The arrested women are in Parliament Street Police Station Presently.
फ़ॉलोअर
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
at 6:58 pm | 0 comments |
Women activist storm into the parliament demanding 33% reservation organised by NFIW and ANHAD
The arrested women are in Parliament Street Police Station Presently.
सोमवार, 30 अगस्त 2010
at 8:40 pm | 0 comments |
किसानों की उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण के खिलाफ भाकपा द्वारा प्रदेशव्यापी आन्दोलन
गाजियाबाद, मेरठ एवं नोएडा में किसान मंच और महाराणा संग्राम सिंह किसान कल्याण समिति के कार्यकर्ताओं ने भी भाकपा कार्यकर्ताओं के साथ जुलूस और धरना में अपनी भारी सक्रिय भागीदारी दर्ज की।
प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को सम्बोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को दिये जिसमें उन्होंने तथाकथित विकास के नाम पर चल रही उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण की तमाम कार्यवाहियों को तत्काल निरस्त करने, विकास योजनाओं को गैर उपजाऊ जमीनों पर चलाने, भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में उचित बदलाव करने जिससे सरकार केवल अस्पताल, स्कूल जैसे जनोपयोगी उद्देश्य के लिए ही भूमि अधिग्रहण कर सके, दादरी आन्दोलन से लेकर आज तक भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चलाये गये आन्दोलनों में दर्ज मुकदमों को वापस लेने, गिरफ्तार किसानों को रिहा करने, आजादी के बाद से आज तक अधिगृहीत जिन जमीनों का मुआवजा आज तक नहीं दिया गया है, उसका मुआवजा वर्तमान बाजार-भाव पर करने तथा विवादों को निपटाने के लिए राज्य स्तरीय मुआवजा प्राधिकरण बनाने, बन्द हो चुके उद्योगों की जमीनों को किसानों को वापस करने की मांग की।
लखनऊ में भाकपा कार्यालय से जिला सचिव मो. खालिक के नेतृत्व में जुलूस निकाला जो शहीद स्मारक पहुंच कर धरने में परिवर्तित हो गया। प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने सरकार पर एक निजी व्यापारिक घराने को फायदा पहुंचाने के लिए औने-पौने दामों पर अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण का आरोप लगाया। वक्ताओं ने कहा कि कांग्रेस एवं भाजपा उन आर्थिक नीतियों के जनक और पालनहार हैं जिसके अंतर्गत सरमायेदारों के लिए भूमि अधिग्रहण का खेल चलना शुरू हुआ है तो सपा ने अपने शासनकाल में अंबानी जैसों को फायदा पहुंचाने के लिए दादरी से भूमि अधिग्रहण का खेल शुरू किया था। अब किसानों को भ्रमित करने तथा किसानों के चल रहे आन्दोलन को पटरी से उतारने के लिए यह राजनैतिक दल किसानों के हितैषी बनने का नाटक खेल रहे हैं। वक्ताओं ने कहा कि दादरी हो अथवा किसानों का कोई अन्य भूमि आन्दोलन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा किसानों के साथ रही है और हमेशा रहेगी। वक्ताओं ने कहा कि सरकारों को खाद्य सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा आदि को ध्यान में रखना चाहिए।
भाकपा राज्य कार्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में इस आन्दोलन को किसानों की विजय तक अनवरत पूरे प्रदेश में चलाने का संकल्प व्यक्त किया गया है।
रविवार, 22 अगस्त 2010
at 9:32 pm | 0 comments | के. मुरूगन
17वां विश्व युवा एवं छात्र उत्सव
आईपीएम में लंबी बहस के बाद सर्वसम्मति से यह फैसला किया गया कि अगले विश्व युवा एवं छात्र उत्सव का आयोजन दक्षिण अफ्रीका में 13 से 31 दिसंबर 2010 को किया जायेगा। उसका नारा होाग, “साम्राज्यवाद को परास्त करें, विश्व शांति, एकजुटता और सामाजिक बदलाव के लिए”। दक्षिण अफ्रीका मंे उत्सव का आयोजन करने के फैसले से उस देश के प्रगतिशील एवं साम्राज्यवाद-विरोधी युवाओं के प्रति अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की अभिव्यक्ति होती है जो अतीत में और आज भी विश्व को यह दिखा रहा है कि एक ऐसे देश का निर्माण हो रहा है जो न्याय, एकजुटता एवं मैत्री में विश्वास करता है तथा जिसकी अर्थव्यवस्था जनहित में है और बिना किसी रंग भेद, जातिभेद और धार्मिक भेदभाव के लोगों के बीच गहरा मैत्रीपूण
संबंध है।
पहली आईपीएम में विश्व के सभी युवाओं एवं सदस्य संगठनों को 17वें विश्व युवा एवं छात्र उत्सव के कार्यक्रम के मुख्य दिशानिर्देशों के बारे में एक अपील भेजी गयी जिस पर सभी स्तरों पर विचार किया जाना है। विश्व युवा एवं छात्र उत्सव की विरासत के अंग के रूप मंे यह फैसला स्पष्ट था कि वेनेजुएला उत्सव के अत्यंत सकारात्मक अनुभव को देखते हुए 17वें विश्व युवा एवं छात्र उत्सव के लिए साम्राज्यवाद-विरोधी कार्यक्रम तैयार करना है।
उत्सव के कार्यक्रम में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों जैसे सम्मेलन, सेमिनार, वर्कशाप, एकजुटता प्रदर्शन, विचारों के आपसी आदान-प्रदान की बैठकंे, मैत्री उत्सव, खेलकूद, सांस्कृतिक गतिविधियां तथा अन्य गतिविधियों को यथा, साम्राज्यवाद विरोधी अदालतें, विभिन्न मुद्दों पर मीटिंग, पश्चिमी सहारा की आजादी के लिए, लैटिन अमरीका के सैन्यीकरण के विरूद्ध, हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के 65 साल, फासिस्ट विरोधी विजय के 65 साल, फिलिस्तान की स्वतंत्रता तथा रंगभेद के खिलाफ लोगों एवं युवाओं के बीच एकजुटता आदि को शामिल किया जायेगा।
अफ्रीका, एशिया, अमरीका, मध्यपूर्व और यूरोप के प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक पूरे दिन का कार्यक्रम होगा। कार्यक्रम में मुख्य विषयों पर जैसे, शांति, एकजुटता एवं सार्वभौतिकता, रोजगार एवं शिक्षा के अधिकार, विज्ञान एवं संस्कृति, आर्थिक आतंकवाद, ब्लौकेड एवं प्रतिबंध, लोकतांत्रिक अधिकार, बेरोजगार एवं भूख, विसैन्यीकरण एवं शांति समझौते, जल एवं उसके स्रोत, एड्स के खिलाफ संघर्ष, आजादी एवं मानवीधिकार, वैश्वीकरण एवं निजीकरण, साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा मीडिया पर नियंत्रण, स्वास्थ्य का अधिकार, विभिन्न क्षेत्रों में गरीबी से जुड़ी समस्याएं एवं समाधान, भूमि एवं खाद्य सुरक्षा का अधिकार, स्कूल की किताबों में कम्युनिस्ट विरोधी, लोकतंत्र विरोधी एवं विज्ञान विरोधी बातें, भूमंडलीय तापमान वृद्धि और पूंजीवादी व्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीय संकट आदि मुद्दों पर फोकस किया जायेगा।
एआईवाईएफ की पहल पर भोपाल गैस त्रासदी पर विचार किया गया तथा उत्सव के कार्यक्रम में इसे शामिल किया गया और इस बारे में भोपाल में एक वर्कशाप का आयोजन किया जायेगा।
दूसरी आईपीएम प्योंगयांग, उत्तरी कोरिया में 24 जून से 1 जुलाई 2010 को हुई जिसमें कार्यक्रम के मुख्य दिशा निर्देशों तथा 17वें विश्व युवा एवं छात्र उत्सव के लिए अंतर्राष्ट्रीय आयोजन समिति के चुनाव के कार्यक्रम में मंजूरी दी गयी। इस बैठक में एआईएफवाई (भारत), एएनसीवाईएल (दक्षिण अफ्रीका), एएनएफएसएसयू (नेपाल), सीओएसएएस (दक्षिण अफ्रीका), डीवाईएफआई (भारत), ईडीओएन (साइप्रस), जीयूएएस (वियतनाम), जेसीपी (पुर्तगाल), जेडीवाईयू (जोर्डन), केआईएसएसवाईएल (डीपीआर कोरिया), केएनई (ग्रीस), केवाईएलजे (जापान), एनयूएसएस (सीरिया), एनवाईजी (दक्षिण अफ्रीका), एसडीएजे (जर्मनी), एसवाईयू (श्रीलंका), यूजेसी (क्यूबा), यूजेसीई (स्पेन), यूजेडीएएन (सेनेगल), उज्सारिओ (पश्चिमी सहारा), यूएलडीवाई (लेबनान) और वाईएफ (नेपाल) के 37 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। मेजबान संगठन किमइलसुंग सोशलिस्ट यूथ लीग ऑफ डीपीआर कोरिया ने हिस्सा लिया। विभिन्न देशों से आये प्रतिनिधिमंडलों का प्योंगयांग एयरपोर्ट पर गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया।
उत्तरी कोरिया में प्रवास के दौरान प्रतिनिधिमंडलों ने अनेक ऐतिहासिक महत्व की जगहों का दौरा किया। इनमें फारदलैंड लिब्रेशन वार म्युजियम, सिंचोन म्युजियम, कोरियाई क्रांतिकारी म्युजियम, राष्ट्रपति किमइलसुंग पैतृक घर, किमइलसुग यूनिवर्सिटी एंड एजुकेशन हाल, टावर ऑफ जुचे आईडिया, इंटरनेशल फ्रेंडशिप पैलेस फॉर स्कूल चिल्ड्रेन, कोरिया से संबंधित प्रदर्शनी शामिल है। अंत में प्रतिनिधिमंडल ने अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ कोरिया के युद्ध में मारे गये शहीदों को श्रद्धांजलि दी।
आईपीएम की ओर से कोरयिाई यूथ और कोरिया प्रायद्वीप के एकीकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता मार्च का आयोजन किया गया जिसमें हजारों युवाओं और छात्रों ने हिस्सा लिया तथा अमरीका साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाये। कोरिया जनता के समर्थन में पीपुल्स पैलेस ऑफ कल्चर में एक अंतर्राष्ट्रीय मीटिंग का आयोजन किया गया जिसमें करीब 3000 युवाओं और छात्रों ने हिस्सा लिया। कोरियाई युद्ध की 60वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक मार्च का आयोजन किया गया जिसमें लगभग दो लाख सैनिक एवं सरकारी अधिकारियों तथा युवाओं और छात्रों ने हिस्सा लिया। इस अवसर पर युवाओं और छात्रों, कोरियाई जनसेना के प्रतिनिधियों ने तथा मजदूर वर्ग एवं कृषि मजदूरों की ओर से कोरिया वर्कर्स पार्टी को केन्द्रीय समिति के सचिव ने भाषण दिया।
कोरिया की सुप्रीम असेम्बली के अध्यक्ष किमयो नॉक और किमइलसुंग सोशलिस्ट यूथ लीग के प्रथम सचिव लीयोंग चोल ने मीटिंग में भाग लेने वालों के सम्मान में एक स्वागत समारोह का आयोजन किया जिसमें उन्होंने घोषणा की कि युवाओं और छात्रों को वैचारिक एवं शारीरिक रूप से प्रशिक्षित किया जायेगा ताकि क्रांति का हिरावल दस्ता तैयार किया जा सके और साथ ही समाजवादी निर्माण का काम जारी रखा जा सके।
दक्षिण अफ्रीका की एनपीसी में शामिल विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों ने दक्षिण अफ्रीका में चल रही तैयारी के संबंध में एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा गया कि 17वें विश्व युवा एवं छात्र उत्सव की ज्यादातर गतिविधियों का आयोजन जोंहान्सबर्ग में किया जायेगा जब कि उद्घाटन एवं समापन समारोह का आयोजन ओर्लान्डो स्टेडियम में किया जायेगा। उत्सव के दौरान प्रतिनिधिगण छात्रों के घरों में ठहरेंगे तथा उनके ट्रांसपोर्ट का इंतजाम जोंहान्सबर्ग की नगर पालिका द्वारा किया जायेगा। प्रथम आईपीएम के फैसले के अनुसार वर्ल्ड फेडरेशन डेमोक्रेटिक यूथ (डब्लूएफडीवाई) के सहयोग से सांस्कृति एवं स्पोटर््स गतिविधियों का भी आयोजन किया जायेगा। अधिकांश संगठनों ने तैयारी की वर्तमान स्थिति पर रिपोर्ट पेश की। हरेक देश में विभिन्न तरह की गतिविधियों को विकसित किया जा रहा है। बैठक में इस बात का भी विश्लेषण किया गया कि विश्व युवा एवं छात्र उत्सव की तैयारी के लिए समय की कमी को देखते हुए मोबिलाइजेशन और प्रोमोशन के प्रयासों को तेज कैसे किया जाये। प्रत्येक संगठन को हरेक देश में प्रचार के लिए सामग्रियां एवं वेबसाइट्स का इंतजाम खुद करना है। डब्लूएफडीवाई एक कामन लाइन पर भी काम कर रहा है तथा इसका एक अंतर्राष्ट्रीय वेबसाइट शीघ्र शुरू किया जायेगा।
प्रथम आईपीएम में मंजूर की गयी गतिविधियों और मुख्य दिशा निर्देशों के कार्यान्वयन को स्वीकृति दी गयी। डब्लूएफडीआई और दक्षिण अफ्रीका की एनपीसी ने प्रत्येक गतिविधियों के लिए ठोस नारे तैयार करने की जिम्मेदारी ली जिसे तीसरी आईपीएम के ड्राफ्ट में शामिल किया जायेगा।
आईपीएम में उत्सव के हर दिन विभिन्न क्षेत्रों की विशेषताओं के अनुसार उनके योगदान पर भी विचार किया गया तथा प्रत्येक मुद्दे पर प्रतिनिधियों ने अपने विचार प्रकट किये। तीसरी आईपीएम में प्रत्येक क्षेत्र द्वारा इस बारे में अंतिम फैसला किया जायेगा।
17वें विश्व युवा एवं छात्र उत्सव के लिए अंतर्राष्ट्रीय आयोजन समिति के चुनाव के तरीके, लक्ष्य, कर्तव्य एवं नियमों को स्वीकार किया गया। अंतर्राष्ट्रीय आयोजन समिति (आईओसी) का चुनाव तीसरी आईपीएम में किया जायेगा जो उत्सव के दो महीने पहले से काम करना शुरू कर देगी। आईओसी उत्सव की सारी तैयारियां दक्षिण अफ्रीका में करेगी और आईपीएम के फैसलों को लागू करेगी। आईओसी में डब्लूएफडीवाई, दक्षिण अफ्रीका की एनपीसी, वेनेजुएला की एनपीसी, ओसीएलएई, जेयूएएस, एएसए और एएसयू के प्रतिनिधि होंगे (जो छात्र संगठनों का प्रतिनिधित्व करेंगे)। यह भी फैसला किया गया कि तीसरी आईपीएम का आयोजन साइप्रस में सितम्बर, 2010 में किया जायेगा।
- के. मुरूगन
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
at 8:05 pm | 0 comments |
एकतरफा तलाक और महिलाओं को घर से बेदखल किए जाने के खिलाफ महिला संगठनों की एकजुटता व प्रदर्शन
दिनांक 10.08.2010 को सुश्री हिना, सुश्री निशात व सुश्री अर्शी के समर्थन में भारतीय महिला फेडरेशन सहित तमाम महिला संगठनों ने पीड़ित महिलाओं को उनके ससुराली घर जहां से उन्हें बेदखल करने का प्रयास उनके पति व सुसर श्री आबदी ने मिल कर किया, के खिलाफ उनके घर के सामने प्रदर्शन किया और उन्हें घर में रहने के लिए दाखिल कराया।
इस मौके पर बड़ी संख्या में महिला संगठनों व जन संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे। रूपरेखा वर्मा, आशा मिश्रा, बबिता सिंह, नाइश हसन, नाज रजा, शहनाज खान, रहमतुन निसा, मुन्नी बेगम के नेत्रित्व में कार्यक्रम का आयोजन हुआ।
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
at 8:39 pm | 0 comments | राम कुमार झा
25 जून 2010 को दरभंगा जिले के तरौनी गांव में आयोजित - बिहार राज्य प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा ‘यात्री’ जनकवि बाबा नागार्जुन जन्मशताब्दी समारोह
मई महीने की तीखी चिलचिलाती धूप और गर्मी से तप्त वायुमंडल, प्रचंड पछवा हवा के झोंकों के बीच बिहार राज्य प्रगतिशील लेखक संध के महासचिव राजेन्द्र राजन पूर्व विधायक ने जनकवि ‘यात्री’ बाबा नागार्जुन के पैतृक गांव की यात्रा की अभिलाषा व्यक्त करते हुए संदेशा भेजा। बेगूसराय जिले की ‘लाल
धरती’ के गोदरगांवा का यह विप्लवी लाल तरौनी की यात्रा करेंगे- सोचकर मन प्रफुल्लित हो उठा। बात समझ में आ गई। 3 मई को हम सब मिथिलांचल के सकरी रेलवे जंक्शन से पांच किलोमीटर दक्षिण में अवस्थित ‘यात्री’ जनकवि बाबा नागार्जुन की जन्मस्थली तरौनी गांव पहुंचे। बाबा नागार्जुन पुस्तकालय में बैठक हुई, उनके घर आंगन को देखा।
बाबा की अन्येष्टि-क्रिया के समय डा. खगेन्द्र ठाकुर और विमल कान्त चौधरी के साथ शव यात्रा में लाल झंडा प्रदान करने गया था। हजारों लोगों की भीड़ जुटी थी। 5 नवंबर 1998 को राजकीय सम्मान के साथ बाबा की अन्त्येष्टि हुई थी। बड़े-बड़े आश्वासनों की होड़ लगी थी। मंत्रीगण आये थे। किन्तु आज भी वह तरौनी गांव उसी तरह उपेक्षित था।
श्री राजन जी ने सूचित किया कि प्रगतिशील लेखक संघ का निर्णय है ‘यात्री’ जनकवि बाबा नागार्जुन की जन्मशती का समारोह (जन्म 25 जून 1911) 25 जून 2010 को राष्ट्रीय समारोह के रूप में उनके पैतृक गांव तरौनी से ही शुभारम्भ किया जायेगा जो साल भर पूरे राष्ट्र में मनाया जायेगा। उन्होंने मुझे संयोजक बनाने का प्रस्ताव रखा; प्रगतिशील लेखक संध की यूनिट दरभंगा-मधुबनी में कार्यरत नहीं थी। मुझे पार्टी के जिला सचिव के रूप में कार्य व्यस्तता को देखते हुए थोड़ी हिचक हुई किन्तु मैंने देखा कि बाबा नागार्जुन की कविता का “गंवई पगडंडी की चन्दनवर्गी धूल”, “मौलसरी के ताजे टटके फूल”, ‘गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श’ को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाना चाहते हैं तो मैं तुरन्त तैयार हो गया।
15 मई को तरौनी गांव में ही दरभंगा-मधुबनी जिलों के प्रगतिशील साहित्यकारों-नागरिकों तथा प्रबुद्धजनों की बैठक हुई और एक स्वागत समिति का गठन हुआ। राजेन्द्र राजन ने स्वयं स्वागताध्यक्ष का पद संभाला और मुझे स्वागत महासचिव बनाकर डा. हेमचंद झा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया, मधुबनी के अरविंद प्रसाद कोषाध्यक्ष तथा बाबा के सबसे छोटे पुत्र श्यामाकांत मिश्रा तथा डा. महादेव झा सहित दर्जनों गणमान्य बुद्धिजीवियों को स्वागत समिति का पदाधिकारी एवं सदस्य निर्वाचित किया गया। यह निर्णय हुआ कि 25 जून 2010 को तरौनी में भव्य समारोह के पूर्व संध्या अर्थात् 24 जून को दरभंगा में प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना सम्मेलन किया जाये। यह भी निर्णय लिया गया कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय ख्याति के साहित्यकारों को आमंत्रित किया जाये तथा उनसे आलेख प्राप्त कर एक स्मारिका का लोकार्पण इस समारोह के अवसर पर किया जाये।
आयोजन की तैयारी के क्रम में दरभंगा, मधुबनी तथा तरौनी में स्वागत समिति की कई बैठकें हुई। मिथिलांचल में शादी, विवाह उपनयन, मुण्डन आदि संस्कारों की धूम मची थी। किन्तु इसी बीच ‘यात्री’ जय कवि बाबा नागार्जुन जन्म शताब्दी समारोह, 25 जून 2010, तरौनी की भी धूम मची रही। लोगों में अजीब उत्साह था। वर्षा की संभावना थी। मानसून की चेतावनी थी। सभी बाधाओं के बावजूद 24 जून को ही प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डा. कमला प्रसाद भोपाल से, प्रसिद्ध आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी दिल्ली से, डा. खगेन्द्र ठाकुर रांची से, डा. चौथी राम यादव वाराणसी से, प्रो. अरूण कमल पटना से, प्रो. वेद प्रकाश अलीगढ़ से, गीतेश शर्मा कलकत्ता से, दरभंगा पहुंच गये। प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. नामवर सिंह अस्वस्थ हो गये और अंतिम समय में उनकी यात्रा रद्द की गयी। उपरोक्त सभी साहित्यकारों, विद्धानों ने 24 जून को ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम सम्मेलन में भाग लिया तथा प्रगतिशील लेखक संघ की दरभंगा जिला इकाई का गठन किया गया। उसके लिए अध्यक्ष डा. कृष्ण कुमार झा, सचिव डा. धर्मेन्द्र कुमार तथा सहायक सचिव मंजर सुलेमान को निर्वाचित कर एक 15 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति बनायी गयी।
25 जून 2010 की सुबह मिथिलांचल की हृदयस्थली दरभंगा जिले का एक सुदूर देहात का प्रसिद्ध गांव तरौनी साहित्यिक तीर्थ स्थल के रूप में तीन दिन पहले से सज- धन कर तैयार था। स्वागत समिति द्वारा निर्मित तोरणद्वारों की जगमगाहट, बीच-बीच में आषाढ़ मास की बूंदों की झड़ियां, बाबा नागार्जुन की कविता- “बहुत दिनों के बाद, अबकी मैंने जी भर भोगे, गंध-रूप-रस- ’शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भूपर” को यादकर इलाके के लोग झूम रहे थे। सुबह से ही समारोह के आयोजन स्थल पर लोगों का आना शुरू हो गया था। बेगूसराय, मुंगेर, गया, समस्तीपुर, दरभंगा, मधुबनी के साहित्यकारों का आना रात से ही शुरू था।
करीब 3 बजे मंच सज-धजकर तैयार होते ही बिहार राज्य प्रगतिशील लेख संघ के अध्यक्ष डा. ब्रज कुमार पाण्डेय जी की अध्यक्षता में ‘यात्री’ जनकवि बाबा नागार्जुन जन्म शताब्दी समारोह का शुभारंभ हुआ। सर्व प्रथम मिथिला की परम्परा के मुताबिक मैथिली साहित्य परिषद और यात्री विचार मंच तरौनी की ओर से स्वागत समिति के श्यामाकान्त मिश्र, डा. महादेव, लेखनाथ मिश्र, शैलेन्द्र मोहन ठाकुर, कोशलेन्द्र झा ने बारी-बारी से आगत अतिथियों को फूल माला, पाग तथा चादर से सम्मानित किया। स्वागताध्यक्ष राजेन्द्र राजन तथा स्वागत महासचिव रामकुमार झा ने क्रमशः हिन्दी तथा मैथिली भाषाओं में स्वागत भाषण करते हुए आयोजन के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।
समारोह का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने मैथिली हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल में प्रगतिवादी धारा के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में बाबा नागार्जुन की रचनाओं की चर्चा की तथा उद्घोषित किया कि निकट भविष्य में तरौनी गांव विश्व का सारस्वत तीर्थस्थल बनेगा। उन्होंने महाकवि विद्यापति, संत तुलसी दास तथा बाबा नागार्जुन को अपने-अपने कालखण्ड का सर्वश्रेष्ठ विद्वान साहित्यकार बताया तथा उनकी ‘प्रतिबद्धता’ की चर्चा की। समारोह को प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डा. कमला प्रसाद, डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. चौथीराम यादव, प्रो. अरुण कमल, प्रो. वेदप्रकाश, गीतेश शर्मा सहित कई विद्वानों ने संबोधित किया। इस अवसर पर एक भव्य कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया गया जिसके संचालक डा. फूलचंद्र झा ‘प्रवीण’ थे। मैथिली हिन्दी के दर्जनों कवियों ने अपने-अपने काव्य पाठ से उपस्थित जन समुदाय की जनचेतना को जागृत किया। मधुबनी इप्टा की ओर से इन्द्रभूषण ‘रमण’ के संयोजकत्व में भव्य सांस्कृतिक आयोजन ने देर रात तक के लोगों को भाव-विभोर कर रखा। परिवर्तन कामी प्रगतिशील काव्य संगीत, अभिनय की धारा प्रवाहित होती रही और हजारों श्रोता दर्शक देर रात तक उसमें मग्न होते रहे।
समारोह में दरभंगा-मधुबनी जिलों के कई गणमान्य जनप्रतिनिधियों, साहित्यकारों, स्वतंत्रता सेनानियों को भी सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वालों में प्रमुख रूप से मैथिली फिल्मी निर्माता एवं निदेशक बालकृष्ण झा, स्वतंत्रता सेनानी कमलनाथ झा, स्वतंत्रता सेनानी पूर्व राज्यमंत्री तेजनारायण झा (अनुपस्थित), पूर्व विधायक महेन्द्रनारायण झा आजाद, विद्यापति सेवा संस्थान के महासचिव डा. विद्यानाथ चौधरी, प्रो. शोभाकान्त मिश्र, विमलकान्त चौधरी, डा. हेमचन्द्र झा, राजेन्द्र राजन, अरविन्द प्रसाद, डा. महादेव झा, योगेन्द्र यादव एवं रामकुमार झा शामिल थे। उपरोक्त सभी लोगों को मंचाशीन कर पाग, चादर तथा फूल माला से सम्मानित किया गया।
समारोह के आरम्भ में ही सभी आगत अतिथियों द्वारा नागार्जुन पुस्तकालय परिसर में स्वर्गीय भोगेन्द्र झा द्वारा स्थापित बाबा नागार्जुन की प्रतिमा पर माल्यार्पण तथा पुष्पांजलि अर्पित किया गया। समारोह में एक प्रस्ताव पारित कर तरौनी गांव में प्रस्तावित प्रखंड मुख्यालय बनवाने, सड़कों का निर्माण, नागार्जुन शोध संस्थान तथा राष्ट्रीय धरोहर स्थापित करने की मांग की गई। इस अवसर पर एक भव्य स्मारिका ‘चरैवेति का लोकार्पण डा. विश्वनाथ त्रिपाठी के द्वारा किया गया जिसमें नागार्जुन से संबंधित मैथिली-हिन्दी के आलेखों के साथ-साथ कविताओं तथा अनुपलब्ध चित्रों का भी समावेश किया गया है।
- राम कुमार झा
बुधवार, 18 अगस्त 2010
at 8:30 pm | 0 comments | आर.एस. यादव
हादसा मंत्री
ममता बनर्जी रेल मंत्रालय में कम ही आती हैं और वे गैरहाजिर रेलमंत्री के रूप में जानी जाने लगी हैं। जब वे रेल मंत्रालय में कभी हाजिर ही नहीं रहती तो जाहिर है अपने मंत्रालय पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दे पाती। उसी का नतीजा हैं ये हादसे। अंग्रेजी की कहावत है - व्हैन कैट इज अवे, दि माईस विल प्ले (जब बिल्ली नहीं पास, चूहे तो मस्ती करेंगे ही)। कहीं रेलवे में यही तो नहीं हो रहा?
- आर.एस. यादव
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
at 8:03 pm | 2 comments |
का. लुई कोरवालान को श्रद्धांजलि
राष्ट्रीय परिषद ने कहा कि का. कोरवालान ने पिनोशेट की तानाशाही का दृढ़तापूर्वक विरोध किया और इसके लिए उन्हें राजनीतिक उत्पीड़न और निर्वासन का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने कभी भी फासिस्ट शासन के आगे घुटने नहीं टेके।
यूनाइटेड पोपुलर फ्रंट के निर्माण में उनके योगदान को चिली की जनता हमेशा याद करेगी। इसी फ्रंट के नेतृत्व में पहली सोशलिस्ट सरकार बनी जिसके प्रधान राष्ट्रपति सल्वाडोर अलैंडे थे।
का. कोरवालान चिली की कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में जो साम्राज्यवाद के खिलाफ, शांति, लोकतंत्र और समाजवाद के लिए संघर्ष में सबसे आगे हैं, संघर्ष एवं बलिदान की एक विरासत छोड़ कर गये हैं।
का. लुई कोरवालान एक अनुकरणीय कम्युनिस्ट थे जो हमेशा हम लोगों के बीच रहेंगे।भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद चिली की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति एवं का. कोरवालान के शोक संतप्त परिवार को अपनी गहरी संवेदना भेजती है।
सोमवार, 16 अगस्त 2010
at 8:29 pm | 1 comments | सत्य नारायण ठाकुर
निर्माण: संगठित उद्योग, किंतु असंगठित मजदूर?
भारत के तेज आर्थिक विकास ने अधिसंरचना की जरूरतों, जैसे सड़क, रेल, बंदरगाह, हवाईअड्डा, बांध, नहर, बिजली, सिंचाई, आवास, शहरीकरण, भवन, कल-कारखाने, विशेष आर्थिक क्षेत्र आदि को बढ़ावा दिया है। इन सब जरूरतों को पूरा करने के लिये निर्माण उद्योग का विस्तार अनिवार्य हो गया है। निर्माण उद्योग के विस्तार के साथ अन्य धंधों का विस्तार भी जुड़ा है, जैसे सीमेंट, अलकतरा, लोहा इस्पात, ईंटभट्टा, पत्थरतोड़ आदि। इसके साथ ही इनमें सुरक्षा, कृषि, यातायात, ट्रांसपोर्ट सहित अनेक औद्योगिक गतिविधियां शामिल हैं। इसीलिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में निर्माण उद्योग में निवेश का आबंटन 20,00,000 करोड़ रुपये किया गया है।
योजना आयोग के आकलन के मुताबिक निर्माण उद्योग में 36,000 करोड़ रुपये का वार्षिक खर्च होगा। योजना आयोग ने यह भी बताया है कि निवेश की तुलना में इंजीनियरों, तकनीशियनों एवं कुशल श्रमिकों की संख्या में गिरावट हो रही है। मतलब जिस रफ्तार से निर्माण उद्योग में पूंजीनिवेश बढ़ रहा है, उस रफ्तार में कुशल श्रमिकों की संख्या बढ़ने के बजाय घट रही है। इसका मतलब यह निकलता है कि भारतीय निर्माण उद्योग में अकुशल मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। योजना आयोग को अंदेशा है कि यह रूझान चिंताजनक है और इसकी परिणति घटिया निर्माण कार्यों में होगी, जिससे भारत की औद्योगिक अधिसंरचना कमजोर पड़ेगी, जो स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि निर्माण उद्योग की घटिया गुणवत्ता से देश को उच्च पथ, बांध, पुल, मेट्रो, रेलमार्गों, बंदरगाह, हवाईअड्डा, विद्युत गृह, सामान्य आवास आदि कमजोर होंेगे।
क्या हम कमजोर और घटिया संरचना स्वीकार करेंगे? इस प्रश्न का उत्तर एक अन्य प्रश्न से किया जाना उचित है। क्या यह कहना सही है कि हमारे पास पर्याप्त कुशल मजदूर नहीं हैं?
नहीं, यह कथन सही नहीं है। हमारे देश में पर्याप्त कुशल श्रमिक मौजूद हैं। रिकार्ड पर कुशल श्रमिकों की बड़ी तादाद को अकुशल की श्रेणी में डाला जाता है, यह बताकर कि उन्हें औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं है। उन्हें अनौपचारिक कहा जाता है। दरअसल रोजगार नियोजन का अनौपचारिक नियोजकों के हाथों में क्रूर शोषण का वह गंदा हथियार है, जिसकी तरकीब से मजदूरों से कुशल श्रम लिया जाता है, किंतु उन्हें अकुशल श्रम का पारिश्रमिक भुगतान किया जाता है। शोषण का यह गंदा तरीका तुरंत खत्म किया जाना चाहिये।
यह सर्वविदित है कि भारत में कुशल श्रमिकों के भारी तादाद को औपचारिक शिक्षा नहीं है। उन्हें औपचारिक डिप्लोमा/डिग्री प्राप्त नहीं है। इसके बावजूद वे कुशल मजदूर हैं और कुशल कोटि के कामों को सफलतापूर्वक अंजाम देने में सक्षम हैं। वे कार्यस्थल पर वर्षों व्यावहारिक काम करते रहने के दौरान अनुभवी प्रशिक्षित मजदूर हैं। वे लंबे समय तक कार्यस्थल पर काम करते हुए प्रशिक्षित हुए हैं। इनके द्वारा संपन्न किया गया काम की गुणवत्त को किसी प्रकार भी डिग्रीधारी लोगों के कामों को गुणवत्ता से कम नहीं आंकी जाती है। वे घटिया काम नहीं करते, प्रत्युत्त वे अच्छे कामों को अंजाम देते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम इस हकीकत को मंजूर करें और ऐसे कुशल एवं सक्षम मजदूरों के कौशल को कौशल का प्रमाणपत्र जारी करके मान्यता प्रदान करें।
आईएलओ की गणना के मुताबिक भारत में युवा कर्मियों की विशाल संख्या है, लेकिन उनमें (20 से 24 वर्ष के आयु समूह) सिर्फ पांच प्रतिशत मजदूरों ने औपचारिक तरीके से प्रशिक्षण प्राप्त किया है, जबकि औद्योगिक विकसित देशाों में यह संख्या 60 से 96 प्रतिशत तक है। भारत में कुल श्रमशक्ति का महज 2.3 प्रतिश्ता ने औपचारिक शिक्षा ग्रहण की है। ऊपर के आंकड़े यह साबित करने के लिये दर्शाये गये हैं कि किस प्रकार भारतीय निर्माण उद्योग में बढ़ते पूंजीनिवेश के मुकाबले औपचारिक रूप से प्रशिक्षित कुशल मजदूरों की संख्या में गिरावट हो रही है।
आईएलओ द्वारा प्रदर्शित इस चिंता की हम सराहना करते हैं, जिसमें अनौपचारिक श्रमिकों की बदतर कार्यदशा का वर्णन किया गया है, किंतु उनका यह निष्कर्ष सही नहीं है कि भारतीय निर्माण मजदूर प्रशिक्षित नहीं हैं और वे गुणवत्तापूर्ण कार्य को अंजाम देने में सक्षम नहीं हैं। आईएलओ के ऐसे निष्कर्ष का कोई औचित्य नहीं है। भारतीय निमाण मजदूरों की स्थिति का यह सही मूल्यांकन नहीं है। भारत के निर्माण मजदूर व्यावहारिक तौर पर प्रशिक्षित है। उन्हें भारतीय परिस्थिति में पारंपरिक तरीके से प्रशिक्षित किया गया है। अब यह सरकार का काम है कि श्रमिकों में विद्यमान कौशल की पहचान कर उनका समुचित प्रमाणीकरण किया जाय। इस सम्बंध में हमारा निम्नांकित सुझाव है:
क) अधिकार प्राप्त प्राधिकरण द्वारा उन सभी मजदूरों को समुचित श्रेणियों में योग्यता और कौशल का प्रमाण पत्र जारी करना, जिन्होंने पारंपरिक तरीके से व्यावहारिक कार्य करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त किया है।
ख) मजदूरों के कौशल समृद्धि के लिये कार्यस्थल पर काम करते समय प्रशिक्षण के स्थायी विशेष उपाय करना।
ग) श्रम समूह में निरंतर प्रशिक्षित श्रमिकों के आगमन सुनिश्चित करने को निमित्त प्रत्येक हाई स्कूल परिसर में नियोजकों के खर्चें से विभिन्न उद्योगों/धंधों का प्रशिक्षण सत्र चलाना। ऐसे प्रशिक्षण सत्र का खर्च नियोजकों द्वारा उठाना जाना उचित है, क्योंकि श्रमिकों का अंततः एकमात्र लाभार्थी नियोजक ही होता है।
निर्विवाद रूप से भारतीय निर्माण उद्योग में प्रशिक्षित श्रमिकों की भारी संख्या हैं, जिनका प्रशिक्षण व्यावहारिक काम करने की प्रक्रिया में हुआ है। जरूरत है उनकों मान्यता प्रदान करने की, जिसके वे पूर्ण हकदार है।
कुशल मजदूरों की निरंतर प्राप्ति के लिये हाई स्कूलों में निरंतर प्रशिक्षित सत्र आयोजित किया जाना उपयोगी होगा। बहुत से छात्र अनेक कारणों से कालेज में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला नहीं करा पाते हैं। उनको उचित प्रशिक्षित देकर काम का अवसर प्रदान किया जा सकता है। इस प्रकार का प्रशिक्षण शिक्षा की उपयोगिता बढ़ाने में योगदान करेगा और शिक्षा को रोजगारमुखी बनायेगा।
निर्माण उद्योग विभिन्न श्रेणियों के श्रमिकों की संख्या
1995 2005 10 वर्षों में वृद्धि का:
संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत
इंजीनियर्स 687,000 4.70 822,000 2.65 19.66
टैक्नीशियन और फोरमेन 359,000 2.46 573,000 1.85 59.61
सेक्रेटारियल 646,000 4.42 738,000 2.38 14.24
स्किल्ड वर्कर्स 2,241,000 15.34 3,267,000 10.54 45.78
अनस्किल्ड वर्कर्स 10,670,000 73.08 25,600,000 82.58 139.92
कुल 14,603,000100 31,000,000 100 112.28
- सत्य नारायण ठाकुर
रविवार, 15 अगस्त 2010
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यक्रम संबंधी दस्तावेज
1947 में राष्ट्रीय आजादी की प्राप्ति ने भारत और विश्व के लिए एक नये युग, एक ऐतिहासिक घटना का सूत्रपात किया। यह भारत में एक अभूतपूर्व जन-उभार तथा विश्व में शक्तियों के नये सह-संबंधों का परिणाम था।
क्रांति का नया चरण
यह राष्ट्रीय क्रांति की विजय का सूचक था, हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने जैसा सोचा था या अनुमान लगाया था उससे भिन्न घटनाक्रम विकसित हुआ। देश का विभाजन हुआ जिसके गंभीर परिणाम सामने आये। फिर भी उसने भारतीय जनता के सामने राजनीतिक आजादी एवं राष्ट्रीय संप्रभुता को मजबूत करने और आर्थिक आजादी के लिए काम करने के वास्ते व्यापक अवसरों का मार्ग प्रशस्त कर दिया। हमारी जनता से क्रांति को एक नये चरण, एक आत्म-निर्भर, लोकतांत्रिक एवं गतिशील अर्थव्यवस्था का निर्माण करने तथा उसका नवीकरण करने, हमारी जनता के बेहतर जीवनस्तर को सुनिश्चित करने और लोकतंत्र के क्षेत्र का विस्तार करने एवं उसे समृद्ध करने, लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण करने तथा व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं एवं तेजी से सांस्कृतिक प्रगति को सुनिश्चित करने के साम्राज्यवाद-विरोधी और सामंत-विरोधी कर्तव्यों को पूरा करने के चरण तक ले जाने की अपील की गयी।
प्रगति और नया चरण
इस अवधि में महान उपलब्धियां हासिल की गयीं; एक सार्वभौम राष्ट्रीय राज्य की प्राप्ति, बालिग मताधिकार एवं बहुदलीय प्रणाली के आधार पर चुनावों के साथ सरकार के संसदीय रूप तथा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर आधारित एक संविधान का अपनाया जाना, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का अलगाव, एक संघीय किस्म की सरकार जिसमें केन्द्र तथा राज्यों को अधिकार आवंटित किये जायेंगे। सभी वर्गीय सीमाओं के साथ ये बड़े कदम हैं। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के दौरान अनेक बुनियादी पहलुओं पर एक आम सहमति कायम हुई।
एक ऐतिहासिक उपलब्धि रही है सामंती रजवाड़े राज्यों की समाप्ति, उनके भूतपूर्व प्रदेशों का पड़ोसी क्षेत्रों में विलय और भाषाई आधार पर और इस बहु-भाषी, बहु-राष्ट्रीय देश में जनता की आकांक्षाओं एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप भारत का पुनर्गठन। यह वास्तव में नीचे से और ऊपर से क्रांति थी जिसमें टालमटोल एवं जनता को खुलेआम तथा बार-बार दिये गये वचनों से शासक हलकों के हटने के प्रयासों पर काबू पाया गया। शक्तिशाली तथा संयुक्त शासक जनांदोलनों ने जिसमें कम्युनिस्टों ने अन्य ठोस सामंत-विरोधी ताकतों के साथ प्रमुख भूमिका अदा की, इस ऐतिहासिक उपलब्धि को संभव बनाया, और भारत के राष्ट्रीय एकीकरण को आगे बढ़ाया गया और भाषाई और जातीय इकाइयों को राजनीतिक रूप से सुदृढ़ किया गया जिनसे उनकी पहचान को स्वीकार किया गया और इस तरह उनके लिए आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विकास की व्यापक संभावनाएं उन्मुक्त की गयीं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय पूंजीवादी नेतृत्व ने जिन्हें 1947 में विभाजित भारत में सत्ता हस्तांतरित की गयी, संविधान तैयार करने और स्वतंत्र भारत के नये राज्य का निर्माण करने की पहल की।
अंतर्विरोधों के जरिये राज्य मशीन एवं तंत्र का निर्माण किया गया और साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद के साथ समझौता किया गया। एक विशाल अति-केन्द्रीकृत तथा भारी-भरकम राज्य मशीन निर्मित की गयी है। एक विशाल देश का प्रशासन चलाने की प्रक्रिया में जिसका समाज अत्यंत जटिल है, नौकरशाही अति-केन्द्रीकरण, व्यापक भ्रष्टाचार, राजनीतिज्ञ, पुलिस-अपराधी गिरोह पर आधारित माफिया के बढ़ते ताने-बाने जो दोनों आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में काम करते हैं, के नकारात्मक पहलू भी विकसित हुए हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था और अंतर्विरोध
आर्थिक क्षेत्र में आर्थिक आजादी की दिशा में काफी प्रगति हुई है। दोनों उद्योग तथा कृषि क्षेत्र में उत्पादक शक्तियों का विकास हुआ है।
उपनिवेशी अवधि के अनेक विदेशी प्रतिष्ठानों के राष्ट्रीयकरण, अत्यंत आवश्यक आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण और अनेक भारी एवं बुनियादी औद्योगिक परियोजनाओं के निर्माण में सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों से बड़ी सहायता मिली, जिससे इस प्रगति में काफी मदद मिली। मजबूत एवं विविधीकृत सार्वजनिक क्षेत्र ने जिसका बुनियादी उद्योग आधार रहा है, एक आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखी।
लेकिन विकास के पूंजीवादी पथ ने जिसका अनुसरण किया गया है, सामाजिक धु्रवीकरण में योगदान दिया है और असमानता बढ़ायी है। इजारेदार घरानों की परिसंपत्ति कई गुना बढ़ गयी है। उसके साथ ही, छोटे एवं मध्यम उद्योग, खासकर लघु क्षेत्र काफी बढ़े हैं। अन्य दस या बारह प्रतिशत ने काफी समृद्धि हासिल की है जबकि 30 से 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। एकदम अपर्याप्त रोजगार के अवसरों, स्वरोजगार की सीमित संभावना, मूलगामी भूमि सुधार की तोड़फोड़ तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों की बंदी एवं छंटनी की वजह से बेरोजगारी में भारी वृद्धि होती रही है।
औद्योगिक विकास की दर धीमी हो रही है। योजना उलट-पुलट हो गयी है। देश का आंतरिक तथा विदेशी कर्ज काफी अधिक बढ़ा गया है और हम कर्ज जाल के निकट पहुंच गये हैं। हाल का वित्तीय-राजकोषीय संकट जो एकदम प्रतिकूल भुगतान संतुलन की स्थिति में अभिव्यक्त हुआ, रोगसूचक था। बढ़ते बजटीय घाटे तथा आसमान कर ढांचे ने अधिकाधिक विकास के बोझ को आम लोगों पर डाल दिया है। वृद्धि तथा विकास में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ गया है। राज्य के संसाधनों तथा सार्वजिनक क्षेत्र की लूट, विशाल कालाधन एवं विदेशी डिपाजिट, मुनाफाखोरी और तस्करी व्यापक हो गयी है।
नयी आर्थिक नीतियां
1974 के दशक के अन्त एवं 1980 के दशक से आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है जिसने अब नयी आर्थिक नीति का रूप ले लिया है जिसे “आर्थिक सुधार” के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इसे उद्योगपतियों, बड़े भूस्वामियों एवं अभिजन वर्ग तथा दक्षिणपंथ और दक्षिण-केन्द्र की राजनीतिक ताकतों का समर्थन प्राप्त है। उसने निजी क्षेत्र तथा ‘मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था’ के दर्शन और ‘समाजवाद विफल हो गया है’ ऐसा दावा करते हुए सशक्त प्रचार के साथ विचारधात्मक स्तर ग्रहण कर लिया है।
“नयी आर्थिक नीति” की ये निम्नलिखित न्यूनतम विशेषताएं हैं:
- सार्वजनिक क्षेत्र को दरकिनार करना और बदनाम करना तथा निजी क्षेत्र पर अधिकाधिक भरोसा करते हुए निजीकरण की ओर बढ़ना;
- इजारेदारों को पूरी तरह छूट देना और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए द्वार खोल देना, आधुनिकीकरण, टेक्नालॉजी एवं पूंजी हासिल करने तथा निर्यात क्षमता बढ़ाने के नाम पर सहयोग को प्रोत्साहित करना;
- आयात को उदार बनाना और निर्यात की दिशा पर जोर डालना;
- एक ऐसी वित्तीय नीति अपनाना जो बड़े औद्योगिक घरानों एवं इजारेदारों का पक्ष पोषण करती हो जिसमें अनिवासी भारतीय एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां शामिल हैं (अवमूल्यन, स्वर्णनीति आदि);
- एकीकृत विश्व अर्थव्यवस्था के नाम पर विकसित पश्चिम के साथ अर्थव्यवस्था का एकीकरण करने का प्रयास करना।
विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा खासकर भारत एवं सामान्य रूप से विकासशील देशों के लिए अपने अनेक नुस्खों के रूप में इन सभी कदमों की वकालत की जा रही है। हाल के नीतिगत कदम जो केन्द्रीय बजट तथा उसके पहले निरूपित किये गये हैं जिनमें दो बार रुपये का अवमूूल्यन भी शामिल है, विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों को स्वीकार करने की विनाशकारी प्रवृत्ति को ही रेखांकित करता है। यदि इसे सुधारा नहीं गया तो यह निश्चित रूप से आर्थिक संकट को और अधिक गहरा करेगा एवं हमारी आत्म-निर्भरता तथा आर्थिक संप्रभुता पर ही खतरा उत्पन्न करेगा।
वैकल्पिक आर्थिक मार्ग
अर्थव्यवस्था संकट का सामना कर रही है, लेकिन विश्व स्तर पर तथा भारत में एक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद के पास विभिन्न तरीकों से संचित आर्थिक कठिनाइयों का समाधान ढूंढ़ने तथा जोड़-तोड़ करने की जो क्षमता है, लचीलापन है, उसे नजरअंदाज करना गलत होगा।
अर्थव्यस्था के सामने विद्यमान बुनियादी समस्याओं का समाधान केवल समाजवादी रास्ते से ही संभव हो सकता है। लेकिन तात्कालिक संदर्भ में हमें एक वैकल्पिक आर्थिक मार्ग के लिए संघर्ष करना होगा जो वर्तमान आर्थिक कठिनाइयों को दूर करने में सहायता दे सकता है, सर्वतोमुखी विकास एवं वृद्धि को प्रोत्साहन दे सकता है और एक आत्मनिर्भर लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकता है। एक ऐसे वैकल्पिक मार्ग का तकाजा है:
- भूमि सुधारों, रोजगारोन्मुख योजनाओं के जरिये आंतरिक बाजार का विस्तार करना और कर्ज तथा विपणन सुविधाओं के जरिये स्वरोजगार को बढ़ाना;
- अधिक तेजी से उत्पादक ताकतों को विकसित करना और उन बेड़ियों को खत्म करना जो उनके विकास को रोकती हैं;
- आयात में कमी करना, खासकर अभिजन वर्ग के उपभोग की वस्तुओं के आयात में कमी करना और विदेशी मुद्रा बचाना;
- सार्वजनिक क्षेत्र का पुनर्गठन करना और उसका लोकतंत्रीकरण करना, उसे लागत के रूप में कारगर बनाना, प्रतियोगितात्मक एवं जवाबदेह बनाना जो सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध हो;
- विदेशी कर्ज के बोझ को कम करना और देश के कर्ज को पुनर्व्यवस्थित करना, विदेशी कर्ज को एक विवेकपूर्ण स्तर पर विदेशी निवेश में बदला जा सकता है;
- कर ढांचे का पुनर्गठन ताकि इसका अधिक बोझ बड़े भूस्वामी समेत समृद्ध तबकों पर पड़े, विकास के लिए आंतरिक संसाधनों को लामबंद करना;
- अर्थव्यवस्था का गैर- नौकरशाहीकरण करना, लालफीताशाही तथा केन्द्र में लाइसेंसिंग नियमनों के अभेद्य परतों को खत्म करना;
- औद्योगिक लागत मूल्य ब्यूरो को सक्रिय करना, आवश्यक औद्यागिक वस्तुओं के उत्पादन की लागत की जांच करना तथा लागत आडिट रिपोर्ट को प्रकाशित करना ताकि एकाधिकार कीमत एवं दर-मुनाफे पर अंकुश लगाया जा सके;
- उन्हीं उद्योगों में विदेशी निवेश को इजाजत देना एवं आमंत्रित करना जहां उच्च टेक्नालॉजी आवश्यक है या जो सर्वतोमुखी आर्थिक विकास के हित में विकास के लिए आवश्यक है;
- राज्य का हस्तक्षेप जहां कमजोर तबकों तथा पिछड़े क्षेत्रों के लिए आवश्यक हो; लोकतंत्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण के जरिये नियोजन प्रक्रिया का पुनर्गठन करना;
- कानाधन को निकालना, उन सभी खामियों को दूर करना तथा स्रोतों का उन्मूलन करना जो कालाधन पैदा करते हैं;
- छोटे, लघु एवं कुटीर उद्योगों तथा सही कोआपरेटिवों को आसान कर्ज एवं बाजार की सुविधाएं प्रदान करना तथा भारतीय एवं विदेशी इजारेदारियों के खतरे के खिलाफ गैर-एकाधिकार क्षेत्र के हितों की रक्षा करना।
इन कदमों के साथ ही हमारे देश के बेहतर पड़ोसीपन एवं घनिष्ट राजनीतिक संबंधों के सोपान के रूप में हमारे क्षेत्र के देशों और खासकर सार्क के देशों के साथ घनिष्ट आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संबंध विकसित करना है। इसका लाभकारी प्रभाव पड़ेगा। इससे भारत को रक्षा-खर्च घटाने में भी मदद मिलेगी। इन देशों की अर्थव्यवस्था पूरक रही है और सदियों से घनिष्ट रूप से जुड़ी रही है। साम्राज्यवाद ने इन देशों के बीच अनबन को बनाये रखा है और इनमें प्रत्येक देश से अपनी शर्तों पर सौदा करने का प्रयास करता रहा है तथा इन देशों की अर्थ व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाता रहा है। क्षेत्रीय सहयोग विकसित करके तथा एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था और व्यापार एवं निवेश की समान शर्तों के लिए संघर्ष में तेजी लाकर इन नीतियों का प्रतिकार किया जाना है।
परिवर्तित कृषि परिदृश्य
इस अवधि में उपनिवेशी सामंती कृषि ढांचे में काफी परिवर्तन हुआ है। देश के बड़े हिस्से में उत्पादन संबंध बदल गये हैं। इस तरह कृषि तरीके एवं फसल तथा फसल के ढ़ांचे भी। निवेश तथा उत्पादन बाजार, भूमि एवं श्रम बाजार में एक एकल राष्ट्रीय बाजार तेजी से उभर रहा है।
बिचौलिया काश्तकारी का उन्मूलन एक महत्वपूर्ण कदम रहा है। पर काश्तकारी तथा हदबंदी कानून जैसे अन्य भूमि सुधारों की काफी हद तक तोड़फोड़ की गयी है, इसका अपवाद केरल, पश्चिम बंगाल तथा जम्मू कश्मीर जैसे कुछ राज्य हैं जहां मूलगामी भूमि सुधार लागू किये गये हैं और कुछ अन्य क्षेत्र जहां शक्तिशाली जन-संघर्षों के फलस्वरूप भूमि सुधार कानूनों को आंशिक रूप से लागू किया जा सका। कृषि योग्य केवल एक प्रतिशत जमीन हदबंदी कानून के अंतर्गत वितरित की गयी। इसके फलस्वरूप भूमि का संकेन्द्रण अभी भी कायम है, हालांकि उसमें अनेक कारकों से काफी कमी आयी है। मध्य तथा पूर्वी भारत में उत्पादन का अर्ध-सामंती संबंध काफी मजबूत है।
पूंजीवादी सरकार ने अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा कृषि में उत्पादन ताकतों को बढ़ाने के लिए ऋण एवं अन्य कोआपरेटिव ढांचे को मजबूत करने के साथ ही सिंचाई, कृषि बाजार, संचार आदि जैसे ग्रामीण आधारभूत ढांचे के विकास के लिए अनेक कदम उठाये हैं।
इसके लिए शासक वर्ग ने भूस्वामियों के दबाव तथा अपने वर्गीय हित में मझधार में ही भूमि सुधार का परित्याग कर दिया और कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए बीज-उर्वरक टेक्नालॉजी को लागू किया। इस मामले में साम्राज्यवादी दबाव ने भी कुछ भूमिका अदा की।
इस नयी कृषि राजनीति ने जो समृद्ध किसानों और समुन्नत क्षेत्रों पर आधारित है और जो असमान सामाजिक ढांचे पर थोपी गयी, इन सामाजिक एवं क्षेत्रीय असमानताओं को और बढ़ावा है तथा धनी किसानों एवं पूंजीवादी किसानों और ग्रामीण ढांचे पर उनकी पकड़ तथा उनके राजनीतिक प्रभाव और देश के सत्ता ढांचे में उनकी भागीदारी को काफी मजबूत किया है।
इन घटनाओं की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक अंतविर्रोध बढ़ा है जिससे गंभीर सामाजिक संघर्ष हुए हैं। अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पिछड़े लोगों पर बढ़ता अत्याचार इसका प्रमाण है।
इन सामाजिक अंतविर्रोधों को कम करने के लिए “लघु किसान विकास एजेंसी“, “सीमांत किसान और खेत मजदूर विकास एजेंसिया”, “गरीबी निरोधी कार्यक्रम“, “रोजगार गारंटी योजना”, “आई आर डी पी कार्यक्रम”, आदि शुरू किये गये जिनका उद्देश्य बढ़ती असमानताओं को कम करना था।
इस तरह वर्तमान ग्रामीण ढांचे में एक ओर वर्तमान असमानता के बढ़ने की अंतविरोधीं प्रक्रिया तथा दूसरी ओर अन्य योजनाओं के जरिये उन्हें संतुलित करने की प्रक्रिया चल रही है।
आज जीवन का एक महत्वपूर्ण तथ्य सामने है और वह यह कि सामाजिक रूप से वंचित तबके जो सामाजिक तथा आर्थिक समानता एवं आत्म-सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उच्च जाति के शोषकों एवं अन्य उत्पीड़कों के सामाजिक उत्पीड़न को सहन नहीं करने जा रहे हैं।
छोटे तथा सीमांत फार्मों का तेजी से विकास एक सकारात्मक पहलू रहा है, लेकिन कृषि क्षेत्र में एक चिंताजनक पहलू है स्वरोजगार में कमी, अकिंचनता में वृद्धि, खेत मजदूरों की आबादी में वृद्धि तथा कृषि पर अधिकाधिक लोगों की निर्भरता, जबकि 70 प्रतिशत श्रमबल अभी भी कृषि पर निर्भर है। खेत मजदूर पिछड़े क्षेत्रों से रोजगार की तलाश में विकसित राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं और अधिकाधिक शहरी क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं।
हरित क्रांति टेक्नालॉजी के साथ ही खाद्यान्न की पैदावार बढ़ी है। छोटे किसानों की जीवन-क्षमता में सुधार हुआ है। 1950-51 की तुलना में खाद्यान्न की पैदावार में साढ़े तीन गुनी वृद्धि हुई है और इस तरह देश करीब आत्म-निर्भरता की स्थिति में पहुंच गया है हालांकि वर्तमान निम्न उपभोग की स्थिति में। कृषि विकास के फलस्वरूप कुछ हद तक हरित क्रांति क्षेत्रों में विविधीकरण हुआ है। क्षेत्रीय असमानताएं बढ़ी हैं।
अधिकांश क्षेत्रों में आजीविका कृषि की जगह बाजार की उन्मुखता के साथ ही आधुनिक वाणिज्यिक कृषि ने ले ली है और इस तरह लघु किसान अर्थव्यवस्था भी बाजार अर्थव्यवस्था के भंवर में फंस गयी है।
बाजार पर निर्भरता तथा कृषि उत्पादन का पण्यकरण और मुद्रा-वस्तु संबंधों में भी वृद्धि हुई है। ग्रामीण बाजार पर इजारेदारियों तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ और मजबूत हुई है तथा वे किसानों को लूटने के लिए बाजार की जोड़-तोड़ कर रहे हैं। असमान व्यापार के साथ ही विशाल संसाधनों को कृषि से औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जा रहा है। विभिन्न सार्वजनिक वस्तु निगम भी बिचौलियों की लूट को खत्म करने में समर्थ नहीं हुए हैं।
आदिवासी लोगों की प्राकृतिक अर्थव्यवस्था भी वस्तु-मुद्रा तथा बाजार संबंधों का ग्रास बन गयी है और उनके बीच धीमा विभेदीकरण उत्पन्न हो गया है एवं उनका शोषण बढ़ गया है।
एक ओर हरित क्रांति टेक्नालॉजी और दूसरी ओर उर्वरक एवं कीटनाशक दवा जैसे कृषि निवेश पर अत्यधिक निर्भरता की वजह से हमारे कृषि क्षेत्र खासकर कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश हुआ है। 1980 के दशक में अपनायी गयी उदारीकरण की नीतियों से इस परिघटना में मदद मिली।
बीज-उर्वरक टेक्नालॉजी की वजह से पानी एवं उर्वरक की मांग काफी बढ़ गयी है। नयी किस्म के बीच जिसके लिए अधिक उर्वरक की जरूरत होती है, नाशक कीटों की चपेट में आ जाते हैं और परिणामतः इसके लिए अधिक कीटनाशक दवाओं की जरूरत होती है जिससे अंततः गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि जल-जमाव, खारेपन की वजह से निम्नकोटि की हो गयी और नाशक कीटों का स्वाभाविक प्रतिरोध करने वाली अनेक किस्म की परंपरागत फसलें विनष्ट हो गयीं।
इस अन्य ऊर्जा एवं अन्य लागत तथा सिंचाई आधारित टेक्नालॉजी को बदलने और नयी टेक्नालॉजी अपनाने की जरूरत है जो कम खर्चीली, अधिक उत्पादक हो तथा जो पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखे एवं मिट्टी की बनावट तथा उर्वरकता में सुधार करे और जिसका दोनों सिंचाई तथा गैर-सिंचाई की स्थितियों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस संबंध में तेजी से विकासमान जैव-टेक्नालॉजी ने एक अच्छा अवसर प्रदान किया है।
सरकार को एक जैव-टेक्नालॉजी नीति का अनुसरण करने के लिए विवश किया जाना चाहिए जो हमारे देश के हित में होगा और जो रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं पर कम निर्भरशील हो और जो छोटे किसान की ओर उन्मुख हो। हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के सामने नहीं झुकना चाहिए और उनकी जैव-टेक्नालॉजी का आयात नहीं करना चाहिए एवं हमारे कृषि क्षेत्र में उनके मुक्त प्रवेश की इजाजत नहीं देनी चाहिए।
इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए पार्टी कृषि क्षेत्र में निम्ननिखित उद्देश्यों के लिए संघर्ष करेगी:
(1) कृषि क्षेत्र में सभी सामंती एवं अर्ध-सामंती अवशेषों का उन्मूलन और हदबंदी तथा काश्तकारी कानूनों का कड़ाई से कार्यान्वन तथा जमीन के सभी बेनामी कारोबार को रद्द करना और भूमि-उद्धार तथा सभी कृषि योग्य परती, अवक्रमित भूमि का वितरण और वन्य बंजर जमीन में वनरोपण।
(2) कृषि तथा खाद्यान्न पैदावार में तेजी से वृद्धि, अंतर-क्षेत्रीय असमानता में कमी, शुष्क भूमि कृषि के विकास पर जोर तथा मध्य एवं पूर्वी भारत में कृषि के विकास पर जोर। सिंचाई, ग्रामीण विद्युतीकरण, बाजार का विकास, सहायता प्राप्त कर्ज, संचार आदि, बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं जो बाढ़ नियंत्रण, खारापन, तथा जन-प्लावन के निवारण, सिंचाई एवं विद्युत उत्पादन को सुनिश्तिच करे और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए जो पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाये रखे, आदि अनेक आधारभूतसुविधाओं के विकास के लिए विशाल सार्वजनिक निवेश।
(3) कृषि उत्पादों के लिए लाभाकारी कीमत, व्यापार के रूप में उद्योग तथा कृषि के बीच समानता बरकरार रखना और इजारेदारियों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट काविरोध। कृषि को लाभकारी और सम्मानजनक पेशा बनाना।
(4) खेत मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा, जीवन निर्वाह योग्य वेतन तथा जमीन की व्यवस्था करना और व्यापक केन्द्रीय कानून बनाना। काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाना और रोजगार या अर्ध-रोजगार भत्ते या उत्पादक स्व-रोजगार के लिए संसाधनों की अवश्य ही गारंटी करना। सामाजिक एवं जातीय उत्पीड़न के खिलाफ और विकेन्द्रीकृत तथा लोकतांत्रिक सत्ता के ढांचे के लिए संघर्ष।
(5) डेयरी, मुर्गी पालन फार्मिंग, रेशम-उत्पादन, सामाजिक वनरोपण, भेड़ पालन, बागवानी तथा मत्स्य पालन आदि सहायक व्यवसायों को प्रोत्साहित करके कृषि का विविधीकरण किया जाना चाहिए जो फसल के उत्पादन के बाहर रोजगार की व्यवस्था करेगा एवं उससे अतिरिक्त आमदनी होगी।
(6) ग्रामांचल में उद्योगों को बढ़ावा देना, छोटे, लघु तथा कुटीर उद्योगों खासकर कृषि उद्योगों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि अभी कृषि पर निर्भर करने वाले श्रमबल के एक बड़े हिस्से को गैर-कृषि क्षेत्र में लाया जा सके। इस तरह कृषि क्षेत्र में लगी भीड़ को काफी कम किया जाना चाहिए और ग्रामीण जनता की आमदनी के स्तर को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
(7) कृषि क्षेत्र को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले प्रवेश तथा मुक्त बाजार की ताकतों एवं प्रतियोगिता के लिए खोले जाने का जैसा कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने सुझाव दिया है, विरोध किया जाना चाहिए और छोटे तथा सीमांत किसानों की अर्थव्यवस्था को सभी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए तथा कर्ज, पौध, बीज, उर्वरक की आपूर्ति समुचित टेक्नालॉजी एवं उत्पादों की बिक्री जैसे मामलों में तरजीही सुविधाएं देने के साथ ही अन्य आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए और इन फार्मों को कारगर एवं सक्षम बनाया जाना चाहिए। छोटे और सीमांत किसानों के बीच सहयोग के विभिन्न रूपों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कुछ कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देते हुए घरेलू बाजार के विस्तार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
(8) सभी गरीबी-विरोधी तथा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों एवं रोजगार के अवसर पैदा करने वाले कार्यक्रमों को कृषि विकास कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाना चाहिए और उन्हें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पंचायतों, जन-संगठनों तथा अन्य स्वैच्छिक एजेंसियों के जरिये चलाया जाना चाहिए। इनके कोषों के दुरुपयोग को रोका जाना चाहिए।
(9) बेहतर स्थानीय जैव-टेक्नालॉजी एवं जेनेटिक इंजीनियरिंग को विकसित किया जाना चाहिए जैसा कि पहले बताया जा चुका है।
जबकि आंतरिक अंतविर्राेध तेज हुआ और सामाजिक तनाव बढ़ा तो आपातकालीन व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए, धारा 356 और 357 एवं राष्ट्रपति के अधिकारों तथा राज्यपाल की संस्थाओं का दुरूपयोग करते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों और संस्थाओं पर हमले भी तेज हो गये हैं। अधिनायकवादी प्रवृत्तियां बढ़ने के साथ ही संसदीय मानदंडों तथा संस्थाओं पर हमले बढ़े हैं।
केन्द्र में लंबे समय तक एक पार्टी की सत्ता पर इजारेदारी के फलस्वरूप राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण बढ़ा है तथा केन्द्र पर उनकी वित्तीय निर्भरता बढ़ी है। इन और दूसरी तरह से बढ़ती हुई एकात्मवादी प्रवृत्तियों के फलस्वरूप केन्द्र-राज्य संबंधों में भी बिगाड़ आयी है।
राजनीति के अपराधीकरण, चुनावी प्रक्रियाओं की विकृतियों तथा बढ़ रही लोकतंत्र-विरोधी प्रवृत्तियों की वजह से जन-प्रतिरोध भी बढ़ा है, लोकतांत्रिक चेतना बढ़ी है और लोकतांत्रिक अधिकारों का दावा भी बढ़ा है। पहले राज्यों में सत्ता पर एक पार्टी के एकाधिकार को तोड़ा गया और अब केन्द्र में भी। इसे पुनर्स्थापित करने में सफलता मिलने की संभावना नहीं है। और न ही वामपंथी पार्टियों को दबाते हुए दो दलीय प्रणाली का कदम ही सफल होगा। राज्यों में गैर-कांग्रेस सरकारें कायम रहेंगी, हालांकि संवैधानिक अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए उन पर लगातार हमला किया जाता रहा है। वामपंथ के नेतृत्व में सरकारों ने भी बने रहने का अधिकार हासिल कर लिया है। संसदीय प्रणाली को हटा कर राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार स्थापित करने या उसका भीतरधात करने के प्रयासों को नाकाम कर दिया गया है। गंभीर सीमाओं एवं कमजोरियों के बावजूद संसदीय लोकतंत्र काम कर रहा है। उसकी रक्षा की जानी है एवं उसका विस्तार किया जाना है। इसके लिए चुनावी सुधार भी अत्यन्त आवश्यक हो गया है ताकि धनशक्ति और गुंडाशक्ति पर अंकुश लगाया जा सके।प्रतिक्रियावादी हमलों और अधिनायकवादी विकृतियों के खिलाफ संविधान के मूलतत्वों की रक्षा की जानी है। लेकिन कुछ अंतर्निहित खामियों तथा सीमाओं के बावजूद यह महसूस किया जाना चाहिए कि कमोबेश राज्य नीति के अधिकांश निर्देशक सिद्धांतों को जो धारा 39 में निहित है, आंशिक रूप से ही कार्यान्वित किया गया है या उनकी उपेक्षा की गयी है। इसलिए इन कुछ निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों में हस्तांतरित करना और उन्हें लागू करने के लिए कारगर कदम उठाना, संविधान में प्रगतिशील संशोधन करना आवश्यक हो गया है ताकि उसे परिवर्तनों एवं नयी चुनौतियों और जन-आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सके।
राष्ट्रीय एकता पर बढ़ता खतरा
बढ़ती विखंडनकारी प्रवृत्तियों, सभी किस्म के हिन्दू, मुस्लिम एवं सिख संप्रदायवाद और बढ़ता सामाजिक एवं क्षेत्रीय तनाव तथा जातीय संघर्ष अधिकाधिक हमारे देश की एकता एवं अखंडता पर खतरा उत्पन्न कर रहा है।
शक्तिशाली सामंती अवशेष एवं निहित स्वार्थ जिन पर फैलते जन-जागरण से खतरा उत्पन्न हो रहा है, वोट बैंक, कैरियर तथा प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों के लिए धर्म, जाति एवं क्षेत्रीय संबंधों तथा निष्ठा के दोहन, राजनीतिक और खासकर संसदीय लाभों के एक उपकरण के रूप में सांप्रदायिक भड़कावा और उत्तेजना, बेरोजगारों एवं निराश युवकों में वृद्धि, बढ़ती क्षेत्रीय असमानताएं तथा सामाजिक असमानताएं- ये सभी फूटवादी एवं उग्रवादी प्रवृत्तियों को चारा प्रदान करते हैं। समय पर लोकतांत्रिक आधार पर इन समस्याओं के समाधान में विफलता और या ऐसी प्रवृत्तियों तथा ताकतों द्वारा जो सामान्यतः धर्मनिरेपक्षता एवं राष्ट्रवाद का समर्थन करती हैं, अवसरवादी राजनीतिक लाभ उठाने के कदमों से फूटवादी ताकतों को ही बल मिलता है एवं पूरी समस्या और अधिक विकट हो जाती है। राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा और इन समस्याओं का समाधान अत्यंत फौरी कर्तव्य हो गया है।
अलगाववादी और आर.एस.एस.-भाजपा खतरा
घोर सांप्रदायिक ताकतें अधिकाधिक हिंसा का सहारा ले रही हैं और हमारे सामाजिक ढांचे पर खतरे उत्पन्न कर रही हैं। अलगाववादी मांगे जिनमें आतंकवाद ने भी योग दिया है जैसे “खालिस्तान”, “आजाद कश्मीर”, आदि अधिकाधिक सशक्त हो रही हैं। हाल ही में धार्मिक कट्टरतावाद तथा धर्मतंत्रवाद जिसमें सबसे अधिक भयानक एवं शक्तिशाली “हिंदुत्व” तथा “हिंदूराष्ट्र” है जिसे आर.एस.एस., विश्व हिंदू परिषद, भाजपा एवं शिवसेना द्वारा प्रचारित किया जा रहा है, देश की एकता और अखंडता, उसके धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ढांचे, उसकी मिली-जुली संस्कृति की विरासत जिसे युगों तक निर्मित किया गया और हमारे समाज के ढांचे पर ही खतरे उत्पन्न कर रहा है। विदेशी साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा समर्थित इन सभी फूटवादी ताकतों को देश के सबसे घृणित प्रतिक्रियावादी निहित स्वार्थों द्वारा समर्थन दिया जा रहा है और उनका उपयोग किया जा रहा है।
अल्पसंख्यक संप्रदायवाद जो तंग एकांतिकता को ही बढ़ाता है, आर.एस.एस. एवं भाजपा को मजबूत बनाने में ही मदद देता है न कि वह उससे लड़ता है।
आर.एस.एस.-भाजपा ने जो रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मसले तथा कश्मीर को लक्ष्य बनाते हुए अभियान चला रहा है, धर्मनिरपेक्षता और भारतीय एकता पर ही गंभीर हमला शुरू कर दिया है। भारतीय इतिहास को विकृत करते हुए वे झूठे दावों द्वारा लोगों की आखांें में धूल झोंकते हैं और हिंदू राष्ट्रवाद को सही राष्ट्रवाद के रूप में पेश करते हैं तथा भारत की धार्मिक सहिष्णुता, सौहार्द एवं मानवीय बंधुत्व की युगों पुरानी परम्परा के विपरीत आक्रामक धर्मोन्माद तथा असहिष्णुता का प्रचार करते हैं। ये ताकतें न केवल जनता को विभाजित करती है बल्कि वे इतिहास के चक्के को पीेछे ले जाना चाहती है और सभी प्रगति तथा लोकतंत्र का विरोध करती है।
येे सभी घोर सांप्रदायिक ताकतें राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का गलत अर्थ लगाती हैं और उसका दुरूपयोग करती हैं। कोई भी धर्म सांप्रदायिक दुश्मनी, घृणा तथा हिंसा का प्रचार नहीं करता है। इसके विपरीत धार्मिक कट्टरतावाद तथा मतांधता के समर्थकों द्वारा सहिष्णुता, सार्वभौम बंधुत्व और प्रेम की विरासत का भीतरघात किया जाता है तथा उसकी तोड़ फोड़ की जाती है। हमारी पार्टी को संयुक्त रूप से इन फूटवादी ताकतों का विरोध करने और धर्मनिरपेक्षता तथा सांप्रदायिक एकता की रक्षा करने के लिए जो बहुधर्मी भारत में राष्ट्रीय एकता की अवश्यक पूर्वापेक्षा है, सभी वामपंथी, देशभक्त तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करना है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सभी धर्मों के लिए पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता, आवश्यक धार्मिक कृत्य करने तथा दूसरे धर्मो के प्रति किसी पूर्वाग्रह के बिना धार्मिक संस्थाओं को बढ़ाने की गारंटी का समर्थन करती है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सभी अलसंख्यकों के खिलाफ चाहे धार्मिक हों या जातीय, सभी तरह के परोक्ष या अपरोक्ष भेदभाव का दृढ़ता से विरोध करती है। हम धर्म तथा राज्य के अलगाव का समर्थन करते हैं और सांप्रदायिक घृणा एवं हिंसा पर अंकुश लगाने के वास्ते संयुक्त कार्रवाई के सिलसिले में सच्चे आस्तिकों के साथ बातचीत तथा सहयोग का समर्थन करते हैं। ऐसा सहयोग संभव और आवश्यक है।
जातिवाद और सामाजिक न्याय
एक सर्वाधिक घातक एवं प्रतिक्रियावादी सामंती अवशेष जिसका कुछ प्राचीन धर्मग्रंथो द्वारा भी समर्थन किया गया है, वह है जाति-प्रथा, शोषण तथा उत्पीड़न। वह अमानवीय सामाजिक अत्याचार का एक स्रोत हो गया है और प्रगति तथा लोकतंत्र के लिए एक बड़ा बाधक। उन महान संतों तथा समाज सुधारकों को तो यह श्रेय है कि उन्होंने उसकी असमानताओं को चुनौती दी और उत्पीड़न तथा वंचित जनता केविरोध को एक स्वर दिया। इन विविध सुधार आंदोलनों तथा विभिन्न आरक्षण नीतियों ने एक सकारात्मक भूमिका अदा की है और कुछ सुविधाएं प्रदान की हैं। लेकिन उस घातक प्रथा की जड़े कायम हैं। अनुभव ने उन दृष्टिकोणों की अपर्याप्तता को भी सामने ला दिया है जो आर्थिक पहलू पर एकांगी जोर देते हैं या कानूनी कदमों पर जिनमें अधिकांश कागजों पर ही पड़े हैं। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में समस्यााअें का समाधान करने के लिए सर्वतोमुखीं तथा मूलगामी कदम उठाने की जरूरत है। हमारी पूरी व्यवस्था में बुनियादी रूपांतरण की जरूरत है और उसके साथ ही विकास की तेज गति के साथ रोजगार की व्यवस्था, मूलगामी भूमि सुधार, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य सामाजिक सुविधाओं के विस्तार, गरीबी दूर करने के कारगर कदमों, अनुसूचित जाति एवं पिछड़ी जातियों के लिए लाभकारी कानून के कार्यान्वयन की गारंटी तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन एवं समर्थन की भी। जातीय उन्माद जिससे जातीय तनाव एवं संघर्ष, पैदा होता है, का प्रतिकार किया जाना है। सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष, जातीय उत्पीड़न एवं असमानता की समाप्ति के लिए संघर्ष लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए एक आवश्यक शर्त है। हमारा लक्ष्य जाति-प्रथा को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना और एक जाति-विहीन समाज की दिशा में बढ़ना है।
महिलाओं का सवाल
लैंगिक असमानता और उस पर आधारित भेदभाव और उत्पीड़न तथा महिलाओं को घटिया दर्जा, ये सब दुर्गुण हमारे समाज में आज भी कायम हैं और उनसे महिलाएं पीड़ित हैं तथा ये एक अन्य घातक आदिमकालीन अवशेष हैं। विकासमान पूंजीवाद भी इसका इस्तेमाल करता है और समस्याओं को बढ़ाता है। हमारा समाज पुरुषों एवं महिलाओं के बीच इस आसमानता तथा दोहरे शोषण को जिससे महिलाएं पीड़ित हैं, खत्म किये बिना एक आधुनिक, लोकतांत्रिक एवं सभ्य समाज नहीं हो सकता है। इसके बिना और महिलाओं की सभी लोकतांत्रिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति संभव नहीं है। पुरुषों के साथ समान आधार पर आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के लिए कारगर कदम उठाया जाना है, उसके लिए संघर्ष करना है तथा उसे लागू करना है। दहेज-विरोधी, सती-विरोधी तथा बाल विवाह-विरोधी जैसे कानूनों को केवल कागज पर ही नहीं रहना चाहिए बल्कि उन्हें कारगर एवं कठोर बनाया जाना चाहिए।
इनके अलावा महिलाओं के लिए संपत्ति का अधिकार, घरों से वंचित या परित्यक्ताओं के लिए कारगर पुनर्वास के कदम, विधवा-विवाह को प्रोत्साहन आदि भी अत्यंत आवश्यक है। जन चेतना जगायी जानी चाहिए और पुरुषों के अहं एवं प्रभुत्व का प्रतिकार किया जाना चाहिए।
बच्चे के जन्म से पहले और बाद में सवेतन अवकाश, शिशुशालाओं एवं नर्सरियों का व्यापक विस्तार अत्यंत आवश्यक है। समान कार्य के लिए समान वेतन, उन सभी अशक्ताओं को दूर करना जिनसे महिलाएं पीड़ित हैं, महिलाओं की मुक्ति और समाज में समान दर्जे के लिए उनके सभी आंदोलनों का समर्थन आदि को हमारे समाज के लोकतांत्रीकरण के संघर्ष के एक हिस्से के रूप में सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
भाषा समस्या
सभी भाषाओं की समानता होनी चाहिए। राज्यों में प्रशासन तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं को पूरी तरह प्रतिस्थिापित किया जाना चाहिए और सभी राज्यों को सरकारी विभागों, सार्वजनिक संस्थाओं तथा कानून की आदलतों में आंतरिक प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए अपनी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। उसे सभी स्तरों पर शिक्षा का माध्यम होना चाहिए। उर्दू भाषा तथा लिपि की उन राज्यों तथा इलाकों में अवश्य ही रक्षा की जानी चाहिए जहां उसका परंपरागत इस्तेमाल होता है। संविधान की आठवीें अनुसूची में मणिपुरी तथा नेपाली भाषाओं को शामिल किया जाना चाहिए। विभिन्न राज्यों में भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। अखिल भारतीय सेवाओं के लिए सभी प्रतियोगात्मक परीक्षाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में ली जानी चाहिए। भाषााअें को शामिल करने की समुचित मांग का प्रतिरोध नहीं किया जाना चाहिए जैसा कि अभी किया जा रहा है।
जातीयता और आदिवासी समस्या
जातीय समस्या हमारे बहु-भाषाई तथा बहु-जातीय देश में एक महत्वपूर्ण समस्या है। भाषाई पुनर्गठन के बावजूद अभी अनेक समस्याएं कायम हैं। छोटी जातियां तथा आदिवासी जनगण में नयी चेतना जागृत हो रही है और वे अपनी भाषा तथा संस्कृति के विकास एवं राजनीतिक अधिकारों और पहचान की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 1991 की जनगणना से यह संकेत मिलता है कि करीब 3000 भाषाएं एवं बोलियां है और केवल 59 भाषाओं को ही शिक्षा के लिए स्वीकार किया गया है। अपनी पहचान तथा अपने स्वायत्त राज्य के लिए आदिवासी जनगणों के आंदोलनों ने एक नया आयाम ग्रहण कर लिया है। झारखंड राज्य, बोडोलैंड तथा स्वायत्त राज्य के लिए जिसमें उत्तरी कछार-मिकिर पहाड़ी क्षेत्र शामिल हो, आंदोलन जन आंदोलन हो गया है और केन्द्र को समाधान ढूंढ़ने के लिए बातचीत शुरू करनी है। ऐसे और नारे एवं आंदोलन अस्तित्व में आने वाले हैं। अनेक राज्यों में आदिवासी आबादी का एक अच्छा प्रतिशत है।
केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्गठन
इस फैसतेे आदिवासी जागरण के साथ ही वर्तमान राज्य राज्यों के अधिकारों पर केन्द्र के दखल तथा वित्तीय अधिकारों और संसाधनों के गभीर अभाव पर काफी आंदोलित है क्योंकि इसके बावजूद विकास की पूरी जिम्मेवारी उन्हीं पर है।संवैधानिक व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करके और संशोधनों तथा अन्य कदमों से केन्द्र ने अपने हाथ में अधिकाधिक अधिकार केन्द्रित कर लिया है और वह एकात्मक दिशा में बढ़ा है, न कि संघीय दिशा में। इससे सभी बड़े और छोटे राज्यों को अधिक अधिकार तथा अधिक प्रशासनिक, राजनीतिक एवं वित्तीय स्वायत्तता देने की लगातार मांग उठने लगी। हमारी पार्टी राष्ट्रीय एकता और एक मजबूत केन्द्र का समर्थन करती है। पर उसे यह विश्वास है कि संघीय सिद्धांतों के आधार पर ही हमारे देश की एकता निर्मित की जा सकती है और उसकी रक्षा की जा सकती है।
इसलिए पार्टी मांग करती है कि संघीय सिद्धांतों पर केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्गठन किया जाये और संविधान में संशोधन किया जाये। संघ तथा राज्यों के बीच अधिकारों के आवंटन में मूलगामी संशोधन (वित्तीय संसाधन भी) अत्यंत आवश्यक है जिसमें राज्यों को अधिक स्वायत्तता दी जाये।
आदिवासी जनगणों एवं अन्य जातीय समूहों तथा ग्र्रुपों की आकांक्षाओं को पूरा करने के वास्ते राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाना है। उन सभी क्षेत्रों को जहां आदिवासी जन रहते हैं और जहां वे बहुमत में हैं या एक सबसे बड़े गु्रप हैं, वर्तमान राज्य के अंतर्गत एक तरह की क्षेत्रीय स्वायत्तता दी जानी चाहिए या भारतीय संघ की अंगीभूत इकाई के रूप में राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए तो खास आदिवासी क्षेत्रों में विकास के चरण, चेतना तथा अन्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है। झारखंड राज्य और उत्तराखंड जैसी मांगों को अविलंब स्वीकार किया जाना चाहिए। आदिवासी जनों को अवश्य ही वन उत्पादों का इस्तेमाल करने की इजाजत दी जानी चाहिए और उनके कब्जे या दखल की जमीन को पूरी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। उन्हें अविलंब पट्टा दिया जाना चाहिए और वन कानून में समुचित संशोधन किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक और प्राविधिक क्रांति
भारत औद्योगिक क्रांति में भाग नहीं ले सका क्योंकि वह एक उपनिवेश था और उस समय निष्ठुर साम्राज्यवादी शोषण का शिकार था। बाद में वह केवल आंशिक रूप से ही उसमें भाग ले सका और वह इस क्षेत्र में गंभीर रूप से पीछे है। पूंजीवाद-पूर्व के शक्तिशाली अवशेषों एवं असंतुलित पूंजीवादी विकास के साथ उसके बहु-संरचानात्मक समाज को वर्तमान वैज्ञानिक एवं प्राविधिक क्रांति की नयी चुनौती का सामना करना है।
आजादी के बाद भारत में विज्ञान तथा प्रविधि में काफी प्रगति की है, हालांकि अभी हमें बहुत कुछ करना है। हम समझते हैं कि प्राविधिक प्रक्रिया को जो वैज्ञानिक एवंप्राविधिक क्रांति की देन है, सबसे पहले हमारे लोगों की जरूरतों को पूरा करना चाहिए और फिर उनके जीवन एवं पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करना चाहिए।
विकास के पूंजीवादी पथ ने, जिसे हमारे देश में पूंजीपति वर्ग ने अपनाया, वैज्ञानिक एवं प्राविधिक क्रांति से समाज के अभिजन वर्गों की जरूरतों को पूरा किया। जबकि हम रक्षा उत्पादन, मशीनी-पुर्जा कार्यक्रम तथा इलेक्ट्रानिक्स और कृषि उत्पादन के सीमित क्षेत्रों में प्रगति कर सके हैं, लेकिन हमारी सामान्य औद्योगिक उदत्पादकता अभी भी निम्न है। वैज्ञानिक एवं प्राविधिक कमियों की योग्यता का उपयोग विकास कार्यक्रमों के लिए नहीं किया गया है और सामान्य रूप से विज्ञान एवं प्रविधि के लाभों का प्रभाव बहुमत के जीवन पर बहुत कम पड़ा है।
सरकार की नयी आर्थिक नीतियों जिसने बड़े पैमाने पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने की इजाजत दी है और उद्योगों के संबंध में उदारीकरण के कदमों ने प्रविधि के मामले में अनेक सवाल खड़े कर दिये हैं। जबकि हम अपने राष्ट्रीय आर्थिक जीवन में आधुनिकतम टेक्नालॉजी के प्रवेश का स्वागत करते हैं, लेकिन हमारी यह भी राय है कि ऐसी सभी प्रविधि से सस्ता भोजन, कपड़ा, मकान प्राप्त होना चाहिए और जनता के विशाल बहुमत को रोजगार मिलना चाहिए।
यह अनुभव रहा है कि सामान्यतः विज्ञान तथा प्रविधि श्रम बचाती है और इसमें अधिक पूंजी लगती है। यह आवश्यक है कि ऐसी प्रविधि को इजाजत नहीं दी जाये जो मजदूरों को फालतू एवं बेरोजगार बना दे। सहायक उद्योगों में पुनः पूंजी लगाने का कदम उठाया जाना चाहिए और औद्योगिक तथा सेवा क्षेत्रों में विज्ञान एवं प्रविधि लागू करने के फलस्वरूप विस्थापित हुए कर्मियों को पुनर्प्रशिक्षिण दिया जाना चाहिए। ऐसा सुनियोजित तथा चरणबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए। वास्तव में हम आयातित प्रविधि को आत्मसात नहीं कर पाते हैं और एक लंबे समय तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही भरोसा करते हैं या हम पुरानी प्रविधि ही प्राप्त करते हैं। इसे टालने के लिए आयातित प्रविधि को आत्मसात करने और खास समय में विदेशी सहयोग से प्राप्त अनुभव का उपयोग करने के लिए एक औद्योगिक आधार पर निर्माण किया जाना चाहिए।
तेज गति से स्थानीय वैज्ञानिक एवं प्राविधिक आधारभूत ढांचे का विकास हमारे देश की प्रगति के लिए आवश्यक है। इसके लिए और आत्म-निर्भरता के आधार पर हमारे राष्ट्रीय संसाधनों के पुननिर्माण के व्यापक कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार द्वारा पर्याप्त कोष के आवंटन के लिए संघर्ष करेगी।
नयी प्रविधि के प्रयोग के अनेक मामलों में स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है। मानव जीवन तथा पारिस्थितिकी पर दीर्घकालीन पर्यावरण प्रभाव के संबंध में चिन्ता होनी चाहिए और नियोजन तथा लाइसेंसिंग कार्यविधि में भी इसे प्रतिफलित होना चाहिए। औद्योगिक लाइसेंस को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए यदि वे खास पर्यावरण सुरक्षा मानदंडों का अनुपालन नहीं करते हैं। पर्यावरण प्रदूषण कानूनों को मजबूत बनाया जाना चाहिए और बड़ी कड़ाई से उन्हें लागू किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक तथा प्राविधिक क्रांति ने मजदूर वर्ग की संरचना में काफी परिवर्तन ला दिया है। भौतिक उत्पादन में सीधे लगे मजदूरों की तुलना में सेवा तथा संचार उद्योगों में कार्यरत मजदूरों की संख्या में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई है। ह्वाइट कॉलर मजदूर, टेक्निशियन, इंजीनियर एवं विशेषज्ञ भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में अधिकाधिक भाग लेते हैं और अधिकांश रोजमर्रे के कार्य करने वाले अकुशल मजदूरों की संख्या भी बढ़ी है जिसका यह तकाजा है कि एक नया ट्रेड यूनियन दृष्टिकोण अपनाया जाये ताकि उन्हें एक सामान्य आंदोलन में शामिल किया जा सके। एक पूंजीवादी व्यवस्था में इजारेदार ग्रुपों के क्षुद्र हितों को पूरा करने के लिए प्रविधि के दुरुपयोग ने वास्तविक खतरा उत्पन्न कर दिया है। स्थानीय पोषक प्रविधि के साथ नयी प्रविधि तभी लाभकारी हो सकती है यदि समुचित संस्थागत और संरचनात्मक परिवर्तन करके खतरे का मुकाबला किया जाये। इन परिस्थितियों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्राथमिक कर्तव्य अन्य लोकतांत्रिक ताकतों के साथ मिलकर इन संस्थागत और संरचनात्मक परिवर्तनों के लिए संघर्ष करना है।
पर्यावरण की सुरक्षा
जल और वायु का प्रदूषण, जघन्य वन कटाई, वन्य जीवन की अधांधुंध हत्या, बढ़ता हुआ औद्योगिक प्रदूषण तथा वाहनों के उत्सर्जन से वायुमंडल में जहर का फैलाव आदि जिन्दगी तथा स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। हमें पर्यावरण की सुरक्षा के लिए विभिन्न आंदोलनों के प्रति सकारात्मक एवं सहयोगात्मक रुख अख्तियार करना चाहिए और दोनों राष्ट्रीय तथा भूमंडलीय स्तर पर इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए सक्रिय कार्य करना चाहिए और सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तर पर दोनों अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन कदम उठाना चाहिए तथा कार्रवाई करनी चाहिए।
विदेश नीति कर्तव्य
विदेश नीति के क्षेत्र में प्रारंभिक हिचकिचाहट तथा समझौतों पर काबू पा लिया गया क्योंकि वह स्वतंत्र विकास की अनिवार्यता थी। विदेश नीति एक स्वतंत्र उपनिवेशवाद-विरोधी दिशा में आगे बढ़ी। शीघ्र ही उन ताकतों के साथ सहयोग की दृढ़ विदेश नीति अपनायी गयी जो विश्व शांति, निरस्त्रीकरण तथा एक समान आधार पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए संघर्ष कर रही थीं और उसके साथ ही मुक्ति संघर्षों के साथ एकजुटता, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के निर्माण में सक्रिय भूमिका, समाजवादी देशों, खासकर सोवियत संघ और नवस्वतंत्र देशों के साथ मैत्री एवं सक्रिय सहयोग की नीति अपनायी गयी।
कश्मीर, गोवा में साम्राज्यवादी दुरभिसंघि, दिएगो गार्सिया में सैनिक अड्डे के अनुभवों और समाजवादी देशों के साथ गंभीर सहयोग तथा तीसरी दुनिया के देशों के साथ संयुक्त संघर्ष के लाभों ने प्रगतिशील विदेश नीति के लिए ठोस लोकप्रिय आधार प्रदान किया। इसके फलस्वरूप भारत को लोकतांत्रिक एवं स्वतंत्र अंतर्राष्टीय संबंध बनाने, इस क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका अदा करने तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन का निर्माण करने और प्रतिष्ठा एवं सम्मान हासिल करने में मदद मिली।
आज परिवर्तित स्थिति और शक्तियों के नये संबंधों तथा नयी विश्व प्रवृत्तियों में यह और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि इस नीति की दिशा को बरकरार रखा जाये, व्यापक सहयोग विकसित किया जाये तथा अधिक समान आधार पर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं विदेश व्यापार का विस्तार किया जाये और एक नयी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए सुसंगत रूप से संघर्ष किया जाये तथा वर्तमान असमान विश्व वित्तीय व्यवस्था में सुधार किया जाये। दक्षिण-दक्षिण सहयोग को विकसित करने के लिए सुसंगत प्रयासों को और तेज किया जाना चाहिए। गुटनिरपेक्ष आंदोलन को शांति एवं राष्ट्रीय आजादी को और अधिक दृढ़ता से समर्थन देना चाहिए तथा नवउपनिवेशवाद का और सशक्त प्रतिरोध किया जाना चाहिए।
आज चीन, क्यूबा, वियतनाम तथा कोरिया लोक जनवादी गणतंत्र आदि के साथ घनिष्ठ सहयोग एवं मैत्री ने अधिक महत्व ग्रहण कर लिया है। एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के देशों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
पड़ोसी देशों (खासकर पाकिस्तान और बंगलादेश) के साथ क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने एवं संबंध सुधारने और सार्क को मजबूत बनाने के लिएअधिक प्रयासों की जरूरत है।
इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है संयुक्त राष्ट्र का लोकतांत्रीकरण एवं उसे और मजबूत बनाने तथा उसके ढांचे में संरचनात्मक परिवर्तन लाने के लिए कार्य करना, उसे साम्राज्यवादी दबाव से मुक्त करना (परोक्ष या अपरोक्ष) और उसकी शांति-कामी भूमिका को सुनिश्चित करना। हथियार और युद्ध विहीन विश्व के लक्ष्य के लिए यह आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र को और अधिक मजबूत किया जाये, उसमें सभी देशों को समान दर्जा प्रदान किया जाये तथा सुयंक्त राष्ट महासभा के प्रस्तावों एवं निर्णयों को समुचित सम्मान देकर तथा नियमित सलाह-मशविरा के जरिये संयुक्त राष्ट्र की नीति-निर्माण प्रक्रिया में गैर-सरकारी संगठनों को भाग लेने की संभावना प्रदान करके उनकी लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित किया जाये। सुरक्षा परिषद की भूमिका की अवश्य ही समीक्षा की जानी चाहिए ताकि महासभा की सहमति के बिना शांति एवं सुरक्षा के महत्वपूर्ण मसलों पर सदस्य देशों के एक छोटे तबके को निर्णय लेने की इजाजत नहीं दी जा सके। “स्थायी सदस्यों” के ग्रुप की सीमित संरचना में भी इस विश्व निकाय के सर्वव्यापक स्वरूप के अनुरूप परिवर्तन किये जाने की जरूरत है।
सुसंगत लोकतंत्र के लिए
इस बात पर जोर देते हुए कि समाजवाद हमारा अंतिम लक्ष्य है, पूंजीवाद का विकल्प है और गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षता, घोर असमानता, वर्ग शोषण एवं सामाजिक उत्पीड़न जैसी समस्याओं का कारगर ढंग से समाधान करने का रास्ता है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज सुसंगत लोकतंत्र, सभी क्षेत्रों- आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में समस्त सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के लोकतांत्रिक पुनर्गठन के लिए संघर्ष पर अत्यधिक जोर देती है। आज भारत की ठोस परिस्थितियों में इसका अर्थ हैः
- इजारेदारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर अंकुश लगाना तथा उनका नियमन करना, नव-उपनिवेशवादी घुसपैठ और हमले का प्रतिकार करना;
- सभी सामंती अवशेषों को समाप्त करना। मूलगामी भूमिसुधार, जातीय शोषण एवं उत्पीड़न तथा पुरुषों एवं महिलाओं के बीच असमानता को समाप्त करने के लिए कारगर कदम, सूदखोरी एवं कर्ज-दासता को खत्म करने के लिए कारगर कदम;
- सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार एवं लोकतंत्रीकरण, गुप्त मतदान के जरिये निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ प्रबंध में मजदूरों की भागीदारी, मजदूरों की पहलकदमी तथा उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन और “कार्यसंस्कृति” को बढ़ावा;
- किसान उत्पादकों के आपराधिक पूंजीवादी शोषण पर अंकुश लगाना, कृषि उत्पादों के लिए लाभकारी कीमत की व्यवस्था और खेत मजदूरों के लिए व्यापक वेतन कानून;
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली का व्यापक विस्तार, छोटे व्यापारियों का इस्तेमाल करना, लेकिन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए लोकप्रिय समितियों का गठन किया जाये;
- स्वैच्छिक सही कोआपरेटिवों को प्रोत्साहन, छोटे उद्यमियों, उद्योग में मजदूरों एवं परंपरागत हस्तशिल्प तथा स्व-रोजगार में लगे लोगों को प्रोत्साहन;
- सबों के लिए समुचित स्वास्थ्य एवं आवास के लिए कारगर कदम, सार्वजनिक आवास के लिए शहरी जमीन पर हदबंदी, सभी गांवों में पेयजल की व्यवस्था;
-मजदूरों और कर्मचारियों के लिए न्यूनतम जीवन निर्वाह वेतन, सामाजिक सुरक्षा एवं अन्य टेªड यूनियन अधिकारों को सुनिश्चित करना;
- सार्वजनिक क्षेत्र तथा सभी केन्द्रीय, राज्य एवं स्थानीय स्व-शासन संस्थाओं (जैसे-कार्पोरेशनों, म्युनिसिपैलिटियों, पंचायतों आदि) में मजदूरों तथा कर्मचारियों को राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान करना, जिसमें सभी निर्वाचित निकायों के लिए चुनाव लड़ने का भी अधिकार शामिल है और नियुक्तियों, प्रोन्नतियों एवं सेवा दशा के सबंध में उनकी प्रथम मांगों का कार्यान्वयन भी शामिल हैं;
- वेतन, आवास, बच्चों की शिक्षा तथा पर्याप्त पेंशन के लिए समुचित कदम (एक रैंक-एक पेंशन) के संबंध में सेना के लोगों की मांगों को पूरा करना। और सेवानिवृत्ति के बाद पुनर्वास के मामले में अर्धसैनिक बल तथा पुलिस समेत सशस्त्र सेना के सदस्यों के लिए शालीन स्तर को सुनिश्चित करना।
राजनीतिक ढांचे का लोकतंत्रीकरण
इस क्षेत्र में इन कर्तव्यों के साथ महत्वपूर्ण राजनीतिक कर्तव्यों को निम्नलिखित रूप से निरूपित किया जा सकता है:
- लोकतंत्र को सुदृढ़ करना एवं उसका विस्तार करना, लोकतांत्रिक संस्थाओं को साफ-सुथरा करना तथा लोकतांत्रिक मानदंडों एवं मूल्यों को लागू करना, सभी कठोर कानूनों एवं लोकतांत्रिक अधिकारों पर सभी रोक को खत्म करना, चुनावी सुधार जिसमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व शामिल है, गुंडाशक्ति एवं धनशक्ति पर रोक लगाना और मतदाताओं के लिए स्वतंत्र रूप से अपने मताधिकार का प्रयोग करने की व्यवस्था करना तथा उनके वास्तविक प्रतिनिधित्व एवं इच्छा की अभिव्यक्ति को सुनिश्चित करना;
- देश के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे की रक्षा करना और मजबूत करना। सभी धर्मांे के लिए पूजा करने एवं अपने आवश्यक धार्मिक कृत्यों का अनुपालन करने की स्वतंत्रता की गारंटी करना और दूसरे धर्मों के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के धार्मिक संस्थाओं को बढ़ावा देना। अल्पसंख्यकों को वे जहां कहीं भी हों, पूर्ण गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान करना, राजनीतिक जीवन के किसी क्षेत्र में धार्मिक विश्वास या मत के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना, राज्य और धर्म को अलग करना;
- सभी जातियों के लिए तथा पुरुषांे एवं महिलाओं के बीच समान स्तरों और अवसरों के साथ सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए कारगर कदम उठाना;
- काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के अलावा युवकों के लिए रोजगार के अवसरों के विस्तार के लिए फौरी कदम उठाना, शिक्षा, खेल-कूद तथा सांस्कृतिक कार्यकलाप एवं अन्य कल्याण योजनाओं, लोकतांत्रिक और लोकप्रिय शिक्षा प्रणाली को सुनिश्चित करना;
- सच्चे संघीय आधार पर केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्गठन करना, (संघ) और राज्यों के बीच अधिकारों का मूलगामी पुर्नआवंटन करना जिसमें राज्यों को पूर्व अवशिष्ट अधिकार तथा पूर्ण स्वायत्तता, राजनीतिक, प्रशासनिक एवं वित्तीय अधिकार प्राप्त हों जो भारत की एकता तथा लोकतांत्रिक आधार पर एक मजबूत केन्द्र के अनुरूप हो। जिला तथा स्थानीय निकायों को सत्ता का हस्तांतरण एवं विकेन्द्रीकरण जिसका लक्ष्य विकासगत और प्रशासनिक कार्य में सक्रिय भागीदारी के लिए आम जनता को शामिल करना है;
- नौकरशाही, लालफीताशाही एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना, उसे सही बनाने के लिए कारगर कदम उठाना जिसमें ऊपर से नीचे तक का हिस्सा शामिल है। नौकरशाही तंत्र में मूलगामी सुधार तथा उसे चुस्त-दुरुस्त करना और उसे जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनाना;
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भाषण, प्रेस, समामेलन तथा अंतःकरण की स्वतंत्रता की रक्षा करना और विपक्षी पार्टियां बनाने का अधिकार प्रदान करना, बशर्ते कि वे संवैधानिक ढांचे के अंदर कार्य करें।
शिक्षा और संस्कृति
राष्ट्रीय प्रगति और सामाजिक रूपांतरण के लिए एक आवश्यक शर्त है जन-साक्षरता और लोकप्रिय शिक्षा, वैज्ञानिक ज्ञान एवं संस्कृति का बढ़ता स्तर। इसका तकाजा है कि वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति को समाप्त किया जाये जो उच्च वर्गों के हितों को पूरा करने की दिशा में उन्मुख है। जन शिक्षा की कीमत पर अभिजन शिक्षा को बढ़ावा देने की नीति को उलटा जाना है और एक वैकल्पिक लोकप्रिय शिक्षा नीति तैयार की जानी है और उसे लागू किया जाना है। प्राथमिक शिक्षा का अवश्य ही विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए। अनौपचारिक शिक्षा को अवश्य ही सुदृढ़ किया जाना चाहिए और उसे इस तरह से सांगठित किया जाना चाहिए जिससे मेहनतकश जनता को भी शिक्षित किया जा सके। पाठ्यक्रम अवश्य ही राष्ट्रीय विकास की जरूरतों एवं जनता की व्यावहारिक जरूरतों से संबंधित होना चाहिए और उसके साथ ही उसे मानविकी तथा विज्ञान में अभिरुचि जागृत करनी चाहिए।
हमारे सृजनात्मक सांस्कृतिक जीवन का लोकतंत्रीकरण करने, उसे जीवंत एवं समृद्ध बनाने की जरूरत है। इसके लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति नीति की जरूरत है जो हमारी मूल्यवान संस्कृतिक विरासत और मानव सभ्यता द्वारा निर्मित समस्त सांस्कृतिक संपदा तथा हमारे भाषाई एवं जातीय ग्रुपों की बहुमुखी संस्कृति को समन्वित करती हो। भारत की प्रगतिशील विरासत और मिली-जुली संस्कृति पर प्रतिक्रियावादी एवं हृासोन्मुख सांस्कृतिक हमले के खिलाफ रक्षा की जानी है। यह कर्तव्य आज और अधिक आवश्यक हो गया है क्योंकि साम्राज्यवाद नियंत्रित बहुराष्ट्रीय मीडिया संगठनों का हमारे जन-प्रचार माध्यमों पर हमला बढ़ गया है जो वास्तविकता को विकृत करते हैं। वे हमारे दिमाग का उपनिवेशीकरण करने तथा हमें स्वयं हमारी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से अलग करने का प्रयास करते हैं। नये संगठनात्मक रूपों का उपयोग करते हुए और राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सौहार्द तथा विवेकपूर्ण चिन्तन की हमारी परंपरा और सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक न्याय के लिए उत्कट आकांक्षा को आगे बढ़ाते हुए एक नया व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन अवश्य ही निर्मित किया जाना चाहिए। सत्यनिष्ठा को कायम रखते हुए जीवन और जनता ही उसका आधार होना चाहिए।
वर्गीय पंक्तिबद्धता
समस्त लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदार-विरोधी, एवं सामंत-विरोधी ताकतों को लामबंद किया जाना चाहिए और व्यापकतम लोकतांत्रिक एकता निर्मित की जानी चाहिए। कार्यनीति तैयार करते हुए मजदूर वर्ग, खेत मजदूरों, किसानों, सभी अन्य मेहनतकश तबकों, बुद्धिजीवियों एवं मध्यम वर्ग और उसके साथ ही गैर-इजारेदार राष्ट्रीय पूंजीपतिवर्ग की भूमिका को पूरी तरह ध्यान में रखा जाना चाहिए। खेत मजदूरों और बुद्धिजीवियों की बड़ी संख्या एवं बढ़ी हुई भूमिका को भीध्यान में रखा जाना चाहिए। वर्ग गठबंधन के आधार के रूप में मजदूर-किसान गठबंधन की निर्णायक भूमिका को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
आर्थिक, राजनीतिक एवं सैद्धांतिक स्तर पर जन अभियान, कार्रवाई तथा संघर्ष चलाकर ऐसी एकता एवं व्यापक वर्ग गठबंधन निर्मित किया जा सकता है। प्रतिक्रियावादी एवं सांप्रदायिक-फूटवादी ताकतों का पर्दाफाश करते हुए और उन्हें अलग-थलग करते हुए, वामपंथी ताकतों को काफी सुदृढ़ करते हुए तथा सभी धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक ताकतों को एकजुट करते हुए लोकतांत्रिक ताकतों के पक्ष में शक्तियों के सहसंबंध में बुनियादी परिवर्तन आवश्यक है।
वामपंथ की भूमिका
सभी वामपंथी पार्टियां, ताकतों तथा तत्वों जिनमें वे वामपंथी पार्टियां भी शामिल हैं जो “वामपंथी मोर्चे” में अभी सम्मिलित नहीं है, सोशलिस्ट तथा बुद्धिजीवियों एवं अलग स्वतंत्र वामपंथियों के बीच कार्रवाईगत एकता के साथ वामपंथ को व्यापक रूप से मजबूत किया जाना है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और नक्शलवादियों के बीच ऐसे तत्वों जो कम्युनिस्ट एकता के समर्थक हैं, के बीच एकता से वामपंथ के सुदृढ़ीकरण और सहयेाग में बड़ी सहायता मिलेगी।
लोकतांत्रिक जन संगठनों का एकीकरण एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है जिससे समाज में तथा फैक्टरियों और खेतों के मजदूरों, युवकों, महिलाओं, शिक्षकों एवं छात्रों की भूमिका काफी बढ़ जायगी।
समाज सुधार संगठनों और सामाजिक कार्रवाई ग्रुपों को भी जो सामाजिक न्याय का समर्थन करते हैं, लामबंद किया जाना है।
एक वामपंथी और लोकतांत्रिक विकल्प निर्मित करने के लक्ष्य के साथ वर्गीय तथा राजनीतिक ताकतों के सहसंबंधों में परिवर्तन लाया जाना है। केन्द्र में सत्ता प्राप्त करना बुनियादी कर्तव्यों को लागू करने की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रगति होगी।
उपर्युक्त कर्तव्यों को कार्यान्वित करने तथा उसके लिए व्यापकतम सहयोग एवं एकता निर्मित करने में वामपंथ की भूमिका से उसकी प्रतिष्ठा तथा शक्ति में वृद्धि होगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इन जिम्मेवारियों को पूरा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
शांतिपूर्ण पथ की संभावना
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ऐसी लोकतांत्रिक सत्ता तथा सुसंगत रूप से एक लोकतांत्रिक समाज हासिल करने का प्रयास करना चाहती है जो शांतिपूर्ण तरीकों से समाजवादी लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़े। एक शक्तिशाली जन क्रांतिकारी आंदोलन विकसित करके और सभी वामपंथी एवं लोकतांत्रिक ताकतों की व्यापक एकता निर्मित करके तथा एक ऐसे जन आंदोलन से समर्थित संसद में स्थायी बहुमत हासिल करके मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी प्रतिक्रिया की ताकतों के प्रतिरोध को नाकाम करने एवं संसद को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ढांचे में मौलिक परिवर्तन लाने की जनता की इच्छा का एक यथार्थ उपकरण बनाने का भरसक प्रयास करेंगे।
उसके साथ ही क्रांतिकारी ताकतों के लिए आवश्यक है कि वे अपने को इस तरह से उन्मुख करें एवं कार्य करें जिससे वे सभी तरह की आकस्मिकताओं तथा देश के राजनीतिक जीवन में किसी तरह के उतार-चढ़ाव का सामान कर सकें।
समाजवाद की दिशा में संक्रमण
अपनी स्थापना के बाद से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवाद को स्वतंत्र भारत के भावी विकास का लक्ष्य स्वीकार किया। इस लक्ष्य को सुसंगत लोकतंत्र के जरिये उपर्युक्त कर्तव्यों को पूरा करके ही हासिल किया जा सकता है। जब उपर्युक्त कर्तव्यों को पूरा किया जायगा तो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था उत्पादक शक्तियों के उच्च स्तर तथा उच्च उत्पादकता के साथ गतिशील, कारगर एवं स्व-उत्पादक होती जायेगी, जनता के मंगल-कल्याण के लिए विज्ञान तथा प्रविधि की उपलब्धियों को आत्मसात करेगी और करोड़ों जनता की पहलकदमी को व्यापकतम संभावनाएं प्रदान करेगी ताकि पिछड़ेपन की कठोर विरासत को दूर किया जा सके और हमारे विशाल भौतिक तथा मानव संसाधानों के पूर्ण इस्तेमाल के लिए परिस्थितियां निर्मित की जा सकें।
जब लोकतंत्र मजबूत होगा और उसका विस्तार होगा एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में जनता को पूर्ण लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति प्रदान करेगा, सभी तरह के भेदभाव, असमानता तथा धर्म, जाति, लिंग एवं भाषा या जातियता के आधार पर सभी तरह के उत्पीड़न का उन्मूलन करेगा और उपर्युक्त प्रक्रियाओं में अधिकाधिक कारगर भूमिका अदा करेगा तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद का समर्थन करने वाली सभी अन्य शक्तियां भी मजबूत होंगी।
यह एक लंबी अवधि होगी जिसके दौरान देश को अनेक राजनीतिक संरचनाओं एवं गठबंधनों के दौर से गुजरना होगा जिसके जरिये प्रतिक्रिया की ताकतें हासिये पर आ जायेंगी और लोकतंत्र तथा समाजवाद की ताकतें अधिकाधिक ताकतवर होकर सामने आयेंगी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी जिम्मेवारियां पूरी करते हुए अपने विचार-धारात्मक राजनीतिक आधार और जनाधार में भी काफी मजबूत होगी। इस तरह समाजवाद में संक्रमण के लिए वस्तुगत तथा आत्मगत परिस्थितियां परिपक्व होंगी।
इस पथ और भारतीय परिस्थितियों एवं वर्तमान ऐतिहासिक अवधि में समाजवाद की अवधारणा को पूरी सावधानी से विचार-विमर्श करके पुनर्परिभाषित किया जाना है। अभी यही कहा जा सकता है कि यह एक लोकतांत्रिक बहुसंरचनात्मक अर्थव्यवस्था के साथ जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र एक नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेगी, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूरों, किसानों, सभी अन्य मेहनतकश जनता, बुद्धिजीवियों और मध्यवर्ग का राज्य होगा।
किसान स्वामित्च को मूलगामी कृषि सुधार, कृषि विकास नीतियों के पूर्ण कार्यान्वयन और आर्थिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्वैच्छिक कोआपरेटिवों को प्रोत्साहन केआधार पर फलने-फूलने की पूरी सुविधाएं दी जायेंगी। औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन के साधनों का सामाजिक स्वामित्व नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेगा जबकि निजी क्षेत्र, संयुक्त क्षेत्र, कोआपरेटिव क्षेत्र, लघु क्षेत्र साथ-साथ कायम रहेंगे और पूरी अर्थव्यवस्था में पारस्परिक रूप से हाथ बंटायेंगे। राज्य आर्थिक विकास को नियंत्रित करने और उसे बढ़ाने, जनता के मंगल-कल्याण को बढ़ाने, शोषण समाप्त करने, सामाजिक एवं क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने, सार्वभौमिकता की रक्षा करने और आत्म-निर्भरता विकसित करने के लिए नियोजन की कार्यविधि का इस्तेमाल करेगा। यह एक मानवीय एवं न्यायोचित समाज होगा जिसमें सबों को समान अवसर प्रदान किया जायगा तथा लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी दी जायेगी जो मनुष्य के शोषण को खत्म करने का मार्ग प्रशस्त करेगा, एक ऐसा समाज जिसमें मेहनतकश करोड़ों लोगों द्वारा उत्पादित धन पर कुछ लोगों द्वारा कब्जा नहीं किया जायगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवाद के विज्ञान को सुसंगत लोकतंत्र और समाजवाद की दिशा में अपने पथ को निर्धारित करने के लिए अपरिहार्य समझती है। वह भारतीय समाज को समझने एवं उसमें परिवर्तन लाने के एक उपकरण के रूप में मार्क्सवादी प्रणाली का इस्तेमाल करने का प्रयास करती है। कठमुल्लावादी तथा पुराने घिसे-पिटे विचार का परित्याग करते हुए वह अपना मार्ग निर्धारित करने के लिए इस विज्ञान तथा भारत की क्रांतिकारी विरासत से निर्देशित होती है जो हमारे देश की खास विशेषताओं, उसके इतिहास, परंपराओं, संस्कृति, सामाजिक संरचना तथा विकास के स्तर से निर्धारित होगा।
शनिवार, 14 अगस्त 2010
at 6:59 pm | 1 comments | ए.बी. बर्धन
जाति आधारित जनगणना एवं अन्य बातें
(“क्लास कास्ट रिजर्वेशन एंड स्ट्रगल अंगेस्ट कास्टिज्म” किताब का दूसरा संस्करण इस सप्ताह आने वाला है। किताब के लेखक ए.बी. बर्धन ने दूसरे संस्करण की प्रस्तावना लिखी है जो कुछ उन मुद्दों के बारे में है जिन पर जाति आधारित जनगणना सहित जाति और वर्ग को लेकर अभी बहस चल रही है। हम इस प्रस्तावना को छाप रहे हैं जिससे इन मुद्दों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलेगी - संपादक)
“क्लास कास्ट रिजर्वेशन एंड स्ट्रग्ल अंगेंस्ट कास्टिज्म” किताब पहले 1990 में प्रकाशित हुई थी। इनमें उन लेखों एवं दस्तावेजों को शामिल किया गया है जो 1980 के दशक में लिखे गये थे जबकि मंडल कमीशन की सिफारिशों के आने और वी.पी. सिंह सरकार द्वारा उन पर अमल की घोषणा से पहले और बाद में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में जबर्दस्त बहस और आंदोलन चला था।
इन लेखों और दस्तावेजों में न केवल आरक्षण एवं मंडल आयोग की सिफारिशों और उनको लागू करने के जटिल मुद्दों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण को व्यक्त किया गया बल्कि वर्ग, जाति आरक्षण और जातिवाद के विरूद्ध संघर्ष के बारे में तथा जातियों को समाप्त करने और अन्यायपूर्ण जाति प्रथा को मिटाने के बारे में सैद्धांतिक पक्ष को पेश करने का प्रयास किया गया। ये सभी प्रश्न आज भी, अधिक नहीं तो समान रूप से, प्रासंगिक बने हुए हैं। वे देश के राजनीति एवं सामाजिक एजेंडे से गायब नहीं हो गये हैं। इसलिए हम सब किताब का दूसरा संस्करण निकाल रहे हैं जो आशा है उपयोगी साबित होगा।
जाति आधारित जनगणना की मांग की गयी है तथा यह मांग संसद के समक्ष है। हमने इस विषय पर अपने दृष्टिकोण के साथ पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर के एक लेख को भी शामिल किया है।
लोगों की बहुपक्षीय सामाजिक पहचान है- जैसे वर्ग पहचान, जाति पहचान, धार्मिक पहचान, भाषाई पहचान, एथनिक पहचान (नृजातीय पहचान) और अन्य। यहां हम खासकर हमारे बहुसंख्यक लोगों की वर्ग पहचान और जाति पहचान की बात करेंगे। मार्क्सवादी होने के नाते हमने हमेंशा भारत में वर्गों एवं जातियों दोनों के अस्तित्व के सामाजिक यथार्थ को स्वीकार किया है।
लेकिन यह सच है कि हमने हमेशा अपने आंदोलनों और संघर्षों के आधार के रूप में वर्ग पहचान पर ही जोर दिया है। यह उनकी जाति पहचान को लगभग अलग रखकर किया गया है। अक्सर यह चूक हो जाती कि मजदूर वर्ग एवं मेहनतकश किसानों की एकता को उनके जाति भेदों की अनदेखी करके हासिल करना और उसे बनाये रखना कठिन होता है।
यह वर्ग भेद शोषक वर्गो में, चाहे वे पूंजीपति हों या जमींदार कोई भूमिका अदा नहीं करता है, लेकिन विभिन कारणों से, यह जातिभेद शोषित वर्गाें में, उन्हें एकताबद्ध करने में कभी-कभी बाधा उत्पन्न करता है या कुछ कठिनाइयां पैदा करता है।
शहर और देहात में जो लोग आर्थिक रूप से शोषित वर्ग के होते हैं, उसके साथ ही साथ वे आमतौर पर सबसे ज्यादा सामाजिक रूप से भी शोषित जातियों के लोग होते हैं। वे राजनीतिक रूप से भी सबसे अधिक वंचित वर्ग हैं।
इसलिए मेहनतकश जनता के बीच एकता कायम करने तथा शोषकों के खिलाफ वर्ग संघर्ष विकसित करने के दौरान यह जरूरी है कि सभी प्रकार के जाति भेदभावों एवं शत्रुता का दृढ़ता से विरोध किया जाये और दलितों तथा तथाकथित निम्न जातियों के खिलाफ होने वाले हर तरह के अत्याचार एवं अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया जाये और जातिवाद के खिलाफ सतत वैचारिक, राजनीतिक एवं व्यवहारिक संघर्ष चलाया जाये। ये सभी संघर्ष के विभिन्न पहलू हैं।
इन सभी को सकारात्मक कार्रवाई के साथ एक साथ जोड़ना होगा ताकि नीचे के तबकों को, जो अब तक समाज के शोषित, वंचित एवं पिछड़े तबके रहे हैं तथाकथित उच्च वर्गांे के बराबर लाया जा सके। ऐसे संघर्ष एवं जातियों को समाप्त करने तथा जाति प्रथा को मिटाने के संघर्ष के बीच एक द्वंद्वात्मक आंतरिक संबंध है। इसी वास्ते तो आरक्षण है, जो सकारात्मक कार्रवाई का एक तरीका है। लेकिन केवल यही एक अकेला तरीका नहीं है। सकारात्मक कार्रवाई के कई अन्य तरीके हैं जिनमें भूमि सुधार, कमजोर एवं वंचित वर्गांे के नीचे से ऊपर तक सशक्तीकरण शामिल हैं। बुर्जुआ सरकार का जमींदारों एवं बड़े भूस्वामियों के साथ संबंध है, वह उन तरीकों को कभी नहीं लागू करेगी। इसके लिए संयुक्त संघर्ष एवं सक्रिय हस्तक्षेप जरूरी है।
सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रवर्तक यह अच्छी तरह समझते थे। इसलिए वे मजबूत आधार तैयार कर सके और अनेक क्षेत्रों एवं राज्यों में इन मजबूत आधारों के निर्माण में उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों को अपने साथ लामबंद किया। उन्होंने उचित ही कमजोर वर्गों के आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्ष को उनकी आकांक्षाओं तथा सामाजिक न्याय, गरिमा और बराबरी के लिए संघर्ष के साथ जोड़ा। लेकिन बाद के वर्षों में खामियों के कारण तथा हमारी समझदारी और व्यवहार में विफलता से दलितों एवं पिछड़ी जातियों पर आधारित पार्टियों को उनका शोषण करने और सामाजिक न्याय के नाम पर उनकी खास-खास मांगों को आगे बढ़ाने का मौका मिला। इस प्रकार उन पार्टियों ने कुछ राज्यों में हमारे जनाधार का क्षरण किया। उदाहरण के लिए बिहार में जहां राज्य पार्टी अपेक्षाकृत मजबूत थी तथा उत्तर प्रदेश एवं अन्य जगह में भी, ये पार्टियां इन तबकों के कुछ हिस्से को कम्युनिस्ट प्रभाव से हटाकार अपनी ओर लाने और उन्हें अपना वोट बैंक बनाने में सफल रही हैं।
उनका यह दावा कितना सच है कि वे सामाजिक न्याय की पार्टियां हैं या वे दलितों एवं पिछड़ी जातियों की भलाई के लिए लड़ रही हैं, भूमि सुधार के मुद्दे पर इनमें से अधिकांश पार्टियों के नेतृत्व के रवैये से पता चल जाता है कि वे कहां खड़े हैं। उदाहरण के लिए वे बिहार में भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों का विरोध करने के लिए एकजुट हो गये हैं। आयोग ने भूमिहीनों को अतिरिक्त भूमि का वितरण करने, जिनके पास मकान नहीं है ऐसे खेत मजदूर परिवारों को मकान बनाने के लिए 10 डिसमिल जमीन देने, बटाईदारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने आदि की सिफारिशें की हैं। इन कदमों से सबसे गरीब लोगों तथा उनमें से सबसे पिछड़ों को भला होता है और उन्हें अपने जीवन में सुरक्षा एवं गरिमा प्राप्त होती है। ये वही लोग हैं जो दलित और अत्यंत पिछड़ी जाति के हैं। पर जाति पर आधारित पार्टियां इन सिफारिशों का विरोध कर रही हैं। जब भूमि सुधार की बात आती है तो इन जाति आधारित पार्टियों का यह दावा निरर्थक साबित होता है कि वे सामाजिक न्याय के लिए काम कर रही हैं।
खाप पंचायतेें और तथाकथित “ऑनर किलिंग” केवल सगोत्र विवाह के खिलाफ नहीं है बल्कि वे ऐसी मिश्रित जातियों के विवाह के भी खिलाफ है जिसमें निम्न जाति का एक पार्टनर ऊंची जाति के पार्टनर के साथ शादी करता है। ये खासतौर पर घिनौने किस्म की सोच-विचार कर की गयी हत्याएं हैं। सख्त कार्रवाई करके इन्हें खत्म करने की जरूरत है।
आरक्षण न केवल सरकारी और अर्धसरकारी नौकरियों के लिए लागू है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों की नौकरियों के लिए भी लागू है। सरकार अब सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण की ताबड़तोड़ कोशिश कर रही है। इससे आरक्षित श्रेणियों के लिए उपलब्ध रोजगार प्रभावित होंगे। इसलिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पूरी तरह न्यायोचित है, हालांकि कुछ मामलों में वैध एवं खास कारणों से छूट हो सकती है।
इस समय यह बहस चल रही है कि 2010 की जनगणना में क्या जाति की गणना को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं। क्या ऐसा करना संविधान की भावना के विपरीत नहीं होगा? इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह सवाल उठता है कि क्या इससे जात-पात की भावना को फिर से हवा नहीं मिलेगी तथा जातिवाद के खिलाफ लड़ने और उसे समाप्त करने के लिए हमारे प्रयास कमजोर नहीं होंगे?
जाति एक सामाजिक यथार्थ है। इसके अस्तित्व से इंकार करके इससे बचा नहीं जा सकता। हम देख चुके हैं कि भारतीय समाज में जाति प्रथा का कितना बुरा प्रभाव पड़ा है। अनुसूचित जातियों, जिन्हें अछूत माना जाता है, के अलावा सामाजिक एवं शैक्षिणक रूप से पिछड़े वर्गों के निर्धारण में निम्न जातियों को ऐसे समूहों एवं वर्गों के रूप में रखना पड़ा जिनकी स्पष्ट पहचान हो सके। 1931 की जनगणना के आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि ये अन्य पिछड़े वर्ग, ओबीसी करीब 52 प्रतिशत हैं। उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया ताकि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत को पार न कर जाये।
लेकिन अनेक अदालतों में यह सवाल उठाया गया है कि इस आंकड़े पर कैसे पहंुचा गया। इसलिए यह उपयोगी रहेगा कि ताजा जनगणना करके हम किसी आंकड़े पर पहुंचे। इन वर्गों के कल्याण के लिए बनायी जाने वाली अनेक योजनाएं भी ताजा आंकड़ों पर आधारित की जा सकती हैं।
लेकिन जाति आंकड़ों में हेरफेर करने और लाभ पाने या समाज में बेहतर हैसियत प्राप्त करने के उद्देश्य से जनगणना के समय जाति को बदलकर बताने-इन दो खतरों से हमें सावधान रहना होगा।
केवल ओबीसी के रूप में गणना नहीं हो सकती क्योंकि सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधारपर किस जाति को इसमें शामिल किया जाये, किसको नहीं, यह एक खुला प्रश्न है।
लोगों का एक बड़ा हिस्सा है जो जाति या यहां तक कि धर्म के आधार पर अपनी पहचान नहीं कराना चाहता। जनगणना के दौरान इन लोगों को अधिकार है कि वे अपनी जाति या धर्म बताने से इंकार कर सकते हैं। इस वर्ग की संख्या बढ़ रही है और इसे नोट किया जाना चाहिए। निश्चय ही आज जाति एक राजनीतिक मुद्दा बन गयी है। यह खतरा है कि जाति आधारित जनगणना में ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जिसमें जाति पहचान राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में अन्य तमाम बातों पर हावी हो जाये तथा अन्य की तुलना में किसी जाति भेद एवं जाति द्वेष बढ़ाने के लिए किया जाये। राजनीतिक नेतृत्व एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसके प्रति सावधान रहना होगा। हमारा उद्देश्य स्पष्ट रहना चाहिए। हम जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज के पक्षधर हैं जो केवल एक पूर्ण विकसित समाजवादी समाज में ही सुनिश्चित हो सकता है। हमें ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए संघर्ष करना है, लड़ाई लड़नी है।
(नयी दिल्ली, 24 जुलाई, 2010)
- ए.बी.बर्धन
लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हैं।
at 8:46 am | 0 comments | डी. राजा
संसद में भाकपा - अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के कल्याण का पैसा भी राष्ट्रमंडल खेलों में हजम
”वामपंथ, दक्षिणपंथ और मध्यमार्ग के मध्य मतभेदों के बावजूद सदन ने इस मुद्दे को बहस के लिए लिया है। इससे पता चलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण के प्रति हरेक को सरोकार है। हम आज जिस बात की चर्चा कर रहे हैं वह तो आइसबर्ग की दिखने वाली चोटी मात्र है, असल मसला इससे बहुत बड़ा है। अनुसूचित जाति के लिए विशेष अंगभूत योजना (स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान) और आदिवासी उपयोजना के प्रश्न वृहत्तर मुद्दे हैं और मेरे पास जानकारी है कि कई राज्य सरकारें आज भी स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान या ट्राइबल सब प्लान के लिए पैसा चिन्हित नहीं करती। केन्द्र सरकार के 24 से अधिक केन्द्रीय विभागों में इन योजनाओं के लिए कोई अलग आबंटन नहीं है और वे समझते हैं कि इसके लिए अलग पैसा आबंटन की जरूरत नहीं। इतना कहने के बाद, मैं कहना चाहता हूं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण के लिए तय पैसे को अन्यत्र खर्च कर देना अक्षम्य है। यह संवैधानिक दायित्वों के साथ विश्वासघात है, चाहे वह केन्द्र सरकार हो या कोई राज्य सरकार। इसे संविधान की भावना के विरूद्ध एक अपराध मानना होगा। सरकार दावा करती है कि यह आम आदमी की सरकार है, पर वह जो कुछ भी कर रही है, वह आम आदमी के खिलाफ है।
यह मात्र एक अत्याचार नहीं है। यह आज के जमाने का एक गंभीर अत्याचार है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लोग राष्ट्र के लिए जो दौलत पैदा करते हैं, उसमें उनके वाजिब हिस्से को हड़प कर लिया जाये। यह लोकतंत्र के नाम पर चुनी जाने वाली सरकारों द्वारा किये जाने वाला भयंकर अपराध है। ऐसी चीजें जारी रहें, इसे सहन नहीं किया जा सकता। राष्ट्रमंडल खेल देश के लिए गौरव की बात होने चाहिये थे पर यह शर्म की बात बन रही है। सरकार के पास क्या जवाब है?यह एक गंभीर अपराध है। आज यह दिल्ली में हो रहा है, कल अन्य राज्यों में हो सकता है। अतः यह सही समय है कि केन्द्र सरकार हस्तक्षेप करे और जो कुछ हुआ है, उसे सुधारे। यह पैसा वापस दिया जाये और अनुसूचित जातियों के लिए स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान और ट्राइबल सब प्लान को योजना आयोग के दिशानिर्देशों के तहत इन लोगों के कल्याण के लिए योजनाओं के रूप में समझा जाना चाहिये।“
- डी. राजा
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
at 9:03 pm | 0 comments | गुरूदास दासगुप्ता
संसद में भाकपा - महंगाई के लिए मनमोहन सरकार की नीतियां जिम्मेवार
मेरी ब्लॉग सूची
-
CUT IN PETROL-DIESEL PRICES TOO LATE, TOO LITTLE: CPI - *The National Secretariat of the Communist Party of India condemns the negligibly small cut in the price of petrol and diesel:* The National Secretariat of...5 वर्ष पहले
-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र - विधान सभा चुनाव 2017 - *भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र* *- विधान सभा चुनाव 2017* देश के सबसे बड़े राज्य - उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार के गठन के लिए 17वीं विधान सभा क...7 वर्ष पहले
-
No to NEP, Employment for All By C. Adhikesavan - *NEW DELHI:* The students and youth March to Parliament on November 22 has broken the myth of some of the critiques that the Left Parties and their mass or...7 वर्ष पहले
Side Feed
Hindi Font Converter
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
लोकप्रिय पोस्ट
-
The following is the text of the political resolution for the 22 nd Party Congress, adopted by the national council of the CPI at its sess...
-
Manifesto of the Communist Party Karl Marx and Fredrick Engels Prefaces to various language editions 1872 German Edition 1882 Russian Edit...
-
उत्तर प्रदेश के कोने कोने में फूंकी गयीं काले क्रषी क़ानूनों की प्रतियां आपातकाल सरीखे हालातों के बावजूद प्रदेश में निरंतर बढ़ रहा है किसा...
-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल के सचिव डा0 गिरीश ने 17 से 21 सितंबर तक काठमांडू में संपन...
-
उठ जाग ओ भूखे बंदी, अब खींचो लाल तलवार कब तक सहोगे भाई, जालिम अत्याचार तुम्हारे रक्त से रंजित क्रंदन, अब दश दिश लाया रंग ये सौ बरस के बंधन, ...
-
भाकपा की राज्य कौंसिल बैठक शुरू भाकपा राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने जारी किया आन्दोलन का पोस्टर लखनऊ 18 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्...
-
चले चलो दिलों में घाव ले के भी चले चलो चलो लहूलुहान पांव ले के भी चले चलो चलो कि आज साथ-साथ चलने की जरूरतें चलो कि ख़त्म हो न जाएं जिन्द...
-
(विगत 26 अप्रेल 2013 को कॉमरेड अनिल राजिमवाले का व्याख्यान रायगढ़ इप्टा और प्रलेस के संयुक्त आयोजन में हुआ था। इसके बाद 27 तथा...
-
MANIFESTO OF PROGRESSIVE WRITERS ASSOCIATION ADOPTED IN THE FOUNDATION CONFERENCE 1936 Radical changes are taking place in India...
-
हरिशंकर परसाई की कहानियों में पात्र-वैविध्य की बात हम कर चुके हैं, इस वैविध्य का बहुत बड़ा कारण परिस्थितियां, उनसे जूझते चरित्र का निर्मित हो...