भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

महंगाई रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के कदम अपर्याप्त - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

लखनऊ 27 जुलाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा त्रैमाषिक समीक्षा में उठाये गये कदमों को महंगाई रोकने के लिए नाकाफी बताते हुए कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के बयान से साफ जाहिर है कि खाद्य वस्तुओं की कमरतोड़ महंगाई रिजर्व बैंक का सरोकार नहीं है जबकि यही महंगाई हिन्दुस्तान के 90 प्रतिशत नागरिकों के जीवन को समस्याग्रस्त बना चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक का केवल गैर खाद्य पदार्थों की महंगाई पर चिन्तित होना इस देश की आम जनता के हितों के खिलाफ है।

यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य कोषाध्यक्ष प्रदीप तिवारी ने कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने खाद्य वस्तुओं के लिए गैर कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले अग्रिम में कटौती के लिए कोई उपाय नहीं किए हैं जिससे इन वस्तुओं की जमाखोरी पर अंकुश लगता। उन्होंने कहा कि हम आशा कर रहे थे कि भारतीय रिजर्व बैंक कम से कम अब खाद्य वस्तुओं के लिए अग्रिम पर सेलेक्टिव क्रेडिट कंट्रोल उपायों को लागू करेगा और इस क्षेत्र को मुद्रा प्रवाह को संकुचित करेगा।

बयान में कहा गया है कि शेयर मार्केट में उछाल और व्यवसायिक घरानों द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक के कदमों की सराहना से साबित होता है कि बाजार और सरमायेदार जैसा चाहते थे, भारतीय रिजर्व बैंक ने केवल उतने ही कदम उठाये हैं। केन्द्रीय बैंक का आम जनता से सरोकार समाप्त होना चिन्ता का विषय है जिस पर गम्भीर और व्यापक चर्चा होनी चाहिए।
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आज के युग में पैसा भगवान से ऊपर है

सुबह पेपर की मुख्य लाइन में घोर अन्याय पढ़कर और झुर्रीवाली बूढ़ी महिला का विलाप करता फोटो देखकर आंखों में आंसू आ गये।

भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद आये निर्णय को पढ़कर न्यायालय से भी विश्वास उठ गया। जिन लोगों के जिगर के टुकड़ों को इस भीषणतम त्रासदी निगल गई उनके परिवार, बच्चों, सगे संबंधियों के बारे में जरा सोचो। दो वर्ष का कारावास का निर्णय सुनकर उनके दिल पर क्या गुजरी होगी। यही कि आज के दुनिया में जहां पैसों के आगे भगवान को भी झुका दिया जाता है। कौन करेगा भगवान पर भरोसा इस निर्णय को सुनकर! बल्कि हर कोई इस निर्णय के बाद न्याय व्यवस्था से निर्भय होकर केवल पैसा कमाने की फिराक में रहेगा। धिक्कार है ऐसी दुनिया पर, जहां सोने चांदी की झनकार इंसानियत को भी बहरा बना देती है। जब इतने बड़े हादसे के बाद लोग सिर्फ दो साल की सजा पाएंगे तो फिर भ्रष्टाचार, जमीनों का घोटाला करने वालों को तो शायद दो दिन की जेल की सजा ही मिलेगी या फिर वह भी पैसों के बल पर माफ करवा देंगे।

बहुत ही शर्मनाक निर्णय है पढ़ने को भी मन नहीं लगा। दुनिया से मन उठ गया। आज मुझे हमारे भोपाल शहर के उन लोगों की और अपने उन कामरेड़ों की याद आ रही है जो इस हादसे के शिकार हो गये थे, आज उनके परिवार वालों को किस मुंह से सांत्वना दूं।

धिक्कार है इस न्याय प्रणाली को एक और घटना मुझे आज यह पढ़कर याद आ रही है। वैसे म.प्र. तथा केन्द्र की सरकार ने इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया हालांकि मेरे स्वर्गीय पति होमी दाजी ने जी-तोड़ मेहनत करके इसे लोगों के सामने पेश करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी- पर बदकिस्मती से उस समय न तो वे विधायक थे और न सांसद। इसलिए दोनों सरकारों ने पैसे वालों की बातें तो सुनी पर दाजी की बातें सुनने का उनके पास समय नहीं था।

जिस दिन यह हादसा हुआ, उस दिन दाजी दिल्ली से रेल द्वारा भोपाल आ रहे थे। अचानक रेल एक स्टेशन से पहले घंटों रुकी रह गई। ट्रेन क्यों इतनी देर रुकी है यह तलाशने की दाजी ने कोशिश की तो पता चला कि भोपाल स्टेशन मास्टर का फोन आया है कि भोपाल कांड हो गया है। उस भोपाल के स्टोशन मास्टर की ड्यूटी का समय समाप्त हो चुका था तथा घर जाने का वक्त था। किंतु गैस कांड की भयानकता एवं यात्रियों की जान की हिफाजत की चिंता के कारण उन्होंने भोपाल आने वाले सभी टेªनों को एक दो स्टेशन पहले ही रुकवा दिया था। फोन कर-कर स्टेशन मास्टर ने अपनी होशियारी, जिम्मेदारी तथा सेवा भाव की एक मिसाल कायम की।

जब सब शांत होने पर टेªन भोपाल पहुंची तो दाजी भी भोपाल पहुंचे। वे स्टेशन मास्टर के कमरे के पास खड़ी भीड़ देखकर तलाश की तो दंग रह गय। उनकी भी आंखों में पानी आ गया, जब उन्होंने उस नेक स्टेशन मास्टर को टेबिल पर सिर रखे हुए, गैस से दम घुट जाने के कारण मृत पाया। वह स्टेशन मास्टर कौन थे, उनका नाम तो मुझे नहीं मालूम, न दाजी हैं जिनसे पूछकर नाम याद किया जा सका है। पर उस समय तुरन्त और उसके बाद दाजी ने कई मंत्रियों से चर्चा की, मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को भी पत्र लिखा, बात की कि ऐसे सेवाभावी तथा योग्य स्टेशन मास्टर की एक प्रतिमा उनके नेक काम का हाल लिखकर भोपाल स्टेशन के बाहर लगाना अति आवश्यक है जिससे लोगों में नेक कामों की प्रेरणा मिल सके, उनके परिवार वालों को आर्थिक सहायता देना चाहिये तथा पुरस्कार देना चाहिए। पर आज भी इस पैसे की दुनिया में लोग सेवा या अच्छे कर्मों को कहां महत्व देते हैं; लोग तो बस पैसा-पैसा और पैसा ही देखते हैं।

अगर उस भले एवं नेक दिल स्टेशन मास्टर ने यात्रियों की जिन्दगी की बजाय स्वंय के जीवन के बारे में सोचा होता तो और हजारों लोगों की जाने चली जाती जिसमें दाजी भी थे, उनकी उस समय गैस त्रासदी या टेªन दुर्घटना में ही मृत्यु हो जाती। पर पैसों की महत्वकांक्षी इस दुनिया में आज भी आम आदमी कीड़े-मकोड़ों की तरह रोज मारे जा रहे हैं।

इतने बड़े हादसे की सजा केवल दो साल ही है तो फिर लोगों की मनोवृति अपराध करने की बढ़ेगी या कम होगी। मेरा एक सुझाव है कि म.प्र. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अभी भी उस स्टेशन मास्टर के नाम का पता लगवाकर उनकी प्रतिमा भोपाल स्टेशन के बाहर लगवायें, ताकि लोगों को नेक कामों की प्रेरणा मिल सके, साथ ही उस स्टेशन मास्टर को सच्ची श्रद्धांजली अर्पित की जा सके जिसके वे सही हकदार थे। उनके परिवार वालों को भी आर्थिक सहायता सम्मान के साथ दी जाय।

- पेरीन होमी दाजी
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सोमवार, 26 जुलाई 2010

5 जुलाई 2010 की अखिल भारतीय हड़ताल - हड़ताल जर्बदस्त सफल! आगे क्या?

देश का आम आदमी बेहद गुस्से में है; मनमोहन सिंह सरकार की जनविरोधी नीतियों को जनता स्वीकार नहीं करती। देश के आम लोगों का यह गुस्सा और यूपीए-दो सरकार के प्रति उनका मोहभंग 5 जुलाई 2010 की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के रूप में सामने आया। यह राष्ट्रव्यापी हड़ताल जबर्दस्त सफल हुई और वस्तुतः भारत बंद बन गयी।

अति प्रतीक्षित उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह ने न केवल पेट्रोल, डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के मूल्य बढ़ाने की घोषणा की बल्कि पेट्रोल और डीजल के मूल्यों को ‘डीकंट्रोल’ करने का दृढ़ इरादा भी प्रकट किया जिससे पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया।
सरकार ने बड़े निर्लज्ज ढंग से लोगों से कई झूठ बोले। 2008 में तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य प्रति बैरल 148 डालर था जो अब 77 डालर से कम है। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा झूठ बोलने वालों में सबसे आगे हैं। उन्होंने गलत बयानी की कि पड़ोसी देशों में पेट्रोल का मूल्य काफी ज्यादा है। लेकिन जानबूझकर यह तथ्य छिपाया गया कि नेपाल और अन्य पड़ोसी देशों में रुपये का मूल्य 100 रु. से 160 रु. का अनुपात में है। नेपाल में भारतीय रुपये का अनुपात ज्यादा है अर्थात भारत के 100 रु. वहां के 160 रु. के बराबर हैं।

पड़ोस के इन देशों में तुलना में भारत में खाद्य मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा है। विश्व भर में जितने गरीब लोग रहते हैं उनका आधा भारत में रहता है। भूमंडलीय सर्वेक्षणों के अनुसार मानव विकास इंडेक्स में भारत की गिनती सबसे नीचे के देशों में की जाती है।

पेट्रोलियत मंत्रालय का कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही मुरली देवड़ा पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्य बढ़ाने में लगे हुए हैं और पिछले 6 वर्षों में उनकी देखरेख में यूपीए सरकार ने 14 बार मूल्य बढ़ाये हैं। उनके खिलाफ यह आरोप है कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के तेल एवं गैस के मूल्य पूरी तरह तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मूल्य के अनुसार तय नहीं हो जाते। यानी भारत में ये मूल्य रिलांयस के मूल्यों के बराबर हो जायें ताकि रिलायंस के 3600 पेट्रोल पंप फिर से खुल जायें। रिलांयस को इन पेट्रोल पंपों को पहले इसलिए बंद करना पड़ा था क्योंकि ये अपना तेल सार्वजनिक क्षेत्र के खुदरा मूल्य से अधिक पर बेचते थे।
यह दुर्भाग्य की बात है कि यूपीए-2 के लिए राष्ट्र के हितों के अपेक्षा कार्पोरेट घरानों के हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

वामदलों को बदनाम करने के लिए एक राजनीकि अभियान चलाया गया कि उन्होंने यूपीए के खिलाफ लड़ाई में दक्षिणपंथी शक्तियों से हाथ मिला लिया। हकीकत यह थी कि इस तरह के ज्वलंत मूद्दे पर भाजपा और एनडीए में शामिल पार्टियों के लिए अखिल भारतीय हड़ताल का समर्थन करने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं था। कहा जाता है कि देश भर में छोटे-बड़े 42 राजनीतिक दलों ने एक ही समय राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था।

कांग्रेस शासित राज्य में लोगों को आतंकित करने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिसकर्मियों की तैनाती की गयी। सरकारी कर्मचारियों को दफ्तर में उपस्थित रहने के लिए पहले ही चेतावनी दे दी गयी थी। महाराष्ट्र में 50,000 पुलिसकमियों की तैनाती की गयी तथा विपक्षी पार्टियों के हजारों नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली एवं अन्य राज्यों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोग डरे नहीं और यूपीए की ओछी हरकतों की झांसे में नहीं आये और स्वतः बड़ी संख्या में बंद में शामिल हुए। ट्रेनें और बसें नहीं चलीं। दुकाने, बाजार बंद थे, शिक्षण संस्थाएं और दफ्तर बंद थे और यहां तक कि एयरपोर्ट भी बंद थे। पूरा राष्ट्र मानो ठप्प हो गया।

हड़ताल अत्यंत सफल रही। अब हमारे सामने प्रश्न है इसका नतीजा क्या है और अगला कदम क्या होगा?

बंद से एक दिन पहले, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि ‘बंद के बाद भी मूल्यवृद्धि वापस नहीं ली जायेगी।’ उन्होंने कहा, ‘यह संभव नहीं’। मानो यह कोई
संवैधानिक संशोधन है जो अब बदला नहीं जा सकता।

उनका बयान भारत के लोगों की सामूहिक भावना के प्रति यूपीए-2 सरकार के कठोर रवैये को ही व्यक्त करता है। उनका बयान कांग्रेस सरकार के अहंकार को व्यक्त करता है जो पिछले एक साल में किये गये उन अनेक एकतरफा फैसलों में बारम्बार झलकता रहा है।

5 जुलाई के बंद से वर्तमान आंदेालन का अंत नहीं हो गया है। मूल्यवृद्धि वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए एक लंबा संघर्ष चलाना होगा।
इस हउ़ताल या बंद से न केवल यह पता चलता है कि देश में यूपीए-2 कितनी अलग-थलग पड़ गयी है और कांग्रेस जनता से कितनी दूर हो गयी है, बल्कि इससे देश के करोड़ों लोगों में एक नया विश्वास पैदा हो गया है कि हम सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध और संघर्ष कर सकते हैं।

कुछ लोग पूछते हैं कि विपक्षी दलों की यह एकता कितने दिन चलेगी और इस संबंध में उदाहरण देते हैं कि किस तरह कुछ पार्टियों ने संसद के पिछले सत्र में वित्त
विधेयक में पेश किये गये कटौती प्रस्ताव पर वामपंथ के साथ मतदान नहीं किया।

यह सच है कि यूपीए-2 ने सीबीआई और अन्य सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके कुछ पार्टियों को फोड़ लिया था। लेकिन तब भी उन तमाम पार्टियों ने 27 अप्रैल, 2010 को हुई हड़ताल का समर्थन किया था। इस 5 जुलाई की हड़ताल में भी समाजवादी पार्टी ने सभी तरह की पहल की और इसमें शामिल हुई। राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी क्षुद्र स्थानीय राजनीति के कारण राष्ट्रीय हित के महत्व को तरजीह दे नहीं पायी। लेकिन इन दोनों पार्टियां ने 10 जुलाई को आंदोलन का आह्वान किया है।

लेकिन बसपा ने न केवल बंद का समर्थन नहीं किया बल्कि इसमें बाधा डालने की कोशिश भी की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लंबी-चौड़ी बात तो करती है लेकिन व्यवहार में वह इसके विपरीत है। लेकिन अन्य अनेक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों जैसे, जनता दल (एस), एआईडीएमके, एमडीएमके, उड़ीसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, असम गण परिषद, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम ने दृढ़तापूर्वक हड़ताल का समर्थन किया और इसे सफल बनाने में योगदान किया।

5 जुलाई की हड़ताल का उद्देश्य था यूपीए-2 सरकार की तेल नीति के खिलाफ देश भर में व्यापक जन प्रतिरोध का निर्माण करना और सरकार को दो टूक जवाब देना। इस उद्देश्य की पूर्ति हुई है। राजनीतिक विकल्प तैयार करने का प्रश्न सही समय पर राष्ट्र के एजेंडे में होगा।

हरेक आंदोलन और संघर्ष को राजनीतिक विकल्प से जोड़ने का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसके लिए और अनेक संघर्षों की जरूरत होगी।

अनेक राजनीतिक दलों को केवल एक मंच पर खड़ा कर देने से राजनीतिक विकल्प तैयार नहीं हो जायेगा। जन- संघर्षों से ऐसी परिस्थिति पैदा होगी जिसमें राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचना जरूरी हो जायेगा।

खाद्यान्नों और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में तेज वृद्धि से देश के गरीब और लोगों का जीना मुश्किल हो गया है जबकि शासक पार्टी इस बात से संतुष्ट है कि सेंसेक्स में कार्पोरेट घरानों के शेयर बढ़ गये हैं।

भविष्य में लोगों को और भी ज्यादा कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह परमाणु दायित्व बिल संसद में पारित कराने पर तुले हैं जो अमरीकी कार्पोेरेटों के सामने शर्मनाक आत्मसमर्पण होगा। तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों लोग इसकी परिधि से बाहर हो जायेंगे और वे बाजार तंत्र के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।

वामदलों को यह लड़ाई जारी रखनी चाहिए, यूपीए-2 सरकार की खोखली नीतियों का पर्दाफाश करना चाहिए और साथ ही सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ संघर्ष चलाते रहना चाहिए।

5 जुलाई की राष्ट्रव्यापी हड़ताल को सफल बनाने में हमारी पार्टी तथा अन्य वामदलों के कार्यकर्ताओं ने काफी अच्छा काम किया है। हमें संघर्ष को जारी रखना चाहिए तथा जनता की राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाना चाहिए।

- एस. सुधाकर रेड्डी
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जब शहीद सोने जाते हैं

जब शहीद सोने जाते हैं

तो मैं रुदालियों1 से उन्हें बचाने के लिए जाग जाता हूँ।

मैं उनसे कहता हूँ रू मुझे उम्मीद है तुम बादलों और वृक्षों

मरीचिका और पानी के वतन में उठ बैठोगे।

मैं उन्हें सनसनीखेज वारदात और कत्लोगारत की बेशी-कीमत2,

से बच निकलने पर बधाई देता हूँ।

मैं समय चुरा लेता हूँ

ताकि वे मुझे समय से बचा सकें।

क्या हम सभी शहीद हैं ?

मैं ज़बान दबाकर कहता हूँ:

धोबीघाट के लिए दीवार छोड़ दो गाने के लिए एक रात छोड़ दो।

मैं तुम्हारें नामों को जहाँ तुम चाहो टांग दूंगा

इसलिए थोडा सुस्ता लो, खट्टे अंगूर की बेल पर सो लो

ताकि तुम्हारे सपनों को मैं,

तुम्हारे पहरेदार की कटार और मसीहाओं के खिलाफ ग्रन्थ के

कथानक से बचा सकूं।

आज रात जब सोने जाओ तुम

उनका गीत बन जाओ जिनका कोई गीत नहीं है।

मेरा तुम्हें कहना है:

तुम उस वतन में जाग जाओगे और सरपट दौड़ती घोड़ी पर सवार हो जाओगे।

मैं ज़बान दबाकर कहता हूँ: दोस्त,

तुम कभी नहीं बनोगे हमारी तरह

किसी अनजान फाँसी की डोर !

1 रुदाली: पेशेवर विलापी

2 बेशी कीमत: मजदूर के जीवन-निर्वाह के लिए जरूरी मानदेय के अतिरिक्त मूल्य, जो पूंजीपति वर्ग के मुनाफे और उसकी व्यवस्था पर खर्च का स्रोत होता है.

- महमूद दरवेश
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ऐसे समय में भी

एक ऐसे समय में

जब मुसलमान शब्द

आतंक का पर्याय हो गया है

मैं ख़ुश हूँ

कि मेरे शहर में रहते हैं

बादशाह हुसेन रिज़वी

जो इंसान हैं उसी तरह

जिस तरह होता है

कोई भी बेहतर इंसान

पक्षी उनकी छत से उड़कर

बैठते हैं हिन्दुओं की छत पर

और उनके पंजों में बारूद नहीं होता

उनके घर को छूकर

नहीं होती जहरीली हवा

उसी तरह खिलते हैं उनके गमलों में फूल

जैसे किसी के भी

उनका हृदय हातिमताई है

जिसमें है हर दुःखी के लिए

सांत्वना के शब्द

सच्चे आँसू/और बहुत सारा वक़्त

हालांकि इतने बड़े लेखक के पास

नहीं होना चाहिए/उन चीजों के लिए वक़्त

आतंक के शोर के बाद भी

कम नहीं हुए हैं/उनके हिन्दू मित्र

आते हैं सेवइयाँ खाने/ढेर सारा बतियाने

आज भी वे लिख रहे हैं

मानवीय पक्ष की/जनवादी कहानियाँ

मैं ख़ुश हूँ/कि वे मेरे शहर में रहते हैं।


- रंजना जायसवाल
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शनिवार, 24 जुलाई 2010

महंगाई पर विषमताओं का द्वंद्व

23 जुलाई को बेहतर मानसून की संभावनाओं (बात दीगर है कि मानसून अभी तक विलम्बित ही नहीं बल्कि सामान्य से काफी कम है) का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने मार्च 2011 तक मुद्रा स्फीति में भारी गिरावट की उम्मीद जताते हुए कहा कि मार्च 2011 में यह 6.5 प्रतिशत रह जाएगी जबकि जून 2010 में यह 10.55 प्रतिशत रही है।
इसी दिन, गौर करें इसी दिन के सुबह के अखबारों में सरकार के हवाले से एक समाचार छपा कि सब्जियों के दाम घटने से 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति .घट कर, गौर करें कि घट कर 12.47 प्रतिशत हो गयी। इसके पिछले सप्ताह यानी 3 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर 12.81 प्रतिशत थी। सरकारी हवाले से इन समाचारों में कहा गया है कि 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में दाल की कीमतों में 0.84 प्रतिशत, सब्जियों में 0.13 प्रतिशत और गेहूं में 0.11 प्रतिशत की कमी हुई है।
अगर इन दोनों समाचारों को देखा जाए तो समझ में नहीं आता कि आखिर इस देश में मुद्रास्फीति की कितनी दरें सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और महंगाई वास्तव में किस दर से बढ़ रही है।
यह तो बात रही आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी की। इसे दूसरी दृष्टि से देखते हैं। अरहर की दाल दो साल पहले 25-26 रूपये किलो थी। आज इसका दाम 70 रूपये से 80 रूपये की बीच चल रहा है। सरकार महंगाई या मुद्रास्फीति दर कम होने का जो ढ़िढोरा पीट रही है, उसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि इसके दामों में कोई कमी आ जायेगी। इसका सीधा-साधा मतलब है कि इसके दामों के बढ़ने की गति कम हो जायेगी, मार्च 2011 में यही अरहर की दाल लगभग 87-88 रूपये किलो मिलेगी और अगर सरकार के दावे सही साबित हुए तो उसके एक साल बाद यानी मार्च 2012 में यह 93-94 रूपये प्रति किलो मिलेगी।
जहां तक 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में सब्जियों की कीमतें घटने के सरकारी दावे का सवाल है, वह अत्यन्त हास्यास्पद है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि बरसात की शुरूआत में सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसके कारण हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों को मालूम हैं। लखनऊ की सब्जी मंडियों में उस सप्ताह में सब्जियों की कीमतों में एक उभार आया था। दस रूपये किलो बिकने वाली तरोई और भिण्ड़ी बीस से चौबीस रूपये किलो हो गयी और 20 रूपये किलो बिकने वाला टमाटर 80 रूपये किलो हो गया। यही हाल अन्य सब्जियों का था सिवाय आलू और प्याज के जिनकी कीमतें स्थिर थीं। उसके बाद उनके भाव भी दो रूपये किलो बढ़ गये। सरकार दाम कहां से लेती है, यह वही जाने। जनता तो वही भाव जानती है जिस भाव उसे बाजार में चीजें मिलती हैं।
जिन्हें 20 रूपये या 12 रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करना पड़ता था, उन्हें आज भी इतने में गुजारा करना पड़ रहा है और आने वाले वक्त में भी इतने में ही गुजारा करना पड़ेगा। कितना कम मिल रहा होगा खाने को और कितना कम मिलेगा आने वाले वक्त में इसका अंदाजा मोटी पगार वाले भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार के मंत्रियों या बाबूओं, योजना आयोग और सलाहकार परिषद के सदस्यों को नहीं हो सकता। जरा 12 से 20 रूपये में दिन गुजारने वाले लोगों के हाले दिल की कल्पना कीजिए और तथाकथित विकास दर पर उछल रही मनमोहन सरकार और उसकी आका सोनिया गांधी की खुशियां देखिए। दोनों में व्याप्त विषमता का द्वन्द्व ही आशा की एक किरण है। शायद यही नए भारत का रास्ता बनाएगा।
(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश का कोषाध्यक्ष एवं ”पार्टी जीवन“ पाक्षिक का कार्यकारी सम्पादक है।)
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 17 जुलाई 2010

सुनो हिटलर

हम गाएंगे / अंधेरों में भी /

जंगलों में भी / बस्तियों में भी /

पहाड़ों पे भी / मैदानों में भी /


आँखों से / होठों से /

हाथों से / पाँवों से /

समूचे जिस्म से /


ओ हिटलर!


हमारे घाव / हमारी झुर्रियाँ /

हमारी बिवाइयाँ / हमारे बेवक़्त पके बाल /

हमारी मार खाई पीठ / घुटता गला/


सभी तो

आकाश गुनगुना रहे हैं।


तुम कब तक दाँत पीसते रहोगे?

सुनो हिटलर--!


हम गा रहे हैं।

- वेणूगोपाल
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शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

अलविदा कामरेड हुकम सिंह भण्डारी

टिहरी षहर के ठीक सामने पड़ने वाली पट्टी रैका । दोनों के बीच भीलींगना नदी, भागीरथी की सहायक। पट्टी दोगी की तरह रियासत का एक बेहद गरीब और उपेक्षित इलाका । लोक मान्यताओं के मुताबिक घोषित तौर पर रागस भूमि। राक्षस का विकट क्षेत्र, जिसमें जाने से ऐषतलब देवता भय खाते हैं । देवी-देवता वहां से दूर-दूर, बाहर-बाहर रहते हैं ।उस रैका कीे ऊँचाई पर, पहाड़ की चोटी पर बसे एक गांव पोड़या में बयासी साल पहले हुकमसिंह भण्डारी ने जन्म लिया था ।

अपने गांव से निकलने के बाद भण्डारी ने श्री सरस्वती मिडिल स्कूल लंबगांव में दाखिला ले लिया था, जिसे आज़ाद टिहरी सरकारने हाई स्कूल बना दिया था। इस विद्यालय को टिहरी रियासत के सामंतीष्षासन की ‘‘रियासत के अंदर सिर्फ सरकारी विद्यालयों के चलाए जाने की अनुमति ’’की हिटलरी षिक्षा नीति के विरोध में क्षेत्र की उत्साही जनता आपस में चंदा करके जर्बदस्ती संचालित करने लगी थी । इसके संस्थापकों-संचालकों में ज़्यादातर को सामंती ष्षासन ने गिरफ्तार कर टिहरी जेल में लंबी-लंबी सजाएं और यातनाएं दी थीं । उनमें पुरूषोŸादŸा रतूड़ी (मास्टरजी), खुषहालसिंह रांगड़, नत्थासिंह कष्यप, लक्ष्मी प्रसाद पैन्यूली भी थे ।

लंबगांव से हाईस्कूल करने के बाद भण्डारी मसूरी चले गए थे। उस जमाने में रैका के ज़्यादातर लोग होटलों में काम करने मसूरी चले जाते थे। वहां से स्नातक हो जाने के बाद एम ए की पढ़ाई करने लिए भण्डारी ने देहरादून आकर डीएवी कॉलेज में दाखिला ले लिया। देहरादून में वे कॉ ब्रजेन्द्र गुप्ता के और निकट संपर्क में आए और उनके द्वारा संचालित किए जाने वाले मार्क्सवादी विचारधारा के स्टडी सर्कलों में भाग लेने लगे। डीएवी कॉलेज के अनेक दूसरे विद्यार्थी भी उन स्टडी सर्कलों में भाग लेते हुए कम्युनिस्ट राजनीति से जुड़ने लगे। रूप नेगी, षांति गुप्ता जैसी लड़कियां भी उनमें षामिल थीं । स्टडी सर्कलों में षिरकत करने वाले छात्र एस एफ (स्टूडंेट्ंस फेडरेषन ) के सदस्य के रूप में अपने अध्ययन की बदौलत अपनी-अपनी कक्षाओं में छात्रों के बीच अपनी एक नई छवि का निर्माण करने लगे। मार्क्सवादी विचारधारा के घेार-विरोधी अध्यापक भी उनके अध्ययन के कायल होने लगते थे। दिन में छात्रों के बीच रह कर उनकी रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान करने के लिए उन्हें संगठित करने के कार्याें में व्यस्त रहने के बाद वे रात-रात भर गंभीर विषयों पर लिखी पुस्तकों का अध्ययन करने में डूबे रहते। उपन्यास, साहित्य,इतिहास और अर्थषास्त्र के बारे में उनके नई किस्म के विचारों से आम छात्र प्रभावित होने लगे। यह बात पूरे भारत के तत्कालीन एस एफ छात्रों पर लागू होती थी।

सन् 1951 में एस एफ के आंदोलन में भाग लेने के कारण देहरादून प्रषासन ने उसके अनेक सदस्यों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। उनमें टिहरी के हुकमसिंह भण्डारी,विद्यादŸा रतूड़ी, गोविंदसिंह रांगड़, बलदेवसिंह रांगड़, राजेष्वरप्रसाद उनियाल (डाक्टर साहब), गोकुलचन्द रमोला और ललित भण्डारी, पौड़ी गढ़वाल के कॉ भारती और 11 अन्य जिलों के एस एफ सदस्य भी थे । उससे कुछ समय पहले तेज बुखार की हालत में गिरफ्तार करने के बाद संयुक्त प्रान्त(यू0पी0) की सरकार कॉ रूद्रदŸा भारद्वाज को ष्षहीद बना देने का कलंक अपने माथे पर ले चुकी थी। एस एफ के छात्रों को नौ दिनों तक बेवजह जेल में रखने के बाद ही सरकार ने उन्हें रिहा किया। गिरफ्तार होने वाले एस एफ के इन बहादुर लड़ाकू छात्रों के नाम रातों-रात समूचे गढ़वाल और मैदान के निकटवर्ती जिलों में मषहूर हो गए।

देहरादून से एम ए अर्थषास्त्र की डिग्री लेने के बाद कॉ भण्डारी लंबगांव लौट आए । सरस्वती हाई स्कूल में उन्हें अध्यापक बना दिया गया, जहां वे सेेवानिवृŸिा तक कार्यरत रहे । विद्यादŸा रतूड़ी प्रिंसिपल। इन लोगों के अथक परिश्रम की बदौलत उस विद्यालय को बहुत जल्द इंटर कॉलेज की मान्यता प्राप्त हो गई । अपने ज्ञान और सरल स्वभाव के कारण भण्डारी की अपने विद्यार्थियों के बीच बहुत अच्छी छवि बनने लगी । कॉलेज में उनके सहयोगी भी उनकी सम्मतियों को महत्वपूर्ण मानते हुए उनसे प्रभावित होने लगे ।

उनके संपर्क में आने वाले ग्रामीण जन पर भी उनके सरल व्यक्तित्व और मृदु व्यवहार की अमिट छाप पड़ने लगी । कॉ भण्डारी के आमजन को सरल भाव से समझाने का नतीजा था कि टिहरी क्षेत्र के ग्रामीण मतदाताओं ने आम निर्वाचन में कम्युनिस्ट प्रत्याषी कॉ गोविंदंिसंह नेगी को तीन बार विधान सभा में विजयी बना कर अपने प्रतिनिधि के रूप में लखनऊ भेजा ।

बाद के दिनों में क्षेत्रीय जनता के आग्रह पर कॉ भण्डारी को प्रतापनगर क्षेत्र समिति का प्रमुख बनने को सहमत होना पड़ा । कुछ समय पूर्व कॉ भण्डारी के पुराने साथी,देहरादून में सहबन्दी रहे गोकलचन्द रमोला इस क्षेत्र समिति के प्रमुख चुने गए थे । भण्डारी ने अपने कार्यकाल में साधनों की कमी के बावजूद उपेक्षित व अलग-थलग पड़े अनेक इलाकों में सार्वजनिक महत्व के अनेक ऐसे कार्यभी संपन्न करवा दिए, जिनकी ओर तब तक किसी ने तवज्जो नहीं दी थी ।

सेवानिवृŸा होते ही भण्डारी कम्युनिस्ट पार्टी की दैनिक कार्यवाहियों में व्यस्त होने लगे अपने दिन-प्रतिदिन बिगड़ते स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए । मिलने वालों साथियों या आमजन को वे अपने स्वास्थ्य के बारे में कभी कुछ बताते ही नहीं थे । उनकी किडनी तक ने जवाब दे दिया था । सिवा आंखों के और जुबान के बाकी ष्षरीर के एक-एक अंग को असाध्य रोगों ने अपनी चपेट में ले लिया था । पार्टी कार्य करने के लिहाज से वे अपने गांव पोड़या से नई टिहरी की कोटी कॉलोनी में आकर निवास करने लगे थे । वहीं से 10 जून 2010 को फोन पर दिल्ली के एक अस्पताल में मेरे एंजियोप्लास्टी किए जाने की जानकारी होने पर उन्हांेने मुझसे बात की । इससे पहले कि मैं उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछूं, उन्होंने फोन रख दिया। अब ,10 जुलाई 2010 को उनके हमें छोड़ कर चले जाने के बाद उनकी वही आवाज लगातार मेरे कानों में गूंजती रहती है ।
लाल सलाम कॉ भण्डारी!

- विद्यासागर नौटियाल
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खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा अंगीकृत घोषणापत्र

1 जुलाई 2010 को चार वामपंथी पार्टियों - भाकपा, भाकपा (मा), फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी ने दिल्ली के मावलंकर भवन में खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन ने निम्न घोषणापत्र जारी किया:
"राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन इस पर अपनी गंभीर चिन्ता व्यक्त करता है कि
गेहूं, चावल, खाद्य तेलों, चीनी, दालों और सब्जियों समेत आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही है जिससे देश की आबादी के बड़े तबकों में वंचना तेज हो गयी है और यह ऐसे समय हो रहा है जबकि भूमंडलीय रिपोर्टें दिखा रही हैं कि विश्व में सबसे अधिक कुपोषित एवं अल्पपोषित बच्चे, सबसे अधिक कम वजन के बच्चे और सबसे अधिक रक्ताल्पता की शिकार महिलाएं भारत में हैं और ये सभी लोग भूख के शिकार हैं। भूमंडलीय भूख सूचकांक में 88 देशों में भारत अत्यंत निम्न 66वें स्थान पर है।
राष्ट्रीय सम्मेलन का मानना है कि:
महंगाई के लिए केन्द्र सरकार की नीतियां मुख्यतः जिम्मेदार हैं और केन्द्र सरकार द्वारा इसके लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश अपनी गलत नीतियों को बदलने और महंगाई को रोकने में इसकी अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए है।
केन्द्र सरकार की ये गलत नीतियां हैं:
1 - सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमजोर करना और इसके परिणामस्वरूप बाजार की ऊंची कीमतों को बराबरी पर लाने का दबाव डालने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली जो महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, उसकी उस भूमिका का क्षरण होना। यह नीति उपभोक्ताओं को बाजार पर निर्भर करने के इरादे से बनायी गयी और इस तरह करोड़ों लोगों को मुनाफाखोरों और चोर-बाजार करने वालों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया।
2 - राज्यों के खाद्यान्न आबंटनों को बहाल करने से सरकार का इंकार। इन आबंटनों को पिछले पांच वर्षों में औसतन 73 प्रतिशत कम कर दिया गया है और केरल में तो यह कटौती 80 प्रतिशत से भी अधिक है। केन्द्र के पास खाद्यान्न का 6 करोड़ टन का विशाल बफर स्टाक है, पर उसने अगले छह महीनों में केवल 30 लाख अतिरिक्त खाद्यान्न ही राज्यों को जारी करने का एक बेहद गलत फैसला लिया है और वह खाद्यान्न अब से ऊंची दरों पर, एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) के मूल्यों से अधिक की दर पर - चावल को 42.7 प्रतिशत अधिक और गेहूं को 38.5 प्रतिशत अधिक की दर पर दिया जायेगा। सरकार ऐसी वाजिब कीमत पर - जिसको लोग सहन कर सकें, खाद्यान्न लोगों को देने के स्थान पर उन्हें खुले में सड़ने या चूहों द्वारा खाये जाने को तरजीह देती है।
3 - सरकार ने आवश्यक वस्तुओं - जिनमें गेहूं, दालों की कई किस्में, खाद्य तेल, यहां तक कि आलू जैसी सब्जियों तक के भी वायदा कारोबार की इजाजत दे रखी है। कमोडिटी एक्सचेंजों में वायदा बाजार के जबरदस्त बढ़ते कारोबार से नगद कीमतों पर असर पड़ता है जो इनकी कीमतों में बृद्धि कर देती है, यह चीज खुले आम मुनाफाखोरी को दर्शाती है जो भी सरकार ने आवश्यक खाद्य वस्तुओं में वायदा कारोबार पर रोक लगाने से मना कर दिया है।
4 - सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के प्रशासित मूल्य तंत्र को हटाकर इसके मूल्य तय करने का अधिकार बाजार पर छोड़ दिया है जिससे पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के मूल्यों में वृद्धि हो गयी है और अन्य सभी वस्तुओं की कीमतों पर उसका असर पड़ा है। पेट्रोलियम उत्पादों के वर्तमान मूल्य ढांचों में केन्द्र सरकार के टैक्सों का बड़ा हिस्सा होता है जिससे सरकारी राजस्व मिलता है, जबकि इससे आम लोगों को इनकी बढ़ी कीमतें झेलनी पड़ती हैं। पेट्रोल एवं डीजल के मूल्यों में और अधिक वृद्धि का वर्तमान कदम विनाशकारी होगा। यह सम्मेलन सरकार को इस तरह के फैसले के विरूद्ध चेतावनी देता है।
यह सम्मेलन खाद्य वस्तुओं के ऊपर मूल्य नियंत्रण की मांग करता है। खाद्य सुरक्षा सुरक्षित करने के लिए बनायी जाने वाली नीति में निम्न बातें शामिल की जानी चाहिए:
(1) सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाये और राज्यों को एपीएल की मूल्य दरों पर खाद्यान्न आबंटनों को फिर से चालू किया जाये।
(2) आवश्यक वस्तुओं के वायदा कारोबार पर प्रतिबंध लगाया जाये।
(3) पेट्रोल और डीजल की कीमतें कम की जायें।
(4) आवश्यक वस्तुओं में मुनाफाखोरी और कालाबाजारी को रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जायें।
खाद्य सुरक्षा एवं महंगाई पर राष्ट्रीय सम्मेलन इसकी कठोर आलोचना करता है कि:
केन्द्र सरकार हमारे देख के नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक असरदार कानून को पेश करने में देरी कर रही है। मंत्रि-समूह जिस मसविदे पर विचार-विमर्श कर रहा है, वह खाद्य सुरक्षा देने के बजाय खाद्य असुरक्षा पैदा करेगा क्योंकि उसमें वर्तमान आबंटन को कम किया गया है, जो लोग पात्र हैं, उनकी संख्या में कटौती की है और वर्तमान अन्त्योदय प्रणाली को वस्तुतः समाप्त कर दिया गया है।
बदतर बात यह है कि वर्तमान मसविदे में लक्षित करने की प्रणाली बनाकर और आबादी को एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) और बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) में बांटने को कानून का एक हिस्सा बनाकर असल में, गरीबी की अत्यंत अस्पष्ट एवं अनिश्चित परिभाषाओं के आधार पर गरीबों के अत्यंत बड़े तबकों को खाद्य सुरक्षा के दायरे से बाहर करने को कानूनी स्वरूप दे दिया गया है। इस लिहाज से, वर्तमान मसविदा और खाद्य सुरक्षा की जिस अवधारणा को यह पेश करता है, वह एक पीछे ले जाने वाला कदम होगा और यदि इसे मंजूर कर लिया गया तो उससे, जब कोई कानून ही नहीं था उससे भी अधिक नुकसान पहुंचेगा।
यह सम्मेलन,
गरीबी का अनुमान लगाने और गरीबी की परिभाषा करने के नाम पर चल रही ओछी राजनीति और कितने परिवारों को इसमें शामिल किया जाये या बाहर रखा जाये, उस बारे में चल रही सौदेबाजी की भर्त्सना करता है। यह राजनीति और सौदेबाजी इस तरह चल रही है कि मानों करोड़ों लोगों की जिन्दगी और भविष्य नहीं, बल्कि बाजार में किसी वस्तु की कीमत दाव पर लगी है। मुद्दा यह कदापि नहीं है कि इस या उस नेता को खुश करने के लिए ”कुछ और अधिक लोगों को बीपीएल में शामिल कर लिया जाये“ या नहीं, बल्कि मुद्दा यह है कि वर्तमान कवायद का आधार ही अवैज्ञानिक है। आधिकारिक तौर पर गठित तीन समितियों ने गरीबी के अलग-अलग अनुमान बताये हैं जिनमें भारी अंतर है। इन अनुमानों में आबादी के 77 प्रतिशत से लेकर 50 प्रतिशत और 37.5 प्रतिशत (ग्रामीण भारत के लिए) तक लोग गरीब बताये गये हैं। इसी से पता चलता है कि मुद्दा गरीबी के आकलन के आधारों के अवैज्ञानिक होने का है।
देश का विशाल बहुमत असंगठित क्षेत्र में काम करता है; उनकी कोई निश्चित आमदनी नहीं, महंगाई बढ़ने पर उससे बचाव का कोई तरीका नहीं। सरकार के स्वयं के ही द्वारा गठित ”असंगठित क्षेत्र के लिए आयोग“ ने अनुमान लगाया है कि देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है। इससे स्वयं जाहिर है कि देश में एक ऐसी वाजिब कीमत पर जिसका लोग बोझ उठा सकें, खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की गारन्टी के लिए सार्वजनिक वितरण की एक सार्वभौम प्रणाली (जिसके दायरे में सभी लोग आ जायें) की जरूरत है।
यह सम्मेलन दोहराना चाहता है कि:
केवल एक सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली ही कम से कम न्यूनतम खाद्य सुरक्षा की गारंटी कर सकती है। इसका अर्थ है कि वर्तमान लक्षित प्रणाली को और खाद्य, स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे मुद्दों के लिए एपीएल और बीपीएल के विभाजन को खत्म किया जाये।
यह सम्मेलन मांग करता है कि:
सरकार संसद के आगामी अधिवेशन में एक संशोधित खाद्य सुरक्षा बिल लाये जिसमें निम्न न्यूनतम बातें शामिल हों:
(1) यह एक सार्वभौम अधिकार होना चाहिए।
(2) उसमें प्रत्येक नाभिक परिवार (ऐसी सामाजिक इकाई जिसमें माता, पिता और बच्चे शामिल हैं) को कम से कम 35 किलोग्राम खाद्यान्न मासिक की गारंटी होनी चाहिए।
(3) खाद्यान्न की कीमत दो रूपये प्रति किलो तय की जानी चाहिए। खाद्यान्नों में मोटे अनाज भी शामिल होने चाहिये, जो भारत के अनेक हिस्सों में मुख्य खाद्य हैं और अत्यंत पोषक हैं।
(4) उसमें दोपहर के भोजन (मिड डे मील) और समेकित विकास योजना (आईसीडीसी) के लिए आबंटन की कानूनी गारन्टी के जरिये स्कूल-पूर्व बच्चों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रावधान होने चाहिए।
(5) उसमें अन्य कुछ आवश्यक वस्तुओं को शामिल किये जाने को सुनिश्चित किया जाना चाहिए जैसा कि कई राज्य सरकारें कर रही हैं।
यह सम्मेलन,
खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता है। सम्मेलन भूमि सुधारों और भूमिहीनों को फालतू भूमि के वितरण पर जोर देता है। साथ ही साथ भूमि के आवश्यक विकास के लिए आबंटन भी किया जाना चाहिए जिससे करोड़ों भूमिहीन लोगों को अपनी आजीविका के साधनों को बढ़ाने में मदद के अलावा खाद्य सुरक्षा को जबर्दस्त बढ़ावा मिलेगा। इस संदर्भ में सम्मेलन इसकी भर्त्सना करता है कि केन्द्र सरकार के एजेंडे पर भूमि सुधार का काम है ही नहीं।
कृषि में कम वृद्धि से सरकार द्वारा कृषि विकास और किसान समुदाय के अधिकारों एवं कल्याण को प्राथमिकता न दिये जाने का पता चलता है। सम्मेलन मांग करता है कि ग्रामीण बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए और बिजली, सिंचाई सुविधाओं एवं किसानों के लिए कृषि प्रसार सेवाओं के प्रावधान के लिए सरकारी खर्च में पर्याप्त वृद्धि की जाये।
निर्यात के लिए नकदी फसलों को प्रोत्साहन देने की सरकार की नीतियों से खाद्यान्न-उत्पादन में आत्मनिर्भरता के प्रति सरकार के उदासीन दृष्टिकोण का पता चलता है। बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याओं से पता चलता है कि भारत के किसान जबरदस्त संकट में हैं। एम.एस.स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले किसान आयोग ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सिफारिशें देने के साथ ही साथ किसानों के इस संकट से पार पाने के लिए अत्यंत मूल्यवान एवं किसान हितैषी सिफारिशें की थीं। पर सरकार ने उन सिफारिशों पर अमल नहीं किया।
कृषि के मामले में सरकार कितनी निर्दय है, इसका पता इससे चलता है कि उसने उर्वरक अनुदान में 3000 करोड़ से भी अधिक की कटौती कर दी। बीज उपलब्धता के वर्तमान संकट, बीजों के मूल्य में भारी वृद्धि और खाद्य उत्पादन में निवेश होने वाली वस्तुओं की बढ़ती लागत से भारी तादाद में देश के किसानों के लिए खेती लाभप्रद नहीं रह गयी है। इनमें से 70 प्रतिशत किसान सीमांत किसान हैं। ये ऐसे खतरनाक लक्षण हैं जो इशारा कर रहे हैं कि यदि भारत महंगे खाद्यान्न आयात पर निर्भर हो गया और ताकतवर खाद्य निगमों की लूट का निशाना बन गया तो देश का भविष्य क्या होगा।
यह सम्मेलन ऐसी किसानपरस्त नीतियों की मांग करता है जो कृषि निवेश की वस्तुओं के नियंत्रण मूल्य पर मिलने, उत्पादों के लिए वाजिब मूल्य, खरीद केन्द्रों के एक मजबूत नेटवर्क, खाद्यान्नों एवं दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन को सुनिश्चित करे। अधिकांश आदिवासी किसान अत्यधिक गैर उपजाऊ जमीन पर खेती करते हैं। सम्मेलन मांग करता है कि उन्हें एक विशेष पैकेज दिया जाये। उनके उत्पादों के लिए वाजिब मूल्य और खरीद की व्यवस्था की जाये, सूखी एवं गैर सिंचित जमीन के लिए अनुकूल मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, कोदो, सावां आदि के उत्पादन के लिए उन्हें प्रोत्साहन दिया जाये।
सम्मेलन सरकार की उन नीतियों को, जिनके फलस्वरूप लोगों की बदहाली, कंगाली और मुसीबतें बढ़ी है, महंगाई बढ़ी है, खाद्य असुरक्षा बढ़ी है, बदलने के लिए और खाद्य सुरक्षा एवं उपर्वर्णित सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर आधारित प्रभावी खाद्य सुरक्षा कानून के लिए संघर्ष को तेज करने का संकल्प करता है और शहरों एवं मोहल्लों तक इस संदेश को पहुंचाने के लिए देश भर में अगस्त में एक महीना लम्बे अभियान और संघर्ष का आह्वान करता है। इस अभियान में धरना, पदयात्राओं, जीप जत्थों, जुलूसों, प्रदर्शनों, घेराव जैसे कार्यक्रम शामिल होंगे जिनके बारे में स्थानीय एवं राज्य स्तर पर फैसले किये जा सकते हैं।
इस सम्मेलन का आह्वान है कि खाद्य सुरक्षा के अपने अधिकारों और महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए जोर डालने के लिए जनता के विशाल एवं व्यापकतम तबकों तक पहुंचा जाये।

सरकार की नीतियों को बदलो!
महंगाई के जरिये जनता की लूट बंद करो!!
एपीएल के नाम पर गरीबों को खाद्य सुरक्षा से बाहर रखने की साजिश बंद करो!
लक्षित प्रणाली खत्म करो!
सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू करो!
खाद्यान्नों को गोदामों से निकाल जनता को दो!
चूहों को नहीं जनता को खाद्यान्न खिलाओ!!!

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बुधवार, 14 जुलाई 2010

गड़े मुर्दे मत उखाड़ें, वक्त के तकाजे को अमल करें - एटक की अपील

प्रिय कामरेड पंधे,
“आपकी पत्रिका “वर्किंग क्लास” (जून 2010) में प्रकाशित का. जीवन राय के आलेख की तरफ हमारा ध्यान दिलाया गया है। उस आलेख को हमने गंभीरता से पढ़ा है।
आप कृपया स्मरण करें कि आपके कार्यालय में ही कोयला हड़ताल के प्रश्न पर चर्चा हुई थी और हमने सुझाव दिया था कि हड़ताल की तारीख आगे बढ़ायी जाय और अन्य टेªड यूनियनों के परामर्श से हड़ताल की वैकल्पिक तारीख तय की जाय। असलियत में एटक के राष्ट्रीय सचिव रमेन्द्र कुमार ने इस बारे में एक पत्र का. जीवन राय को 27 अप्रैल 2010 को ही लिखा और हड़ताल करने के लिए अन्य संबंधित टेªड यूनियनों से परामर्श करने का सुझाव दिया था, किंतु का. जीवन राय ने अपने आलेख में हड़ताल में शामिल नहीं होने वाले यूनियनों को ‘अवसरवादी’ होने का आरोप लगाया है। जाहिर है, एटक ने उस हड़ताल में भाग नहीं लिया, जिस हड़ताल की तारीख का एकतरफा फैसला आपके संगठन ने किया। इसलिए इस दोषारोपण को हम पूरी तरह इंकार करते हैं, बल्कि हमारा आरोप है कि आपके संगठन ने एटक एवं अन्य संगठनों से परामर्श किये बगैर एकतरफा फैसला लेकर हड़ताल में एटक एवं अन्य संगठनों को शामिल होने से अलग कर दिया। इस तरह टेªड यूनियनों में आम सहमति बनाने के हमारे प्रयास का अनदेखा किया गया। हमें भय है, आपका यह आचरण एकता के लिए गंभीर वचनबद्धता का बयान नहीं है।
आप महसूस करेंगे कि टेªड यूनियनों की प्रतिद्वंद्विता को एक-दूसरे की टंगरी काटने की अधोगति में नहीं परिणत करना चाहिए। यह आचरण सरकार की प्रतिक्रियावादी नीतियों के विरुद्ध लड़ाकू व्यापक कारगर एकता के निर्माण को कमजोर करता है। ऐसा आचरण मजदूरों को विभाजित रखता है और इसलिए यह मजदूर वर्ग की व्यापक एकता में बड़ी बाधा है।
एटक और इंडिया माईंस वर्कर्स फेडरेशन का निजीकरण, विनिवेश, आउटसोर्सिंग आदि के खिलाफ संघर्ष का शानदार रिकार्ड है। हमने बराबर व्यापक मंच का निर्माण किया है और मजदूर वर्ग को संघर्ष के मैदान में उतारा है। अगर मजदूरों का कुछ तबका अपने यूनियन के बैनर तले अलग झुंड बनाकर व्यापक एकता से बाहर हो जाता है तो इसमें संदेह नहीं कि यह राष्ट्रीय स्तर की व्यापक एकता को भी नुकसान पहुंचाता है और यह अपने आप में उन उद्देश्यों के प्रति भी कुसेवा है, जिसके लिए वह हड़ताल आयोजित की गयी थी।
आप संकटपूर्ण वर्तमान समय के तकाजे से अवगत हैं, जिसके चलते हाल के दिनों में वामदलों ने पलटियां खायी हैं। देश संकट से गुजर रहा है। भविष्य की नयी चुनौतियों का सामना व्यापक एकता के माध्यम से ही किया जा सकता है। हम सबने नौ केंद्रीय मजदूर संगठनों के बीच आपसी सहयोग और परस्पर परामर्श से एकता को मजबूत बनाने में सफलता हासिल की है। वर्तमान समय में मजदूर वर्ग के नये रूझान का यह इजहार है। यह प्रयास हमें जारी रखना है।
आप अपने संगठन का महिमा मंडन करें तो इसमें कुछ भी नुकसान नहीं है, जैसा आपके अध्यक्ष द्वारा किया प्रतीत होता हैं, किंतु ऐसा करते समय अन्य संगठनों की भूमिका नकारी नहीं जा सकती जो, ज्यादा नहीं तो, आपकी तरह ही समान रूप से गौरवशाली है।
इस आलेख में एटक और सीटू के पुराने मतभेदों को प्राथमिकता दी गयी है, जबकि तथ्य यह है कि हम सरकार की दुर्नीतियों के खिलाफ मिलकर संघर्ष किये हैं। यह तथ्य नजरअंदाज किया गया है। वर्तमान संदर्भ में क्या यह उचित है कि इतिहास के गड़े मुर्दों को फिर से उखाड़ा जाय? उन्होंने अपने लेख में तथाकथित कतिपय निराधार घटनाओं का उल्लेख किया है और एटक को ‘मजदूर विरोधी’ कहकर निंदित किया है। इससे हम अत्यंत क्षुब्ध है। ऐसी लांछना को हम पूरी तरह खारिज करते हैं। एटक मजबूती से विश्वास करता है कि वर्तमान समय में हमारा उद्देश्य न केवल राष्ट्रीय स्तर पर एकता को मजबूत करने का होना चाहिए, बल्कि औद्योगिक और क्षेत्रीय स्तर पर भी संपूर्ण मजदूर वर्ग के बीच महत्तर सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने का भी होना चाहिए।
हम आपसे अपील करते हैं कि आप सुनिश्चित करें कि पत्र-पत्रिकाओं में कुछ भी ऐसा प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए, जिससे यह ऐतिहासिक एकता भंग हो, जिसे हमने हाल के दिनों में निर्मित की है।
चूंकि वह आलेख, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की पंक्तियों में की है, आपकी पत्रिका में प्रकाशित हुई है, इसलिए यह पत्र भी हम एटक पत्रिका ‘ट्रेड यूनियन रिकाडर्’ में प्रकाशित कर रहे हैं।
भाईचारा के साथ,
जी एल धर
सचिव, एटक”
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कंपनी अफसरों का वेतन करोड़ों में - करते क्या हैं वे मोटे पगार वाले?

दो भारत बन रहा है। एक ‘शाइनिंग इंडिया’ तो दूसरा ‘दरिद्र भारत’। इसी तरह श्रम के भी दो मानक हो गये हैं ‘आफिसर्स पर्क’ और ‘मजदूरों की दिहाड़ी’। कंपनी के सीइओ के वेतन करोडों में, लेकिन मजदूरों की दिहाड़ी मुश्किल से दो अंकों में। प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक देश में कारपोरेट जगत में सौ से अधिक अधिकारियों का मासिक वेतन एक करोड़ रुपए से अधिक है और यह संख्या शुरूआत भर है। भारत में कुल मिलाकर 4500 से अधिक सूचीबद्ध कंपनियां हैं, जिनमें 175 ने अब तक अपने सीइओ तथा अन्य शीर्ष पदाधिकारियों के वेतन पैकेज का खुलासा किया है। इनमें 60 कंपनियों के शीर्ष कार्यकारियों को मासिक एक करोड़ रुपयों या अधिक वेतन मिलता है।
अब तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 31 मार्च 2010 या दिसंबर 2009 को समाप्त वित्त वर्ष में एक करोड़ रुपए या इससे अधिक सालाना वेतन पाने वाले अधिकारियों की संख्या 105 है। इस सूची में पहले स्थान पर मीडिया मुगल कलानिधि मारन तथा उनकी पत्नी कावेरी कलानिधि हैं, जिनका वेतन मार्च 2010 में 37 करोड़ रुपए से अधिक रहा अर्थात् 3.10 करोड़ मासिक। यों वे साल के लिए 94.8 करोड़ रुपए तक का वेतन पाने के हकदार थे, जो 780 करोड़ मासिक होता है।
सन टीवी नेटवर्क के प्रबंध निदेशक कावेरी ने 2009-2010 में अधिकतम 74.16 करोड़ रुपए का वेतन लेना तय किया था। इस सूची में रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रमुख मुकेश अंबानी भी हैं। जिन्होंने स्वैच्छिक कटौती के बावजूद 15 करोड़ रुपए का सालाना वेतन लिया। उल्लेखनीय है कि कारपोरेट जगत के अधिकारियों को बेतहाशा वेतन पर काफी हंगामा मच चुका है। मुकेश अंबानी ने पिछले साल अक्टूबर में 2008-09 के लिए अधिकतम 15 करोड़ रुपये वेतन लेने का फैसला किया था। अपने अधिकारियों को करोड़ो रुपए वेतन देने वाली कंपनियों में जेएसडब्ल्यू स्टील, पाटनी कम्प्यूटर्स, रैनबैक्सी, हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन, एचडीएफसी बैंक, शोभा डेवलपर्स, इंफोसिस, इंडसाइड बैंक, ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन, एसीसी, किसिल, रेमंड, स्टरलाइट इंडस्ट्रीज, डेवलपमेंट क्रेडिट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, एक्सिस बैंक, नेस्ले इंडिया, यस बैंक तथा रैलीज इंडिया शामिल हैं, उल्लेखनीय है यह सूची सिर्फ शुरूआत भर कही जा सकती है। क्योंकि बहुत सारी प्रमुख कंपनियों की सालाना रपटें अभी आनी हैं। सरकार मोटे पगारवालों का वेतन भुगतान नहीं रोक सकती है तो क्या वह दिहाड़ी मजदूरों का न्यूनतम वेतन भुगतान गारंटी भी नहीं कर सकती हैं?
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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

पिछड़ा

महंगाई की घनघोर आंधी
भ्रष्टों बेईमानों जन-शत्रुओं
संग काले-धनियों की चांदी
आमजन बेचारा थका हारा
हर पल गिरते उठते जूझते
हर तरह वहीं है जाता मारा
कमाने की पहली ही जुगत
राह खर्च ही जाते-आते
लगाये रोज़ ही करारी चपत
रिक्शा टेम्पो जरूरत, भाड़ा
मजबूर जेब खीेंचे बीस-पच्चीस
पर वह बढ़ चालिस पे अड़ा
कार स्कूटर स्कूटी बाईक
पास अपने न हो तब भी
तन-तेल चारों ओर निकाले हाईक
हो जो दुपहिया चार-पहिया
उछलते कूदते तेल की मार
मुंह गाये हाय दैया रे दैया
नित-दिन आटा,दाल तरकारी
ऊपर ही ऊपर उड़ती जाएं
माना हमने फल अहितकारी
गुणवान संताने लिये अंक-अम्बार
उच्च शिक्षा का इठलाता लुभाता
चहुं ओर फैला महंगा बाजार
ऊंचे कर्ज छोटा घर भी सपना
नींव और दो दीवारें छत ही न
पूरा हो ही न पाए ये अपना
जीवन के हर पग पर बारंबार
कोशिशें करता ही गिरता उठता
फिर भी पिछड़ा ही रहे हर बार
- कल्पना पांडे ‘दीपा’
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नागार्जुन की याद


नागार्जुन को ध्यान में रखते हुए उनसे संबंधित ढेर सारी बातें सामने आने के लिए होड़ मचाने लगती हैं। वे ऐसी बातें हैं, जो उनके बाद की पीढ़ी से लेकर आज तक के लेखकों में दुर्लभ हैं। नागार्जुन जिस दौर में साहित्य जगत में कलम लेकर आये, उस दौर में जीवन में किसी ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए पहले त्याग करना अनिवार्य समझा जाता था। निराला ने एक गीत में लिखा है ‘जला है जीवन यह आतप में दीर्घ काल’। नागार्जुन के जीवन पर यह कथा पूरी तरह घटित होता है।
सन 1951 या 52 में जब बिहार राष्ट्र भाषा परिषद का गठन किया गया था तभी नागार्जुन के सामने एक प्रस्ताव रखा गया था कि यदि वे स्वीकार करें, तो परिषद में विद्यापीठ कायम करके उस पर उनको बिठाया जा सकता है। इस पर नागार्जुन ने अपने मित्रों से बात करते हुए कहा कि यह तो सरकारी नौकरी होगी, यदि मैं इसे स्वीकार कर लूंगा, तो सरकार के प्रति व्यंग्य कौन लिखेगा। स्पष्ट है कि नागार्जुन अपने रचानात्मक संस्कार को छोड़ने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने विद्यापति पीठ का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया।
1957 या 58 में उन्हें हिमालय प्रेस से प्रकाशित पत्रिका ‘बालक’ का सम्पादक बनाया गया। उन्हांेने स्वीकार भी कर लिया। ‘बालक’ में चारित्रिक परिवर्तन कर दिया उन्होंने। अंधविष्वास वासी लोक कथाओं के बदले वह बालोपयोगी एवं वैज्ञानिक कथाएं छापने लगे। लेकिन इस पद पर वे मात्र तीन महीने रह सके, बोले- इस तरह मुष्किल है। एक दिन उठकर निकले, वे फिर उधर नहीं गए।
एक और प्रसंग याद आता है। सन 1967 में बिहार में भयानक अकाल पड़ा था। अकाल के दौर में ही चौथा आम चुनाव हुआ, तो बिहार में कांग्रेस हार गयी और संविद सरकार बनी जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। कम्युनिस्ट नेता इन्द्रदीप सिंह राजस्व के साथ ही अकाल राहत मंत्री भी थे। उन दिनों नागार्जुन हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में ठहरे थे। मैं कुछ दिनों के लिए पटना आया था और सम्मेलन भवन में ठहरा था। तभी एक दिन बाबा ने बताया- अरे भाई आज हरिनंदन ठाकुर आए थे, अभी वे राहत कार्यों के सचिव हैं। कह रहे थे कि आप एक काम कर दीजिए, अकाल के इलाकों में घूमिये और आकल पर राहत की स्थिति के बारे में मेरे पास एक रिपोर्ट भेज दीजिए। आप जैसे रहते हैं, जहां रहते हैं, वैसे ही वहां रहिए, किसी कार्यालय में जमकर बैठने की जरूरत नहीं है। स्थिति को देखकर आपका लेखक जो अनुभव करता है वही आप लिख दीजिएगा, सरकार आपको मानदेय देगी और घूमने का प्रबंध भी कर देगी। इतना बोलते हुए उन्हांेने कहा- मैंने सोचने का समय लिया है, अब तुम बताओ क्या करना चाहिए! मैंने कहा- एक तो यह बदली हुई सरकार है, दूसरे यह राहत कार्य विभाग एक कम्युनिस्ट के हाथ में है, तीसरे, आप सरकार को आलोचनात्मक रिपोर्ट भी दे सकते हैं, चौथे, यह नौकरी तो है नहीं; अतः इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने से कोई हर्ज तो नहीं है। वे बोले- ठीक कहते हो तुम। उन्होंने काम स्वीकार कर लिया, लेकिन यह काम भी दो-तीन महीनों से ज्यादा नहीं कर सके। बोले- अरे सब कुछ के बावजूद यह तो हो ही गया है कि मैं बिहार में बंध गया हूं, कलकत्ता? इलाहाबाद, दिल्ली कहीं भी नहीं जा पा रहा हूं। अतः उन्होंने इस आशय का पत्र सरकार को भेज दिया और निकल पड़े यात्रा पर।
असल में नागार्जुन वैकल्पिक सांस्कृतिक चेतना के वाहक थे, वैकल्पिक मूल्यों के प्रतीक थे, वे इस चेतना और प्रतीकत्व को छोड़ने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे। यही तो नागार्जुन के लेखकीय यक्तित्व का आकर्षण था। नये लेखक उनसे अक्सर मिलते रहते थे, वे चाहे जहां रहे। वे उनसे साहित्य के बारे में बातंे करते थे, साहित्य रचना के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। मैं उनसे पहली बार 1953 में मिला जब मैं भागलपुर में इंटर प्रथम वर्ष का छात्र था। वे एआईएसएफ (आल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन) के भागलपुर जिला सम्मेलन के अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में भाग लेने आए थे। सन् 52 में उनका उन्यास ‘बलचनमा’ छपा था, जिसकी बड़ी चर्चा हो रही थी। मैंने यह उपन्यास खरीदकर कुछ दिन पहले ही पढ़ा था। बेचन जी उस समय एमए प्रथम वर्ष में पढ़ रहे थे, लेकिन साहित्य के बारे में उनकी जानकारी और समझ बहुत अच्छी थी। वे कहते थे कि ‘बलचनमा’ में प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया है। मैं एआईएमएफ का सदस्य नहीं था, लेकिन कवि सम्मेलन में उपस्थित हुआ। बेचन जी संचालन कर रहे थे। मुझसे पूछा- कविता सुनाईगा। मुझे हिम्मत नहीं हुई। लेकिन उसी मंच पर नागार्जुन से उन्होंने मुझे मिलाया। नागार्जुन भगवान पुस्तकालय में ठहरे थे, वही बेचन जी भी रहते थे, क्योंकि उस समय उनके पिता श्री उग्र मोहन झा पुस्तकाध्यक्ष थे। मैं दूसरे दिन प्रातः बाबा से मिलने भगवान पुस्तकालय पहंुचा। उन्होंने पूछा- क्या लिखते हो? मैं कहा- अभी तो शुरूआत है, कोशिश कर रहा हूं कि लिख पाऊं। वे खुश हुए सुनकर। बोले- देखो, जो भी लिखो लेकिन भाषा को रगड़ मारो, ओढ़ना-बिछोना बना लो, उसे लेकर सड़क पर चलो, जीवन की भाषा ही जीवंत भाषा होती है। उनकी इस बात का मुझ पर गहरा असर पड़ा। उस दिन तक मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा लिखता था और समझता भी यही था कि संस्कृतनिष्ठ भाषा अच्छी होती है। स्कूल में मैंने संस्कृत पढ़ी थी, इसलिए संस्कृत शब्दों के लिए मुझे भटकना नहीं पड़ता था। लेकिन दूसरे ही दिन से जो कुछ भी लिखता, उसे संस्कृत के तत्सम शब्दों से मुक्त रखने की कोशिश करने लगा। इस काम में कुछ समय लगा। उस समय हमारे गृह नगर गोड्डा (झारखंड) से कुछ तरुण लेखक एक पत्रिका ‘नव जागरण’ नाम से निकालते थे। उनमें मैं भी शामिल था। उसका दूसरा अंक मैंने उन्हें दिया। पटना लौटकर उन्होंने एक पोस्ट कार्ड पर मुझे पत्र लिखा- ‘आठ-दस तरूणों का सचेत गिरोह क्या नहीं कर सकता है? उन्होंने हमें उत्साहित किया। वह पत्र पत्रिका के अगले अंक के मुखपृष्ठ पर हमने छाप दिया। वहीं अंतिम अंक हो गया; क्योंकि गोड्डा में कांग्रेसी लोग हल्ला करने लगे कि ये लड़के कम्युनिस्ट हो रहे हैं। उनमें कोई कम्युनिस्ट नहीं था, लेकिन वहां के कांग्रेसियों को किसी आसन्न संकट का अहसास हुआ। इसके प्रभाव से ही पत्रिका बंद हो गई। लेकिन मेरा संपर्क नागार्जन से न केवल बना रहा, बल्कि लगातार गहरा होता गया। वे बराबर हमें चिट्ठियां लिखते रहे, अफसोस है कि वे चिट्ठियां आज उपलब्ध नहीं है।
मैं पटना आया 1957 में, एमए (हिन्दी) पढ़ने। वे उन दिनों पटना में मछुआ टोली में रहते थे। वहीं रहकर उन्होंने ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास लिखा था। मैं खोजते-खोजते उनके आवास पर पहुंच गया। उनके आवास पर ‘मधुकर गंगाधर’ से परिचय हुआ। वे उस साल एमए करके निकल गए थे और अजन्ता प्रेस से प्रकाशित पत्रिका में काम कर रहे थे। अक्सर शाम हो हम लोग अजन्ता प्रेस में मिलते थे। बाबा तो केन्द्र में रहते ही थे। एक दिन उनके साथ अशोक राजपथ पर चले जा रह थे, शाम का समय था, बी.एन. कालेज के सामने उन दिनों भारत कॉफी हाउस था। उन्होंने कहा- चलो तुमको कॉफी पिलाए। मैंने कहा- मैं तो चाय-कॉफी कुछ नहीं पीता। यह सुन कर वे बोले-अरे, लेखन के रास्ते पर चले हो, तो कॉफी नहीं पीओगे, तो कॉफी हाउस नहीं जाओगे, तो आधुनिकाओं का सौरभ कैसे पाओगे। मैं गौर से उनको देखने लगा-बलचनमा और वरूण के बेटे को लेखक ऐसा कह रहा था! खैर उनका अनुगमन करते हुए कॉफी हाउस में दाखिल हुआ और उनके साथ कॉफी के साथ ही उनके यक्तित्व का नया स्वाद लिया।
बात 1958 की है। होली के अवसर पर बाल शिक्षा समिति, हिन्दुस्तारनी प्रेस यानी रामदहिन मिश्र के प्रतिष्ठान में कवि-सम्मेलन था। बाबा भी आमंत्रित थे। पटना के तमाम कवि-लेखक वहां मौजूद थे। नागार्जुन की बारी आयी, तो माईक पर खड़े होकर उन्होंने कहा- मैंने सुना था कि इस कवि-सम्मेलन में शिक्षा मंत्री भी रहेंगे, तो मैंने उनके लिए यह खास टुकड़ा लिखा, वे नहीं है, तब भी मैं सुना रहा हूं। यह टुकड़ा उनके कोई मुसाहिब पहुंचा ही देंगे। उन दिनों कुमार गंगानंद सिंह बिहार के शिक्षा मंत्री थे। तो बाबा ने कविता सुनाई-
अभी-अभी उस दिन मिनिस्टर जी आए थे,
बत्तीसी दिखलाइ थी, वायदे दुहराये थे,
भाखा लटपटायी थी, नैन शरमाये थे,
छपा हुआ भाषण भी नैन से सटाये थे।
इसके बाद श्री मथुरा प्रसाद दीक्षित खड़े हो गए और कहने लगे- यह तो एकदम व्यक्तिगत आक्षेप है, इसे वापस लीजिए। बाबा ने इस पर कहा- ठीक है, अंतिम पंक्ति को संशोधन करके ऐसा कर देता हूं- ‘छपा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाये थे’। इसके बाद स्थिति शांत हुई।
इसी प्रसंग में एक बात और याद आ रही है। नागार्जुन ने राजनैतिक व्यक्तित्वों पर जितना लिखा है, उतना किसी दूसरे किसी कवि ने नहीं लिखा। पंडित नेहरू, जयप्रकाश, इन्दिरा गांधी आदि पर अनेक कविताएं अनेक मनोदशाओं में लिखी हैं। पंडित नेहरू के निधन के बाद उन्होंने एक लंबी कविता लिखी, जिसकी पहली पंक्ति हैं- ‘तुम रह जाते दस साल और। इस कविता को लेकर काफी विवाद हुआ था। यहां मुझे वह प्रसंग याद आ रहा है, जो बाबा ने खुद बताया था। दिल्ली में एक दिन बाबा पहुंच गए राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के यहां। उन्होंने उन्हें कई कविताएं सुनायी, जिनमें पंडित नेहरु पर लिखी उपर्युक्त कविता भी थी। इसके अलावा जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई आदि पर लिखी कविताएं थी। कहने की जरूरत नहीं कि सभी उपर्युक्त व्यक्तित्वों के खिलाफ व्यंग्यात्मक ढंग से लिखी गयी थी। चुपचाप कविताएं सुन लेने के बाद गुप्त जी ने अपना गुप्त गुस्सा जाहिर करते हुए कहा- ‘मैं तुम्हें जब चलता हुआ देखता हूं तो लगता है कि विष का मटका डोलता हुआ चला जा रहा है।’ बाबा ने मुझे बताया कि मुझे भी गुस्सा आ गया और मैंने कहा- ‘मैं तो यह समझता हूं कि इस जनतंत्र के युग में जो मेरी इन कविताओं को बर्दाष्त नहीं कर सकता उसे मैं राष्ट्रकवि नहीं मानता’। यह कहकर बाबा उठे और चल दिये।
एक बार मैं और बाबा इलाहाबाद में साथ-साथ परिमल प्रकाशन के स्वामी शिवकुमार सहाय के यहां ठहरे थे। एक दिन बाबा ने पूछा- पंत जी से कभी मिले हो। मैंने कहा- नहीं। फिर वे बोले- अरे चलो तुम्हें मिलाता हूं उनसे। एक दिन संध्या समय हम लोग पंत जी के मम्फोर्ड गंज के आवास पर पहुंचे! छोटा-सा मकान, लेकिन लताओं और वृक्षों से घिरा हुआ। पंत जी हम लोगों को अंदर ले गए, बैठक में बिठाया। बाबा ने मेरा परिचय देते हुए कहा-छायावादी काव्य की भाषा पर काम करके पीएचडी हासिल की है इन्होंने, कविताओं के साथ आलोचना भी लिखते हैं, आंदोलन भी करते हैं, कई बार जेल हो आये हैं। पंत जी बाबा की बात सुन रहे थे और मैं देख रहा था कि उनके चेहरे पर भाव आ-जा रहे थे। उन्होंने अत्यंत मर्मस्पर्शी स्वर में पूछा- ‘जेल में तो बड़ा कष्ट हुआ होगा।’ मैंने कहा- ‘आंदोलनकारी साथियों के झुंड में शामिल होकर जेल जाना तो किसी त्यौहार की तरह आनंददायी होता है।’ पंत जी भीतर गये और नमकीन लेकर आये। एक बाबा को दी और एक मुझे। मुझे लगा जैसे मेरे जेल-कष्ट को पंत जी कुछ कम करने की कोशिश कर रहे हैं। फिर कुछ देर गपशप करते हुए चाय पीकर हम लोग पंत जी को प्रणाम कर विदा हुए। पंत जी अपने अहाते के गेट तक आये। लौटते हुए रास्ते में बाबा ने बताया- अमृत राय से इनकी बड़ी दोस्ती है, जब बाजार या कहीं जाना होता है, तो अमृत को फोन करते हैं और वे गाड़ी लेकर आ जाते हैं।
दूसरे दिन शाम को बाबा के साथ इलाहाबाद कॉफी हाउस पहुंचे। वहां बहुत से लेखक मिले, जिन्हें मैं जानता था, लेकिन पहचानता नहीं था। वहां नरेश मेहता थे, विजय नारायण साही थे, डा. रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत वर्मा, मार्केण्डेय आदि थे। अनेक नये लोग भी थे, गिरिधर राठी आदि। कविता की चर्चा चली तो नरेश मेहता ने कहा- आध्ुानिक हिन्दी कविता में अकेले नागार्जुन हैं, जिनकी कविताओं को पढ़कर उनके देश-काल का पता चलता है। इस पर साही जी ने बाबा की राजनैतिक कविताओं का जिक्र करते हुए उनकी राजनैतिक अस्थिरता की बात कही। इस पर बाबा ने कहा- देखो, साही, तुम सोशलिस्ट हो और मैं कम्युनिस्ट; फिर भी डा. लोहिया मेरी कविताओं की फोटो कापी कर बंटवाते हैं, तुम्हारे पास ऐसी कोई कविता है जिसे डा. लोहिया आम लोगों में बंटवाने की बात सोचें?
बाबा पटना में रह रहे थे। मैं अक्सर गर्मी-छुट्टी और पूजा छुट्टी में पटना आता था अपने शोध कार्य के लिए। बात सन् 64 की है। मैंने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को पत्र लिखा कि मैं पटना आ रहा हूं, सम्मेलन भवन में मेरे ठहरने का प्रबंध कर दीजिए। सम्मेलन से तो कोई जवाब नहीं मिला लेकिन बाबा का एक कार्ड मिला- तुम्हारा पत्र सम्मेलन की मेज पर देखा, मेरा कहना है कि इस बार तुम मेरे साथ ठहरो, मैं अकेला हूं। मैं खुश हुआ और छुट्टी होते ही पटना आ गया। बाबा का आवास उन दिनों पटना टेªनिंग स्कूल की बगल में एक खपरैल के मकान में था। मुझे सुविधा भी हुई, राष्ट्रभाषा परिषद का भवन वहां से नजदीक पड़ता था। मैं सुबह नाश्ता करके निकलता था और शाम पांच बजे के बाद लौटता था। एक दिन बातचीत करते हुए बाबा ने कहा- बगल के मकान में राज्य सरकार के एक खुफिया अधिकारी रहते हैं। कह रहे थे, आपकी बहुत-सी कविताएं खुफिया विभाग की फाईल में हैं। बाबा ने कहा- रखे रहिए, संग्रह निकालना होगा, तो आपकी फाईल से ही ले लेंगे।
एक दिन रात के भोजन के बाद बाबा ने कहा- चलो गंगा किनारे कुछ देर टहलेंगे। गंगा-तट वहां से बहुत करीब था। तो हम लोग निकले। चांदनी रात थी। गंगा की धारा चांदनी में चमक रही थी। गंगा किनारे बहुत से मंदिर और मठ हैं। एक मठ के आगे लंबा-चौड़ा सहन बना हुआ था, सीमंेट से। टहलने का विचार छोड़कर हम लोग उस सहन के किनारे बैठ गये। गंगा की धारा उसे धक्का मारते हुए बह रही थी। हम लोग देर तक बैटे गपशप करते रहे। इतने में एक आदमी वहां पहुंचा और जोर-जोर से बोलने लगा- यह क्या कर दिया, आप लोगों ने, चप्पल पहने यहां चले आए, छिःछिः, अपवित्र कर दिया मंदिर को। इस पर बाबा ने भी उसी स्वर में कहा- मंदिर में क्या होता है सो हमें भी मालूम है, उन कुकृत्यों से मंदिर अपवित्र नहीं होता है और हम मंदिर के आंगन में चप्पल पहने चले आए तो अपवित्र हो गया? इतना सुनते ही वह आदमी- अरे बाप रे, यह कैसा-कैसा आदमी यहां चला आया- यह कहते हुए भीतर की ओर दौड़कर गया। मुझे लगा कि वह अपने लोगों को बुलाने गया है। मैंने कहा- बाबा, अब जल्दी से खिसकिये यहां से। और हम लोग तेजी से निकल गए और बगल में ही एक मोड़ था, उससे मुड़कर ओझल हो गये। मठवाले निकले होंगे, तो हमें वहां न पाकर झुझलाकर रह गए होंगे।
एक बार बाबा इलाहाबाद से पटना आने वाले थे, उन्होंने पहले पत्र लिख दिया था। उन दिनों मैं विधायक क्लब में रह रहा था। मैं स्टेशन गया उनको ले आने। गाड़ी आयी, मैं उनके इंतजार में खड़ा रहा, लेकिन वे कहीं दिखाई नहीं पड़े। नहीं आये, यह समझ कर मैं लौट आया। थोड़ी देर बाद देखा कि वे आ रहे हैं पैदल ही अपना झोला कंधे से लटकाये और कंधे पर भी कोई सामान था। मैंने देखा और दौड़ कर उनके पास गया। कंधे पर का सामान ले लिया, देखा वह तो फटा हुआ था, रस चू रहा था। मैंने कहा- बाबा मैं तो स्टेशन गया था। बोले- चलो, पहले पहुंच लें तब बतायेंगे। जाहिर है वे बहुत थक गए थे। उस दिन ‘पटना बंद’ का आह्वान कुछ दलों ने किया था। सवारियां बंद थी, अतः बाबा को स्टेशन से पैदल आना पड़ा था। क्लब पहुंचकर पहले पानी पिया, कुछ देर में मिजाज ठंडा हुआ, फिर चाय पी तो बोले- अरे भाई, टेªन में भीड़ इतनी थी कि मैं प्लेटफार्म पर उतर नहीं पाया और गाड़ी खुल गयी। वह तो समझो कि किसी ने जंजीर खींचकर गाड़ी रोक दी, तो मैं वहां प्लेटफार्म से थोड़ा आगे जाकर उतर पाया, नहीं तो पटना सिटी से पहले क्या उतर पाता। वहां पर उतरने में तरबूज गिर गया और फट गया। मैंने सोचा कि बच्चों को इलाहाबादी तरबूज खिलायें, इसलिये लेता आया। फटे हुए तरबूज को गमछे में बांधा और कंधे पर उठाया। इतने में वहां पर टीटी आ गया और कहने लगा- बिना टिकट हैं, बाबा, इसलिए प्लेटफार्म पर नहीं उतरकर यहां उतर गये। खीझ से मैंने कहा- आपको मुझे देखकर ऐसा लगता है कि मैं बिना टिकट हूं? यह कहते हुए टिकट दिखाया, तो वह ‘माफ कीजिए, कहकर चला गया। ‘बंद’ के कारण रिक्शा नहीं मिला। लेकिन कहने लगे- कोई बात नहीं, आखिर मैं तरबूज ले ही आया। यह कहते हुए वे हंसने लगे। पटना में रहने पर कॉफी हाउस जरूर जाते थे। यह 1978 कर बात है। शाम को कॉफी हाउस जाने लगे तो मुझसे पूछा- चलोगे? उस दिन शाम को एक जरूरी काम था, इसलिए मैंने कहा- बाबा आज तो नहीं जा सकूंगा। ठीक है, ठीक है, कोई बात नहीं। कॉफी हाउस तो अक्सर वे लोग जाते हैं जिनको समय और पैसा जरूरत से ज्यादा है, मैं तो जाता हूं इसलिए कि बहुत से लोगों से भेंट हो जाती है। बाबा कई दिनों तक ठहरे। एक दिन मैंने कहा- बाबा ‘उत्तर शती’ के लिए कोई कविता दीजिए न! बोले- कोर्ठ ताजा कविता दूंगा यहीं लिखकर। एक दिन सुबह-सुबह बाबा ने कहा देखो जी कविता तैयार है, पहले तुम सुन लो। मैंने कहा- हां, हां, जरुर सुनाइए। और वे सुनाने लगे-
‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है,
कौन है बुझा-बुझा, कौन यहां पस्त है,
कौन है खिला-खिला कौन यहां मस्त है’।
कुछ ऐसी ही पंक्तियों से कविता शुरू हुई थी। कविता की गति-यति नृत्य की धुन पर बन गयी थी, इसलिए सुनाते हुए वे खड़ा होकर नृत्य करने लगे। अद्भुत दृश्य था वह। वे सुना रहे थे और नृत्य कर रहे थे, उसी समय भीतर से मेरा पुत्र भास्कर वहां आ गया। बाबा ने उसे थोड़ा झिड़कते हुए कहा- उधर जाओ! वह चला गया और दिन भर वहां नहीं आया। जब शाम को बाबा कॉफी हाउस चले गए तो वह बाहर वाले कमरे में आया और बोला - बाबूजी कविता सुनिए-
किसकी है जनवरी किसका अगस्त है
कौन है बुझा-बुझा कौन यहां मस्त है
मैं हूं बुझा-बुझा मैं यहां पस्त हूं
बाबा हैं खिले-खिले बाबा यहां मस्त हैं।
मैं सुनकर चकित हो गया। सात-आठ का लड़का, उसने सुबह की डांट पर इतनी अच्छी प्रतिक्रिया व्यक्त की। बाबा लौटे तो मैंने धीरे से उन्हें यह प्रतिक्रिया बतायी। सुनकर बोले- वाह, यह तो कमाल है। भास्कर को पुकारते रहे, वह नहीं आया। अगली सुबह उन्होंने भास्कर को बुलाया, तो वह आया। बाबा उसे लेकर विधायक कैंटीन चले गए और वहां उसे रसगुल्ला खिलाकर लाए। अब दोनों खुश थे।
मैं डायरी नहीं लिखता, लिखता रहता तो बाबा के संस्मरणों की मोटी किताब हो जाती। यों मैंने अन्यत्र भी उनके बारे में संस्मरण लिखे हैं। अंत करते-करते दो प्रसंगों की चर्चा और करना चाहता हूं।
बाबा मेरे यहां ठहरे हुए थे। यह 1989 की बात रही होगी। एक दिन सुबह ही आ गए भागवत झा आजाद। यह कहना प्रासंगिक होगा कि आजाद जी मेरे नजदीकी रिश्तेदार हैं, इसलिए अक्सर आते थे। उस दिन आए तो बड़े आदर से बाबा से मिले और बोले- आज चलिए मेरे साथ, दिन भर वहीं रहियेगा, आपको मैं पहुंचा दूंगा। बाबा उनके साथ चले गये। वे फिर शाम को पहुंचा गये। मैंने उनके जाने के बाद पूछा- बाबा, क्या-क्या हुआ वहां दिन भर। इस पर बोले- अरे, खाना-पीना हुआ और उन्होंने लंबी कविता लिखी है, बल्कि पूरी पुस्तक ही है, सुनाया उन्होंने और पूछा- कैसी है बाबा? तो मैंने (बाबा) कहा- ‘अरे अब बुढापे का दिन है, नाती पोता खेलाइये।’ यह भी उनकी कविताओं पर बाबा की बेबाक टिप्पणी।
बाबा को राजभाषा विभाग की ओर से राजेन्द्र शिखर-सम्मान देने की घोषणा की गयी।
उस समय मुख्यमंत्री लालू प्रसाद थे। बाबा समारोह में उपस्थित हुए और राशि सहित सम्मान ग्रहण किया। लाल प्रसाद ने समारोह के समय ही किसी को भेजकर बाजार से च्यवनप्राश मंगाया और बाबा को दिया यह कहते हुए कि च्यवपप्राश खाइए और ढेर दिनों तक स्वस्थ रहिये। दूसरे दिन एक अखबार का प्रतिनिधि पहुंचा भेंटवार्ता लेने। ढेर सारी बातों के साथ बाबा ने कह दिया, अरे, लालू तो शत्रुघ्न सिन्हा से भी ज्यादा नाटकिया है। इसी शीर्षक से वह भेंट वार्ता छपी थी। यह काम बाबा से ही संभव था। उत्तर प्रदेश सरकार का सम्मान स्वयं इंदिरा गांधी के हाथों से लेते समय बाबा ने कह दिया था- मैंने आपके खिलाफ बहुत-सी कविताएं लिखी है।
बैजनाथ मिश्र, यात्री नागार्जुन का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक यात्रा का अंत 5 नवंबर 1998 को लहरिया सरय के पंडा सराय स्थित किराये के आवास में हो गया। मैं अंत्येष्टी में शामिल हुआ। मैं, अरूण कमल और मनोज मेहता साथ पहुंचे पंडा सराय। हृषिकेश सुलभ, मदन कश्यप और अनिल विभाकर भी पटना से पहुंच चुके थे; रांची से रवि भूषण भी आये थे। राज्य सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ अत्यंष्टि कराने का फैसला किया था। अंतः दरभंगा के जिलाधीश ज्योतिभ्रमर तुबिद और पुलिस अधीक्षक शोभा अहोतकर तथा अन्य अनेक अधिकारी मौजूद थे। हम लोगों के पहुंचते ही पंडासराय से बाबा के जन्मग्राम तरौनी के लिए शव-यात्रा निकल पड़ी। गांव के घर के बिना घेरे वाले आंगन में बाबा को रखा गया थोड़ी ही देर में गांव के लोग जमा हो गए और गांव से अंत्येष्टी स्थल के लिए यात्रा शुरू हुई; और डेढ़ वर्ष पहले फरवरी में जहां उनकी पत्नी अपराजिता देवी की अंतिम क्रिया हुई थी, उसी जगह के लिए लोग बाबा को कंधे पर ले चले। मुझे कंधा लगाने का सुअवसर मिला। स्थल पर एक शामियाना सरकार ने लगवाया था। कुर्सियां भी लगी थी। पुलिस के बंदूकधारी जवान भी खड़े थे। राज्य सरकार के चार मंत्री उपस्थित थे। शिवानंद तिवारी भी थे। मैथिली के अनेक लेखक उपस्थित थे। अखबारों के प्रतिनिधि और दूरदर्शन वाले भी थे। एक उल्लेखनीय बात यह थी कि खेत मजदूर महिलाएं बड़ी संख्या में मौजूद थी। वहां आम तौर से महिलाएं शव यात्रा में नहीं जाती हैं। लेकिन बाबा के प्रति प्रेम के कारण ये रिवाज तोड़ा दिया गया। ऐसा लग रहा था बलाचनमा के परिवार के लोग अंतिम प्रणाम करने आए थे।
दूरदर्शन वाले मेरे पास आये और पूछा आप क्या सोच रहे हैं? मैंने कहा- मैं यह सोच रहा हूं कि यह यात्री युवावस्था में विवाह के बाद घर छोड़कर निकल गया था और बारह वर्ष तक बाहर ही घूमता रहा, इस यात्री ने घर छोड़ते समय मैंथिली में लिखा था-
मां मिथिले, ई अंतिम प्रणाम
अहिबातक पातिल फोडि-फोडि
जा रहल छी हम आन ठाम
मां मिथिले ई अंतिम प्रणाम।
उस ‘युग-युग धावित यात्री’ की अंतिम क्रिया गांव में हो रही है। लेकिन उसके पहले जीवन में भी साबित हुआ कि कविता का अंतिम प्रणाम सार्थक नहीं हो सका। हिन्दी में एक कविता में उन्होनंे लिखा-
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल,
याद आता है अपना वह तैरानी ग्राम।
कविता लंबी है। सबसे अधिक मुझे यह कविता याद आ रही है, जो उन्होंने बहुत दिनों के बाद गांव लौटने की आंतरिक अनुभूति को व्यक्त करते हुए लिखी-
बहुत दिनों के बाद अबको देखी मैंने
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
बहुत दिनों के बाद,
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने छू पाया
गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
बहुत दिनों के बाद,
बहुत दिनों के बाद अबकी मैनं जी भर सूंघे
मौलसिरी के ताजे टटके फूल
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने जी भर गन्ने चूसे,
ताल-मखाने खाये
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैं जी भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने जी भर भोगे
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्ष सब साथ-साथ
इस भू पर बहुत दिनों के बाद
दूर दर्शन वालो ने इसके बाद पूछा- बाबा सबदिन सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे, अभी सत्ता उनको बंदूकों की सलामी देने आया है इसे आप किस तरह देख रहे हैं? मैंने कहा- बाबा तो सचमुच जीवन भर सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे और लड़ते-लड़ते उन्होंने जो हैसियत हासिल की है वह बहुत बड़ी और ऐतिहासिक है। इसलिए उन्हें सलामी देकर सत्ता अपनी लोकप्रियता बढ़ाना चाहती है।
तमाम उपस्थित लोग बड़े खुश हुए मेरा उत्तर सुनकर। लेकिन इसके कुछ देर बाद राज्य सरकार के चार मंत्री उठकर चले गए। अभी अंत्येष्टि बाकी थी और इस तरह बीच में ही मंत्रियों का चला जाना राजकीय सम्मान में कमी करना था। अखबारों में इसकी चर्चा हुई।
- खगेन्द्र ठाकुर
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श्रमिक




टिकी नहीं है
शेषनाग के फन पर धरती !
हुई नहीं है उर्वर
महाजनों के धन पर धरती !
सोना-चाँदी बरसा है
नहीं ख़ुदा की मेहरबानी से,
दुनिया को विश्वास नहीं होता है
झूठी ऊलजलूल कहानी से !
.सारी ख़ुशहाली का कारण,
दिन-दिन बढ़ती
वैभव-लाली का कारण,
केवल श्रमिकों का बल है !
जिनके हाथों में
मज़बूत हथौड़ा, हँसिया, हल है !
जिनके कंधों पर
फ़ौलाद पछाड़ें खाता है,
सूखी हड्डी से टकराकर
टुकड़े-टुकड़े हो जाता है !

इन श्रमिकों के बल पर ही
टिकी हुई है धरती,
इन श्रमिकों के बल पर ही
दीखा करती है
सोने-चाँदी की ‘भरती’ !
इनकी ताक़त को
दुनिया का इतिहास बताता है !
इनकी हिम्मत को
दुनिया का विकसित रूप बताता है !
सचमुच, इनके क़दमों में
भारीपन खो जाता है !
सचमुच, इनके हाथों में
कूड़ा-करकट तक आकर
सोना हो जाता है।
इसीलिए
श्रमिकों के तन की क़ीमत है !
इसीलिए
श्रमिकों के मन की क़ीमत है !
श्रमिकों के पीछे दुनिया चलती है ;
जैसे पृथ्वी के पीछे चाँद
गगन में मँडराया करता है !
श्रमिकों से
आँसू, पीड़ा, क्रंदन, दुःख-अभावों का जीवन
घबराया करता है !
श्रमिकों से
बेचौनी औ’ बरबादी का अजगर
आँख बचाया करता है !
.इनके श्रम पर ही निर्मित है
संस्कृति का भव्य-भवन,
इनके श्रम पर ही आधारित है
उन्नति-पथ का प्रत्येक चरण !
.हर दैविक-भौतिक संकट में
ये बढ़ कर आगे आते हैं,
इनके आने से
त्रस्त करोड़ों के आँसू थम जाते हैं !
भावी विपदा के बादल फट जाते हैं !
पथ के अवरोधी-पत्थर हट जाते हैं !
जैसे विद्युत-गतिमय-इंजन से टकरा कर
प्रतिरोधी तीव्र हवाएँ
सिर धुन-धुन कर रह जाती हैं !
पथ कतरा कर बह जाती हैं !
.श्रमधारा कब
अवरोधों के सम्मुख नत होती है ?
कब आगे बढ़ने का
दुर्दम साहस क्षण भर भी खोती है ?
सपनों में
कब इसका विश्वास रहा है ?
आँखों को मृग-तृष्णा पर
आकर्षित होने का
कब अभ्यास रहा है ?
श्रमधारा
अपनी मंज़िल से परिचित है !
श्रमधारा
अपने भावी से भयभीत न चिंतित है !
.श्रमिकों की दुनिया बहुत बड़ी !
सागर की लहरों से लेकर
अम्बर तक फैली !
इनका कोई अपना देश नहीं,
काला, गोरा, पीला भेष नहीं !
सारी दुनिया के श्रमिकों का जीवन,
सारी दुनिया के श्रमिकों की धड़कन
कोई अलग नहीं !
कर सकती भौगोलिक सीमाएँ तक
इनको विलग नहीं !
- डा. महेंद्र भटनागर

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सोमवार, 12 जुलाई 2010

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की मीटिंग, हैदराबाद, 12 से 14 जून, 2010 द्वारा पारित राजनीतिक प्रस्ताव

प्रस्तावानाः
राष्ट्रीय परिषद की पिछली बैठक (दिसम्बर, 2009, बंगलौर) के बाद राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक आर्थिक और राजनैतिक घटनाक्रम हुए है, जिनमें कुछ निश्चित आर्थिक एवं राजनैतिक रूझानों के संकेत मिलते हैं, जिनके कुल मिलाकर राजनैतिक व्यवस्था पर दूरगामी परिणाम होंगे। आर्थिक संकट ने विश्व भर में पूंजीवादी आर्थिक नव-उदारवाद को जकड़ लिया है और उसमें एक नया मोड़ आ गया है जिससे आर्थिक स्थिति और अधिक जटिल तथा खराब होगी। इसका निश्चित रूप से विकासशील देशों पर प्रभाव पडे़गा, खासकर चीन और भारत जैसी उभरती आर्थिक व्यवस्थाओं पर जिनकी मजबूती के कुछ आसार दिखाई दे रहे हैं। देश के अंदर यूपीए-दो इस गलत धारणा को पालते हुए कि उसकी आर्थिक नीतियां देश को विकास के रास्ते पर ले जा रही हैं, वह शर्मनाक ढंग से आर्थिक नव-उदारवाद के रास्ते पर चल रही हैं, जिसके कारण बढ़ती महंगाई (मुद्रा स्फीति), के गहराते कृषि संकट और बेराजगारी, मजदूरी में कटौती एवं लगभग सभी क्षेत्रों में छंटनी के रूप में आम लोगों की परेशानियां बढ़ गई हैं।
राजनैतिक क्षेत्र में यूपीए-दो का संकट बना हुआ है क्योंकि उसे अपने अस्तित्व मात्र के लिए बाहर से समर्थन निर्भर करना पड़ रहा है (लोक सभा में यूपीए-दो को बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं है)। इसके अलावा लगातार कटुता तथा घटक दलों द्वारा ब्लैकमेल जारी है। व्यापक भ्रष्टाचार ने, खासकर घटक दलों के मंत्रियों के द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार से शासन मजाक बनकर रह गया है।
लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा मुद्दे उठाने के लिए अभी भीअंधेरे मंे तीर मार रही है क्योंकि मुख्य आर्थिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर शासक पार्टी और उसके बीच मतभेद बहुत कम है। वास्तव में अधिकांश बुर्जुआ राजनैतिक दलों ने, चाहे वे राष्ट्रीय हैं या क्षेत्रीय दल, भूमंडलीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण (आर्थिक नव-उदारवाद) को स्वीकार कर लिया है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के निर्देश पर हो रहा है और जो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रभाव में काम करते है। इससे राजनैतिक स्थिति और जटिल हो जाती है।
यद्यपि वामपंथी पार्टियों ने आर्थिक नीतियों, खासकर आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में असहनीय वृद्धि के खिलाफ एक के बाद दूसरे लगातार अभियान चलाये हैं लेकिन इस संघर्ष को एक ऐसा सुस्पष्ट एवं निश्चित राजनैतिक आकार दिया जाना बाकी है जिसे कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए (संप्रग-संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) और भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए (राजग-राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। वामपंथी पार्टियों ने दिल्ली मार्च और राष्ट्रव्यापी हड़ताल के रूप में दो बडे़ अभियान चलाये जिनका अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने भी समर्थन किया, उनमें से कुछ ने संसद में कटौती प्रस्ताव पर वामपंथी पार्टियों के साथ मतदान नहीं किया। अनेक क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व का, जो धर्मनिरपेक्ष विकल्प का हिस्सा हो सकते हैं, समझौतापरस्त रवैया तथा मजबूरी एक ऐसा विकल्प प्रस्तुत करने में सबसे बड़ी बाधा है जिसके बारे में हैदराबाद में 2009 में आयोजित हमारी पार्टी की 20वीं कांग्रेस में खाका खींचा गया था।
केन्द्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध अनेक आंदोलन चल रहे हैं और जनता का असंतोष बढ़ रहा है, आगे आने वाले समय में जो घटनाक्रम सामने आने वाले हैं उनके लिए हमें इंतजार करना होगा।
आर्थिक स्थिति
इस दावे के विपरीत कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद के बदतरीन आर्थिक संकट का हल किया जा रहा है और अर्थव्यवस्था बहाली के रास्ते पर है, यह संकट और भी जटिल हो रहा है। अमरीका में जो आज तक का बदतरीन संकट शुरू हुआ और जिसने विश्व पूंजीवादी व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया वह मंदी अब नये आकार ले रही है और एक के बाद एक प्रमुख देशों को आर्थिक विभीषिका की दिशा में ले जा रही है और इस तरह उन्हें राजनैतिक संकट में धकेल रही है। ग्रीस का संकट पूंजीवादी आर्थिक संकट के नये लक्षण का उदाहरण पेश करता है।
ग्रीस का संकट पूंजीवादी व्यवस्था का अपरिहार्य नतीजा है और इस व्यवस्था की एक कमजोर कड़ी होने के कारण ग्रीस इसका बदतरीन शिकार हुआ है। वास्तव में पूंजीपति वर्ग शासकों ने हर कहीं मजदूर वर्ग और आम लोगों पर असहनीय बोझ डालकर इस संकट का हल निकालने की कोशिश की है। विश्वव्यापी मंदी और रोजगार छिनने, मजदूरी कम होने, पेंशन और सामाजिक सुरक्षा में कटौती और रोजगार की गुणवत्ता एवं शर्तों में बदलाव के कारण मेहनतकश लोग सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए। ग्रीस का संकट यूरोपीय संघ की साझा मुद्रा (करेंसी) यूरो के संकट से भी जुड़ा है। इससे यूरोपीय यूनियन के लगभग सभी देशों में गहराते संकट का पता चलता है और लगता है कि अब पुर्तगाल की बारी है।
विश्वव्यापी आर्थिक संकट और मंदी का मौजूदा दौर वास्तव में उन सिद्धांतकारों और बुर्जुआ प्रचारकों का पर्दाफाश करता है जिन्होंने सोवियत संघ के पतन और समाजवाद को लगे आघात के बावजूद “इतिहास का अन्त” और इस अतर्कसंगत अवधारणा कि- “कोई विकल्प नहीं है” (टीना-देयर इज नो आल्टरनेटिव)- की घोषणा कर दी थी।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह सबसे बड़ी मंदी अमेरिका और अन्य पूंजीवादी देशों में कर्ज का बोझ बढ़ाने की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और जनता के बजाय मुनाफे को प्राथमिकता एवं महत्व देने के पूंजीवादी मंत्र का नतीजा थी। अमरीका एवं अन्य विकसित बुर्जुवा अर्थव्यवस्थाओं में बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानों के दिवाला पिटने और फेल हो जाने से विश्व भर में पूंजीवादी अर्थव्यवथा के संकट का पता चलता है। शीघ्र ही इसने विकासशील देशों को अपनी चपेट में ले लिया। इससे “कोई विकल्प नहीं है” के दावे का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया।
सभी पूंजीवादी देशा में सरकारें तथाकथित अर्थव्यवस्था के लिए स्टिमुलस फंड (प्रोत्साहन कोष) के नाम पर बहुत बड़े आर्थिक पैकेज देकर बहुराष्ट्रीय निगमों, कारपोरेट घरानों और बड़े बिजनेस को बचाने के लिए दौड़ पड़ी। इससे पता चलता है कि वे मुनाफे को तो निजी क्षेत्र को देना चाहते हैं जबकि घाटे की पूर्ति सरकारी खजाने से करते हैं। भारत समेत किसी भी देश में उन गरीब लोगों को कोई राहत नहीं दी गई जो संकट के असली शिकार हुए हैं और जिनकी कीमत पर पूंजीपति सरकारों ने इस संकट के समाधान की कोशिश की है।
अनुभव बताता है कि मंदी के संकट को पूंजीवादी रास्ते पर चलकर हल नहीं किया जा सकता। इसको अस्थायी तौर से हल किया भी गया तो वह फिर से सामने आ जाएगा। और यह संकट पहले से भी अधिक विकराल रूप में सामने आएगा जैसा कि ग्रीस और पुर्तगाल में देखा गया।
अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण हो गया है अतः चीन भी इस विश्व-संकट के असर में आये बिना नहीं रह सका। पर उसने पूंजीपतियों को संकट से निकालने के रास्ते को अपनाने के बजाय मेहनतकश लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने का रास्ता अपनाया, अतः संकट से बाहर निकलने में वह सबसे पहले देशों में था।
भारत में आर्थिक संकट
विश्वव्यशपी मंदी और आर्थिक संकट ने भारत समेत विकाशसील देशों को भी बुरी तरह प्रभावित किया। हमारे देश में निर्यात से जुड़े उद्योगों, लघु उद्योगों और हस्तशिल्प पर ही नहीं, आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) पर भी इसका गंभीर असर पड़ा। लगभग 30-40 लाख कर्मचारियों को रोजगार छिनने, कारखाना-बंदी, छंटनी और मजदूरी में कटौती की परेशानियों का सामना करना पड़ा। मीडिया मालिकों ने भी मदजूरी/वेतन में कटौती का तरीका अपनाया।
कम्युनिस्टों और अन्य वामपंथी ताकतों द्वारा लगातार विरोध और उनके द्वारा चलाये जा रहे संघर्षों के कारण भारत में शासक वर्ग बैंकों, बीमा और वित्तीय क्षेत्र के अन्य संस्थानों का उस हद तक निजीकरण नहीं कर पाया जितना वह चाहता था। इस कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर इस संकट का असर अपेक्षाकृत कम रहा। इसके बावजूद, विकसित पूंजीवादी देशों की सरकारों के उदाहरण और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों पर चलते हुए यूपीए-दो सरकार ने भी कारपोरेट घरानों को संकट से निकालने के लिए राहत देने और उन्हें स्टिमुलस पैकेज देने का रास्ता अपनाया। और अर्थव्यवस्था की “बहाली” (रिकवरी) के मिथ्या दावे के बावजूद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस वर्ष के बजट में इन पैकेजों को वापस लेने से मना कर दिया।
आर्थिक संकट के सबसे अधिक शिकार आम लोग हुए हैं जिन्हें रोजगार छिनने, मजदूरी में कटौती और रोजगार की गुणवत्ता और शर्तो में नकारात्मक बदलाव झेलने के अलावा उस नये बोझ को भी सहना पड़ रहा है जो लगभग सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि से उन पर पड़ रहा है। मैट्रोपेालिटेन शहरों और अन्य शहरों में मकान किराए 40 से 100 प्रतिशत बढ़ गये हैं। फिक्स्ड आमदनी समूह (वे लोग जिनकी आमदनी में कोई वृद्धि नहीं होती) के लोगों के लिए गुजारा करना मुश्किल हो गया हैं
निजी कम्पनियों के साथ ही साथ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों की 15 प्रतिशत की अनिवार्य बिक्रीवित्त मंत्री ने कम्पनियों को सूचीबद्ध करने (लिस्टिंग) के लिए जिन नये मानदण्डों की घोषणा की है उनसे सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों को भी अपने 25 प्रतिशत शेयर पब्लिक को बेचना कानूनन जरूरी हो गया है। इन नए मानदण्डों को कुछ निजी कम्पनियों द्वारा शेयरों की कीमतों में हेरा-फेरी करने को रोकने के बहाने से शुरू किया गया। इन नये मापदण्डों से निजी क्षेत्र में विप्रो, रिलायंस पावर जैसी चंद ही कम्पनियों पर असर पड़ेगा, अधिकांशतः इसका असर सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों पर ही पड़ने वाला है। पिछले दरवाजे से निजीकरण और विनिवेश करने का यह तरीका लोगों को धोखा देने के लिए शुरू किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र कि निम्न बड़ी इकाईयों उनके सामने दिये गए शेयर प्रतिशत में प्रभावित होंगी:
एनटीपीसी 15.5 प्रतिशत
एनएमडीसी 10 प्रतिशत
इंडियन ऑयल 21 प्रतिशत
सेल 14 प्रतिशत
पावर ग्रिड 13 प्रतिशत
पावर फाइनेंस कारपोरेशन 10.22 प्रतिशत
नेशनल एल्युमिनियम 12.85 प्रतिशत
न्येवेली लिग्नाइट 06.44 प्रतिशत
शिपिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया 19.88 प्रतिशत
पहले सरकार ने जीवन बिमा निगम में सरकार के निवेश को पंाच करोड़ से बढ़ाकर एक सौ करोड़ करने का फैसला किया, यद्यपि ऐसी कोई आवश्यकता नहीं थी। इसमें भी जीवन बीमा निगम के भविष्य में विनिवेश का इरादा है।
25 प्रतिशत के नये कानूनी अनिवार्य मानदण्ड से पब्लिक और प्राइवेट क्षेत्र में दो लाख करोड़ रूपये मिलने की अपेक्षा है पर बाद में इससे सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों को भारी नुकसान होगा।
महंगाईइस संकट के बदतरीन नतीजों में से एक है तमाम आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें। महंगाई बुनियादी तौर पर सरकार की नीतियों-खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं में वायदा कारोबार की इजाजत देने, जमाखोरी के विरूद्ध कानूनों में व्यापारियों को फायदा पहुंचाने वोल संशोधन एवं ऐसे ही अन्य कदमों-का नतीजा है। मनमोहन सिंह सरकार वायदा कारोबार और जमाखोरी के विरूद्ध कदम उठाने से यह बहाना बनाकर इन्कार करती है कि यह राज्य सरकारों का कार्यक्षेत्र है।
इस मामले में यूपीए-दो की निष्क्रियता के परिणाम स्वरूप दालों और खाद्य-तेलों की कीमतों में सौ प्रतिशत, गेहूं एंव चावल में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है। सरकार ने स्वंय माना है कि मुद्रा स्फीति की दर 15 प्रतिशत से अधिक है। सरकार लोगों की इस परेशानी को दूर करने के लिए कोई कदम उठाने को तैयार नहीं है। इसके बजाय प्रधानमंत्री जनता की आंखों में यह आश्वासन देकर धूल झोंक रहे हैं कि साल के अंत में कीमतें नीचे आ जाएगी। यह उसी किस्म की क्रूरता है जो कृषि मंत्री ने यह कहकर प्रकट की थी कि चीनी महंगी होने से लोगों को डायबिटीज कम होगी।
पार्टी की 20वीं कांग्रेस के फैसले के अनुसार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने महंगाई के विरूद्ध व्यापक जन आंदोलन खड़ा करने पर ध्यान दिया है। इस साल के दौरान पहले तो उसने भाकपा (मा.), आरएसपी और फारर्वउ ब्लॉक के साथ मिलकर देशव्यापी कार्रवाईयां की और बाद में महंगाई के सीमिति मुद्दे पर संयुक्त कारवाईयां की और बाद में महंगाई के सीमित मुद्दे पर संयुक्त कार्रवाई के लिए कुल मिलाकर 13 राजनैतिक पार्टियों को तैयार किया।
गैर-यूपीए और गैर-राजग तमाम क्षेत्रीय पार्टियां उस अखिल भारतीय हड़ताल में शामिल हुई जो वस्तुतः भारत बंद में बदल गई। हमें इस तथ्य को नोट लेना होगा कि यूपीए-दो सरकार के दबाव और सीबीआई एवं सरकार की ताकत के दुरूपयोग के कारण इनमें से कुछ पार्टियों ने कटौती प्रस्ताव में हमारे साथ मतदान नहीं किया।
यूपीए-2: विफलता और छल-कपट का एक साल
यूपीए-2 ने अपने दूसरे कार्यकाल में एक साल पूरा किया जो आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता तथा लोगों को बेवकूफ बनाने के उसके प्रयास से भरा हुआ है। यूपीए-2 के सत्ता में आने की प्रथम वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री ने अपनी प्रेस कांफ्रेेंस में विभिन्न मोर्चो खासकर जीडीपी विकासदर, सबको शिक्षा का अधिकार देने और खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का आश्वासन देने के बारे में उपलब्धियां हासिल करने का दावा किया। जीडीपी विकासदर मानव विकास इंडेक्स को प्रतिबिम्बित नहीं करती है। जीडीपी विकास दर का दावा कुछ हलकों में झूठा संतोष पैदा करता है। यह भी नोट करना चाहिए कि जीडीपी विकास दर के दावे का आधा सेवा क्षेत्र से है। यह सच है कि संपत्ति का निर्माण हो रहा है लेकिन चार कारपोरेट घरानों के हाथों में यह संपत्ति जमा हो रही है। अमीरों और गरीबों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। भारत की सच्चाई यह हैः
 मानव विकास इंडेक्स में भारत का स्थान 123वां है।
 प्रति व्यक्ति जीडीपी में इसका स्थान 126वां है।
जन्म के बाद जिंदा रहने के मामले में इसका स्थान 127वां है।
 व्यस्क निरक्षरता के मामले में इसका स्थान 148वां है।
 एक रिपोर्ट के अनुसार देश के पांच शीर्ष खरबपतियों की संपत्ति का मूल्य 30 करेाड़ लोगों की संपत्ति के बराबर है।
 कार्पोरेट घरानों के आला अधिकारियों का वेतन सलाना 5 करोड़ से 40 करोड़ रू. के बीच है। ऐसे करीब 3000 आला अधिकारी लगभग 20,000 करोड़ रु. केवल वेतन के रूप में लेते हैं।
दूसरी तरफ अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार 77 प्रतिशत लोग (करीब 84 करोड़़) रोजाना 20 रु. से कम पर गुजारा करते हैं।
यह विरोधाभास और हकीकत यूपीए-2 के असली चेहरे को दर्शाती है।
महंगाई रोकने में सरकार की विफलता के अलावा ऐसे मुद्दे हैं जो यूपीए-2 के एक साल के कुशासन का बखान करते हैं। इन मुद्दों में आर्थिक एवं विदेश नीतियों में लगातार ऐसा झुकाव जो अमरीका के हक में है, आंतरिक सुरक्षा की विफलता, आतंकवाद और नक्सलवाद में तेजी, यूपीए में शामिल घटक दलों और मंत्रियों में कटुता, आईपीएल विवाद, राजनीतिक दलों को ब्लैकमेल करने के लिए सीबीआई एवं अन्य सरकारी एजेंसियों का दुरूपयोग जैसा कि बजट सत्र के दौरान कटौती प्रस्ताव पर मतदान के दौरान देखने को मिला तथा शशि थरूर, जयराम रमेश और ममता बनर्जी जैसे मंत्रियों के अनुचित व्यवहार शामिल हैं।
विपक्षी नेताओं के टेलीफोन टेप होने का खुलासा होने तथा राजनीतिकविरोधियों के खिलाफ सीबीआई के दुरूपयोग से कुछ हद तक यूपीए-2 का चेहरा कलुषित होता है। अपने एक साल के शासन में यूपीए-2 को अस्थिरता के खतरे का सामना करना पड़ा तो अब केन्द्र और राज्यों में दूसरी पार्टियों का समर्थन लेने की कोशिश कर रही है ताकि आंतरिक एवं बाहरी दबावों के खतरे का सामना किया जा सके।
सरकार निजीकरण एवं उदारीकरण की आर्थिक नीति पर लगातार आगे बढ़ रही है जैसा कि बहुराष्ट्रीय निगम चाहते हैं। इस दिशा में ताजा कदम पेट्रोल एवं पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्यों पर से नियंत्रण हटाने की दिशा में है। इसका कीमतों पर काफी घातक प्रभाव पड़ेगा।
उच्च स्तरों पर भ्रष्टाचार
उच्च स्तरों पर भ्रष्टाचार यूपीए-2 की एक अन्य विशेष बात है। यूपीए के कुछ घटकों द्वारा सरकार के पैसे की लूट इतने खुलेआम हो रही है कि प्रधानमंत्री भी उसका बचाव नहीं कर सके। जी-2 स्पैक्ट्रम घोटाला, जिसमें संचार मंत्री, डीएमके के ए. राजा लिप्त हैं, इसका एक उदाहरण हैं। अनेकों मंत्री आईपीएल घोटाले में शामिल है। आईपीएल का क्रिकेट को बढ़ावा देने से कोई वास्ता नहीं है। इस तरीके को जनता को लूटने और पैसे को हड़प करने के लिए बनाया गया। कुल मिलाकर इससे क्रिकेट को नुकसान पहुंच रहा है।
सरकार और प्रशासन में भ्रष्टचार इतना व्यापक है कि मनमोहन सिंह सरकार बचाव के तरीके खोज रही है। भ्रष्ट तत्वों को बचाने के लिए और प्रशासन में पारदर्शिता को खत्म करने के लिए उसने सूचना के अधिकार कानून में संशोधन की पेशकश की है। इसका कुल नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार न्यायापालिका और रक्षा सेवाओं में भी घुस गया है।
कानूनों के नाम पर धोखाधड़ी
शिक्षा के अधिकार, महिला आरक्षण बिल और खाद्य सुरक्षा बिल जैसे कुछ जनकानूनों के संबध्ंा में सरकार की घोषणाओं से बड़े सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं। तथ्य यह है कि महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पारित कराने के बाद यूपीए-2 इस मुद्दे पर पीछे कदम हटा रही है। बिल को पारित करने की अपनी वचनबद्धता को पूरा करने के बजाय उसने एक बार फिर “सर्वसम्मति” बनाने के संबंध में बोलना शुरू कर दिया है।
इसी प्रकार शिक्षा के अधिकार के बिल को संसद में पास किया गया जिससे शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित नहीं होता क्योंकि इसमें वित्तीय समर्थन के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। केन्द्र सरकार मामले को राज्य सरकार पर डालने की कोशिश कर रही है, जबकि इस बिल को अंतिम रूप देते समय उसने राज्य सरकारों को विश्वास में लेने की फिक्र ही नहीं की थी।
शिक्षाविद, शिक्षक और छात्र संगठन शिक्षा अधिकार कानून पर नाखुश है क्योेंकि यह उनकी अपेक्षाओं से बहुत दूर है और वे महसूस करते हैं कि इससे कोई उद्देश्य हल होने वाला नहीं है। इसके अलावा यूपीए सरकार ने निजी विश्वद्यिालयों को इजाजत देकर और विदेशियों के लिए उच्च शिक्षा क्षेत्र के दरवाजे खोलने की मंशा जाहिर कर उच्च शिक्ष को आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया है।
यही बात बहुप्रचारित खाद्य सुरक्षा बिल पर लागू होती है। यूपीए-2 ने अपने घोषणा पत्र में सभी बीपीएल परिवारों को 35 किलो चावल या गेहूं 3 रु. प्रति किलो दर पर देने का वायदा किया था। उस वायदे पर टिके रहने के बजाये वह खाद्य सुरक्षा बिल में हीला-हवाली कर रही है और मानदंडों को पूरी तरह बदलकर बीपीएल परिवारों की अवधारणा को ही विकृत कर रही है। पहले ही अधिकांश बीपीएल परिवारों को इस कैटेगरी से बाहर किया जा चुका है।कट्टरवादी ताकतों द्वारा साम्प्रदायिक नफरत फैलाये जाने के बावजूद-जिससे देश का धर्मनिरपेक्ष वातावरण दूषित हो रहा है- जिस “साम्प्रदायिक हिंसा रोक एवं नियंत्रण बिल” का वायदा किया गया था, वह अभी लंबित कर दिया गया है।
सरकार जनहित के बिलों की घोषणा मात्र करके संतुष्ट है और वास्तव में परमाणु दायित्व जैसे बिलों पर जोर दे रही है, उन्हें आगे बढा़ रही है। परमाणु दायित्व बिल परमाणु दुर्घटना होने की सूरत में, परमाणु रिएक्टरों (जो दो दशक से भी अधिक से गोदामों में जंग खा रहे हैं) के आपूर्तिकर्ता अमरीकी बहुराष्ट्रीय निगमों को किसी भी मुआवजे के भुगतान की जिम्मेदारी से मुक्त करता है। भोपाल की बदतरीन औद्योगिक दुर्घटना के मामले में जो शर्मनाक फैसला आया उससे स्वष्ट चेतावनी मिल रही है कि संसद में जो परमाणु दायित्व बिल पेश किया गया है उसका लक्ष्य क्या है।
मणिपुर की स्थिति
मणिपुर में नागाओं ने पिछले दो महीने से उन दो राष्ट्रीय राजमार्गों को ब्लॉक कर रखा है जो मणिपुर से एकमात्र जीवित संपर्क हैं। इससे मणिपुर में स्थिति बहुत खराब हो गयी है। मणिपुर चारों तरफ से जमीन से घिरा राज्य है। मणिपुर सरकार ने एनएससीएन नेता मुवेइया की प्रस्तावित यात्रा को इस डर से नामंजूर कर दिया कि 1990 के दशक जैसी नृजातीय हत्याओं का सिलसिला न दोहराया जाने लगे, जिनमें लगभग 1000 कुर्की लोग मारे गये थे और एक लाख लोग घरों से विस्थापित हो गये थे।
नागा संगठन “नागालियम” अर्थात स्वतंत्र वृहत नागालैंड की मांग कर रहे हैं और उसमें मणिपुर के चार जिलों और असम, मिजोरम एवं अन्य राज्यों के कुछ नागा आबादी वाले क्षेत्रों को शामिल करने की मांग कर रहे हैं। जब केन्द्र सरकार नागा संगठनों से बात कर रही थी उसने पहले मणिपुर में भी सीजफायर घोषित कर दिया जिससे बड़ा राजनैतिक आंदोलन भड़क उठा।केन्द्र सरकार द्वारा मणिपुर की स्थिति के संबंध में गैर जिम्मेदार तरीके से निपटने के कारण मणिपुर के लोगों को दिक्कते पैदा हो रही हैं। मणिपुर में छोटे एवं मध्यम अनेक विद्रोही ग्रुप सक्रिय हैं। इस तरह एक संवेदनशील राज्य होने के नाते मणिपुर में स्थिति विस्फोटक है। वहां आवश्यकता इस बात की है कि मणिपुर की जनता और सरकार को साथ लेकर, उनको शामिल कर केन्द्र सरकार अधिक उत्तरदायीपूर्ण और सावधानी के साथ हस्तक्षेप करे।
विदेश नीति
विदेश नीति में अमरीका के पक्ष में झुकाव जारी है। भारत-अमरीकी रणनीतिक वार्ता जिसके लिए विदेश मंत्री के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल वहां गया था, अमरीकापक्षी नीति का ताजा उदाहरण है। अमरीका ने यहां तक कि भारत से उच्च तकनीक के आयात पर रोक को हटाने की मांग स्वीकार नहीं की लेकिन हमने अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अपना बाजार खोल देने तथा उदारीकरण के तेज करने का आश्वासन दे डाला। भोपाल गैस त्रासदी पर शर्मनाक अदालती फैसले को लेकर देश भर में फैले आक्रोश के बावजूद भारत सरकार परमाणु दायित्व बिल को और नरम करने पर राजी हो गयी है जिसमें परमाणु हादसे होने पर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मुआवजा देने से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है।
यद्यपि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने अनेक विकासशील देशों को विभिन्न तरह के ग्रुप बनाकर अमरीका द्वारा एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था थोपने के प्रयास का विरोध करने के लिए मजबूर किया, भारत अभी अपनी भावी दिशा के बारे में स्पष्ट नहीं है। इसके कारण यूपीए-2 द्विविधा में पड़ गयी है, वास्तव में ऐसी परिस्थिति में पड़ गयी है कि विदेश नीति में विरोधाभासी रवैया अपना रही है। ब्रिक एवं ऐसे ही संगठनों में भारत ने जो सक्रिय भूमिका निभायी वह स्वागतयोग्य है, लेकिन यूपीए-2 शंघाई सहयोग संगठन की पूर्ण सदस्यता ग्रहण करने के बारे में अभी भी बहस ही कर रही है जिसमें बहुध्रवीय विश्व व्यवस्था में एक अन्य स्तंभ बनकर उभरने की क्षमता है।
पाकिस्तान के साथ वार्ता करने में स्वतंत्र रूख अपनाने के बजाय, सरकार अनधिकृत एवं अवांछनीय ‘मध्यस्थता’ के लिए अमरीका की ओर देख रही है। अमरीका ने ही डा. मनमोहन सिंह को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के साथ शरम-एल-शेख (मिस्र) में एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया था जिसमें पाकिस्तानी प्रांत बलूचिस्तान की घटनाओं का अनावश्यक उल्लेख किया गया है।
भारत-पाक संबंधों में मध्यस्थ बनने का दर्जा हासिल करने की अमरीकी कोशिशों को भारत को पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए। हमें कश्मीर सहित सभी विवादस्पाद भारत-पाक मुद्दों पर द्विपक्षीय वार्ता को बढ़ावा देना चाहिए। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक का लाभ उठाकर भारत-पाक व्यापक वार्ता के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए जो मुंबई में आतंकवादी हमले के कारण ठप्प पड़ गयी थी। पाकिस्तान को अपने यहां सक्रिय आतंकवादियों एवं उनके संरक्षकों को पकड़ने और दंड देने के लिए भारत के साथ पूरा सहयोग करना चाहिए। यूपीए-2 सरकार श्रीलंका के तमिलों के राजनीतिक समाधान के मुद्दों को श्रीलंका सरकार से उठाने में विफल रही है तथा श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों के पुनर्वास और मानवधिकारों के उल्लंधन के मुद्दे को उठाने में विफल रही है।
आतंकवाद का खतरा
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की हमेशा से यह राय रही है कि भारत जिस आतंकवादी खतरे का सामना कर रहा है उसका 2001 में अमरीका के आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के प्रतीकों पर हुए हमले क बाद अमरीका जिस आतंकवाद की बात कर रहा है उससे कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से उस समय की एनडीए सरकार ने आतंकवाद पर अमरीकी रूख को मान लिया तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं कहा कि “सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान है।” इस झूठी धारणा के कारण 2001 के बाद भारत में हुए हर आतंकवादी हमले के बाद बड़ी संख्या में मुसलमान युवाओं को झूठे मुकदमों में फंसाया गया।
महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए बम विस्फोट के बाद महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख ने कहा था कि हिंदुत्व संगठन अभिनव भारत ने यह आतंकवादी हमला रचा था और उसे अंजाम दिया था। उसके बाद संघ परिवार से जुड़े विभिन्न संगठनों के अनेक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया जिनमें सेना का एक कर्नल और एक साध्वी शामिल थी। लेकिन एनडीए सरकार के दिनों में किये गये इस बारे में भ्रामक प्रचार तथा पुलिस और अन्य एजेंसियों में घुसपैठ के कारण मालेगांव विस्फोट और महाराष्ट्र के अन्य शहरों में हुई ऐसी ही अन्य घटनाओं की जांच जिनमें आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे, ठीक ढंग से नहीं हो पायी। बल्कि जांच में बाधा डालने की कोशिश की गयी जिससे इस धारण को बल मिला कि नकली मुठभेड़ों की तरह आतंकवादी हमले भी नकली हैं जिससे आतंकवाद के बारे में अमरीकी विचार को मान्यता मिली।
इस आशंका को उस समय और बल मिला जब राजस्थान एटीएस ने कहा कि अजमेर में हुए बम विस्फोट में आरएसएस कार्यकर्ताओं का हाथ था। राजस्थान एटीएस ने आगे दावा किया कि उसके पास साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि हैदराबाद में मक्का मस्जिद पर हमला तथा समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट में आरएसएस के उसी ग्रुप का हाथ था जो अजमेर विस्फोट में शामिल था। सीबीआई ने भी राजस्थान पुलिस के इस दावे की पुष्टि की है।
यह नोट किया जाना चाहिए कि अधिकांश विस्फोटों के मामलों में मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान जहां भाजपा सत्ता में थी, के बीच लिंक होने का पुलिस दावा कर रही है। यहां तक कि अभी इन राज्यों की पुलिस तथा केन्द्रीय एजेंसियों में घुसपैठ करने वाले तत्व जांचों में बाधा डालने की कोशिश कर रहे हैं।
भाकपा को इन आतंकवादी कार्रवाइयों में हिन्दुत्व लिंक होने तथा आतंकवाद के बारे में साम्राज्यवादी विचार को उनके द्वारा मान्यता देने का पर्दाफाश करने के लिए अभियान चलाना चाहिए और 2010 के बाद से हर आतंकवादी हमले के बाद झूठे मुकदमों में फंसाये गये सभी मुसलमान युवाओं को तुरन्त रिाहाई की मांग करने चाहिए। जो पुलिस अधिकारी मुसलमान युवाओं के शामिल होने की मनगढ़ंत कहानी बनाते हैं उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। भाकपा माओवादियों की गलत कार्यनीति और वैचारिक भटकाव का पर्दाफाश करना जारी रखेगी जिससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान हो रहा है।
माओवादी हिंसा में तेजी
पिछले छह महीनों में देश के अनेक हिस्सों में तथाकथित माओवादियों द्वारा किये जा रहे हिंसक हमलों मंे तेजी आयी है। माओवादी अब सरकारी अधिकारियों की जगह नागरिकों को निशाना बना रहे हैं। रेलों को निशाना बनाया गया है जिनमें बड़ी संख्या में निर्दोष यात्री मारे गये हैं। इसके पहले दांतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या भी माओवादियों ने ही की थी। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की साठगांठ से माओवादी राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाकर तथा उनकी हत्या कर के तथा आम लोगों को आतंकित करके अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने की कोशिश कर रहे हैं।
माओवादी अपनी कार्यनीति से उनके खिलाफ सेना को इस्तेमाल करने की गृहमंत्री की कोशिश को आसान बना रहे हैं। भाकपा स्पष्ट तौर पर घोषणा करती है कि आंतरिक समस्याओं के समाधान के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। यह एक गलत परिपाटी होगी तथा भारतीय सेना की प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगेगा।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय माओवादी हिंसा के मुद्दे पर कड़ा रुख अपना रहा है। हालांकि सरकार मानती है कि यह केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, लेकिन वास्तव में यह इससे कानून-व्यवस्था की समस्या की तरह निपट रही है।
भाकपा हमेशा इन गुमराह तत्वों के साथ वार्ता के पक्ष में रही है लेकिन साथ ही हिंसा करने वाले तत्वों से सख्ती से निपटने के पक्ष में रही है। इसके साथ ही सरकार को उन लोगों के लिए सामाजिक-आर्थिक पैकेज लाना चाहिए जो माओवादी प्रभाव वाले क्षेत्रों में रहते हैं। लोगों खासकर आदिवासियों की शिकायतों को दूर करने के लिए विकासोन्मुख परियाजनाओं को लागू किया जाना चाहिए। उन परियोजनाओं को तुरन्त बन्द कर देना चाहिए, खासकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चलायी जाने वाली उन परियोजनाओं को जिनमें आदिवासी अपनी जमीन और वन संसाधनों से वंचित होते हैं।
पश्चिम बंगाल में नगर पालिका चुनाव
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ वाममोर्चा को हाल में संपन्न कोलकाता नगर निगम और 80 अन्य नगर पालिका बोर्डो के चुनाव में गहरा धक्का लगा है। यद्यपि डाले गये वोट और जीते गये वार्डो के आधार पर कोई यह संतोष कर सकता है कि एक साल पहले लोकसभा चुनावों में जितना नुकसान हुआ था कुछ हद तक उसमें कमी हुई है लेकिन इससे आत्मसंतुष्टि और समस्या की गंभीरता की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
यह एक तथ्य है कि वाममोर्चा अपने परंपरागत समर्थकों जैसे शहरी गरीब, मजदूर एवं अल्पसंख्यक के बीच आधार खोता चला जा रहा है। इसके अलावा इनकम्बेंसी कारक, जिसका सामना हर सत्तारूढ़ गठबंधन को करना होता है, व्याप्त भ्रष्टाचार और जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक विरोध को दबाना वाममोवर्चा की हार के मुख्य कारण है।
समय का तकाजा है कि वाममोर्चा के घटकों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से गंभीरतापूर्वक आत्मविश्लेषण और चिंतन करना चाहिए। वाममोर्चा के परंपरागत समर्थक लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप सामाजिक - आर्थिक प्राथमिकताओं को फिर से निर्धारित किया जाना चाहिए तथा आज की वास्तविकताओं को देखते हुए वाममोर्चा का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। एक बेहतर वाममोर्चा ही विकल्प है।
कुछ उल्लेखनीय रूझान
राष्ट्रीय परिषद की बंगलौर बैठक के बाद हुए सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक घटनाएं निम्नलिखित रूझानों की ओर इंगित करती हैं जिन्हें पार्टी के कर्तव्यों को अंतिम रूप देने में नोट किया जाना चाहिए ये हैं:
आर्थिक संकट एवं मंदी गंभीर बनी हुई है। यह नया रूप ले रहा है तथा रोजगार और वेतन में कटौती से मेहनतकश लोगों को ज्यादा नुकसान हो रहा है। मुद्रास्फीति विश्वव्यापी हो गयी है और पूंजीवादी व्यवस्था के संकट का आंतरिक हिस्सा बन गई है।
 यूपीए-2 की इस गलत धारणा से कि सरकार की नीतियां विकासोन्मुख हैं, भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण का वह विनाशकारी रास्ते पर चलना जारी रखे हुए हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को ज्यादा से ज्यादा रियायतें मिलती रहेंगी। वैकल्पिक आर्थिक रास्ता अपना कर और उचित राजनीतिक नारों के साथ इन नीतियों का विरोध करने की जरूरत है।
समावेशी विकास के बारे में भ्रम पैदा किया जायेगा ताकि आम लोगों को गुमराह किया जा सके। विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों की मजबूरियां और ब्लैकमेल जो हाल में देखने को मिले वे जारी रहेंगे। इसके बावजूद हमें उनके साथ संबंध बनाना है। कम्युनिस्टों को हमेशा राजनीतिक एवं चुनावी कार्यनीतियों में अंतर को ध्यान में रखना चाहिए।
वाम, खासकर कम्युनिस्टों को अलग-थलग करने की कोशिश की जा रही है। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा हार का कम्युनिस्ट विरोधी शक्तियों और मीडिया द्वारा पूरी तरह फायदा उठाया जा रहा है। वामपंथी शक्तियां और धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच ज्यादा से ज्यादा सहयोग वक्त का तकाजा है।
आर्थिक विकृति के कारण लोगों में बढ़ रहे असंतोष और कमजोर वर्गो, जिनमें अल्पसंख्यक भी शामिल हैं, में उपेक्षा की भावना को जनआंदोलन में बदलना होगा। इस दिशा में काफी सोच समझकर प्रयास करने होंगे।
आने वाले दिनों में बिहार विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं तथा अगले चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पार्टी को इन सभी राज्यों में तुरन्त सांगठनिक तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
आने वाले महीनों में अनेक राज्यों में पंचायत एवं स्थानीय निकायों के चुनाव होने वाले हैं। आमतौर पर हम इन चुनावों पर ध्यान नहीं देते। इस पर जोर देने की जरूरत है कि स्थानीय निकायों के चुनावों के जरिए तथा रोजाना की गतिविधियों से राजनीतिक आधार तैयार किये बिना हम विधानसभा और संसदीय चुनावी चुनौती का सामना नहीं कर सकते।
राज्य परिषदों की बैठक होनी चाहिए जिसमें पार्टी फंड के लिए चंदा वसूलने पर विचार किया जाना चाहिए ताकि पार्टी की गतिविधियां सुचारू रूप से चलती रहे। चूंकि जीवनयापन पर खर्च काफी बढ़ गया है, पूरावक्ती कामरेडों के वेतन/भत्तों में उचित वृद्धि की जानी चाहिए और इसे तुरन्त किया जाना चाहिए।
कर्तव्य
1. मीटिंगों और पार्टी अखबारों के जरिये राजनीतिक अभियान चलाया जाना चाहिए जिसमें पार्टी की राजनीतिक लाइन और नीतियों को बताया जाना चाहिए।
2. बिहार विधान सभा और विभिन्न राज्यों में होने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए राजनीतिक तैयारियां की जानी चाहिए।
3. 2012 के आरंभ में पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु एवं अन्य राज्यों में होने वाले चुनावेां के लिए तैयार रहे।
4. केन्द्रीय एवं राज्य पार्टी की पत्र-पत्रिकाओं तथा दैनिक अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ाने का लक्ष्य पूरा करें।
5. जनसंठनों खासकर खेत मजदूरों और किसानों के संगठनों को मजबूत करें जिसमें ग्रामीण गतिविध पर जोर हो।
6. महिलाओं, युवाओं, दलितों एवं अल्पसंख्यकों में से अधिक से अधिक लोगों को पार्टी में लाएं।
7. सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष।
8. विभिन्न राज्यों में भूमिसंघर्ष चलाया जाना चाहिए।
9. ब्रांच से राष्ट्रीय स्तर तक पार्टी फंड की वसूली की योजना बनानी चाहिए और उस पर अमल करना चाहिए।
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महंगाई और मायावती सरकार

5 जुलाई को पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने तथा महंगाई के खिलाफ वामपंथी दलों ने भारत बंद का नारा दिया था। इसी दिवस तमाम अन्य राजनीतिक दलों ने भी इसमें शिरकत की। तमाम व्यापारिक संगठनों तथा किसानों, खेत मजदूरों, मजदूरों, विद्यार्थियों, नौजवानों, महिलाओं तथा वकीलों आदि के संगठनों ने भी इसे अपना समर्थन दिया। केन्द्र में सरकार चला रहे कांग्रेस नीत संप्रग-2 में शामिल राजनीतिक दल तथा उत्तर प्रदेश में सरकार चला रही बसपा इसमें शामिल नहीं थे।
महंगाई जनता के लिए एक मुद्दा है। पिछले डेढ़ सालों में महंगाई इतनी ज्यादा बढ़ी है कि जनता के अधिसंख्यक तबके त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। बन्द का पूरे देश में अच्छा असर रहा और उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था।
महंगाई बढ़ाने में केन्द्र सरकार दोषी है लेकिन इसमें बसपा सरकार भी दोषी है। विभिन्न योजनाओं में जो खाद्यान्न राज्य सरकार को आबंटित होता है, भ्रष्टाचार के कारण उसकी कालाबाजारी हो जाती है और वह लक्षित जनता तक नहीं पहुंचता। इस मध्य बसपा सरकार ने कई वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाकर उनकी कीमतें बढ़ा दीं। कालाबाजारी, मुनाफाखोरी और खाद्यान्नों की अनैतिक और अवैधानिक जमाखोरी रोकने के लिए बसपा सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा धन न देने का उलाहना मुख्यमंत्री अक्सरहां करती रहती हैं लेकिन एक बार भी उन्होंने प्रदेश की आम जनता के लिए नियंत्रित मूल्य पर खाद्यान्न आबंटित किए जाने की मांग तक केन्द्र सरकार से नहीं की। उन्होंने कभी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की मांग केन्द्र सरकार से नहीं की। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी से जो वैट की अतिरिक्त राशि इन उत्पादों की कीमत में अपने आप शामिल हो गयी, उसे तो वे वापस ले ही सकती थीं जिससे बजट अनुमानों पर कोई असर नहीं होता। लेकिन उन्होंने न तो ऐसा किया और न ही करना चाहती हैं।
अलबत्ता बन्द के दिन जिस तरह का कहर बसपा सरकार ने बन्द को असफल करने के लिए बरपा, वह महंगाई बढ़ाने और पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि में संप्रग के साथ बसपा और मूलतः उसकी नेता मायावती की संलिप्तता की ओर इशारा है। बन्द को असफल करने के लिए 5 जुलाई को भाकपा सहित तमाम राजनीतिक दलों के कार्यालयों पर भारी पुलिस बल अल सुबह ही पहुंच गया था और उसने इन कार्यालयों को वस्तुतः सील कर दिया था मानों इनके अन्दर बड़े-बड़े आतंकवादी छिपे हों। इन कार्यालयों की ओर आने वाले कार्यकर्ताओं को रास्ते में ही रोक कर गिरफ्तार कर लिया गया।
मंहगाई चूंकि एक फौरी मुद्दा है जिससे प्रदेश की अधिसंख्यक जनता परेशान है, बसपा ने भारत बन्द के अगले दिन 6 जुलाई को देशव्यापी प्रदर्शनों का नारा दिया था। बसपा के इन प्रदर्शनों के प्रति जनता में रंचमात्र उत्साह नहीं था। बसपा के प्रदर्शनों में जिला मुख्यालयों पर जितनी जनता जुटी उससे कहीं ज्यादा वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं की एक दिन पूर्व गिरफ्तारी हुई थी।
ये प्रदर्शन आम जनता के बसपा से हो रहे मोहभंग की ओर इशारा है। जनता के सरोकारों से सरोकार न रखना बसपा और उसकी सुप्रीमो मायावती को खासा महंगा साबित होगा।

- प्रदीप तिवारी

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रविवार, 11 जुलाई 2010

ग़रीबी

आह, तुम नहीं चाहतीं--
डरी हुई हो तुम
ग़रीबी से
घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना
नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना

मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,
जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,
तंगहाली ।
हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह
जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है

लेकिन मैं तुम्हें
इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।
अगर मेरी ग़लती से
यह तुम्हारे घर में दाखिल होती है
अगर ग़रीबी

तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,
उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी

जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।
अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं
काम की तलाश में निकल पड़ो
गरबीले डग भरती,
और याद रखो, मेरे प्यार, कि

मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ
और इकट्ठे हम

सबसे बड़ी दौलत हैं
धरती पर जो शायद ही कभी
इकट्ठा की जा पाई हो ।
- पाब्लो नेरूदा
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दो दुश्मन

जरूरी हैं प्रेम और दुलार
इनके बिना हम रह नहीं सकते
अत्याचार और उपेक्षा से
नफ़रत करते हैं हम
लेकिन हमारे दो दुश्मन भी हैं
ये दुश्मन हैं
अहंकार
और दूसरे पर हुक्म चलाने की आदत ।

- तो हू

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शनिवार, 10 जुलाई 2010

तुमने कहाँ लड़ा है कोई युद्ध

कमज़ोर घोड़ों पर चढ़कर युद्ध नहीं जीते गए कभी
कमज़ोर तलवार की धार से मरते नहीं है दुश्मन
कमज़ोर कलाई के बूते उठता नहीं है कोई बोझ
भयानक हैं जीवन के युद्ध
भयानक है जीवन के शत्रु
भयानक हैं जीवन के बोझ
तुमने कहाँ लड़ा है कोई यद्ध ?
कहाँ उठाई है तलवार अभी तुमनें?
कहाँ संभाला है तुमने कोई बोझ ?
यथार्थ के पत्थर
कल्पना की क्यारियों को
तहस-नहस कर देते हैं।
कद्दावर घोड़ों
मजबूत तलवारों
दमदार कलाईयों के बिना
मैदान मारने की बात बे-मानी है।
आत्महत्या का रास्ता उधर से भी है
जिधर से गुजरने की नासमझ तैयारी में
रात को दिन कहने की जिद कर रही हो तुम।
युद्ध
कमज़ोर घोड़ों पर चढ़कर
कभी नहीं जीते गए
- शलभ श्रीराम सिंह
blogger's note :
मैं नहीं जानता कि रचनाकार कवि ने इस कविता को किस सन्दर्भ में लिखा था परन्तु जिस कमजोर वैचारिकी के साथ हिन्दुस्तान और नेपाल के माओवादी खुद को समाजवादी क्रान्ति के संघर्ष का इकलौता खेवनहार बताते हुए वर्ग-शत्रुओं के बजाय निहत्थी जनता पर हमला कर रहे हैं, उन्हें उनकी इस वैचारिक कमजोरी को उन्हें समझाने के लिए मैं इस कविता को उन्हें पेश करना चाहता हूं - प्रदीप तिवारी
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शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।

- अदम गोंडवी
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दादरी परियोजना से प्रभावित किसानों की समस्याओं के सम्बंध में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश का राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को लिखा पत्र

8 जुलाई २०१०
सेवा में,
महामहिम राज्यपाल महोदय
उत्तर प्रदेश
राजभवन
लखनऊ
विषय: रिलायंस पावर लि. दादरी परियोजना से प्रभावित किसानों की समस्याओं के सम्बंध में
महामहिम जी,
जैसाकि आपके संज्ञान में है, प्रदेश सरकार ने रिलायंस पावर प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए जनपद गौतमबुद्ध नगर की तहसील दादरी के अंतर्गत ग्राम बझेड़ाखुर्द आदि में किसानों की 2562 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर अनिल अम्बानी को हस्तांतरित किया था।
इसके विरूद्ध भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, किसान मंच एवं महाराणा संग्राम सिंह किसान कल्याण समिति तथा कई अन्य पार्टियों ने देशव्यापी आन्दोलन चलाया था और किसानों की उपजाऊ जमीनें अधिग्रहण न किये जाने की मांग उठाई थी।
बाद में माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने फैसला दिया कि यह अधिग्रहण उचित तरीके से नहीं हुआ था और किसानों को उनकी जमीनें आपत्ति दर्ज करा कर और प्राप्त मुआवजे की राशि वापस लेकर लौटा दी जायें। इस फैसले का व्यापक स्वागत हुआ था।
लेकिन सारे किसान निर्धारित अवधि के भीतर मुआवजा वापस नहीं कर पाये तथा आपत्ति भी दर्ज नहीं करा पाये हैं। आन्दोलन के दौरान तमाम किसानों पर मुकदमें भी दर्ज किये गये थे जो आज भी किसानों के उत्पीड़न की कहानी कह रहे हैं। अब माननीय उच्च न्यायालय द्वारा किसानों के पक्ष को उचित ठहराने के बाद इन मुकदमों के जारी रहने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता है।
महामहिम जी,
इसी 25 जून को उन सभी किसानों ने गौतमबुद्ध नगर के धौलाना कस्बे में एक जनसभा आयोजित की थी जिसमें भाकपा महासचिव ए.बी.बर्धन और मैं स्वयं शामिल हुये थे। जनसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर प्रभावित किसानों की समस्याओं को आप तक पहुंचाने का अनुरोध हम लोगों से किया गया था। तदनुसार हम आपके पास निम्न मांगें अंकित कर भेज रहे हैं।
1 रिलायंस पावर प्रोजेक्ट के लिए अधिगृहीत जमीन के मुआवजे की राशि को लौटाने और आपत्तियां दर्ज कराने की अवधि बढ़ाकर 31 अक्टूबर 2010 तक कर दी जाये क्योंकि कई किसान आपत्ति दर्ज नहीं करा सके हैं तथा मुआवजे की राशि इसलिए नहीं लौटा सके क्योंकि उन पर धन नहीं है और उसके लिए उन्हें अपनी सम्पत्तियां बेचकर रकम का इंतजाम करना पड़ रहा है।
2 उपर्युक्त आन्दोलन के दौरान किसानों पर लगाये गये मुकदमों को फौरन वापस लिया जाये।
3 मुआवजे की राशि खसरा अनुसार जमा कराई जाये।
4 अधिगृहीत भूमि के बीच से गुजरने वाले रजवाहे को जोकि कैंसिल कर दिया गया था, पुनः चालू कराया जाये ताकि वहां खेती की जमीन पर सिंचाई की जा सके।
अतएव आपसे अनुरोध है कि उपर्युक्त के सम्बंध में उत्तर प्रदेश सरकार को तत्काल आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दें।
सधन्यवाद।
भ व दी य
(डा. गिरीश)
राज्य सचिव
प्रतिलिपि आवश्यक कार्यवाही हेतु।
1 - माननीय मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ2 - आयुक्त, मेरठ मंडल, मेरठ

(डा. गिरीश)
राज्य सचिव
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