भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
- दुष्यंत कुमार
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औरत

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
- कैफ़ी आज़मी
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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

क्रांतियां, कम्यून, कम्यूनिस्ट समाज के नाना कला विज्ञान और दर्शन के जीवंत वैभव से समन्वित व्यक्ति मैं

काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो -
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ‘ ‘काल’ ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !
जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।
मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है
- शमशेर बहादुर सिंह
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आज सर्वहारा तू ही है

घर-आंगन में आग लग रही ।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन ।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन ।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिलभर भूमि न बँटने देंगें ।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी ।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी ।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती ।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता ।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा ।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी ।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम - मुहम्मद की संतानों !
व्यर्थ न मारो शेखी ।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों !
भोले बच्चें, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों !
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का क्रंदन,
हाय , दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख
गुलामों का यह ढंग निराला ।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा ।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे ।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
- शिव मंगल सिंह सुमन
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मां है रेशम के कारखाने में बाप मसरूफ सूती मिल में है

मां है रेशम के कारखाने में
बाप मसरूफ सूती मिल में है
कोख से मां की जब से निकला है
बच्चा खोली के काले दिल में है
जब यहाँ से निकल के जाएगा
कारखानों के काम आयेगा
अपने मजबूर पेट की खातिर
भूक सरमाये की बढ़ाएगा
हाथ सोने के फूल उगलेंगे
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा
खिड़कियाँ होंगी बैंक की रोशन
खून इसका दिए जलायेगा
यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाये का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!
- अली सरदार जाफरी
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सोमवार, 12 अप्रैल 2010

प्रगतिशील लेखक संघ, उ.प्र. का राज्य सम्मेलन सम्पन्न

वाराणसी 23 फरवरी। नज़ीर बनारसी शताब्दी समारोह का आयोजन बनारस में 20, 21 फरवरी 2010 को किया गया। यह आयोजन महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के मानविकी एवं प्रगतिशील लेखक संघ, वाराणसी इकाई के संयुक्त तत्वाधान में किया गया। गांधी अध्ययन पीठ के सभागार में पहले दिन 20 फरवरी 2010 को ‘भारतीय समाज में सह अस्तित्व की चुनौतियां’ विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं शाम को मुशायरा व कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। दूसरे दिन इसी जगह प्रगतिशील लेखक संघ का 9वां राज्य सम्मेलन भी हुआ।समारोह का उद्घाटन प्रख्यात आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने किया। नामवर जी ने गंगो जमुनी तहजीब के मशहूर शायर नज़ीर बनारसी को शिद्दत से याद करते हुए उनके रचनाकर्म और आम आवाम से उनके गहरे रिश्ते पर रोशनी डाली। उन्होंने नज़ीर अकबराबादी से लेकर नज़ीर बनारसी तक की काव्य-यात्रा के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि समाज में सह अस्तित्व के बिना साहित्य संभव नहीं है। कबीर इसी सह अस्तित्व की बात करते हैं। नजीर बनारसी का संस्मरण सुनाते हुए उनकी शायरी और नज्मों पर अपनी खास राय जाहिर करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि नज़ीर की शायरी में बनारस समाया हुआ है और बनारस हिन्दुस्तानी तहजीब का एक बड़ा मुकाम है, इसलिए उन्हें बार-बार पढ़ने को जी करता है। उन्होंने कहा कि नज़ीर साहब हमारी तहजीब और विरासत के अलमबरदार थे। इस खास समय में उन्हें याद करना दरअसल हमारी जरूरत भी है।उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डा. कमला प्रसाद ने कहा कि नज़ीर बनारसी जैसे बड़े शायर प्रेरणा के श्रोत हैं। हम अपने इन साहित्यकारों के द्वारा ही जनता के उन सारे सवालों और मुश्किलों का हल ढूँढ सकते हैं जिनसे वह आये दिन जूझ रही है। उन्होंने कहा कि आम आदमी की जिन्दगी और उसका सामाजिक, सांस्कृतिक सरोकार जिस रास्ते से होकर गुजरता है- अगर वह सरोकार व संघर्ष किसी रचनाकार में मौजूद है तो उसे ही जनता अपना मानती है। इस संदर्भ में नज़ीर बनारसी आवामी शायर थे और आवाम के दिल में उनके लिए खास जगह हैं।इस अवसर पर ‘नज़ीर बनारसी की प्रतिनिधि शायरी’ पुस्तक का लोकार्पण किया गया। यह पुस्तक पेपरबैक्स में राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गयी है जिसका सम्पादन श्री मूलचन्द सोनकर ने किया है। पुस्तक लोकार्पण के समय प्रो. नामवर सिंह व प्रो. कमला प्रसाद के साथ प्रलेस के राष्ट्रीय अतिरिक्त महासचिव प्रो. अली जावेद, नजीर बनारसी के ज्येष्ठ पुत्र श्री मो. जहीर और कथाकार काशीनाथ सिंह व श्री शकील सिद्दीकी मंच पर आसीन थे। इसी दौरान प्रलेस वाराणसी इकाई की ओर प्रकाशित नज़ीर बनारसी पर केन्द्रित स्मारिका का भी विमोचन हुआ। उद्घाटन सत्र के प्रारम्भ में स्वागत प्रो. चौथी राम यादव तथा धन्यवाद ज्ञापन काशी विद्यापीठ, मानविकी संकाय के प्रमुख प्रो. अजीज हैदर ने किया। इस सत्र का संचालन डा. संजय श्रीवास्तव ने किया।उद्घाटन सत्र के बाद ‘साझा संस्कृति की विरासत:कबीर से नज़ीर तक’ पहला सत्र शुरू हुआ, जिसकी अध्यक्षता प्रो. कमला प्रसाद, प्रो. अली अहमद फातमी और प्रो. अली जावेद ने की। इस सत्र में श्री शकील सिद्दीकी, प्रो. शाहीना रिजवी, प्रो. राजेन्द्र कुमार, श्री राकेश, श्री शशि भूषण स्वाधीन, श्री विजय निशांत, श्री राजेन्द्र राजन ने अपने विचार व्यक्त किये। इस सत्र का संचालन डा. श्रीप्रकाश शुक्ल तथा धन्यवाद ज्ञापन श्री शिवकुमार पराग ने किया।दोपहर बाद दूसरे सत्र “बहुसंस्कृतिवाद का भारतीय परिप्रेक्ष्य” की अध्यक्षता बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. दीपक मलिक ने की। इस सत्र में विदेश से आये हुए वक्ताओं की विशिष्ट उपस्थिति रही जिससे बहुसंस्कृतिवाद पर काफी गंभीर चर्चा हुई। राहुल सांकृत्यायन पर महत्वपूर्ण कार्य के लिए विख्यात स्वीडेन की प्रो. मारिया जुफेन, फिनलैण्ड से आये आलोचक प्रो. काउहेनन, जर्मनी से आये मार्क्सवादी साहित्यकार प्रवासी भारतीय उज्जवल भट्टाचार्य, वीरेन्द्र यादव, डा. रघुवंश मणि, आलोचक कुमार विनोद, सैयद रजा हुसैन रिजवी ने अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए। इस सत्र का संचालन डा. संजय कुमार तथा धन्यवाद ज्ञापन डा. गोरखनाथ ने किया।दिन भर की इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के बाद शाम को नजीर बनारसी की याद में एक मुशायरा व कवि सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता मशहूर अवामी शायर जनाब शफीक बनारसी ने की। इसमें प्रो. अजीज हैदर, प्रो. वशिष्ठ अनूप, डा. कुमार विनोद, डा. निजामुद्दीन, कौशिक रवीन्द्र उपाध्याय, समर गाजीपुरी, बशर बनारसी, वासिक नासिकी, हसन जाफरी, सईद निजामी, अजीज लोहतवी, मोमिन लोहतवी, निजाम बनारसी, रामजी नयन, शंकर बनारसी, सलीम राजा, डा. यू.सी.वर्मा, तौफीक लोहतवी, मूलचन्द सोनकर, जवाहर लाल कौल, रामदास अकेला, परमानन्द श्रीवास्तव, सलाम बनारसी, नरोत्तम शिल्पी, विपिन कुमार सहित तमाम कवियों, शायरों ने अपनी रचनायें सुनाई। संचालन अल कबीर ने और धन्यवाद ज्ञापन जय प्रकाश धूमकेतु ने किया।गांधी अध्ययन पीठ के सभागार में दूसरे दिन प्रगतिशील लेखक संघ, उत्तर प्रदेश का 9वां राज्य सम्मेलन वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की अध्यक्षता में शुरू हुआ। विचार सत्र ‘जनपक्षधरता के दायरे में साहित्य की उपस्थिति’ विषय पर बतौर मुख्य वक्ता प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि साहित्य में सही मायने में लोकतंत्र होता है। उन्होंने कहा कि आज विचारधाराओं के अंत की बात कही जा रही है जबकि देखें तो साहित्य में वैचारिक प्रतिबद्धता रही है। सगुण है तो निर्गुण, उसमें भी सगुण है तो रामभक्ति, कृष्णभक्ति और कहीं नहीं है तो रीतिकाल में चले जाइये। उन्होंने अपने संदर्भ को उठाते हुए कहा कि लोहिया तो मार्क्सवाद विरोधी थे लेकिन उनके समाजवादी संगठन की गोष्ठियों में मैं जाता था क्योंकि लोहिया की पुस्तकों पर चर्चा किसी भी लेखक पर हो रही चर्चा होती थी और मुझे उस लेखक से मतलब था। उन्होंने कहा कि विचारधाराओं की तुलना में जीवन निरन्तर चलता रहता है। उन्होंने महान कवि गेटे का संदर्भ देते हुए कहा कि ”थियरी इज ग्रे एण्ड ट्री आफ लाइफ इज आलवेज ग्रीन“ यानी विचारधारा की तुलना में जीवन हमेशा हरा-भरा और जीवन्त होता है। इसलिए साहित्य में ऐसी ही चीजों को बाकायदे आना चाहिए।प्रो. नामवर सिंह ने प्रगतिशील आन्दोलन की सविस्तार चर्चा करते हुए साहित्य और जनपक्षधरता के मुद्दे को बाकायदा विश्लेषित किया। उन्होंने कहा कि लिखने का काम जितना जिम्मेदारी भरा होता है उतना ही सोचने का प्रसंग भी, इसलिए हमें परिकल्पना और लेखन को संतुलित करने के लिए जनता के बारे में ठीक से राय बनानी चाहिए।अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि आज के दौर में पाठकों के समक्ष कविता की भाषा को लेकर समझ का संकट उत्पन्न हो गया है। वहीं वैश्वीकरण से पनपी अपसंस्कृति व मानवीय संवेदना में ह्रास साहित्य को जनता से दूर कर रहा है। ऐसे में साहित्य को जनता के साथ जोड़कर चलना होगा। साथ ही रचनाओं में जन सामान्य की भाषा का प्रयोग करना होगा। इससे साहित्य का जनपक्ष उभर कर सामने आयेगा। उन्होंने कहा कि जन सामान्य की भाषा को रचना के साथ प्रयोग में लाना चाहिए और आकदमिक व्यवहार को लेकर तकनीकी कठिनाई से हमें बचना चाहिए।दिल्ली विश्वविद्यालय से आये डा. अली जावेद ने कहा कि हिन्दी उर्दू का मसला बराबर गम्भीर होता जा रहा है। हिन्दी में जो कुछ लिखा जा रहा है उसमें मुसलमान लेखक कितने हैं? इतना ही नहीं कथापात्रों में मुस्लिम चरित्र बराबर नहीं दिख रहे हैं, क्या यही हमारे समाज की तस्वीर है? इसलिए साहित्य की जनपक्षधरता पर विचार करते समय इस मसले पर भी हम गौर करें।जर्मनी से आये प्रसिद्ध मार्क्सवादी साहित्यकार उज्जवल भट्टाचार्य ने कहा कि हम जब रचना कर्म कर रहे होते हैं तब भी यह विचार कर लेना चाहिए कि हमारा पाठक उस पर क्या रूख अपना सकता है, इसलिए आत्ममुग्धता से बचिए और बड़ा बनने के लिए लिखने का सपना देखना छोड़ दीजिए। उन्होंने कहा कि बड़ी और महत्वपूर्ण रचनायें यूं ही हो जाती हैं किन्तु अवचेतन में हमारे जनता होगी तभी हमारा रचा हुआ कर्म जनता के लिए होगा।इस सत्र के प्रारम्भ में गोरखपुर से आये वरिष्ठ आलोचक जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने विषय केन्द्रित आलेख का वाचन किया। इसके बाद राजेन्द्र राजन (बेगूसराय), सैयद रजा हुसैन रिजवी (जमशेदपुर), शशि भूषण स्वाधीन (हैदराबाद), पुन्नी सिंह (ग्वालियर), राकेश (वर्धा), शकील सिद्दीकी, वीरेन्द्र यादव, शहजाद रिजवी, भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश, डा. एम.पी.सिंह (जलेस वाराणसी), डा. मूल चन्द गौतम, डा. नईम, डा. रघुवंश मणि, नरेन्द्र पुण्डरीक, शिशुपाल, सरोज पाण्डेय, लालसा लाल तरंग ने अपने विचार व्यक्त किये। इस सत्र का संचालन डा. आशीष त्रिपाठी एवं आभार ज्ञापन जय प्रकाश धूमकेतु ने किया।इस दौरान राज्य के विभिन्न हिस्सों से आये महत्वपूर्ण साहित्यकारों पंकज गौतम, राम चन्द्र सरस, डा. संतोष भदौरिया, रमाकान्त तिवारी, आनन्द स्वरूप श्रीवास्तव, राजेन्द्र यादव, सुरेन्द्र नायक, उत्तम चन्द, डा. संजय राय, डा. उपेन्द्र श्रीवास्तव, उद्भव मिश्र, डा. चन्द्रभान सिंह यादव, डा. आनन्द तिवारी, डा. सुनील विक्रम सिंह, डा. के.एल.सोनकर, आर.पी.सोनकर, डा. धीरेन्द्र पटेल, बाल कृष्ण राही, गजाधर शर्मा ‘गंगेश’ आदि ने सम्मेलन में सक्रिय हिस्सेदारी की।राज्य सम्मेलन में दोपहर बाद प्रलेस के प्रान्तीय अध्यक्ष कथाकार काशी नाथ सिंह, प्रो. अली जावेद तथा राकेश की अध्यक्षता में सांगठनिक सत्र आरम्भ हुआ। सत्र में प्रलेस के प्रांतीय महासचिव डा. जय प्रकाश धूमकेतु ने अपने कार्यकाल की विस्तृत लिखित रिपोर्ट पेश की। सम्मेलन में अगले सत्र के लिए डा. जय प्रकाश धुमकेतु को कार्यकारी अध्यक्ष एवं डा. संजय श्रीवास्तव को महासचिव निर्वाचित किया गया। इसके अतिरिक्त निम्न कार्यकारिणी चुनी गयी।संरक्षक मंडल: अमर कान्त, डा. परमानन्द श्रीवास्तव, डा. अकील रिजवी, डा. शारिब रूदौलवी, कामता नाथ, डा. काशी नाथ सिंह, नरेश सक्सेना, प्रो. चौथी राम यादव, डा. पी.एन.सिंह, आबिद सुहैल।अध्यक्ष मंडल: वीरेन्द्र यादव, प्रो. अली अहमद फातमी, अजीत पुष्कल, डा. मूल चन्द गौतम, डा. जय प्रकाश धूमकेतु।उपाध्यक्ष मंडल: प्रो. शाहिना रिजवी, मूल चन्द सोनकर, जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’, डा. गया सिंह, डा. उपेन्द्र श्रीवास्तव।सचिव मंडल: शकील सिद्दीकी, डा. रघुवंश मणि, नरेन्द्र पुण्डरीक, शिव कुमार पराग, डा. श्री प्रकाश शुक्ल, डा. तसद्दुक हुसैन, डा. संजय श्रीवास्तव।कार्यकारिणी सदस्य: डा. जितेन्द्र रघुवंशी, राकेश, डा. अनिता गोपेश, डा. मदीउर्रहमान, डा. संजय कुमार, प्रो. राज कुमार, डा. आशीष त्रिपाठी, सिया राम यादव, जगदीश नारायण श्रीवास्तव, स्वप्निल, डा. दया दीक्षित, राजेन्द्र यादव, लालसा लाल तरंग, डा. राम अवध यादव, डा. रमेश कुमार मौर्य, आनन्द स्वरूप श्रीवास्तव, डा. सरोज पाण्डेय, शिशुपाल, डा. राम प्रकाश कुशवाहा, गजाधर शर्मा ‘गंगेश’, शहजाद रिजवी, डा. नईम, उत्तम चन्द, डा. संजय राय, आर.डी.आनन्द, डा. राजेश मल्ल, डा. आर.पी.सोनकर, डा. चन्द्र भान सिंह यादव।आयोजन में मु. खालिद द्वारा नजीर अकबराबादी, नजीर बनारसी, वामिक जौनपुरी, प्रेम चन्द, महमूद दरवेस, फैज अहमद फैज, फिराक गोरखपुरी, धूमिल, अकबर इलाहाबादी, नाजिम हिकमत, नजरूल इस्लाम, केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह एवं मुक्तिबोध पर बनाये गये कविता पोस्टर विशेष रूप से आकर्षण का केन्द्र रहे। आयोजन स्थल पर राज कमल पकाशन की ओर से पुस्तक विक्रय पटल भी लगाया गया था।(प्रस्तुति: डा. संजय श्रीवास्तव)
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जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ के कहानी-संग्रह ‘चक्कर’ का लोकार्पण










वाराणसी: प्रगतिशील लेखक संघ वाराणसी इकाई तथा सर्जना साहित्य मंच वाराणसी के संयुक्त तत्वाधान में प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ के प्रथम कहानी संग्रह ‘चक्कर’ का लोकार्पण दिनांक 14 फरवरी 2010 को उदय प्रताप महाविद्यालय वाराणसी के पुस्तकालय कक्ष में प्रख्यात कथाकार प्रो. काशी नाथ सिंह की अध्यक्षता में किया गया। मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार एवं ‘बयान’ पत्रिका के सम्पादक मोहनदास नैमिशराय की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय रही।समारोह के प्रारम्भ में अपनी कहानियों की रचना-प्रक्रिया के सम्बंध में जवाहर लाल जी ने बताया। अपने उद्घाटन भाषण में डा. राम सुधार ने संकलन की कई कहानियों को संदर्भित करते हुए कहा कि व्यग्र जी के अन्दर एक सफल कहानीकार के बीज हैं। उनकी प्रत्येक कहानी एक सन्देश की तरफ ले जाती है। शायर दानिश जमाल सिद्दीकी का कहना था कि वाराणसी में कहानी के क्षेत्र में प्रो. काशी नाथ सिंह के बाद व्यग्र जी के आगमन से एक नई उम्मीद पैदा होती है। प्रो. चौथी राम यादव ने संग्रह की कहानी ‘औकात’ को रेखांकित करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज की अस्पृश्यता दलित समाज की सबसे मारक एवं अपमानजनक स्थिति है जिसके कारण वह सवर्णीय चारपाई तो बुन सकता है लेकिन उस पर बैठ नहीं सकता।मुख्य अतिथि नैमिशराय ने कहा कि दलित साहित्यकार एक स्वस्थ समाज की रचना करना चाहता है। जब तक यह स्थिति नहीं आयेगी, दलित लेखन की आवश्यकता बनी रहेगी। ‘चक्कर’ कहानी पर विशेष रूप से चर्चा करते हुए उन्होंने इसे जातिगत दम्भ के अभिव्यक्ति की श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक कहानी बताया। प्रो. काशी नाथ सिंह ने कहा कि जवाहर लाल जी प्रेम चन्द्र की तर्ज के कथाकार हैं इसलिए उनके यहां प्रेम चन्द का विरोध भी प्रेम चन्द का विकास है। उन्होंने वाराणसी में पुरूष कथाकारों की कमी जाहिर करते हुए व्यग्र को अपना जोड़ीदार बताया। संग्रह की दो कहानियाँ ‘औकात’ और ’डाँगर’ पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि कौल जी में इस बात का सेंस है कि कहानी कहाँ से बनती है।आयोजन में डा. संजय कुमार, प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश महासचिव डा. संजय श्रीवास्तव तथा संगम जी विद्रोही ने भी अपने विचार रखे। स्वागत वाराणसी प्रलेस के सचिव डा. गोरख नाथ एवं आभार जलेस के सह सचिव नईम अख्तर ने ज्ञापित किया। संचालन अशोक आनन्द ने किया।(प्रस्तुति: मूल चन्द्र सोनकर)

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रविवार, 11 अप्रैल 2010

दूध, दालों के बढ़ते दाम से खाद्य वस्तुओं की महंगाई १७.70% पर


दूध, दालों के बढ़ते दाम से खाद्य वस्तुओं की महंगाई १७.70% पर

नई दिल्ली: दूध, फलों एवं दालों की बढ़ती कीमतों से 27 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह में खाद्य वस्तुओं की महंगाई 17.70 प्रतिशत पर पहुंच गई। इससे
रिजर्व बैंक द्वारा वार्षिक मौद्रिक नीति में दरें बढ़ाए जाने की आशंका बढ़ गई हैं। इससे पूर्व सप्ताह में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 16.35 प्रतिशत पर थी। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में तेजी और खाद्य वस्तुओं की महंगाई का दायरा बढ़कर विनिर्मित उत्पादों तक पहुंचाने की आशंका से मार्च में कुल मुद्रास्फीति दोहरे अंक को पार कर जाने की संभावना है। फरवरी में कुल मुद्रास्फीति 9.89 प्रतिशत के स्तर पर थी जिसमें खाद्य एवं गैर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में उतार-चढ़ाव शामिल है। वार्षिक आधार पर, दालों के दाम 32.60 प्रतिशत, दूध के 21.12 प्रतिशत, फल के 14.95 प्रतिशत और गेहूं के दाम 13.34 प्रतिशत बढ़े। वहीं, साप्ताहिक आधार पर खाद्य वस्तुओं का सूचकांक 0.9 प्रतिशत बढ़ गया क्योंकि इस दौरान समुद्री मछली, दूध, फलों और सब्जियों एवं मसूर की दाल महंगी हुई। बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के उपायों पर चर्चा के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 10 राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं प्रतिनिधियों के साथ ही कैबिनेट के वरिष्ठ मंत्रियों की आज एक बैठक कर रहे हैं।

साभार : http://hindi.economictimes.indiatimes.कॉम

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काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में', उतरा है रामराज विधायक निवास में

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

(अदम गोंडवी )

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आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता



राह कहती,देख तेरे पांव में कांटा न चुभ जाए
कहीं ठोकर न लग जाए;
चाह कहती, हाय अंतर की कली सुकुमार
बिन विकसे न कुम्हलाए;
मोह कहता, देख ये घरबार संगी और साथी
प्रियजनों का प्यार सब पीछे न छुट जाए!
किन्तु फिर कर्तव्य कहता ज़ोर से झकझोर
तन को और मन को,
चल, बढ़ा चल,
मोह कुछ, औश् ज़िन्दगी का प्यार है कुछ और!
इन रुपहली साजिशों में कर्मठों का मन नहीं ठगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
आह, कितने लोग मुर्दा चांदनी के
अधखुले दृग देख लुट जाते;
रात आंखों में गुज़रती,
और ये गुमराह प्रेमी वीर
ढलती रात के पहले न सो पाते!
जागता जब तरुण अरुण प्रभात
ये मुर्दे न उठ पाते!
शुभ्र दिन की धूप में चालाक शोषक गिद्ध
तन-मन नोच खा जाते!
समय कहता--
और ही कुछ और ये संसार होता
जागरण के गीत के संग लोक यदि जगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
(शंकर शैलेन्द्र)
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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

कृषि में कार्पोरेट को न्यौता

कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अकस्मात बदले हुए सरकारी रूख से जो चौंकाने वाली बात सामने आयी वह यह कि इसके बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले ही अपनी अमरीका यात्रा के समय वचन दे चुके थे कि वे पश्चिमी देशों के अनुकूल लचीला रवैया अपनायेंगे। इसी तरह जनता का आक्रोश ठंडा करने के लिए सरकार बीटी बैंगन के प्रश्न पर पीछे हट गयी दिखती हैं, किंतु वास्तविकता यह है कि पर्दे के पीछे अमरीका के साथ इसी दौर में गुपचुप वार्ता भी चलती रही है और निर्णय भी लिये गये हैं।मुखपृष्ठ पर ‘द हिंदू’ दैनिक में छपी खबर (24 फरवरी 2010) के मुताबिक अमरीका के साथ खाद्य सुरक्षा और कृषि में सहयोग का एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग का मसविदा तैयार हुआ है, जिसकी स्वीकृति केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने गत 18 फरवरी को दे दी है। समझौते के अनुसार अमरीकी कंपनियों को भारतीय कृषि क्षेत्र में प्रवेश का रास्ता सुगम किया जाएगा और कृषि विपणन में निजी निवेश की सरजमीं तैयार करने की अनुकूलता पैदा की जाएगी। इस संबंध में ठोस निर्णय अमरीकी और भारतीय कंपनियों की आगामी परस्पर वार्ताओं में लिया जायेगा। खाद्य सुरक्षा के मामलों में सरकारी स्तर पर और वार्ताएं होंगी। इस मेमोरेंडम आफ अंडरस्टैंडिंग का मसविदा भी नवम्बर 2009 में प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा के दौरान राष्ट्रपति ओबामा के साथ हुई बातचीत में बनी परस्पर सहमति की अग्रेतर कार्रवाई है। बहुराष्ट्रीय अमरीकी कंपनी कारगिल और मोसंतो के काले कारनामों और इनके किसानों के विरोध संघर्षों की याद अभी धूमिल नहीं पड़ी है कि सरकार ने पुराने घाव को फिर ताजा कर दिया है।मसविदे के अनुसार खा़द्य सुरक्षा संबंधी उन्नत तकनीकी ज्ञान का आदान-प्रदान और कृषि व्यापार में निजी निवेश की भागीदारी शामिल है। मौसम अनुमान, फसलों का उन्नत उत्पादन/प्रबंधन और विपणन आदि सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जायेगा। जाहिर है, भारतीय कृषि बाजार कब्जाने की यह गंभीर अमरीकी चाल है। इससे भारतीय किसानों को फायदा कुछ भी नहीं मिलने का, किंतु अमरीकी कंपनियां अपनी जरूरत के मुताबिक भारत भूमि को न केवल प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करेंगी, बल्कि भारतीय कृषि उत्पादन प्रक्रिया में नाजायज हस्तक्षेप भी करेंगे। भारत पर अमरीकी मार्का कार्पोरेटी कृषि प्रणाली लादी जायेगी और भारत की विकेन्द्रित कृषि व्यवस्था में कार्पोरेट मॉनोपाली का द्वार खुलेगा और परिणामस्वरूप किसान अपने ही खेतों में गुलामी करने को मजबूर होंगे।संसद में प्रस्तुत ताजा बजट इस बात का स्पष्ट संकेत है कि खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों का द्वार खोल दिया गया है। आयात किये जाने वाले सामानों पर मौजूदा कस्टम ड्यूटी को आधा से भी कम कर दिया गया है। इससे हमारे घरेलू बाजार में विदेशी माल आसानी से आयेंगे और भारतीय मालों के मुकाबले सस्ते बिकेंगे। पर यह सस्ता आगे महंगा पड़ेगा।संसद में प्रस्तुत वर्ष 2010-11 बजट प्रावधानों पर एक नजर डालने से स्पष्ट होता है कि कृषि पर किया गया आबंटन का बड़ा हिस्सा वेस्टेज कम करने और विपणन व्यवस्था पर है। यह आबंटन कृषि में कार्पोरेटी प्रवेश को लक्षित है और इसका इस्तेमाल बड़े पूंजीवाली करेंगे। बड़े व्यापारी अर्थात कार्पोरेट कोल्ड स्टोरेज, मालों की आवाजाही और उन्नत तकनीकी के प्रवेश के नाम पर बजट प्रावधानों को लूटेंगे।अमरीका के साथ किया गया मेमोरंडम ऑफ इंडरस्टैंडिंग भारतीय कृषि व्यवस्था को अमरीकी कंपनियों की मर्जी के हवाले करना है, जिसका दूरगामी विनाशकारी परिणाम अवश्यंभावी है।
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सरकारों की संवेदनहीनता के परिणामस्वरूप अब गेहूं किसानों के लूटने की बारी

किसी खाद्यान्न का न्यूनतम समर्थन मूल्य वह कीमत होती है जिस पर केन्द्र एवं राज्य सरकारें अपनी-अपनी एजेंसियों की मार्फत किसानों से सीधे उस खाद्यान्न की खरीदारी करती हैं। लेकिन अगर सरकार केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करें परन्तु उस मूल्य पर खाद्यान्न की खरीदारी न करें तो निश्चित रूप से बाजार कीमतों को निर्धारित करता है। बाजार में छोटे एवं मझोले किसानों तथा उन किसानों जिन्होंने साहूकारों या बैंकों से ऋण लेकर फसल उगाई है, के पास अपने कृषि उत्पाद को बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। वणिक वर्ग जितनी कीमतें कम कर सकता है, करता है और किसानों को लूटता है। ऐसा ही कुछ आज कल उत्तर प्रदेश के गेहूं किसानों के साथ हो रहा है। गेहूं का घोषित समर्थन मूल्य रू. 1,100.00 प्रति क्विंटल है।उत्तर प्रदेश की जनता के प्रति केन्द्रीय सरकार का सौतेलापन जारी है। उत्तर प्रदेश का भौगोलिक क्षेत्रफल पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों से बहुत ज्यादा है। पूरे प्रदेश में गेहूं की खेती होती है। प्रदेश के कुछ इलाकों की पैदावार पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों के बराबर है। राज्य में इस वर्ष गेहूं का अनुमानित उत्पादन 29.5 मिलियन टन हुआ है जो पूरे देश के गेहूं उत्पादन का लगभग 35 प्रतिशत होता है। केन्द्र सरकार इस साल उत्तर प्रदेश के किसानों से केवल 1 लाख टन गेहूं खरीदेगी जबकि संवेदनहीन राज्य सरकार केवल 39 लाख टन यानी दोनों सरकारें कुल मिला कर केवल 4.00 मिलियन टन गेहूं की खरीदारी करेंगी जबकि केन्द्र सरकार पंजाब से 115 लाख टन और हरियाणा से 70 लाख टन गेहूं की खरीदारी करेगी। उत्तर प्रदेश में कुल 71 जिलें हैं जबकि एफसीआई ने अब तक केवल 48 खरीद केन्द्र स्थापित किये हैं और राज्य सरकार ने क्या किया है, इसका पता उसे खुद नहीं है।परिणाम सामने है। पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान में खुले बाजार में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य रू. 1100.00 प्रति क्विंटल या इससे ज्यादा मिल रहा है जबकि गेहूं का आज का बाजार भाव सीतापुर, लखीमपुर, शाहजहांपुर, बरेली, हरदोई आदि स्थानों पर रू. 900.00 प्रति क्विंटल से रू. 950.00 प्रति क्विंटल है। पंजाब एवं हरियाणा की आटा मिलों के मालिक वहां पर गेहूं खरीदने के बजाय उत्तर प्रदेश का रूख कर चुके हैं जिसके कारण कीमतें कुछ अच्छी है वरना उत्तर प्रदेश सरकार और यहां के वणिकों का बस चलता तो इन कीमतों को कुछ और गिरा देते। पंजाब और हरियाणा की आटा मिलों के मालिकों को फायदा यह है कि ढुलाई की कीमत जोड़ने के बाद भी उन्हें लगभग रू. 200.00 प्रति क्विंटल की बचत हो रही है। किसान लुट रहा है। राज्य सरकार संवेदनहीन है। केन्द्र सरकार का सौतेलापन जारी है। क्या किसान इसके लिए खुद जिम्मेदार हैं? यह एक सवाल है जिसका जवाब तलाशना होगा।दूसरी ओर शहरों में ब्रांडेड आटा रू. 18.00 प्रति किलो से अधिक कीमत पर बिक रहा है जबकि स्थानीय आटा चक्कियों या आटा मिलों का आटा रू. 16.00 प्रति किलो या इससे अधिक कीमत पर ही बिक रहा है। उनकी कीमतों में कोई विशेष गिरावट नहीं आयी है।उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने एक समस्या है। आखिर वे क्या करें? जिस प्रकार तापमान ऊंचा उठ रहा है, आग लगने की घटनायें बढ़ती जा रही हैं। उच्च तापमान से गेहूं के खराब होने का भी खतरा है। स्टोरेज की कोई व्यवस्था उनके पास है नहीं। न बेचें तो कैसे ऋण अदा करें और कैसे अन्य खर्चों को पूरा करें।यह कोई नई बात नहीं है। उत्तर प्रदेश की जनता के साथ ऐसा सलूक बहुत सालों से होता आ रहा है। सवाल उठता रहा है, आज भी उठ रहा है - ”कोई तो सूद चुकाये, कोई तो जिम्मा ले, उस इंकलाब का जो आज तक उधार सा है।“
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कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है
मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है
तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है
सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है
जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है
हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है
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रोटी नहीं तो क्या शिक्षा का अधिकार तो है?

केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रभुत्व वाली सरकार को दुबारा बनने के बाद देश के शिक्षा परिदृश्य में लगातार कुछ नया घटित होता रहा है। कई बार परिदृश्य बहुत उत्तेजनापूर्ण होता नजर आया। शिक्षा के प्रति गहरी राजनैतिक संवेदनशीलता रखने वाली सरकारें तो पहले भी केन्द्र में सत्तासीन हुई है। उन्होंने प्रचलित शिक्षा को अपने तौर पर प्रभावित करने एवं उनमें खास तरह परिवर्तन भी किये, परन्तु वर्तमान सरकार शिक्षा के आधारभूत ढांचे में ही परिवर्तन की इच्छुक दिखाई दे रही हैै। हालांकि किसी भी पूंजीवादी धनाढ्य साधन सम्पन्न वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा को प्राथमिकता देने वाली सरकार के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं है। 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य एवम् मुफ्त करने के कानून से भी ऐसा ही आभास होता है। आजाद भारत के इतिहास की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसकी चर्चा लम्बे काल तक होगी। एक पुराने, बहुलता में देखे गये स्वप्न को साकार करने की दिशा में यह ठोस कार्यवाही की तरह है। जिसे हम वर्ममान सरकार की तथा भारत की गरीब जनता की बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं। अब कहने वाले तो कहेंगे ही कि रोटी पाने के अधिकार को अनिवार्य बनाये बिना अनिवार्य शिक्षा के लक्ष्य को किस सीमा तक प्राप्त किया जा सकेगा। आखिर बाल मजदूरी को समाप्त करने का कानून भी तो बना। उसका क्या हुआ? वह कितना प्रभावी हो पाया। करोड़ों बच्चे अब भी बाल श्रमिक के रूप में बारह से चौदह धंटों तक कठिन परिश्रम, कहीं-कहीं अमानवीय स्थितियों में काम करने को मजबूर हैं। काम के दौरान उनके यौन शोषण की भयावहता का अलग किस्सा है। स्त्रियों पर होने वाली घरेलू हिंसा के विरूद्ध भी कानून बना है, घरों में और बाहर भी स्त्रियां हिंसा से कितना मुक्त हुई हैं?जिन लोगों ने उर्दू के अति चर्चित कथाकार सआदत हसन मन्टो की कहानी ”नया कानून“ पढ़ी है, वे सजह ही यह अनुमान लगा सकते हैं कि कानूनों से क्या कुछ बदलता है, कितना बदलता है। इससे यह अर्थ नहीं लेना चाहिये कि बदलाव में कानून अथवा कानूनों की कोई भूमिका ही नहीं होती। कानूनों का अपना महत्व होता है, वे सामाजिक-प्रशासनिक गड़बड़ियों, अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों पर अंकुश भी लगाते हैं, वे बिगड़े हुए को सुधारते भी हैं। कहना केवल इतना है कि कानून साधन है, साध्य नहीं। परिवर्तन की, हालातों को सुधारने की समस्त शक्तियां एवं संभावनाएं उसमें अन्तर्निहित नहीं हैं। कानून कैसा है, यह एक स्थिति हो सकती है। अधिकांशतया कानून सकारात्मक परिणामों का लक्ष्य लेकर ही बनाये व लागू किये जाते हैं। शिक्षा को अनिवार्य एवं मुफ्त करने का कानून भी इसी नीयत व इरादे से बनाया गया लग सकता है। परन्तु जनता के बड़े हिस्सों को प्रभावित करने वाले किसी कानून की परिणामपरकता केवल इरादे की नेकी पर निर्भर नहीं करती। देखा यह जाता है कि इसके पीछे उपस्थित राजनैतिक इच्छाशक्ति कितनी सघन व आवेगमयी है तथा इस इच्छाशक्ति को प्रेरित करने वाली सामाजिक समझ कितनी यथार्थपरक है। सामाजिक यथार्थ को ठीक तरह समझे-जाने बिना कई बार अच्छे से अच्छे कानून भी भोतरे साबित होते हैं। कानूनों की असली परीक्षा होती है, उन्हें व्यवहार में लाने अथवा लागू करने की प्रक्रिया के दौरान। लागू करने वाले तंत्र में ही कानून लागू करने की इच्छा व नीयत न हो तो सरकारें घोषणा करती रहें, उनके ठेंगे से। जनता को सस्ता राशन देने, विधवा-वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा, गरीब छात्रों को वजीफा, गरीब लड़कियों की विवाह के लिए आर्थिक सहायता तथा दलितों एवं अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिये बनाये गये बहुत सारे कानून किसके लिए बड़ी सहायता का साधन साबित हो रहे हैं, वह किसी से छिपा हुआ तथ्य नहीं है। बाधाओं के और भी स्तर हैं, यहां विस्तार में जाने का अवसर नहीं है, भ्रष्टाचार, कामचोरी, धार्मिक, जातीय तथा स्थानीय धारणाओं को नजरअन्दाज भी कर दें तो भी तंत्र की अक्षमता एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ सकती है, ऊपर से साधनों का अभाव और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी, कारणवश सन्देह होता है कि अनिवार्य शिक्षा के कानून को लोकप्रियता हासिल करने की जल्दबाजी में बिना पर्याप्त सामाजिक, प्रशासनिक तैयारी के लागू किया गया है। इतने अच्छे, चिर प्रतीक्षित कानून के लिए जिस व्यापक सामाजिक जागरूकता तथा संवेदनशीलता को संभव करने की जरूरत थी, वह नहीं किया गया। राज्य सरकारों के दिलों को टटोलने तथा उन्हें पूरी तरह विश्वास में लेने, उनकी मंशा व इरादों को जानने की तरह प्रक्रिया भी नहीं अपनाई गयी। यदि सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों की कुल संख्या लगभग बाईस करोड़ है। जिनमें एक करोड़ से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जाते। बहुत से गरीबी के कारण, बहुत से परिवार में शिक्षा की चेतना न होने के कारण। काफी बच्चे इस कारण भी स्कूल नहीं जाते कि उनके माता-पिता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके बच्चे पढ़ कर करेंगे क्या? बहुत से माता पिता बच्चों को स्कूल भेजना चाहते हैं लेकिन सरकारों की कृपा से आस-पास कई मील तक स्कूल नहीं होते। ऐसे दलित व गरीब मुसलमान माता पिता भी होते हैं जो बच्चों को साक्षर बनाने की इच्छा के बावजूद स्कूल जाने से डरते या बचते हैं कि पता नहीं उनके बच्चों को स्कूल में दाखिला मिले या नहीं। कुछ इसलिए भी कि अध्यापक जी या अध्यापिका जी बच्चे से अपने घर का काम करवायेंगी।ये सारी बाधाएं थोड़े से प्रयासों से दूर की जा सकती हैं। सामाजिक संगठन एवम् जन संचार माध्यम शिक्षा के पक्ष में वातावरण बनाने में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। उन्हें दायित्व दिया जायेगा तो वो करेंगे भी लेकिन अगर सरकारें निर्धनता को दूर करने की दिशा में ठोस प्रयास नहीं करेगी यानी क्रान्तिकारी कदम नहीं उठायेंगी तो कोई कुछ कर ले, सबको शिक्षा के जरूरी लक्ष्य को प्राप्त कर पाना संभव नहीं होगा। साथ ही ‘अ’ से अनार और ‘ब’ से बन्दूक बताने वाली शिक्षा पद्धति को भी बदलना होगा।
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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों से मांगी - स्थिति रपट निर्माण मजदूर नियमन कानून का अनुपालन संतोषप्रद नहीं

18 जनवरी 2010 को सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों के मुख्य सचिवों के नाम सन्निर्माण कामगार (रोजगार नियमन एवं सेवा शर्त) कानून 1996 के कार्यान्वयन की अद्यतन स्थिति रपट (ेजंजने तमचवतज) मांगी है। यह स्थिति रपट 12 सप्ताहों के अंदर अर्थात 17 अप्रैल 2010 तक राज्य सरकारों को सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल करनी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में केन्द्र सरकार को भी सलाह दी है कि वह इस कानून के प्रावधानोें के कार्यान्वयन की समस्याओं पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने की संभावना पर विचार करे। यह सर्वविदित है कि राज्य सरकारों द्वारा इस कानून के अन्तर्गत भारी रकम कल्याण सेस के रूप में नियोजकों से वसूल की जाती है, किन्तु संबंधित लाभार्थी कामगारों को अत्यल्प रकम ही मुहैया करायी जाती है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे तुरन्त निम्नांकित ग्यारह उपायों पर कदम उठाकर अब और अधिक बिना किसी देर किये कानून का कार्यान्वयन सुनिश्चित करें। ट्रेड यूनियनों और संबंधित पक्षों के हित में उन सभी ग्यारह उपायों को, जो राज्य सरकारों को करने हैं, ज्यों का त्यों नीचे हम यहां उद्घृत कर रहे हैं।1 - तीन महीने के अन्दर प्रत्येक राज्य में कल्याण बोर्ड का गठन पूरावक्ती स्टाफ के साथ करना है।2 - कल्याण बोर्ड की बैठके कम से कम दो महीने में एक बार करनी हैं और बोर्ड के नियमानुसार तमाम उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना है।3 - निर्माण मजदूरों के निबंधन और कानून में उपलब्ध लाभों के बारे में लोगों को बताया जाना चाहिए। रेडियों, दूरदर्शन और मीडिया के सहारे कामगारों को बताना चाहिए कि कानून में क्या लाभ उपलब्ध हैं।4 - प्रत्येक राज्य सरकार निबंधन पदाधिकारी बहाल करे और प्रत्येक जिला पर कामगारों के निबंधक आवेदन पत्र प्राप्त करने के लिए कार्यालय खोलना चाहिए और आवेदन पत्रों की प्राप्ति के प्रमाणक निर्गत करना चाहिए।5 - निबंधित टेª यूनियनों कानून, सेवा प्राधिकार और गैर सरकारी संगठनों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे कामगारों को निबंधन आवेदन पत्र दाखिल करने और उन्हें लाभ दिलाने की प्रक्रिया में सहायता करें।6 - सभी सरकारी ठेकों के कामगारों का निबंधन अनिवार्य बनाया जाना चाहिए और कामगारों को लाभ दिलाना चाहिए।7 - कल्याण सेस कानून के मुताबिक कल्याण सेस का संग्रह नियमित रूप से अनवरत करना चाहिए।8 - निबंधित कामगारों को निबंधन की तारीख से 6 महीने के अन्दर लाभ प्रदान करने का सिलसिला शुरू करना चाहिए और इसके लिए नियमावली में समुचित प्रावधान शामिल करना चाहिए।9 - कानून के कार्यान्वयन का जिम्मेदार कल्याण बोर्ड के मेम्बर सेक्रेटरी और श्रम सचिव को बनाया जाना चाहिए। प्रत्येक राज्य के श्रम सचिव का दायित्व निर्धारित करना चाहिए कि वह राज्य में विशेष अभियान चला कर कानून का कार्यान्वयन करे।10 - महालेखापरीक्षक एवं नियंत्रक (सीएजी) को कानून के कार्यान्वयन की सम्पूर्ण प्रक्रिया और कोष के इस्तेमाल का परीक्षण करना चाहिए।11 - कानूनी प्राविधानों के अन्तर्गत प्रत्येक बोर्ड को राज्य सरकार के समक्ष सम्यक कार्य प्रतिवेदन सुपुर्द करना चाहिए।बोर्ड का त्रिपक्षीय होना जरूरीगुजरात सरकार ने एक सदस्यीय बोर्ड बनाया है और यहां कल्याण सेस का पैसा कल्याण कोष के अलग खाता में जमा नहीं करके सामान्य सरकारी ट्रेजरी में जमा किया जाता है। उत्तर प्रदेश भी इसे नक्शे कदम पर चलता नजर आता है। यह बिलकुल गैर कानूनी है। नियमित कोष संग्रह, नियोजक और कामगारों का निबंधन तथा लाभों को मुहैया कराने के लिए अनेक राज्यों में पूरावक्ती स्टाफ नहीं नियत किये गये हैं। दिल्ली बोर्ड का अलग दफ्तर नहीं है। इसका पूरावक्ती स्टाफ नहीं है। इसमें ट्रेड यूनियनों का कोई प्रतिनिधि नहीं है। इसलिए भवन निर्माण कामगार कानून की धारा 18 के अंतर्गत प्रत्येक राज्य में त्रिपक्षीय बोर्ड का गठन सुनिश्चित करना चाहिए, जिसमें नियोजक, कामगार और सरकारी प्रतिनिधि अवश्य शामिल किये जायें। इस काम को कराने में सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश बहुत उपयोगी है क्योंकि इस आदेश में स्पष्ट निर्देश हैं कि राज्य बोर्ड का गठन त्रिपक्षीय होना चाहिए और बोर्ड का अलग स्टाफ और दफ्तर होना चाहिए ताकि वह अपने दायित्वों का पूरा निर्वाह्न कर सके।बोर्ड की बैठकें नियमित नहीं की जाती हैं। कभी-कभी ही बैठक होती है और दायित्वों का कार्य संपादन नहीं किया जाता। कम से कम दो महीने में एक मर्तबा बैठक अनिवार्य होनी चाहिए। बोर्ड के कार्यों, कामगारों के निबंधन, इसके लाभों के बारे में व्यापक प्रचार के उपाय करने चाहिए। निर्माण मजदूर कानूनी लाभों की उपयोगिता के ज्ञान से वंचित हैं। कामगारों को जानकारी देने के लिए सभी प्रकार के प्रचार-प्रसार के उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए कुछ खर्च का प्रावधान भी होना चाहिए।ऐसा देखा गया है कि कहीं-कहीं बोर्ड का गठन तो हुआ है, किन्तु कामगारों के निबंधन पदाधिकारी एवं अन्य स्टाफ बहाल नहीं किये गये हैं। परिणामस्वरूप नियोजकों और कामगारों का निबंधन नहीं होता है। ट्रेड यूनियनों के लिए उचित है कि वह अधिकाधिक कामगारों का निबंधन करायें। ऐसा करने में इसका भी ख्याल रखना चाहिए कि गैर निर्माण-कामगार का निबंधन नहीं हो। ऐसा होने में बोर्ड के कोष पर बुरा असर पड़ेगा। बोर्ड घाटे में जायेगा और वाजिब कामगारों को लाभ कम मिलेंगे या नहीं मिलेंगे। हमें जिम्मेदारी के साथ ऐसा काम करना चाहिए कि कल्याण बोर्ड आदर्श के रूप में काम करें जो अन्यों के लिए उदाहरण बनें।यूनियन प्रमाणीकरणनिर्माण मजदूरों के निबंधन प्रक्रिया में ट्रेड यूनियनों का प्रमाणीकरण स्वीकार किया जाना चाहिए। केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश एवं पांडीचेरी के अनुभव बताते हैं कि यहां किस प्रकार ट्रेड यूनियनों द्वारा निर्माण मजदूरों का निबंधन सफलतापूर्वक किया जा सका। इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि राज्यों की नियमावली में ट्रेड यूनियनों का प्रमाणीकरण निर्माण मजदूरों की निबंधन प्रक्रिया में स्वीकार किया जाये। सर्वोच्च न्यायालय का ताजा आदेश ट्रेड यूनियन का यह अधिकार मंजूर करता है। राज्यों की नियमावली में ऐसे प्राविधानों को शामिल करने की मांग करनी चाहिए।हमारे यूनियनों के लिए यह कर्तव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त आदेश के आलोक मंे निर्माण मजदूरों के हक में राज्य सरकारों द्वारा कानून के क्रियान्वयन के लिए समुचित कदम उठाने के लिए वे आंदोलनात्मक दवाब बनायें। कम से कम सरकारी ठेकों में कार्यरत मजदूरों के निबंधन को तुरन्त अनिवार्य बनाया जा सकता है। राज्यों की नियमावली में ऐसा प्राविधान किया जाना चाहिए कि गैर निबंधित कामगारों से काम कराये जाने की स्थिति में नियोजकों पर भारी जुर्माना किया जाये। विशेष अभियान चलाकर कामगारों का निबंधन करके कार्यस्थल पर ही परिचय पत्र का वितरण किया जा सकता है।समय सीमा का निर्धारणबोर्ड बनने के बाद भी कामगारों के निबंधन नहीं किये जाने और सुविधायें नहीं प्रदान किये जाने के तथ्यों के आलोक में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि बोर्ड बनने के बाद एक निश्चित समय-सीमा के अंदर कामगारों का निबंधन पूरा किया जाना चाहिए तथा कामगारों के आवेदन पत्रों का निष्पादन एक निर्धारित सीमा के अंदर सम्पन्न करना चाहिए। ऐसी समय सीमा के निर्धारण का प्रावधान राज्यों की नियमावली में किया जाना चाहिए।कई राज्यों में कल्याण कोष का संग्रह कम हुआ है। यूनियनों द्वारा इसके बारे में दबाव बनाना चाहिए कि नियोजकों का निबंधन समय सीमा के अंदर किया जाये और सेस का आकलन तथा वसूली प्रक्रिया कारगर तरीके से तुरन्त प्रारम्भ की जाये। सेस का आकलन योजना के अनुमानक (इस्टीमेट) के आधार पर परियोजना की स्वीकृति के समय ही किया जा सकता है।कार्यालय और पूरावक्ती स्टाफराज्य कल्याण बोर्ड का मेम्बर सेक्रेटरी पूरावक्ती पदाधिकारी होना चाहिए और उसका अलग कार्यालय होना चाहिए जिसमें पर्याप्त संख्या में कर्मचारी नियुक्त किये जाने चाहिए। दिल्ली जैसे अनेक राज्यों में बोर्ड बनने के सात वर्षों बाद भी निबंधन का काम पूरा नहीं किया गया और लाभार्थियों को लाभ नहीं पहुंचाया जा सका। इसका कारण यह बताया जाता है कि बोर्ड के काम के लिए कार्यालय और कर्मचारियों की सुविधा नहीं है। ऐसे राज्यों के लिए सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश निदेशात्मक है। यूनियनों को इसके लिए दबाव बनाना चाहिए।सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि बोर्ड का लेखा अंकेक्षण लेखा महापरीक्षक और नियंत्रक (सीएजी) द्वारा होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि सीएजी लेखा परीक्षण के साथ-साथ बोर्ड के अन्य क्रियाकलापों का भी निरीक्षण करेगा। इसलिए हमारे यूनियनों को तथ्यों को उजागर करने में सक्रिय रहना चाहिए।अंतर्राज्यीय गमनागमननिर्माण उद्योग और उसी प्रकार निर्माण श्रमिक भी अनिवार्य रूप से स्थानांतरणीय हैं। भवन निर्माण और परियोजना कार्य पूरा होने पर बिल्डर्स/कंपनियां/नियोजक अन्य स्थानों में काम करने जाते हैं और उनके साथ श्रमिक भी स्थानांतरित होते हैं। ऐसे स्थानांतरण राज्य के अन्दर भी होता है और राज्य सीमा के बाहर भी। एक राज्य में काम समेट कर अन्य राज्यों में काम के लिए बाहर भी लोग जाते हैं। इसलिये जरूरी है कि एक राज्य में कामगारों का निबंधन और परिचय पत्र अन्य राज्यों में भी स्वीकार्य हो। कामगारों के अन्तर्राज्यीय गमनागमन को सुगम करने के लिये राज्य बोर्ड द्वारा जारी किया गया परिचय पत्र को अन्तर्राज्यीय मान्यता और अन्य राज्यों में इसकी स्वीकार्यता बनाना जरूरी है। ऐसा करना जरूरी है क्योंकि निर्माण उद्योग स्वयं अपने स्वभाव से स्थानांतरणीय है। अनेक बहुराज्यीय निर्माता कंपनियां हैं, जो अनेक राज्यों में एक साथ काम करती हैं, ठीक उसी तरह जैसा औद्योगिक व्यापार कारोबार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साथ अनेक राष्ट्रों में कार्यरत हैं।उदाहरण के लिये मान लीजिये कि बिहार बोर्ड में निबंधित एक श्रमिक मुंबई जाकर कुछ वर्ष काम करता है और उसके बच्चे बिहार के स्कूल में पढ़ते हैं तो उन बच्चों को शिक्षा सहायता का भुगतान बिहार बोर्ड द्वारा किया जाना चाहिये। वह कामगार रिटायर होकर फिर वापस बिहार आता है तो उसका मासिक पेंशन बिहार बोर्ड द्वारा किया जाना चाहिये। उसके पेंशन एवं सहायता राशि के खर्च का समायोजन महाराष्ट्र बोर्ड के साथ किया जा सकता है। ऐसा किया जाना सर्वथा उचित है, क्योंकि महाराष्ट्र बोर्ड ने उस परियोजना/निर्माता से कल्याण सेस की धनराशि वसूल की है, जिसके नियोजन में उस बिहारवासी कामगार ने काम किया। इस तरह का अंतर्राज्यीय प्रबंध का प्रावधान नियमावलियों में किया जाना चाहिये।निर्माण उद्योग और निर्माण श्रमिकों के इसी अन्तर्राज्यीय कार्य परिचालन के मद्देनजर एटक की सदा से मांग रही है कि ऐसे कामगारों को शीर्षस्थ राष्ट्रीय बोर्ड द्वारा परिचयपत्र जारी किया जाये, जो कामगार भविष्यनिधि योजना में दाखिले और सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की भुगतान प्रक्रिया को सुगम करें।हर दरवाजे तक पहुंचेंकृषि के बाद निर्माण उद्योग देश का सबसे बड़ा उद्योग है। यह सबसे बड़ा रोजगार दिलाने वाला श्रम प्रधान कारोबार है। अन्य उद्योगों के मुकाबले इसमें अधिकतम निवेश भी है। फिर भी इसमें कार्यरत मजदूरों की वर्गचेतना का स्तर न्यून है। इसका कारण श्रमिकों की कृषि जनित ग्रामीण पृष्ठभूमि है। विसम स्तरीय निर्माण मजदूर यद्यपि अनुभव से कार्यों में कुशल होते हैं, किंतु नियमित शिक्षा प्रमाणपत्र के अभाव में वे अकुशल या अर्द्धकुशल माने जाते हैं। वे गांवों में रहते हैं, शहरों की झुग्गी-झोपड़ियों में वास करते हैं और सड़क किनारे खुले आकाश में सर्दी-गर्मी की असहय पीड़ा सहते हैं। वे यूनियन कार्यालय में नहीं आते क्योंकि वे इसके लिये समय नहीं निकाल पाते। इसलिए ट्रेड यूनियनों को गांवों की झुग्गी-झोपड़ियों में निर्माण श्रमिकों के शरणस्थलियों में पहुंचने की योजना बनानी चाहिये। हमें नारा देना चाहिये - ”श्रमिक शरणस्थलियों में यूनियन, झुग्गी-झोपड़ियों में यूनियन, कार्यस्थलों पर यूनियन यूनियन बनाने के लिए हर दरवाजे पहुंचे।नयी कार्यशैलीनिर्माण मजदूरों को संगठित करने की नयी शैली विकसित की जानी चाहिये। निर्माण उद्योग में सब जगह ट्रेड यूनियन बनाने का पारंपरिक तरीका कारगर नहीं होता है। इसका सीधा कारण है कि निर्माण उद्योग का कार्य एक स्थान विशेष पर केन्द्रित नहीं है।निर्माण मजदूरों को संगठित करने की शैली अलग-अलग राज्यों की भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। कोई एक बना बनाया फार्मूला सब जगह काम नहीं करता है। हमें कार्यस्थल पर मौजूदा परिस्थितियों के अनुकूल व्यावहारिक अनुभव से काम लेना होगा। जब हम कार्यक्षेत्र में प्रवेश करेंगे तो वहां मौजूदा हालात हमारा मार्गदर्शन करेंगे।यहां हम बताना आवश्यक समझते हैं कि अनेक स्थानों में हमारे कामरेडों ने श्रमिकों के रहने के वासस्थानों से ट्रेड यूनियन प्रारंभ सफलतापूर्वक किया। मजदूरों के कार्यस्थल आमतौर पर बदलते रहते हैं। उनके नियोजक भी बदलते हैं। मजदूर अनेक स्थलों पर कार्य करते हैं, लेकिन उनके रहने का स्थान बहुधा एक ही होता है।मजदूर केवल कार्यस्थल पर ही परेशानी का सामना नहीं करते, बल्कि वे रहने के स्थान पर झुग्गी-झोपड़ियों में कहीं ज्यादा मुसीबत झेलते हैं। आमतौर पर मजदूर सड़कों के किनारे रहते हैं। उन्हें पुलिस, म्युनिसिपल अधिकारी, मुकामी गुंडों और अपराधियों के उत्पात झेलने पड़ते हैं। यद्यपि निर्माण मजदूरों के रहने के क्वार्टर के लिये ठेकेदार/नियोजक कानूनी तौर पर जिम्मेदार होता है, किंतु ऐसी व्यवस्था हर जगह नहीं होती।मजदूरों के राशन कार्ड नहीं होते हैं। उनके बच्चों के लिए स्कूल नहीं होते। पीने का पानी, सफाई, शौचालय, चिकित्सा और सामान्य नागरिक सुविधाओं का अभाव होता है। वे अपने मूल निवास से दूर परदेश में रहते हैं। उनकी अपनी सांस्कृतिक परम्पराएं होती है। स्थानीय लोगों के साथ सांस्कृतिक सम्मिश्रण की उनकी समस्याएं होती हैं। क्या हम इन समस्याओं के प्रति आंखे मूंद सकते हैं? नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। निर्माण मजदूरों को संगठित करने के सिलसिले में हमें निश्चय ही इन मुद्दों को हाथ में लेना होगा।
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