समस्या का हल एक मजबूत वामपंथ से ही संभव
इसके पहले की मुलायम सिंह की सरकार की रवानगी के पीछे का एक बड़ा कारण किसानों के मध्य अपनी जमीनों के अधिग्रहण के खिलाफ गुस्सा भी रहा था। पहले अम्बानी बंधुओं के लिए मुलायम सिंह की सरकार ने किसानों की जमीनों का औने-पौने दामों पर अधिग्रहण शुरू किया था। तब से किसानों के विरोध को हमेशा तत्कालीन सरकारों ने खून बहाकर कुचलने की कोशिश की है। सन 2005 में मेरठ में 8 लोग जख्मी हुए थे, 2006 में बझेड़ा खुर्द में 23 जख्मी हुए थे, 2007 में घोड़ी बछेड़ा में 5 लोग मरे थे, 2009 में मथुरा के बाजना में एक मरा था, 2010 में अलीगढ़ के टप्पल में 4 मरे तो छलेसर में 7 जख्मी हुए थे, 2011 में इलाहाबाद के करछना में 1 मरा था तो भट्ठा पारसौल में 5 लोग मारे गये।
किसानों की जमीनों के अधिग्रहण और भूमि के भुगतान में वर्तमान भूमि अधिग्रहण कानून मददगार साबित होता है। किसानों की बेहद उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण पर उसकी कीमत बाजार दर पर निर्धारित की जाती है। बाजार दर निर्धारित करने में तीन सालों के उस इलाके विशेष में खरीद-फरोख्त की दरों को आधार बनाया जाता है। उस भूमि को विकसित कर जब पूंजीपतियों को सौंपा जाता है, तो उसकी कीमतों में जमीन-आसमान का अंतर होता है। पूंजीपति इसी जमीन की बढ़ी कीमतों के कई गुना ज्यादा बैंकों से ऋण प्राप्त कर लेते हैं, उसे अदा नहीं करते और एनपीए हो जाने पर सरकारें इन ऋणों को बट्टे खाते डलवा देती हैं। सवाल उठता है कि सरकार पूंजीपतियों के लिए भूमि-अधिगृहीत क्यों करती है?
किसानों की रोजी-रोटी किसी तरह इसी भूमि पर आधारित होती है। एक बार पैसा मिल जाने पर मकान बनवाने, शादी-विवाह में तथा अन्य सुविधाओं को खरीदने में व्यय हो जाता है। फिर मकान और अन्य एकत्रित सुविधाओं को बेच कर खाना खाने के लिए कोई अन्य विकल्प नहीं होता।
केन्द्र की कांग्रेस नीत संप्रग-2 सरकार भी भूमि अधिग्रहण करने में किसी राज्य सरकार से पीछे नहीं है। लखनऊ-दिल्ली राजमार्ग एनएच-24 को 6 लेन का बनाने के लिए अभी भूमि अधिग्रहण किया गया था। चूंकि किसानों की जो जमीन अधिग्रहीत की गयी वह एक रास्ते के किनारे की जमीनें थीं, तो ज्यादा विरोध नहीं हुआ। यह राजमार्ग सदियों पुराना है। राजमार्ग के दोनों ओर पहले से ही काफी जमीन सरकारी थी। लेकिन जब राजमार्ग बन कर पूरा होने की ओर अग्रसर हुआ तो पता चला कि इस पूरे रास्ते को एक निजी सरमायेदार को हस्तांतरित किया जा रहा है जो इस पर चलने के लिए पैसे वसूलेगा। एक छोटे वाहन के लिए इसके 60-70 कि.मी. चलने पर दो या तीन सौ रूपये देने होंगे। दिल्ली से लखनऊ आने वाले सदियों से इसी रास्ते से बिना पैसे दिये आते थे। सड़क पहले एक लेन थी फिर दो लेन हुई। 6 लेन करने में भी किसानों की जमीन और देश के करदाताओं का पैसा लगा तो फिर इस पर चलने के लिए टोल टैक्स क्यों? और वह भी किसी सरमायेदार को क्यों? यह सवाल हैं जिनका जवाब जनता चाहेगी। केन्द्र सरकार ने इसी तरह ललितपुर एवं चंदौली में भूमि अधिग्रहण के प्रयास किये थे जिसे हमारे संघर्षों से कुछ समय के लिए टाल दिया गया है लेकिन संकट अभी भी बरकरार है।
जब किसानों और प्रशासन के मध्य टकराव पैदा किया जाता है तो मरने और जख्मी होने वाले तथा बेरोजगार होने वालों में ग्रामीण दस्तकारों तथा मजदूरों की भी बड़ी संख्या होती है। इस तबके के अधिसंख्यक लोग अनुसूचित जातियों, अत्यंत पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यक समूहों से आते हैं। हर सरकार इन तबकों के लिए चुनावों तक अपनी प्रतिबद्धता की चिंघाड़-चिंघाड़ कर घोषणा करती है और सत्ता में आते ही इन्हें बरबाद करने का कुकर्म करना शुरू कर देती है। भूमि अधिग्रहण को लेकर जब किसानों और प्रशासन के मध्य टकराव होता है तो पुलिस रात को गांवों में घुस-घुस कर इन तबके के लोगों की अल्प-गिरस्ती को खाक कर देती है। सवाल यह भी उठता है कि इन बेचारों का क्या कसूर होता है?
जब ऐसी कोई घटना होती है तो विरोधी दल इसकी निन्दा करते हैं लेकिन जब सरकारों में आते हैं तो यही सब करते हैं। इसे जनता को समझना चाहिए और इसका राजनीतिक हल खोजना चाहिए। धर्म, जाति और क्षेत्रीयता की राजनीति करने वाले पूंजीवादी राजनीतिक दलों से अपेक्षायें करना जनता को बन्द करना होगा। उन्हें याद रखना होगा कि भूमि का अधिग्रहण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, सपा, भाजपा और बसपा सभी ने किया है।
जनता अगर इन सवालों के जवाब और इस समस्या से निजात पाना चाहती है तो उसे वामपंथ को मजबूत करना होगा। बिना एक मजबूत वामपंथ के इन समस्याओं का न तो हल निकाला जा सकता है और न ही सवालों के जवाब मांगे जा सकते हैं।
- प्रदीप तिवारी
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