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शनिवार, 22 मई 2010
at 9:17 pm | 0 comments | ए.बी. बर्धन
मई दिवस 2010: नई जिम्मेदारियां
पिछले वर्षों के समान इस वर्ष भी दुनिया भर के मजदूर एक मई को इकट्ठा होकर और जुलूसों की शक्ल में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनायेंगे। साथ ही वे अपनी उपलब्धियों और असफलताओं का जायजा लेंगे, समस्याओं पर विचार करेंगे और 21वीं सदी की आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी शक्ति इकट्ठा करेंगे।हाल में जो समस्या सबसे विकराल रूप धारण कर रही है वह है खाद्यान्नों और अन्य आवश्यक वस्तुओं की तेजी से बढ़ती हुई कीमतें। इनका मजदूरों और गरीबों पर खास प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा नौकरियां खोने और वेतन में कटौती के कारण मजदूरों पर पूंजीपतियों द्वारा दबाव बढ़ता जा रहा है। वर्तमान आर्थिक संकट से निकलने का पूंजीपतियों ने यही रास्ता खोज निकाला है जबकि यह संकट पूंजीवादी व्यवस्था का ही परिणाम है। सारे देश में बड़े पैमाने पर आंदोलन चल रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। शासक वर्गअधिकाधिक घमंडी, प्रभुत्ववादी बनता जा रहा है।यूपीए की जनविरोधी नीतियांयूपीए सरकार पूंजीपति वर्ग के वर्गहितों की रक्षक है। वह लगातार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विनिवेश कर रही है और मजदूर प्रतिरोध को दबाने की कोशिश कर रही है। इसके लिए वह निरंतर श्रम कानूनों का उल्लंघन कर रही है, दमन कर रही है और ट्रेड यूनियन तथा जनवादी अधिकारों का हनन कर रही है। कीमतों में बढ़ती वृद्धि सरकार द्वारा अपनायी गई आर्थिक और राजनीतिक नीतियों का ही परिणाम है।पिछले डेढ़ वर्षों में सारे विश्व में वित्तीय और आर्थिक संकट तेजी से फैल गया है। अमरीका से इसकी शुरूआत होकर यह संकट सारे विश्व में फैल गया है। विभिन्न देशों पर इसका प्रभाव अलग-अलग मात्रा में पड़ा है जो इस बात पर निर्भर है कि वे किस हद तक विश्व पूंजीवादी अर्थतंत्र का हिस्सा है। विशाल पैमाने पर महाकाय वित्तीय संस्थाएं जैसे बैंक, बीमा, मार्गेज कम्पनियां और बड़े कारपोरेट कारोबार दिवालिया हो गये और धराशायी हो गये। आज वित्तीय अर्थतंत्र वास्तविक अर्थतंत्र से कहीं बड़ा हो गया है। सट्टेबाजी, जूआ और वित्तीय जोड़तोड़ के जरिये बिना भौतिक उत्पादन के बड़े पैमान पर धन इकट्ठा किया जा रहा है। कई पूंजीवादी अर्थतंत्रों में बिना उत्पादन के मुनाफा एक नियम बन गया है। यह संकट पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की कमजोरी दर्शाता है। यह 1930 के आर्थिक संकट से अधिक गहरा है। इस संकट में नवउदारवादियों के उन दावों को झूठा साबित कर दिया है जिसके हिसाब से वर्तमान व्यवस्था संकट मुक्त और आत्मनियमित है।भारत जैसे विकासमान देशों के लिए इस नीति का मतलब है उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण जिसे आमतौर पर आर्थिक सुधारों का नाम दिया जा रहा है। भारतीय पूंजीपति वर्ग ने आर्थिक सुधारों के नये दर्शन को देश विकास की गारंटी के रास्ते के रूप में अपना लिया है।मजदूर संघर्षइन परिस्थितियों में पिछले दशकों में पहली बार सभी केन्द्रीय टेªड यूनियनों को साथ मिलकर सरकार की नीतियों के खिलाफ संयुक्त संघर्ष करने पर मजबूर होना पड़ा है। उनका कहना है कि संयुक्त टेªड यूनियन आंदोलन मूल्यवृद्धि, निगमों के मजदूर वर्ग के खिलाफ अपराधों और सरकार को रास्ते पर लाने का एकमात्र तरीका है।इस वर्ष 5 मार्च को केन्द्रीय टेªड यूनियनों ने सारे देश में जुझारू सत्याग्रह किया और संगठित तथा असंगठित क्षेत्रों के 10 लाख से अधिक मजदूरों ने इसमें हिस्सा लिया। आने वाले समय में इस एकता को बरकरार रखना जरूरी है।वामपंथी राजनैतिक पार्टियां शहरों और गांवों के मजदूरों और शोषित जनता के बीच काम करती हैं। उन्होंने 12 मार्च को पार्लियामंेट के सामने देशव्यापी मार्च किया जिसमें कीमतों की वृद्धि और खाद्य असुरक्षा के विरोध में जनता ने आवाज बुलंद की। उन्होंने मांग की कि कीमतों पर रोक लगायी जाये और सबों के लिए खाद्य सुरक्षा की गारंटी की जाये। उन्होंने अपना ध्यान सबों के लिए भोजन, नौकरियां, भूमि और जनवादी अधिकार मुहैया करने पर केन्द्रित किया। इसके बाद आया 8 अप्रैल का जेलभरो अभियान, जिसमें बड़े पैमाने पर पिकेटिंग की गयी और सारे देश के 25 लाख से भी ज्यादा लोगों ने देश के हर जिले में मंडल, तहसील यहां तक कि केरल में प्रत्येक असेम्बली चुनाव क्षेत्र के स्तर पर संघर्ष किया। इसके बाद 27 अप्रैल को देशव्यापी हड़ताल आह्वान किया गया जिसका सारे देश में और प्रत्येक राज्य के बड़े पैमाने पर पालन किया गया। इसमें वामपंथी पार्टियों ने पहल की और अन्य गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा, धर्मनिरपेक्ष जनवादी पार्टियों को मूल्यवृद्धि के संघर्ष में शामिल किया।संसद के अंदर यूपीए सरकार कटौती प्रस्ताव पर किसी तरह से बच गयी है। यह कटौती प्रस्ताव वामपंथी पार्टियों ने अन्य पार्टियों के साथ मिलकर पेश किया था। यह एक विशेष कटौती प्रस्ताव था जिसका निशाना सरकार का वह कदम था जिसके तहत ईंधन और खादों की तथा अन्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि की गई है। कांग्रेस की यह आदत हो गई है कि वह चालबाजी,धोखाधड़ी और डरा-धमका कर कुछ अन्य पार्टियों की मदद से अपने पक्ष में मतदान करवा लेती है।घटनाओं ने दर्शाया है कि पूंजीवाद, गरीबी, बेकारी, भूखमरी और बीमारी की समस्याओं को हल करने में असमर्थ है। नवउदारवाद का हर कदम इन समस्याओं को बढ़ाता है और गरीब और अमीर के बीच की खाई को और भी गहरा करता है। पूंजीवादी तबके पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने के लिए वित्तीय पैकेज और वित्तीय बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं। मजदूर वर्ग के आंदोलन और प्रगतिशील शक्तियों की जिम्मेदारी है कि वह पूंजीवादी व्यवस्था की जगह एक नई समाजवादी व्यवस्था कायम करें।बढ़ता आंदोलनपिछले समय में सरकार के नवउदारवादी आर्थिक नीतियों औरसुधारों तथा मुक्त बाजार, बड़े पूंजी और कारपोरेट घरानों के लिए मुनाफा बढ़ाने की नीतियों के खिलाफ बढ़ते आंदोलन का जमाना रहा है। इसमें मजदूरों ने जनता के अन्य हिस्सों के साथ मिलकर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यूपीए सरकार बड़ी हठधर्मिता दिखाते हुए कीमतों की परिस्थिति सुधारने के कोई कदम उठाने से इन्कार कर रही है। इसलिए संघर्ष जारी रखना जरूरी होगा और आने वाले दिनों में आंदोलन के नये तरीके अपनाने पड़ेंगे ताकि जनता के ज्यादा से ज्यादा हिस्से इसमें शामिल किये जा सकें।बिहार में भूमि संघर्ष की तीन मंजिले गुजर चुकी हैं अब वहां भूमिहीन मजदूर और ग्रामीण सर्वहारा का नया संघर्ष एजेंडे पर है। भूमि सुधार कमीशन ने प्रत्येक भूमिहीन परिवार को एक एकड़ जमीन और निवास के लिए दस डिस्मल जमीन देने का सुझाव दिया है। यदि राज्य सरकार इसे लागू करने से इन्कार करती है तो ग्रामीण भूमिहीन श्रमिकों के लिए संघर्ष का एक और अवसर पैदा होगा ताकि इन प्रावधानों को लागू करवाया जा सके। दूसरी जगहों पर किसान विकास और प्रोजेक्टों के नाम पर उनकी जमीने जबर्दस्ती लेने के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। इनमें विशेष आर्थिक क्षेत्र अर्थात ‘सेज’ तथा अन्य शामिल हैं। वे औपनिवेशिक काल के भूमिअधिग्रहण अधिनियम की जगह नये एक्ट के लिए संघर्ष कर रहे हैं ताकि किसानों के हितों की रक्षा की जा सके।विदेश नीतियूपीए सरकर ने वाशिगंटन सहमति और मुक्त बाजार अर्थतंत्र का अमरीकी मॉडल एवं नवउदारवद स्वीकार कर लिया है। इसी प्रकार विदेश नीति में भी अमरीका परस्त झुकाव देखा जा रहा है। अमरीका के सथ कृषि, ज्ञान के क्षेत्र और अन्य प्रकार के खुले और छिपे समझौते किये जा रहे हैं। यह न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल के मसविदे से स्पष्ट हो जाता है जो भारत अमरीका न्यूक्लियर समझौते का परिणाम है। इस प्रकार हमारी साम्राज्वाद विरोधी और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति कमजोर की जा रही है।फिर भी विकासमान देशों में भारत में अर्थतंत्र का स्थान दूसरा है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों में इसकी विशेष रणनीतिक जगह है। भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जन्मदाताओं में एक है। इन कारणों से भारत, ब्राजील, चीन, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के साथ मिलकर ‘बेसिक’ जैसे बना रहा है। मजदूर वर्ग समेत अन्य प्रगतिशील शक्तियों को अमरीकी परस्त नीतियों का विरोध करने के लिए इस रूझान को मजबूत करना पड़ेगा।बराक ओबामा का अमरीका का राष्ट्रपति बनना अवश्य ही एक महत्वपूर्ण घटना है। लेकिन इससे साम्राज्यवाद का चरित्र बदल नहीं जाता खासकर वैश्वीकरण की वर्तमान मंजिल में।साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष सभी प्रगतिशील शक्तियों की मूलभूत जिम्मेदारी है। 20वीं सदी में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के साथ जुड़ा हुआ था। 21वीं सदी में साम्राज्यवादी विरोधी संघर्ष संघर्ष समाजवाद के लिए संघर्ष के साथ अभिन्न रूप से जुड़़ा हुआ है।अति मुनाफे की लूट के चक्कर में पूंजीवाद इस धरती के सीमित स्रोतों का उत्पादन और उपभोग के रूप मेंअंधाधुंध इस्तेमाल कर रहा है। इसके फलस्वरूप सारी मानवता और धरती पर पर्यावरण, प्रदूषण और मौसम के परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन ने दर्शाया है कि अमरीका तथा अन्य विकसित पूंजीवादी देश मानवता को इस भयंकर खतरे से बचाने के लिए अपने उत्पादन और उपभोग के तौर-तरीके बदलना नहीं चाहते। वे ‘समान लेकिन विभेदीकृत जिम्मेदारीयों’ की बात कर रहे हैं।आने वाले समय में राजनैतिक या वैचारिक सम्बद्धता से परे होकर टेªड यूनियनों को व्यापक एकता कायम करनी होगी। इस दिशा में पहले कदम उठाये जा चुके हैं। अब जिम्मेदारी यह है कि इस काम को धैर्य, परस्पर सम्मान और सहमति के जरिये आगे बढ़ाया जाये।वामपंथी पार्टियों को आपस में बेहतर संयोजन करना पड़ेगा, वामपंथी एकता को मजबूत करना होगा ताकि मेहनतकशों के संघर्षों को सही दिशा प्रदान की जा सके।मई दिवस 2010 को जनता के सभी हिस्सों का क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए जोरदार आह्वान करना चाहिए।
- ए.बी. बर्धन
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