भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 22 मई 2010

मुंबई किसकी...?

मुंबई किसकी? दिल्ली किसकी? और फिर चेन्नई और कोलकाता किसका? यह सिलसिला कहां रूकेगा? कोई पूछेगा भारत किसका?दिल्ली छोड़कर बाकी तीनों महानगरों के नाम आजाद भारत में क्षेत्रीय बोलचाल के अनुरुप ढाले गये। पर नये नामकरण का मतलब यह तो नहीं कि मुकामी सरदारों को महानगरों का ठेकेदार बनने दिया जाय और जनगण को इन्हीं ठेकेदारों की मनमर्जी के हवाले कर दिया जाय। इतिहास साक्षी है कि दिल्ली में कोई पंद्रह राजे-महारजे हुए और दिल्ली कम से कम पंद्रह मर्तबा बनी और उजड़ी। तो फिर आज दिल्ली पर किसकी दावेदारी मंजूर की जाय।इतिहास में झांके तो बंबई कभी भी मराठा राज का अंग नहीं बना। नयी दिल्ली की तरह बंबई, मद्रास और कलकत्ता अंग्रेज उपनिवेशवादियों के बसाये नये शहर है। आजादी के बाद इन शहरों के दावे-प्रतिदावे महज वोट-बटोरू छुद्र नारे हैं, जिसका कोई संबंध धर्म, भाषा, क्षेत्र और संस्कृति से दूर-दूर तक नहीं है। दिल्ली के उपराज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने यूपी-बिहारवालों के दिल्ली आने-जाने, चलने-फिरने, काम-धाम और रोजगार करने पर प्रश्न उठाये तो शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने तुरंत उन्हें बधाई का संदेश भेजा। बाल ठाकरे ने अपने अखबार ‘सामना’ में शीलाजी की खूब वाहवाही की। ऐसा उन्होंने संभवतः इसलिए किया कि उन्हें मालूम है कि शीला दीक्षित भी दिल्ली के लिए वैसे ही प्रवासी हैं, जैसे स्वयं बाल ठाकरे मुंबई के लिए प्रवासी हैं। बाल ठाकरे के पिताजी ने अपने परिवार के इतिहास के बारे में लिखा है कि उनके पूर्वज चंद्रसेन कायस्थ थे, जो पाटलिपुत्र (मगध) से चलकर खंडवा (मध्य प्रदेश) पहुंचे और बाद में महाराष्ट्र आकर बस गये। ठाकरे परिवार मूलतः बिहारी हैं, इनके पूर्वज बिहार वासी थे, जो तत्कालीन मगध सम्राट से प्रताड़ित होकर महाराष्ट्र में शरण लिये। मशहूर स्तंभ लेखक मस्तराम कपूर ने (जनसत्ता: 9 मार्च 2009) में इस तथ्य को भली प्रकार उजागर किया है।पुरानी कहावत है, नया मियां बहुत प्याज खाता है। मियां प्याज कम खाता है या ज्यदा, यह विवाद का विषय हो सकता है, किंतु इस पर कोई विवाद नहीं है कि हिटलर स्वयं आस्ट्रियायी था, जिसने सत्ता के लिए जर्मन श्रेष्ठता का सिद्धांत प्रचारित किया और मानवता को भीषण युद्ध की विभीषिका में धकेल दिया। उसी तरह बिहारी मूल के बाल ठाकरे मराठी उन्माद पैदा करते हैं तो इसका मकसद सस्ती लोकप्रियता से सत्ता हथियाना है।मुंबई का नाम 1995 के पहले तक बंबई था। बंबई के मूल निवासी कोली मछुयारे हैं। आठ द्वीपों का यह भूखंड प्रारंभ मंे समुद्री दलदल था। सम्राट अशोक के समय यह मौर्य साम्राज्य का अंग था। बाद में इस द्वीप समूह पर आंघ्र के सातवाहनों का शासन कायम हुआ। सन् 1343 में इसे गुजरात के शासकों ने अपने अधिकार में लिया। सन् 1534 में पुर्तगालियों ने इसे गुजरात के राजा बहादुरशाह से ले लिया। पुर्तगाली इस भूखंड को बोमबहिया पुकारने लगे। खाड़ी को पुर्तगाली भाषा में ‘बहिया’ कहा जाता है। सन् 1661 में पुर्तगाली राजा ने अपनी बेटी बिग्रांजा की शादी अंग्रेज राजकुमार के साथ तय की तो बोमबहिया को उपहार के रूप में उसने अपने अंग्रेज दामाद चार्ल्स द्वितीय को दे दिया। सन् 1668 में चार्ल्स ने बोमबहिया को ईस्ट इंडिया कंपनी को भाड़े पर दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी बोमबहिया के बतौर भाड़ा सालाना 10 पौंड सोना चार्ल्स को अदा करती थी। यह भूभाग ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आने पर इसे एक बंदरगाह के रूप में विकसित किया गया। अंग्रेजों ने ‘बोम’ शब्द को बरकरार रखा, किंतु पुर्तगाली ‘बहिया’ अर्थात् खाड़ी को अंग्रेजी बे (इंल) से बदल दिया, क्योंकि खाड़ी को अंग्रेजी भाषा में ‘बे’ कहा जाता है। इस तरह बोमबहिया बोम्बे (ठवउइंल) हो गया।सन् 1661 से 1675 के बीच बोम्बे की आबादी 10 हजार से बढ़कर 60 हजार हो गयी। 1687 में ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय सूरत से बदलकर बोम्बे आ गया। तब यह बोम्बे प्रिसिडेंसी का मुख्यालय बना। 1857 के बाद बोम्बे ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया। कालक्रम में बोम्बे ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया। कालक्रम में बोम्बे कपास का प्रमुख केंद्र बना। 1869 में स्वेज नहर के निर्माण के बाद बंबई अरब सागर का प्रमुख बंदरगाह बन गया। जाहिर है बिहार का संबंध बंबई से मौर्यकालीन पुराना है।सन् 1955 में जब बंबई राज्य का बंटवारा भाषाई आधार पर गुजरात और महाराष्ट्र के रूप में हुआ तब भी यह विवद तेजी से उठा था कि बंबई गुजरात को मिले या महाराष्ट्र को भाषाई आधार पर बंबई को महाराष्ट्र में मिलाने का बाबा साहब अंबेडकर ने विरोध किया था। अंबेडकर बंबई को अलग राज्य का दर्जा देने के समर्थक थे, क्योंकि बंबई में किसी एक भाषा का बोलबाला नहीं था। बंबई सब दिनों से बहुभाषी शहर रहा है। इसी तरह का विवाद मद्रास प्रिसीडेंसी का बंटवारा किये जाने के समय उठा था कि मद्रास प्रिसीडेंसी का बंटवारा किये जाने के समय उठा था कि मद्रास आंध्र प्रदेश में रहे या तामिलनाडु में। इस तरह के सवाल उठने का सहज कारण यह था कि इन महानगरों के निर्माण में स्थानीय लोगों के मुकाबले बाहर के लोगों का ज्यादा योगदान था।दुनिया के सभी महानगरों का निर्माण निर्विवाद रूप से प्रवासी मजदूरों ने किया है। बंबई द्वीप समूह को विकसित करने में सबसे बड़ा योगदान ईरान से आये पारसियों का है। पारसी 9वीं सदी में भारत आये। बंबई के आठ द्वीपों को एक साथ जोड़ने की योजना में पारसी व्यवसायी समुदाय ने सर्वाधिक धन लगाया। बंबई नगर के विकास में जिन भारतीयों के नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज है, वे हैं भाऊदाजी, जमशेदजी जीजीभाई, दादा भाई नौरोजी, कवासजी जहांगीर, नौरोजी फुर्दनजी, फ्रामजी कवासजी, मंगलदास नाथुभाई, प्रेमचंद रामचंद, गोकुलदास तेजपाल, मो। इब्राहिम, मुहम्मद अली रोधे, बाल श्री जांभेकर और जगन्नाथ शंकर सेठ जो नाना शंकर सेठ के नाम से प्रसिद्ध थे। इनमें जांभेकर को छोड़कर बाकी सभी बाल ठाकरे की परिभाषा में गैरमहाराष्ट्रीयन हैं। नाना शंकर सेठ जिनका बंबई के निर्माण में सर्वाधिक योगदान सर्वमान्य है, वे गुजरात से आकर यहां बसे थे। वे बंबई कार्पोरेशन, बंबई एसेम्बली, बंबई विश्वविद्यालय सहित अनेक संस्थाओं के निर्माता थे। भारतीय रेल के संस्थापकों में उनका नाम है। विक्टोरिया टरमिनस (वीटी) रेलवे स्टेशन, (जिसे इन दिनों छत्रपति शिवाजी के नाम से जाना जाता है) की दीवार पर नाना श्ंाकर सेठ की आदमकद प्रतिमा अंकित है। बंबई नगर निगम परिसर में भी इनकी भव्य प्रस्तर मूर्ति खड़ी है। जिस बंबई ऐसासिएशन की नींव पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई, उसके 12 वर्षों तक लगातार अध्यक्ष नाना शंकर सेठ थे। बंबई के मराठीकरण का जो आक्रामण अभियान शिवसेना ने चला रखा है, उस पर लगाम नहीं लगायी गयी तो कोई अचरज नहीं कि नाना शंकर सेठ, दादाभार्ठ नौरोजी आदि नामों को मिटाकर छत्रपति शिवाजी के साथ-साथ बाल ठाकरे और राज ठाकरे के नाम लिख दिये जायें।परिस्थिति की विडंबना यह है कि राष्ट्रीय पार्टियां भी आज क्षेत्रीय पार्टियों के दबाव में पहचान खो रही हैं। यह तथ्य छिपा नहीं है कि अपने खिसकते जनाधार पर काबू पाने के लिए कांग्रेस शिवसेना के प्रति हमेशा नरम और सांठगांठ की मुद्रा में रही है। भाजपा शिवसेना प्रेम प्रकट है। मुंबई की आबादी में उत्तर भारतीयों की तादाद 21 प्रतिशत है। मुंबई में गुजराती 18 प्रतिश्ता, तमिल 3 प्रतिशत, सिंधी 3 प्रतिशत और दूसरे 12 प्रतिशत हैं। इस तरह मुंबई में 57 प्रतिशत गैरमराठी हैं। अलबत्ता मुंबई में सबसे बड़ा भाषाई समूह मराठी 43 प्रतिशत है। बाल$राज$ उद्धव ठाकरे के आक्रामक अभियान का मकसद गैरमराठियों को मुंबई से भगना है और जबरन मराठियों का वर्चस्व कायम करना है।इस सिलसेल में यहां एक ताजा वाकया बताना दिलचस्प होगा। पिछले महीने राहुल गांधी मुंबई दौरे पर गये। राहुल गांधी की नाटकियता इन दिनों हमेशा अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। मुंबई में राहुल भाड़े की टैक्सियों में चले और ट्राम का सफर किया। ट्राम का भाड़ा चुकाने के लिए बांद्रा की सड़क पर एक एटीएम से पैसे भी निकाले। इसकी चर्चा अखबारों में चटपटी मसालों की तरह हुई। बाल ठाकरे भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने अपने अखबार ‘सामना’ में लिखा: ”देखों मराठियों, राहुल मुंबई से पैसे निकाल रहा है। मुंबई का पैसा बाहर जा रहा है। इसे ही मैं रोकना चाहता हूं!“जाहिर है, ऐसा लिखकर जो संदेश बाल ठाकरे मराठियों को देना चाहते हैं, इसे लागू किया गया तो वह संदेश मुंबई तक सीमित नहीं रहेगा। ऐसी ही जहरीली भाषा दूसरे भी बोलने लगे तो देश का क्या होगा। आखिर मुंबइ में कहां का पैसा जमा होता है? राष्ट्रीयकृत बैंकों में जमा रकम का हिसाब बताता है कि यूपी और बिहार से लोगों की बचत जमा रकम का 73 प्रतिशत मुंबई औरे दिल्ली में निवेश होता है। आजादी के बाद बिहार ने अपने खर्चे से कोयला, अबरख और विभिन्न खनिज मुंबई पहुंचाया। भाड़ा मानकीकरण का सिद्धांत अपनाया गया, जिसके मुताबिक बिहारियों को उसी दर से कोयला मिला जिस दर से मुंबई के कारखानों को। इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार से मुंबई तक कोयला की ढुलाई का बिल बिहारवासियों ने चुकाया। ख्निज संपदा बिहार में, किंतु उसकी प्रोसेसिंग के कारखाने कलकत्ता और मुंबई में खुले। यह बंदरगाहमुखी औपनिवेशिक व्यापार व्यवस्था थी जिसे आजाद भारत में बदला नहीं गया। बिहार में कार्यरत कंपनियों के मुख्यालय कलकत्ता और मुंबई में रखे गये। फलः बिहार को राजस्व घाटा होता रहा। माल बिहार का तो उसका राजस्व कलकत्ता-मुंबई को क्यों? बाल ठाकरे को यह हिसाब समझाना पड़ेगा कि बिहार का पैसा कैसे महानगरों में जमा होता है। क्या प्रवासी मजदूर स्थानीय लोगों का रोजगार छीनता है? कुछ साल पहले गुवाहटी रेलवे माल गोदाम में ढुलाई का काम करनेवाले बिहारी पल्लेदार मजदूरों को असम के उग्रवादी उल्फावालों ने कहा: “तुम लोग गुवाहाटी छोड़ो, ये काम असमवासी करंेगे।” एटक के नेतृत्व में बिहारी पल्लेदारों ने समझदारी से काम किया उन्होंने काम छोड़ दिया और कहा “असमवासी को पहले काम करने दिया जाएगा और काम बचेगा तो बिहारी पल्लेदार करेंगे।” ऐसा दो-तीन हफ्तों तक चला। बाद में असमवासियों का आना बंद हो गया। बिहारी पल्लेदार पूर्ववत काम करने लगे।अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनेक अध्ययन बताते हैं कि प्रवासी मजदूर स्थानीय लोगों के काम नहीं छीनते। प्रवासी मजदूरों के काम दुनिया भर में अंग्रेजी के तीन प्रथमाक्षरों से पहचाना जाता है - डर्टी, डिमीनिंग, डेंजरस अर्थात् गंदा, घटिया और खतरनाक। जाहिर है, ऐसे ही काम आमतौर पर प्रवासी मजदूरों के नसीब होते हैं, जो स्थानीय लोग करना पसंद नहीं करते। अगर बंबई के जनजीवन से प्रवासी मजदूर अलग हो जायें तो बंबई महानगर अस्त-व्यस्त हो जाएगा।संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पलायन और विकास पर जारी किया गया ताजा प्रतिवेदन बताता है कि किसी राज्य की जनसंख्या में प्रवासी लोगों के कारण एक फीसदी बढ़ोतरी है तो उस राज्य के जीडीपी में कम से कम एक फीसदी की बढ़ोतरी जरूर होगी। प्रतिवेदन में साफ कहा गया कि प्रवासी लोगों के कारण न तो स्थानीय लोगों को रोजगार छीनता है और न ही स्थानीय सार्वजनिक सेवाओं पर प्रवासी लोगों का भार बढ़ता है। सरकारी निकम्मापन छिपाने के लिए और पूंजीवादी मार्ग की विफलता से उत्पन्न जनाक्रोश को बेराह करने के निमित्त मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और बाल ठाकरे जैसे नेता फौरी तौर पर गलतबयानी करके राजनीतिक उन्माद की रोटी सेंकते हैं। पूंजीवाद ने असमानता पैदा की है। पूंजीवादी असमान विकास ने क्षेत्रीय विषमता और क्षेत्रीय तनाव पैदा किये हैं। भारत के हरेक राज्य का मजदूर हरेक राज्य में काम करता है। महाराष्ट्र के छः प्रतिशत प्रवासी मजदूर आंध्र, गुजरात अन्य राज्यों में काम करते हैं। इसी तरह तमिलनाडु, केरल जैसे विकसित राज्यों के लाखों मजदूर अन्य राज्यों में काम करते हैं। फिर भी बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश, उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्यों के लिये उचित है कि अपने संसाधनों का बेहतर उपयोग केमाध्यम से रोजगार जन्य उद्योगों का जाल बिछायें ताकि राज्य के बाहर रोटी रोजी के लिए पलायन की दिशा रोकी जा सके। आईएलओ द्वारा गठित विश्व आयोग ने अपने प्रतिवेदन में भी लिखा है कि वैश्वीकरण की वर्तमान प्रक्रिया एकांगी है। सीमा पार पूंजी के गमनागमन के साथ प्रवासी मजदूरों के गमनागमन को पूरक बनाना होगा।
- सत्य नारायण ठाकुर

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