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सोमवार, 26 जुलाई 2010
at 8:42 pm | 1 comments | एस. सुधाकर रेड्डी
5 जुलाई 2010 की अखिल भारतीय हड़ताल - हड़ताल जर्बदस्त सफल! आगे क्या?
देश का आम आदमी बेहद गुस्से में है; मनमोहन सिंह सरकार की जनविरोधी नीतियों को जनता स्वीकार नहीं करती। देश के आम लोगों का यह गुस्सा और यूपीए-दो सरकार के प्रति उनका मोहभंग 5 जुलाई 2010 की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के रूप में सामने आया। यह राष्ट्रव्यापी हड़ताल जबर्दस्त सफल हुई और वस्तुतः भारत बंद बन गयी।
अति प्रतीक्षित उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह ने न केवल पेट्रोल, डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के मूल्य बढ़ाने की घोषणा की बल्कि पेट्रोल और डीजल के मूल्यों को ‘डीकंट्रोल’ करने का दृढ़ इरादा भी प्रकट किया जिससे पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया।
सरकार ने बड़े निर्लज्ज ढंग से लोगों से कई झूठ बोले। 2008 में तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य प्रति बैरल 148 डालर था जो अब 77 डालर से कम है। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा झूठ बोलने वालों में सबसे आगे हैं। उन्होंने गलत बयानी की कि पड़ोसी देशों में पेट्रोल का मूल्य काफी ज्यादा है। लेकिन जानबूझकर यह तथ्य छिपाया गया कि नेपाल और अन्य पड़ोसी देशों में रुपये का मूल्य 100 रु. से 160 रु. का अनुपात में है। नेपाल में भारतीय रुपये का अनुपात ज्यादा है अर्थात भारत के 100 रु. वहां के 160 रु. के बराबर हैं।
पड़ोस के इन देशों में तुलना में भारत में खाद्य मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा है। विश्व भर में जितने गरीब लोग रहते हैं उनका आधा भारत में रहता है। भूमंडलीय सर्वेक्षणों के अनुसार मानव विकास इंडेक्स में भारत की गिनती सबसे नीचे के देशों में की जाती है।
पेट्रोलियत मंत्रालय का कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही मुरली देवड़ा पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्य बढ़ाने में लगे हुए हैं और पिछले 6 वर्षों में उनकी देखरेख में यूपीए सरकार ने 14 बार मूल्य बढ़ाये हैं। उनके खिलाफ यह आरोप है कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के तेल एवं गैस के मूल्य पूरी तरह तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मूल्य के अनुसार तय नहीं हो जाते। यानी भारत में ये मूल्य रिलांयस के मूल्यों के बराबर हो जायें ताकि रिलायंस के 3600 पेट्रोल पंप फिर से खुल जायें। रिलांयस को इन पेट्रोल पंपों को पहले इसलिए बंद करना पड़ा था क्योंकि ये अपना तेल सार्वजनिक क्षेत्र के खुदरा मूल्य से अधिक पर बेचते थे।
यह दुर्भाग्य की बात है कि यूपीए-2 के लिए राष्ट्र के हितों के अपेक्षा कार्पोरेट घरानों के हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
वामदलों को बदनाम करने के लिए एक राजनीकि अभियान चलाया गया कि उन्होंने यूपीए के खिलाफ लड़ाई में दक्षिणपंथी शक्तियों से हाथ मिला लिया। हकीकत यह थी कि इस तरह के ज्वलंत मूद्दे पर भाजपा और एनडीए में शामिल पार्टियों के लिए अखिल भारतीय हड़ताल का समर्थन करने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं था। कहा जाता है कि देश भर में छोटे-बड़े 42 राजनीतिक दलों ने एक ही समय राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था।
कांग्रेस शासित राज्य में लोगों को आतंकित करने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिसकर्मियों की तैनाती की गयी। सरकारी कर्मचारियों को दफ्तर में उपस्थित रहने के लिए पहले ही चेतावनी दे दी गयी थी। महाराष्ट्र में 50,000 पुलिसकमियों की तैनाती की गयी तथा विपक्षी पार्टियों के हजारों नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली एवं अन्य राज्यों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोग डरे नहीं और यूपीए की ओछी हरकतों की झांसे में नहीं आये और स्वतः बड़ी संख्या में बंद में शामिल हुए। ट्रेनें और बसें नहीं चलीं। दुकाने, बाजार बंद थे, शिक्षण संस्थाएं और दफ्तर बंद थे और यहां तक कि एयरपोर्ट भी बंद थे। पूरा राष्ट्र मानो ठप्प हो गया।
हड़ताल अत्यंत सफल रही। अब हमारे सामने प्रश्न है इसका नतीजा क्या है और अगला कदम क्या होगा?
बंद से एक दिन पहले, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि ‘बंद के बाद भी मूल्यवृद्धि वापस नहीं ली जायेगी।’ उन्होंने कहा, ‘यह संभव नहीं’। मानो यह कोई
संवैधानिक संशोधन है जो अब बदला नहीं जा सकता।
उनका बयान भारत के लोगों की सामूहिक भावना के प्रति यूपीए-2 सरकार के कठोर रवैये को ही व्यक्त करता है। उनका बयान कांग्रेस सरकार के अहंकार को व्यक्त करता है जो पिछले एक साल में किये गये उन अनेक एकतरफा फैसलों में बारम्बार झलकता रहा है।
5 जुलाई के बंद से वर्तमान आंदेालन का अंत नहीं हो गया है। मूल्यवृद्धि वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए एक लंबा संघर्ष चलाना होगा।
इस हउ़ताल या बंद से न केवल यह पता चलता है कि देश में यूपीए-2 कितनी अलग-थलग पड़ गयी है और कांग्रेस जनता से कितनी दूर हो गयी है, बल्कि इससे देश के करोड़ों लोगों में एक नया विश्वास पैदा हो गया है कि हम सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध और संघर्ष कर सकते हैं।
कुछ लोग पूछते हैं कि विपक्षी दलों की यह एकता कितने दिन चलेगी और इस संबंध में उदाहरण देते हैं कि किस तरह कुछ पार्टियों ने संसद के पिछले सत्र में वित्त
विधेयक में पेश किये गये कटौती प्रस्ताव पर वामपंथ के साथ मतदान नहीं किया।
यह सच है कि यूपीए-2 ने सीबीआई और अन्य सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके कुछ पार्टियों को फोड़ लिया था। लेकिन तब भी उन तमाम पार्टियों ने 27 अप्रैल, 2010 को हुई हड़ताल का समर्थन किया था। इस 5 जुलाई की हड़ताल में भी समाजवादी पार्टी ने सभी तरह की पहल की और इसमें शामिल हुई। राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी क्षुद्र स्थानीय राजनीति के कारण राष्ट्रीय हित के महत्व को तरजीह दे नहीं पायी। लेकिन इन दोनों पार्टियां ने 10 जुलाई को आंदोलन का आह्वान किया है।
लेकिन बसपा ने न केवल बंद का समर्थन नहीं किया बल्कि इसमें बाधा डालने की कोशिश भी की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लंबी-चौड़ी बात तो करती है लेकिन व्यवहार में वह इसके विपरीत है। लेकिन अन्य अनेक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों जैसे, जनता दल (एस), एआईडीएमके, एमडीएमके, उड़ीसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, असम गण परिषद, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम ने दृढ़तापूर्वक हड़ताल का समर्थन किया और इसे सफल बनाने में योगदान किया।
5 जुलाई की हड़ताल का उद्देश्य था यूपीए-2 सरकार की तेल नीति के खिलाफ देश भर में व्यापक जन प्रतिरोध का निर्माण करना और सरकार को दो टूक जवाब देना। इस उद्देश्य की पूर्ति हुई है। राजनीतिक विकल्प तैयार करने का प्रश्न सही समय पर राष्ट्र के एजेंडे में होगा।
हरेक आंदोलन और संघर्ष को राजनीतिक विकल्प से जोड़ने का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसके लिए और अनेक संघर्षों की जरूरत होगी।
अनेक राजनीतिक दलों को केवल एक मंच पर खड़ा कर देने से राजनीतिक विकल्प तैयार नहीं हो जायेगा। जन- संघर्षों से ऐसी परिस्थिति पैदा होगी जिसमें राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचना जरूरी हो जायेगा।
खाद्यान्नों और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में तेज वृद्धि से देश के गरीब और लोगों का जीना मुश्किल हो गया है जबकि शासक पार्टी इस बात से संतुष्ट है कि सेंसेक्स में कार्पोरेट घरानों के शेयर बढ़ गये हैं।
भविष्य में लोगों को और भी ज्यादा कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह परमाणु दायित्व बिल संसद में पारित कराने पर तुले हैं जो अमरीकी कार्पोेरेटों के सामने शर्मनाक आत्मसमर्पण होगा। तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों लोग इसकी परिधि से बाहर हो जायेंगे और वे बाजार तंत्र के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
वामदलों को यह लड़ाई जारी रखनी चाहिए, यूपीए-2 सरकार की खोखली नीतियों का पर्दाफाश करना चाहिए और साथ ही सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ संघर्ष चलाते रहना चाहिए।
5 जुलाई की राष्ट्रव्यापी हड़ताल को सफल बनाने में हमारी पार्टी तथा अन्य वामदलों के कार्यकर्ताओं ने काफी अच्छा काम किया है। हमें संघर्ष को जारी रखना चाहिए तथा जनता की राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाना चाहिए।
- एस. सुधाकर रेड्डी
अति प्रतीक्षित उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह ने न केवल पेट्रोल, डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के मूल्य बढ़ाने की घोषणा की बल्कि पेट्रोल और डीजल के मूल्यों को ‘डीकंट्रोल’ करने का दृढ़ इरादा भी प्रकट किया जिससे पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया।
सरकार ने बड़े निर्लज्ज ढंग से लोगों से कई झूठ बोले। 2008 में तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य प्रति बैरल 148 डालर था जो अब 77 डालर से कम है। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा झूठ बोलने वालों में सबसे आगे हैं। उन्होंने गलत बयानी की कि पड़ोसी देशों में पेट्रोल का मूल्य काफी ज्यादा है। लेकिन जानबूझकर यह तथ्य छिपाया गया कि नेपाल और अन्य पड़ोसी देशों में रुपये का मूल्य 100 रु. से 160 रु. का अनुपात में है। नेपाल में भारतीय रुपये का अनुपात ज्यादा है अर्थात भारत के 100 रु. वहां के 160 रु. के बराबर हैं।
पड़ोस के इन देशों में तुलना में भारत में खाद्य मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा है। विश्व भर में जितने गरीब लोग रहते हैं उनका आधा भारत में रहता है। भूमंडलीय सर्वेक्षणों के अनुसार मानव विकास इंडेक्स में भारत की गिनती सबसे नीचे के देशों में की जाती है।
पेट्रोलियत मंत्रालय का कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही मुरली देवड़ा पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्य बढ़ाने में लगे हुए हैं और पिछले 6 वर्षों में उनकी देखरेख में यूपीए सरकार ने 14 बार मूल्य बढ़ाये हैं। उनके खिलाफ यह आरोप है कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के तेल एवं गैस के मूल्य पूरी तरह तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मूल्य के अनुसार तय नहीं हो जाते। यानी भारत में ये मूल्य रिलांयस के मूल्यों के बराबर हो जायें ताकि रिलायंस के 3600 पेट्रोल पंप फिर से खुल जायें। रिलांयस को इन पेट्रोल पंपों को पहले इसलिए बंद करना पड़ा था क्योंकि ये अपना तेल सार्वजनिक क्षेत्र के खुदरा मूल्य से अधिक पर बेचते थे।
यह दुर्भाग्य की बात है कि यूपीए-2 के लिए राष्ट्र के हितों के अपेक्षा कार्पोरेट घरानों के हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
वामदलों को बदनाम करने के लिए एक राजनीकि अभियान चलाया गया कि उन्होंने यूपीए के खिलाफ लड़ाई में दक्षिणपंथी शक्तियों से हाथ मिला लिया। हकीकत यह थी कि इस तरह के ज्वलंत मूद्दे पर भाजपा और एनडीए में शामिल पार्टियों के लिए अखिल भारतीय हड़ताल का समर्थन करने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं था। कहा जाता है कि देश भर में छोटे-बड़े 42 राजनीतिक दलों ने एक ही समय राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था।
कांग्रेस शासित राज्य में लोगों को आतंकित करने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिसकर्मियों की तैनाती की गयी। सरकारी कर्मचारियों को दफ्तर में उपस्थित रहने के लिए पहले ही चेतावनी दे दी गयी थी। महाराष्ट्र में 50,000 पुलिसकमियों की तैनाती की गयी तथा विपक्षी पार्टियों के हजारों नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली एवं अन्य राज्यों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोग डरे नहीं और यूपीए की ओछी हरकतों की झांसे में नहीं आये और स्वतः बड़ी संख्या में बंद में शामिल हुए। ट्रेनें और बसें नहीं चलीं। दुकाने, बाजार बंद थे, शिक्षण संस्थाएं और दफ्तर बंद थे और यहां तक कि एयरपोर्ट भी बंद थे। पूरा राष्ट्र मानो ठप्प हो गया।
हड़ताल अत्यंत सफल रही। अब हमारे सामने प्रश्न है इसका नतीजा क्या है और अगला कदम क्या होगा?
बंद से एक दिन पहले, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि ‘बंद के बाद भी मूल्यवृद्धि वापस नहीं ली जायेगी।’ उन्होंने कहा, ‘यह संभव नहीं’। मानो यह कोई
संवैधानिक संशोधन है जो अब बदला नहीं जा सकता।
उनका बयान भारत के लोगों की सामूहिक भावना के प्रति यूपीए-2 सरकार के कठोर रवैये को ही व्यक्त करता है। उनका बयान कांग्रेस सरकार के अहंकार को व्यक्त करता है जो पिछले एक साल में किये गये उन अनेक एकतरफा फैसलों में बारम्बार झलकता रहा है।
5 जुलाई के बंद से वर्तमान आंदेालन का अंत नहीं हो गया है। मूल्यवृद्धि वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए एक लंबा संघर्ष चलाना होगा।
इस हउ़ताल या बंद से न केवल यह पता चलता है कि देश में यूपीए-2 कितनी अलग-थलग पड़ गयी है और कांग्रेस जनता से कितनी दूर हो गयी है, बल्कि इससे देश के करोड़ों लोगों में एक नया विश्वास पैदा हो गया है कि हम सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध और संघर्ष कर सकते हैं।
कुछ लोग पूछते हैं कि विपक्षी दलों की यह एकता कितने दिन चलेगी और इस संबंध में उदाहरण देते हैं कि किस तरह कुछ पार्टियों ने संसद के पिछले सत्र में वित्त
विधेयक में पेश किये गये कटौती प्रस्ताव पर वामपंथ के साथ मतदान नहीं किया।
यह सच है कि यूपीए-2 ने सीबीआई और अन्य सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके कुछ पार्टियों को फोड़ लिया था। लेकिन तब भी उन तमाम पार्टियों ने 27 अप्रैल, 2010 को हुई हड़ताल का समर्थन किया था। इस 5 जुलाई की हड़ताल में भी समाजवादी पार्टी ने सभी तरह की पहल की और इसमें शामिल हुई। राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी क्षुद्र स्थानीय राजनीति के कारण राष्ट्रीय हित के महत्व को तरजीह दे नहीं पायी। लेकिन इन दोनों पार्टियां ने 10 जुलाई को आंदोलन का आह्वान किया है।
लेकिन बसपा ने न केवल बंद का समर्थन नहीं किया बल्कि इसमें बाधा डालने की कोशिश भी की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लंबी-चौड़ी बात तो करती है लेकिन व्यवहार में वह इसके विपरीत है। लेकिन अन्य अनेक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों जैसे, जनता दल (एस), एआईडीएमके, एमडीएमके, उड़ीसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, असम गण परिषद, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम ने दृढ़तापूर्वक हड़ताल का समर्थन किया और इसे सफल बनाने में योगदान किया।
5 जुलाई की हड़ताल का उद्देश्य था यूपीए-2 सरकार की तेल नीति के खिलाफ देश भर में व्यापक जन प्रतिरोध का निर्माण करना और सरकार को दो टूक जवाब देना। इस उद्देश्य की पूर्ति हुई है। राजनीतिक विकल्प तैयार करने का प्रश्न सही समय पर राष्ट्र के एजेंडे में होगा।
हरेक आंदोलन और संघर्ष को राजनीतिक विकल्प से जोड़ने का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसके लिए और अनेक संघर्षों की जरूरत होगी।
अनेक राजनीतिक दलों को केवल एक मंच पर खड़ा कर देने से राजनीतिक विकल्प तैयार नहीं हो जायेगा। जन- संघर्षों से ऐसी परिस्थिति पैदा होगी जिसमें राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचना जरूरी हो जायेगा।
खाद्यान्नों और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में तेज वृद्धि से देश के गरीब और लोगों का जीना मुश्किल हो गया है जबकि शासक पार्टी इस बात से संतुष्ट है कि सेंसेक्स में कार्पोरेट घरानों के शेयर बढ़ गये हैं।
भविष्य में लोगों को और भी ज्यादा कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह परमाणु दायित्व बिल संसद में पारित कराने पर तुले हैं जो अमरीकी कार्पोेरेटों के सामने शर्मनाक आत्मसमर्पण होगा। तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों लोग इसकी परिधि से बाहर हो जायेंगे और वे बाजार तंत्र के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
वामदलों को यह लड़ाई जारी रखनी चाहिए, यूपीए-2 सरकार की खोखली नीतियों का पर्दाफाश करना चाहिए और साथ ही सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ संघर्ष चलाते रहना चाहिए।
5 जुलाई की राष्ट्रव्यापी हड़ताल को सफल बनाने में हमारी पार्टी तथा अन्य वामदलों के कार्यकर्ताओं ने काफी अच्छा काम किया है। हमें संघर्ष को जारी रखना चाहिए तथा जनता की राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाना चाहिए।
- एस. सुधाकर रेड्डी
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