भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 19 नवंबर 2011

अक्टूबर क्रांति, इतिहास और भावी समाजवाद

7 नवंबर को हम फिर से एक बार हर वर्ष की तरह रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं। यह इतिहास की ऐसी असाधारण घटना है जिस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा है और आगे भी उस पर लिखा जाता रहेगा।
 यह बार-बार दोहराया जा चुका है और फिर कहा जाना चाहिए कि रूसी क्रांति एक महान ऐतिहासिक घटना, एक महान क्रांति थी। रूसी क्रांति और महान नेता लेनिन से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हम उन्हें महान जरूर कहते हैं लेकिन उनका अध्ययन कितना करते हैं और उनसे कितना सीखते हैं इस पर हरेक व्यक्ति स्वयं ही विचार करे तो अच्छा रहेगा।
लेनिन: रूसी क्रांति के सिद्धांतकार लेनिन एक महान सिद्धांतकार थे जो मार्क्सवाद को नई मंजिलों पर ले गए। से साम्राज्यवादी युग के सिद्धांतकार माने जाते हैं। आजकल राजनीति में पढ़ने वालों की संख्या घटती जा रही है। स्वयं कम्युनिस्ट आंदोलन में मार्क्स और लेनिन के बारे में, उनकी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, लेकिन यह सब बिना यह जाने और पढ़े कि वास्तव में लेनिन ने क्या लिखा था और क्यों। उन्होंने न सिर्फ राजनीति, दर्शन और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया बल्कि अपने युग के सभी विज्ञानों का जहां तक हो सके गहन अध्ययन किया। मसलन उन्होंने 20वीं सदी के आरम्भ में रूस में कृषि में पंजीवाद के विकास संबंधी शोधकार्य किया और इसमें कई वर्ष लगाए। इसके लिए उन्होंने योरोप की लाइब्रेरियों में काफी समय बिताया। आजकल लाइब्रेरी में बैठने और किताबें पढ़ने का मजाक उड़ाया जाता है और कहा जाता है कि ”किताबें पढ़कर प्रोफेसर बनना है क्या? मैदान में जाओ और काम करो!“ उन्हें लेनिन से सीखने की आवश्यकता है। बिना इस प्रकार के अध्ययन के रूसी क्रांति संभव नहीं थी। लेनिन ने 1905-07 की प्रथम रूसी क्रांति की विफलता के बाद फिर गहन अध्ययन का सहारा लिया। इसी क्रांति के दौरान सोवियतों का जन्म हुआ था और इसी के दौरान जनवादी क्रांति की मंजिल का सिद्धांत उन्होंने अधिक ठोस रूप में विकसित किया।
 लेनिन ने कई विषयों के अध्ययन के अलावा एटम संबंधी गहरी खोजों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस समय तक एटम अंतिम कण माना जाता था लेकिन तब उसके अंदर इलेक्ट्रान तथा अन्य कणों की खोज की गई। इसका दर्शन के लिए बड़ा महत्व था। इससे पदार्थ की असीम गहनता का पता चलता है।  कई लोग फिर भी पूछेंगे कि इस एटम और दर्शन के अध्ययन का क्रांति तथा समाजवाद से क्या मतलब है? शायद लोग सोचे कि ठीक है, लेनिन को शौक होगा या अपना ”सामान्य ज्ञान“ बढ़ाने के लिए उन्होंने कुछ पढ़ लिया होगा। लेकिन बात ऐसी नहीं थी। एटम के खंडन ने दर्शन में तीव्र विवाद को जन्म दिया। दार्शनिकों के एक हिस्से ने इसे पदार्थवाद का खंडन माना क्योंकि एटम ‘खंडित’ हो गया था।
 लेनिन ने भौतिकवाद के समर्थन में ‘एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म’ लिखा। उन्होंने साबित किया कि एटम के अंदर अन्य कणों एवं ऊर्जा स्रोतों की खोजों ने द्वंदात्मक भौतिकवाद को आगे विकसित किया है। उन्होंने अपने समय के सभी मुख्य वैज्ञानिक साहित्य, तथ्यों और खोजों का व्यापकता तथा गहराई से अध्ययन किया।
 लेनिन ने यह कार्य इतना महत्वपूर्ण समझा कि उन्होंने इस पुस्तक के तुरन्त और बड़ी संख्या में प्रकाशन पर जोर दिया। पुस्तक ने उस समय के क्रांतिकारियों की दार्शनिक समझ स्पष्ट करने में बड़ी भूमिका अदा की।
साम्राज्यवाद का अध्ययन: रूस एक कमजोर कड़ी लेनिन साम्राज्यवादी युग के महान सिद्धांतकार थे। वे हॉब्सन और हिल्फरडिंग के सिद्धांतों को आगे ले गए। उन्होंने पंूजीवाद के विकास की नई मंजिल का विवेचन करते हुए साम्राज्यवाद का सिद्धान्त पेश किया जिसकी पांॅच विशेषताएं बताई।
 साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से कई नतीजे निकलते हैं। इनमें क्रांति की जनवादी मंजिल महत्वपूर्ण है जिससे रूसी पार्टी में फूट पड़ गई और बोल्शेविक तथा मेंशेविक पार्टियां बनीं जो फिर कभी एक नहीं हो पाई। साम्राज्यवाद के बारे में भी उनमें गहरा मतभेद था। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद सैद्धांतिक थे, व्यक्तिगत नहीं।
 औपनिवेशिक गुलाम देशों में आजादी की लड़ाई और उसके साथ रूसी क्रांतिकारियों की एकजुटता का सिद्धांत और व्यवहार भी इसी से विकसित हुआ। लेनिन ने साम्राज्यवाद- विरोधी मोर्चे का सिद्धांत पेश किया। लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में आर्थिक संकट के व्यवस्था के आम संकट में बदल जाने की ओर ध्यान दिलाया। साम्राज्यवाद ने विश्व अर्थव्यवस्था में असमान विकास को और भी तेज कर दिया तथा उसमें गुणात्मक परिवर्तन ला दिया।
 इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण रूस में क्रांति की परिस्थितियांॅ पैदा हुई।
रूसी क्रांति के कारण 1917 की रूसी क्रांति के कारणों पर विचार करते हुए अक्सर ही एक महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी कर दी जाती है। लेनिन ने रूस को साम्राज्यवादी श्रंृखला की सबसे कमजोर कड़ी बताया। प्रथम विश्व युद्ध के आते-आते साम्राज्यवाद के सारे अंतर्विरोध तीखे होते गए और वे सबसे बढ़कर रूस पर केन्द्रित होते गए। यह रूसी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण था, हालांकि कई अन्य कारण भी थे।
प्रथम सफल मजदूर क्रांति रूसी क्रांति एक ऐसी मूलगामी सर्वहारा समाजवादी क्रांति थी जो साम्राज्यवादी युग में हुई। साथ ही इसमें जनवादी क्रांति के शक्तिशाली तत्व थे। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। लेनिन ने समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए व्यापक एवं गहन जनवादी क्रांति की जरूरत पर जोर दिया। इसलिए उन्होंने क्रांति ‘नई अर्थनीति’ या ‘नेप’ अपनाया। आज रूसी क्रांति के पतन के कारणों के संदर्भ में लेनिन की इन रचनाओं पर अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
 लेनिन ने रूसी क्रांति के फरवरी (मार्च) और अक्टूबर (नवम्बर) 1917 के बीच क्रांति के उतार-चढ़ावों, टेढ़े-मेढ़े रास्तों और डाइलेक्टिक्स पर जो लिखा है वह गंभीरता से पढ़ने लायक है। वह क्रांति के आंतरिक द्वन्द्व को दर्शाता है। पार्टी और सोवियतों के बीच संबंधों, क्रांति के शांतिपूर्ण और हथियारबंद मार्गो तथा तरीकों, सत्ता के बदलते स्वरूपों इत्यादि पर ये लेख अत्यंत ही शिक्षाप्रद है।
 लेनिन ने अप्रैल, 1917 में एक असाधारण लेख लिखा जो ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है। वैसे जब क्रांति जोरों पर थी तो लेनिन सेंट पीटर्सबर्ग या पेट्रोग्राड (बाद में लेनिनग्राड) के बाहर एक कोने में बैठकर ‘राज्य और क्रांति’ नामक पुस्तक लिख रहे थे। इस पर उनके साथ रह रहे साथी को आश्चर्य हुआ था कि वे ऐसे उथल-पुथल के समय शांत भाव से ‘लिख’ क्यों रहे हैं?
 ‘अप्रैल थीसिस’ में लेनिन ने पहली बार ‘द्वैध सत्ता’ का सिद्धांत पेश किया था, अर्थात अब क्रांति किसी भी ओर जा सकती थी- जनता के हक में या राजतंत्र अथवा बड़े पूंजीपतियों के हक में। इसका कारण था सत्ता का दो हिस्सों में बंटना जो इतिहास की असाधारण घटना थी। आगे विकास इस पर निर्भर करता था कि सोवियत क्रांति का चरित्र पहचानती है या नहीं।
लेनिन और सोवियत सत्ता रूसी और सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जाना चाहिए। इतिहास में रूसी क्रांति के स्थान, योगदान और भूमिका को कोई मिटा नहीं सकता है। समाजवाद के निर्माण का यह पहला प्रयत्न था जिसने बहुत कुछ हासिल किया। आज साम्राज्यवादी शक्तियां रूसी क्रांति और उसके योगदान को न सिर्फ विकृत कर रही है बल्कि उसे मिटाने की कोशिश कर रही हैं यहां तक कि वे द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की भूमिका को तोड़-मरोड़ रही है।
 सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के साथ-साथ हमें उसकी कमियों का भी ख्याल करना चाहिए ताकि भविष्य में बेहतर समाजवाद का निर्माण किया जा सके। इसके लिए इतिहास से और स्वयं लेनिन से सीखने की जरूरत है। क्रांति के बाद 1924 की जनवरी में अपनी मृत्यु तक लेनिन सोवियत सत्ता में नकारात्मक रूझानों के प्रति बड़े ही सचेत और चिंतित थे। उनकी चुनी हुई रचनाओं (‘सेलेक्टेड वर्क्स’) के तीसरे खंड का यदि गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने सोवियत सत्ता में नौकरशाही के बढ़ते रूझान का बार-बार विरोध किया है। अपनी रचना ”आन कोआपरेशन“ (सहयोग के बारे में) में उन्होंने जनतंत्र पर जोर दिया है। रोजा लक्सेम्वर्ग (सुप्रसिद्ध जर्मन कम्युनिस्ट नेता) तथा स्वयं लेनिन इस तथ्य की आलोचना कर रहे थे कि सोवियतों की सत्ता वास्तव में पार्टी की सत्ता बनती जा रही थी। लेनिन ने सत्ता को जनतांत्रिक और जन आधारित बनाने की पूरी कोशिश की।
केन्द्रीकरण: समाजवाद-विरोधी 1922 में लेनिन की मर्जी के खिलाफ स्तालिन को पार्टी का महासचिव बनाया गया। उस वक्त महासचिव का पद ज्यादा महत्व का नहीं होता था लेकिन जल्द ही वह महत्व का बन गया और बात गंभीर हो गई, जैसा कि लेनिन ने पूर्वानुमान लगाया था। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार स्तालिन को हटाने की मांग की। यह तथ्य लेनिन की संकलित रचनाआंे में मिल जाते हैं।
 लेनिन की मृत्यु (जनवरी, 1924) के बाद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की। लेकिन साथ ही एक अत्यंत नकारात्मक और घातक रूझान भी पैदा हुई जो ‘स्तालिनवाद’ के नाम से जानी जाती है। यहां हम स्थान की कमी के कारण उस पर विस्तार से चर्चा नहीं कर पायेंगे। इतना कहना ही काफी होगा कि लेनिन का अंदेशा सही निकला। अतिकेन्द्रीकृत नौकरशाही और एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता के केन्द्रीकरण समाजवाद के लिए न सिर्फ हानिकारक है बल्कि घातक भी। सोवियत संघ के पतन के कारणों में यह भी है। इसलिए इससे बचने की आवश्यकता है।
समाजवाद, जनतंत्र और तकनीकी क्रांति का युग पिछले लगभग तीन दशकों में विश्व मंे भारी परिवर्तन हुए हैं और कई मायनों में वे गुणात्मक परिवर्तन है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में केन्द्रीकृत समाजवादी सत्ताओं का पतन हो गया। इनसे गंभीरता से सीख लेने की आवश्यकता है। जहांॅ रूसी क्रांति ने समाजवाद की प्रथम मिसाल पेश की, वहीं यह भी सिखाया कि समाजवाद के निर्माण में नकारात्मक तरीके नहीं अपनाए जा सकते हैं, समाजवाद का निर्माण गलत तरीकों से नहीं हो सकता। समाजवाद और कम्युनिज्म का ध्येय आज भी बरकरार है लेकिन उनकी ओर बढ़ने के तरीके एवं मार्ग बदल गए हैं। यहांॅ भी लेनिन से सीखने की जरूरत है उन्होंने बारम्बार दूसरे देशों से रूसी क्रांति का रास्ता नहीं अपनाने, उसकी नकल नहीं करने की अपील की थी और चेतावनी दी थी।
 इतना स्पष्ट है कि आप बिना जनतंत्र के समाजवाद का रास्ता नहीं अपना सकते। आज की सूचना क्रांति के युग में यह बात और भी उजागर हो उठती है। सूचना और तकनीकी क्रांति वर्गों और व्यक्तियों को अधिक जनतांत्रिक बनाती हैं, उनके हाथों में जनतांत्रिक माध्यम पेश करती है। पिछले दो-तीन दशकों में हमारी आंखों के सामने सूचना तकनीकी क्रांति का असाधारण प्रसार हुआ है। क्या समाजवादी शक्तियां इनका पूरा इस्तेमाल कर रही हैं? इसके अलावा बाजार की शक्तियों का भी बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ है। भविष्य में समाजवाद में बाजार समाप्त करने का नहीं, बल्कि बाजार के जनवादीकरण का प्रश्न होगा। आज वियतनाम, चीन, क्यूबा, लैटिन अमरीकी देशों के सामने यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।
समाज और मजदूर वर्ग की बदलती संरचना और समाजवाद खेद का विषय है कि इस प्रश्न पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। रूसी क्रांति के समय खास तरह का मजदूर वर्ग था और एक अलग किस्म की सामाजिक संरचना थी। आज के मजदूर वर्ग की संरचना (ढांचा) बदल रही है। सूचना और सेवा में कार्यरत श्रमिकों की संख्या तथा प्रतिशत बढ़ रहा है। इसके अलावा समाज की भी संरचना तेजी से बदल रही है, खासतौर पर उसका शहरीकरण हो रहा है जिसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं।
 इसलिए भावी सामाजिक परिवर्तनों और समाजवाद को इन बदली परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ेगा। रूसी क्रांति के रास्ते और तौर-तरीकों को छोड़ना होगा। आज लैटिन अमरीका के दर्जन से अधिक देशों में मूलगामी परिवर्तन चल रहे हैं। वे भले ही क्यूबा की प्रशंसा करते हों, उससे दोस्ती रखते हों लेकिन वे क्यूबा से बिल्कुल अलग रास्ता अपनाए हुए हैं। जब हम रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं तो एक और बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह यह कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के नियम समाजवाद पर भी लागू होते हैं, आज भी लागू हैं। यह महत्वपूर्ण पहलू रूस और पूर्वी योरप के शासक भूल गए थे। परिवर्तन, द्वन्द्व, अंतर्विरोध और उनका हल, निरंतर गति, नई और बदलती आवश्यकताएं एवं मांगें, विचारों- मतों का अंतर और द्वन्द्व, यहां तक कि खुला विरोध, समाजवाद का नई मंजिलों में पहुंॅचने, वस्तुगत नियम, संकट इत्यादि समाजवाद में भी होते हैं। समाजवाद में भी वस्तुगत परिस्थितियां ही निर्माण के तौर- तरीके तय करेंगी, पार्टी नहीं। पार्टी, अन्य संगठन मात्र माध्यम होंगे। सोवियत संघ में अक्सर ही यह बात भुलाकर वस्तुगत परिस्थितियों पर मनोवादी विचार थोपे गये थे। समाजवाद के अंतर्गत भी उत्पादन के साधनों और उत्पादन संबंधों के बीच टकराव चलता है। इनकी ओर भी स्वयं लेनिन ने कई बार ध्यान खींचा था।
 भावी समाजवाद के संदर्भ में हमें रूसी क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से काफी कुछ सीखना है।
- अनिल राजिमवाले
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फैसले का पैगाम

संदर्भ: वचाटी गांव के आदिवासियों को दो दशक के इंतजार के बाद इंसाफहमारे मुल्क में फरियादियों को समय पर अदालत से इंसाफ मिलना कितना मुश्किल भरा काम है, यह बात कई बार जाहिर हो चुकी है। गोया कि यदि पीड़ित परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है, तो उसकी लड़ाई और भी ज्यादा लंबी हो जाती है। इंसाफ के लिए उसे लंबा इंतजार करना पड़ता है। इंसाफ पाने के लिए ऐसा ही एक लंबा इंतजार, वचाटी गांव के आदिवासियों को करना पड़ा। तमिलनाडु में कृष्णगिरी जिले के वचाटी गांव में आदिवासी महिलाओं से बलात्कार, लूटपाट, हमले और दीगर तरह के जुल्म की वारदातें आज से 19 साल पहले हुई थी। दो दशक की पीड़ादायक प्रतीक्षा के बाद अब जाकर उन्हें इंसाफ मिला है। हाल ही में धर्मपुरी की एक विशेष अदालत ने साल 1992 के बहुचर्चित वचाटी मामले के 215 गुनहगारों को सजा सुनाई है। फैसले में वन महकमे के 126 कर्मियों, पुलिस के 84 और राजस्व महकमें के 5 कर्मियों को दोषी करार दिया गया। इस लंबे अरसे में पीड़ित परिवारों की कैसी मनोदशा रही होगी, इसका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते। साधनहीन आदिवासियों की यह लड़ाई, शासन के सबसे शक्तिशाली तबके पुलिस, वन और राजस्व महकमे के 2 सैकड़ा से ज्यादा अफसरों के खिलाफ थी जो कि किसी भी लिहाज से आसान नहीं थी। फिर भी उन्होंने आखिर तक अपनी हिम्मत नहीं हारी और इंसाफ पा ही लिया।
 गौरतलब है कि इंसानियत को झिंझोड़ देने वाला यह लोमहर्षक मामला उस समय का है, जब चंदन तस्कर वीरप्पन की खोज में तमिलनाडु पुलिस और वन महकमे के लोग जंगल में जगह-जगह छापेमारी कर रहे थे। इसी सिलसिले में वचाटी गांव पहुंचे इस अमले ने वहां के आदिवासियों पर पूछताछ की आड़ में खुले आम कहर ढाया। पुलिस, वन और राजस्व महकमे के कोई पौने तीन सौ लोगों ने मिलकर वहां रहने वाले आदिवासियों को घरों से खींच-खींचकर जानवरों की तरह पीटा। यहां तक कि उनकी औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके घर तोड़ दिए गए। घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि पुलिसवालों ने 18 आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। अपनी वहशियाना हरकतों को सही साबित करने के लिए पुलिस ने उस वक्त कहा, इस गांव में गैरकानूनी तरीके से चंदन की लकड़ियों की तस्करी की जा रही थी और यह आदिवासी चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं। लेकिन इस इल्जाम के बावजूद पुलिस को यह हक कैसे हासिल हो जाता है कि वह बिना किसी पर दोष साबित हुए, उसके साथ अमानवीय और नियम- कायदों के खिलाफ पेश आए। सजा देना कानून का काम है, न कि पुलिस का।
 बहराल, इंसाफ का तकाजा तो यह कहता था कि वचाटी गांव में आदिवासियों पर पुलिस के बर्बर अत्याचार के बाद, प्रशासन मुल्जिमों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करता। लेकिन हुआ इसके उलट। तत्कालीन सूबाई सरकार ने तमाम इल्जामों को खारिज करते हुए, वचाटी गांव के आदिवासियों को ही कसूरवार माना। उन पर इल्जाम लगाया कि वे चंदन लकड़ियों की तस्करी में मुब्तिला थे। तत्कालीन प्रशासन के हठधर्मी भरे रवैये का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मुद्दे पर वामपंथी पार्टियों के लगातार विरोध- प्रदर्शनों के बावजूद 3 साल तक इस घटना की एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। आखिर जांॅच तब शुरू हुई, जब 1995 में एक जनहित याचिका के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने इसकी जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी। सीबीआई जांॅच के बाद पूरा सच मुल्क के सामने आ गया। मामले की जांच कर रही सीबीआई ने 269 लोगों को आरोपी बनाते हुए अदालत में सभी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए थे, लेकिन मामले की 19 साल तक चले सुनवाई के दौरान 54 आरोपियों की मौत हो गई। जबकि 215 आरोपियों के खिलाफ सुनवाई जारी रही।
 पुलिस के अत्याचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन की मुल्क में यह कोई पहली घटना नहीं है। बल्कि उनके द्वारा यह घिनौने कारनामे बार- बार दोहराए जाते हैं। अदालतों के तमाम आदेश और फटकारों के बाद भी पुलिस अपनी कार्यप्रणाली बिल्कुल नहीं सुधारती। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब छत्तीसगढ़ के दक्षिणी बस्तर में पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवानों ने आदिवासियों के तीन सौ से ज्यादा घरों को फूंका, लोगों की बड़ी बेरहमी से पिटाई की ओर उनकी औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया। यहांॅ भी अर्धसैनिक बल के जवानों ने उन्हीं दलीलों का सहारा लेकर अपने आप को सही साबित करने की कोशिश की, जिस तरह से वचाटी गांव की घटना के बाद वहां के पुलिसवालों ने की थी। अर्धसैनिक बल के जवानों का कहना था कि आदिवासी नक्सलियों से मिले हुए हैं और उनकी सहायता करते हैं। यानि, गलत को सही साबित करना, तो जैसे पुलिसवालों की फितरत मंें ही आ गया है। मुल्क के जो हिस्से बरसों से अलगाववाद, नक्सलवाद और दहशतगर्दी से जूझ रहे हैं, वहां अक्सर पुलिस व सुरक्षाबलों की कार्रवाई के दौरान मानवाधिकारों के बड़ी तादाद में उल्लंघन और वचाटी गांव जैसी घटनाओं की शिकायतें सामने आती हैं। मगर फिर भी हमारे सरकारें इन घटनाओं के जानिब असंवेदनशील बनी रहती हैं। उनकी प्राथमिकताओं में कभी यह बातें शामिल नहीं हो पाती कि किस तरह से पुलिस और सुरक्षा बलों का चेहरा मानवीय बनाया जाए। मीडिया में जब मामला उछलता है, तब जाकर वह कुछ सक्रिय होती है। लेकिन यह सक्रियता भी मामले को गोलमाल करने से ज्यादा कुछ नहीं होती। पहले घटना की जांच के लिए आयोग बनता है। फिर कुछ सालों के इंतजार के बाद आयोग की रिपोर्ट आती है और आखिर में जाकर रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर कोई अमल किए बिना उन्हें बिसरा दिया जाता है।
 कुल मिलाकर, वचाटी मामले में आदिवासियों को यदि इंसाफ मिल सका तो यह सियासी, समाजी संगठनों की सक्रियता और न्यायपालिका के हस्तक्षेप का नतीजा है। गर सामूहिक दबाव नहीं बनता तो यह मामला भी दीगर मामलों की तरह कभी का रफा-दफा हो गया होता। देर से ही सही, धर्मपुरी की स्थानीय अदालत के फैसले के बाद मुल्क में हाशिए पर डाल दिए गए समूहों का यकीन निश्चित रूप से एक बार फिर हमारे न्यायपालिका पर बढ़ेगा। अदालत का ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें पहली बार इतनी बड़ी तादाद में पुलिसवालों और वनकर्मियों को सजा सुनाई गई है। लेकिन दोषी पुलिसवालों को सजा मिलने के बाद क्या अब हमें चुप बैठ जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। अब वक्त आ गया है कि सरकार पर, पुलिस सुधारों के लिए पूरे मुल्क में एक व्यापक दबाव बनाया जाए। क्योंकि, जब तलक पुलिस सुधार नहीं होंगे, तब तक न तो पुलिस की कार्यप्रणाली में बदलाव आएगा और न ही मानवाधिकारों की हिफाजत हो पाएगी।
- जाहिद खान
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शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

इब्सा बैठक

यूरोपीय संघ के अधिकांश देश गहराते आर्थिक संकट के कारण सरकार के दिवालियेपन और आर्थिक रूप से धराशायी होने के कगार पर है। वहांॅ उमड़े संकट के ये बादल उन विकासमान देशों तक भी पहुंॅचने लगे हैं जो मई, 2008 से शुरू भूमंडलीय मंदी के अभी तक कम ही शिकार हुए हैं। इन हालात ने ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को इब्सा (इंडिया, ब्राजील, साउथ अफ्रीका- आईबीएसए) के अंतर्गत एकजुट कर दिया है ताकि वे इस भूमंडलीय संकट पर अपेक्षाकृत अधिक वस्तुगत तरीके से अपना दृष्टिकोण तय कर सके। इस प्रकार जब लगातार गहराते आर्थिक संकट से पार पाने के लिए कोई आर्थिक योजना तय करने के लिए पेरिस में जी-20 की मीटिंग एक ही महीने के बाद होने वाली है तो भारत के प्रधानमंत्री और ब्राजील एवं दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपतियों की प्रिटोरिया शिखर बैठक का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। एक तरफ यूरोप के विकसित देश हैं और दूसरी तरफ इब्सा के देश और साथ ही रूस और चीन जैसे देश हैं। पेरिस में इब्सा को रूस और चीन के साथ तालमेल रखनी होगी जो उनसे साथ ‘ब्रिक्स’ (ब्राजील, इंडिया, चाइना, साउथ अफ्रीका) संगठन में शामिल हैं।
 इब्सा के घोषणा पत्र में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के कामकाज पर चर्चा की गयी। पर वह वर्तमान आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों को नहीं छूता। यह सच है कि इन दोनों संगठनों पर विकसित देश या और अधिक सही कहंे तो अमरीका हावी है। वर्तमान आर्थिक संकट की जड़ में इन संस्थानों के जो नुस्खे जिम्मेदार हैं उनके बारे में घोषणा पत्र में कुछ भी नहीं कहा गया है। यह अब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वर्तमान भूमंडलीय संकट पंूजीवाद का चक्रीय आर्थिक संकट नहीं है बल्कि यह संकट उस अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा निर्दिष्ट नीतियों के थोपने के कारण पैदा हुआ है जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने मुनाफों को अधिकाधिक बढ़ाना और हर हथकंडे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना है। न सिर्फ इन देशों के लोग कर्ज आधारित तौर तरीकों से जीवन गुजारते हैं बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था भी उन कर्जों एवं बोर्डों पर आधारित हैं जिन्हें इस तरह के संकट में दुनिया को धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त ने बढ़ावा दिया है। संकट से पार पाने के लिए विकसित देशों ने दिवालिया हुए बैंकों और वित्त संस्थानों को बेलआउट पैकेज देने और धाराशायी होती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कमखर्ची के कदम (ऑस्टेरिटी मेजर्स) उठाने के तरीके अपनाये। पर इससे संकट पर पार पाना तो दूर रहा, संकट और अधिक गहरा गया। हाल के दिनों में अमरीका और यूरोप के 1500 के करीब शहरों में लोग जिस तरह इन तरीकों के विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं वह इन देशों को राजनैतिक संकट की दिशा में ले जायेगा। 17 सितम्बर को न्यूयार्क में शुरू हुआ ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ आंदोलन अब तेजी से नये इलाकांे में फैल रहा है। सुदूर पूर्व जापान तक में जन प्रतिरोध की आंधी चल रही है। ग्रीस, जो पहले ही आर्थिक दिवालियेपन और धराशायी होने के कगार पर हैं वहांॅ जबर्दस्त विरोध आंदोलन हो रहा है। सरकार ताकत के बल पर उसे दबाने की कोशिश कर रही है। इस सप्ताह इटली में भी हिंसा हुई। संभव है स्पेन, पुर्तगाल और फ्रांस दिवालियापन के अगले शिकार बनें। कुछ दिन तक को सरकार विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन को दबाने में कामयाब रह सकती है वह दिन दूर नहीं जब यह आंदोलन वर्ग युद्ध की प्रकृति हासिल कर ले। अभी अधिकांशतः ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त और दिशाविहीन हैं। जो ताकतें अन्ततः वर्ग संघर्ष की जीत में यकीन करती हैं जरूरत है कि वे आगे आयें और समय रहते इसे एक सही आकार दें।
 इब्सा घोषणा पत्र में अरब जगत के संकट, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुर्नगठन जैसी प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनओं पर समन्वित कार्रवाई के बारे में बाते कहीं गयी हैं। उसमें सीरिया को एक मंत्री स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की बात भी कही गयी है ताकि अमरीका- ब्रिटेन- फ्रांस की तिकड़ी द्वारा लीबिया पर हमले की तरह की सीरिया पर किसी कार्रवाई को रोका जा सके। यहां तक तो ठीक है पर इब्सा देशों को खासकर भारत को उन नीतियांे पर ध्यान देना होगा जिन पर वह चल रहे हैं।
 डा0 मनमोहन सिंह के तहत यूपीए- दो सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे उसके एजेंट संगठनों द्वारा निर्दिष्ट आर्थिक नव उदारवाद के नुस्खे को पूरी तरह हृदयंगम कर रखा है। यूपीए- दो सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तो आर्थिक नव उदारवाद के अपरिहार्य सह उत्पादों- इसकी बुराईयों की बातें करती हैं पर देश में उन्हीं विनाशकारी नीतियों पर बेशर्मी के साथ अमल करी हैं। मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोजगारी और अमीरों एवं गरीबांे के बीच बढ़ती असमानता- ये सभी चीजें आर्थिक नव उदारवाद के उत्पाद हैं। देश में ऐसी ताकतें हैं जो जनता के दिलों- दिमाग पर पकड़ रखने वाले भावनात्मक मुद्दों को उछालकर जनता का ध्यान इन बुराईयों के बुनियादी कारणों से हटाने की कोशिश करेंगे। इस किस्म की गुमराह करने वाली कोशिशों से सावधान रहना होगा।
 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने व्यापक स्तर पर भूख हड़ताल के अभियान का आह्वान किया है। अच्छा होगा हम आर्थिक नव उदारवाद, अधिकांशतः पूंजीवाद परस्त पार्टियां जिसके लिए प्रतिबद्ध हैं, के विरूद्ध और अधिक सतत एवं संगठित आंदोलन के लिए इस भूख हड़ताल से शुरूआत करें।
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चार रुपये का मासिक पेंशन: योजना का कैसा मजाक?

चार रुपये का मासिक पेंशन: योजना का कैसा मजाक?
भारत सरकार हाल के दिनों में लगातार असंगठित मजदूरों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना का ढोल पीटती रही है। इसने नयी पेंशन योजना बनायी है, जिसमें कामगारों की योगदान राशि को निश्चित किया गया है, किंतु पेंशन कितना मिलेगा, इसका कोई आश्वासन नहीं है। नीचे कतिपय बीड़ी कामगारों की सूची और उन्हें मिलनेवाले पेंशन रकम उल्लिखित है, जिनसे पता चलता है कि कामगार पेंशन योजना 1995 के अंतर्गत किस प्रकार दृरिद्रों को मिलनेवाले पेंशन से भी कम मजदूरों का पेंशन निर्धारित किया गया है। उड़ीसा के बीड़ी मजदूर बिजली पटेल का पेंशन 4 रुपये मासिक निर्धारित किया गया है। क्या यह पेंशन योजना का मजाक नहीं है?
पेंशनरों के नाम          पेंशन रकम      पी एफ एकाउंट नंबर                    प्रदेश
बिजली पटेल              4/-                    ओआर438/705                              उड़ीस
मल्लाम्मा                  66/-                   एपी/5276/14950                            आंध्र प्रदेश
के. राजेश्वरी              42/-                   एपी/5276/14903                            आंध्र प्रदेश
इला बाई                  42/-                    एपी/5276/14908                            आंध्र प्रदेश
वेंकट लक्ष्मी             64/-                   एपी/5276/14944                             आंध्र प्रदेश
इमाम बी                  92/-                   एपी/5276/14932                             आंध्र प्रदेश
वी. राजेश्वरी             55/-                   एपी/5276/14892                             आंध्र प्रदेश
राजू                          66/-                   एपी/5207/6640                               आंध्र प्रदेश
वीरालक्ष्मी                54/-                   एपी/5276/14318                             आंध्र प्रदेश
आरूधाम                  47/-                    टीएन/8213/1549                            तमिलनाडु
रामायी                     93/-                   टीएन/8213/1522                             तमिलनाडु
सागर                      90/-                    टीएन 19844/91                              तमिलनाडु
एम. मुरगन             72/-                   टीएन 21270/2634                           तमिलनाडु
मुरगन                    94/-                   टीएन 9627/98                                 तमिलनाडु
जय लक्ष्मी            69/-                    टीएन 23092/120                             तमिलनाडु
मो. मेहबुबिया      134/-                    एपी/5276/14880                              आंध्र प्रदेश
...............            116/-                    एपी/8213/1563                                आंध्र प्रदेश
चौ. कट्टक्का        197/-                     एपी/5276/14953                              आंध्र प्रदेश
एम. मल्लम्मा    114/-                     एपी/5276/14902                              आंध्र प्रदेश
इंदराम               120/-                     टीएन 8213/1549                             तमिलनाडु
सेमिउल्लाह        132/-                    टीएन 19844/132                              तमिलनाडु
अल्लाबकश        163/-                    टीएन 18420/17                               तमिलनाडु
एम. राजी           107/-                    टीएन 21270/279                              तमिलनाडु
वी.पी.  समराज  184/-                     टीएन 18787/94                               तमिलनाडु
के. चेन्नप्पन      318/-                    टीएन 1270/2655                              तमिलनाडु
के.पी. मणि         150/-                   टीएन 18657/988                              तमिलनाडु
उपर्युक्त नाम केवल सांकेतिक उदाहरण है। अनुमान किया जाता है कि केवल बीड़ी मजदूरों की संख्या पांच लाख है, जिन्हें दो सौ  रूपये मासिक के आस-पास पेंशन निर्धारित किया गया है।
- सत्य नारायण ठाकुर
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“समानुपातिक प्रतिनिधित्व” के बिना चुनाव सुधार बेमानी

भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बिल के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले अराजनैतिक आन्दोलन के बीच स्वयंभू सिविल सोसाईटी ने चुनाव-सुधारों के लिए आन्दोलन चलाने की चर्चा शुरू कर दी थी। इस आन्दोलन की मीमांसा एक बहुत गहन और उलझा हुआ विषय है। हम उनके विभिन्न आयामों की चर्चा समय-समय पर करते रहे हैं।
चुनाव सुधारों के लिए आन्दोलन चलाने का जिक्र करते समय जिन दो सुधारों को बहुत उछाला गया, वे थे - ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ यानी सभी उम्मीदवारों को खारिज करने तथा निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार। प्रथम दृष्टि में ये नारे बहुत लुभावने लगते हैं। चुनावों में व्याप्त तमाम बुराईयों पर चर्चा के बिना ही इन दो अधिकारों की मांग करना उचित नहीं है।
चुनावों के दौरान जनता का बड़ा हिस्सा अभी भी वोट डालने से कतराता है। बहुदलीय लोकतंत्र में तकनीकी बहुमत पाने वाला उम्मीदवार जीत जाता है। चुनावों के दौरान बहुबल, धनबल, जातिबल, धर्मबल जैसे तमाम फैक्टर्स काम करते हैं। चुनाव अभी तक इन्हें रोकने की व्यवस्था नहीं कर सका है। बहुदलीय लोकतंत्र की रक्षा करना इस देश के तमाम शोषित, वंचित नागरिकों के साथ-साथ इस देश के मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत जरूरी है। ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ के अधिकारों के परिणाम बहुत खतरनाक भी साबित हो सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था में ये लोकतंत्र को ही अस्थिर कर सकते हैं।
स्वयंभू सिविल सोसाइटी की हां में हां मिलाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने जय प्रकाश नारायण का नाम लेते हुए मतदाताओं को ‘राईट टू रिकाल’ यानी निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत करना भी शुरू कर दिया है। क्षेत्र का विकास न होने के नाम पर जनता को भड़का कर विपक्षी दल के सांसद अथवा विधायक के खिलाफ इस अधिकार का उपयोग सत्ताधारी राजनीतिक दल किस प्रकार कर सकता है, इस पर विचार की जरूरत है। इन चर्चाओं के मध्य लाल कृष्ण आडवाणी ने दबे स्वर में दो दलीय लोकतंत्र की बात भी की है, जोकि भारतीय लोकतंत्र के लिए और भारतीय जनता के लिए अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
इन आवाजों के बीच हमारी पुराने मांग ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ का कहीं जिक्र तक नहीं आया जबकि ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ के जरिये हम चुनावों में व्याप्त वर्तमान तमाम बुराईयों को दूर कर सकते हैं। इस व्यवस्था में चुनाव छोटे-छोटे क्षेत्रों में न होकर राष्ट्रीय स्तर पर अथवा राज्य स्तर पर होता है। चुनाव उम्मीदवार नहीं बल्कि राजनैतिक दल लड़ते हैं। चुनावों में न्यूनतम मत पाने वाले राजनैतिक दलों को उनके द्वारा प्राप्त मतों के अनुपात में अपने-अपने प्रतिनिधि संसद और विधान मंडल में भेजने का अधिकार मिलता है।
इस प्रणाली के जरिये हम गुण्डों यानी बाहुबलियों और भ्रष्टों यानी धनबलियों के चुनावों पर प्रभाव को समाप्त कर सकते हैं। खर्चीले हो चुके चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा निजी धन लगाने को इसके द्वारा रोका जा सकता है जो राजनीति में भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारक है। राजनैतिक दलों को हर तीसरा नामांकन महिला से करने की बाध्यता के द्वारा हम संसद और विधायिकाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त तथा दल-बदल से भी निपटा जा सकता है। इसके जरिये हम लोक सभा एवं विधान सभा को पांच सालों तक बनाये रख सकते हैं।
इस पद्धति में जनता राजनीतिक दलों से अपना हम बेहतर तरीके से मांग सकती है और खरे न उतरने वाले दलों को चुनावों में खारिज कर सकती है। इस पद्धति में चुनावों पर धार्मिक, जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय संकीर्णताओं का प्रभाव भी काफी कम हो जायेगा।
चूंकि चुनाव सुधारों पर चर्चा चल ही चुकी है तो हमें जनता के मध्य अपनी पुरानी मांग - ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ प्रणाली को लागू करने की बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए और इसकी अच्छाईयों तथा बुराईयों पर चर्चा का माहौल बनाना चाहिए। चुनाव सुधारों के कोलाहल में हमें अपनी आवाज को दबने से बचाना होगा। चुनावी
सुधार के लिए आन्दोलन हमें खुद शुरू करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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गुरुवार, 17 नवंबर 2011

‘वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन का बेबाक संदेश

पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद वस्तुतः लोकतंत्र का निषेध है। यह बात पूंजीवाद का गढ़ अमेरिका में ही सिद्ध हो रही है, जहां लोगों ने एक फीसद धन पशुओं के खिलाफ 99 फीसद जनता का जनयुद्ध घोषित किया है। जनता के लिये जनता द्वारा जनता का जनतंत्र धनिकों के लिये धनिकों द्वारा धनिकों का धनतंत्र में तब्दील हो चुका है। ‘वालस्ट्रीट पर कब्जा करो’ के बैनर तले जुक्कोटी पार्क में बैठे नौजवान धनपशुओं के आवास मैनहट्टन में घुसकर लाभ-लोभ-लालच पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को ललकार रहे हैं। साम्राज्यवादी दौलत की विश्व राजधानी न्यूयार्क डगमगा रहा है। फलतः औपनिवेशिक लूट का जमा धन पर मौज-मस्ती करने वाले अपने ही घरेलू असंतोष से लड़खड़ाते यूरो- अमेरिकी साम्राज्यवादी फिर से जड़ जमाने के लिए अपने आक्रामक मिसायलों को अरब- अफ्रीका की तरफ भिड़ा दिया है। लेकिन क्या एशिया- अफ्रीका के जाग्रत जनगण अपने अजस्र कच्चामाल के स्रोत खनिज संपदा, तेल भंडार और सबसे बढ़कर सस्ता श्रम और विशाल उपभोक्ता बाजार को फिर से विकसित औद्योगिक राष्ट्रों का चारागाह बनने देंगे? निश्चय ही ऐसा इतिहास फिर से नहीं दोहरायेगा। वॉलस्ट्रीट में बैठे आंदोलनकारियों की स्पष्ट मांग है कि पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजनीति को आर्थिक समानता के साथ जोड़कर सार्थक जनवादी अर्थतंत्र बनाया जाय। उनका संदेश साफ हैः पूंजीवाद संकट पैदा करता है, स्वयं अपने लिये भी।
 ‘वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ (ऑक्यूपाई वाल स्ट्रीट) आंदोलन शुरू हुए एक महीना से ज्यादा हो गया है। ऑक्यूपाई वाल स्ट्रीट का ;व्ॅैद्ध प्रारंभ 17 सितम्बर, 2011 को हुआ, जब सैकड़ों युवक युवतियांॅ न्यूयार्क के जुक्कोटी पार्क में जाकर बैठ गयी तो फिर वहां से हटने का नाम नहीं लिया। जुक्कोटी पार्क न्यूयार्क का हृदयस्थल मैनहट्टन इलाका में है। मैनहट्टन क्षेत्र में अमेरिका के बड़े धनाढ़यो के आलिशान आवास और दैत्याकार कार्पोरेट कार्टेलो के मुख्यालय है। सब जानते हैं कि वाल स्ट्रीट दुनिया का सट्टाबाजार और वित्त पूंजी का पर्याय है। स्वाभाविक ही था कि आंदोलनकारियों ने इसे ही अपना लक्ष्य बनाया। आंदोलनकारियों का प्रकट गुस्सा कार्पोरेट लूट के खिलाफ है। इन्होंने अमेरिका के एक फीसद धनिकों के खिलाफ 99 फीसद आम लोगों का युद्ध घोषित किया है।
 देखते-देखते इस आंदोलन का फैलाव संपूर्ण अमेरिका, योरप और विकसित देशों मे हो गया। अमेरिका के प्रायः सभी शहरों में जुलूस निकाले जा रहे हैं। मुख्य रूप से इनका लक्ष्य बैंक और वित्तीय संस्थान हैं। सभी जगह स्टॉक मार्केट और बैंकों के सामने आक्रोशपूर्ण विरोध प्रदर्शन लगातार हो रहे हैं। अखबारों के मुताबिक दुनिया के कोई एक हजार से ज्यादा शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए।
कौन हैं ये आंदोलनकारी
 इस आंदोलन का नेतृत्व कोई राजनीतिक दल नहीं करता है। इसका कोई एक नेता भी नहीं है। कार्पोरेट लोभ-लालच विरोधी कनाडियन ग्रुप एडबस्टर्स ने एक बड़ा आकर्षक पोस्टर तैयार किया, जिसमें शेयर मार्केट का प्रतीक सांड और पृष्ठभूमि में उपद्रवी पुलिस ;त्वपज चवसपबमद्ध की आक्रमकता चित्रित है। पोस्टर को विगत जुलाई महीने में न्यूयार्क के व्यस्त इलाके में लगाया गया। पोस्टर में आक्यूपाई वाल स्ट्रीट की अपील है। इस पोस्टर ने जनता का ध्यान बड़े पैमाने पर खींचा। तब अगस्त महीना में एक आई टी विशेषज्ञ ओ ब्रीयन ने इंटरनेट पर ट्वीटिंग और बहुत कुछ प्रारंभिक प्रचारात्मक काम न्ै क्ंल व ित्ंहम नाम से किया। किंतु आम लोगों के बीच जाने और जन आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने की निर्णायक भूमि का श्रेय न्यूयार्क के युवकों, कलाकारों और छात्रों की एक संगठित टोली को है। ”न्यूयार्कर्स एगेंस्ट बजट कट“ के बैनर तले पहले भी एक बड़ा आंदोलन चलाने का तजुर्बा इस टोली को था। इन लोगों ने छात्र संगठनों और ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर न्यूयार्क सिटी के मेयर द्वारा बजट प्रावधानों में कटौतियां और ले-आफ के विरूद्ध ब्लूमबर्गविले कार्यालय पर तीन सप्ताहों तक कब्जा कर लिया था। इसमें इन्हें कामयाबी मिली। मेयर ने बजट के कई जन विरोधी प्रावधान वापस लिये। आंदोलन के इस व्यवहारिक अनुभव ने इन्हें उत्साहित किया और ये वाल स्ट्रीट कब्जा के लिए आगे बढ़े। कारपोरेट/कार्टेल के भ्रष्ट कारनामे और मुनाफा कमाने का अनंत लोभ ने अमेरिकी जनगण को उस चौराहे पर पहुंॅचा दिया है, जहांॅ से आगे बढ़ने के लिए उसे नया रास्ता की तलाश है।
 इस आंदोलन को नेतृत्व करने का दावा, कोई व्यक्ति या समूह नहीं करता है। सभी फैसले जुक्कोटी पार्क में बैठे जनरल एसेम्बली में आम राय से किये जाते हैं। वे विभिन्न कामों के लिये अलग-अलग समूहों में भी बैठते हैं, चर्चा करते हैं और निर्णय लेते हैं। कभी-कभी आम राय बनाने में कई दिन लग जाते हैं। तब आम राय बनती है तो पार्क में उल्लास छा जाता है। यह बड़ा ही उत्तेजित करने वाला प्रेरक प्रसंग है। इस आंदोलन की विशेषताओं को निम्न प्रकार दर्ज किया जा सकता है:-
न यह एक व्यापक जन आंदोलन है। इसका कोई एक नेता नहीं है और ना ही कोई एक निश्चित विचारधारा, जिसकी पहचान विद्यमान राजनीति के फ्रेमवर्क में की जा सके।
न फिर भी आंदोलन लक्ष्यविहीन नहीं है और ना ही है दिशा विहीन। यह निश्चय ही वर्तमान अर्थव्यवस्था के खिलाफ विस्फोट है।
न इस आंदोलन में अराजकतावादियों समेत विभिन्न मतावलंबियों का पंचमेल संगम प्रकट है। इसके बावजूद इनका मजबूत नेटवर्किंग है और फैसला लेने के लिये एक ‘जनरल एसेम्बली’ भी है, जहां आमराय से सभी फैसले किये जाते हैं।
न आंदोलन का अब तक कोई मांग पत्र (चार्टर) तैयार नहीं है, फिर भी इनके नारों में मांगे स्पष्ट है। जैसे कार्पोरेट/कार्टेल का भ्रष्टाचार, लूट और लाभ- लोभ का विरोध, सैन्य उद्योग समूह नष्ट करना, मृत्युदंड समाप्त करना, सबको स्वास्थ्य प्रावधान, आर्थिक विषमता और बेरोजगारी।
न इनके नारों में ‘मुनाफा के पहले जनता’ ;च्मवचसम इमवितम चतवपिजद्ध और सीधा लोकतंत्र ;क्पतमबज क्मउवबतंबलद्ध बहुत लोकप्रिय है।
न आंदोलन के स्वरूप के बारे में इनकी ‘जनरल एसेम्बली’ की एकमात्र पसंदीदा मार्ग है ”सीधी अहिंसक कार्रवाई“ ;छवद अपवसमदज क्पतमबज ।बजपवदद्ध
न अनेक स्थानों में पुलिस हस्तक्षेप और गिरफ्तारियों के बावजूद आंदोलन आश्चर्यजनक शांतिपूर्ण है।
न आंदोलन का मुख्य निशाना बैंक, शेयर बाजार और वित्तीय संस्थान है।
गैर बराबरी तबाही का कारण
 नौजवानों के इस आंदोलन ने निःसंदेह अमेरिकी समृद्धि के गुब्बारे की हवा निकाल दी है। अमेरिका के लाखों लोग आज फूड कूपन पर गुजारा करते हैं। वे स्वास्थ्य बीमा के कवरेज से बाहर है। बेरोजगारी दो अंकों को चूमने को है। आर्थिक विषमता और नाबराबरी का फर्क आकाश पाताल का है। सिर्फ 400 अमेरिकी धनाढ्यों के पास इतनी संपदा इकट्ठी हो गयी है, जो 15 करोड़ आम अमेरिकियों की कुल जमा संपत्ति से ज्यादा है। अर्थात नीचे के 90 प्रतिशत जनसंख्या की सम्मिलित कुल संपदा से ज्यादा धन महज एक प्रतिशत धनिकों के हाथों में बंद है। ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक अमेरिकी की कुल आर्थिक उपलब्धियों को 65 प्रतिशत केवल एक प्रतिशत धनी हड़प लेते हैं।
 जहांॅ तक कर्मचारियों के वेतन में व्याप्त विषमता का प्रन है न्यूयाक्र स्टाक एक्सचेंज में कार्यरत कर्मचारियों का औसत वेतन 3,61,330 डालर है, जो अमेरिका के अन्य निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों के वेतन की तुलना में साढ़े पांच गुना अधिक है। इसका अर्थ यह है कि औद्योगिक मजदूरों का वेतन वित्तीय क्षेत्र के मुकाबले साढ़े पांच गुना कम है। वर्ष 2010 के सर्वेक्षण के मुताबिक अमेरिका के 100 बड़ी कम्पनियों के प्रमुख कार्यकारी अफसरों का वेतन उस कम्पनी के द्वारा सभी तरह के टैक्स भुगतान की कुल धनराशि से ज्यादा था। प्रदर्शनकारियों ने बैनर लगाया है। ठंदामते ंतम इंपसमक वनजए ूम ंतम ेवसक वनज (बैंकर्स को राहत आम आदमी को आफत) प्रदर्शनकारी सख्त एतराज जताते हैं कि बैंकों के डूबने का जिम्मेदार आम आदमी नहीं है तो फिर आम आदमी बैंक डूबने की सजा क्यों भुगते?
 आम आदमी के कंधों पर वित्त संकट का हल निकाला जा रहा है। बैंक प्रमुखों के वेतन/पर्क्स नहीं काटे गये, जबकि कर्मचारियों का वेतन फ्रीज किया गया।
पूंजीवाद का अंतर्विरोध उबाल पर
 मंदी और वित्त संकट पर हाल के वर्षों में अनेक शोध ग्रंथ छपे हैं। उन शोध ग्रंथों की समीक्षा करते हुए प्रसिद्ध स्तंभकार निकोलस क्रीस्टौफ का न्यूयार्क टाइम्स मंे प्रकाशित एक आलेख काफी चर्चित हुआ है, जिसमें बताया गया है कि अमेरिका में उभर रही आर्थिक नाबराबरी न केवल सामाजिक तनाव पैदा करती है, बल्कि अर्थव्यवस्था को ही बर्बाद कर रही है।
 अर्थव्यवस्था के अमेरिकी शोधकर्ता कार्ल मार्क्स के कथन को सही ठहरा रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि पूंजीवाद अपना कब्र खुद खोदता है। सभी शोध ग्रंथों का निचोड़ है कि सरकार के बेल आउट पैकेजों के अपेक्षित परिणाम नहीं आये।
 कार्नल विश्वविद्यालय के प्रो0 राबर्ट फ्रैंक ने अपनी पुस्तक ”द डार्विन इॅकानामी“ में दुनिया के 65 औद्योगिक देशों की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया गया है। इसमें इस तथ्य को उजागर किया गया है कि अर्थव्यवस्था में ज्यादा विषमता की अवस्था विकास दर को धीमा करती है। पुस्तक में यह निचोड़ निकाला गया है कि आय में अपेक्षाकृत ज्यादा समानता विकास दर तेज करती है, जबकि विषम आय की अवस्था में स्लोडाउन देखा गया है।
 इन शोध ग्रंथों के हवाले से निकोलस क्रीस्टौफ लिखते हैं कि अमेरिका के मामले में इन शोध ग्रंथों का यह मंतव्य बिल्कुल सही है। 1940 से 1970 तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मजबूती से तेज विकास हुआ, क्योंकि लोगों ने ज्यादा समानता का उपभोग किया। उसके बाद विषमता फैली तो विकास धीमा दर्ज हुआ है। इसलिए आर्थिक विषमता जाहिरा तौर पर अर्थव्यवस्था को वित्तीय संत्राश और दिवालियापन में धकेलती है। (इंडियन एक्सप्रेसः 17 अक्टूबर, 2011)
एकमात्र पसंदीदा मार्ग
 इस आंदोलन के बारे में राजनेताओं में अल गौरे का बयान ध्यान देने लायक है। अल गौरे ने इसे ”लोकतंत्र का बुनियादी चित्कार“ ;च्तपउंस ैबतमंउे व िक्मउवबतंबलद्ध कहा है। अमेरिकी लोकतंत्र के बारे में प्रो0 नोम चौम्स्की का कथन है कि ”अमेरिका में लोकतंत्र काम नहीं करता है और यहां संसदीय पद खरीदे जाते हैं।
 पहले पहल अमेरिकी जनगण को इस तथ्य का अहसास हो रहा है कि राजनीतिक लोकतंत्र के साथ आर्थिक लोकतंत्र भी जरूरी है। लोकतंत्र की सार्थकता जनगण की आर्थिक खुशहाली में निहित है। अर्थपूर्ण लोकतंत्र के लिये जनगण की खुशहाली पहली शर्त है।
 कुछ दिन पूर्व एक अमेरिकी अर्थशास्त्री मुक्त बाजारवाद के गीत गाते थे। उनका उपदेश थाः सरकार का काम राज करना है। सरकार के लिए व्यापार और उद्योग परिचालन में दखल देना अनैतिक है। आज वे ही अर्थशास्त्री डूबे बैंकों को उबारने के लिये सरकारी सहायता के लिए हाथ फैला रहे हैं और सरकार भी मुक्तहस्त से उन्हें उपकृत भी कर रही है। यह बात जनता की समझ में आ गयी है कि सरकारी चिंता केवल कार्पोरेट मुनाफा को बचाने की है। इसलिये उन्होंने ‘मुनाफा के पहले इंसान’ ;च्मवचसम ठमवितम च्तवपिजद्ध का नारा दिया है।
 यहां यह बात खाश तौर पर गौर करने की है कि आंदोलनकारियों की रणनीति लंबी लड़ाई की है। इसलिये वे आंदोलन को शांतिपूर्ण बनाये रखने के लिए दृढ़ है। वे आंदोलन के दरम्यान ही संगठन का लोकतांत्रिक ढांचा भी तैयार करने में जुटे हैं। उनके सामने मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से जनता की व्यापक लामबंदी का प्रत्यक्ष इतिहास है। इसलिये आंदोलन की जनरल एसेम्बली ने काफी विचार विमर्श के बाद ”अहिंसक सीधी कार्रवाई“ ;छवद टपवसमदज क्पतमबज ।बजपवदद्ध को ”एकमात्र पसंदीदा मार्ग“ ;व्दसल बीवपबमद्ध का अवलंबन तय किया है। जाहिर है, लोक आकांक्षा की अभिव्यक्ति पर आधारित जनता का शांतिपूर्ण आंदोलनात्मक क्रियाकलाप एक शक्तिशाली विश्वव्यापी आयाम ग्रहण कर चुका है।
 आंदोलनकारी पूंजीवाद, समाजवाद जैसे प्रचलित जुमले इस्तेमाल नहीं करते हैं, पर वे कार्पोरेट लोभ और आर्थिक विषमता को बेबाक तरीके से बेनकाब करते हैं। इतना तय है कि अमेरिकी इतिहास में पहली मरतबा नौजवानों और आम लोगों ने बहुप्रचारित अमेरिकी समृद्धि पर सीधी ऊंगली उठायी है। पूंजी के जंगल में आग लगा चुकी है। यह दावानल रूकनेवाला नहीं है। इसे कतिपय रियायतों की घोषणा से दबाया नहीं जा सकता। यह संपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध प्रकट वर्ग युद्ध है। लोग समझने लगे हैं कि पूंजीवाद अपने आप में एक संकट है। पूंजीवाद समाधान नहीं है। जनगण की समस्याओं का समाधान कर पाने में विफल पूंजीवादी अर्थतंत्र में अंतर्निहित अंतविरोध का स्वतस्फूर्त विस्फोट है यह नौजवानों द्वारा शुरू किया गया आंदोलन। इसलिये ट्रेड यूनियनें, विभिन्न नागरिक समूह और आम लोग भी इसमें खींचते चले आ रहे हैं।
- सत्य नारायण ठाकुर
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आदिवासी महासभा का चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न

रायपुरः अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन यहां 15, 16 और 17 अक्टूबर को बिरसामुंडा नगर (विप्र सांस्कृतिक भवन) में शहीद वीर नारायण सिंह कांफ्रेंस हाल में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन का प्रारंभ 15 अक्टूबर, 2011 को एक अत्यंत शानदार रैली के साथ हुआ। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा और बस्तर जिलों के आदिवासियों ने अपनी परम्परागत पोशाकों में और अपने जनजातीय सांस्कृतिक जत्थों के साथ नाचते-गाते हुए इस विशाल रैली में भाग लिया। रैली छततीसगढ़ की राजधानी रायपुर के प्रमुख रास्तों से होकर गुजरी।
 गांधी मैदान में पहुंचकर यह रंगारंग रैली एक विशाल आमसभा में बदल गयी जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए0बी0 बर्धन के अलावा भारत जन आंदोलन के नेता डा0 बी0डी0 शर्मा, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविंद नेताम, जनक लाल ठाकुर, सुधा भारद्वाज, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो0 नंदिनी सुंदर, स्वतंत्रता सेनानी और रायुपर के पूर्व संसद सदस्य केयूर भूषण और मनीष कुंजाम ने संबोधित किया। रैली और आमसभा में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, मजदूर कार्यकर्ता समिति, भारत जन आंदोलन, जनशक्ति संगठन, जनाधिकार संगठन, एकता परिषद आदि अन्य कई आदिवासी संगठनों और एनजीओ ने भी हिस्सा लिया। वास्तव में यह छत्तीसगढ़ के उन आदिवासी संगठनों का एक संयुक्त कार्यक्रम था जो ”छत्तीसगढ़ बचाओं आंदोलन“ नाम से संघर्षरत जनसंगठनों को हाल ही में एक मंच बनाकर अधिकाधिक एकजुट होकर काम करने की कोशिश कर रहे हैं। आदिवासी महासभा के झंडे के तले उड़ीसा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से भी जनजाति रैलियां इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए पहंुची। केरल, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और गंुजरात से सम्मेलन में भाग लेने आये लगभग 400 डेलीगेटों ने इस रैली में हिस्सा लिया। रैली रेलवे स्टेशन से शुरू हुई और रायपुर के प्रमुख रास्तों से गुजरती हुई 6 किलोमीटर चलकर गांधी मैदान पहंॅुची।
 इस चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन के डेलीगेटों, पर्यवेक्षकों, अतिथियों एवं आमंत्रितों को संबोधित करते हुए अपने उद्घाटन भाषण में भाकपा महासचिव ए0बी0 बर्धन ने आदिवासी नौजवानों की युवा पीढ़ी का आह्वान किया कि वह जल, जंगल और जमीन पर अपने अधिकारों के लिए जनजातियों, आदिवासियों के आंदोलन को अपना सर्वोच्च कार्य- दायित्व समझकर आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लें ताकि आदिवासी लोगों के हितों पर कुठाराघात करने वाली नवदारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थकों को करारा जवाब दिया जा सके। का0 बर्धन 1957 में इस अखिल भारतीय महासभा की स्थापना सम्मेलन केे मार्गदर्शकों में से हैं।
 अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का यह चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन हर लिहाज से अत्यंत सफल रहा। भाकपा महासचिव ए0बी0 बर्धन, लोकसभा के पूर्व स्पीकर पी0ए0 संगमा, जन आंदोलन के नेता, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो0 नंदिनी सुंदर, एडवोकेट सुधा भारद्वाज, हीरा सिंह मरकम, नेताजी राजगडकर, छत्रपति साही मुंडा, बीपीएस नेताम, जी0आर0 राणा, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के सीनियर एडवोकेट कनक तिवारी, छत्तीसगढ़ के राज्य सभा संसद सदस्य नंदकुमार साई सम्मेलन कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि थे। विभिन्न सामाजिक आर्थिक समझ और संगठनात्मक हितों के बावजूद उनका सबका इस मामले में एक समान दृष्टिकोण था कि देश के दस करोड़ के लगभग आदिवासियों को उनकी दासता से मुक्ति के लिए और उनके विकास के लिए उनका संघर्ष एकताबद्ध तरीके से और निर्णायक तौर पर चलाया जाना चाहिए। ए0बी0 बर्धन ने आदिवासियों के हितों एवं ध्येय के लिए संघर्षरत सभी लोगों का आह्वान किया कि वे आदिवासियों द्वारा एक अखिल भारतीय कार्रवाई के लिए एक संयुक्त एवं एकताबद्ध कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने के लिए एक अखिल भारतीय संयुक्त संघर्ष समिति का निर्माण करें।
 पी0ए0 संगमा ने अपने संबोधन में कहा कि आदिवासी युवा अपने आपको किसी भी दूसरे से नीचा या कम न समझें उन्हें अपनी आदिवासी पहचान और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। आज जरूरत इस बात की है कि आदिवासी लोग अधिकाधिक शिक्षित हो जैसे कि मिजोरम में हुआ है।
नंदकुमार सांई ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए सवाल किया कि मुख्य धारा के लोग किस बात में अपने आपको आदिवासी लोगों की पहचान और संस्कृति से बेहतर समझते हैं जबकि हम देखते हैं कि आज शहरी समाज अपराध, भ्रष्टाचार और भ्रष्ट संस्कृति का इतना अधिक शिकार हो चुका है। उनके मुकाबले हम आदिवासी लोग अपनी ग्रामीण बस्तियों में अपनी आदिवासी दुनिया में इस तरह के प्रदूषित वातावरण से आज भी मुक्त हैं। हमारी परेशानी तो गरीबी और अशिक्षा है जिसके विरूद्ध हमें संघर्ष करना होगा और एकताबद्ध होकर कोशिश करनी होगी।
 16 और 17 अक्टूबर को सम्मेलन के डेलीगेट सभा को ए0बी0 बर्धन के अलावा पी0ए0 संगमा, डा0 बी0डी0 शर्मा, गोडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरा सिंह मरकम और नंदकुमार साई ने भी संबोधित किया। मनीष कुंजाम ने कार्य रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसके बाद विभिन्न राज्यों के 25 डेलीगेटों ने कार्य रिपोर्ट पर अपनी राय जाहिर करने के अलावा पिछले पांच सालों के दौरान अपने राज्यों में चलाये गये संघर्षों के बारे में बताया। कई डेलीगेटों ने बताया कि किस तरह राज्य सरकारों के समर्थन से कार्पोरेट घराने आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं और वनों को बर्बाद कर रहे हैं। उन्होंने रिपोर्ट की कि दलितों के पक्ष में संसद द्वारा बनाये गये कानूनों द्वारा आदिवासी लोगों को मिली अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है और आदिवासी इलाकांे के प्राकृतिक संसाधनों का बुरी तरह दोहन किया जा रहा है।
 सम्मेलन ने 9 से अधिक प्रस्ताव पारित किये जिनमें से एक प्रस्ताव का नाम है ”रायपुर घोषणा पत्र“। ”रायपुर घोषण पत्र“ में जागरूक आदिवासी संगठनों का आह्वान किया गया है कि वे एक मांग पत्र के आधार पर आदिवासियों द्वारा संघर्ष का एक राष्ट्रीय मंच बनाने के लिए आगे आयें और मिलकर काम करें। सम्मेलन ने तय किया कि मांग पत्र के सम्बन्ध में एक संयुक्त राष्ट्रीय अभियान खड़ा किया जाये और 2012 के अंत तक संसद के सामने आदिवासियों की एक विशाल रैली का आयोजन किया जाये।
 देश के विभिन्न भागों से आये 386 डेलीगेटों ने सम्मेलन में हिस्सा लिया। उनमें 167 डेलीगेट छत्तीसगढ़ से, 29 मध्य प्रदेश से, 13 राजस्थान से, 24 केरल से, 48 आंध्र प्रदेश से, 13 झारखंड से, 3 हिमाचल प्रदेश से, 4 गुजरात से, 12 महाराष्ट्र से, 43 पश्चिम बंगाल से और 30 ओड़िसा से थे। कुछ राज्यों से 17 पर्यवेक्षक भी सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए आये। सम्मेलन ने अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के निम्न नये पदाधिकारियों का चुनाव किया।
अध्यक्ष - मनीष कुंजाम;
महासचिव - छत्रपति साही मुंडा
वरिष्ठ उपाध्यक्ष - सी0आर0 बख्शी;
उपाध्यक्ष - मेघराज तावड़, जी0 डेमुडु, रामनाथ सर्फे, महावीर मांझी
उप महासचिव - शंकर नायक, सुखलाल गोडे
सचिव - एन0 राजन, शिव चरण मुंडा
 उपाध्यक्ष के एक पद को खाली रखा गया है जिसे तमिलनाडु से भरा जायेगा। तमिलनाडु में स्थानीय निकायों के चुनाव के कारण वहां से सम्मेलन में डेलीगेट नहीं आये। सचिव का एक पद भी खाली रखा गया है जिसे महाराष्ट्र आदिवासी महासभा के शीघ्र होने वाले राज्य सम्मेलन के बाद महाराष्ट्र से भरा जायेगा।
 राष्ट्रीय कार्यकारिणी में केरल से श्रीमती ईश्वरी रेसान और पी0 प्रसाद, आंध्र प्रदेश से रवीन्द्र कुमार, पी0 वेंकटेश्वर और कुंजा सिनू, मध्य प्रदेश से जानकी बाई और बैराग सिंह टेकस, राजस्थान से साधना मीणा और बाबूलाल कलसुआ, उड़ीसा से हलधर पुजारी और वासुदेव भोई, झारखंड से लक्ष्मी लोहारा, अनिल असुर और भूतनाथ सोरेन, महाराष्ट्र से गंगाधर नामदेव गेडाम और नामदेव कन्नाके, पश्चिम बंगाल से जीतू सोरेन, कोमल सरदार, सनातन किस्कू और विष्णु पाहन, गुजरात से धारूबाई शामाभाई वलावी, छत्तीसगढ़ रमा सोडी, नंदराम सोडी, श्रीमती कुसुम और रमेश गावडे और दिल्ली से प्रकाशचंद झा को शामिल किया गया।
 तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लिए हरेक के लिए एक स्थान खाली रखा गया है जो बाद में भरा जायेगा। असम, मणिपुर और त्रिपुरा से बाद में तीन नाम और शामिल करने के लिए तय किया गया।
 अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के नव निर्वाचित महासचिव छत्रपति साही मंुडा ने घोषणा की कि महासभा का अगला सम्मेलन तीन वर्ष बाद झारखंड में किया जायेगा। प्रतिनिधियों ने इसका स्वागत किया।
सम्मेलन के दौरान निम्न विषयों पर सेमिनारों का आयोजन भी किया गया -
1. आदिवासी समुदायों के संवैधानिक अधिकारों का दमन;
2. आर्थिक नीतियों का उदारीकरण और आदिवासी समुदायों पर इसका प्रभाव
  इन सेमिनारों के पी0ए0 संगमा, डॉ0 बी0बी0 शर्मा, अरविंद नेताम, बीपीएस नेताम, छत्रपति साही मुंडा, नंदकुमार साई, संजय पराटे और मुमताज भारती ने संबोधित किया। सेमिनार अत्यंत सफल रहे।
 डेलीगेट सत्रों का संचालन मीनष कुंजाम, श्रीमती ईश्वरी रेसान, मेघराज तावड़, जी0 डेमुडु, नामदेव कन्नाके, श्रीमती जानकी देवी, जीतू सोरेन और हलधर पुजारी ने किया। सभी डेलीगेट और आमंत्रित नये उत्साह और संघर्षों के लिए दृढ़ संकल्प के साथ अपने- अपने राज्यों को वापस गये।
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भारतीय खेत मजदूर यूनियन का राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न

कुरूक्षेत्र 16 अक्टूबर। भारतीय खेत मजदूर यूनियन के 12वें राष्ट्रीय अधिवेशन को आज सम्बोधित करते हुए भाकपा महासचिव का. ए. बी. बर्धन ने प्रतिनिधियों को आगाह किया कि बिना संगठन के कोई भी आंदोलन सफल नही होता। जब तक खेत मजदूरों का मजबूत संगठन नहीं होगा और लोगों को उसमें एक ताकत नजर नही आयेगी तब तक उनकी बातों को कोई नही सुनेगा। उन्होने पूरे देश से आये प्रतिनिधियों का आह्वान किया कि अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर यूनियन को मजबूत करने के लिये गांव-गांव में कमेटियों का गठन करें और खेत मजदूरों में वर्गीय चेतना पैदा करते हुए निचले स्तर पर आंदोलन को संगठित करें। उन्होंने आह्वान किया कि यूनियन की सदस्यता को बढ़ा कर दो गुना किया जाये।
देश में किसानों-मजदूरों के हालात लगातार खराब होते जाने के तथ्य का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें किसानों की बेशकीमती जमीनों का अधिग्रहण करके बड़े-बड़े सरमायेदारों को सेज़ आदि के नाम पर दे रही हैं, जिसके चलते किसानों को भी खेत मजदूरों की कतारो में शामिल होना पड़ रहा है। उन्होने कहा कि देश में खेत मजदूरों के पास रहने के लिए आवास की जगह नही है, मनरेगा में आकंठ भ्रष्टाचार है, खेत मजदूरों के लिए कोई कानून नही है, इन सब मांगों को लेकर खेत मजदूरों को अपनी आवाज बुलन्द करते हुए व्यापक तथा अनवरत संघर्ष चलाना होगा।
संप्रग सरकार को घपलों-घोटालों की सरकार बताते हुए उन्होंने कहा कि उसके कई मंत्री आज जेल में हैं लेकिन प्रधानमंत्री बड़ी बेशर्मी से विकास का राग अलापे जा रहे है और स्वंय को भष्ट्राचार के मामले में पाक-साफ बताते हुए नही थकते। संप्रग-1 सरकार के दौरान जहां महंगाई पर काफी हद तक नियंत्रण रहा तो वामपंथ के कमजोर होने के कारण संप्रग-2 सरकार ने महंगाई के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। उन्होंने कहा कि विपक्षी दल भाजपा के मुख्यमंत्री तक जेल में बंद है और कई अन्य नेता जेल की हवा खा रहे है। कंाग्रेस-भाजपा की आर्थिक नीतियों को एक बताते हुए उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की आर्थिक  नीतियों पर अमल के चलते आज कारर्पोरेट घराने और बड़े पूंजीपति लोगों की मेहनत को लूट कर बेहिसाब सम्पति के मालिक बन बैठे हैं। उन्होंने आगाह किया कि भ्रष्टाचार रोकने के लिये केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि सरकार की नव उदारवादी नीतियों को पलटना पड़ेगा। सम्मेलन को भाकपा की ओर से शुभकामनायें देते हुए का. बर्धन ने खेत मजदूरों के आन्दोलन को पार्टी की ओर से पूर्ण रुप से मदद करने का आश्वासन भी दिया।
उनके कुरुक्षेत्र पहुंचने पर सैंकड़ो लाल झंडे लगी मोटर साईकलों पर सवार नौजवानों ने जी.टी. रोड़ पीपली पर कामरेड बर्धन का गगनभेदी नारों से अभिनन्द किया गया और ढ़ोल-नगाड़ो तथा नारों के साथ जलूस की शक्ल में उन्हें सम्मेलन स्थल (भान सिंह भौरा नगर) लाये जहां प्रतिनिधियों ने खड़े होकर उनका अभिनन्दन किया। का. अजय चक्रवर्ती, का. नागेन्द्र नाथ ओझा सहित बीकेएमयू के नेतागण उन्हें मंच पर लाए।
बीकेएमयू के राष्ट्रीय सम्मेलन के पूर्व कामरेड अनन्त राम मैदान (थीम पार्क) में यूनियन के प्रदेष अध्यक्ष जिले सिंह पाल की अध्यक्षता में आयोजित अधिकार रैली का संचालन यूनियन के राज्य महासचिव दरियाव सिंह कश्यप ने किया। सभा में हरियाणा के विभिन्न जिलों के अलावा पंजाब के पटियाला से हजारों की संख्या में खेत मजदूरों ने भाग लिया।
भाकपा की राष्ट्रीय परिषद की सचिव का. अमरजीत कौर ने विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार ने जीवन को नरक बना दिया है। आज मजदूरों खासकर खेत मजदूरों के लिए न आवास की जगह है न दवाई और शिक्षा का कोई प्रबन्ध है। दूसरी ओर धनकुबेरों के धन का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता, एक-एक धनपति के पास 26-26 मंजिले मकान हैं, उनकी दैनिक आमदनी लाखों करोड़ो में है। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे अपने तमाम मंत्रियों के बीच खड़े मनमोहन सिंह स्वयं को बार-बार पाक साफ कहते नहीं थकते। उन्होंने राष्ट्रीय व अर्न्तराष्ट्रीय घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि पूंजीवाद के रहते दुनिया से आतंकवाद, भ्रष्टाचार और गरीबी नहीं मिट सकती। इसलिए मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों को मिलकर पूंजीवाद व्यवस्था को ही समाप्त करके समाजवादी व्यवस्था कायम करनी होगी।
भाखेमयू के राष्ट्रीय महासचिव नागेन्द्र नाथ ओझा ने सभा को सम्बोधित करते हुए खेत मजदूरों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाने का जिक्र करते हुए कहा कि मनरेगा से कुछ आस थी लेकिन इस पर भी ईमानदारी से अमल नहीं हुआ और अन्य कानूनों की तरह यह भी दम तोड़ रहा है। उन्होंने कहा कि भाखेमयू का कुरूक्षेत्र में हो रहा 12वां सम्मेलन खेत मजदूरों के आन्दोलन में मील का पत्थर सबित होगा।
सभा को यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद अजय चक्रवर्ती, पंजाब खेत मजदूर सभा के महासचिव गुलजार सिंह गोरिया, भाकपा राज्य सचिव रघुबीर सिंह चौधरी, भाकपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व विधायक डा. हरनाम सिंह, यूनियन की जनरल कौसिंल के सदस्य प्रेम सिंह आदि नेताओं ने सम्बोधित किया।
16 अक्टूबर को कामरेड भान सिंह भौरा नगर (पंजाबी धर्मशाला) में भाखेमयू का 12वां राष्ट्रीय महाधिवेषन पंजाब में आतंकवाद के दौर में आतंकवादियों से लड़ने वाले खेत मजदूर यूनियन के प्रसिद्ध नेता स्वर्ण ंिसंह नागो के द्वारा झण्डा फहराने के साथ विधिवत रूप से शुरू हुआ। सम्मेलन में देश भर से लगभग 600 प्रतिनिधि के साथ ही फ्रांस की ट्रेड यूनियन - ‘सीजीटी’ के राष्ट्रीय सचिव क्रस्टियन एल्यूम एवं ‘इन्टरनेशल ऑफ वर्करस इन एग्रीकल्चर’ के सचिव जूलियन हक भी शामिल हुए। दोनों विदेशों बिरादराना मेहमानों ने सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए खेत मजदूरों के आन्दोलन की सफलता की आकांक्षा व्यक्त की। सम्मेलन की अध्यक्षता अजय चक्रवर्ती, के. इस्माईल, जी. मल्लेष, एन. जतीश्वर, विश्वनाथ षास्त्री, दरियाव सिंह कश्यप, के. रत्नाकुमारी, गुलजार सिंह गौरिया के अध्यक्ष मण्डल ने की।
भाखेमयू के महासचिव नगेन्द्र नाथ ओझा ने रिपोर्ट का मसविदा पेश किया है। सम्मेलन के आरम्भ में भाखेमयू के राष्ट्रीय सचिव वी. एस. निर्मल ने आलोच्य अवधि में दिवंगत हुए सथियों के प्रति श्रद्धांजलि प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिस पर सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधियों ने दिवंगत साथियो को खड़े होकर मौन श्रृद्धांजलि दी।
सम्मेलन ने मनरेगा में भ्रष्टाचार दूर करने, 200 दिन काम देने और 200 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी की दर रखने की मांग की। उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों को मंहगाई का जिम्मेदार बताते हुए सम्मेलन ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत कर उसे सार्वभौमिक बनाने की मांग की। भूमिहीनों को बीपीएल में शामिल कर 1 रुपये की दर से पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न मुहैया कराने तथा भोजन और पोषण के अधिकार को बुनियादी अधिकार घोषित करने की मांग की गयी। एक अन्य प्रस्ताव में दलितों व महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचारों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि अनूसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए संवैधानिक बचाव किया जाये और साथ ही अत्याचार निरोधक कानून 1989 और अनूसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति आयोग, मानवाधिकार आयोग अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण आदि संस्थानों के कार्यों की समीक्षा के साथ-साथ अत्याचार निरोधक कानून पर सख्ती से अमल कर अपराधियों की सजा में वृद्धि करने की मांग की गयी। सम्मलेन में केन्द्र और राज्य सरकारों से मांग कि गई कि 55 वर्ष की उम्र से सभी खेत मजदूरों के लिए पेंशन कानून बनाकर 2000 रुपये मासिक पेंशन दी जाये।
महासचिव द्वारा पेश कार्यवाही रिपोर्ट पर धीरेन दास गुप्ता, रामकृष्ण पांडा, के. ई. हनीफा, मनोहर टकसाल, ए. राममूर्ति, जी मल्लेश विधायक, जे. विल्सन एमएलसी, देवी दीन यादव, संजीव राजपूत, ओपेन्द्र चौरसिया, विश्वनाथ शास्त्री, फूल चंद यादव, गुलजार सिंह गोरिया, स्वर्ण सिंह नागोके, दरियाव सिंह कश्यप, जिले सिंह आदि ने सकरात्मक विचार रखे और खेत मजदूरों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए मजबूत संगठन बनाने पर जोर दिया। चर्चा के बाद महासचिव के उत्तर देने के बाद रिपोर्ट को सर्वसम्मति से पारित किया गया। सम्मेलन ने ए. रामामूर्ति द्वारा पेश क्रेंडिशियल कमेटी की रिपोर्ट तथा वी. एस. निर्मल द्वारा पेश आय-व्यय की रिपोर्ट भी पारित की। अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय सचिव सुनीत चोपड़ा ने सम्मेलन की सफलता की कामना की। महाधिवेशन को सम्बोधित करते हुए एटक की सचिव अमरजीत कौर ने कहा कि कांग्रेस-भाजपा आर्थिक नीतियों का गन्दा खेल चला रही हैं, जिससे देश भर में महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। 8 नवम्बर को ट्रेड यूनियनों द्वारा जेल भरो-रास्ता रोका-रेल रोको अन्दोलन चलाया जायेगा। सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव अतुल कुमार अंजान ने केन्द्र और राज्य की कांग्रेस सरकार पर बरसते हुए कहा कि सरकार जनता पर कोढ़ की तरह चिपकी हुई है जिसे हटाने के लिए आंदोलन तेज करना होगा। भारतीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) की राष्ट्रीय महासचिव एनी राजा, अखिल भारतीय नौजवान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कामरेड कश्मीर सिंह गदईया, आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के केन्द्रीय वित सचिव एवं हरियाणा संयोजक रोशन लाल सुचान, हरियाणा बैंक इम्पलाइज फेडरेशन के महासचिव एन. पी. मुजंाल आदि नेताओं ने अपने-अपने संगठनों की ओर से सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधियों का अभिनंदन करते हुए सम्मेलन की सफलता की कामना की।
सम्मेलन ने 131 सदस्यों की जनरल कौसिंल का चुनाव किया गया और 35 सदस्यों की केन्द्रीय कार्यकारिणी निर्वाचित करने के साथ-साथ के. ई. इस्माईल को अध्यक्ष, जी. मल्लेश, विश्वनाथ शास्त्री, सिद्दी वैंक्टश्वरलू, धीरेन दासगुप्ता एवं आर. मुथरसन को उपाध्यक्ष, नागेन्द्र नाथ ओझा को महासचिव, विजेन्द्र सिंह निर्मल, गुलजार सिंह गोरिया, जे. विल्सन, जानकी पासवान व सुरेन्द्र राम को सचिव एवं दरियाव सिंह कश्यप को कोषाध्यक्ष चुना गया।
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अंजुमन तरक्की पसंद मुसनफीन का राष्ट्रीय सम्मेलन

कोलकाताः रचनात्मक लेखन के जरिए तर्कबुद्धिवाद, मानव मूल्यों, समानता, शांति, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के लिए अपनी प्रतिद्धता को दोहराते हुए अंजुमन तरक्कीपसन्द मुसनफीन (प्रगतिशील लेखक संघ- उर्दू) ने 29 और 30 अक्टूबर को यहां मुस्लिम हॉल में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में लेखकों, कवियों, साहित्य- आलोचकों और बुद्धिजीवियों का आह्वान किया कि वे पहले से अधिक सतर्क एवं सक्रिय रहें क्योंकि आज की चुनौतिया पहले कभी से अत्यंत गंभीर हैं।
 सम्मेलन में देश के 10 राज्यों से आये 102 डेलीगेटों समेत एक हजार से अधिक लोग शामिल थे। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रख्यात शायर और गीतकार अख्तर जावेद ने कहा कि 1930 के मध्य दशक में जब प्रगतिशील लेखक संघ बना था उस समय अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी को खत्म करना मुख्य लक्ष्य था, पर आज हमारे सामने उससे भी अधिक दुश्मन और चुनौतियां हैं। स्वाधीनता संघर्ष में और स्वाधीनता के बाद सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के लिए संघर्ष में लेखकों एवं कवियों द्वारा गौरवपूर्ण योगदान को याद कराते हुए जावेद अख्तर ने कहा कि भूमंडलीकरण ने हमारे सामने दो चुनौतियां पेश कर दी हैं। एक तरफ, जो लोग एक धु्रवीय व्यवस्था थोपना चाहते हैं और समाज एवं प्रकृति प्रदत्त समस्त चीजों को हड़पना चाहते हैं, वे तमाम उदात्त मानवीय मूल्यों एवं परम्पराओं पर हमले कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ टेक्नालोजी का विकास आम जनगण से सम्प्रेषण करने के प्रश्न पर गंभीर खतरा पेश कर रहा है। ‘हम’ का स्थान ‘मैं’ ले रहा है। उन्होंने फिल्म उद्योग का उदाहरण दिया और कहा कि 1960-60 के दशकों में फिल्में आम लोगों के जीवन और समस्याओं को प्रदर्शित करती थी जबकि आज की फिल्मों का मनोरंजन के जरिए पैसा कमाने के लिए पूरी तरह व्यवसायीकरण किया जा रहा है। कम्प्यूटर के आविष्कार और सम्प्रेक्षण के नये मंच के कारण पैदा होने वाली समस्याओं का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन नये रूपों का इस्तेमाल करने की संस्कृति को विकसित करना होगा।
 उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात विद्वान एवं धर्मनिरपेक्षता के एक योद्धा डा0 असगर अली इंजीनियर ने कहा कि धार्मिक रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी ताकतों का खतरा कई गुना बढ़ गया है। ये विचारधाराएं केवल आतंकवाद को ही नहीं पैदा करती और बढ़ाती बल्कि वे वास्तव में तमाम मानवीय मूल्यों एवं संस्कृति को बरबाद करने पर आमादा हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ हमेशा से तर्कसंगत सोच पर डटा रहा है और आज यह और भी अधिक जरूरी हो गया है कि हम इस परम्परा पर दृढ़तापूर्वक चलें। आम जनता जिन परेशानियों- मुसीबतों से दो-चार हैं उन्हें सामने लाते हुए धर्मनिरपेक्षता और तर्कसंगत सोच को आगे बढ़ाना है। उन्होंने कहा कि ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ का जो आंदोलन न्यूयार्क से शुरू होकर यूरोपीय संघ देशों के 1500 शहरों तक फैल चुका है उसने उन एक प्रतिशत लोगों को, जो सब कुछ हड़पना चाहते हैं और ऐसी व्यवस्था थोपना चाहते हैं जिसमें जनता की कोई आवाज न हो, जनता की कोई सुनवाई न हो, अपना निशाना बनाते हुए एक नया नारा दिया है ”हम 99 प्रतिशत हैं“
 कोलकाता सम्मेलन की पृष्ठभूमि में जाते हुए बहुभाषी प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव डा0 अली जावेद ने कहा कि उर्दू के रचनाकार लेखकों का एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का फैसला 1975 में प्रगतिशील लेखक संघ फेडरेशन के गया सम्मेलन में लिया गया था। उसके अनुसार 1976 में इसे दिल्ली में गठित किया गया। गठन के बाद पहले दशक में इसने ठीकठाक काम किया पर जब इसके महासचिव डा0 कमर रईस को पेशेवर नियुक्ति पर देश से बाहर जाना पड़ा तो संगठन का काम ठप्प हो गया। 1995 में हैदराबाद में एक सम्मेलन किया गया। पर नया नेतृत्व एक नियमित तरीके से इसकी गतिविधियां नहीं चला पाया। इसके विभिन्न कारण थे। अन्ततः 2008 में आजमगढ़ में एक सम्मेलन किया गया और नया नेतृत्व कई राज्य इकाईयों को फिर से सक्रिय कर सका। यह सम्मेलन निर्धारित समय पर हो रहा है, इसमें 10 राज्यों के प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे हैं।
 उद्घाटन सत्र को उर्दू माहनामा हयात के सम्पादक शमीम फैजी, डा0 शारीब रूदौलवी, डा0 खगेन्द्र ठाकुर और प्रो0 लुतुर रहमान ने भी संबोधित किया। पश्चिम बंगाल प्रगतिशील लेखक संघ के अमिताभ चक्रवर्ती और पश्चिम बंगाल प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी) के बृजमोहन ने अपने संगठनों के अभिनन्दन संदेश पढ़े। अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ के महासचिव डा0 मुरली मनोहर  प्रसाद सिंह और प्रगतिशील लेखक संघ के वेटरन और रोजाना आबशार के संपादक सालिक लखनवी और अकील रिज्वी जैसे लोगों के भी अभिनन्दन संदेश मिले। पीडब्लूए (उर्दू) की महासचिव डा0 अर्जुमंद आरा ने उद्घाटन सत्र की कार्यवाही का संचालन किया। मुख्य आयोजनकर्ता जमील मंजर ने स्वागत भाषण पढ़ा।
 सम्मेलन की एक विशेष बात थी महिलाओं की बड़ी संख्या में शिरकत जो न केवल दूसरे राज्यों से बल्कि मेजबान राज्य से भी आयी। मंच का नाम डा0 राजबहादुर गौड़ के नाम पर रखा गया जिनका 7 अक्टूबर को निधन हो गया था।
 उद्घाटन सत्र के बाद दो दिनों में दो और सत्र हुए। ”75 वर्ष और लेखकों की जिम्मेदारियां” पर बड़ा अच्छा सेमिनार हुआ। देश भर से आये सम्मेलन में शिरकत करने वाले 23 लोगों ने उद्घाटन सत्र के दौरान व्यक्त भावना का प्रदर्शन किया और अत्यंत उपयोगी सुझाव एवं राय दी। इलाहाबाद के डा0 अली अहमद फातमी ने साहित्य एवं संस्कृति पर भूमंडलीकरण के असर पर विस्तारपूर्वक बातें की और कहा कि बहुराष्ट्रीय निगमों का हमला उस हमले से भी अधिक गंभीर है जिससे हमें उस वक्त दो चार होना पड़ा था। जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ब्रिटिश उपनिवेशीकरण शुरू किया था। विचार विमर्श में हारून बीए, लतीफ जाफरी एवं एम0 हबीब (दोनों महाराष्ट्र से), फखरूल करीम, शाहीना रिजवी, डा0 तसद्दुक हुसैन एवं नरगिस फातिमा (उत्तर प्रदेश से), सलमान खुर्शीद एवं शकील अफरोज (पश्चिम बंगाल से), शाहिद महमूद (आंध प्रदेश से) डा0 सरवत खान (राजस्थान), डा0 अफसाह जफर, कृष्णानंदन एवं लुफ्तुर रहमान (बिहार), डा0 बदर आलम (झारखंड), डा0 अबु बकर अब्बाद एवं डॉ0 काजिम (दिल्ली) के अलावा आरिफ नकवी ने भी भाग लिया जो सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए खासतौर पर बर्लिन से आये थे। नकवी ने सत्रों को भी संबोधित किया। ख्वाजा नसीम अख्तर ने कार्यवाहियों का संचालन किया।
 अगले दिन की सुबह कोलकाता के प्रख्यात उर्दू शायर परवेज शाहिदी की जन्मशताब्दी जयन्ती को समर्पित थी। डा0 अफसाह जफर ने परवेज शाहिदी के जीवन एवं कृतित्व पर एक बड़ा ही दिलचस्प पेपर पढ़ा। परवेज शाहिदी एक शायर तो थे ही वह अपने जमाने के एक जाने- पहचाने कम्युनिस्ट नेता भी थे। इस प्रसंग में लेखकों एवं कवियों द्वारा सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने के बारे में एक सवाल उठाया गया। सम्मेलन में शिरकत करने वाले अनेक लोगों ने मखदूम मोहिउद्दीन और पाब्लो नेरूदा के उदाहरा बताये जो महान कवि भी थे और साथ ही महान राजनेता भी। यह उल्लेख किया गया कि परवेज शाहिदी को वह अहमियत नहीं मिली जिसके वह हकदार थे। डा0 आसिम शाहनवाज शिब्ली ने कार्यवाहियों का संचालन किया।
 अंतिम सत्र में संगठन पर विचार-विमर्श हुआ। अर्जुमंद आरा ने आजमगढ़ सम्मेलन के बाद से किये गये कामों पर रिपोर्ट पेश की। प्रगतिशील लेखक संघ (उर्दू) के भावी ढांचे पर दिलचस्प, कभी-कभी गर्मागर्म बहस हुई। गया के इस फैसले की फिर से पुष्टि करने के लिए कि प्रगतिशील लेखक संघ (उर्दू) बहुभाषी प्रगतिशील लेखक संघ (संघात्मक इकाई) का एक सम्बद्ध संगठन है, एक प्रस्ताव पारित किया गया।
 नये पदाधिकारियों की सूची का अनुमोदन किया गया जिसमें संरक्षकों का एक पैनल, एक अध्यक्षमंडल और एक सचिव मंडल शामिल है। रतन सिंह, कश्मीरी लाल जाकिर, डा0 अकील रिज्वी, जोगिन्दर पाल, इकबाल मजीद सालिक लखनवी, डा0 असगर अली इंजीनियर, इकबाल मतीन, आबिद सुहैल और जावेद अख्तर जैसे उर्दू के बड़े लेखक और कवि संरक्षक मंडल में हैं। डा0 शारिब रूदौलवी अध्यक्षमंडल के चेयरमैन हैं। डा0 अली अहमद फातमी और डा0 अर्जुमंद आरा को नये महासचिव चुना गया। नुसरत मोहिउद्दीन, हरगोविन्द शाह और डा0 शाहिनी परवीन को सचिव चुना गया। जमील मंजर, जिन्होंने इस दो दिवसीय सम्मेलन के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, कोषाध्यक्ष चुना गया। 21 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति चुनी गयी जिसकी वर्ष में एक बार बैठक होगी। बिहार प्रगतिशील लेखक संघ ने पहली कार्यकारिणी की बैठक की मेजबानी के लिए और इलाहाबाद ने दिसंबर में पदाधिकारियों की पहली बैठक के लिए मेजबानी की दावत दी।
 मुस्लिम इंस्टीट्यूट हॉल में एक मुशायरे के साथ दो दिवसीय सम्मेलन का समापन हुआ। मुशायरे में देश के विभिन्न हिस्सों से आये शायरों ने अपने गजलें और नज्में सुनायी। मुशायरा सुनने के लिए बड़ी तादाद में लोग आये।
 95 वर्षीय सालिक लखनवी उन बहुत ही चंद लोगों में से है जिन्होंने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में भाग लिया था। वह इस सम्मेलन में नहीं आ पाये। डॉ0 अली जावेद, डा0 अर्जुमंद आरा और शमीम फैजी उनसे मिलने उनके आवास पर गये और प्रगतिशील लेखक संघ के इस वेटरन के लिए खासतौर पर तैयार किया गया मीमेंटो (स्मृति चिन्ह) उन्हें भेंट किया।
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नौजवान सभा का राज्य सम्मेलन गाजियाबाद में सम्पन्न

गाजियाबाद 16 अक्टूबर। 15-16 अक्टूबर 2011 को गाजियाबाद में अखिल भारतीय नौजवान सभा, उत्तर प्रदेश का राज्य सम्मेलन उत्साहपूर्ण माहौल में सम्पन्न हुआ। राज्य सम्मेलन 15 अक्टूबर 2011 को प्रातः सेठ मीनामल धर्मशाला के सभागार में विनय पाठक, निधि चौहान तथा जावेद खान सैफ के अध्यक्षमंडल की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुआ।
सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने उदारीकरण एवं निजीकरण की प्रतिगामी आर्थिक नीतियों पर प्रहार करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार एवं उत्तर प्रदेश सरकार ने पूंजी परस्त नीतियों पर चल कर नौजवानों के भविष्य को खतरे में डाल दिया है। सरकारों द्वारा निर्धारित नीतियों के कारण देश में विषमतायें बढ़ती चली जा रही हैं। गरीब और गरीब होता चला जा रहा है और देश की पूंजी चंद अमीरों के पास एकत्रित हो गई है। सब कुछ बाजार के लिए खोल दिया गया है। नौजवानों की बेरोजगारी दूर करने, अच्छी एवं निःशुल्क शिक्षा देने, स्वास्थ्य की देखरेख करने की सारी जिम्मेदारी सरकारों ने अपने कंधों से उतार कर बाजार की शक्तियों को दे दी है। इसी कारण समाज में भ्रष्टाचार की सारी सीमायें टूट गई हैं और काला धन विदेशी बैंकों में जमा हो रहा है। यह काला धन एक अपसंस्कृति को जन्म दे रहा है। उन्होंने नौजवानों का आह्वान किया कि वह अपने संगठित एवं संयमित आन्दोलन से इन परिस्थितियों को बदलें और सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षों को आयोजित करें।
उद्घाटन भाषण के पूर्व शहर के प्रसिद्ध समाजसेवी एवं पत्रकार तथा सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष शकील अहमद सैफ ने उपस्थित प्रतिनिधियों एवं आगन्तुकों को सम्बोधित करते हुए कहा कि गाजियाबाद 1857 की क्रान्ति का प्रमुख केन्द्र था और कई बार बंटने के बावजूद क्रान्ति की ज्वाला यहां निरन्तर प्रज्वलित है। उन्होंने आशा जताई कि सम्मेलन के प्रदेश के कोने-कोने से आये प्रतिनिधिगण गाजियाबाद की क्रान्तिकारी धरा से संघर्षों के ऐसे संकल्पों को लेकर अपने-अपने इलाकों को वापस जायेंगे कि पूरे प्रदेश में सामाजिक परिवर्तन के संघर्षों की प्रचण्ड ज्वाला दहक उठे।
नौजवान सभा के राष्ट्रीय महामंत्री पी. सन्दोश ने उद्घाटन सत्र में सम्मेलन के प्रतिनिधियों तथा अतिथियों को मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित करते हुए कहा कि नौजवान सभा पूरे भारत में नौजवानों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है। नौजवान सभा ने ही सबसे पहले 18 वर्ष की उम्र में वोट डालने के अधिकार की मांग उठाई थी। उसके संघर्ष के कारण ही आज नौजवान 18 वर्ष की उम्र में वोट डालने का अधिकार प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि नौजवान सभा भ्रष्टाचार, मंहगाई तथा रोजगार प्राप्त करने के लिए निरन्तर संघर्ष जारी रखेगी। उन्होंने कहा कि इस समय नौजवानों में भारी नाराजगी है और हमें इस गुस्से को सकारात्मक संघर्ष में बदलना है। उन्होंने नौजवानों को बताया कि भारत ही नहीं वरन् दुनिया भर के नौजवान आज संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने आशा व्यक्त की कि उत्तर प्रदेश के नौजवान भी इन संघर्षों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देंगे।
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य अरविन्द राज स्वरूप ने कहा कि नौजवानों को भगत सिंह के सपने साकार करने हैं और देश में समाजवाद स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त करना है। पूंजीवादी शोषण से मुक्ति ही नौजवानों की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगी। उन्होंने आशा व्यक्त की कि मजबूत नौजवान सभा समाज में आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक बनेगी।
प्रथम दिन के प्रतिनिधि सत्र में संयोजक नीरज यादव ने राजनीतिक एवं सांगठनिक रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में 5 अगस्त 2010 से सांगठनिक कार्यों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि अगस्त 2010 में गठित संयोजन समिति के निर्णयों के अनुसार 23 सितम्बर 2010 को कानपुर में कन्वेंशन किया गया तथा राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रदेश से प्रतिनिधियों को भेजा गया। विभिन्न जिलों में बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, पब्लिक स्कूल, विद्यालयों तथा विश्विद्यालयों में बढ़ी फीसों के विरूद्ध धरने-प्रदर्शन किये गये। 12-13 अगस्त 2011 को लखनऊ में सम्पन्न स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के प्लेटिनम जुबली समारोह में विभिन्न जिलों के नौजवानों ने इंतेजाम करने में भरपूर सहयोग किया। 28 सितम्बर 2011 को लखनऊ विधान सभा/झूले लाल पार्क में 500 नौजवानों-छात्रों ने जुलूस निकाल कर एक दिवसीय धरना दिया। तमाम जिलों में सदस्यता अभियान चलाया गया जिनमें से 16 जिलों में सम्मेलन सम्पन्न हो चुके हैं। बाकी जिलों में सम्मेलन करवाने का प्रयास जारी है। रिपोर्ट में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं की भी विशद चर्चा की गयी।
सम्मेलन के दूसरे दिन विभिन्न जिलों से आये 26 प्रतिनिधियों ने संयोजक की रिपोर्ट पर बहस में भागीदारी की तथा रिपोर्ट को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। रिपोर्ट अंगीकृत करते हुए सम्मेलन ने सदस्यता को 15 हजार से बढ़ाकर एक लाख करने, राज्य केन्द्र को संसाधनों से लैस करने, संगठन चलाने के लिए कोष एकत्रित करने तथा बैंक खाता खोलने का संकल्प किया गया।
इस सत्र में नौजवानों को सम्बोधित करते हुए नौजवान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष आफताब आलम ने नौजवानों को अनगिनत समस्याओं का उल्लेख करते हुए प्रदेश के नौजवानों का आह्वान किया कि वे पूरे प्रदेश में संगठित होकर देश की नियति को बदलें। आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन की राज्य संयोजिका कु. निधि चौहान ने भी प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया।
अपने सारगर्भित उद्बोधन में मेरठ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. आर.बी.एल. गोस्वामी ने नौजवानों का आह्वान किया कि वे भ्रष्टाचार और पूंजीवादी शोषक व्यवस्था को बदलें। उन्होंने कहा कि वह जामवंत की भूमिका में हनुमान को उनकी ताकत का आभास करवाने के लिए आये हैं। उन्होंने कहा कि आज की भ्रष्ट व्यवस्था में अभी भी साम्यवादी नेताओं के ऊपर एक भी उंगली नहीं उठी है। उन्होंने नौजवानों से कहा कि वह अन्याय और असमानता पैदा करने वाले कारणों के विरूद्ध जमकर संघर्ष करें। डा. गोस्वामी के उद्बोधन को खचाखच भरे सभागार में श्रोताओं ने बड़े मनोयोग से सुना।
सम्मेलन के अंतिम सत्र में 35 सदस्यीय राज्य कौंसिल का सर्वसम्मति से चुनाव किया गया। नई राज्य कौंसिल ने विनय पाठक को अध्यक्ष, जावेद खान सैफ, मुन्नी लाल दिनकर, आफताब हुसैन रिजवी तथा राज करण को उपाध्यक्ष, नीरज यादव को महामंत्री तथा शशि कान्त सिंह एवं डा. रघुनाथ को सहायक मंत्री निर्वाचित किया। दो सहायक मंत्रियों के पदों को रिक्त रखा गया।
भाकपा जिला सचिव जितेन्द्र शर्मा ने अपने भावुक सम्बोधन में प्रतिनिधियों और आगन्तुकों को धन्यवाद देते हुए सम्मेलन करवाने की जिम्मेदारी सौंपे जाने पर गाजियाबाद भाकपा की ओर से प्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने सम्मेलन के सफल आयोजन में सहयोग के लिए पार्टी के साथियों तथा नौजवान सभा के कार्यकर्ताओं को धन्यवाद दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि नौजवानों पर देश बचाने और भविष्य में अच्छे नेता बनने का भारी दायित्व है।
अध्यक्ष मंडल की ओर से जावेद खान सैफ ने समस्त प्रतिनिधियों और आगन्तुकों के साथ-साथ सम्मेलन में आये प्रतिनिधियों के ठहरने एवं भोजन की अति उत्तम व्यवस्था करने के लिए गाजियाबाद के साथियों, विशेषकर भाकपा के नेतृत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए भरोसा दिलाया कि नौजवान अपने दायित्वों से पीछे नहीं होंगे। नव निर्वाचित अध्यक्ष विनय पाठक ने सबको धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की।
ज्ञातव्य हो कि उत्तर प्रदेश में नौजवान सभा निष्क्रियता की शिकार थी। लखनऊ में 5 अगस्त 2010 को आयोजित भाकपा की यूथ कैडर बैठक में भाकपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य पल्लब सेनगुप्ता तथा एआईवाईएफ के तत्कालीन महासचिव के. मुरूगन की उपस्थिति में नौजवान सभा को सक्रिय करने के लिए एक संयोजन समिति गठित की गई थी। यूथ कैडर बैठक के निर्णय के अनुसार तथा एआईवाईएफ के राष्ट्रीय केन्द्र की अपेक्षाओं के अनुरूप संयोजन समिति ने भाकपा की कानपुर जिला कौंसिल के सहयोग से कानपुर में 23 सितम्बर 2010 को एक सफल राज्य स्तरीय यूथ कन्वेंशन आयोजित किया। कन्वेंशन में संयोजन समिति विस्तारित की गयी तथा 28 सितम्बर से 1 अक्टूबर 2010 तक जालंघर में आयोजित एआईवाईएफ के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव हुआ। इस कन्वेंशन के बाद नौजवान सभा ने प्रदेश में पुनः गति पकड़ना शुरू कर दिया। इन्हीं प्रयासों की परिणति गाजियाबाद में नौजवान सभा के राज्य सम्मेलन में हुई।
सम्मेलन में दोनों दिन अखिल भारतीय नौजवान सभा के अध्यक्ष आफताब आलम, महामंत्री पी. सन्दोश, भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश तथा नौजवान सभा के इंचार्ज अरविन्द राज स्वरूप निरन्तर मौजूद रहे।
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मंगलवार, 15 नवंबर 2011

प्रदेश को चार भागों में बांटे जाने का प्रस्ताव अवसरवाद की पराकाष्ठा - भाकपा

लखनऊ 15 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिवमंडल ने आज प्रदेश मंत्रिमंडल द्वारा उत्तर प्रदेश को चार भागों में वांटे जाने सम्बंधी प्रस्ताव को अवसरवाद की पराकाष्ठा बताया है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि बसपा सरकार आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है, प्रदेश में कानून-व्यवस्था बद से बदतर हो चुकी है; दलितों, महिलाओं और आम आदमी का उत्पीड़न हो रहा है, किसानों की जमीनें तो हथियाई ही जा रही हैं, खाद-बीज के संकट से किसान बदहाल हैं, बेरोजगारी बढ़ रही है और शिक्षा महंगी से महंगी बना दी गयी है। इस कारण बसपा सरकार की लोकप्रियता में भारी गिरावट आयी है।
अब आसन्न विधान सभा चुनावों में अपनी अप्रत्याशित हार से भयभीत सरकार आम जनता का ध्यान अपनी असफलताओं से हटाना चाहती है और जनता को क्षेत्रीय आधार पर बांट देना चाहती है। भाकपा अवसरवाद की इस राजनीति की कड़े शब्दों में भर्त्सना करती है।
भाकपा राज्य सचिव ने कहा कि बसपा सरकार को इस गंभीर विषय पर राजनैतिक दलों से परामर्श करना चाहिये था और वह राज्य विभाजन के सम्बंध में वाकई गंभीर थी, तो आज से साढ़े चार साल पहले उसे यह प्रस्ताव पारित करना चाहिये था, जब वह सत्ता में आयी थी। उन्होंने मांग की कि विधान सभा में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाये जाने हेतु प्रस्ताव पास करना चाहिये, विभाजनकारी प्रस्ताव नहीं।
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बुधवार, 9 नवंबर 2011

स्टूडेन्ट्स फेडरेशन का फतेहपुर जिला सम्मेलन सम्पन्न

फतेहपुर 9 नवम्बर। आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का पांचवा जिला सम्मेलन आज खागा में रमेश कल्याणकारी जूनियन हाई स्कूल में उत्साहपूर्ण माहौल में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन के पूर्व एआईएसएफ के पूर्व नेता, खागा नगर पालिका के पूर्व चेयरमैन तथा सम्प्रति भाकपा के जिला मंत्री राम औतार सिंह किया तथा झंडागीत आरती सिंह, पूनम हेगड़े, श्वेता सिंह एवं बबिता वर्मा ने गाया। भगत सिंह की प्रतिमा का माल्यार्पण एआईएसएफ की प्रदेश संयोजिका निधि चौहान ने किया।
सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए अखिल भारतीय नौजवान सभा के प्रांतीय अध्यक्ष विनय पाठक ने कहा कि छात्र और नौजवान किसी तरह से डिग्री हासिल करने के बाद बड़ी डिग्रियों का थैला कंधे पर टांग कर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं, उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा। बेरोजगारों की फौज दिन-प्रति-दिन बढ़ती चली जा रही है। इस समय देश में करीब 26 करोड़ युवा बेरोजगार हैं। पिछले बीस सालों में केन्द्र एवं राज्यों में रही सरकारों ने भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरणा की प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को चला कर संगठित क्षेत्र के करोड़ों रोजगारों को समाप्त कर दिया है। हर सरकारी विभाग और सार्वजनिक उपक्रम कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है परन्तु सरकार भर्ती की अनुमति नहीं दे रही है। 
स्टूडेन्ट्स फेडरेशन की प्रदेश संयोजिका निधि चौहान ने छात्र-छात्राओं का आह्वान तथा शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती हुई समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्राचीन काल में शूद्रो को शिक्षा से वंचित रखा गया था लेकिन आज के समय में गरीबों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। शिक्षा के बाजारीकरण के कारण बिना पैसे के शिक्षा प्राप्त करना असम्भव है। शूद्रों को शिक्षा ग्रहण न करने देने की व्यवस्था मनु की थी गरीबों को शिक्षा न मिलने की व्यवस्था वर्तमान पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था की है। उन्होंने एआईएसएफ के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चंगुल से देश को आजाद कराने के लिए पूरे प्रदेश के छात्रों को एकजुट कर आन्दोलन के लिए प्रेरित किया बल्कि छात्र हितों में अनगिनत ऐतिहासिक संघर्ष किये। उन्होंने मायावती पर प्रहार करते हुए कहा कि प्रदेश की सरकार ने छात्र आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया है, जिसे प्रदेश का छात्र बर्दाश्त नहीं करेगा और छात्र संघों की बहाली, शिक्षा के बाजारीकरण, शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि के सवालों को लेकर दिसम्बर में संघर्ष चलाने एआईएसएफ ऐलान करेगा। सम्मेलन को एआईएसएफ के पूर्व नेता मोती लाल एडवोकेट ने भी सम्बोधित किया।
सम्मेलन में एआईएसएफ के जिला संयोजक गौरव सिंह ने राजनैतिक एवं सांगठनिक रिपोर्ट पेश की जिस पर हुई बहस में महेश प्रताप सिंह, उमा शंकर, अविनाश चौधरी, केशव, राहुल आदि ने हिस्सा लिया। रिपोर्ट को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। सम्मेलन ने गौरव सिंह को अध्यक्ष, पंकज चौधरी को उपाध्यक्ष, महेश कुमार को महामंत्री, कु. सोनी चौधरी तथा कु. पूनम हेगड़े को सहमंत्री तथा संदीप कनौजिया को कोषाध्यक्ष निर्वाचित किया। जितेन्द्र पाल, योगेश सिंह, राजेश सिंह, आरती सिंह को कार्यकारिणी का सदस्य निर्वाचित किया गया।
सम्मेलन का संचालन फूल चन्द्र पाल ने किया तथा अध्यक्षता जितेन्द्र कुमार पाल, आरती सिंह तथा संदीप कनौजिया के अध्यक्षमंडल ने की। महत्वपूर्ण बात यह रही कि सम्मेलन में छात्राओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और 30 से अधिक छात्राओं ने सम्मेलन में हिस्सा लिया और सम्मेलन की कार्यवाही में भी उत्साह के साथ सहभागिता की।
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एआईएसएफ द्वारा लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्रों की बेरहम पिटाई की न्यायिक जांच की मांग

लखनऊ 9 नवम्बर। अखिल भारतीय स्टूडेन्ट्स फेडरेशन ने लखनऊ विश्वविद्यालय में इंप्रूवमेंट परीक्षाओं के शुल्क में अत्यधिक वृद्धि का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारी छात्रों की प्रॉक्टोरियल बोर्ड की शह पर पुलिस द्वारा बेरहम पिटाई पर कटु रोष प्रकट करते हुए प्रदेश सरकार से उसकी न्यायिक जांच करवाने की मांग की है। एआईएसएफ की राज्य संयाजिका निधि चौहान ने उपकुलपति तथा प्रॉक्टोरियल बोर्ड पर हिटलर और मुसोलिनी बनने का आरोप लगाते हुए कहा है कि वे आचार्य नरेन्द्र देव और प्रो. विट्ठल रॉव जैसे अपने पूर्वजों से सबक लेते हुए न केवल गुरू बल्कि छात्रों के अभिवावकों की तरह बर्ताव करें।
एआईएसएफ ने लखनऊ यूनीवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (लूटा) तथा लखनऊ यूनीवर्सिटी एसोसिएटेड कालेज टीचर्स एसोसिएशन (लुआक्टा) से भी अपील की है कि वे शिक्षकों के हितों के लिए संघर्ष करने के साथ-साथ लूटा की परम्परा के अनुसार उपकुलपति तथा प्रॉक्टोरियल बोर्ड के कतिपय शिक्षकों की हिटलरशाही का भी विरोध करें।
यहां जारी एक प्रेस बयान में एआईएसएफ ने कहा है कि अगर लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रवक्ता का यह बयान सही होता कि पिटाई विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के बिना की गयी तो उपकुलपति एवं प्रॉक्टोरियल बोर्ड का यह कर्तव्य था कि वे संबंधित पुलिस कर्मियों के खिलाफ भादंसं की धारा 307, 324, 325 के अधीन एफआईआर दर्ज कराते क्योंकि यह अपराध लखनऊ विश्वविद्यालय के परिसर में हुआ है। उनका ऐसा न करना यह साबित करता है कि पिटाई उनके निर्देशों पर और उनकी शह पर की गयी है।
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रविवार, 6 नवंबर 2011

भूमिका में बदलाव: बैंकर भारत की दलाल स्ट्रीट पर कब्जा करेगें

महाराष्ट्र स्टेट बैंक कर्मचारी मंडल
“ऑक्यूपाई दलाल स्ट्रीट” पोस्टर, जिसके शीर्ष पर बाईं तरफ बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज की तस्वीर है और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संगठन का प्रतीक चिन्ह है। इस पोस्टर में अन्य बातों के अतिरिक्त छोटे कारोबारों के लिए ब्याज़ दरें कम करने की मांग की गई है।
पिछले महीने हम इस बात पर हैरान थे कि क्या यहां कभी “ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट” (वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा) की भांति “ऑक्यूपाई दलाल स्ट्रीट” (दलाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा) आंदोलन हो सकता है। यूएस में वॉल स्ट्रीट-विरोधी प्रदर्शन सितम्बर में शुरू हुए और अन्य देशों में तेज़ी से फैल गए-लेकिन भारत में इसका प्रभाव पड़ता हुआ नहीं लगा।
अपनी नियत समय सारिणी से कुछ पीछे ही सही, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी ने आखिरकार दलाल स्ट्रीट पर कब्जा करने का फैसला कर ही लिया है। लेकिन यह वो भीड़ नहीं, जिसकी हम उम्मीद कर रहे थे: शुक्रवार को, बैंकरों के एक समूह ने मुंबई के वॉल स्ट्रीट के समतुल्य दलाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई है। यह प्रदर्शन महाराष्ट्र स्टेट बैंक कर्मचारी महासंघ द्वारा बुलाया गया है, जो भारत के एक अहम बैंक कर्मचारी संगठन से संबद्ध है। योजना दलाल स्ट्रीट में एकत्र होने की है, जिसमें बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज है।
आयोजक अपनी व्यावसायिक पृष्ठभूमि और ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट (वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा) की वजह और मंतव्यों के बीच कोई विरोधाभास नहीं देख रहे-बैंकरों और कॉरपोरेट प्रबंधकों का बचाव, जो फल-फूल रहे हैं, जबकि औसत नागरिक आर्थिक संकट का बोझ ढो रहा है। “हमारे विचार में, दलाल स्ट्रीट द्वारा प्रदर्शित नीतियां ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट के समरूप हैं, जिनका वहां अनुगमन किया जा रहा है”, बैंक कर्मचारी समूह के प्रधान सचिव विश्वास उतगी ने इंडिया रियल टाइम को कहा।
हालांकि यह देखा गया कि ऑक्यूपाई दलाल स्ट्रीट की मागें एकदम ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट जैसी नहीं हैं। मुंबई बैंकरों का समूह निजी सेक्टर वाले अपने अमेरिकन समकक्षों पर लक्ष्य साध रहा है। लेकिन उनकी रुचियां ज्यादा संरक्षणवादी हैं: उनके एजेंडे की एक प्रमुख बात सेक्टर के उदारीकरण की योजना का विरोध करना है। “हम सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक को चेतावनी देना चाहते हैं कि भारत के लोग कॉरपोरेट घरानों को नए निजी बैंक खोलने हेतु नए लाइसेंस दिया जाना बर्दाश्त नहीं करेगें”, समूह ने अपनी प्रेस रिलीज़ में दलाल स्ट्रीट पर कब्जे की योजना के संदर्भ में ये बातें कहीं। वे खास तौर पर इस बात से आशंकित हैं कि बैकों को आखिरकार विदेशी हाथों में सौंप दिया जाएगा, श्री उतगी इस बात से घबराते हैं कि इससे अंतर्भासी हालात पैदा हो सकते हैं। उन्होंने कहा बैंकिंग उद्योग एक अहम उद्योग है और अगर इसे विदेशी हाथों में सौप दिया जाएगा, ये हमें प्रलय की ओर ले जाएगा। श्री उतगी इस बात से भयभीत हैं कि विदेशियों को बड़ी भूमिका हेतु स्वीकृति प्रदान करने से भारत में भी यूएस की तरह ऋण संकट पैदा हो जाएगा। “हम भारत में इस तरह की स्थितियों की संभावना का विरोध कर रहे हैं,” उन्होंने कहा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय नेता प्रकाश रेड्डी ने कहा उनकी पार्टी के सदस्यों और हितैषियों ने भी दलाल स्ट्रीट पर कब्जे की योजना बनाई है। वैश्विक आंदोलन के बहाने ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट अभियान में कूदना कदाचित उनके लिए राजनीतिक फायदा पाने का एक मौका हो सकता है, वो भी एक ऐसे समय में जब उनकी पार्टी भारत में आधार खिसक रहा है। “हम उस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ हैं, जिसका बीजेपी और कांग्रेस, भारत के दो मुख्य बड़े दल, समर्थन करते हैं”,श्री रेड्डी ने कहा। शुक्रवार को, वो श्री उतगी के साथी बैंकरों के साथ प्रदर्शन करेगें। 
यह पहली बार नहीं, जब ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन की तर्ज़ पर भारत में किसी विरोध प्रदर्शन का आगाज़ हुआ हो। कोलकाता में एक छोटी रैली आयोजित की गई थी और पिछले महीने मुंबई में भी ऐसा ही एक कार्यक्रम हुआ था-लेकिन यह सब असफल रहे। इस बात में शंका है कि बैंकरों का आह्वान, पूंजीवादी-विरोधी होने के बावजूद, उसमें ज्यादा संकर्षण होगा।
- दीक्षा साहनी
Reference : http://realtime.wsj.com/

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”शिक्षा के बाजारीकरण“ के खिलाफ आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन आयोजित करेगा लखनऊ में विचार गोष्ठी

लखनऊ 5 नवम्बर। लखनऊ शहर में आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन को पुनर्गठित करने के लिए लखनऊ शहर के विभिन्न विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों तथा प्राविधिक शिक्षा संस्थानों के छात्रों की एक बैठक आज सायं काल कैसरबाग में एआईएसएफ के प्रान्तीय कार्यालय पर सम्पन्न हुई जिसमें एआईएसएफ की प्रदेश संयोजिका कु. निधि चौहान तथा अखिल भारतीय नौजवान सभा के प्रांतीय अध्यक्ष विनय पाठक विशेष रूप से उपस्थित थे। बैठक में लखनऊ में आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन का सदस्यता अभियान 30 नवम्बर 2011 तक चलाने का फैसला लिया गया। 30 नवम्बर के पश्चात पदाधिकारियों के निर्वाचन के लिए जिला सम्मेलन दिसम्बर के अन्त तक आयोजित करने का फैसला लिया गया।
 बैठक में ”शिक्षा के बाजारीकरण“ के खिलाफ एक विचार गोष्ठी आयोजित करने का भी संकल्प किया गया जिसमें प्रसिद्ध न्यायविद्ों, अर्थशास्त्रियों तथा शिक्षाशास्त्रियों को विचार रखने के लिए आमंत्रित किया जायेगा।
 बैठक में पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण छात्रों को होने वाली असुविधा पर भी विचार किया गया तथा मूल्य वृद्धि को वापस लेने की मांग की गयी।
http://aisfup.blogspot.com
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शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

In a first, Left Front to contest 100 seats in UP

For the first time, the Left Front comprising CPI, CPM, RSP and Forward Block has decided to jointly contest at least 100 Assembly seats in the 2012 elections in Uttar Pradesh.
While the CPI has declared its nominees for 30 Assembly constituencies, the CPM is planning to contest at least 25 seats across the state.
In the past, usually the CPI and the CPM contested a small number of seats. In the last one decade, neither the CPI nor the CPM could win any seat in UP. “Our last MLA was Rajendra Yadav who had won a seat in Ghazipur district as CPI nominee in 1997, said Dr Girish, secretary, UP unit of CPI.
Also, “although the Left Front exists at national level, we have never contested any Assembly election under its banner after 1964,” he recalled while speaking to The Indian Express.
In the 2007 Assembly elections, the CPI was an alliance partner of the late V P Singh-headed Jan Morcha and contested 21 seats. In 2002, the CPI was an ally of the Samajwadi Party and contested five seats.
Girish said that before the 1975 emergency, the CPI used to be a potential political force in the state. “We want to revive our roots. The state’s present political situation has given new hope for the Left Front to make its presence felt,” he said.
The Left Front allies believe there is a political vacuum in UP, which provides them an opportunity. Also, the Left suffered in the past because of the factors involving caste and communalism, now these are on the decline, a Left leader said.
There is a decline in the support base of both the BSP and SP, we see a chance for the Left to emerge as an option for voters, particularly those who are from Dalit and OBC communities. We also notice that voters are becoming disenchanted with parties which depend on caste, he said.
A CPI leader, meanwhile, said the rise of small parties showed the failure of both the SP and BSP to deliver according to the voters' expectations. The support for Anna Hazare's agitation also pointed to weakening political leaderships, he added.
In western UP, the Left parties see an opportunity to capitalise on the resentment among farmers over land acquisition. The Left Front has learnt its' lesson from the Nandigram episode in West Bengal. Farmers have always remained one of the important target group for left parties. We see a chance for us to make people aware of the Left as pro-farmer in western UP, another Left leader said.
Indian Express. 25th October 2011
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