भारतीय
संस्क्रति के विषय में पं॰ जवाहर लाल नेहरू का द्रष्टिकोण
[ अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों के लिये
दक्षिणपंथियों द्वारा आज भारतीय संस्क्रति पर जो तीखे हमले बोले जारहे हैं और उसे
धर्म विशेष से जोड़ कर संकुचित, कुंठित और पथभ्रष्ट करने के
भयानक प्रयास किये जा रहे हैं, तब भारतीय संस्क्रति के बारे
में पं॰ जवाहर लाल नेहरू के सुष्पष्ट विचार हमें उसकी व्यापकता का दिग्दर्शन कराते
हैं। आज के संगीन हालातों में यह और अधिक प्रासंगिक होगये हैं। श्री रामधारीसिंह
दिनकर की पुस्तक “संस्क्रति के चार अध्याय” की भूमिका के रूप में यह आलेख 30
सितंबर 1955 को पूरा किया गया था। अंतिम ढाई पंक्तियों को छोड़ यह आलेख अक्षरशः
प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका शीर्षक भी मेरे द्वारा दिया गया है- डा॰ गिरीश ]
मेरे मित्र और साथी दिनकर ने, अपनी पुस्तक के लिये जो विषय चुना है, वह बहुत ही
मोहक और दिलचस्प है। यह ऐसा विषय है जिससे, अक्सर, मेरा अपना मन भी ओत- प्रोत रहा है और मैंने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप आप से आप पड़ गयी है। अक्सर मैं अपने आप से सवाल
करता हूँ, भारत है क्या? उसका तत्व या
सार क्या है? वे शक्तियां कौन-सी हैं जिनसे भारत का निर्माण
हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करने वाली प्रमुख प्रव्रत्तियों के
साथ उनका क्या संबंध है? यह विषय अत्यंत विशाल है, और उसके दायरे में भारत और भारत के बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते
हैं। और मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिये यह संभव नहीं है कि वह इस
संपूर्ण विषय के साथ अकेला ही न्याय कर सके। फिर भी, इसके
कुछ खास पहलुओं को लेकर उन्हें समझने की कोशिश की जा सकती है। कम से कम, यह तो संभव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि, सारे संसार को अपने सामने न रखने पर
भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा।
संस्क्रति है क्या? शब्दकोश
उलटने पर इसकी अनेक परिभाषायें मिलती हैं। एक बड़े लेखक का कहना है कि “संसार भर
में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयी हैं, उनसे अपने
आपको परिचित करना संस्क्रति है।“ एक दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है कि
“संस्क्रति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण द्रढ़ीकरण या विकास अथवा उससे
उत्पन्न अवस्था है।“ यह “मन आचार या रुचियों की परिष्क्रति
या शुद्धि” है। यह “सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना” है। इस अर्थ में, संस्क्रति कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अंतर्राष्ट्रीय
है। फिर, संस्क्रति के कुछ राष्ट्रीय पहलू भी होते हैं। और
इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेक राष्ट्रों में अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा
अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लिये हैं।
इस नक्शे में भारत का स्थान कहाँ पर है? कुछ लोगों ने हिन्दू-संस्क्रति, मुस्लिम-संस्क्रति
और ईसाई-संस्क्रति की चर्चा की है। ये नाम मेरी समझ में नहीं आते, यद्यपि, यह सच है कि जातियों और राष्ट्रों की
संस्क्रतियों पर बड़े-बड़े धार्मिक आंदोलनों का असर पड़ा है। भारत की ओर देखने पर
मुझे लगता है, जैसा कि दिनकर ने भी ज़ोर देकर दिखलाया है, कि भारतीय जनता की संस्क्रति का रूप सामासिक है और उसका विकास धीरे धीरे
हुआ है। एक ओर तो इस संस्क्रति का मूल आर्यों से पूर्व,
मोहंजोदड़ों आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान सभ्यता तक पहुंचता है। दूसरी ओर, इस संस्क्रति पर आर्यों की बहुत ही गहरी छाप है जो भारत में मध्य एशिया
से आये थे। पीछे चल कर, यह संस्क्रति उत्तर-पश्चिम से आने
वाले तथा फिर समुद्र की राह से पश्चिम से आने वाले लोगों से बार-बार प्रभावित
हुयी। इस प्रकार, हमारी राष्ट्रीय संस्क्रति ने धीरे धीरे बढ़
कर अपना आकार ग्रहण किया। इस संस्क्रति में समन्वयन तथा नये उपकरणों को पचा कर
आत्मसात करने की अद्भुत योग्यता थी। जब तक इसका यह गुण शेष रहा, यह संस्क्रति जीवित और गतिशील रही। लेकिन, बाद को
आकर उसकी गतिशीलता जाती रही जिससे यह संस्क्रति जड़ होगयी और उसके सारे पहलू कमजोर
पड़ गये। भारत के इतिहास में हम दो परस्पर विरोधी और प्रतिद्वंदी शक्तियों को काम
करते देखते हैं। एक तो वह शक्ति है जो बाहरी उपकरणों को पचा कर समन्वय और सामंजस्य
पैदा करने की कोशिश करती है, और दूसरी वह जो विभाजन को
प्रोत्साहन देती है; जो एक बात को दूसरी से अलग करने की
प्रव्रत्ति को बढ़ाती है। इसी समस्या का, एक भिन्न प्रसंग में, हम आज भी मुक़ाबला कर रहे हैं। आज भी कितनी ही बलिष्ठ शक्तियां हैं जो
केवल राजनीतिक ही नहीं, सान्स्क्रतिक एकता के लिये भी प्रयास
कर रही हैं। लेकिन, ऐसी ताक़तें भी हैं जो जीवन में विच्छेद
डालती हैं, जो मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद-भाव को बढ़ावा देती
हैं।
अतएव आज हमारे सामने जो प्रश्न है वह केवल
सैद्धान्तिक नहीं है उसका संबंध हमारे जीवन की सारी प्रक्रिया से है और उसके
समुचित निदान और समाधान पर ही हमारा भविष्य निर्भर करता है। साधारणतः, ऐसी समस्याओं को सुलझाने में नेत्रत्व देने का काम मनीषी करते हैं।
किन्तु, वे हमारे काम नहीं आये। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो
इस समस्या के स्वरूप को ही नहीं समझते। बाकी लोग हार मान बैठे हैं। वे विफलता-बोध
से पीड़ित तथा आत्मा के संकट में ग्रस्त हैं और वे जानते ही नहीं कि जिंदगी को किस
दिशा की ओर मोड़ना ठीक होगा।
बहुत से मनीषी मार्क्सवाद और उसकी शाखाओं की ओर
आक्रष्ट हुये और इसमें कोई सन्देह नहीं कि मार्क्सवाद ने ऐतिहासिक विकास का
विश्लेषण उपस्थित करके समस्याओं पर सोचने और उन्हें समझने के काम में हमारी सहायता
की। लेकिन आखिर को, वह भी संकीर्ण मतवाद बन गया और, जीवन की आर्थिक पध्दति के रूप में उसका चाहे जो भी महत्व हो, हमारी बुनियादी शंकाओं का समाधान निकालने में वह भी नाकामयाब है। यह
मानना तो ठीक है कि आर्थिक उन्नति जीवन और प्रगति का बुनियादी आधार है; लेकिन जिंदगी यहीं तक खत्म नहीं होती। यह आर्थिक विकास से भी ऊंची चीज
है। इतिहास के अंदर हम दो सिद्धांतों को काम करते देखते हैं। एक तो सातत्य का
सिद्धान्त है और दूसरा परिवर्तन का। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी लगते हैं, परन्तु, ये विरोधी हैं नहीं। सातत्य के भीतर भी
परिवर्तन का अंश है। इसी प्रकार, परिवर्तन भी अपने भीतर
सातत्य का कुछ अंश लिये रहता है। असल में, हमारा ध्यान
उन्हीं परिवर्तनों पर जाता है जो हिंसक क्रांतियों या भूकंप के रूप में अचानक फट
पड़ते हैं। फिर भी, प्रत्येक भूगर्भ-शास्त्री यह जानता है कि
धरती की सतह में जो बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं, उनकी चाल
बहुत धीमी होती है और भूकंप से होने वाले परिवर्तन उनकी तुलना में अत्यंत तुच्छ
समझे जाते हैं। इसी तरह, क्रान्तियाँ भी धीरे धीरे होने वाले
परिवर्तन और सूक्ष्म रूपान्तरण की बहुत लंबी प्रक्रिया का बाहरी प्रमाण मात्र होती
है। इस द्रष्टि से देखने पर, स्वयं परिवर्तन एक ऐसी
प्रक्रिया है जो परंपरा के आवरण में लगातार चलता रहता है। बाहर से अचल दीखने वाली
परंपरा भी, यदि जड़ता और म्रत्यु का पूरा शिकार नहीं बन गयी
है, तो धीरे धीरे वह भी परिवर्तित हो जाती है।
इतिहास में कभी कभी ऐसा भी समय आता है जब परिवर्तन
की प्रक्रिया और तेजी कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो जाती है। लेकिन, साधारणतः, बाहर से उसकी गति दिखाई नहीं देती।
परिवर्तन का बाहरी रूप, प्रायः,
निस्पंद ही दीखता है। जातियाँ जब अगति की अवस्था में रहती हैं, तब उनकी शक्ति दिनोंदिन छीजती जाती है, उनकी
कमज़ोरियाँ बढ़ती जाती हैं। परिणाम यह होता है कि उनकी रचनात्मक कलाओं और
प्रव्रत्तियों का क्षय हो जाता है। तथा, अक्सर वे राजनीतिक
रूप में गुलाम भी हो जाती हैं।
संभावना यह है कि भारत में संस्क्रति के सबसे प्रबल
उपकरण आर्यों और आर्यों से पहले के भारतवासियों, खास कर, द्रविड़ों के मिलन से उत्पन्न हुये। इस मिलन, मिश्रण
या समन्वय से एक बहुत बड़ी संस्क्रति उत्पन्न हुयी जिसका प्रतिनिधित्व हमारी
प्राचीन भाषा संस्क्रत करती है। संस्क्रत और प्राचीन पहलवी,
ये दोनों भाषायें एक ही माँ से मध्य एशिया में जनमी थीं,
किन्तु, भारत में आकर संस्क्रत ही यहाँ की राष्ट्रभाषा हो
गयी। यहाँ संस्क्रत के विकास में उत्तर और दक्षिण, दोनों ने
योगदान दिया। सच तो यह है कि आगे चल कर संस्क्रत के उत्थान में दक्षिण वालों का
अंशदान अत्यंत प्रमुख रहा। संस्क्रत हमारी जनता के विचार और धर्म का ही प्रतीक
नहीं बनी, वरन भारत की सांस्क्रतिक एकता भी उसी भाषा में
साकार हुयी। बुद्ध के समय से लेकर अब तक संस्क्रत यहाँ की जनता की बोले जाने वाली
भाषा कभी नहीं रही है, फिर भी, सारे
भारतवर्ष पर वह अपना प्रचुर प्रभाव डालती ही आयी है। कुछ दूसरे प्रभाव भी भारत
पहुंचे और उनसे भी विचारों और अभिव्यक्तियों को नयी दिशाएं प्राप्त हुयीं।
काफी लंबे इतिहास के अन्दर, भूगोल ने भारत को जो रूप दिया, उससे वह एक ऐसा देश
बन गया जिसके दरवाजे बाहर की ओर बन्द थे। समुद्र और महाशैल हिमालय से घिरा होने के
कारण, बाहर से किसी का इस देश में आना आसान नहीं था। कई
सहस्राब्दियों के भीतर, बाहर से लोगों के बड़े बड़े झुंड भारत
आये, किन्तु, आर्यों के आगमन के बाद से
कभी ऐसा नहीं हुआ, जबकि बाहरी लोग बहुत बड़ी संख्या में भारत
आये हों। ठीक इसके विपरीत, एशिया और यूरोप के आर-पार
मनुष्यों के अपार आगमन और निष्क्रमण होते रहे; एक जाति दूसरी
जाति को खदेड़ कर वहाँ खुद बसती रही और इस प्रकार, जनसंख्या
की बुनावट में बहुत बड़ा परिवर्तन होता रहा। भारत में, आर्यों
के आगमन के बाद, बाहरी लोगों के जो आगमन हुये, उनके दायरे बहुत ही सीमित थे। उनका कुछ-न-कुछ प्रभाव तो पड़ा, किन्तु, उससे यहाँ की जनसंख्या के स्वरूप में कोई
बड़ा परिवर्तन नहीं आया। लेकिन, फिर भी,
याद रखना चाहिये कि ऐसे कुछ परिवर्तन भारत में भी हुये हैं। सीथियन और हूण लोग तथा
उनके बाद भारत आने वाली कुछ अन्य जातियों के लोग यहाँ आकर राजपूतों की शाखाओं में
शामिल होगये और यह दावा करने लगे कि हम भी प्राचीन भारतवासियों की संतान हैं। बहुत
दिनों तक बाहरी दुनियाँ से अलग रहने के कारण, भारत का स्वभाव
भी अन्य देशों से भिन्न हो गया। हम ऐसी
जाति बन गये जो अपने आप में घिरी रहती है। हमारे भीतर कुछ ऐसे रिवाजों का चलन
होगया जिन्हें बाहर के लोग न तो जानते हैं और न ही समझ पाते हैं। जाति-प्रथा के
असंख्य रूप भारत के इसी विचित्र स्वभाव के उदाहरण हैं। किसी भी दूसरे देश के लोग यह
नहीं जानते कि छुआछूत क्या चीज है तथा दूसरों के साथ खाने-पीने या विवाह करने में, जाति को ले कर, किसी को क्या उज्र होना चाहिये। इन
सब बातों को लेकर हमारी द्रष्टि संकुचित होगयी। आज भी भारतवासियों को दूसरे लोगों से
खुल कर मिलने में कठिनाई महसूस होती है। यही नहीं, जब
भारतवासी भारत से बाहर जाते हैं, तब वहाँ भी एक जाति के लोग
दूसरी जाति के लोगों से अलग रहना चाहते हैं। हममें से बहुत लोग इन सारी बातों कों
स्वयंसिद्ध मानते हैं और हम यह समझ ही नहीं पाते कि इन बातों से दूसरे देश वालों
को कितना आश्चर्य होता है, उनकी भावना को कैसी ठेस पहुंचती
है।
भारत में दोनों बातें एक साथ बढ़ीं। एक ओर तो
विचारों और सिद्धांतों में हमने अधिक-से-अधिक उदार और सहिष्णु होने का दावा किया।
दूसरी ओर, हमारे सामाजिक आचार अत्यंत संकीर्ण होते गये। यह विभक्त व्यक्तित्व, सिध्दांत और आचरण का यह विरोध, आज तक हमारे साथ है
और आज भी हम उसके विरुध्द संघर्ष कर रहे हैं। कितनी विचित्र बात है कि अपनी
द्रष्टि की संकीर्णता, आदतों और रिवाजों की कमजोरियों को हम
यह कर नजर-अंदाज कर देना चाहते हैं कि हमारे पूर्वज बड़े लोग थे और उनके बड़े बड़े
विचार हमें विरासत में मिले हैं। लेकिन, पूर्वजों से मिले
हुये ज्ञान और हमारे आचरण में भारी विरोध है और जब तक हम इस विरोध की स्थिति को
दूर नहीं करते, हमारा व्यक्तित्व विभक्त का विभक्त रह जायगा।
जिन दिनों जीवन अपेक्षाक्रत अधिक गतिहीन था, उन दिनों सिध्दान्त और आचरण का यह विरोध इतना उग्र दिखायी नहीं देता था। लेकिन, ज्यों-ज्यों राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों की रफ्तार तेज होती गयी, इस विरोध की उग्रता भी अधिक से अधिक प्रत्यक्ष होती आयी है। आज तो हम
आणविक युग के दरवाजे पर खड़े हैं। इस युग की परिस्थितियाँ इतनी प्रबल हैं कि हमें
अपने इस आंतरिक विरोध का शमन करना ही पड़ेगा और इस काम में हम कहीं असफल होगये तो
यह असफलता सारे राष्ट्र की पराजय होगी और हम उन अच्छाइयों को भी खो बैठेंगे जिन पर
हम आज तक अभिमान करते आये हैं।
जैसे हम बड़ी-बड़ी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का
मुकाबला कर रहे हैं वैसे ही, हमें भारत के इस आध्यात्मिक
संकट का भी सामना करना चाहिये। भारत में औद्योगिक क्रान्ति बड़ी तेजी से आ रही है
और हम नाना रूपों में बदलते जा रहे हैं। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का यह
अनिवार्य परिणाम है कि उससे सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होते हैं; अन्यथा न तो हमारे वैयक्तिक जीवन में समन्वय रह सकता है, न राष्ट्रीय जीवन में। ऐसा नहीं हो सकता कि राजनीतिक परिवर्तन और
औद्योगिक प्रगति तो हो, किन्तु, हम यह
मान कर बैठें रह जायें कि सामाजिक क्षेत्र में हमें कोई परिवर्तन लाने की आवश्यकता
नहीं है। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के अनुसार समाज को परिवर्तित नहीं करने से
हम पर जो बोझ पड़ेगा, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे, उसके नीचे हम दब जाएँगे।
ईसा के जन्म के बाद की पहली सहस्राब्दी और उससे
पहले के भारत की जो तस्वीर हमारे सामने आती है वह उस तस्वीर से भिन्न है, जो बाद को मिलती है। उन दिनों के भारतवासी बड़े मस्त, बड़े जीवन्त, बड़े साहसी और जीवन के प्रति अद्भुत
उत्साह से युक्त थे तथा अपना संदेश वे विदेशों में दूर दूर तक ले जाते थे। विचारों
के क्षेत्र में तो उन्होने ऊंची से ऊंची चोटियों पर अपने कदम रखे और आकाश को चीर
डाला। उन्होने अत्यंत गौरवमयी भाषा की रचना की और कला के क्षेत्र में उन्होने
अत्यंत उच्च कोटी की कारयित्री प्रतिभा का परिचय दिया। उन दिनों का भारतीय जीवन
घेरों में बंद नहीं था, न तत्कालीन समाज में ही जड़ता या
गतिहीनता की कोई बात थी। उस समय एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक, समग्र भारत में सांस्क्रतिक उत्साह भी लहरें ले रहा था। इसी समय, दक्षिण भारतवर्ष के लोग दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर गये और वहाँ उन्होने
अपना उपनिवेश स्थापित किया। दक्षिण से ही बौध्द मत का संदेश लेकर बोधि-धर्म चीन
पहुंचा। इस साहसिक जीवन की अभिव्यक्ति में उत्तर और दक्षिण दोनों एक थे और वे
परस्पर एक दूसरे का पोषण भी करते थे।
इसके बाद, पिछली शताब्दियों
का समय आता है, जब पतन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भाषा
में क्रत्रिमता और स्थापत्य में सजावट की भरमार इसी पतनशीलता के प्रमाण हैं। यहाँ
आकर हमारे विचार पुराने विचारों की आव्रत्ति बन जाते हैं और कारयित्री शक्ति
दिनोंदिन क्षीण होने लगती है। शरीर और मन, दोनों की साहसिकता
से हम भय खाने लगते हैं तथा जाति-प्रथा का और भी विकास होता है एवं समाज के दरवाजे
चारों ओर से बन्द हो जाते हैं। पहले की तरह बातें तो हम अब भी ऊंची-ऊंची करते हैं, लेकिन, हमारा आचरण हमारे विश्वास से भिन्न हो जाता
है।
हमारे आचरण की तुलना में हमारे विचार और उद्गार
इतने ऊंचे हैं कि उन्हें देख कर आश्चर्य होता है। बातें तो हम शान्ति और अहिंसा की
करते हैं, मगर, काम हमारे कुछ और होते हैं। सिध्दांत तो हम
सहिष्णुता का बघारते हैं, लेकिन, भाव
हमारा यह होता है कि सब लोग वैसे ही सोचें, जैसे हम सोचते
हैं, और जब भी कोई हम से भिन्न प्रकार से सोचता है, तब हम उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। घोषणा तो हमारी यह है कि स्थितप्रज्ञ बनना
अर्थात कर्मों के प्रति अनासक्त रहना हमारा आदर्श है, लेकिन, काम हमारे बहुत नीचे के धरातल पर चलते हैं और बढ़ती हुयी अनुशासनहीनता
हमें वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों ही क्षेत्रों में नीचे ले
जाती है।
जब पश्चिम के लोग समुद्र के पार से यहाँ आये, तब भारत के दरवाजे एक खास दिशा की ओर से खुल गये। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता
बिना किसी शोर-गुल के धीरे-धीरे इस देश में प्रविष्ट होगयी। नये भावों और नये
विचारों ने हम पर हमला किया और हमारे बुध्दिजीवी अंग्रेज़ बुध्दिजीवियों की तरह
सोचने की आदत डालने लगे। यह मानसिक आंदोलन, बाहर की ओर
वातायन खोलने का यह भाव, अपने ढंग पर अच्छा रहा, क्योंकि इससे हम आधुनिक जगत को थोड़ा-बहुत समझने लगे। मगर, इससे एक दोष भी निकला कि हमारे ये बुध्दिजीवी जनता से विच्छिन्न हो गये
क्योंकि जनता विचारों की इस नयी लहर से अप्रभावित थी। परंपरा से भारत में चिंतन की
जो पध्दति चली आ रही थी, वह टूट गयी। फिर भी कुछ लोग उससे इस
ढंग से चिपके रहे, जिसमें न तो प्रगति थी, न रचना की नयी उद्भावना और जो पूर्ण रूप से नयी परिस्थितियों से असंबध्द
थी।
पाश्चात्य विचारों में भारत का जो विश्वास जगा था, अब तो वह भी हिल रहा है। नतीजा यह है कि हमारे पास न तो पुराने आदर्श हैं, न नवीन, और हम बिना यह जाने हुये बहते जा रहे हैं
कि हम किधर को या कहाँ जा रहे हैं। नयी पीढ़ी के पास न तो कोई मानदंड है, न कोई दूसरी ऐसी चीज, जिससे वह अपने चिंतन या कर्म
को नियंत्रित कर सके।
यह खतरे की स्थिति है। अगर इसका अवरोध और सुधार नहीं
हुआ तो इससे भयानक परिणाम निकल सकते हैं। हम आर्थिक, राजनीतिक
और सामाजिक क्षेत्रों में संक्रान्ति की अवस्था से गुजर रहे हैं। संभव है, यह उसी स्थिति का अनिवार्य परिणाम हो। लेकिन आणविक युग में किसी देश को
अपना सुधार करने के लिए ज्यादा मौके नहीं दिये जायेंगे। और इस युग में मौका चूकने
का अर्थ सर्वनाश भी हो सकता है।
यह संभव है कि संसार में जो बड़ी बड़ी ताक़तें काम कर
रही हैं, उन्हें हम पूरी तरह न समझ सकें, लेकिन, इतना तो हमें समझना ही चाहिये कि भारत क्या है और कैसे इस राष्ट्र ने
अपने सामासिक व्यक्तित्व का विकास किया है। उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू
कौन-से हैं और उसकी सुद्रढ़ एकता कहाँ छिपी हुयी है। भारत में बसने वाली कोई भी
जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है।
भारत, आज जो कुछ है, उसकी रचना में
भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ
पाते तो हम भारत को भी समझने में असमर्थ रहेंगे और यदि भारत को नहीं समझ सके तो
हमारे भाव, विचार और काम, सब के सब
अधूरे रह जायेंगे और हम देश की कोई ऐसी सेवा नहीं कर सकेंगे जो प्रभावपूर्ण और ठोस
हो।
(जवाहर लाल नेहरू)
नई दिल्ली,
30 सितंबर 1955
पुनरुत्पादित और जारी द्वारा
डा॰ गिरीश