भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

कृषि में कार्पोरेट को न्यौता

कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अकस्मात बदले हुए सरकारी रूख से जो चौंकाने वाली बात सामने आयी वह यह कि इसके बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले ही अपनी अमरीका यात्रा के समय वचन दे चुके थे कि वे पश्चिमी देशों के अनुकूल लचीला रवैया अपनायेंगे। इसी तरह जनता का आक्रोश ठंडा करने के लिए सरकार बीटी बैंगन के प्रश्न पर पीछे हट गयी दिखती हैं, किंतु वास्तविकता यह है कि पर्दे के पीछे अमरीका के साथ इसी दौर में गुपचुप वार्ता भी चलती रही है और निर्णय भी लिये गये हैं।मुखपृष्ठ पर ‘द हिंदू’ दैनिक में छपी खबर (24 फरवरी 2010) के मुताबिक अमरीका के साथ खाद्य सुरक्षा और कृषि में सहयोग का एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग का मसविदा तैयार हुआ है, जिसकी स्वीकृति केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने गत 18 फरवरी को दे दी है। समझौते के अनुसार अमरीकी कंपनियों को भारतीय कृषि क्षेत्र में प्रवेश का रास्ता सुगम किया जाएगा और कृषि विपणन में निजी निवेश की सरजमीं तैयार करने की अनुकूलता पैदा की जाएगी। इस संबंध में ठोस निर्णय अमरीकी और भारतीय कंपनियों की आगामी परस्पर वार्ताओं में लिया जायेगा। खाद्य सुरक्षा के मामलों में सरकारी स्तर पर और वार्ताएं होंगी। इस मेमोरेंडम आफ अंडरस्टैंडिंग का मसविदा भी नवम्बर 2009 में प्रधानमंत्री की अमरीका यात्रा के दौरान राष्ट्रपति ओबामा के साथ हुई बातचीत में बनी परस्पर सहमति की अग्रेतर कार्रवाई है। बहुराष्ट्रीय अमरीकी कंपनी कारगिल और मोसंतो के काले कारनामों और इनके किसानों के विरोध संघर्षों की याद अभी धूमिल नहीं पड़ी है कि सरकार ने पुराने घाव को फिर ताजा कर दिया है।मसविदे के अनुसार खा़द्य सुरक्षा संबंधी उन्नत तकनीकी ज्ञान का आदान-प्रदान और कृषि व्यापार में निजी निवेश की भागीदारी शामिल है। मौसम अनुमान, फसलों का उन्नत उत्पादन/प्रबंधन और विपणन आदि सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जायेगा। जाहिर है, भारतीय कृषि बाजार कब्जाने की यह गंभीर अमरीकी चाल है। इससे भारतीय किसानों को फायदा कुछ भी नहीं मिलने का, किंतु अमरीकी कंपनियां अपनी जरूरत के मुताबिक भारत भूमि को न केवल प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करेंगी, बल्कि भारतीय कृषि उत्पादन प्रक्रिया में नाजायज हस्तक्षेप भी करेंगे। भारत पर अमरीकी मार्का कार्पोरेटी कृषि प्रणाली लादी जायेगी और भारत की विकेन्द्रित कृषि व्यवस्था में कार्पोरेट मॉनोपाली का द्वार खुलेगा और परिणामस्वरूप किसान अपने ही खेतों में गुलामी करने को मजबूर होंगे।संसद में प्रस्तुत ताजा बजट इस बात का स्पष्ट संकेत है कि खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों का द्वार खोल दिया गया है। आयात किये जाने वाले सामानों पर मौजूदा कस्टम ड्यूटी को आधा से भी कम कर दिया गया है। इससे हमारे घरेलू बाजार में विदेशी माल आसानी से आयेंगे और भारतीय मालों के मुकाबले सस्ते बिकेंगे। पर यह सस्ता आगे महंगा पड़ेगा।संसद में प्रस्तुत वर्ष 2010-11 बजट प्रावधानों पर एक नजर डालने से स्पष्ट होता है कि कृषि पर किया गया आबंटन का बड़ा हिस्सा वेस्टेज कम करने और विपणन व्यवस्था पर है। यह आबंटन कृषि में कार्पोरेटी प्रवेश को लक्षित है और इसका इस्तेमाल बड़े पूंजीवाली करेंगे। बड़े व्यापारी अर्थात कार्पोरेट कोल्ड स्टोरेज, मालों की आवाजाही और उन्नत तकनीकी के प्रवेश के नाम पर बजट प्रावधानों को लूटेंगे।अमरीका के साथ किया गया मेमोरंडम ऑफ इंडरस्टैंडिंग भारतीय कृषि व्यवस्था को अमरीकी कंपनियों की मर्जी के हवाले करना है, जिसका दूरगामी विनाशकारी परिणाम अवश्यंभावी है।
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सरकारों की संवेदनहीनता के परिणामस्वरूप अब गेहूं किसानों के लूटने की बारी

किसी खाद्यान्न का न्यूनतम समर्थन मूल्य वह कीमत होती है जिस पर केन्द्र एवं राज्य सरकारें अपनी-अपनी एजेंसियों की मार्फत किसानों से सीधे उस खाद्यान्न की खरीदारी करती हैं। लेकिन अगर सरकार केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करें परन्तु उस मूल्य पर खाद्यान्न की खरीदारी न करें तो निश्चित रूप से बाजार कीमतों को निर्धारित करता है। बाजार में छोटे एवं मझोले किसानों तथा उन किसानों जिन्होंने साहूकारों या बैंकों से ऋण लेकर फसल उगाई है, के पास अपने कृषि उत्पाद को बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। वणिक वर्ग जितनी कीमतें कम कर सकता है, करता है और किसानों को लूटता है। ऐसा ही कुछ आज कल उत्तर प्रदेश के गेहूं किसानों के साथ हो रहा है। गेहूं का घोषित समर्थन मूल्य रू. 1,100.00 प्रति क्विंटल है।उत्तर प्रदेश की जनता के प्रति केन्द्रीय सरकार का सौतेलापन जारी है। उत्तर प्रदेश का भौगोलिक क्षेत्रफल पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों से बहुत ज्यादा है। पूरे प्रदेश में गेहूं की खेती होती है। प्रदेश के कुछ इलाकों की पैदावार पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों के बराबर है। राज्य में इस वर्ष गेहूं का अनुमानित उत्पादन 29.5 मिलियन टन हुआ है जो पूरे देश के गेहूं उत्पादन का लगभग 35 प्रतिशत होता है। केन्द्र सरकार इस साल उत्तर प्रदेश के किसानों से केवल 1 लाख टन गेहूं खरीदेगी जबकि संवेदनहीन राज्य सरकार केवल 39 लाख टन यानी दोनों सरकारें कुल मिला कर केवल 4.00 मिलियन टन गेहूं की खरीदारी करेंगी जबकि केन्द्र सरकार पंजाब से 115 लाख टन और हरियाणा से 70 लाख टन गेहूं की खरीदारी करेगी। उत्तर प्रदेश में कुल 71 जिलें हैं जबकि एफसीआई ने अब तक केवल 48 खरीद केन्द्र स्थापित किये हैं और राज्य सरकार ने क्या किया है, इसका पता उसे खुद नहीं है।परिणाम सामने है। पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान में खुले बाजार में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य रू. 1100.00 प्रति क्विंटल या इससे ज्यादा मिल रहा है जबकि गेहूं का आज का बाजार भाव सीतापुर, लखीमपुर, शाहजहांपुर, बरेली, हरदोई आदि स्थानों पर रू. 900.00 प्रति क्विंटल से रू. 950.00 प्रति क्विंटल है। पंजाब एवं हरियाणा की आटा मिलों के मालिक वहां पर गेहूं खरीदने के बजाय उत्तर प्रदेश का रूख कर चुके हैं जिसके कारण कीमतें कुछ अच्छी है वरना उत्तर प्रदेश सरकार और यहां के वणिकों का बस चलता तो इन कीमतों को कुछ और गिरा देते। पंजाब और हरियाणा की आटा मिलों के मालिकों को फायदा यह है कि ढुलाई की कीमत जोड़ने के बाद भी उन्हें लगभग रू. 200.00 प्रति क्विंटल की बचत हो रही है। किसान लुट रहा है। राज्य सरकार संवेदनहीन है। केन्द्र सरकार का सौतेलापन जारी है। क्या किसान इसके लिए खुद जिम्मेदार हैं? यह एक सवाल है जिसका जवाब तलाशना होगा।दूसरी ओर शहरों में ब्रांडेड आटा रू. 18.00 प्रति किलो से अधिक कीमत पर बिक रहा है जबकि स्थानीय आटा चक्कियों या आटा मिलों का आटा रू. 16.00 प्रति किलो या इससे अधिक कीमत पर ही बिक रहा है। उनकी कीमतों में कोई विशेष गिरावट नहीं आयी है।उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने एक समस्या है। आखिर वे क्या करें? जिस प्रकार तापमान ऊंचा उठ रहा है, आग लगने की घटनायें बढ़ती जा रही हैं। उच्च तापमान से गेहूं के खराब होने का भी खतरा है। स्टोरेज की कोई व्यवस्था उनके पास है नहीं। न बेचें तो कैसे ऋण अदा करें और कैसे अन्य खर्चों को पूरा करें।यह कोई नई बात नहीं है। उत्तर प्रदेश की जनता के साथ ऐसा सलूक बहुत सालों से होता आ रहा है। सवाल उठता रहा है, आज भी उठ रहा है - ”कोई तो सूद चुकाये, कोई तो जिम्मा ले, उस इंकलाब का जो आज तक उधार सा है।“
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कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है
मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है
तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है
सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है
जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है
हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है
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रोटी नहीं तो क्या शिक्षा का अधिकार तो है?

केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रभुत्व वाली सरकार को दुबारा बनने के बाद देश के शिक्षा परिदृश्य में लगातार कुछ नया घटित होता रहा है। कई बार परिदृश्य बहुत उत्तेजनापूर्ण होता नजर आया। शिक्षा के प्रति गहरी राजनैतिक संवेदनशीलता रखने वाली सरकारें तो पहले भी केन्द्र में सत्तासीन हुई है। उन्होंने प्रचलित शिक्षा को अपने तौर पर प्रभावित करने एवं उनमें खास तरह परिवर्तन भी किये, परन्तु वर्तमान सरकार शिक्षा के आधारभूत ढांचे में ही परिवर्तन की इच्छुक दिखाई दे रही हैै। हालांकि किसी भी पूंजीवादी धनाढ्य साधन सम्पन्न वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा को प्राथमिकता देने वाली सरकार के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं है। 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य एवम् मुफ्त करने के कानून से भी ऐसा ही आभास होता है। आजाद भारत के इतिहास की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसकी चर्चा लम्बे काल तक होगी। एक पुराने, बहुलता में देखे गये स्वप्न को साकार करने की दिशा में यह ठोस कार्यवाही की तरह है। जिसे हम वर्ममान सरकार की तथा भारत की गरीब जनता की बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं। अब कहने वाले तो कहेंगे ही कि रोटी पाने के अधिकार को अनिवार्य बनाये बिना अनिवार्य शिक्षा के लक्ष्य को किस सीमा तक प्राप्त किया जा सकेगा। आखिर बाल मजदूरी को समाप्त करने का कानून भी तो बना। उसका क्या हुआ? वह कितना प्रभावी हो पाया। करोड़ों बच्चे अब भी बाल श्रमिक के रूप में बारह से चौदह धंटों तक कठिन परिश्रम, कहीं-कहीं अमानवीय स्थितियों में काम करने को मजबूर हैं। काम के दौरान उनके यौन शोषण की भयावहता का अलग किस्सा है। स्त्रियों पर होने वाली घरेलू हिंसा के विरूद्ध भी कानून बना है, घरों में और बाहर भी स्त्रियां हिंसा से कितना मुक्त हुई हैं?जिन लोगों ने उर्दू के अति चर्चित कथाकार सआदत हसन मन्टो की कहानी ”नया कानून“ पढ़ी है, वे सजह ही यह अनुमान लगा सकते हैं कि कानूनों से क्या कुछ बदलता है, कितना बदलता है। इससे यह अर्थ नहीं लेना चाहिये कि बदलाव में कानून अथवा कानूनों की कोई भूमिका ही नहीं होती। कानूनों का अपना महत्व होता है, वे सामाजिक-प्रशासनिक गड़बड़ियों, अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों पर अंकुश भी लगाते हैं, वे बिगड़े हुए को सुधारते भी हैं। कहना केवल इतना है कि कानून साधन है, साध्य नहीं। परिवर्तन की, हालातों को सुधारने की समस्त शक्तियां एवं संभावनाएं उसमें अन्तर्निहित नहीं हैं। कानून कैसा है, यह एक स्थिति हो सकती है। अधिकांशतया कानून सकारात्मक परिणामों का लक्ष्य लेकर ही बनाये व लागू किये जाते हैं। शिक्षा को अनिवार्य एवं मुफ्त करने का कानून भी इसी नीयत व इरादे से बनाया गया लग सकता है। परन्तु जनता के बड़े हिस्सों को प्रभावित करने वाले किसी कानून की परिणामपरकता केवल इरादे की नेकी पर निर्भर नहीं करती। देखा यह जाता है कि इसके पीछे उपस्थित राजनैतिक इच्छाशक्ति कितनी सघन व आवेगमयी है तथा इस इच्छाशक्ति को प्रेरित करने वाली सामाजिक समझ कितनी यथार्थपरक है। सामाजिक यथार्थ को ठीक तरह समझे-जाने बिना कई बार अच्छे से अच्छे कानून भी भोतरे साबित होते हैं। कानूनों की असली परीक्षा होती है, उन्हें व्यवहार में लाने अथवा लागू करने की प्रक्रिया के दौरान। लागू करने वाले तंत्र में ही कानून लागू करने की इच्छा व नीयत न हो तो सरकारें घोषणा करती रहें, उनके ठेंगे से। जनता को सस्ता राशन देने, विधवा-वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा, गरीब छात्रों को वजीफा, गरीब लड़कियों की विवाह के लिए आर्थिक सहायता तथा दलितों एवं अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिये बनाये गये बहुत सारे कानून किसके लिए बड़ी सहायता का साधन साबित हो रहे हैं, वह किसी से छिपा हुआ तथ्य नहीं है। बाधाओं के और भी स्तर हैं, यहां विस्तार में जाने का अवसर नहीं है, भ्रष्टाचार, कामचोरी, धार्मिक, जातीय तथा स्थानीय धारणाओं को नजरअन्दाज भी कर दें तो भी तंत्र की अक्षमता एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ सकती है, ऊपर से साधनों का अभाव और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी, कारणवश सन्देह होता है कि अनिवार्य शिक्षा के कानून को लोकप्रियता हासिल करने की जल्दबाजी में बिना पर्याप्त सामाजिक, प्रशासनिक तैयारी के लागू किया गया है। इतने अच्छे, चिर प्रतीक्षित कानून के लिए जिस व्यापक सामाजिक जागरूकता तथा संवेदनशीलता को संभव करने की जरूरत थी, वह नहीं किया गया। राज्य सरकारों के दिलों को टटोलने तथा उन्हें पूरी तरह विश्वास में लेने, उनकी मंशा व इरादों को जानने की तरह प्रक्रिया भी नहीं अपनाई गयी। यदि सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों की कुल संख्या लगभग बाईस करोड़ है। जिनमें एक करोड़ से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जाते। बहुत से गरीबी के कारण, बहुत से परिवार में शिक्षा की चेतना न होने के कारण। काफी बच्चे इस कारण भी स्कूल नहीं जाते कि उनके माता-पिता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके बच्चे पढ़ कर करेंगे क्या? बहुत से माता पिता बच्चों को स्कूल भेजना चाहते हैं लेकिन सरकारों की कृपा से आस-पास कई मील तक स्कूल नहीं होते। ऐसे दलित व गरीब मुसलमान माता पिता भी होते हैं जो बच्चों को साक्षर बनाने की इच्छा के बावजूद स्कूल जाने से डरते या बचते हैं कि पता नहीं उनके बच्चों को स्कूल में दाखिला मिले या नहीं। कुछ इसलिए भी कि अध्यापक जी या अध्यापिका जी बच्चे से अपने घर का काम करवायेंगी।ये सारी बाधाएं थोड़े से प्रयासों से दूर की जा सकती हैं। सामाजिक संगठन एवम् जन संचार माध्यम शिक्षा के पक्ष में वातावरण बनाने में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। उन्हें दायित्व दिया जायेगा तो वो करेंगे भी लेकिन अगर सरकारें निर्धनता को दूर करने की दिशा में ठोस प्रयास नहीं करेगी यानी क्रान्तिकारी कदम नहीं उठायेंगी तो कोई कुछ कर ले, सबको शिक्षा के जरूरी लक्ष्य को प्राप्त कर पाना संभव नहीं होगा। साथ ही ‘अ’ से अनार और ‘ब’ से बन्दूक बताने वाली शिक्षा पद्धति को भी बदलना होगा।
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