे़टकिन का सम्मान करने के लिए का. लेनिन ने उन्हें पेत्रोग्राद सोवियत में निर्वाचित करवाया। सन 1921 में क्लारा ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की कार्यकारिणी के लिए निर्वाचित हुयीं।
सन 1933 में अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सारे संसार के महिला आन्दोलन की प्रथम नायिका, पहली महिला शहीद और अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की पहली महिला नेत्री बनी रहीं।
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप के विपरीत भारत में महिलाओं ने आधुनिक विचार और कार्यवाहियों के मार्ग पर चलना समाज सुधार आन्दोलन के जरिये शुरू किया।
महिलाओं के साथ सबसे अधिक पशुवत व्यवहार बंगाल में किया जाता था। जवान हिन्दू लड़कियों को उनके पति के शव के साथ बांध कर जला दिया जाता था। सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय (सन 1772-1833) ने अपनी जोरदार आवाज उठाई। ईष्वर चन्द्र विद्यासागर (सन 1820-1891) ने महिलाओं के लिए पहला आधुनिक विद्यालय खोला। उन्होंने विधवा विवाह के लिए कानून बनाने की मांग की और अपने पुत्र की शादी एक विधवा से की। इसी तरह मोहन गोविन्द रानाडे (सन 1842-1901), ज्योतिबा फूले (सन 1827-1890), विरसा लिंगम (सन 1848-1956), नारायण गुरू (सन 1855-1925), डा. भीमराव अम्बेडकर (सन 1890-1956) और पेरियार (सन 1879-1973) ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किये। यह पहली धारा थी जिसके जरिये भारतीय महिलाओं ने पढ़ना-लिखना, घरों से बाहर निकलना, नौकरियां करना और समान नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के लिए जागरूक होना शुरू किया।
स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी
महिला जागरण की दूसरी धारा स्वतंत्रता संग्राम के जरिये शुरू हुई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई धारायें शामिल थीं। स्वतंत्रता संग्राम की हर धारा ने कुछ न कुछ उत्कृष्ट महिला नायिकाओं को पैदा किया। सन 1857 के गदर ने महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में ‘तलवार लिए हुए घोडे पर बैठी हुई’ नायिका रानी लक्ष्मी बाई को पैदा किया।
सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक आन्दोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन 1916 में जब महात्मा गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली तो जनांदोलनों के द्वार महिलाओं के लिए खुल गये। गांधी जी जानते थे कि अंग्रेजी राज को तभी समाप्त किया जा सकेगा जब उनके अनोखे सत्याग्रह में सड़कांे पर करोड़ों लोग जुट जायेंगे। गांधी जी ने लाखों महिलाओं को अपने घरों से निकल कर जेल जाने के लिए प्रेरित किया। एक बार जेल पहुंच कर महिलाओं ने न केवल सामंती बाधाओं को पार कर लिया बल्कि गांधी जी द्वारा स्वयं निर्धारित सीमाओं को भी लांघ गयीं। गांधी जी ने हमेशा भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। सन 1925 में कांग्रेस की अध्यक्षा निर्वाचित होने वाली सरोजिनी नायडू ने घोषणा कि - ”भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री कभी आदर्श नहीं हो सकती। हमें सभी लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर पुरूषांे के बराबर बनना होगा।“
शिक्षित विद्यार्थियों के नेतृत्व में राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की धारा ने हाथ में बन्दूक लिए हुए कई उत्कृष्ट महिला संग्रामियों को पैदा किया। प्रीति लता और कल्पना दत्त इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें हैं।
सन 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। मार्क्सवाद और समाजवादी विचारों से लैस होकर महिलाओं ने विद्यार्थियों, मजदूर संघों और तिभागा, तेलंगाना, पुन्नप्रा व व्यलार सरीखे क्रान्तिकारी किसान संघर्षो का नेतृत्व करना शुरू कर दिया। मणिकुंतला सेन, रेमी चक्रवर्ती, कमला मुखर्जी, कनक मुखर्जी, इला रीड, अनिला देवी, लतिका सेन, बेलालाहिणी, गीता मलिक, नजीमुन्निसां अहमद, सुप्रिया आचार्य, गोदावरी पुरूलेकर, संतोष गुप्ता, प्रभा दासगुप्ता, सकीना बेगम, सुरजीत कौर, हाजरा बेगम और इला मित्रा आदि इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें में से कुछ नाम हैं।
संगठन के स्वरूप
क्षेत्रीय आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिए स्वयं स्फूर्त ढ़ंग से महिलाओं ने जिला एवं राज्य स्तरीय संगठनों को खड़ा किया।
  1. घरों से बाहर निकलने का फैसला करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामंती एवं पुनर्जागरण की ताकतों द्वारा चालू की गयी गुंडागर्दी से निपटने के लिए शुरूआती दौर में ही महिलाओं ने स्वःरक्षा दस्तों की आवष्यक महसूस की।
  2. महिलाओं ने विशिष्ट चिकित्सा परामर्श और सहायता की आवष्यकता महसूस कर चिकित्सा सहायता कमेटियों का गठन किया। महिलाओं ने इसी आवष्यकता के मद्देनजर चिकित्सा शिक्षा लेना शुरू किया।
  3. महिलाओं ने धर्म एवं राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों की जानकारी की आवष्यकता महसूस की और इसके लिए कानूनी सहायता कमेटियों का गठन किया।
इन स्थानीय संगठनों से होते हुए महिलाओं ने सन 1927 में पहले अखिल भारतीय संगठन ”आल इंडिया वीमेन कांफ्रेंस“ (एआईडब्लूसी) का गठन किया। यह संगठन किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं था और सन 1953 तक अकेले भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा।
सन 1953 में वीमेन इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (डब्लूआईडीएफ) की स्थापना हुई। डब्लूआईडीएफ का. क्लारा जे़टकिन द्वारा स्थापित ”इंटरनेशनल कांफ्रेंस आफ सोशलिस्ट वीमेन“ की उत्तराधिकारी संगठन था। डब्लूआईडीएफ से सम्बद्धता के प्रष्न पर एआईडब्लूसी में विभाजन हो गया और सन 1954 में ”नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमेन“ (एनएफआईडब्लू) की स्थापना हुई। अपनी स्थापना के समय से ही एनएफआईडब्लू महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पूरे विष्व में संघर्षरत महिलाओं के साथ एकजुटता हेतु प्रतिबद्ध है।
भारत में महिला आन्दोलन के विभिन्न दौर और दृष्टिकोण
1 - सुधार एवं कल्याण का दृष्टिकोण :
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत ही हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन से हुई। समाज सुधार आन्दोलन की जरूरत अभी तक समाप्त नहीं हुई है। सुधार के पहले क्षण से ही सुधार का विरोध यानी पुनर्जागरण की ताकतों का जन्म हो गया।
समय के साथ पुनर्जागरण की ताकतों को पीछे हटना पड़ा परन्तु दुर्भाग्य से पिछले दस सालों से इन्हीं पुनर्जागरण की ताकतों का भारत में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा हो गया है। इसीलिए समाज सुधार के आन्दोलन को ढीला नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले तीन दशकों के दौरान जातिवादी ताकतों ने ताकतवर राजनीतिक दलों का गठन कर लिया। पुनर्जागरण और जातिवादी दोनों ताकतें महिलाओं के सशक्तीकरण के खिलाफ हैं। दहेज, बलात्कार, महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराईयां उफान पर हैं। इन बुराईयों का उन्मूलन केवल कानून बना कर नहीं किया जा सकता। पितृसत्तात्मक विचारों के दिमागी नजरिये को ध्वस्त किये बगैर महिला आन्दोलन इन बुराईयों को रोक नहीं सकता।
मुसलमान सम्प्रदाय में सुधार आन्दोलन की शुरूआत एक सकारात्मक पहल है। ईरान की शिरीन इबादी को नोबल पुरस्कार एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक वकील, एक न्यायाधीश, एक विष्वविद्यालय शिक्षक रही शिरीन इबादी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए कई बार जेल यात्रा की। नोबल पुरस्कार प्राप्त करते हुए शिरीन ने दृढ़ता के साथ घोषणा की - ”मेरा संघर्ष इस्लाम के खिलाफ नहीं बल्कि पुरूषों को अति के खिलाफ है।“
पिछले वर्ष वदोदरा में मुसलमान बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन ने हिम्मत के साथ घोषणा की - ”मुसलमान स्वयं अपने कट्टरवाद से छुटकारा पाये बिना हिन्दू कट्टरवादी ताकतों से संघर्ष नहीं कर सकते। मुसलमानों को समय के साथ स्वयं में सुधार करना चाहिए।“
स्पष्ट है कि महिलाओं को अपने सशक्तीकरण के लिए संघर्ष के दौरान सुधार और कल्याण के दृष्टिकोण को साथ लेकर चलना होगा।
2 - विकास में सहभागिता का अधिकार :
पुरूष प्रधान समाज द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि महिलायें केवल अध्यापक और नर्सिंग के कामों के ही योग्य हैं और अन्य कामों के लिए वे अयोग्य हैं।
स्वतंत्रता के बाद जब विकास की प्रक्रिया देश में शुरू हुई तो महिलाओं ने सभी प्रकार के काम - पुलिस और सेना में, नागरिक प्रशासन और न्यायालयों में, चिकित्सा एवं संचार में, सामाजिक गतिविधियों और खेलकूद में सहभागी होना शुरू किया। उन्होंने सभी क्षेत्रों में दखल दिया और यह साबित कर दिया कि योग्यता, क्षमता, साहस, प्रतिबद्धता और समर्पण में वे पुरूषों से किंचित मात्र भी कम नहीं हैं।
महिलायें अब सामाजिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में दखल बना रहीं हैं। वे हर विभाग में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग कर रहीं हैं। जिसके फलस्वरूप जातिवादी राजनैतिक संगठनों ने महिला आन्दोलन में जाति के आधार पर दरार डालने के प्रयास करने शुरू कर दिये हैं। महिलाओं को और अधिक दृढ़ता के साथ जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। स्वतंत्रता एवं समानता के लिए महिलाओं के संघर्ष में जातिवाद उनका सबसे बड़ा दुष्मन है।
3 - सशक्तीकरण :
महिलाओं ने अपने सफर की शुरूआत सभी जगहों पर अलग-अलग मार्गो से शुरू की जो इतिहास ने उनके लिए खोला परन्तु अब अपने अनुभवों और संघर्षो से एक समान रास्ते पर आ गयीं है जो उनके सशक्तीकरण की ओर जाता है।
महिलाओं ने अपने पूरे संघर्ष में सामन्ती और धार्मिक ताकतों के प्रतिरोध को झेला है। परन्तु अब पूंजीवाद कथित ”वैज्ञानिक“ सत्यों के द्वारा उनके मार्ग पर प्रतिरोध के लिए आ गया है। उदाहरण स्वरूप:
  • विज्ञान बताता है कि एक स्वस्थ बच्चे के लिए एक ऐसी मां की जरूरत होती है जो गृहणी हो।
  • काम करने वाली महिला एक स्वस्थ बच्चे का जन्म नहीं दे सकती।
  • जन्म के बाद यदि बच्चे की देखरेख मां नहीं करती है तो बच्चा असामान्य, अपराधी और बुद्धिहीन हो जाता है।
  • काम करने वाली महिलायें पुरूषों को नैतिकता से डिगाती हैं। समाज में नैतिकता के हित में जरूरी है कि महिलायें घरों पर ही रहें।
सन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद मातृसत्तात्मक सत्ता का मानव समाज के विकास की नीव के रूप में रक्षा नहीं की और मानव विज्ञान के क्षेत्र में पुरूष प्रधानता के कारण यह साबित करने की कोशिश की गयी कि मानव समाज का जन्म पितृसत्तात्मक था। अब यूरोप और अमरीका में महिला मानववैज्ञानिकों ने इस प्रतिपादन को ललकारना शुरू किया है।
इस प्रकार इन चारों तर्को के पीछे केवल एक उद्देष्य छिपा हुआ है - महिलाओं के सशक्तीकरण को रोकना।
सभी महिला संगठनों को ध्यान रखना होगा कि उनका संघर्ष पुरूषों या धर्मो से नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ है।
- का. हरबंस सिंह
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बुधवार, 30 जनवरी 2013

कांट्रेक्ट फार्मिंग एवं जेनेटिकली मॉडिफाइड बीज खेती को बरबाद कर देंगे - भाकपा

लखनऊ 29 जनवरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने कांट्रेक्ट फार्मिंग और मॉडिफाइड बीजों को उत्तर प्रदेश में चालू करने के प्रदेश सरकार के मंसूबे को किसान, कृषि एवं पर्यावरण के लिए घातक बताया है। भाकपा ने इस मंसूबे का परित्याग करने की मांग राज्य सरकार से की है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि 30 अगस्त 2012 को भी राज्य सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग को लागू करने का मंशा जाहिर किया था लेकिन भाकपा और तमाम दलों के द्वारा विरोध जताने पर सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे। एक बार फिर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति मुख्यमंत्री का प्रेम उमड़ा है और कृषि के विकास के नाम पर उन्होंने इनको खेती में प्रवेश देने की मंशा जतायी है।
भाकपा का आरोप है कि सपा और उसकी राज्य सरकार एफडीआई के सवाल पर तो अपनी दोहरी नीतियों का परिचय पहले ही दे चुकी है, अब खेती में भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भागीदारी को आगे बढ़ा कर उसने साबित कर दिया है कि वह केंद्र सरकार की जनविरोधी आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को ही प्रदेश में आगे बढ़ा रही है।
डा. गिरीश ने साफ कहा कि कांट्रेक्ट फार्मिंग के जरिये विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां छोटे और मंझोले किसानों को खेती से ही बाहर खदेड़ देंगी। इससे भूमिहीनों और बेरोजगारों की संख्या में भारी इजाफा होगा। साथ ही मंडी समितियां भी लडखडा कर रह जायेंगी। जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों को बेहद महंगा और पर्यावरण के प्रतिकूल बताते हुए भाकपा ने कहा कि सरकार के इस कदम से मोनसेंटो और कारगिल जैसी विदेशी कम्पनियां ही भारी लाभ उठाएंगी।
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सोमवार, 14 जनवरी 2013

साम्प्रदायिक दंगे और पुलिस की भूमिका

    यह अंदर की बात है, पुलिस हारे साथ है दंगाई विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल एवं शिवसैनिकों ने 6 दिसंबर, 1992 को पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की उपस्थिति में यह नारा लगाते हुए बाबरी मस्जिद को विध्वंस कर डाला था।
    कोई राज्य चाहे लोकतांत्रिक हो या तानाशाही पद्धति से चलता हो, उदारवादी हो या मार्क्सवादी, धर्मनिरपेक्ष हो या मज़हबी एक संगठित पुलिस व्यवस्था उसके लिए जरूरी है। हर राज्य के लिए पुलिस संगठन अपरिहार्य और अनिवार्य है। पुलिस बल राज्य के व्यवस्था तंत्र का एक हिस्सा होता है। पुलिस का मख्य उत्तरदायित्व नागरिक कानून लागू करना और बनाये रखना है। पुलिस बल जब राजनीतिक भावना से संचालित होने लगे, अगर यह सांप्रदायिक, जातिवादी या कोई दूसरे सामाजिक पूर्वगग्रह से प्रभावित हो जायेगा। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान ऐसा दिखाई भी देता है।
    भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं तथा राजनीतिक मान्यताओं वाले लोग रहते हैं। विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक मान्यताओं वाले लोगों की मौजूदगी की वजह से भारत में अलग-अलग तरह के परस्पर विरोध एवं आंतरिक कलह की संभावना बनी रहती है। इन परिस्थितियों में पुलिस को, जिससे कानून की रखवाली और लोगों की जिंदगी एवं आजादी को बिना भेदभाव के सुरक्षा करने के अपेक्षा की जाती है, और अधिक सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है। लेकिन भारत में पुलिस बल का जो प्रदर्शन रहा है वह अपने जरूरी लक्ष्य से बहुत पीछे है। पुलिस बल हमारे समाज का एक बेहद नफरत से देखा जाने वाला संगठन है। अपने अत्याचारों एवं मानवाधिकारों के घृणित उल्लंघन की वजह से पुलिसवालों को कभी-कभी ‘वर्दीवाले अपराधी’ भी कहा जाता है।
    हमारे देश में पुलिस और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता नहीं है, और सामान्य रूप से भारतीय समाज की नजर में पुलिस की सकारात्मक छवि नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक तो विशेष रूप से पुलिस पर अपना विश्वास पूरी तरह खो चुके हैं। दलित भी पुलिस के हाथों प्रताड़ित होते रहे हैं, लेकिन नौकरियों में आरक्षण की वजह से इस विभाग में उनकी संख्या बढ़ गयी है, जिससे उन पर होने वाले अत्याचार कम हो गये हैं। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि सामान्य परिस्थितियों में पुलिस के दुर्वव्यहार और इस विभाग के संस्थागत भ्रष्टाचार की वजह से बहुसंख्यकों एंव अल्पसंख्यकों को समान रूप से परेशान होना पड़ता है। लेकिन साम्प्रदायिक दंगों या फिर दंगे जैसी परिस्थितियों में पुलिस योजनाबद्ध तरीके से जान-बूझकर अल्पसंख्यकों को परेशान करती है। वर्ष 1969 में अहमदाबाद के साम्प्रदायिक दंगों, 1980 के मुरादाबाद दंगों, 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1987 के मेरठ दंगों, 1989 के भागलपुर दंगों, 1992-93 के मुंबई दंगों से लेकर 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार से संबंधित कागजातों के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है।
    वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक भीषण सांप्रदायिक दंगा हुआ था। यहां फिर से पुलिस पर सांप्रदायिक दुर्भावना और भेदभाव रवैये का आरोप लगा था।
    वहाँ पर, पुलिस ने न सिर्फ लूटपाट और आगजनी में खुलेआम हिस्सा लिया था बल्कि मस्जिदों एवं मकबरों का विध्वंस भी किया था। दो मकबरों को पूरी तरह से नेस्तानाबूद कर दिया गया था और तीन मस्जिदों को इस बुरी तरह से विध्वंसित कर दिया गया कि यह विश्वास करना मुश्किल था कि कुछ सौ लोगों की भीड़ को मनचाहे समय तक तोड़-फोड़ करने के लिए पुलिस ने प्रोत्साहित किया था।
    वर्ष 1980 के मुरादाबाद दंगों ने भारतीय पुलिस के दुखद इतिहास में एक और अध्याय जोड़ दिया था। यह दंगा मुस्लिम विरोधी पीएसी द्वारा गलत तरीके से अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की वजह से भड़का था। वह आजाद भारत के इतिहास का एक काला दिन था, जब ईद (खुशी और भाईचारे के त्यौहार) के दिन अंधाधुंध फायरिंग द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। प्रोफेसर सतीश सबरवाल और प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने दंगा प्रभावित शहर का दौरा कर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें पुलिस और पीएसी को मुसलमानों के खिलाफ मनमानी और निर्दयता का दोषी ठहराया गया था। रिपोर्ट में लिखा गया था, शहर की पुलिस ने कई हफ्तों तक मुसलमानों को पीटने, लूटने और मारने वाले संगठित बल की तरह काम किया। पीएसी ने विशेष रूप से एक संप्रदाय के सांप्रदायिक तत्वों एवं गुंडों के साथ मिलकर सांठ-गांठ की थी। यही नहीं न्यायपालिका सहित व्यवस्था के विभिन्न अंगों ने एक तरह से स्थानीय पुलिस एवं पीएसी समर्थक रवैया अपनाया था।
    1984 के सिख विरोधी दंगों ने भी बताया कि जब बहुसंख्यक संप्रदाय का जुनून हद से गुजरता है तब सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में किसी भी धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न और यहाँ तक कि नरसंहार का खतरा रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा किया जाना बहुसंख्यक संप्रदाय के लिए पूरे सिख संप्रदाय को निशाने पर लिये जाने के लिए पर्याप्त था। सिर्फ दिल्ली में हुए दंगों मंे लगभग 3000 निर्दोष सिखों का कत्लेआम कर दिया ग्या। दिल्ली के सिख विरोधी दंगो की जाँच करने के लिए गठिन रंगनाथ मिश्र आयोग ने कहा कि पुलिस द्वारा सिखों की सुरक्षा एवं स्थिति को नियंत्रण करने में दर्शायी गयी ‘पूर्ण निष्क्रियता’, निर्दयता तथा भेदभाव की वजह से दंगे हुए। पुलिस ने सिर्फ अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया, बल्कि सिखों के खिलाफ होने वाले जनसंहार और लूटपाट में भी हिस्सा लिया।
    लेखक ने स्वयं अपनी आंखों से 1984 के सिख विरोधी दंगों में देखा है। जहां पर पुलिस तीन दिन तक न केवल मूक दर्शन बनी रही बल्कि दंगाइयों को पेट्रोल-डीजल एवं अन्य ज्वलनशील पदार्थ भी अपनी गाड़ियों से सप्लाई करती रही।
    मुझे याद है कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव स्वर्गीय सी. राजेश्वर राव ने क्षेत्र का दौरा करते हुए हम तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिया कि कॉमरेड आप लोग, आग में कूदकर सिखो की जान-माल की रक्षा करें। आज हमें गर्व है कि उस समय हम सभी कामरेडों ने ऐसा ही किया था।
    मई 1987 में मेरठ में हुए दंगों ने एक बार फिर से पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। इन दंगों की तुलना जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम से की गयी। मई 1987 के मेरठ दंगो के दौरान पीएसी ने हाशिमपुरा के मुस्लिम युवाओं को गिरफ्त में लेने के बाद उन्हें ट्रक में डालकर एक नहर के पास लाकर गोली मार दी। उन हत्याओं को व्यापक रूप से नरसंहार की संज्ञा दी गयी। तमाम सबूतों की जांच-पड़ताल के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँची थी कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पीएसी दर्जनों गैरकानूनी हत्याओं और 22 तथा 23 मई, 1987 को अनेक अल्पसंख्यक लोगों के गायब हो जाने के लिए जिम्मेदार थी। वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने कहा कि पीएसी, जिसका सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कभी छिपा नहीं रहा है, ने इस बार हिटलरी निर्दयता का अपना ही कीर्तिमाल ध्वस्त कर डाला। पीयूसीएल ने कहा कि ऐसी घटनाएं सिर्फ हिटलर की जमीन पर हो सकती हैं। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने होशियारपुर मे मुसलमानों की निर्दयतापूर्वक की गयी हत्या को नरसंहार का एक स्पष्ट मामला बताया।
    साम्प्रदायिक दंगो के दौरान मुसलमानों के खिलाफ पुलिस का अमानवीय चेहरा सिर्फ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ही सामने नहीं आया है बिहार में वीएमपी ने मुसलमानों के प्रति अपना साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह उजागर किया था। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गये थे। लॉगन (जगदीशपुर पुलिस स्टेशन) में मुसलमानों के संहार हुए, जहां कुछ को छोड़कर 170 मुस्लिमों को मौत की नींद सुला दिया गया।
    वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगों ने महाराष्ट्र पुलिस के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पर्दाफाश कर दिया था। दिसंबर 1992, जनवरी 1993 के दंगों तथा 12 मार्च, 1997 के बम ब्लास्ट की जांच करने के लिए गठित आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. कृष्णा ने टिप्पणी की है, हताश पीड़ितों को विशेष रूप से मुसलमानों की मदद की गुहार पर पुलिस की प्रतिक्रिया बेहद नकारात्मक और निन्दनीय थी। कई अवसरों पर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी भी थी कि वे अपने लिए निर्धारित स्थान को दूसरों पर नही छोड़ सके। मकसद था कि एक मुस्लिम मरा मतलब एक मुस्लिम कम हुआ। पुलिस अधिकारी, विशेष रूप से जुनियर पुलिसवालों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह का खुलासा तो बार-बार हुआ। मुसलमानों के प्रति उनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण तथा रूखा था जो कभी-कभी अमानवीय हद तक पहुंच जाता था। पुलिसवालों का पूर्वाग्रह दंगाई हिन्दू भीड़ के साथ पुलिस कांस्टेबलों के सक्रिय सहयोग के रूप में दिखाई दिया। कई अवसरों पर पुलिसवाले बेहपरवाह दर्शकों जैसे चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखने की मुद्रा में होते थे।
    वर्ष 2002 का गुजरात नरसंहार फासिस्ट हिन्दुवादी ताकतों द्वारा मुसलमानो के कत्लेआम का एक स्पष्ट उदाहरण है। 2002 के गुजरात के नरसंहार का अध्ययन एवं इसकी गहन जांच की जरूरत है। गुजरात का कत्लेआम योजनाबद्ध था और इसे विधिवत पूरा किया गया था। कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों एवं दलों की देखरेख में मुसलमानों का नरसंहार हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री ने न्यूटन के गति के नियमों का उदाहरण देते हुए इस नरसंहार को सही ठहराया। पुलिस, जिसने लूटपाट, हत्याएं, आगजनी में सक्रिय भागीदारी की, अपनी मुस्लिम विरोधी छवि कायम रखी। सदमे वाली बात यह है कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी. पाण्डेय ने यह कहते हुए अपने पुलिस बल की हरकातें को सही बताया कि ये लोग भी आम भावना की वजह से प्रभावित हो गए। यही सारी समस्या की वजह है पुलिस समान रूप से आम भावना से प्रभावित हो जाती है।
    4 नवम्बर 2012 को नई दिल्ली के मावलंकर सभागार में पी.सी.पो.टी. (पीपुल्स कैम्पेन अगेन्स्ट पॉलीटिक्स ऑफ टेर्र) द्वारा आयोजित कन्वेशन जिसमें सी.पी.आई. के ए.बी. वर्धन, सुधाकर रेड्डी, अतुल अन्जान, डी.राजा, अजीज पाशा, सी.पी.एम. के प्रकाश करात के अतिरिक्त लालू प्रसाद यादव, राम बिलास पासवान, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर व तमाम सेक्यूलर पार्टियों के नेतागण ने एक मंच पर आकर, पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों द्वारा आतंकवाद के नाम पर चलाये जा रहे अभियान में ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम नौजवानों को फंसाने की साजिश की पुरजोर शब्दों में निन्दा की। जैसा कि पिछली अटर बिहारी बाजपेयी की एडीए सरकार द्वारा संचालित अमेरिकन थ्योरी ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान हैं’ पर अमल करते हुए हमारे देश की पुलिस एवं ए.टी.एस. ने पिछले 20 वर्षाें में अनेक पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को झूठे केसों में फंसाया, और उन्हीं में से एक-एक-कर तमाम लोग उच्चतम न्यायालय से बाइज्जत बरी भी हो गये।
    इस बारे में जरा भी शक नहीं है कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुका है। इसने राष्ट्रीय महाविपत्ति का रूप ले लिया है। इसलिए इस समस्या का सामना करने के लिए व्यापक एवं सावधानी पूर्वक तैयार की गयी योजना की जरूरत है, लेकिन परेशानी यह है कि इस समस्या को हल्के ढंग से एक सीमित नजरिये से देखा जा रहा है। मीडिया और यहां तक कि सुरक्षा एजेंसिया भी इस समस्या को एक खास अंदाज में देख रही हैं। इसलिए ऐसा महसूस किया गया कि अधिकतर मामलों में आतंकवाद को इस्लाम एवं मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। मीडिया, पुलिस, राजनीतिज्ञों तथा खुफिया एजेंसियों द्वारा अक्सर इस्लामी कट्टरपंथ और मुस्लिम आतंकवादियों जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जाता है। पुलिस सुधार पर विस्तार से लिख चुके एक जाने-जाने पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के अनुसार एक औसत पुलिसवाले के लिए खुफिया जानकारी का मतलब साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारियां इकट्ठा करना होता है। इसका परिणाम यह होता है कि साम्प्रदायिक हिन्दू संगठन संदेह के दायरे में नहीं आते और अपनी साम्प्रदायिक मुस्लिम गतिविधियां संचालित करने के लिए आजाद रहते हैं दूसरी तरफ पूरा का पूरा मुस्लिम सम्प्रदाय हमेशा ही संदेह की नजरों से देखा जाता है। मदरसों तथा मुसलमानों की साम्प्रदायिकता को झूठे एवं आधारहीन दुष्प्रचार के लिए निशाना बनाया जाता है। विडंबना यह है कि भारत सरकार ने भी टाडा और पोटा जैसे कानून बनाए हैं, जो पुलिस को बिना पर्याप्त सबूत के लोगों को फंसाने, तंग करने तथा धमकाने की ताकत देते हैं। चूंकि हमारी पुलिस बहुत अधिक साम्प्रदायिक है, इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय पुलिस अत्याचारों को स्वाभाविक निशाना बन जाता हैं। पोटा का भी अल्पसंख्ययकोें के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया गया। डॉ. मुकुल सिन्हा ने देश पर पोटा के दुष्प्रभावों को समझने की कोशिश भी की हे। उन्होंने पोटा को आतंकवादियों की सुरक्षा करने वाला कानून बताया है। वे बताते हैं-आतंकवाद के खिलाफ अभियान कैसे छेड़ा जा सकता है अगर सामने कोई आतंकवादी नहीं हो। गुजरात में यही प्रयोग आजमाया गया है। पहले आतंकवादी बनाओ और फिर उनके खिलाफ युद्ध छेड़ो, जिससे असहाय नागरिक तुम्हें अपने रक्षक के रूप में वोट दे सकें। अक्टूबर, 2002 तक गुजरात में किसी किस्म का कोई आतंकवादी नहीं था, लेकिन जनवरी 2007 आते-आते गुजरात की जेलों में लगभग 180 हार्डकोर/देशद्रोही/जेहादी आतंकवादी गिरफ्तार कर पहुंचा दिये गये थे।
    यह ठीक है कि आतंकवाद का राज्य द्वारा प्रभ्साावशाली ढंग से सामना किया जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस को अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए एक कठारे कानून थमा दिया जाये। आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाते समय हमें अपने पुलिस बल के स्वभाव एवं चरित्र को ध्यान में रखना होगा।
    पुलिस राज्य के अब पीड़क तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन यह तंत्र राज्य द्वारा संचालित सैद्धांतिक तंत्र से प्रभावित होता है। इसलिए शैक्षिक संस्थाओं, मीडिया जैसे सैद्धांतिक तंत्रों को धर्मनिरपेक्ष एवं संवेदनशील स्वरूप प्रदान करना जरूरी है। अगर आर.एस.एस. और वी.एच.पी, को अपनी संस्थानों की श्रंृखला चलाने की आजादी दी जाती रहेगी तब हमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पायेंगे, क्योकि ये संस्थाएं काल्पनिक एवं विकृत भगवाकृत इतिहास के द्वारा युवा छात्रों के मस्तिष्क को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं। इसी तरह से मीडिया को भी नियंत्रित या कम से कम इतना निर्देशित तो कर ही दिया जाना चाहिए कि वह साम्प्रदायिक रूप से उद्वेलित वातावरण की आग में घी नहीं डाले।
    ऐसा आमतौर पर माना जाता है कि उपयुक्त प्रशिक्षण एवं संवेदना का संचार करने वाले कार्यक्रमों के सहारे पुलिस को तटस्थ एवं पक्षपात रहित बनाया जा सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक पुलिस बल की संरचना में बदलाव कर उनमें विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से दलितों एवं अल्संख्यकों को समाहित नहीं किया जाता है, तब तक पुलिस महकमे को तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। इस तरह अपनी पुलिस को जिम्मेवार और कानून का पालन करने वाला बनाने के लिए किसी सुपरमैन या सुपर कोष की खोज करने की बजाय हमें सुपर विज्ञान की खोज करनी चाहिए, ताकि पुलिस बल को सक्षम, प्रभावशाली और भेदभाव रहित कानून का सेवक बनाया जा सके।
    भारत के अल्पसंख्यक पुलिस में अपना विश्वास पूरी खो चुके हैं। दुर्भाग्य से हत्या, बलात्कार, लूटपाट के अपराधी पुलिसवालों को पदोन्नति भी मिली है। इस तरह उन्हें जो दण्डमुक्ति का वरदान मिला हुआ है उसकी वजह से वे साम्प्रदायिक एवं निष्ठुर हो गए हैं। इसलिए पुलिस बल को इस तरह पुर्नगठित किया जाना चाहिए, जिससे पुलिस में सामाजिक संरचना भी परिलक्षित हो। पुलिस बल को भी पुरस्कार और सजा के सिद्धांत पर काम करना चाहिए। यानी अच्छे काम पर पुरस्कार और गलती की सजा। हालांकि यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि अगर साम्प्रदायिक दंगांें से बचना है या बिना अधिक क्षति के उन्हें नियंत्रित करना है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि दलित और भारत के विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों की कुल पुलिस बल में पचास फीसदी भागीदार दी जाये।
- डॉ ए.ए. खान
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मानेसर सुजुकी के सबक - कार्पोरेट शासन पर हल्ला बोल

   मानेसर सुजुकी प्लांट में गत 18 जुलाई के हादसे के बारे में अब यह तथ्य पूरी तरह उजागर हुआ है कि उस दिन की हिंसक घटना प्रबंधन द्वारा पूर्व नियोजित थी, जिसका उद्देश्य मजदूरों को सबक सिखाना था। कारखाना परिसर में अभी भी पुलिस बल की भारी तैनाती और बाद की घटनाओं से जाहिर है कि हरियाणा राज्य सरकार किस हद तक विदेशी कंपनियों की गिरफ्त में है। हरियाणा सरकार पूरी तरह विदेशी पूंजी की सेवा में समर्पित हो गयी है।
    राज्य सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के सुपुर्द प्रतिवेदन में लिखा गया है कि राज्य पुलिस प्रशासन द्वारा कोर्ट में दाखिल चार्जशीट में गवाहों के नाम नहीं दिये गये हैं और न अभियोगों के पक्ष में समुचित कागजात एवं दस्तावेज दाखिल किये गये हैं। इन दो तथ्यों के अभाव में मामले की न्यायिक जांच को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। विशेष जांच दल ने यह भी सुझाव दिया है कि सरकार उन मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से हटा दें जिन पर हिंसा फैलाने का आरोप नहीं है। इसके बावजूद निर्दोष मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से नहीं हटाया गया है और ऐसे बेगुनाह मजदूरों को काम पर वापस भी नहीं लिया गया है। इस तरह मारूति सुजुकी प्रबंधन एवं हरियाणा राज्य सरकार के नापाक गठबंधन से मनमानीपूर्वक बेगुनाह मजदूरों को गोलमटोल अभियोगों के आधार पर जेल में बंद कर आतंक का माहौल बनाया हुआ है।
    अब तक बिना किसी ठोस आधार के 546 स्थायी कर्मचारियों को और 1800 से ठेका मजदूरों को बर्खास्त किया गया है। पुलिस ने 149 मजदूरों को गिरफ्तार कर जेल मेें बंद रखा है, जिसें यूनियन के अनेक पदाधिकारी शामिल हैं। इन गिरफ्तार लोगों में 125 मजदूर तो घटना के दिन कारखाने में मौजूद ही नहीं थे। विशेष जांच दल द्वारा ऐसे ही लोगों के नाम हिंसा के अभियोगों की सूची से हटाने का सुझाव दिया है।
    ‘ट्रेड यूनियन रिकार्ड’ के पिछले अंकों में गुड़गांव सहित नोएडा, फरीदाबाद, गाजियाबाद, धारूहेड़ा के औद्योगिक क्षेत्र में फैल रही अनेकानेक हिंसक घटनाओं का कारण अंधाधंुंध गैरकानूनी ठेका प्रथा के प्रचलन को बताया है। दिल्ली समेत यू.पी. और हरियाणा सरकार का श्रम विभाग ठेका प्रथा उन्मूलन एवं नियमन कानून के प्रावधानों के कार्यान्वयन के प्रश्न पर नीतिगत रूप से कान में तेल डालकर सोया है। इस प्रकार शासन में देशी-विदेशी कार्पोरेट घराने के बढ़ते प्रभाव और उसके चलते हो रही हिंसक घटनाएं देश को खतरनाक औद्योगिक अराजकता में धकेल रही है। भारत के सस्ता श्रम के दोहन के लिये विदेशी कंपनियां बेताब हैं। अब वालमार्ट जैसी दैत्याकार अमेरिकी कंपनियां भी भारत के कृषि उत्पाद तथा उपभोक्ता बाजार के शोषण के लिये मैदान में उतर रही है।
    शासक दल के राजनेताओं को ‘‘शिक्षित करने’’ के लिये बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों द्वारा भारी रकम खर्च करने की खबरें पहले भी आयी थीं। बोफोर्स तोप घोटाले में भी विक्रय प्रोत्साहन (सेल्स प्रमोशन) के लिये किया गया खर्च को रिश्वत नहीं माना गया था। योरोप के अनेक देशों में घूस की रकम को अनैतिक नहीं माना जाता है।
    बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियां कारोबार को आगे बढ़ाने के लिये राजनेताओं को पटाते हैं और इसके लिये भारी रकम खर्च करते हैं। ऐसी खर्च रकम को वे लाबियिंग एक्पेंडीचर कहते हैं और बजाप्ता नियमित खाता में डालत हैं। अभी वालमार्ट कंपनी ने 125 मिलियन डालर भारत में खुदरा बाजार हासिल करने के लिये ‘लाबियिंग खर्च’ दिखाया है अमेरिका में ऐसा ‘लाबियिंग खर्च’ कानूनी तौर पर वैध है। यह मुद्दा संसद में भी गरमाया और सरकार ने इसकी न्यायिक जांच कराने की घोषणा की।
    सर्वविदित है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में राबर्ट क्लाइब ने भारत में पैर जमाने के लिये किस तरह देशी रजवाड़े को घूस देकर पटाया था। भारत में विदेशी कंपनियोें के आचरण अत्यंत आपत्तिजनक हैं। वे भारत के श्रम कानूनों की उपेक्षा करते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य भारतीय श्रम बाजार का शोषण और कृषि उत्पादों को लूटना एवं उपभोक्ता बाजार में सामान बेचकर मुनाफा कमाना है। अतएव अब समय आ गया है कि भारतीय जनगण कार्पोरेट घरानें के शिकंजों के खिलाफ हल्ला बोलें।
    केंद्रीय ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा में संयुक्त संघर्ष 20-21 फरवरी 2013 को दो-दिवसीय आम हड़ताल को कामयाब करें। भारत का लोकतंत्र कार्पोरेट शासन के गिरफ्त में हैं। यह हमारी आजादी और सार्वभौमिकता पर खतरा है। इसलिये जरूरी है कि कार्पोरेट शासन के बढ़ते शिकंजे के खिलाफ जोरदार हल्ला बोलें।
- सत्य नारायण ठाकुर
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कैश ट्रांसफर और आधारकार्ड के लिये सरकार की हड़बड़ी का हम क्यों विरोध करते हैं: एक व्याख्यात्मक नोट

    हम वृद्धावस्था पेंशनो, विधवा पेंशनों, मातृत्व लाभों के लिये भुगतानों और छात्रवृत्तियों, जैसे कल्याणकारी कार्यों के लिये कैश ट्रांसफर का समर्थन करते हैं। वास्तव में हम में से अनेक सामाजिक सुरक्षा पेंशनों को विस्तारित करने और उन्हे प्रदान करने में बेहतरी के लिये किये जानेवाले संघर्षों का हिस्सा रहे हैं। हम इस उद्देश्य के लिये जनता को फायदा पहुंचाने वाली समुचित आधुनिक टेक्नोलाजी के इस्तेमाल का भी समर्थन करते हैं।
    परन्तु इन कैश ट्रांसफरों को ‘आधार’, (यूनीक आइडेंटिटी) से जोड़ने के लिये सरकार की हड़बड़ी एंव जल्दबाजी पर हमें गंभीर आपत्तियां हैं। यह इस कारण कि इन स्कीमों को ‘आधार’ से जोड़ने पर जबरदस्त अस्तव्यस्तता पैदा हो सकती है। जरा उस वृद्ध आदमी के बारे में सोचिए जिसे अभी स्थानीय डाकखाने के जरिये वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है। उसे अब ऐसा बैंक खाता खुलवाने के लिये दौड़भाग करनी पड़ेगी जो आधार कार्ड से जुड़ा हो, फिंगर प्रिंट की समस्याओं, कनेक्टिविटी के मुद्दों, बिजली न आने, कामचोर ‘बिजनेस करेस्पोंडेंटों और अन्य तमाम वजहों से हो सकता है उसकी पेंशन ही कुछ महीनों के लिये बंद हो जायें।
    हम इस बात के सख्ती के खिलाफ हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये जनता को खाद्य सामग्री एवं अन्य वस्तुओं की सप्लाई के स्थान पर कैश ट्रांसफर (नकदी देना) शुरू कर दिया जाये। इस विरोध के कई कारण हैं।
     पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले सब्सिडीयुक्त खाद्य पदार्थ देश के करोड़ों गरीब परिवारों के लिये खाद्य एवं आर्थिक सुरक्षा का जरिया है। 2009-10 में, जनवितरण प्रणाली में अंतर्निहित ट्रांसफरो से राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 1/5 और तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगभग आधा ‘गरीबी अंतर’ (पॉवचर गैप) दूर हुआ। हाल के अनुभव से पता चलता है कि जनवितरण प्रणाली को बिना किसी देर के सुधारा जा सकता है और अधिक कारगर बनाया जा सकता है।
    दूसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था ऐसी नहीं है कि छोटे-छोटे कैश ट्रांसफरों की बड़ी मात्राओं को हैंडल कर सकें। बैंक अक्सर दूर-दूर हैं। और उनमें भीड़-भाड़ है। इसके लिये बैंकिंग करस्पोंडेटों का जो कथित समाधान पेश किया गया है उसमें अनेकानेक समस्याएं आयेंगी। संभवतः डाकघरों को उपयोगी भुगतान एजेंसियों के रूप में बदला जा सकता है, परन्तु इसमें समय लगेगा।
    तीसरा, ग्रामीण बाजार अक्सर बहुत कम विकसित हैं। जन वितरण प्रणाली को भंग करने से देश भर में खाद्य पदार्थों का प्रवाह अस्तव्यस्त हो जायेगा और अनेक लोग स्थानीय व्यापारियो और बिचौलियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
    चौथा, अकेली महिलाओं, विकलांग लोगों और वृद्ध लोगों जैसे विशेष समूओं की समस्याएं अलग किस्म की हैं, वह अपना पैसा निकालने और दूर बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने के लिये आसानी से नहीं जा सकते।
    अंतिम कारण, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है वह यह है कि मुद्रास्फीति कैश ट्रांसफरों की क्रयशक्ति को आसानी से कम कर सकती है। जब हाल यह है कि सरकार पेंशनों या मनरेगा मे मिलने वाली मजदूरी को भी बढ़ती मुद्रास्फीति के अनुरूप बढ़ाने से इंकार करती है तो इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है कि वह कैश  ट्रांसफरों को महंगाई बढ़ाने के अनुरूप बढ़ा देंगी। यदि यह मान भी लें कि इसमें इस तरह कुछ वृद्धि की जायेगी तो भी उस वृद्धि में अवश्य समय लगेगा और बीच के समय में गरीबों को भारी मुश्किल होगी।
    कैश ट्रांसफर स्कीम का राजस्थान के कोटकोसिम में जो प्रयोग किया गया वह कैश ट्रांसफर की योजना की संभावित विफलता का एक जीता जागता उदाहरण हैं यह प्रयोग काफी धूमधड़ाके के साथ शुरू किया था और इसे यह कहकर एक जबरदस्त सफलता के रूप में पेश किया गया कि इससे कैरोसीन की सब्सिडी पर आने वाले खर्च में 80 प्रतिशत की कमी आ गयी। परन्तु हकीकत यह सामने आयी कि इससे केरोसीन की वितरण प्रणाली ही धराशायी हो गयी।
    देश में एक ऐसा इम्प्रेशन बना दिया गया है कि सरकार 2014 चुनाव के पहले आधार कार्ड से जुड़ी कैश ट्रांसफर स्कीमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिये तैयार हैं। यह अत्यंत गुमराह करने वाली बात है और लगता यह है कि यह इस बात की कोशिश है कि लोग आधार कार्ड बनवाने के लिये आधार कार्ड बनाने वाले केन्द्रों की तरफ दौड़ पड़े।
    सरकार ने एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वायदा किया था। सरकार उसमें विफल रही है। कैश ट्रांसफर की घोषणा से सरकार की इस विफलता से ध्यान डायवर्ट होता है। सरकार ने जो खाद्य सुरक्षा बिल बनाया वह अत्यंत कमजोर है और वह भी पूरे एक साल से स्थायी समिति के पास पड़ा हुआ है। इस बीच देश में खाद्यान्न भंडार अभूतपूर्व पैमाने पर जमा हो रहे हैं। इस समय देश को एक व्यापक खाद्य सुरक्षा की जरूरत है, आधार कार्ड संचालित कैश ट्रांसफरों की ऐसी हड़बड़ी एवं जल्दबाजी की नहीं जिसमे अनेक खतरे निहित हैं।
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बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश को भुनाने की कवायद

16 दिसम्बर की रात देश की राजधानी में एक पैरा-मेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार की घृणित बहशी हरकत होती है। वह बेचारी तो अब इस दुनियां में नहीं रही लेकिन उसके साथ घटी घटना के फलस्वरूप दिल्ली की सड़कों और उसके बाद पूरे देश की सड़कों पर हुए विरोध प्रदर्शनों ने यह जाहिर किया कि जनता में आक्रोश है। जहां मीडिया ने शुरूआत से ही इसे एक विचारधाराविहीन जनसंघर्ष की संज्ञा देने शुरू कर दिया था, वहीं देश के राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में तमाम लोगों ने इस घटना पर तरह-तरह की अनर्गल प्रतिक्रिया देकर उस जनाक्रोश को भुनाने की अपनी-अपनी तरह की कोशिशें कीं। इन कोशिशों में देखा जाना चाहिए कि जिन संगठनों का यह प्रतिनिधित्व करते हैं, उन संगठनों का महिलाओं के बारे में, महिलाओं के सशक्तीकरण के बारे में और उनकी अस्मिता के बारे में सोच क्या है।
दूरदर्शन सहित सभी प्रमुख न्यूज चैनलों पर सबसे पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वार्ता दिखाई गयी जिसमें वे इस घटना पर अपना गुस्सा प्रकट करते हुए सख्त एवं त्वरित कार्यवाही की मांग कर रही थीं। शीला जी लम्बे अर्से से देश की उसी राजधानी की मुख्यमंत्री हैं, जहां घटना घटी थी और केन्द्र में लगभग साढ़े आठ सालों से उन्हीं की सरकार सत्तासीन है। समझ में नहीं आया कि वे इस घटना के लिए किसको जिम्मेदार बता रही थीं - खुद को या सोनिया को या मनमोहन को? वे जो फार्मूले पेश कर रहीं थी, वे किसके लिए थे। उसी समय कांग्रेस के कुछ नेता, जिसमें राष्ट्रपति के सांसद पुत्र भी शामिल हैं, ने प्रदर्शनकारी महिलाओं के लिए अशोभनीय शब्दों का प्रयोग किया, बाद में उनकी बहन और उन्होंने खुद माफी मांग ली।
इसके बाद सोनिया जी खुद सामने आती हैं और बलात्कार के अपराधियों के लिए मृत्यु दंड और उन्हें नपुंसक कर देने तक की सजा की मांग करती हैं। वे किस हैसियत से और किससे यह मांग कर रहीं थीं, इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। चूंकि दिल्ली की घटना में एक नाबालिग भी शामिल था, इसलिए उन्हीं की पार्टी नाबालिग बच्चों पर भी मुकदमा चलाने के लिए कानून बदलने की मांग करती है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर कानून बदल भी दिया जाये तो उसे पीछे से लागू नहीं किया जा सकता। दूसरे यूएन कंवेंशन होने के कारण इसे बदल पाना शायद आसान नहीं है।
भाजपा के कुछ नेताओं ने भी कुछ अभद्र टिप्पणियां कीं। बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत सामने आये और पहले दिन उन्होंने कहा कि बलात्कार ‘इंडिया’ में होते हैं, ‘भारत’ में नहीं। वैसे तो ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में फर्क केवल इतना है कि ये दो अलग-अलग भाषाओं के शब्द हैं, जिसे हिन्दी में हम भारत कहते हैं उसे ही अंग्रेजी में इंडिया कहा जाता है। भागवत का इससे क्या आशय था, इसे साफ नहीं किया गया परन्तु इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं - या तो वे प्राचीन भारत को भारत और वर्तमान को इंडिया कह रहे थे अथवा वे ग्रामीण भारत को भारत और शहरी भारत को इंडिया कह रहे थे। दोनों अर्थों पर उनके ज्ञान पर तरस आता है। प्राचीन भारत के “महाभारत“ में द्रौपदी के चीरहरण का प्रकरण जनमानस में बहुत ख्यात है। प्राचीन भारत के गांवों में उत्तर और दक्षिण टोला हुआ करता था और जो आज भी अपने अस्तित्व को समाप्त नहीं कर सका है। बात को स्पष्ट कहने की जरूरत नहीं है। ग्रामीण अंचलों में निवास करने वाले लोग आशय समझ जायेंगे। दिल्ली की घटना के बाद रोज अखबारों को पलटने पर पता चलता है कि रोजाना कम से कम पांच बलात्कारों के समाचार तो केवल उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों के होते हैं। यानी कम से कम 5 घटनायें तो रौशनी में आ जाती हैं, पता नहीं कितनी घटनायें समाचार ही नहीं बन पाती हैं।
भागवत की इस टिप्पणी के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने और न्यूज चैनलों में दिखाये जाने से वे उत्साहित हुये और फिर बोल उठे। उन्होंने विवाह को एक ऐसा ”समझौता“ करार दे दिया, जिसमें महिला अस्मिता और सम्मान तार-तार होते दिखाई देते हैं।
जमायते इस्लामी पीछे कैसे रहती। उसने भी न्यायमूर्ति वर्मा आयोग को एक प्रतिवेदन दे दिया जिसमें सह-शिक्षा पर पाबंदी लगाने और लड़के-लड़कियों के मिलने जुलने और चलने तक पर पाबंदी लगाने की मांग कर दी।
इन सबके टीआरपी को देख कर आसाराम बापू में भी जोश में आ गये और कहा कि पीड़ित लड़की को बलात्कारियों के सामने हाथ जोड़ कर, बलात्कारियों के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाना चाहिए था, दया की याचना करनी चाहिए थी। इनके इस बयान की भी खूब पब्लिसिटी हुई।
आने वाले दिनों पता नहीं कौन-कौन क्या-क्या कहेगा परन्तु इस घटना और उसके बाद उपजे जनाक्रोश तथा उसके फलस्वरूप हुए प्रलापों के कुछ अर्थ निकाले जाने जरूरी हैं। महिला आन्दोलन और भाकपा कार्यकर्ताओं को चाहिए कि जहां-जहां भागवत और आसाराम सरीखे महिला विरोधी जायें, वहां उनके कार्यक्रमों के समय इनके विरोध में महिलाओं को भारी संख्या में भागीदारी करनी चाहिए और उनके कार्यक्रमों में व्यापक व्यवधान पैदा करना चाहिए। जहां-जहां बलात्कार की घटनाओं के समाचार मिलते हैं, वहां-वहां जनता की व्यापक लामबंदी करनी चाहिए और दिल्ली जैसे लगातार और लम्बे समय तक चलने वाले तथा व्यापक विरोध आयोजित करने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
9 जनवरी 2013
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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

गैंगरेप पीड़ित युवती के निधन पर भाकपा ने व्यक्त किया गहरा शोक

लखनऊ 29 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने दिल्ली में हुए बलात्कार से पीड़ित युवती के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। भाकपा ने युवती के परिवार के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए युवती को शोक श्रद्धांजलि अर्पित  की है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि इस दर्दनाक हादसे से सारा देश स्तब्ध है। हमें इस समस्या पर बहुत गंभीरता से काबू पाना होगा। उदारीकरण-भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप हमारा परम्परागत सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है। इससे रिश्ते भी प्रभावित हो रहे हैं। पैदा हो रही नई अपसंस्कृति के परिणामस्वरूप नारी के प्रति दृष्टिकोण में भी भारी बदलाव आया है और उसे भोग की वस्तु के रूप में देखा जाने लगा है। यही वजह है कि देश भर में बलात्कार और महिलाओं के साथ अभद्रता की घटनायें थमने का नाम नहीं ले रही हैं।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि ऐसी वारदातों को रोकने के लिये हमें त्वरित न्याय देना होगा और कानूनों में कड़ी सजा का प्राविधान करना होगा। साथ ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी हमें इस कुत्सित मानसिकता को बदलने के प्रयास करने होंगे। तभी नारी को सुरक्षा मिलेगी और समाज में स्वस्थ वातावरण निर्मित होगा।
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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

बलात्कार और मीडिया की भूमिका

16 दिसम्बर की रात दिल्ली में चलती बस में एक 23 साल की मेडिकल छात्रा के साथ घटी घटना से सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक गया। हर सभ्य नागरिक उस घटना की निन्दा करेगा और पीड़िता के साथ पूरी सहानुभूति रखेगी। ऐसे लोग ढूंढे नहीं मिलेंगे जिनकी चाहत यह हो कि उस घटना के आरोपियों को सख्त से सख्त सजा न दी जाये। घटना ने समाज में एक कंपन पैदा किया। संसद से लेकर सड़क तक आक्रोश दिखाई दिया। सब कुछ स्वाभाविक था परन्तु जिस तरह देखते-देखते तमाम समाचार चैनल आन्दोलनकारी हो गये, हर कोण से कमेंट्री करने की कोशिश में लग गये, उस पर चिंतन जरूर होना चाहिए।
पहली बात, लगभग सभी चैनलों के लगभग सभी एंकर बार-बार जोर दे रहे थे कि सड़कों पर विरोध करने उतरी जनता की कोई विचारधारा नहीं है। उसकी कोई राजनीति नहीं है। वह किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व नहीं करती। उनकी यह टिप्पणी कोई नई नहीं थी। ऐसा वे इसके पहले अप्रैल 2010 में शुरू हुए अन्ना आन्दोलन के समय भी कह रहे थे। अन्ना आन्दोलन के हस्र और उसकी वर्तमान स्थिति पर कोई टिप्पणी करने की हमारी मंशा इस समय नहीं है।
यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आन्दोलनकारियों के रूप में सड़कों पर उतरी जनता के विचारों में एक सामान्य सी साम्यता है, वे सब बलात्कार को गलत मानने वाले हैं, वे एक बालिका पर हुए बहशीपन से आक्रोशित हैं, वे अपराधियों को दण्ड दिये जाने के पक्ष में है और वे सब त्वरित कार्यवाही चाहते हैं। यह एक विचार है। इसी विचार से वे आन्दोलन में उतरे हैं और यही विचार उनके मध्य एकता स्थापित कर रहा है। वे गैर राजनीतिक नहीं हैं। उनका बड़ा तबका किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थक रहा है और उन्हें वोट देता रहा है। मीडिया को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन प्रदर्शनों में तमाम प्रदर्शन महिला संगठनों के द्वारा किये गये थे और तमाम प्रदर्शनों को तमाम राजनीतिक दलों ने भी आयोजित किया था।
मूलतः पूंजीवाद अपने जन्म काल से ही विचार और विचारधाराओं को नष्ट करने का प्रयास करता रहा है। पूंजीवाद इसके लिए विभिन्न रूप रख कर सामने आता है। 1957 में मिलान में समाजवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ”विचारधाराविहीन मनुष्य“ का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, आपातकाल के अंतिम दौर में स्वयंभू युवा हृदय सम्राट संजय गांधी द्वारा विचारधाराविहीनता का दिया गया नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, 1990 के करीब विचारधारा का अन्त का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था तो 2010 में अन्ना आन्दोलन के समय में मीडिया द्वारा विचारधाराविहीन आन्दोलन का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था। पूंजीवाद वर्तमान भारत में अपने विरोध को समाप्त करने के लिए राजनीतिक दलों और राजनीतिक विचारों के प्रति शहरी नव मध्यम वर्ग के मध्य एक विरोध पैदा करने की लगातार कोशिश कर रहा है। और इस बार भी मीडिया की यह टिप्पणी अपने आकाओं के इसी उद्देश्य की पूर्ति कर रही है।
मीडिया स्त्रियों की अस्मिता के प्रति कतई गम्भीर नहीं है। मीडिया ने सुषमा स्वराज के लोकसभा में दिये गये भाषण के आपत्तिजनक अंशों को बार-बार प्रसारित कर स्त्री अस्मिता को तार-तार किया। इस घटना के कवरेज के बीच-बीच ”लौंडिया पटाएंगे मिस्ड कॉल से’ के प्रसारण को अश्लील और दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। दबंग-2 के विज्ञापन के लिए चैनलों ने छांट-छांट कर जो संवाद और फुटेज दिखाए, वे मीडिया को कटघरे में खड़ा करते हैं। एक चैनल ने ‘रात में डराती है दिल्ली’ कार्यक्रम के बीच-बीच में स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापन दिखाए। स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापनों के अंतःपुर में बैठे मीडिया के लोग किस स्त्री हिंसा के खिलाफ माहौल बनाने में लगे हुए है, यह गौर करने लायक विषय है। सभ्य समाज को यह भी सोचना होगा कि वारदात, जुर्म, सनसनी और एसीपी अर्जुन जैसे कार्यक्रमों की अपनी क्या भूमिका है?
एक समाचार चैनल ने एक दिन अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लम्बे इंटरव्यू दिखाये। इंटरव्यू की विषयवस्तु मूलतः स्पांर्स्ड प्रोग्राम या विज्ञापन की तरह थी। शीला जी बड़ी गंभीरता से दिल्ली में घटने वाली वारदातों का ठीकरा पुलिस वालों और न्यायालयों पर थोप रहीं थीं। दिल्ली में लम्बे समय से राज्य सरकार उनकी है, केन्द्र में लम्बे समय से उनकी सरकार सत्ता में है। आखिरी पुलिस सुधारों को रोक किसने रखा है? आखिर न्यायिक सुधार क्यों नहीं हो रहे हैं? आखिर लोगों को न्याय क्यों नहीं मिलता? इसकी जवाबबदेही क्या सत्ता से दूर वामपंथियों की है?
मीडिया एक बार फिर जनता के मुद्दों को पृष्ठभूमि में ढकेलता नजर आया। मीडिया के इस पूरे खेल को हमें समझना होगा और इसका पर्दाफाश करना होगा।
- प्रदीप तिवारी
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कामरेड कमला राम नौटियाल दिवंगत

लखनऊ 26 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता, प्रख्यात पर्वतारोही एवं पर्यावरणवादी कामरेड कमला राम नौटियाल का आज देहरादून में निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे। भाकपा की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने कामरेड नौटियाल के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है और उनके प्रति क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि अर्पित की है। पार्टी ने शोक संतप्त परिवार के प्रति भी अपनी हार्दिक संवेदनायें प्रेषित की हैं।
कामरेड नौटियाल इलाहाबाद में अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के साथ जुड़ गये थे और छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने एक पर्वतारोही की भूमिका निभाते हुए हिमालय के तमाम ग्लेशियरों को खोजा और उनका नामकरण किया। उन्होंने एक पर्यावरणवादी की भूमिका निभाते हुए हिमालय पर पेड़ों की कटान के खिलाफ व्यापक आन्दोलन किया जो बाद में चिपको आन्दोलन के नाम से विख्यात हुआ। वे चौदह वर्षों तक उत्तरकाशी नगर पालिका के चेयरमैन चुने जाते रहे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के वर्षों तक सदस्य रहे। उत्तराखण्ड आन्दोलन के वे अगुवा नेताओं में से एक थे। ज्ञातव्य हो कि भाकपा ने राज्य के गठन के पूर्व ही अपनी उत्तराखण्ड कमेटी का गठन कर दिया था, जिसके वे कई सालों तक संयोजक रहे। उनकी लोकप्रियता पहाड़ों के दूरदराज गांवों तक फैली थी।
80 वर्षीय कामरेड नौटियाल कई सालों से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके निधन से वामपंथी आन्दोलन ही नहीं उत्तराखण्ड की जनता को भी भारी क्षति पहुंची है जिसके लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहे। भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद अपने उत्तराखण्ड के सभी कार्यकर्ताओं  को अपनी संवेदना प्रेषित करती है।
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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ”केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा दो - राज्य सरकारी चुनावी वायदे पूरा करो“ अभियान शुरू

लखनऊ 21 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्वाधान में ”केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा दो - राज्य सरकार चुनावी वायदे पूरा करो“ अभियान आज समूचे उत्तर प्रदेश में शुरू हो गया। जिलों-जिलों में भाकपा कार्यकर्ताओं ने शिविर लगाकर प्रधानमंत्री को सम्बोधित ज्ञापन पर बड़े पैमाने पर हस्ताक्षर करवाये। हाथरस में राज्य सचिव डा. गिरीश ने प्रातः 9 बजे ही प्रथम हस्ताक्षर कर अभियान का शुभारम्भ किया। लखनऊ में भाकपा के जिला सह सचिवद्वय ओ. पी. अवस्थी एवं परमानन्द द्विवेदी के नेतृत्व में भाकपा कार्यकर्ताओं ने विधानसभा के सामने धरनास्थल से हस्ताक्षर अभियान शुरू किया। प्रदेश के अन्य जिलों में भी शिविर लगाकर हस्ताक्षर कराये गये।
इस सम्बंध में भाकपा राज्य सचिव की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि भाकपा पिछले कई माहों से हर परिवार को हर महीने 35 किलो अनाज 2 रूपये प्रति किलो की दर मुहैया कराने की कानूनी गारंटी, राशन प्रणाली को व्यापक एवं भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने, एपीएल-बीपीएल का भेदभाव मिटा कर सभी को खाद्य सुरक्षा दिये जाने सम्बंधी कानूनी शीघ्र बनाये जाने, हर परिवार को साल में कम से कम 12 गैस सिलेण्डर दिये जाने, खुदरा कारोबार में एफडीआई को दी गयी अनुमति को रद्द करने आदि मांगों पर अभियान चला रही है। इसी अभियान की कड़ी में यह हस्ताक्षर अभियान शुरू किया गया है। पूरे देश में 5 करोड़ हस्ताक्षर जुटाने का लक्ष्य रखा गया है।
इसके अलावा भाकपा का आरोप है कि आठ माह के शासन काल में राज्य सरकार पूरी तरह विफल साबित हुई है। उसने हर तबके के साथ वायदा खिलाफी की है। पहले बेरोजगार नौजवानों को धोखा दिया गया तो अब गन्ना मूल्य और कर्जा माफी के सवाल पर किसानों को छला गया है। भाकपा का यह अभियान राज्य सरकार से चुनावी वायदे पूरा कराने को भी लक्षित है। इसके अंतर्गत सभी जिला केन्द्रों पर सात जनवरी को धरने प्रदर्शन आयोजित किये जायेंगे। भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि जिन जिलों में यह अभियान आज शुरू नहीं हो सका है, उनमें 23 दिसम्बर को शुरू हो जायेगा।



कार्यालय सचिव
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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

खाद्य सुरक्षा पर भाकपा द्वारा हस्ताक्षर अभियान


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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

दो मौतों पर कतारबद्ध पूंजीवादी राजनीतिज्ञ और मीडिया

कुछ ही दिनों पहले की बात है। दो व्यक्तियों की मौत होती है। एक व्यक्ति था - मुम्बई का बाल ठाकरे तो दूसरा था दो दशकों में खाकपति से अरबपति बनने वाला पोंटी चढ्ढा। एक मरा था अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक मौत से तो दूसरे की हत्या हुई थी। दोनों ऐसे व्यक्तित्व नहीं थे जिनसे देश के जनमानस का कोई जुड़ाव रहा हो लेकिन उस दिन इलेक्ट्रानिक चैनलों के पास अन्य कोई खबर नहीं थी जो दोनों के ऊंचे कद के बारे में धारा प्रवाह प्रवचन दे रहे थे तो दूसरे दिन के अखबारों के पन्ने उनसे भरे हुए थे। यह तो था मीडिया का चरित्र तो दूसरी ओर देश के तमाम बड़े राजनीतिज्ञ इन दोनों को भरे गले से श्रद्धांजलि दे रहे थे। आश्चर्य हो रहा था इस गिरावट पर, हम कहां से कहां पहुंच गये हैं।
दहशत में मुम्बई बन्द रही क्योंकि वहां बाल ठाकरे के समर्थक कम उनसे आतंकित लोगों की संख्या ज्यादा है। कुछ लोग उन्हें बिहारी मानते हैं जो अन्य सामान्य भारतीयों की तरह बिहार से आकर रोजी-रोटी के लिए मुम्बई में बस गया था। शुरूआती दौर में वह एक स्ट्रग्लिंग कार्टूनिस्ट था। फिर वह बतौर कांग्रेसियों एवं पूंजीपतियों के एजेंट, वामपंथी ट्रेड यूनियनों को तोड़ने के लिए हिंसा के कारण चर्चा में आया था। इस दौर में वामपंथी ट्रेड यूनियनों पर ठाकरे और उसके समर्थकों ने हिंसक हमले किये थे। कामरेड कृष्णा देसाई की हत्या इन्हीं हिंसक घटनाओं के बीच में हुई थी। इसी दौर में मराठियों के रोजगार का प्रश्न उठाकर दक्षिण भारतीयों का विरोध शुरू किया, फिर मुम्बई में गुजरातियों का और अंत में उसने सभी गैर मराठियों पर हमले शुरू कर दिये। अंततः वह हिन्दुत्व के रथ पर सवार हो गया, अयोध्या के विवादित ढांचे को शिव सैनिकों द्वारा गिराये जाने का दावा करते हुए उसने कहा था कि उसे उन पर गर्व है। 1992-93 में मुम्बई में हुये दंगों में उसने जम कर हिस्सेदारी की। उसके भाषण और उसका लेखन हमेशा नागरिकों के मध्य घृणा फैलाता रहा परन्तु कभी भी कांग्रेसी और एनसीपी की सरकारों ने उसके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया। एक बार चुनाव आयोग ने जरूर उसे 6 सालों के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया था। वह मराठी दलितों के खिलाफ भी काम करता रहा और उसे मंडल आयोग तथा दलित महत्वाकांक्षाओं का प्रखर विरोधी माना जाता रहा। अम्बेडकर की एक पुस्तक का महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशन करने का उसने विरोध किया और शिव सैनिकों ने दलितों पर जम कर हमले किये थे।
उसके बाद एक और घटना घटी। मुम्बई की बंदी पर एक बालिका ने किसी सोशल नेटवर्किंग साईट पर अपने विचार लिख दिये और एक दूसरी बालिका ने उस विचार का समर्थन कर दिया। दोनों को पुलिस पकड़ कर थाने ले गयी और शिव सैनिकों ने एक के चाचा के अस्पताल को तहस-नहस कर दिया। देशव्यापी प्रक्रिया होने पर दोनों बालिकाओं को छोड़ दिया गया परन्तु उनके गिरफ्तार किये जाने के तथ्य ने एक बार फिर बाल ठाकरे और कांग्रेस के मध्य दुरभिसंधि की याद जरूर दिला दी।
 जहां तक पोंटी चढ्ढा का सवाल है, कहा जाता है कि दो दशक पहले वह एक देशी शराब के ठेके के सामने मछलियां तल कर बेचता था परन्तु दो दशकों में वह अथाह सम्पत्ति का मालिक बन गया। कैसे का जवाब तो नहीं दिया जा सकता परन्तु कहा जाता है कि उसके कारोबार में तमाम राजनीतिज्ञों की गलत कमाई का पैसा लगा हुआ था। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में शराब की आपूर्ति पर उसका एकाधिकार कायम हो गया था। वह कई मल्टीप्लेक्स एवं मॉल्स का मालिका हो गया था। वह मुलायम सिंह और मायावती का चहेता माना जाता था। मायावती ने उसे चीनी निगम की कई मिलों की बेशकीमती सम्पत्तियों को कौड़ियों के भाव दे दिया था। उसकी मौत पर शोक संतप्त होने वालों में मुलायम सिंह और मायावती के अलावा उत्तराखंड के कांग्रेसी एवं भाजपाई मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं दिल्ली के बड़े-बड़े राजनेता शामिल थे। इनमें से तमाम ने उसके अंतिम संस्कार में तो कईयों ने उसके घर पर बाद में होने वाले कर्मकांडों में शिरकत भी की।
यह दोनों मौतें ऐसी नहीं थीं कि उन पर कुछ लिखा जाये परन्तु उनकी मौतों पर कतारबद्ध हुये मीडिया और राजनीतिज्ञों ने एक बार फिर भारतीय राजनीति की उस गिरावट की ओर संकेत कर दिया है, जिस पर देश के हर नागरिक को चिन्तित होना चाहिए। इस गिरावट को रोकने का काम केवल जनता कर सकती है। कम से कम राजनीतिज्ञों पर नकेल कसने का काम उसका है।
- प्रदीप तिवारी 22.11.2012
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भाकपा चलायेगी - ”प्रदेश सरकार वायदा निभाओ“ अभियान

लखनऊ 8 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी गन्ना मूल्य निर्धारण तथा किसानों के कर्जे माफ करने के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों के साथ की गयी धोखाधड़ी के खिलाफ आन्दोलन छेड़ेगी। उक्त आशय का निर्णय आज यहां सम्पन्न भाकपा की राज्य कार्यकारिणी बैठक में लिया गया।
निर्णयों के सम्बंध में जानकारी देते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने गन्ने के जो मूल्य निर्धारित किये हैं, वे बेहद कम हैं। आज जबकि खाद, डीजल, कीटनाशक, बीज आदि सभी के दाम काफी बढ़ गये हैं और चीनी भी 40 रूपये किलो की दर से बिक रही है, ऐसे में गन्ने की कीमत कम से कम रू. 350.00 प्रति क्विंटल होनी चाहिए। भाकपा राज्य कार्यकारिणी ने इस बात पर भी गहरा रोष व्यक्त किया कि अपने सम्पूर्ण चुनावी अभियान में सपा ने किसानों के पचास हजार रूपये के कर्जों की माफी की घोषणा की थी लेकिन केवल एक वित्तीय संस्थान का कर्ज भी काफी बंदिशों के साथ माफ करना घोषित किया गया है जबकि अधिकतर किसान ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ के जरिये राष्ट्रीयकृत बैंकों, सहकारी बैंकों एवं ग्रामीण बैंकों से कर्ज लेते हैं। प्रदेश के लगभग आठ करोड़ किसानों ने यही कर्जा ले रखा है जिसकी कोई माफी नहीं की गयी है। धान के खरीद केन्द्रों पर भी बेहद धांधलेबाजी है। नहरों में पानी आ नहीं रहा और बिजली की सप्लाई गांवों को जा नहीं रही। इन सबके चलते किसान बेहद परेशान है।
भाकपा राज्य कार्यकारिणी ने उपर्युक्त सभी सवालों को केन्द्रीय मुद्दा बनाते हुए 21 दिसम्बर से समूचे उत्तर प्रदेश में ”उत्तर प्रदेश सरकार वायदा निभाओ“ अभियान चलाने तथा 3 जनवरी 2013 को इन्हीं सवालों पर जिला केन्द्रों पर जुझारू धरने-प्रदर्शन करने का निर्णय लिया है।
इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा के सवाल पर - हर परिवार को हर महीने 35 किलो अनाज 2 रूपये प्रति किलो की दर पर उपलब्ध कराने की कानूनी गारंटी तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को वृहत्तर और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने के सवाल पर 21 दिसम्बर से ही हस्ताक्षर अभियान प्रारम्भ करने का निर्णय भी लिया है। केन्द्रीय आह्वान पर होने वाले इस कार्यक्रम में भाकपा उत्तर प्रदेश में 10 लाख हस्ताक्षर जुटायेगी। इसके लिए भाकपा के कार्यकर्ता गांव-गांव और घर-चौपाल जायेंगे तथा स्टेशनों, बाजारों, हाटों, चट्टियों, सरकारी दफ्तरों, बैंकों और बस अड्डों के सामने शिविर लगा करके हस्ताक्षर करायेंगे। इसके अलावा एफडीआई के सवाल पर सपा, बसपा और कांग्रेस के रवैये को जनता के बीच उजागर किया जायेगा। भाकपा इस बात को भी जनता के बीच रखेगी कि भाजपा की साम्प्रदायिक एवं संकीर्ण नीतियां और विपक्षी दलों की इन नीतियों पर भाजपा से दूरी बनाने के लिए बहानेबाजी आर्थिक सवालों पर विपक्ष की एकता में बाधक बन रही हैं। इसके लिए विचार गोष्ठियां, सभायें एवं नुक्कड़ सभायें आयोजित की जायेंगी।
भाकपा की जिला इकाईयों द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये सरकारी योजनाओं को लागू करने में बरती जा रही उदासीनता के खिलाफ 10 दिसम्बर को जिला केन्द्रों पर प्रदर्शन किया जायेगा।
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