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शनिवार, 22 मई 2010
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बोलीविया से उम्मीदें
बोलीविया के कोचाबांबा शहर में 19-24 अप्रैल तक जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन हुआ। इसमें दुनिया भर से सत्तर सरकारों के नुमाइंदों और 15 हजार लोगों ने हिस्सा लिया। बोलिविया का तीसरा सबसे बड़ा शहर कोचाबांबा दुनिया भर में पानी के निजीकरण के खिलाफ महान संघर्ष के लिए जाना जाता है। इस शहर पर सारे विश्व की नजरें टिकीं हुई थीं कि यह एक न्यायसंगत जलवायु परिवर्तन समझौते को अपने मुकाम तक पहुंचाएगा।सम्मेलन से पहले आइसलैंड में हुई घटना के कारण करीब सात लाख लोग उत्तरी यूरोप के हवाई अड्डों पर फंसे रहे, उनमें से कुछ गिन चुने किस्मत वाले ही इस शहर तक पहुंच पाए। पर फिर भी अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में एक अहम नेतृत्व प्रदान करने की बोलीविया की भावना और उत्साह मे कोई कमी नहीं आई। कोचाबांबा के पास ही एक छोटा-सा गांव है - टिकीपाद्धा, जहां हमें पंजीकरण के लिए जाना था। वहां पर मौजूद स्थानीय लोगों, छात्रों और पड़ोसी लातिन अमरीकी देशों से आए लोगों के जनसमूह को देखकर यह और भी साफ हो गया कि इस सम्मेलन से लोगों को किस प्रकार की आशाएं हैं। कुछ ऐसा ही माहौल यूनिवाल में देखने को मिला, जहां सभाएं और परिचर्चाए हो रही थीं। भाषा बातचीत में एक बड़ी बाधा साबित हो रही थी, फिर भी भावनाओं को समझने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। सभी एक स्वर में कह रहे थे - पृथ्वी और विकासशील देशों में रह रहे 45 लाख से ज्यादा लोगों के अधिकारों को तय करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। विकसित देशों को समझना और स्वीकार करना होगा कि यह केवल अमीर और गरीब के बीच का कोई संघर्ष नहीं है, न ही अत्यधिक हानि और भव्य जीवन-शैली का। यह आवश्यकता पृथ्वी को बचाने की है जिसका दर्जा मां से कम नहीं। यह मसला केवल दुनिया भर से आए 15 हजार लोगों और 70 देशों की सरकारों का ही नहीं है बल्कि पृथ्वी के अधिकारों से जुड़ी दुनिया भर के लोगों की भावनाओं का है। इन लोगों में वे भी शामिल हैं जिन पर ऐतिहासिक रूप से जलवायु और आर्थिक अन्याय और शोषण किया गया। इनमें से कई लोगों के पास इस शहर तक पहुंचने की क्षमता तक नहीं है। इन तमाम लोगों की जिंदगी बोलीवियाई शहर में हो रही चर्चाओं पर टिकी थी।इस प्रकार ‘पीपुल्स वर्ल्ड कांफ्रेंस ऑन क्लाइमेट चेंज’ पर यह विशाल जिम्मेदारी थी कि वह जलवायु परिवर्तन वार्ता में नैतिकता, बराबरी और न्याय को पक्का करे। सम्मेलन को अफ्रीका, एशिया, छोटे द्वीपीय देश लातिन अमरीका के देशों का सहयोग हासिल था। लातिन अमरीकी देशों- खासतौर पर ब्राजील, अर्जेंटीना, वेनेजुएला की -एकजुटता सम्मेलन की सफलता के लिए अहम साबित हुई है। भारत, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, चीन जैसे बड़े विकासशील देश अहम भूमिका निभा सकते थे लेकिन ये सिर्फ संभावनाएं बन कर रह गईं। इन देशों ने इस जन-सम्मेलन को उत्सापूर्वक नहीं लिया है। इन देशों की गैर-भागीदारी ने लोगों, आदिवासियों, मूल निवासियों और नागर समाज संस्थाओं के प्रति इनके विचारों को जाहिर कर दिया है। इन्हें लगता है कि अंतर्राष्ट्रीय वार्ता में भाग लेने की क्षमता लोगों और नागर समाज संस्थाओं में नहीं है। भारत के पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश से जब एक प्रतिनिधिमंडल ने कहा कि आगे की वर्तााओं में भारत को कुछ तथ्यों पर जेार देने की जरूरत है तो उनका जवाब था कि समझौता वार्ता करना सरकार का काम है। नागर समाज संस्थाओं को देश में शिक्षा, जागरूकता और अनुकूलन के पहलुओं पर काम करना चाहिए। वार्ता के गूढ़ पहलुओं को समझने की नागरिक समाज की क्षमता के प्रति उपेक्षा चीन में भी थी। दुनिया के अन्य देश विशेष रूप से उत्तरी अमेरिका के लिए यह ‘मसखरों का सम्मेलन’ था। विकसित देशें को यह समझना जरूरी है कि दुनिया भर से आए लोग मसखरे नहीं थे। इन्हें यह भी समझना होगा कि लोग व्यक्तिगत रूप से भले ही गरीब हो सकते हैं लेकिन सामूहिक रूप से इनके पास सबसे ज्यादा संसाधन हैं, जिन पर विकसित देशों ने न्याय, समानता और प्रकृति के नियम की भारी उपेक्षा कर कब्जा किया हुआ है। 2009 में एक अरब से अधिक लोग भूख से लड़ रहे थे। इस सदी में अंत तक इस लड़ाई में करीब 60 करोड़ लोग और शामिल हो जाएंगे। सवाल भोजन की उपलब्धता या लोगों की उस तक पहंुच का नहीं है। सवाल विकास से जुड़े नैतिक मूल्यों का है। मूल सवाल यह है कि एक तरफ तो उपभोग कर पाने से कहींअधिक मात्रा में भोजन, पानी, ऊर्जा और अन्य संसाधन उपलब्ध हैं, वहीं दूसरी ओर बहुतायत में लोगों को उनकेअधिकारों का अंश मात्र भी हासिल नहीे है। सवाल भूख से जुड़ा हो या पृथ्वी के संरक्षण से, दोनों का जवाब बहुत हद तक कृषि में शामिल है। खास तौर पर विकसित देशों में कृषि को जलवायु के साथ-साथ आर्थिक संकट से बचाना होगा। छोटे और मध्यम किसान इन संकटों से खासतौर से प्रभावित हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी राष्ट्रपति इवो मोराले के इस प्रस्ताव का समर्थन किया है कि 22 अप्रैल मां-पृथ्वी के अधिकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस के में मनाया जाए। जरूरत इस बात की है कि सभी मां-पृथ्वी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करें।
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