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सोमवार, 28 नवंबर 2011
at 5:39 pm | 0 comments |
Uttar Pradesh should not be divided
The demand
to divide Uttar Pradesh into separate states has been raised off and on for the
last two decades. But the bitter truth remains that such a demand has never
received popular support. There has been no movement in any part of the state;
only in Bundelkhand one has witnessed infrequent dharna’s, demonstrations and a
few meetings on the issue.
To be
honest, the division of Uttar Pradesh is not a peoples’ issue at all. Guided by
the whim of politicians the issue of division of Uttar Pradesh is periodically
raised merely to serve their selfish political goals.
The
latest attempt in this regard has been made by the BSP supremo Mayawati .It is
an open secret that during the last four and a half years her government has
miserably failed on every front. This move is an attempt on her part to
divert popular attention from her failures.
Looking
back we see that attempts have been made to divide the people in the name of
religion, then on caste and now a fresh effort to segregate them on
geographical lines in order to help the capitalist forces remain in command.
The
argument that smaller states accelerates the process of development
appears strange. Development depends on the political will of the ruling class
and the equitable distribution and utilization of resources across regions.
Merely carving out smaller states is definitely not enough.
To create
the very basic infrastructure in the newly created states and to run it
efficiently requires huge and recurring investment in infrastructure. As
corruption is most rampant in the creation of infrastructure, a sizable amount
of this money would be siphoned off in that direction.
In any case
such huge resources being diverted to set up the fresh infrastructure in these
new states would impact the availability of resources for the overall development
of the states.
If the newly
created state is backward and not able to raise sufficient resources then the
chances of it further falling back remains high. It remains dependent on
the central government’s largess. If the central government and state
government are not from the same party the political tussle between them would
be at the cost of development of the newly created state.
It is also
completely misleading to claim that industrialization would pick up pace with
the creation of smaller states. Under the neo liberal polices governments
are selling off the existing industries in the public sector. Under such
conditions the government is no where near promoting the setting up of new
industries in the government sector.
As
regards the private sector, entrepreneurs invest as per their priorities and
not as according to the requirements of the state. To attract investments
governments forcibly acquire land from farmers and hand it over at throw away
prices to industrialists to set up industries. After acquiring such land at
dirt cheap prices at times industries never come up or even if they do,
industries often closes down due to various reasons. The land is sold off as
real estate at huge profits. In the deal the farmer is left high and dry.
The rampant crony capitalism
witnessed in the recently created states of Uttrakhand, Jharkhand and
Chhattisgarh needs no recounting. The unscrupulous nexus between politicians –
capitalists and middlemen has led to the open loot of the state’s precious
resources – both natural and man made.
Such
capitalists find it easier to ‘manage’ the governments of these smaller states.
Controlling the numerically small vidhan sabhas on the strength of their money
power is relatively easier just as pushing through legislations which go in
their favour.
In such a
manner the mineral resources, land and forest resources of these smaller states
have become vulnerable to the whims and fancies of such crony capitalism.
Correspondingly
the strength of the people’s movement to raise their voice against such a
collective sell off diminishes after divisions. For such crony capitalist
forces convenient division of states serves the purpose of further decimating
the voice of the struggling people fighting for justice and their rights over
resources.
Uttar
Pradesh now a state of close to 20 crore people , plays a
politically significant role in the country’s polity. Every citizen
of Uttar Pradesh is proud of this fact. Many symbols of Hindu-Muslim’s
composite culture are visible all over the state.
A resident
of West Uttar Pradesh considers it an honor to visit places of religious
significance like Varanasi, Sarnath, Prayag, and Gorakhpur. Similarly, any one
from East Uttar Pradesh always wishes to visit the Taj Mahal, Mathura and
Jhansi.
The proposed
Bundelkhand, Purvanchal and Awadh Pradesh are relatively backward compared to
the prosperous Pashchim Pradesh. The revenue generated from the better off
region helps the development of the remaining parts. This is the natural equity
within the state. Disturbing this arrangement would make the new states
completely vulnerable and dependent on the generosity of the central
government.
Why should
the people of Uttar Pradesh pay for the idiosyncrasy and political ambitions of
a certain politician or political party? Why should the people suffer
from the additional burden of a division? The people should pledge not to
accept such a division at any cost.
- Dr Girish, Secretary.
CPI Uttar Pradesh
at 10:41 am | 0 comments |
खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति के खिलाफ 1 दिसम्बर को प्रस्तावित भारत बन्द को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा समर्थन
लखनऊ 28 नवम्बर। केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दिये जाने के खिलाफ खुदरा व्यापारियों के संगठनों के महासंघ (सीआरटीओ) द्वारा 1 दिसम्बर को भारत बंद का आह्वान किया गया है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस आह्वान का समर्थन करते हुए अपनी सभी पार्टी इकाईयों का आह्वान करती है कि वे इस बंद को सफल बनाने के लिए खुदरा व्यापारियों को हर सम्भव समर्थन और सहयोग दें।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि केन्द्र सरकार उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मुहैया होने, किसानों को बेहतर दाम मिलने, महंगाई पर नियंत्रण होने आदि के बहाने कर वालमार्ट, केयरफोर आदि बहुराष्ट्रीय निगमों को भारत में खुदरा व्यापार की अनुमति दे चुकी है जिससे लगभग साढ़े चार करोड़ लोगों के रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के इस कदम का विरोध करती है और इसके खिलाफ खुदरा व्यापारियों के हर संघर्ष में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके साथ कदम से कदम मिला कर उनका समर्थन करेगी।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने व्यापारियों को आगाह किया है कि उन राजनीतिक दलों - बसपा, सपा और भाजपा से होशियार रहें जो इस समय व्यापारियों के साथ दिखाई पड़ने का प्रयास कर रही हैं परन्तु सत्ता मिलने पर वे उन्हीं आर्थिक नीतियों पर चलती रहीं हैं जिन्हें संप्रग-दो की सरकार इस समय चला रही है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि केन्द्र सरकार उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मुहैया होने, किसानों को बेहतर दाम मिलने, महंगाई पर नियंत्रण होने आदि के बहाने कर वालमार्ट, केयरफोर आदि बहुराष्ट्रीय निगमों को भारत में खुदरा व्यापार की अनुमति दे चुकी है जिससे लगभग साढ़े चार करोड़ लोगों के रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के इस कदम का विरोध करती है और इसके खिलाफ खुदरा व्यापारियों के हर संघर्ष में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके साथ कदम से कदम मिला कर उनका समर्थन करेगी।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने व्यापारियों को आगाह किया है कि उन राजनीतिक दलों - बसपा, सपा और भाजपा से होशियार रहें जो इस समय व्यापारियों के साथ दिखाई पड़ने का प्रयास कर रही हैं परन्तु सत्ता मिलने पर वे उन्हीं आर्थिक नीतियों पर चलती रहीं हैं जिन्हें संप्रग-दो की सरकार इस समय चला रही है।
बुधवार, 23 नवंबर 2011
at 11:03 am | 1 comments |
उत्तर प्रदेश के लोगों द्वारा भीख मांगने का जिम्मेदार राहुल का परिवार
उन्होंने दावा किया कि भाकपा आगामी विधान सभा चुनावों में बहुत बेहतर करेगी। कांग्रेस, बसपा, सपा और भाजपा सभी को उत्तर प्रदेश के लोग मौका दे चुके हैं और मौका देने का खामियाजा भुगत रहे हैं। बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार ने राज्य की जनता में वामपंथ के प्रति रूझान पैदा किया है जिसका फायदा हमें अवश्य मिलेगा। आगामी विधान सभा में हमारे जो भी साथी चुने जायेंगे वे सभी जनता की आकांक्षाओं पर खरे उतरेंगे।
मंगलवार, 22 नवंबर 2011
at 7:00 pm | 0 comments | प्रदीप तिवारी
फासीवाद की ओर बढ़ती मायावती
21 नवम्बर 2011 को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की विधान सभा में जो कुछ भी हुआ, वह निहायत निन्दनीय है, संविधान की शरेआम बेइज्जती है और लोकतंत्र पर विश्वास रखने वालों के लिए बेहद चिन्तनीय है। विधान सभा में अध्यक्ष ने बिना चर्चा, बिना तर्क 70 हजार करोड़ के लेखानुदान तथा प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने के प्रस्ताव को 16 मिनटों के अन्दर ध्वनि मत से पारित घोषित कर दिया और सत्र को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया। देर रात कैबिनेट बाई सर्कुलेशन द्वारा सत्रावसान के प्रस्ताव को राज्यपाल की मंजूरी के लिए राजभवन भेज दिया। अगर यह कहा जाये कि विपक्ष ने भी सदन में सरकार को पूरा सहयोग दिया, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सपा और भाजपा के सदस्यों ने जिस प्रकार सदन शुरू होते ही वेल में जा कर हंगामा शुरू किया और जिस प्रकार उसे जारी रखा, उसे और कहा भी क्या जा सकता है। इसी अव्यवस्था ने विधान सभा अध्यक्ष को इस प्रकार संसदीय अव्यवस्था को अंजाम देने में मदद की।
संविधान निर्माताओं, जिसमें बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर भी शामिल थे, ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी कि उनके द्वारा बनाये जा रहे संविधान को लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी कोई राज्य सरकार इस प्रकार तार-तार कर देगी। अगर उन्हें जरा सा भी अंदाज रहा होता तो वे संविधान में इस प्रकार की अलोकतांत्रिक अव्यवस्था पर काबू पाने के प्राविधान संविधान में जरूर रखते।
लेखानुदान धन विधेयक होता है। उसे सदन से स्पष्ट बहुमत से पारित कराना अनिवार्य है। धन विधेयक पारित न कराने से सरकार गिर जाती है। विरोधी दल - सपा और भाजपा ने अलग-अलग अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर सरकार को स्पष्ट रूप से चुनौती दी थी कि वह विधान सभा में अपना बहुमत साबित करे। उनकी नजर बसपा के असंतुष्ट विधायकों पर थी। सदन में बसपा के 219 सदस्य हैं। सदन में इस समय 8 रिक्त स्थानों के साथ 395 सदस्य हैं। इस प्रकार सरकार को बहुमत साबित करने के लिए अथवा लेखानुदान को पारित कराने के लिए 198 सदस्यों के वोट की जरूरत थी। समाजवादी पार्टी ने राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन में टिकट कटने से 40 से अधिक विधायकों के बसपा के साथ न होने का दावा किया था।
संविधान में यह व्यवस्था रखी गयी थी कि विधान सभा की हर साल बैठक कम से कम 100 दिनां तक चलनी चाहिए। बाद में संविधान में परिवर्तन कर इसे 90 दिन कर दिया गया। 1962 में विधान सभा की बैठकें 103 दिनों तक चली थीं। उसके बाद से लोकतंत्र की धज्जियां सरकारों से बिखेरना शुरू कर दिया, शुरूआत में कांग्रेस ने, फिर जनता दल के शासन में, फिर भाजपा, सपा और बसपा के कार्यकालों में बैठकों की संख्या कम से कम होती चलीं गयीं। इस हमाम में प्रदेश के सभी विपक्षी दल नंगे खड़े हैं। बसपा ने तो इस बारे में अति कर दी। इस साल विधान सभा केवल 14 दिनों तक चली। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में 2008 में 27 दिन, 2009 में 13 दिन और 2010 में 21 दिन ही चली। इन बैठकों में सदन शायद ही कभी पूरे दिन चला हो। मुलायम सिंह और राज नाथ सिंह के कार्यकालों में भी विधान सभा कभी भी संविधान द्वारा नियत न्यूनतम बाध्यता 90 दिनों के एक तिहाई से ज्यादा नहीं चली। विधान मंडलों के सत्र छोटे से छोटे होते जाना संसदीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत हैं। इसके लिए कोई एक नहीं बल्कि प्रदेश के सभी बड़े राजनीतिक दल जिम्मेदार रहे हैं।
लेकिन 21 नवम्बर को जो कुछ भी हुआ, वह पराकाष्ठा है। यह संसदीय लोकतंत्र का गला घोटना है। इसमें तानाशाही ही नहीं वरन् फासीवाद की झलक दिखती है। चुनावों के ऐन बेला पर जनता को अवश्य सोचना चाहिए कि वह जिस पार्टी को मत देने जा रही है, कहीं वह उसके मत देने के अधिकार को ही जब्त करने की ओर तो नहीं बढ़ रही है। विधान मंडलों की घटती सत्र संख्या भी एक गम्भीर मुद्दा बन गया है।
- प्रदीप तिवारी
संविधान निर्माताओं, जिसमें बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर भी शामिल थे, ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी कि उनके द्वारा बनाये जा रहे संविधान को लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी कोई राज्य सरकार इस प्रकार तार-तार कर देगी। अगर उन्हें जरा सा भी अंदाज रहा होता तो वे संविधान में इस प्रकार की अलोकतांत्रिक अव्यवस्था पर काबू पाने के प्राविधान संविधान में जरूर रखते।
लेखानुदान धन विधेयक होता है। उसे सदन से स्पष्ट बहुमत से पारित कराना अनिवार्य है। धन विधेयक पारित न कराने से सरकार गिर जाती है। विरोधी दल - सपा और भाजपा ने अलग-अलग अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर सरकार को स्पष्ट रूप से चुनौती दी थी कि वह विधान सभा में अपना बहुमत साबित करे। उनकी नजर बसपा के असंतुष्ट विधायकों पर थी। सदन में बसपा के 219 सदस्य हैं। सदन में इस समय 8 रिक्त स्थानों के साथ 395 सदस्य हैं। इस प्रकार सरकार को बहुमत साबित करने के लिए अथवा लेखानुदान को पारित कराने के लिए 198 सदस्यों के वोट की जरूरत थी। समाजवादी पार्टी ने राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन में टिकट कटने से 40 से अधिक विधायकों के बसपा के साथ न होने का दावा किया था।
संविधान में यह व्यवस्था रखी गयी थी कि विधान सभा की हर साल बैठक कम से कम 100 दिनां तक चलनी चाहिए। बाद में संविधान में परिवर्तन कर इसे 90 दिन कर दिया गया। 1962 में विधान सभा की बैठकें 103 दिनों तक चली थीं। उसके बाद से लोकतंत्र की धज्जियां सरकारों से बिखेरना शुरू कर दिया, शुरूआत में कांग्रेस ने, फिर जनता दल के शासन में, फिर भाजपा, सपा और बसपा के कार्यकालों में बैठकों की संख्या कम से कम होती चलीं गयीं। इस हमाम में प्रदेश के सभी विपक्षी दल नंगे खड़े हैं। बसपा ने तो इस बारे में अति कर दी। इस साल विधान सभा केवल 14 दिनों तक चली। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में 2008 में 27 दिन, 2009 में 13 दिन और 2010 में 21 दिन ही चली। इन बैठकों में सदन शायद ही कभी पूरे दिन चला हो। मुलायम सिंह और राज नाथ सिंह के कार्यकालों में भी विधान सभा कभी भी संविधान द्वारा नियत न्यूनतम बाध्यता 90 दिनों के एक तिहाई से ज्यादा नहीं चली। विधान मंडलों के सत्र छोटे से छोटे होते जाना संसदीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत हैं। इसके लिए कोई एक नहीं बल्कि प्रदेश के सभी बड़े राजनीतिक दल जिम्मेदार रहे हैं।
लेकिन 21 नवम्बर को जो कुछ भी हुआ, वह पराकाष्ठा है। यह संसदीय लोकतंत्र का गला घोटना है। इसमें तानाशाही ही नहीं वरन् फासीवाद की झलक दिखती है। चुनावों के ऐन बेला पर जनता को अवश्य सोचना चाहिए कि वह जिस पार्टी को मत देने जा रही है, कहीं वह उसके मत देने के अधिकार को ही जब्त करने की ओर तो नहीं बढ़ रही है। विधान मंडलों की घटती सत्र संख्या भी एक गम्भीर मुद्दा बन गया है।
- प्रदीप तिवारी
at 6:57 pm | 0 comments |
उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं होना चाहिये
उत्तर प्रदेश को बांटकर अलग राज्य बनाने की मांग लगभग 2 दशक से चलती आ रही है। लेकिन कड़वा सच यह है कि इस मांग को जनता का बहुमत समर्थन कभी नहीं मिला। किसी भी हिस्से में कोई बड़ा आन्दोलन भी नहीं चला, सिर्फ बुन्देलखण्ड को छोड़कर जहां जब तक छिटफुट धरने/प्रर्दशन/विचार गोष्ठियां होते रहते हैं।
सच पूछा जाये तो राज्य विभाजन जनता का मुद्दा है ही नहीं। यह राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा किया हुआ एक शिगूफा है, जिसे वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उछालते रहते हैं। अब ताजा प्रयास बसपा सुप्रीमो मायावती ने किया है। सभी जानते हैं कि वे गत साढ़े चार सालों में हर मोर्चे पर पूरी तरह विफल साबित हुई हैं। मायावती इससे आम लोगों का ध्यान बांटना चाहती हैं। पहले धर्म, फिर जाति और अब क्षेत्रीय आधार पर जनता को विभाजित कर पूंजीवादी ताकतें अपने को सत्ता केन्द्र पर काबिज रखना चाहती हैं। इसके लिए उन्हें राज्य का विभाजन एक अच्छा हथकंडा लगता है।
जहां तक यह तर्क कि क्षेत्रीय विकास के लिए छोटे राज्यों का होना आवश्यक है, एक बेहद भौंडा तर्क है। विकास राज्य सत्ता की इच्छा शक्ति और संसाधनों के सही बंटवारे तथा उसके उपयोग से होता है। छोटे राज्य बना देने मात्र से नहीं। विभाजित राज्यों के अलग-अलग प्रशासनिक ढ़ांचों को खड़ा करने और उन्हें चलाने में भारी धन व्यय होता है, जिससे बुनियादी विकास की धनराशि में कटौती हो जाती है। विकास के लिए आबंटित धन का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
विभाजित होने के बाद नया राज्य बना क्षेत्र यदि पिछड़ा है तो और भी पिछड़ जाता है। उसका अपना राजस्व पर्याप्त होता नहीं। वह अधिकाधिक केन्द्र की सहायता पर निर्भर रहता है। केन्द्र में एवं राज्य में यदि अलग-अलग दलों की सरकारें हों तो टकराव के चलते छोटे राज्य की उपेक्षा ही होती है।
यह कहना कि अलग राज्य बन जाने से औद्योगीकरण बढ़ जाएगा, कतई सच नहीं। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने की नीतियां चल रही हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र में किसी राज्य में नए उद्योग तो खुलने से रहे। निजी क्षेत्र के उद्यमों को उद्यमी अपनी प्राथमिकता से लगाते हैं। क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक नहीं। उद्योगपतियों को आकर्षित करने को सरकारें किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण करती हैं और उन्हें उद्योगपतियों को सौंप देती हैं। उद्योगपति कुछ दिन उस पर उद्योग चलाते हैं और बाद में जमीन की कीमत बढ़ जाने पर उसे बेच डालते हैं। किसान चंद पैसे पाकर जीवन भर को भूमिहीन हो जाता है।
सबसे बड़ी बात है हाल में बने छोटे राज्यों - उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है। पूंजी ओर पूंजीपतियों, राजनेताओं और दलालों द्वारा संसाधनों की खुली लूट जारी है। आम जनता और शोषित तबकों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बंटकर कमजोर हो गयी। पूंजीपतियों को छोटे राज्यों के सरकारों को मैनेज करना आसान होता है। दौलत के बल पर वे छोटी विधान सभा के बहुमत को काबू में कर लेते हैं और मनमाने फैसले करा लेते हैं। खनिज, भूमि, वन संपदा और विकास के धन को हड़प कर जाते हैं।
आज उत्तर प्रदेश, जोकि 17 करोड़ की आबादी वाला प्रदेश है, देश की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे उत्तर प्रदेश का हर नागरिक गौरव महसूस करता है। हिन्दू-मुसलिम साझी संस्कृति के तमाम प्रतीक उत्तर प्रदेश के आगोश में हैं। पश्चिम का वाशिंदा बनारस, सारनाथ, गोरखपुर, प्रयाग जाकर अपने को धन्य समझता है तो पूरब के वाशिंदे ताजमहल, मथुरा, झांसी का दीदार करते हैं। यह संयुक्त उत्तर प्रदेश की रंगत है।
उत्तर प्रदेश का बुन्देलखंड, पूर्वांचल एवं मध्य का भू-भाग पिछड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल है। उसके द्वारा अदा किए गए राजस्व से इन पिछड़े क्षेत्रों के विकास का पहिया घूमता है। यह प्रदेश के अंदर एक स्वाभाविक समाजवाद है। इसे तोड़कर हम इन अपेक्षाकृत पिछड़े क्षेत्रों को क्यों केन्द्र का मोहताज बनायें? किसी दल या नेता की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के औजार हम क्यों बनें? क्यों हम विभाजन की पीड़ा को अपने ऊपर थोपे? यह सब करने को हम तैयार नहीं हैं - यह उत्तर प्रदेश की जनता का संकल्प है।
सच पूछा जाये तो राज्य विभाजन जनता का मुद्दा है ही नहीं। यह राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा किया हुआ एक शिगूफा है, जिसे वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उछालते रहते हैं। अब ताजा प्रयास बसपा सुप्रीमो मायावती ने किया है। सभी जानते हैं कि वे गत साढ़े चार सालों में हर मोर्चे पर पूरी तरह विफल साबित हुई हैं। मायावती इससे आम लोगों का ध्यान बांटना चाहती हैं। पहले धर्म, फिर जाति और अब क्षेत्रीय आधार पर जनता को विभाजित कर पूंजीवादी ताकतें अपने को सत्ता केन्द्र पर काबिज रखना चाहती हैं। इसके लिए उन्हें राज्य का विभाजन एक अच्छा हथकंडा लगता है।
जहां तक यह तर्क कि क्षेत्रीय विकास के लिए छोटे राज्यों का होना आवश्यक है, एक बेहद भौंडा तर्क है। विकास राज्य सत्ता की इच्छा शक्ति और संसाधनों के सही बंटवारे तथा उसके उपयोग से होता है। छोटे राज्य बना देने मात्र से नहीं। विभाजित राज्यों के अलग-अलग प्रशासनिक ढ़ांचों को खड़ा करने और उन्हें चलाने में भारी धन व्यय होता है, जिससे बुनियादी विकास की धनराशि में कटौती हो जाती है। विकास के लिए आबंटित धन का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
विभाजित होने के बाद नया राज्य बना क्षेत्र यदि पिछड़ा है तो और भी पिछड़ जाता है। उसका अपना राजस्व पर्याप्त होता नहीं। वह अधिकाधिक केन्द्र की सहायता पर निर्भर रहता है। केन्द्र में एवं राज्य में यदि अलग-अलग दलों की सरकारें हों तो टकराव के चलते छोटे राज्य की उपेक्षा ही होती है।
यह कहना कि अलग राज्य बन जाने से औद्योगीकरण बढ़ जाएगा, कतई सच नहीं। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने की नीतियां चल रही हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र में किसी राज्य में नए उद्योग तो खुलने से रहे। निजी क्षेत्र के उद्यमों को उद्यमी अपनी प्राथमिकता से लगाते हैं। क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक नहीं। उद्योगपतियों को आकर्षित करने को सरकारें किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण करती हैं और उन्हें उद्योगपतियों को सौंप देती हैं। उद्योगपति कुछ दिन उस पर उद्योग चलाते हैं और बाद में जमीन की कीमत बढ़ जाने पर उसे बेच डालते हैं। किसान चंद पैसे पाकर जीवन भर को भूमिहीन हो जाता है।
सबसे बड़ी बात है हाल में बने छोटे राज्यों - उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है। पूंजी ओर पूंजीपतियों, राजनेताओं और दलालों द्वारा संसाधनों की खुली लूट जारी है। आम जनता और शोषित तबकों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बंटकर कमजोर हो गयी। पूंजीपतियों को छोटे राज्यों के सरकारों को मैनेज करना आसान होता है। दौलत के बल पर वे छोटी विधान सभा के बहुमत को काबू में कर लेते हैं और मनमाने फैसले करा लेते हैं। खनिज, भूमि, वन संपदा और विकास के धन को हड़प कर जाते हैं।
आज उत्तर प्रदेश, जोकि 17 करोड़ की आबादी वाला प्रदेश है, देश की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे उत्तर प्रदेश का हर नागरिक गौरव महसूस करता है। हिन्दू-मुसलिम साझी संस्कृति के तमाम प्रतीक उत्तर प्रदेश के आगोश में हैं। पश्चिम का वाशिंदा बनारस, सारनाथ, गोरखपुर, प्रयाग जाकर अपने को धन्य समझता है तो पूरब के वाशिंदे ताजमहल, मथुरा, झांसी का दीदार करते हैं। यह संयुक्त उत्तर प्रदेश की रंगत है।
उत्तर प्रदेश का बुन्देलखंड, पूर्वांचल एवं मध्य का भू-भाग पिछड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल है। उसके द्वारा अदा किए गए राजस्व से इन पिछड़े क्षेत्रों के विकास का पहिया घूमता है। यह प्रदेश के अंदर एक स्वाभाविक समाजवाद है। इसे तोड़कर हम इन अपेक्षाकृत पिछड़े क्षेत्रों को क्यों केन्द्र का मोहताज बनायें? किसी दल या नेता की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के औजार हम क्यों बनें? क्यों हम विभाजन की पीड़ा को अपने ऊपर थोपे? यह सब करने को हम तैयार नहीं हैं - यह उत्तर प्रदेश की जनता का संकल्प है।
सोमवार, 21 नवंबर 2011
at 6:34 pm | 0 comments |
Resolutions adopted by National Executive of Communist Party of India in its' meeting dated 19-20th November 2011
REVERSE DEREGULATION OF FUEL PRICES
The Congress led UPA II
Government has totally failed to contain inflation and to control the prices. Despite Parliament passing resolutions urging
the government to take adequate measures to contain inflation which continues
to have adverse impact on common people, the government has not acted
reasonably. On the other hand, the
government has gone ahead with deregulation of fuel prices and allowed oil
marketing companies to go for hiking the price of Petrol and Petroleum products
thirteen times in thirty months which led to cascading effect on prices. The
recent hike in the price of petrol was done at a time food inflation continued
to be high. The government is under
severe criticism for its insensitivity to the suffering of the common
people. In spite of Prime Minister talking
tough on decontrol and deregulation and the role of market, the government had
to announce roll back of petrol prices.
Government has done this roll back saying that international prices have
come down. This is an indication that
prices can be increased at any time in future.
The National
Executive of the Communist Party of India, therefore, demands that government
must reverse deregulation and decontrol of fuel prices in the interests of
common people.
PENSION FUND REGULATORY & DEVELOPMENT AUTHORITY
The National
Executive of the Communist Party of India strongly condemns the recent decision
of the Government to enact Pension Fund Regulatory and Development Authority
Bill. The Bill if passed will deprive
millions of government employees both in Centre as well as in States and in
autonomous bodies of their right to Pension after superannuation. These categories of the employees had been
enjoying this right since long times.
Even the Supreme Court of India has in a judgement laid down that
pension is not bounty or grace.
According to Court, it is a right.
The employees fear if Pension Fund Regulatory and Development Authority
Bill is enacted, the government may deny pension even to existing employees in
due course. The Central Government
Employees Trade Unions and other Central Trade Unions have therefore expressed
their strong opposition to this measure and demanded that the Bill be dropped.
What is worse, the Government of
India has completely acted contrary to the recommendations of the Parliamentary
Standing Committee of Ministry of Finance.
The proposed Bill has provision for putting pension funds in stock
market thereby undermining the safety of these funds. It is unethical and most deplorable attempt
on the part of the government to divert public funds for private profits. It is also deplorable that government has
decided to invite 26 per cent FDI in Pension Scheme.
The Communist
Party of India strongly opposes the move of the Government to enact this Bill
and to divert Pension Funds to stock market as it will be against the interests
of the workers and it will mobilize other democratic forces in the country in
order to defeat the government moves.
FDI IN MULTI-BRAND RETAIL TRADE
The National
Executive of the Communist Party of India vehemently condemns the UPA-II
government’s decision to allow FDI in Multi-brand Retail Trade. Already government has allowed entry of giant
retail MNCs, now it is opening it fully.
This will ruin the lives of millions of retail traders and people
engaged in the trade. They will be
deprived of their livelihood.
Besides, entry
of MNCs in the retail trade will have very disastrous impact on our economy as
a whole, particularly on inflation as MNCs will enjoy monopoly on retail trade.
The decision has
come in the wake of new spree of so-called “economic reforms” that is nothing
but selling the house silver to subsidise the corporate sector and undermine
our economic sovereignty to international finance capital.
The National
Executive of the Communist Party of India demands roll-back of the decision and
protect millions of Retail Traders.
SC SUB PLAN AND TRIBAL SUB PLAN
The National
Executive of the Communist Party of India expresses its serious concern at the
non-implementation of SC Sub Plan and Tribal Sub Plan by the Union and State
Governments in accordance with the guidelines of the Planning Commission. Union Government exempts several ministries
from earmarking funds for SC/ST Sub Plans.
State Governments do not earmark the required funds to these sub
plans. These funds are
non-lapsable. But in several states,
these funds are diverted for other purposes, as the Delhi Government diverted
these funds for Commonwealth games.
The National
Executive of the Communist Party of India, therefore demands that Union and
State governments to earmark funds for SC/ST Sub Plans and implement the
schemes for the welfare of SC and ST people who are fighting for their rights
and due share in the wealth created in the nation.
ON SYRIA
The National Executive of the Communist Party of India discussed the
present political developments in Arab region particularly situation in Syria
which is facing serious threats from all quarters of religious fundamentalists,
reactionary Arab regimes and from US imperialists and its allies the NATO.
Surrounded the hostile neighbours such as Turkey in the north, Israel in
the West, Jordon in the South and the US and NATO forces in Iraq in the east,
Syria is facing challenges from inside
and outside forces who want to implement their policy of “Regime Change”. The
present developments prove that the US and NATO are poised now to shift focus
from Arab North Africa to the Arab Levant to deal with the last obstacle Syria
to their regional hegemony.
The protests which started few months before for securing more democratic
rights and for political reforms was hijacked by the forces of fundamentalists
equipped with lethal weapons supplied by the neighbouring countries to escalate
violence. It is reported that the Syria approved series of new steps towards
political reforms and offered negotiations with the opposition but there was no
response. Use of army for a solution to the present problem isolated the Syrian
regime and gave opportunity to the Arab League to expel Syria as a pretext. The
aim of US and NATO is to repeat the same strategy that was used in Libya and if
successful then to follow it up against Iran as part of policy re-invent the region along
the lines of the ‘New Middle East’.
The National Executive of CPI condemns the decision of the Arab League
for o creating condition for external interference in the internal affairs of
Syria by violating its own Charter. The CPI expresses grave concern on the
present disturbance in Syria which jeopardizes the stability of the whole
region.
The National
Executive of CPI calls upon the present Syrian government to avoid military
solution of the present problem. They should take appropriate measures by
releasing political prisoners, initiate dialogue with the democratic forces in
the opposition, take further steps towards radical democratic changes to meet
the aspirations of the people and mobilize the common people to isolate religious
fundamentalist forces engaged in sectarian violence aiming at to destroy the
secular fabric of the their society and working for imperialist intervention in
Syria.
The National Executive of CPI calls upon the
people of India to stand firmly with the people of Syria in their difficult
hours and to expose US imperialists and their allies’ plan who are preparing
for intervention in Syria to destabilize the entire Middle East and other
areas.
शनिवार, 19 नवंबर 2011
at 8:10 pm | 0 comments | अनिल राजिमवाले
अक्टूबर क्रांति, इतिहास और भावी समाजवाद
7 नवंबर को हम फिर से एक बार हर वर्ष की तरह रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं। यह इतिहास की ऐसी असाधारण घटना है जिस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा है और आगे भी उस पर लिखा जाता रहेगा।
यह बार-बार दोहराया जा चुका है और फिर कहा जाना चाहिए कि रूसी क्रांति एक महान ऐतिहासिक घटना, एक महान क्रांति थी। रूसी क्रांति और महान नेता लेनिन से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हम उन्हें महान जरूर कहते हैं लेकिन उनका अध्ययन कितना करते हैं और उनसे कितना सीखते हैं इस पर हरेक व्यक्ति स्वयं ही विचार करे तो अच्छा रहेगा।
लेनिन: रूसी क्रांति के सिद्धांतकार लेनिन एक महान सिद्धांतकार थे जो मार्क्सवाद को नई मंजिलों पर ले गए। से साम्राज्यवादी युग के सिद्धांतकार माने जाते हैं। आजकल राजनीति में पढ़ने वालों की संख्या घटती जा रही है। स्वयं कम्युनिस्ट आंदोलन में मार्क्स और लेनिन के बारे में, उनकी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, लेकिन यह सब बिना यह जाने और पढ़े कि वास्तव में लेनिन ने क्या लिखा था और क्यों। उन्होंने न सिर्फ राजनीति, दर्शन और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया बल्कि अपने युग के सभी विज्ञानों का जहां तक हो सके गहन अध्ययन किया। मसलन उन्होंने 20वीं सदी के आरम्भ में रूस में कृषि में पंजीवाद के विकास संबंधी शोधकार्य किया और इसमें कई वर्ष लगाए। इसके लिए उन्होंने योरोप की लाइब्रेरियों में काफी समय बिताया। आजकल लाइब्रेरी में बैठने और किताबें पढ़ने का मजाक उड़ाया जाता है और कहा जाता है कि ”किताबें पढ़कर प्रोफेसर बनना है क्या? मैदान में जाओ और काम करो!“ उन्हें लेनिन से सीखने की आवश्यकता है। बिना इस प्रकार के अध्ययन के रूसी क्रांति संभव नहीं थी। लेनिन ने 1905-07 की प्रथम रूसी क्रांति की विफलता के बाद फिर गहन अध्ययन का सहारा लिया। इसी क्रांति के दौरान सोवियतों का जन्म हुआ था और इसी के दौरान जनवादी क्रांति की मंजिल का सिद्धांत उन्होंने अधिक ठोस रूप में विकसित किया।
लेनिन ने कई विषयों के अध्ययन के अलावा एटम संबंधी गहरी खोजों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस समय तक एटम अंतिम कण माना जाता था लेकिन तब उसके अंदर इलेक्ट्रान तथा अन्य कणों की खोज की गई। इसका दर्शन के लिए बड़ा महत्व था। इससे पदार्थ की असीम गहनता का पता चलता है। कई लोग फिर भी पूछेंगे कि इस एटम और दर्शन के अध्ययन का क्रांति तथा समाजवाद से क्या मतलब है? शायद लोग सोचे कि ठीक है, लेनिन को शौक होगा या अपना ”सामान्य ज्ञान“ बढ़ाने के लिए उन्होंने कुछ पढ़ लिया होगा। लेकिन बात ऐसी नहीं थी। एटम के खंडन ने दर्शन में तीव्र विवाद को जन्म दिया। दार्शनिकों के एक हिस्से ने इसे पदार्थवाद का खंडन माना क्योंकि एटम ‘खंडित’ हो गया था।
लेनिन ने भौतिकवाद के समर्थन में ‘एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म’ लिखा। उन्होंने साबित किया कि एटम के अंदर अन्य कणों एवं ऊर्जा स्रोतों की खोजों ने द्वंदात्मक भौतिकवाद को आगे विकसित किया है। उन्होंने अपने समय के सभी मुख्य वैज्ञानिक साहित्य, तथ्यों और खोजों का व्यापकता तथा गहराई से अध्ययन किया।
लेनिन ने यह कार्य इतना महत्वपूर्ण समझा कि उन्होंने इस पुस्तक के तुरन्त और बड़ी संख्या में प्रकाशन पर जोर दिया। पुस्तक ने उस समय के क्रांतिकारियों की दार्शनिक समझ स्पष्ट करने में बड़ी भूमिका अदा की।
साम्राज्यवाद का अध्ययन: रूस एक कमजोर कड़ी लेनिन साम्राज्यवादी युग के महान सिद्धांतकार थे। वे हॉब्सन और हिल्फरडिंग के सिद्धांतों को आगे ले गए। उन्होंने पंूजीवाद के विकास की नई मंजिल का विवेचन करते हुए साम्राज्यवाद का सिद्धान्त पेश किया जिसकी पांॅच विशेषताएं बताई।
साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से कई नतीजे निकलते हैं। इनमें क्रांति की जनवादी मंजिल महत्वपूर्ण है जिससे रूसी पार्टी में फूट पड़ गई और बोल्शेविक तथा मेंशेविक पार्टियां बनीं जो फिर कभी एक नहीं हो पाई। साम्राज्यवाद के बारे में भी उनमें गहरा मतभेद था। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद सैद्धांतिक थे, व्यक्तिगत नहीं।
औपनिवेशिक गुलाम देशों में आजादी की लड़ाई और उसके साथ रूसी क्रांतिकारियों की एकजुटता का सिद्धांत और व्यवहार भी इसी से विकसित हुआ। लेनिन ने साम्राज्यवाद- विरोधी मोर्चे का सिद्धांत पेश किया। लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में आर्थिक संकट के व्यवस्था के आम संकट में बदल जाने की ओर ध्यान दिलाया। साम्राज्यवाद ने विश्व अर्थव्यवस्था में असमान विकास को और भी तेज कर दिया तथा उसमें गुणात्मक परिवर्तन ला दिया।
इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण रूस में क्रांति की परिस्थितियांॅ पैदा हुई।
रूसी क्रांति के कारण 1917 की रूसी क्रांति के कारणों पर विचार करते हुए अक्सर ही एक महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी कर दी जाती है। लेनिन ने रूस को साम्राज्यवादी श्रंृखला की सबसे कमजोर कड़ी बताया। प्रथम विश्व युद्ध के आते-आते साम्राज्यवाद के सारे अंतर्विरोध तीखे होते गए और वे सबसे बढ़कर रूस पर केन्द्रित होते गए। यह रूसी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण था, हालांकि कई अन्य कारण भी थे।
प्रथम सफल मजदूर क्रांति रूसी क्रांति एक ऐसी मूलगामी सर्वहारा समाजवादी क्रांति थी जो साम्राज्यवादी युग में हुई। साथ ही इसमें जनवादी क्रांति के शक्तिशाली तत्व थे। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। लेनिन ने समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए व्यापक एवं गहन जनवादी क्रांति की जरूरत पर जोर दिया। इसलिए उन्होंने क्रांति ‘नई अर्थनीति’ या ‘नेप’ अपनाया। आज रूसी क्रांति के पतन के कारणों के संदर्भ में लेनिन की इन रचनाओं पर अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
लेनिन ने रूसी क्रांति के फरवरी (मार्च) और अक्टूबर (नवम्बर) 1917 के बीच क्रांति के उतार-चढ़ावों, टेढ़े-मेढ़े रास्तों और डाइलेक्टिक्स पर जो लिखा है वह गंभीरता से पढ़ने लायक है। वह क्रांति के आंतरिक द्वन्द्व को दर्शाता है। पार्टी और सोवियतों के बीच संबंधों, क्रांति के शांतिपूर्ण और हथियारबंद मार्गो तथा तरीकों, सत्ता के बदलते स्वरूपों इत्यादि पर ये लेख अत्यंत ही शिक्षाप्रद है।
लेनिन ने अप्रैल, 1917 में एक असाधारण लेख लिखा जो ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है। वैसे जब क्रांति जोरों पर थी तो लेनिन सेंट पीटर्सबर्ग या पेट्रोग्राड (बाद में लेनिनग्राड) के बाहर एक कोने में बैठकर ‘राज्य और क्रांति’ नामक पुस्तक लिख रहे थे। इस पर उनके साथ रह रहे साथी को आश्चर्य हुआ था कि वे ऐसे उथल-पुथल के समय शांत भाव से ‘लिख’ क्यों रहे हैं?
‘अप्रैल थीसिस’ में लेनिन ने पहली बार ‘द्वैध सत्ता’ का सिद्धांत पेश किया था, अर्थात अब क्रांति किसी भी ओर जा सकती थी- जनता के हक में या राजतंत्र अथवा बड़े पूंजीपतियों के हक में। इसका कारण था सत्ता का दो हिस्सों में बंटना जो इतिहास की असाधारण घटना थी। आगे विकास इस पर निर्भर करता था कि सोवियत क्रांति का चरित्र पहचानती है या नहीं।
लेनिन और सोवियत सत्ता रूसी और सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जाना चाहिए। इतिहास में रूसी क्रांति के स्थान, योगदान और भूमिका को कोई मिटा नहीं सकता है। समाजवाद के निर्माण का यह पहला प्रयत्न था जिसने बहुत कुछ हासिल किया। आज साम्राज्यवादी शक्तियां रूसी क्रांति और उसके योगदान को न सिर्फ विकृत कर रही है बल्कि उसे मिटाने की कोशिश कर रही हैं यहां तक कि वे द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की भूमिका को तोड़-मरोड़ रही है।
सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के साथ-साथ हमें उसकी कमियों का भी ख्याल करना चाहिए ताकि भविष्य में बेहतर समाजवाद का निर्माण किया जा सके। इसके लिए इतिहास से और स्वयं लेनिन से सीखने की जरूरत है। क्रांति के बाद 1924 की जनवरी में अपनी मृत्यु तक लेनिन सोवियत सत्ता में नकारात्मक रूझानों के प्रति बड़े ही सचेत और चिंतित थे। उनकी चुनी हुई रचनाओं (‘सेलेक्टेड वर्क्स’) के तीसरे खंड का यदि गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने सोवियत सत्ता में नौकरशाही के बढ़ते रूझान का बार-बार विरोध किया है। अपनी रचना ”आन कोआपरेशन“ (सहयोग के बारे में) में उन्होंने जनतंत्र पर जोर दिया है। रोजा लक्सेम्वर्ग (सुप्रसिद्ध जर्मन कम्युनिस्ट नेता) तथा स्वयं लेनिन इस तथ्य की आलोचना कर रहे थे कि सोवियतों की सत्ता वास्तव में पार्टी की सत्ता बनती जा रही थी। लेनिन ने सत्ता को जनतांत्रिक और जन आधारित बनाने की पूरी कोशिश की।
केन्द्रीकरण: समाजवाद-विरोधी 1922 में लेनिन की मर्जी के खिलाफ स्तालिन को पार्टी का महासचिव बनाया गया। उस वक्त महासचिव का पद ज्यादा महत्व का नहीं होता था लेकिन जल्द ही वह महत्व का बन गया और बात गंभीर हो गई, जैसा कि लेनिन ने पूर्वानुमान लगाया था। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार स्तालिन को हटाने की मांग की। यह तथ्य लेनिन की संकलित रचनाआंे में मिल जाते हैं।
लेनिन की मृत्यु (जनवरी, 1924) के बाद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की। लेकिन साथ ही एक अत्यंत नकारात्मक और घातक रूझान भी पैदा हुई जो ‘स्तालिनवाद’ के नाम से जानी जाती है। यहां हम स्थान की कमी के कारण उस पर विस्तार से चर्चा नहीं कर पायेंगे। इतना कहना ही काफी होगा कि लेनिन का अंदेशा सही निकला। अतिकेन्द्रीकृत नौकरशाही और एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता के केन्द्रीकरण समाजवाद के लिए न सिर्फ हानिकारक है बल्कि घातक भी। सोवियत संघ के पतन के कारणों में यह भी है। इसलिए इससे बचने की आवश्यकता है।
समाजवाद, जनतंत्र और तकनीकी क्रांति का युग पिछले लगभग तीन दशकों में विश्व मंे भारी परिवर्तन हुए हैं और कई मायनों में वे गुणात्मक परिवर्तन है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में केन्द्रीकृत समाजवादी सत्ताओं का पतन हो गया। इनसे गंभीरता से सीख लेने की आवश्यकता है। जहांॅ रूसी क्रांति ने समाजवाद की प्रथम मिसाल पेश की, वहीं यह भी सिखाया कि समाजवाद के निर्माण में नकारात्मक तरीके नहीं अपनाए जा सकते हैं, समाजवाद का निर्माण गलत तरीकों से नहीं हो सकता। समाजवाद और कम्युनिज्म का ध्येय आज भी बरकरार है लेकिन उनकी ओर बढ़ने के तरीके एवं मार्ग बदल गए हैं। यहांॅ भी लेनिन से सीखने की जरूरत है उन्होंने बारम्बार दूसरे देशों से रूसी क्रांति का रास्ता नहीं अपनाने, उसकी नकल नहीं करने की अपील की थी और चेतावनी दी थी।
इतना स्पष्ट है कि आप बिना जनतंत्र के समाजवाद का रास्ता नहीं अपना सकते। आज की सूचना क्रांति के युग में यह बात और भी उजागर हो उठती है। सूचना और तकनीकी क्रांति वर्गों और व्यक्तियों को अधिक जनतांत्रिक बनाती हैं, उनके हाथों में जनतांत्रिक माध्यम पेश करती है। पिछले दो-तीन दशकों में हमारी आंखों के सामने सूचना तकनीकी क्रांति का असाधारण प्रसार हुआ है। क्या समाजवादी शक्तियां इनका पूरा इस्तेमाल कर रही हैं? इसके अलावा बाजार की शक्तियों का भी बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ है। भविष्य में समाजवाद में बाजार समाप्त करने का नहीं, बल्कि बाजार के जनवादीकरण का प्रश्न होगा। आज वियतनाम, चीन, क्यूबा, लैटिन अमरीकी देशों के सामने यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।
समाज और मजदूर वर्ग की बदलती संरचना और समाजवाद खेद का विषय है कि इस प्रश्न पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। रूसी क्रांति के समय खास तरह का मजदूर वर्ग था और एक अलग किस्म की सामाजिक संरचना थी। आज के मजदूर वर्ग की संरचना (ढांचा) बदल रही है। सूचना और सेवा में कार्यरत श्रमिकों की संख्या तथा प्रतिशत बढ़ रहा है। इसके अलावा समाज की भी संरचना तेजी से बदल रही है, खासतौर पर उसका शहरीकरण हो रहा है जिसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं।
इसलिए भावी सामाजिक परिवर्तनों और समाजवाद को इन बदली परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ेगा। रूसी क्रांति के रास्ते और तौर-तरीकों को छोड़ना होगा। आज लैटिन अमरीका के दर्जन से अधिक देशों में मूलगामी परिवर्तन चल रहे हैं। वे भले ही क्यूबा की प्रशंसा करते हों, उससे दोस्ती रखते हों लेकिन वे क्यूबा से बिल्कुल अलग रास्ता अपनाए हुए हैं। जब हम रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं तो एक और बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह यह कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के नियम समाजवाद पर भी लागू होते हैं, आज भी लागू हैं। यह महत्वपूर्ण पहलू रूस और पूर्वी योरप के शासक भूल गए थे। परिवर्तन, द्वन्द्व, अंतर्विरोध और उनका हल, निरंतर गति, नई और बदलती आवश्यकताएं एवं मांगें, विचारों- मतों का अंतर और द्वन्द्व, यहां तक कि खुला विरोध, समाजवाद का नई मंजिलों में पहुंॅचने, वस्तुगत नियम, संकट इत्यादि समाजवाद में भी होते हैं। समाजवाद में भी वस्तुगत परिस्थितियां ही निर्माण के तौर- तरीके तय करेंगी, पार्टी नहीं। पार्टी, अन्य संगठन मात्र माध्यम होंगे। सोवियत संघ में अक्सर ही यह बात भुलाकर वस्तुगत परिस्थितियों पर मनोवादी विचार थोपे गये थे। समाजवाद के अंतर्गत भी उत्पादन के साधनों और उत्पादन संबंधों के बीच टकराव चलता है। इनकी ओर भी स्वयं लेनिन ने कई बार ध्यान खींचा था।
भावी समाजवाद के संदर्भ में हमें रूसी क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से काफी कुछ सीखना है।
- अनिल राजिमवाले
यह बार-बार दोहराया जा चुका है और फिर कहा जाना चाहिए कि रूसी क्रांति एक महान ऐतिहासिक घटना, एक महान क्रांति थी। रूसी क्रांति और महान नेता लेनिन से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हम उन्हें महान जरूर कहते हैं लेकिन उनका अध्ययन कितना करते हैं और उनसे कितना सीखते हैं इस पर हरेक व्यक्ति स्वयं ही विचार करे तो अच्छा रहेगा।
लेनिन: रूसी क्रांति के सिद्धांतकार लेनिन एक महान सिद्धांतकार थे जो मार्क्सवाद को नई मंजिलों पर ले गए। से साम्राज्यवादी युग के सिद्धांतकार माने जाते हैं। आजकल राजनीति में पढ़ने वालों की संख्या घटती जा रही है। स्वयं कम्युनिस्ट आंदोलन में मार्क्स और लेनिन के बारे में, उनकी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, लेकिन यह सब बिना यह जाने और पढ़े कि वास्तव में लेनिन ने क्या लिखा था और क्यों। उन्होंने न सिर्फ राजनीति, दर्शन और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया बल्कि अपने युग के सभी विज्ञानों का जहां तक हो सके गहन अध्ययन किया। मसलन उन्होंने 20वीं सदी के आरम्भ में रूस में कृषि में पंजीवाद के विकास संबंधी शोधकार्य किया और इसमें कई वर्ष लगाए। इसके लिए उन्होंने योरोप की लाइब्रेरियों में काफी समय बिताया। आजकल लाइब्रेरी में बैठने और किताबें पढ़ने का मजाक उड़ाया जाता है और कहा जाता है कि ”किताबें पढ़कर प्रोफेसर बनना है क्या? मैदान में जाओ और काम करो!“ उन्हें लेनिन से सीखने की आवश्यकता है। बिना इस प्रकार के अध्ययन के रूसी क्रांति संभव नहीं थी। लेनिन ने 1905-07 की प्रथम रूसी क्रांति की विफलता के बाद फिर गहन अध्ययन का सहारा लिया। इसी क्रांति के दौरान सोवियतों का जन्म हुआ था और इसी के दौरान जनवादी क्रांति की मंजिल का सिद्धांत उन्होंने अधिक ठोस रूप में विकसित किया।
लेनिन ने कई विषयों के अध्ययन के अलावा एटम संबंधी गहरी खोजों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस समय तक एटम अंतिम कण माना जाता था लेकिन तब उसके अंदर इलेक्ट्रान तथा अन्य कणों की खोज की गई। इसका दर्शन के लिए बड़ा महत्व था। इससे पदार्थ की असीम गहनता का पता चलता है। कई लोग फिर भी पूछेंगे कि इस एटम और दर्शन के अध्ययन का क्रांति तथा समाजवाद से क्या मतलब है? शायद लोग सोचे कि ठीक है, लेनिन को शौक होगा या अपना ”सामान्य ज्ञान“ बढ़ाने के लिए उन्होंने कुछ पढ़ लिया होगा। लेकिन बात ऐसी नहीं थी। एटम के खंडन ने दर्शन में तीव्र विवाद को जन्म दिया। दार्शनिकों के एक हिस्से ने इसे पदार्थवाद का खंडन माना क्योंकि एटम ‘खंडित’ हो गया था।
लेनिन ने भौतिकवाद के समर्थन में ‘एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म’ लिखा। उन्होंने साबित किया कि एटम के अंदर अन्य कणों एवं ऊर्जा स्रोतों की खोजों ने द्वंदात्मक भौतिकवाद को आगे विकसित किया है। उन्होंने अपने समय के सभी मुख्य वैज्ञानिक साहित्य, तथ्यों और खोजों का व्यापकता तथा गहराई से अध्ययन किया।
लेनिन ने यह कार्य इतना महत्वपूर्ण समझा कि उन्होंने इस पुस्तक के तुरन्त और बड़ी संख्या में प्रकाशन पर जोर दिया। पुस्तक ने उस समय के क्रांतिकारियों की दार्शनिक समझ स्पष्ट करने में बड़ी भूमिका अदा की।
साम्राज्यवाद का अध्ययन: रूस एक कमजोर कड़ी लेनिन साम्राज्यवादी युग के महान सिद्धांतकार थे। वे हॉब्सन और हिल्फरडिंग के सिद्धांतों को आगे ले गए। उन्होंने पंूजीवाद के विकास की नई मंजिल का विवेचन करते हुए साम्राज्यवाद का सिद्धान्त पेश किया जिसकी पांॅच विशेषताएं बताई।
साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से कई नतीजे निकलते हैं। इनमें क्रांति की जनवादी मंजिल महत्वपूर्ण है जिससे रूसी पार्टी में फूट पड़ गई और बोल्शेविक तथा मेंशेविक पार्टियां बनीं जो फिर कभी एक नहीं हो पाई। साम्राज्यवाद के बारे में भी उनमें गहरा मतभेद था। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद सैद्धांतिक थे, व्यक्तिगत नहीं।
औपनिवेशिक गुलाम देशों में आजादी की लड़ाई और उसके साथ रूसी क्रांतिकारियों की एकजुटता का सिद्धांत और व्यवहार भी इसी से विकसित हुआ। लेनिन ने साम्राज्यवाद- विरोधी मोर्चे का सिद्धांत पेश किया। लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में आर्थिक संकट के व्यवस्था के आम संकट में बदल जाने की ओर ध्यान दिलाया। साम्राज्यवाद ने विश्व अर्थव्यवस्था में असमान विकास को और भी तेज कर दिया तथा उसमें गुणात्मक परिवर्तन ला दिया।
इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण रूस में क्रांति की परिस्थितियांॅ पैदा हुई।
रूसी क्रांति के कारण 1917 की रूसी क्रांति के कारणों पर विचार करते हुए अक्सर ही एक महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी कर दी जाती है। लेनिन ने रूस को साम्राज्यवादी श्रंृखला की सबसे कमजोर कड़ी बताया। प्रथम विश्व युद्ध के आते-आते साम्राज्यवाद के सारे अंतर्विरोध तीखे होते गए और वे सबसे बढ़कर रूस पर केन्द्रित होते गए। यह रूसी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण था, हालांकि कई अन्य कारण भी थे।
प्रथम सफल मजदूर क्रांति रूसी क्रांति एक ऐसी मूलगामी सर्वहारा समाजवादी क्रांति थी जो साम्राज्यवादी युग में हुई। साथ ही इसमें जनवादी क्रांति के शक्तिशाली तत्व थे। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। लेनिन ने समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए व्यापक एवं गहन जनवादी क्रांति की जरूरत पर जोर दिया। इसलिए उन्होंने क्रांति ‘नई अर्थनीति’ या ‘नेप’ अपनाया। आज रूसी क्रांति के पतन के कारणों के संदर्भ में लेनिन की इन रचनाओं पर अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
लेनिन ने रूसी क्रांति के फरवरी (मार्च) और अक्टूबर (नवम्बर) 1917 के बीच क्रांति के उतार-चढ़ावों, टेढ़े-मेढ़े रास्तों और डाइलेक्टिक्स पर जो लिखा है वह गंभीरता से पढ़ने लायक है। वह क्रांति के आंतरिक द्वन्द्व को दर्शाता है। पार्टी और सोवियतों के बीच संबंधों, क्रांति के शांतिपूर्ण और हथियारबंद मार्गो तथा तरीकों, सत्ता के बदलते स्वरूपों इत्यादि पर ये लेख अत्यंत ही शिक्षाप्रद है।
लेनिन ने अप्रैल, 1917 में एक असाधारण लेख लिखा जो ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है। वैसे जब क्रांति जोरों पर थी तो लेनिन सेंट पीटर्सबर्ग या पेट्रोग्राड (बाद में लेनिनग्राड) के बाहर एक कोने में बैठकर ‘राज्य और क्रांति’ नामक पुस्तक लिख रहे थे। इस पर उनके साथ रह रहे साथी को आश्चर्य हुआ था कि वे ऐसे उथल-पुथल के समय शांत भाव से ‘लिख’ क्यों रहे हैं?
‘अप्रैल थीसिस’ में लेनिन ने पहली बार ‘द्वैध सत्ता’ का सिद्धांत पेश किया था, अर्थात अब क्रांति किसी भी ओर जा सकती थी- जनता के हक में या राजतंत्र अथवा बड़े पूंजीपतियों के हक में। इसका कारण था सत्ता का दो हिस्सों में बंटना जो इतिहास की असाधारण घटना थी। आगे विकास इस पर निर्भर करता था कि सोवियत क्रांति का चरित्र पहचानती है या नहीं।
लेनिन और सोवियत सत्ता रूसी और सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जाना चाहिए। इतिहास में रूसी क्रांति के स्थान, योगदान और भूमिका को कोई मिटा नहीं सकता है। समाजवाद के निर्माण का यह पहला प्रयत्न था जिसने बहुत कुछ हासिल किया। आज साम्राज्यवादी शक्तियां रूसी क्रांति और उसके योगदान को न सिर्फ विकृत कर रही है बल्कि उसे मिटाने की कोशिश कर रही हैं यहां तक कि वे द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की भूमिका को तोड़-मरोड़ रही है।
सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के साथ-साथ हमें उसकी कमियों का भी ख्याल करना चाहिए ताकि भविष्य में बेहतर समाजवाद का निर्माण किया जा सके। इसके लिए इतिहास से और स्वयं लेनिन से सीखने की जरूरत है। क्रांति के बाद 1924 की जनवरी में अपनी मृत्यु तक लेनिन सोवियत सत्ता में नकारात्मक रूझानों के प्रति बड़े ही सचेत और चिंतित थे। उनकी चुनी हुई रचनाओं (‘सेलेक्टेड वर्क्स’) के तीसरे खंड का यदि गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने सोवियत सत्ता में नौकरशाही के बढ़ते रूझान का बार-बार विरोध किया है। अपनी रचना ”आन कोआपरेशन“ (सहयोग के बारे में) में उन्होंने जनतंत्र पर जोर दिया है। रोजा लक्सेम्वर्ग (सुप्रसिद्ध जर्मन कम्युनिस्ट नेता) तथा स्वयं लेनिन इस तथ्य की आलोचना कर रहे थे कि सोवियतों की सत्ता वास्तव में पार्टी की सत्ता बनती जा रही थी। लेनिन ने सत्ता को जनतांत्रिक और जन आधारित बनाने की पूरी कोशिश की।
केन्द्रीकरण: समाजवाद-विरोधी 1922 में लेनिन की मर्जी के खिलाफ स्तालिन को पार्टी का महासचिव बनाया गया। उस वक्त महासचिव का पद ज्यादा महत्व का नहीं होता था लेकिन जल्द ही वह महत्व का बन गया और बात गंभीर हो गई, जैसा कि लेनिन ने पूर्वानुमान लगाया था। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार स्तालिन को हटाने की मांग की। यह तथ्य लेनिन की संकलित रचनाआंे में मिल जाते हैं।
लेनिन की मृत्यु (जनवरी, 1924) के बाद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की। लेकिन साथ ही एक अत्यंत नकारात्मक और घातक रूझान भी पैदा हुई जो ‘स्तालिनवाद’ के नाम से जानी जाती है। यहां हम स्थान की कमी के कारण उस पर विस्तार से चर्चा नहीं कर पायेंगे। इतना कहना ही काफी होगा कि लेनिन का अंदेशा सही निकला। अतिकेन्द्रीकृत नौकरशाही और एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता के केन्द्रीकरण समाजवाद के लिए न सिर्फ हानिकारक है बल्कि घातक भी। सोवियत संघ के पतन के कारणों में यह भी है। इसलिए इससे बचने की आवश्यकता है।
समाजवाद, जनतंत्र और तकनीकी क्रांति का युग पिछले लगभग तीन दशकों में विश्व मंे भारी परिवर्तन हुए हैं और कई मायनों में वे गुणात्मक परिवर्तन है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में केन्द्रीकृत समाजवादी सत्ताओं का पतन हो गया। इनसे गंभीरता से सीख लेने की आवश्यकता है। जहांॅ रूसी क्रांति ने समाजवाद की प्रथम मिसाल पेश की, वहीं यह भी सिखाया कि समाजवाद के निर्माण में नकारात्मक तरीके नहीं अपनाए जा सकते हैं, समाजवाद का निर्माण गलत तरीकों से नहीं हो सकता। समाजवाद और कम्युनिज्म का ध्येय आज भी बरकरार है लेकिन उनकी ओर बढ़ने के तरीके एवं मार्ग बदल गए हैं। यहांॅ भी लेनिन से सीखने की जरूरत है उन्होंने बारम्बार दूसरे देशों से रूसी क्रांति का रास्ता नहीं अपनाने, उसकी नकल नहीं करने की अपील की थी और चेतावनी दी थी।
इतना स्पष्ट है कि आप बिना जनतंत्र के समाजवाद का रास्ता नहीं अपना सकते। आज की सूचना क्रांति के युग में यह बात और भी उजागर हो उठती है। सूचना और तकनीकी क्रांति वर्गों और व्यक्तियों को अधिक जनतांत्रिक बनाती हैं, उनके हाथों में जनतांत्रिक माध्यम पेश करती है। पिछले दो-तीन दशकों में हमारी आंखों के सामने सूचना तकनीकी क्रांति का असाधारण प्रसार हुआ है। क्या समाजवादी शक्तियां इनका पूरा इस्तेमाल कर रही हैं? इसके अलावा बाजार की शक्तियों का भी बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ है। भविष्य में समाजवाद में बाजार समाप्त करने का नहीं, बल्कि बाजार के जनवादीकरण का प्रश्न होगा। आज वियतनाम, चीन, क्यूबा, लैटिन अमरीकी देशों के सामने यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।
समाज और मजदूर वर्ग की बदलती संरचना और समाजवाद खेद का विषय है कि इस प्रश्न पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। रूसी क्रांति के समय खास तरह का मजदूर वर्ग था और एक अलग किस्म की सामाजिक संरचना थी। आज के मजदूर वर्ग की संरचना (ढांचा) बदल रही है। सूचना और सेवा में कार्यरत श्रमिकों की संख्या तथा प्रतिशत बढ़ रहा है। इसके अलावा समाज की भी संरचना तेजी से बदल रही है, खासतौर पर उसका शहरीकरण हो रहा है जिसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं।
इसलिए भावी सामाजिक परिवर्तनों और समाजवाद को इन बदली परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ेगा। रूसी क्रांति के रास्ते और तौर-तरीकों को छोड़ना होगा। आज लैटिन अमरीका के दर्जन से अधिक देशों में मूलगामी परिवर्तन चल रहे हैं। वे भले ही क्यूबा की प्रशंसा करते हों, उससे दोस्ती रखते हों लेकिन वे क्यूबा से बिल्कुल अलग रास्ता अपनाए हुए हैं। जब हम रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं तो एक और बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह यह कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के नियम समाजवाद पर भी लागू होते हैं, आज भी लागू हैं। यह महत्वपूर्ण पहलू रूस और पूर्वी योरप के शासक भूल गए थे। परिवर्तन, द्वन्द्व, अंतर्विरोध और उनका हल, निरंतर गति, नई और बदलती आवश्यकताएं एवं मांगें, विचारों- मतों का अंतर और द्वन्द्व, यहां तक कि खुला विरोध, समाजवाद का नई मंजिलों में पहुंॅचने, वस्तुगत नियम, संकट इत्यादि समाजवाद में भी होते हैं। समाजवाद में भी वस्तुगत परिस्थितियां ही निर्माण के तौर- तरीके तय करेंगी, पार्टी नहीं। पार्टी, अन्य संगठन मात्र माध्यम होंगे। सोवियत संघ में अक्सर ही यह बात भुलाकर वस्तुगत परिस्थितियों पर मनोवादी विचार थोपे गये थे। समाजवाद के अंतर्गत भी उत्पादन के साधनों और उत्पादन संबंधों के बीच टकराव चलता है। इनकी ओर भी स्वयं लेनिन ने कई बार ध्यान खींचा था।
भावी समाजवाद के संदर्भ में हमें रूसी क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से काफी कुछ सीखना है।
- अनिल राजिमवाले
at 8:02 pm | 0 comments | जाहिद खान
फैसले का पैगाम
संदर्भ: वचाटी गांव के आदिवासियों को दो दशक के इंतजार के बाद इंसाफहमारे मुल्क में फरियादियों को समय पर अदालत से इंसाफ मिलना कितना मुश्किल भरा काम है, यह बात कई बार जाहिर हो चुकी है। गोया कि यदि पीड़ित परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है, तो उसकी लड़ाई और भी ज्यादा लंबी हो जाती है। इंसाफ के लिए उसे लंबा इंतजार करना पड़ता है। इंसाफ पाने के लिए ऐसा ही एक लंबा इंतजार, वचाटी गांव के आदिवासियों को करना पड़ा। तमिलनाडु में कृष्णगिरी जिले के वचाटी गांव में आदिवासी महिलाओं से बलात्कार, लूटपाट, हमले और दीगर तरह के जुल्म की वारदातें आज से 19 साल पहले हुई थी। दो दशक की पीड़ादायक प्रतीक्षा के बाद अब जाकर उन्हें इंसाफ मिला है। हाल ही में धर्मपुरी की एक विशेष अदालत ने साल 1992 के बहुचर्चित वचाटी मामले के 215 गुनहगारों को सजा सुनाई है। फैसले में वन महकमे के 126 कर्मियों, पुलिस के 84 और राजस्व महकमें के 5 कर्मियों को दोषी करार दिया गया। इस लंबे अरसे में पीड़ित परिवारों की कैसी मनोदशा रही होगी, इसका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते। साधनहीन आदिवासियों की यह लड़ाई, शासन के सबसे शक्तिशाली तबके पुलिस, वन और राजस्व महकमे के 2 सैकड़ा से ज्यादा अफसरों के खिलाफ थी जो कि किसी भी लिहाज से आसान नहीं थी। फिर भी उन्होंने आखिर तक अपनी हिम्मत नहीं हारी और इंसाफ पा ही लिया।
गौरतलब है कि इंसानियत को झिंझोड़ देने वाला यह लोमहर्षक मामला उस समय का है, जब चंदन तस्कर वीरप्पन की खोज में तमिलनाडु पुलिस और वन महकमे के लोग जंगल में जगह-जगह छापेमारी कर रहे थे। इसी सिलसिले में वचाटी गांव पहुंचे इस अमले ने वहां के आदिवासियों पर पूछताछ की आड़ में खुले आम कहर ढाया। पुलिस, वन और राजस्व महकमे के कोई पौने तीन सौ लोगों ने मिलकर वहां रहने वाले आदिवासियों को घरों से खींच-खींचकर जानवरों की तरह पीटा। यहां तक कि उनकी औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके घर तोड़ दिए गए। घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि पुलिसवालों ने 18 आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। अपनी वहशियाना हरकतों को सही साबित करने के लिए पुलिस ने उस वक्त कहा, इस गांव में गैरकानूनी तरीके से चंदन की लकड़ियों की तस्करी की जा रही थी और यह आदिवासी चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं। लेकिन इस इल्जाम के बावजूद पुलिस को यह हक कैसे हासिल हो जाता है कि वह बिना किसी पर दोष साबित हुए, उसके साथ अमानवीय और नियम- कायदों के खिलाफ पेश आए। सजा देना कानून का काम है, न कि पुलिस का।
बहराल, इंसाफ का तकाजा तो यह कहता था कि वचाटी गांव में आदिवासियों पर पुलिस के बर्बर अत्याचार के बाद, प्रशासन मुल्जिमों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करता। लेकिन हुआ इसके उलट। तत्कालीन सूबाई सरकार ने तमाम इल्जामों को खारिज करते हुए, वचाटी गांव के आदिवासियों को ही कसूरवार माना। उन पर इल्जाम लगाया कि वे चंदन लकड़ियों की तस्करी में मुब्तिला थे। तत्कालीन प्रशासन के हठधर्मी भरे रवैये का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मुद्दे पर वामपंथी पार्टियों के लगातार विरोध- प्रदर्शनों के बावजूद 3 साल तक इस घटना की एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। आखिर जांॅच तब शुरू हुई, जब 1995 में एक जनहित याचिका के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने इसकी जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी। सीबीआई जांॅच के बाद पूरा सच मुल्क के सामने आ गया। मामले की जांच कर रही सीबीआई ने 269 लोगों को आरोपी बनाते हुए अदालत में सभी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए थे, लेकिन मामले की 19 साल तक चले सुनवाई के दौरान 54 आरोपियों की मौत हो गई। जबकि 215 आरोपियों के खिलाफ सुनवाई जारी रही।
पुलिस के अत्याचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन की मुल्क में यह कोई पहली घटना नहीं है। बल्कि उनके द्वारा यह घिनौने कारनामे बार- बार दोहराए जाते हैं। अदालतों के तमाम आदेश और फटकारों के बाद भी पुलिस अपनी कार्यप्रणाली बिल्कुल नहीं सुधारती। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब छत्तीसगढ़ के दक्षिणी बस्तर में पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवानों ने आदिवासियों के तीन सौ से ज्यादा घरों को फूंका, लोगों की बड़ी बेरहमी से पिटाई की ओर उनकी औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया। यहांॅ भी अर्धसैनिक बल के जवानों ने उन्हीं दलीलों का सहारा लेकर अपने आप को सही साबित करने की कोशिश की, जिस तरह से वचाटी गांव की घटना के बाद वहां के पुलिसवालों ने की थी। अर्धसैनिक बल के जवानों का कहना था कि आदिवासी नक्सलियों से मिले हुए हैं और उनकी सहायता करते हैं। यानि, गलत को सही साबित करना, तो जैसे पुलिसवालों की फितरत मंें ही आ गया है। मुल्क के जो हिस्से बरसों से अलगाववाद, नक्सलवाद और दहशतगर्दी से जूझ रहे हैं, वहां अक्सर पुलिस व सुरक्षाबलों की कार्रवाई के दौरान मानवाधिकारों के बड़ी तादाद में उल्लंघन और वचाटी गांव जैसी घटनाओं की शिकायतें सामने आती हैं। मगर फिर भी हमारे सरकारें इन घटनाओं के जानिब असंवेदनशील बनी रहती हैं। उनकी प्राथमिकताओं में कभी यह बातें शामिल नहीं हो पाती कि किस तरह से पुलिस और सुरक्षा बलों का चेहरा मानवीय बनाया जाए। मीडिया में जब मामला उछलता है, तब जाकर वह कुछ सक्रिय होती है। लेकिन यह सक्रियता भी मामले को गोलमाल करने से ज्यादा कुछ नहीं होती। पहले घटना की जांच के लिए आयोग बनता है। फिर कुछ सालों के इंतजार के बाद आयोग की रिपोर्ट आती है और आखिर में जाकर रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर कोई अमल किए बिना उन्हें बिसरा दिया जाता है।
कुल मिलाकर, वचाटी मामले में आदिवासियों को यदि इंसाफ मिल सका तो यह सियासी, समाजी संगठनों की सक्रियता और न्यायपालिका के हस्तक्षेप का नतीजा है। गर सामूहिक दबाव नहीं बनता तो यह मामला भी दीगर मामलों की तरह कभी का रफा-दफा हो गया होता। देर से ही सही, धर्मपुरी की स्थानीय अदालत के फैसले के बाद मुल्क में हाशिए पर डाल दिए गए समूहों का यकीन निश्चित रूप से एक बार फिर हमारे न्यायपालिका पर बढ़ेगा। अदालत का ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें पहली बार इतनी बड़ी तादाद में पुलिसवालों और वनकर्मियों को सजा सुनाई गई है। लेकिन दोषी पुलिसवालों को सजा मिलने के बाद क्या अब हमें चुप बैठ जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। अब वक्त आ गया है कि सरकार पर, पुलिस सुधारों के लिए पूरे मुल्क में एक व्यापक दबाव बनाया जाए। क्योंकि, जब तलक पुलिस सुधार नहीं होंगे, तब तक न तो पुलिस की कार्यप्रणाली में बदलाव आएगा और न ही मानवाधिकारों की हिफाजत हो पाएगी।
गौरतलब है कि इंसानियत को झिंझोड़ देने वाला यह लोमहर्षक मामला उस समय का है, जब चंदन तस्कर वीरप्पन की खोज में तमिलनाडु पुलिस और वन महकमे के लोग जंगल में जगह-जगह छापेमारी कर रहे थे। इसी सिलसिले में वचाटी गांव पहुंचे इस अमले ने वहां के आदिवासियों पर पूछताछ की आड़ में खुले आम कहर ढाया। पुलिस, वन और राजस्व महकमे के कोई पौने तीन सौ लोगों ने मिलकर वहां रहने वाले आदिवासियों को घरों से खींच-खींचकर जानवरों की तरह पीटा। यहां तक कि उनकी औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके घर तोड़ दिए गए। घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि पुलिसवालों ने 18 आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। अपनी वहशियाना हरकतों को सही साबित करने के लिए पुलिस ने उस वक्त कहा, इस गांव में गैरकानूनी तरीके से चंदन की लकड़ियों की तस्करी की जा रही थी और यह आदिवासी चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं। लेकिन इस इल्जाम के बावजूद पुलिस को यह हक कैसे हासिल हो जाता है कि वह बिना किसी पर दोष साबित हुए, उसके साथ अमानवीय और नियम- कायदों के खिलाफ पेश आए। सजा देना कानून का काम है, न कि पुलिस का।
बहराल, इंसाफ का तकाजा तो यह कहता था कि वचाटी गांव में आदिवासियों पर पुलिस के बर्बर अत्याचार के बाद, प्रशासन मुल्जिमों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करता। लेकिन हुआ इसके उलट। तत्कालीन सूबाई सरकार ने तमाम इल्जामों को खारिज करते हुए, वचाटी गांव के आदिवासियों को ही कसूरवार माना। उन पर इल्जाम लगाया कि वे चंदन लकड़ियों की तस्करी में मुब्तिला थे। तत्कालीन प्रशासन के हठधर्मी भरे रवैये का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मुद्दे पर वामपंथी पार्टियों के लगातार विरोध- प्रदर्शनों के बावजूद 3 साल तक इस घटना की एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। आखिर जांॅच तब शुरू हुई, जब 1995 में एक जनहित याचिका के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने इसकी जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी। सीबीआई जांॅच के बाद पूरा सच मुल्क के सामने आ गया। मामले की जांच कर रही सीबीआई ने 269 लोगों को आरोपी बनाते हुए अदालत में सभी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए थे, लेकिन मामले की 19 साल तक चले सुनवाई के दौरान 54 आरोपियों की मौत हो गई। जबकि 215 आरोपियों के खिलाफ सुनवाई जारी रही।
पुलिस के अत्याचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन की मुल्क में यह कोई पहली घटना नहीं है। बल्कि उनके द्वारा यह घिनौने कारनामे बार- बार दोहराए जाते हैं। अदालतों के तमाम आदेश और फटकारों के बाद भी पुलिस अपनी कार्यप्रणाली बिल्कुल नहीं सुधारती। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब छत्तीसगढ़ के दक्षिणी बस्तर में पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवानों ने आदिवासियों के तीन सौ से ज्यादा घरों को फूंका, लोगों की बड़ी बेरहमी से पिटाई की ओर उनकी औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया। यहांॅ भी अर्धसैनिक बल के जवानों ने उन्हीं दलीलों का सहारा लेकर अपने आप को सही साबित करने की कोशिश की, जिस तरह से वचाटी गांव की घटना के बाद वहां के पुलिसवालों ने की थी। अर्धसैनिक बल के जवानों का कहना था कि आदिवासी नक्सलियों से मिले हुए हैं और उनकी सहायता करते हैं। यानि, गलत को सही साबित करना, तो जैसे पुलिसवालों की फितरत मंें ही आ गया है। मुल्क के जो हिस्से बरसों से अलगाववाद, नक्सलवाद और दहशतगर्दी से जूझ रहे हैं, वहां अक्सर पुलिस व सुरक्षाबलों की कार्रवाई के दौरान मानवाधिकारों के बड़ी तादाद में उल्लंघन और वचाटी गांव जैसी घटनाओं की शिकायतें सामने आती हैं। मगर फिर भी हमारे सरकारें इन घटनाओं के जानिब असंवेदनशील बनी रहती हैं। उनकी प्राथमिकताओं में कभी यह बातें शामिल नहीं हो पाती कि किस तरह से पुलिस और सुरक्षा बलों का चेहरा मानवीय बनाया जाए। मीडिया में जब मामला उछलता है, तब जाकर वह कुछ सक्रिय होती है। लेकिन यह सक्रियता भी मामले को गोलमाल करने से ज्यादा कुछ नहीं होती। पहले घटना की जांच के लिए आयोग बनता है। फिर कुछ सालों के इंतजार के बाद आयोग की रिपोर्ट आती है और आखिर में जाकर रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर कोई अमल किए बिना उन्हें बिसरा दिया जाता है।
कुल मिलाकर, वचाटी मामले में आदिवासियों को यदि इंसाफ मिल सका तो यह सियासी, समाजी संगठनों की सक्रियता और न्यायपालिका के हस्तक्षेप का नतीजा है। गर सामूहिक दबाव नहीं बनता तो यह मामला भी दीगर मामलों की तरह कभी का रफा-दफा हो गया होता। देर से ही सही, धर्मपुरी की स्थानीय अदालत के फैसले के बाद मुल्क में हाशिए पर डाल दिए गए समूहों का यकीन निश्चित रूप से एक बार फिर हमारे न्यायपालिका पर बढ़ेगा। अदालत का ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें पहली बार इतनी बड़ी तादाद में पुलिसवालों और वनकर्मियों को सजा सुनाई गई है। लेकिन दोषी पुलिसवालों को सजा मिलने के बाद क्या अब हमें चुप बैठ जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। अब वक्त आ गया है कि सरकार पर, पुलिस सुधारों के लिए पूरे मुल्क में एक व्यापक दबाव बनाया जाए। क्योंकि, जब तलक पुलिस सुधार नहीं होंगे, तब तक न तो पुलिस की कार्यप्रणाली में बदलाव आएगा और न ही मानवाधिकारों की हिफाजत हो पाएगी।
- जाहिद खान
शुक्रवार, 18 नवंबर 2011
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इब्सा बैठक
यूरोपीय संघ के अधिकांश देश गहराते आर्थिक संकट के कारण सरकार के दिवालियेपन और आर्थिक रूप से धराशायी होने के कगार पर है। वहांॅ उमड़े संकट के ये बादल उन विकासमान देशों तक भी पहुंॅचने लगे हैं जो मई, 2008 से शुरू भूमंडलीय मंदी के अभी तक कम ही शिकार हुए हैं। इन हालात ने ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को इब्सा (इंडिया, ब्राजील, साउथ अफ्रीका- आईबीएसए) के अंतर्गत एकजुट कर दिया है ताकि वे इस भूमंडलीय संकट पर अपेक्षाकृत अधिक वस्तुगत तरीके से अपना दृष्टिकोण तय कर सके। इस प्रकार जब लगातार गहराते आर्थिक संकट से पार पाने के लिए कोई आर्थिक योजना तय करने के लिए पेरिस में जी-20 की मीटिंग एक ही महीने के बाद होने वाली है तो भारत के प्रधानमंत्री और ब्राजील एवं दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपतियों की प्रिटोरिया शिखर बैठक का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। एक तरफ यूरोप के विकसित देश हैं और दूसरी तरफ इब्सा के देश और साथ ही रूस और चीन जैसे देश हैं। पेरिस में इब्सा को रूस और चीन के साथ तालमेल रखनी होगी जो उनसे साथ ‘ब्रिक्स’ (ब्राजील, इंडिया, चाइना, साउथ अफ्रीका) संगठन में शामिल हैं।
इब्सा के घोषणा पत्र में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के कामकाज पर चर्चा की गयी। पर वह वर्तमान आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों को नहीं छूता। यह सच है कि इन दोनों संगठनों पर विकसित देश या और अधिक सही कहंे तो अमरीका हावी है। वर्तमान आर्थिक संकट की जड़ में इन संस्थानों के जो नुस्खे जिम्मेदार हैं उनके बारे में घोषणा पत्र में कुछ भी नहीं कहा गया है। यह अब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वर्तमान भूमंडलीय संकट पंूजीवाद का चक्रीय आर्थिक संकट नहीं है बल्कि यह संकट उस अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा निर्दिष्ट नीतियों के थोपने के कारण पैदा हुआ है जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने मुनाफों को अधिकाधिक बढ़ाना और हर हथकंडे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना है। न सिर्फ इन देशों के लोग कर्ज आधारित तौर तरीकों से जीवन गुजारते हैं बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था भी उन कर्जों एवं बोर्डों पर आधारित हैं जिन्हें इस तरह के संकट में दुनिया को धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त ने बढ़ावा दिया है। संकट से पार पाने के लिए विकसित देशों ने दिवालिया हुए बैंकों और वित्त संस्थानों को बेलआउट पैकेज देने और धाराशायी होती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कमखर्ची के कदम (ऑस्टेरिटी मेजर्स) उठाने के तरीके अपनाये। पर इससे संकट पर पार पाना तो दूर रहा, संकट और अधिक गहरा गया। हाल के दिनों में अमरीका और यूरोप के 1500 के करीब शहरों में लोग जिस तरह इन तरीकों के विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं वह इन देशों को राजनैतिक संकट की दिशा में ले जायेगा। 17 सितम्बर को न्यूयार्क में शुरू हुआ ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ आंदोलन अब तेजी से नये इलाकांे में फैल रहा है। सुदूर पूर्व जापान तक में जन प्रतिरोध की आंधी चल रही है। ग्रीस, जो पहले ही आर्थिक दिवालियेपन और धराशायी होने के कगार पर हैं वहांॅ जबर्दस्त विरोध आंदोलन हो रहा है। सरकार ताकत के बल पर उसे दबाने की कोशिश कर रही है। इस सप्ताह इटली में भी हिंसा हुई। संभव है स्पेन, पुर्तगाल और फ्रांस दिवालियापन के अगले शिकार बनें। कुछ दिन तक को सरकार विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन को दबाने में कामयाब रह सकती है वह दिन दूर नहीं जब यह आंदोलन वर्ग युद्ध की प्रकृति हासिल कर ले। अभी अधिकांशतः ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त और दिशाविहीन हैं। जो ताकतें अन्ततः वर्ग संघर्ष की जीत में यकीन करती हैं जरूरत है कि वे आगे आयें और समय रहते इसे एक सही आकार दें।
इब्सा घोषणा पत्र में अरब जगत के संकट, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुर्नगठन जैसी प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनओं पर समन्वित कार्रवाई के बारे में बाते कहीं गयी हैं। उसमें सीरिया को एक मंत्री स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की बात भी कही गयी है ताकि अमरीका- ब्रिटेन- फ्रांस की तिकड़ी द्वारा लीबिया पर हमले की तरह की सीरिया पर किसी कार्रवाई को रोका जा सके। यहां तक तो ठीक है पर इब्सा देशों को खासकर भारत को उन नीतियांे पर ध्यान देना होगा जिन पर वह चल रहे हैं।
डा0 मनमोहन सिंह के तहत यूपीए- दो सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे उसके एजेंट संगठनों द्वारा निर्दिष्ट आर्थिक नव उदारवाद के नुस्खे को पूरी तरह हृदयंगम कर रखा है। यूपीए- दो सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तो आर्थिक नव उदारवाद के अपरिहार्य सह उत्पादों- इसकी बुराईयों की बातें करती हैं पर देश में उन्हीं विनाशकारी नीतियों पर बेशर्मी के साथ अमल करी हैं। मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोजगारी और अमीरों एवं गरीबांे के बीच बढ़ती असमानता- ये सभी चीजें आर्थिक नव उदारवाद के उत्पाद हैं। देश में ऐसी ताकतें हैं जो जनता के दिलों- दिमाग पर पकड़ रखने वाले भावनात्मक मुद्दों को उछालकर जनता का ध्यान इन बुराईयों के बुनियादी कारणों से हटाने की कोशिश करेंगे। इस किस्म की गुमराह करने वाली कोशिशों से सावधान रहना होगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने व्यापक स्तर पर भूख हड़ताल के अभियान का आह्वान किया है। अच्छा होगा हम आर्थिक नव उदारवाद, अधिकांशतः पूंजीवाद परस्त पार्टियां जिसके लिए प्रतिबद्ध हैं, के विरूद्ध और अधिक सतत एवं संगठित आंदोलन के लिए इस भूख हड़ताल से शुरूआत करें।
इब्सा के घोषणा पत्र में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के कामकाज पर चर्चा की गयी। पर वह वर्तमान आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों को नहीं छूता। यह सच है कि इन दोनों संगठनों पर विकसित देश या और अधिक सही कहंे तो अमरीका हावी है। वर्तमान आर्थिक संकट की जड़ में इन संस्थानों के जो नुस्खे जिम्मेदार हैं उनके बारे में घोषणा पत्र में कुछ भी नहीं कहा गया है। यह अब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वर्तमान भूमंडलीय संकट पंूजीवाद का चक्रीय आर्थिक संकट नहीं है बल्कि यह संकट उस अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा निर्दिष्ट नीतियों के थोपने के कारण पैदा हुआ है जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने मुनाफों को अधिकाधिक बढ़ाना और हर हथकंडे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना है। न सिर्फ इन देशों के लोग कर्ज आधारित तौर तरीकों से जीवन गुजारते हैं बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था भी उन कर्जों एवं बोर्डों पर आधारित हैं जिन्हें इस तरह के संकट में दुनिया को धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त ने बढ़ावा दिया है। संकट से पार पाने के लिए विकसित देशों ने दिवालिया हुए बैंकों और वित्त संस्थानों को बेलआउट पैकेज देने और धाराशायी होती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कमखर्ची के कदम (ऑस्टेरिटी मेजर्स) उठाने के तरीके अपनाये। पर इससे संकट पर पार पाना तो दूर रहा, संकट और अधिक गहरा गया। हाल के दिनों में अमरीका और यूरोप के 1500 के करीब शहरों में लोग जिस तरह इन तरीकों के विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं वह इन देशों को राजनैतिक संकट की दिशा में ले जायेगा। 17 सितम्बर को न्यूयार्क में शुरू हुआ ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ आंदोलन अब तेजी से नये इलाकांे में फैल रहा है। सुदूर पूर्व जापान तक में जन प्रतिरोध की आंधी चल रही है। ग्रीस, जो पहले ही आर्थिक दिवालियेपन और धराशायी होने के कगार पर हैं वहांॅ जबर्दस्त विरोध आंदोलन हो रहा है। सरकार ताकत के बल पर उसे दबाने की कोशिश कर रही है। इस सप्ताह इटली में भी हिंसा हुई। संभव है स्पेन, पुर्तगाल और फ्रांस दिवालियापन के अगले शिकार बनें। कुछ दिन तक को सरकार विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन को दबाने में कामयाब रह सकती है वह दिन दूर नहीं जब यह आंदोलन वर्ग युद्ध की प्रकृति हासिल कर ले। अभी अधिकांशतः ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त और दिशाविहीन हैं। जो ताकतें अन्ततः वर्ग संघर्ष की जीत में यकीन करती हैं जरूरत है कि वे आगे आयें और समय रहते इसे एक सही आकार दें।
इब्सा घोषणा पत्र में अरब जगत के संकट, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुर्नगठन जैसी प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनओं पर समन्वित कार्रवाई के बारे में बाते कहीं गयी हैं। उसमें सीरिया को एक मंत्री स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की बात भी कही गयी है ताकि अमरीका- ब्रिटेन- फ्रांस की तिकड़ी द्वारा लीबिया पर हमले की तरह की सीरिया पर किसी कार्रवाई को रोका जा सके। यहां तक तो ठीक है पर इब्सा देशों को खासकर भारत को उन नीतियांे पर ध्यान देना होगा जिन पर वह चल रहे हैं।
डा0 मनमोहन सिंह के तहत यूपीए- दो सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे उसके एजेंट संगठनों द्वारा निर्दिष्ट आर्थिक नव उदारवाद के नुस्खे को पूरी तरह हृदयंगम कर रखा है। यूपीए- दो सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तो आर्थिक नव उदारवाद के अपरिहार्य सह उत्पादों- इसकी बुराईयों की बातें करती हैं पर देश में उन्हीं विनाशकारी नीतियों पर बेशर्मी के साथ अमल करी हैं। मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोजगारी और अमीरों एवं गरीबांे के बीच बढ़ती असमानता- ये सभी चीजें आर्थिक नव उदारवाद के उत्पाद हैं। देश में ऐसी ताकतें हैं जो जनता के दिलों- दिमाग पर पकड़ रखने वाले भावनात्मक मुद्दों को उछालकर जनता का ध्यान इन बुराईयों के बुनियादी कारणों से हटाने की कोशिश करेंगे। इस किस्म की गुमराह करने वाली कोशिशों से सावधान रहना होगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने व्यापक स्तर पर भूख हड़ताल के अभियान का आह्वान किया है। अच्छा होगा हम आर्थिक नव उदारवाद, अधिकांशतः पूंजीवाद परस्त पार्टियां जिसके लिए प्रतिबद्ध हैं, के विरूद्ध और अधिक सतत एवं संगठित आंदोलन के लिए इस भूख हड़ताल से शुरूआत करें।
at 9:13 pm | 0 comments | सत्य नारायण ठाकुर
चार रुपये का मासिक पेंशन: योजना का कैसा मजाक?
चार रुपये का मासिक पेंशन: योजना का कैसा मजाक?
भारत सरकार हाल के दिनों में लगातार असंगठित मजदूरों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना का ढोल पीटती रही है। इसने नयी पेंशन योजना बनायी है, जिसमें कामगारों की योगदान राशि को निश्चित किया गया है, किंतु पेंशन कितना मिलेगा, इसका कोई आश्वासन नहीं है। नीचे कतिपय बीड़ी कामगारों की सूची और उन्हें मिलनेवाले पेंशन रकम उल्लिखित है, जिनसे पता चलता है कि कामगार पेंशन योजना 1995 के अंतर्गत किस प्रकार दृरिद्रों को मिलनेवाले पेंशन से भी कम मजदूरों का पेंशन निर्धारित किया गया है। उड़ीसा के बीड़ी मजदूर बिजली पटेल का पेंशन 4 रुपये मासिक निर्धारित किया गया है। क्या यह पेंशन योजना का मजाक नहीं है?
पेंशनरों के नाम पेंशन रकम पी एफ एकाउंट नंबर प्रदेश
बिजली पटेल 4/- ओआर438/705 उड़ीस
मल्लाम्मा 66/- एपी/5276/14950 आंध्र प्रदेश
के. राजेश्वरी 42/- एपी/5276/14903 आंध्र प्रदेश
इला बाई 42/- एपी/5276/14908 आंध्र प्रदेश
वेंकट लक्ष्मी 64/- एपी/5276/14944 आंध्र प्रदेश
इमाम बी 92/- एपी/5276/14932 आंध्र प्रदेश
वी. राजेश्वरी 55/- एपी/5276/14892 आंध्र प्रदेश
राजू 66/- एपी/5207/6640 आंध्र प्रदेश
वीरालक्ष्मी 54/- एपी/5276/14318 आंध्र प्रदेश
आरूधाम 47/- टीएन/8213/1549 तमिलनाडु
रामायी 93/- टीएन/8213/1522 तमिलनाडु
सागर 90/- टीएन 19844/91 तमिलनाडु
एम. मुरगन 72/- टीएन 21270/2634 तमिलनाडु
मुरगन 94/- टीएन 9627/98 तमिलनाडु
जय लक्ष्मी 69/- टीएन 23092/120 तमिलनाडु
मो. मेहबुबिया 134/- एपी/5276/14880 आंध्र प्रदेश
............... 116/- एपी/8213/1563 आंध्र प्रदेश
चौ. कट्टक्का 197/- एपी/5276/14953 आंध्र प्रदेश
एम. मल्लम्मा 114/- एपी/5276/14902 आंध्र प्रदेश
इंदराम 120/- टीएन 8213/1549 तमिलनाडु
सेमिउल्लाह 132/- टीएन 19844/132 तमिलनाडु
अल्लाबकश 163/- टीएन 18420/17 तमिलनाडु
एम. राजी 107/- टीएन 21270/279 तमिलनाडु
वी.पी. समराज 184/- टीएन 18787/94 तमिलनाडु
के. चेन्नप्पन 318/- टीएन 1270/2655 तमिलनाडु
के.पी. मणि 150/- टीएन 18657/988 तमिलनाडु
उपर्युक्त नाम केवल सांकेतिक उदाहरण है। अनुमान किया जाता है कि केवल बीड़ी मजदूरों की संख्या पांच लाख है, जिन्हें दो सौ रूपये मासिक के आस-पास पेंशन निर्धारित किया गया है।
- सत्य नारायण ठाकुर
भारत सरकार हाल के दिनों में लगातार असंगठित मजदूरों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना का ढोल पीटती रही है। इसने नयी पेंशन योजना बनायी है, जिसमें कामगारों की योगदान राशि को निश्चित किया गया है, किंतु पेंशन कितना मिलेगा, इसका कोई आश्वासन नहीं है। नीचे कतिपय बीड़ी कामगारों की सूची और उन्हें मिलनेवाले पेंशन रकम उल्लिखित है, जिनसे पता चलता है कि कामगार पेंशन योजना 1995 के अंतर्गत किस प्रकार दृरिद्रों को मिलनेवाले पेंशन से भी कम मजदूरों का पेंशन निर्धारित किया गया है। उड़ीसा के बीड़ी मजदूर बिजली पटेल का पेंशन 4 रुपये मासिक निर्धारित किया गया है। क्या यह पेंशन योजना का मजाक नहीं है?
पेंशनरों के नाम पेंशन रकम पी एफ एकाउंट नंबर प्रदेश
बिजली पटेल 4/- ओआर438/705 उड़ीस
मल्लाम्मा 66/- एपी/5276/14950 आंध्र प्रदेश
के. राजेश्वरी 42/- एपी/5276/14903 आंध्र प्रदेश
इला बाई 42/- एपी/5276/14908 आंध्र प्रदेश
वेंकट लक्ष्मी 64/- एपी/5276/14944 आंध्र प्रदेश
इमाम बी 92/- एपी/5276/14932 आंध्र प्रदेश
वी. राजेश्वरी 55/- एपी/5276/14892 आंध्र प्रदेश
राजू 66/- एपी/5207/6640 आंध्र प्रदेश
वीरालक्ष्मी 54/- एपी/5276/14318 आंध्र प्रदेश
आरूधाम 47/- टीएन/8213/1549 तमिलनाडु
रामायी 93/- टीएन/8213/1522 तमिलनाडु
सागर 90/- टीएन 19844/91 तमिलनाडु
एम. मुरगन 72/- टीएन 21270/2634 तमिलनाडु
मुरगन 94/- टीएन 9627/98 तमिलनाडु
जय लक्ष्मी 69/- टीएन 23092/120 तमिलनाडु
मो. मेहबुबिया 134/- एपी/5276/14880 आंध्र प्रदेश
............... 116/- एपी/8213/1563 आंध्र प्रदेश
चौ. कट्टक्का 197/- एपी/5276/14953 आंध्र प्रदेश
एम. मल्लम्मा 114/- एपी/5276/14902 आंध्र प्रदेश
इंदराम 120/- टीएन 8213/1549 तमिलनाडु
सेमिउल्लाह 132/- टीएन 19844/132 तमिलनाडु
अल्लाबकश 163/- टीएन 18420/17 तमिलनाडु
एम. राजी 107/- टीएन 21270/279 तमिलनाडु
वी.पी. समराज 184/- टीएन 18787/94 तमिलनाडु
के. चेन्नप्पन 318/- टीएन 1270/2655 तमिलनाडु
के.पी. मणि 150/- टीएन 18657/988 तमिलनाडु
उपर्युक्त नाम केवल सांकेतिक उदाहरण है। अनुमान किया जाता है कि केवल बीड़ी मजदूरों की संख्या पांच लाख है, जिन्हें दो सौ रूपये मासिक के आस-पास पेंशन निर्धारित किया गया है।
- सत्य नारायण ठाकुर
at 9:06 pm | 0 comments | - प्रदीप तिवारी
“समानुपातिक प्रतिनिधित्व” के बिना चुनाव सुधार बेमानी
भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बिल के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले अराजनैतिक आन्दोलन के बीच स्वयंभू सिविल सोसाईटी ने चुनाव-सुधारों के लिए आन्दोलन चलाने की चर्चा शुरू कर दी थी। इस आन्दोलन की मीमांसा एक बहुत गहन और उलझा हुआ विषय है। हम उनके विभिन्न आयामों की चर्चा समय-समय पर करते रहे हैं।
चुनाव सुधारों के लिए आन्दोलन चलाने का जिक्र करते समय जिन दो सुधारों को बहुत उछाला गया, वे थे - ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ यानी सभी उम्मीदवारों को खारिज करने तथा निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार। प्रथम दृष्टि में ये नारे बहुत लुभावने लगते हैं। चुनावों में व्याप्त तमाम बुराईयों पर चर्चा के बिना ही इन दो अधिकारों की मांग करना उचित नहीं है।
चुनावों के दौरान जनता का बड़ा हिस्सा अभी भी वोट डालने से कतराता है। बहुदलीय लोकतंत्र में तकनीकी बहुमत पाने वाला उम्मीदवार जीत जाता है। चुनावों के दौरान बहुबल, धनबल, जातिबल, धर्मबल जैसे तमाम फैक्टर्स काम करते हैं। चुनाव अभी तक इन्हें रोकने की व्यवस्था नहीं कर सका है। बहुदलीय लोकतंत्र की रक्षा करना इस देश के तमाम शोषित, वंचित नागरिकों के साथ-साथ इस देश के मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत जरूरी है। ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ के अधिकारों के परिणाम बहुत खतरनाक भी साबित हो सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था में ये लोकतंत्र को ही अस्थिर कर सकते हैं।
स्वयंभू सिविल सोसाइटी की हां में हां मिलाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने जय प्रकाश नारायण का नाम लेते हुए मतदाताओं को ‘राईट टू रिकाल’ यानी निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत करना भी शुरू कर दिया है। क्षेत्र का विकास न होने के नाम पर जनता को भड़का कर विपक्षी दल के सांसद अथवा विधायक के खिलाफ इस अधिकार का उपयोग सत्ताधारी राजनीतिक दल किस प्रकार कर सकता है, इस पर विचार की जरूरत है। इन चर्चाओं के मध्य लाल कृष्ण आडवाणी ने दबे स्वर में दो दलीय लोकतंत्र की बात भी की है, जोकि भारतीय लोकतंत्र के लिए और भारतीय जनता के लिए अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
इन आवाजों के बीच हमारी पुराने मांग ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ का कहीं जिक्र तक नहीं आया जबकि ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ के जरिये हम चुनावों में व्याप्त वर्तमान तमाम बुराईयों को दूर कर सकते हैं। इस व्यवस्था में चुनाव छोटे-छोटे क्षेत्रों में न होकर राष्ट्रीय स्तर पर अथवा राज्य स्तर पर होता है। चुनाव उम्मीदवार नहीं बल्कि राजनैतिक दल लड़ते हैं। चुनावों में न्यूनतम मत पाने वाले राजनैतिक दलों को उनके द्वारा प्राप्त मतों के अनुपात में अपने-अपने प्रतिनिधि संसद और विधान मंडल में भेजने का अधिकार मिलता है।
इस प्रणाली के जरिये हम गुण्डों यानी बाहुबलियों और भ्रष्टों यानी धनबलियों के चुनावों पर प्रभाव को समाप्त कर सकते हैं। खर्चीले हो चुके चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा निजी धन लगाने को इसके द्वारा रोका जा सकता है जो राजनीति में भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारक है। राजनैतिक दलों को हर तीसरा नामांकन महिला से करने की बाध्यता के द्वारा हम संसद और विधायिकाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त तथा दल-बदल से भी निपटा जा सकता है। इसके जरिये हम लोक सभा एवं विधान सभा को पांच सालों तक बनाये रख सकते हैं।
इस पद्धति में जनता राजनीतिक दलों से अपना हम बेहतर तरीके से मांग सकती है और खरे न उतरने वाले दलों को चुनावों में खारिज कर सकती है। इस पद्धति में चुनावों पर धार्मिक, जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय संकीर्णताओं का प्रभाव भी काफी कम हो जायेगा।
चूंकि चुनाव सुधारों पर चर्चा चल ही चुकी है तो हमें जनता के मध्य अपनी पुरानी मांग - ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ प्रणाली को लागू करने की बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए और इसकी अच्छाईयों तथा बुराईयों पर चर्चा का माहौल बनाना चाहिए। चुनाव सुधारों के कोलाहल में हमें अपनी आवाज को दबने से बचाना होगा। चुनावी
सुधार के लिए आन्दोलन हमें खुद शुरू करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
चुनाव सुधारों के लिए आन्दोलन चलाने का जिक्र करते समय जिन दो सुधारों को बहुत उछाला गया, वे थे - ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ यानी सभी उम्मीदवारों को खारिज करने तथा निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार। प्रथम दृष्टि में ये नारे बहुत लुभावने लगते हैं। चुनावों में व्याप्त तमाम बुराईयों पर चर्चा के बिना ही इन दो अधिकारों की मांग करना उचित नहीं है।
चुनावों के दौरान जनता का बड़ा हिस्सा अभी भी वोट डालने से कतराता है। बहुदलीय लोकतंत्र में तकनीकी बहुमत पाने वाला उम्मीदवार जीत जाता है। चुनावों के दौरान बहुबल, धनबल, जातिबल, धर्मबल जैसे तमाम फैक्टर्स काम करते हैं। चुनाव अभी तक इन्हें रोकने की व्यवस्था नहीं कर सका है। बहुदलीय लोकतंत्र की रक्षा करना इस देश के तमाम शोषित, वंचित नागरिकों के साथ-साथ इस देश के मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत जरूरी है। ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ के अधिकारों के परिणाम बहुत खतरनाक भी साबित हो सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था में ये लोकतंत्र को ही अस्थिर कर सकते हैं।
स्वयंभू सिविल सोसाइटी की हां में हां मिलाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने जय प्रकाश नारायण का नाम लेते हुए मतदाताओं को ‘राईट टू रिकाल’ यानी निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत करना भी शुरू कर दिया है। क्षेत्र का विकास न होने के नाम पर जनता को भड़का कर विपक्षी दल के सांसद अथवा विधायक के खिलाफ इस अधिकार का उपयोग सत्ताधारी राजनीतिक दल किस प्रकार कर सकता है, इस पर विचार की जरूरत है। इन चर्चाओं के मध्य लाल कृष्ण आडवाणी ने दबे स्वर में दो दलीय लोकतंत्र की बात भी की है, जोकि भारतीय लोकतंत्र के लिए और भारतीय जनता के लिए अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
इन आवाजों के बीच हमारी पुराने मांग ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ का कहीं जिक्र तक नहीं आया जबकि ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ के जरिये हम चुनावों में व्याप्त वर्तमान तमाम बुराईयों को दूर कर सकते हैं। इस व्यवस्था में चुनाव छोटे-छोटे क्षेत्रों में न होकर राष्ट्रीय स्तर पर अथवा राज्य स्तर पर होता है। चुनाव उम्मीदवार नहीं बल्कि राजनैतिक दल लड़ते हैं। चुनावों में न्यूनतम मत पाने वाले राजनैतिक दलों को उनके द्वारा प्राप्त मतों के अनुपात में अपने-अपने प्रतिनिधि संसद और विधान मंडल में भेजने का अधिकार मिलता है।
इस प्रणाली के जरिये हम गुण्डों यानी बाहुबलियों और भ्रष्टों यानी धनबलियों के चुनावों पर प्रभाव को समाप्त कर सकते हैं। खर्चीले हो चुके चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा निजी धन लगाने को इसके द्वारा रोका जा सकता है जो राजनीति में भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारक है। राजनैतिक दलों को हर तीसरा नामांकन महिला से करने की बाध्यता के द्वारा हम संसद और विधायिकाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त तथा दल-बदल से भी निपटा जा सकता है। इसके जरिये हम लोक सभा एवं विधान सभा को पांच सालों तक बनाये रख सकते हैं।
इस पद्धति में जनता राजनीतिक दलों से अपना हम बेहतर तरीके से मांग सकती है और खरे न उतरने वाले दलों को चुनावों में खारिज कर सकती है। इस पद्धति में चुनावों पर धार्मिक, जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय संकीर्णताओं का प्रभाव भी काफी कम हो जायेगा।
चूंकि चुनाव सुधारों पर चर्चा चल ही चुकी है तो हमें जनता के मध्य अपनी पुरानी मांग - ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ प्रणाली को लागू करने की बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए और इसकी अच्छाईयों तथा बुराईयों पर चर्चा का माहौल बनाना चाहिए। चुनाव सुधारों के कोलाहल में हमें अपनी आवाज को दबने से बचाना होगा। चुनावी
सुधार के लिए आन्दोलन हमें खुद शुरू करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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