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बुधवार, 13 जनवरी 2010

परसाई क पुनर्पाठ

यह दृश्य अधिकतर लोगों का देखा हुआ दृश्य है। लेकिन देखकर अनदेखा कर देना या भूल जाना सामान्य बात है। परसाई देखे हुए को परिभाषित करते हैं। सबसे कठिन काम है मूक भावों, मनोविकारों को पकड़ना और उन्हें दिखाना। परसाई के पास एक दृष्टि है, अनुभव है और दूसरों को भी वे अनुभव कराते हैं। उनकी भाषा, कहने का ढंग अनुभव की दूरी को पाटता है।
शहर में अगर कहीं वफा है...
वेद प्रकाश
एक बार जुआ खेलने के आरोप में मिर्जा गालिब को कैद हो गई। उन्होंने कैद में कविता लिखी। उस कविता का अभिप्राय है -
‘कैदियों ने मुझे सर-आंखों पर बिठाया है। मैं इनकी मुहब्बत पर कितना नाज करूं? शहर में अगर कहीं वफा है तो उन चोरों में है, जो पकड़े जा चुके हैं। मैं उनके साथ रिश्ता जोड़ना चाहता हूं।’
इस पर डाॅ. विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणी है, ‘हिन्दी-उर्दू के मध्यकालीन कवियों में सिर्फ गालिब हैं जो कैदियों से रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। गिजाज की आजादी, मानवीय संवेदना और जीवन-परिस्थितियों ने गालिब को उनकी असल रिश्तेदारी समझा दी थी। नवाब अमीउमरा, सेठ-साहूकार, मुगल साम्राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य उन्हें पेंशन, रसद दे सकता था, आत्मीयता नहीं दे सकता था। ये सब न पकड़े गए चोर हैं।’
सोचते हुए कभी-कभी यह लगता है कि साथ जो होना चाहिए, जैसा व्यवहार होना चाहिए, वह नहीं होता। व्यवस्था की तरफ से भी और प्रकृति की तरफ से भी। जिस पर व्यवस्था की मार पड़ती है, उस पर प्रकृति की भी मार अधिक पड़ती है। कई बार हम जिसे भाग्य अथवा प्रकृति की मार समझते हैं, उसके मूल में व्यवस्था का भी दोष रहता है। उसके पक्ष में व्यवस्था होती है, वह प्रकृति से भी काफी दूर तक लड़ सकता है। इस बात को आज की परिस्थितियों में समझना बहुत मुश्किल नहीं है। श्रेष्ठ रचनाकार प्रकृति और व्यवस्था के इस संबंध की अभिव्यक्ति करता है। इनके टूटू हुए संबंध-सूत्रों को जोड़ता है। पे्रमचंद की रचनाओं में यह अभिव्यक्ति सर्वाधिक है। उन्हें अपना साहित्यिक पुरखा कहने वाले परसाई के यहां भी। परसाई की रचनाएं समकालीन मनुष्य के किसी प्रसंग में फंसे रहने का चित्रण करती है, लेकिन इसके माध्यम से वे समकालीन जीवन की अनेक स्तरीय परिस्थितियों के कारण रूप को प्रकाशित करती हैं।
नयी कहानी और नयी कविता में मृत्यु-बोध तथा हत्या-आत्महत्या का दर्शन खूब फला-फूला। यह अधिकतर उधार लिया गया दर्शन था। यदि उसमें वास्तविकता होती तो उसका रूप कुछ और होता। परसाई ने एक कहानी लिखी ‘जिन्दगी और मौत।’ इस कहानी को जवाब के तौर पर मृत्युबोध का जाप करने वाली कहानियों के समक्ष रखा जा सकता है। यह कहानी ‘वसुधा’ के जून 1957 अंक में प्रकाशित हुई थी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, ‘मरण से बढ़कर करुणा का विषय और क्या हो सकता है? लेकिन मरण भी करुणा का विषय तभी बनेगा जब वह अपनी विश्वसनीय परिस्थितियों या देश-काल को साथ लेकर आए। अनेक कहानियों का आरंभ नाटकीयतापूर्ण ढंग से करने वाले परसाई, यह कहानी ऐसे शुरू करते हैं, ‘सेनेटोरियम’ लगभग दो मील दूर है। 7 घण्टे एम्बुलेन्स कार में बैठे हो गये। भीतर कवि हैं। रह-रहकर उन्हें खांसी आती है और मैं कांप-कांप उठता हूं। बगल में बैठा ड्राइवर भी, जो ऐसे अनगिनती मनुष्यों को मौत से मिलने आधे रास्ते तक पहुंचा आया है, ‘हे राम!’ कहकर गहरी सांस छोड़ता है।
परसाई मौत के सन्नाटे का भी वर्णन कर सकते हैं। मृत्यु-भय से कैसे अनुभव प्रकट होते हैं, इसका भी। मौत अगर पड़ोस में हो तो प्रकृति कैसी-कैसी लग सकती है, इसका वर्णन देखिए-
‘ऐम्बुलेन्स चल पड़ी है। सांझ उतरने लगी है। वृक्ष पक्षियों के कलरव से गूंज उठे हैं- यह जीवन का मुक्त कल्लोल है। और इधर निर्बल फेफड़ों से निकली यह मजबूर खांसी-मृत्यु का क्रन्दन। दोनों ओर के वृक्षों से उठते इस कलरव के बीच से यह खांसी बढ़ रही है- जैसे मरण के स्वागत में दोनों ओर गीत गाती जिन्दगी खड़ी है।
रचनाकार बाहरी दृश्यों को जिन रूपों में लेता है, वह उह्नसका यथार्थ होता है यानी रचनाकार को जो लगता है वही उसकी यथार्थ दृष्टि है। परसाई जीवन और मृत्यु का संश्लिष्ट चित्रण करते हैं। एक तरफ प्रकृति का मुक्त कल्लोल यानी उसका स्वतंत्र आलंबनत्व और दूसरी तरफ मृत्यु का क्रन्दन। प्रकृति सबको अपने भीतर समेटे हैं। बाहरी दृश्यों को मनोभावों या स्थिति विशेष रंग में रंगकर प्रस्तुत करने की रूढ़ि रही है। कहीं-कहीं यह पद्धति बहुत आवश्यक भी होती है। वहां विशेष रूप से जहां यातना की तीव्रता या भाव-सघनता है की अनुभूति करानी हो। कहानी में एक और चित्र इस तरह है-
‘सामने लम्बा-चैड़ा मैदान, सर्वत्र हरियाली-लेकिन इस हरियाली में जिन्दगी का हरापन कहीं नहीं दिख्ता। सम्पूर्ण प्रकृति जैसे किसी आशंका से हर क्षण सहमी रहती है। इतने मनुष्य हैं- मरीज, डाॅक्टर, नर्स लेकिन जीवन का स्पन्दन कहीं अनुभव नहीं होता। ठण्डी हवा हल्की-सी सिहरन पैदा कर रही है। जहां-तहां हट्स हैं- एक दूसरी से दूर, अपने-आप में एक भिन्न संसार। हरियाली में बल्बों से जगमगाती वे झोपड़ियां आकाश में झिलमिल करते नक्षणों-सी मालूम होती हैं।’
परसाई अपनी रचनात्मक प्रभाव-क्षमता को समृद्ध करने के लिए अनुभाव, संवाद आलंबन, उद्दीपन-सबका उपयोग कर सकते हैं, करते हैं।
कुल छह पृष्ठों की इस कहानी के आरंभिक ढाई पृष्ठों में वातावरण बनाया गया है। परसाई कहीं-कहीं वाचकीय टिप्पणियों के माध्यम से कहानी का वातावरण बनाते हैं। इस संदर्भ में ‘किताब का एक पन्ना’ कहानी का उल्लेख हो चुका है। परसाई क्ल्लहीं-कहीं कुछ पात्रों के माध्यम से भी कथ्य की भूमिका बनाते हैं। ‘जिन्दगी और मौत’ के इन आरंभिक पृष्ठों में किन्हीं कवि का चित्रण हैं, जो फेफड़े के रोग से ग्रस्त हैं और वाचक उन्हें सेनेटोरियम में भर्ती करने के लिए ले जाता है। ध्यान रहे कि यह कहानी सन् 1957 की है। उन दिनों अधिकतर कवि सामान्य जन ही होते थे और सामान्य आदमी के लिए उस समय टी.बी. रोग का क्या अर्थ होता था, हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं। केवल कवि और उनकी बीमारी का वर्णन, इस कहानी का उद्देश्य नहीं है। लेकिन कवि का रोग तथ संत्रास वाचक का नजदीकी अनुभव है। कवि से वाचक का संबंध है, कवि के रोग के कारण को वाचक जानता है। हम अपनी या अपने किसी आत्मीय, संबंधी, मित्र की यातना के द्वारा दूसरों की यातना का अनुमान करके दुःखी होते हैं, परसाई इन पृष्ठों में यह भी बताते हैं कि उन्हें कैसे-कैसे अनुभव किन कारणों से हुए। वे कवि को लेकर सेेनेटोरियम गए तो उन्हें एक नया अनुभव हुआ। यही अनुभव कहानी बन गया है। यह अनुभव गालिब के उस अनुभव के समान है, जो उन्हें कैद में रहते हुआ।
कहानी का वास्तविक आरंभ होता है इन पंक्तियों से, जहां से एक-एक वाक्य,एक-एक शब्द बहुत‘कुछ कहता नजर जाता है-
-जनरल वार्ड के सामने हम आ गए हैं। नया मरीज आता देख 50-60 रोगी एकदम बरामदे में आ गये हैं। ये मनुष्य लगते ही नहीं हैं- ये केवल अस्तित्व हैं- बिल्कुल वायवी! शून्य आंखों में केवल उत्सुकता! मरीज की मायूसी, पीड़ा, चिन्ता भी इनकी आंखों में नहीं है, केवल कुतूहल, केवल उत्सुकता-बच्चों की तरह! नये रोगी के माध्यम से ये दुनिया से सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं।’
यह दृश्य अधिकतर लोगों का देखा हुआ दृश्य हैं लेकिन देखकर अनदेखा कर देना या भूल जाना सामान्य बात है। परसाई देखे हुए को परिभाषित करते हैं। सबसे कठिन काम है मूक भावों, मनोविकारो को पकड़ना और उन्हें दिखाना। परसाई के पास एक दृष्टि है, अनुभव है और दूसरों को भी वे अनुभव कराते है। उनकी भाषा, कहने का ढंग अनुभव की दूरी को पलटाता है। मरीज मनुष्य हैं, लेकिन लगते नहीं क्योंकि शारीरिक-मानसिक स्वस्थता मनुष्य होने के लिए आवश्यक है। रोग, मानसिक रूप से भी रिक्त करता है। रोगियों का केवल ढांचा मनुष्य का है, इसलिए वे मनुष्य नहीं लगते, अस्तित्व-मात्र लगते हैं। यह संसार उनके हाथों से छूट रहा है, वे हमसे दूर जा रहे हैं। उनका ढांचा-शरीर हमारे पास खड़ा है, लेकिन वे वस्तुतः हमसे दूर हैं। उनके देखने का ढंग ऐसा है जिससे लगता है कि बहुत दूर से देख रहे हो। सांसारिक अनुभव को आंखे प्रमुखता से ग्रहण करती हैं। आंखे कहने के लिए शब्द की मांग नहीं करतीं। आंखें ही सबसे ज्यादा, सबसे सच्चे, विश्वसनीय को शब्द देते हैं। मूक को शब्द देना, अर्थ और शब्द की दूरी को कम करना है। रोगियों की आंखों में उन्होंने किस अभाव और किस भाव को देख लिया है। एक स्थिति ऐसी आती है जब प्राणी मात्र सम पर आ जाते हैं। इन रोगियों की आंखों के माध्यम से परसाई ने प्राणी मात्र की आदिम निरीहता को देखा। यह निरीहता हमारे आदिम संस्कारों से भी जुड़ी है। इसलिए इसका अबूझ प्रभाव पड़ता है। उनकी आंखों में बच्चों की तरह केवल कुतूहल और उत्सुकता है। वह भी इसलिए कि एक नया मरीज आ गया है। नया रोगी छूटी हुई दुनिया से उनका संबंध स्थापित करता है। उनके परिवार में बढ़ोत्तरी करता है। इसलिए वे उसे देखते एकदम बरामदे में आ गए। ऐसा विश्सनीय, अनुभूत लेकिन सघन, दुसाध्य चित्रण निराला और परसाई जैसे रचनााकर ही कर सकते हैं। नये रोगी के जरिए वे दुनिया से संबंध इन प्रश्नों के माध्यम से जोड़ते है-
‘कहां से आये हैं?’
‘कौन सी स्टेज?’
‘एक लंग?’
‘दोनों लंग?’
‘कलेप्स करना पड़ेगा’
ये सब टी.बी. के विशेषज्ञ हो गये हैं। जरा देर हलचल रुक गयी है। मैं जवाब दे रहा हूं, वे कान खोले सुन रहे हैं। फिर हलचल हुई- -अरे राम राम! बड़ी देर कर दी।’
शुक्लजी ने लिखा है कि ‘दूसरों के दुःख से दुःखी होने का नियम बहुत व्यापक है और दूसरों के सुख से सुखी होने का नियम उसकी अपेक्षा परिमित है।’
यह नियम हमारे देश के सरकारी अस्पतालों ने विशेष रूप से घटित होते हुए देखा जा सकता है। संकट के समय दूर-दूर से आए लोग परिजन हो जाते हैं। वे एक-दूसरे के दुःख को बांटकर उसे कम करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा नहीं है कि वहां पर केवल ऐसा ही सात्विक वातावरण होता है। वहां भी चालाकियां और काईयांपन होता है। लेकिन परसाई उन व्यंग्यकारों की तरह नहीं हैं जो हर स्थिति में, हर पात्र पर व्यंग्य करें, उसे हास्यास्पद बना दें। उनकी व्यंग्य दृष्टि यह बखूबी पहचानती है कि किस पर हंसना है, किस पर रोना है, किसे आत्मीयता और करुणा देनी है। उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर मानवीय पात्र मिलते हैं, उनमें ‘जिन्दगी और मौत’ के ये संकटग्रस्त रोगी पात्र भी शामिल हैं। ये नये रोगी का स्वागत इस प्रकार करते हैं- ‘और अब इनमें एक विचित्र व्यवस्तता आ गयी है। उनके भटके हुए सामथ्र्य को सहारा मिल गया है। उनके अस्तित्व को सार्थकता मिल गयी है। वे नये मरीज के प्रबंध में लग गये हैं-
‘कौन-सा बैड है?’
‘सिस्टर को बुलाओ?’
‘चादर बदलने को बोलो।’
सब बच्चों की तरह दौड़ रहे हैं। एक क्षण को उन्हें लगा कि वे स्वस्थ हैं और नए मरीज की परिचर्चा कर रहे हैं। मेरा काम कुछ नहीं रह गया। उनके अन्दर की मानवी करुणा, संवेदना उमड़ पड़ रही है। वे कुछ कर सकने को आतुर हैं। वे इस घर के वासी हैं और मेहमान की सेवा चाकरी में लग गये हैं। सामान जमा रहे हैं, बिस्तर ठीक कर रहे हैं, पानी ला रहे हैं। 2-4 कवि के पास खड़े हैं और उन्हें धीरज दे रहे हैं- ‘चिंता नहीं है। जल्दी ठीक हो जायेंगे। मैं भी ऐसा ही आया था पर अब देखिये।’
जो मनुष्य नहीं है, अस्तित्व मात्र हैं, भावरिक्त हैं, जिनके सामथ्र्य को सहारा नहीं है, जो दिन-रात एक जैसा, जितना जीवन बचा है, उसे व्यतीत कर रहे हैं, वे ही अचानक व्यस्त, सार्थक हो गए हैं, उनके सामथ्र्य को केन्द्र मिल गया है। उनकी संवेदना, मानवीयता और करुणा उभर आयी है। वे अब रोगी नहीं रहे, घर-बासी हो गये हैं और मेहमान की खातिरदारी में लगे हैं। अपने आपको भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र हो गए हैं, मुक्त हृदय हो गए हैं। कहानी में इन रोगियों के लिए कई बार आता है- ‘बच्चों की तरह’। वे बच्चों की तरह देखते हैं, बच्चों की तरह दौड़ते हैं, बच्चों की तरह सिसकते हैं, आदि। रोगी बच्चे नहीं हो गए हैं, बच्चों की तरह हो गए हैं। बच्चे से हो ही नहीं सकते क्योंकि अब तक इन्होंने जो जीवन जिया है, उसमें अनेक भाव कमाए होंगे। क्रोध, ईष्र्या, घृणा भी उन भावों में निश्चित ही रहे होंगे। पर अब ये इन ज्यादातर भावों से रिक्त हो चुके हैं। अब इनके पास केवल वही भाव रह गया है जिससे मनुष्य का जीवनारंग होता हैं वह भाव है करुणा और हिंदी में करुणा से संबंधित कोई बात आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का उल्लेख किए बिना नहीं की जा सकती। उन्होंने लिखा-
‘जब बच्चे को सम्बन्ध ज्ञान कुछ-कुछ होने लगता है, तभी दुःख के उस भेद की नींव पड़ जाती है जिसे करुणा कहते हैं। बच्चा पहले परखता है कि जैसे हम हैं वैसे ही ये और प्राणी भी हंै और बिना किसी विवेचना-क्रम के स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा वह अपने अनुभवों का आरोप दूसरे प्राणियों पर करता है। फिर कार्य-करण सम्बन्ध से अभ्यस्त होने पर दूसरों के दुःख के कारण या कार्य को देखकर उनके दुःख का अनुमान करता है और स्वयं एक प्रकार का दुःख अनुभव करता हैं। प्रायः देखा जाता है जब मां झूठ-मूठ ‘ऊँ-ऊँ’ करके रोने लगती है तब कोई बच्चे भी रोे पड़ते हैं। इसी प्रकार जब उनके किसी भी भाई या बहिन को कोई मारने उठता है तब वे कुछ चंचल हो उठते हैं।’
‘जिन्दगी और मौत’ के रोगी बच्चों की तरह हो गए हैं- इसका आशय स्पष्ट हो गया होगा। बच्चों का भाव-संसार सीमित होता है। करुणा या दुःख उसमें प्राथमिक है। उनके सीमित भावों और तत्सम्बन्धी कार्यों के बीच व्यवधान बहुत कम बन पाता है। जिसके प्रति करुणा उत्पन्न होती है, उसकी भलाई का उद्योग किया जाता है। इन रोगियों में नए रोगी के प्रति करुणा, संवेदना उमड़ती है तो ये कुछ करने को आतुर हो उठते हैं और बच्चों की तरह दौड़ते हैं। जो कुछ करने का सामथ्र्य रखते हैं, करते हैं। जो स्वयं करुणा के पात्र हैं, वे दूसरे पर करुणा कर रहे हैं। शुक्ल जी ने करुणा का सैद्धांतिक विवेचन सर्वाधिक किया उसका महत्व समझाया लेकिन इस स्थिति का संकेत संभवतः नहीं किया। परसाई इस स्थिति पर भी लिखते हैं इससे शुक्ल जी की मान्यता का विकास होता है। इससे रोगियों के प्रति पाठक की करुणा द्विगुणित होती है, रोगी श्रद्धा के पात्र भी बनते हैं। परसाई के पास करुणा की मार्मिकता को बढ़ाने का एक और तरीका है। वह है भावना, संवेदना तथा बढ़े हुए भाव का यथार्थ की चोट। उनका वाचन रचना के बीच में अक्सर एक टिप्पणी करता है तो बड़ी कठोर होती है, जहां किसी ज्ञात-अज्ञात के प्रति आक्रोश, अमर्ष, नाराजगी, क्रोध, झुंझलाहट, क्षोत्र आदि न जाने कितने भाव होते हैं, रोगियों पर वह टिप्पणी इस तरह है -
‘वही र्धर्य, जो उन्हें मिला था, वे नये मरीज को दे रहे हैं। वे जान गये हैं कि कोई उम्मीद नहीं है, मगर मरीज मरीज को धोखा दे रहे हैं। उनकी आत्मीयता उमड़ रही है, उन्होंने नये मरीज को स्वीकार कर लिया है, परिवार में शािमल कर लिया है। मुझसे बोले, ‘आप चिन्ता न करना। हम सब ठीक कर लेंगे। समझ लो कि घर में आ गये हैं।’
कैसा यह घर? और कैसे उसके ये वासी? इनमें अनेक उस लोक की यात्रा निकल पड़े हैं- यह सेनेटोरियम एक पड़ाव पर है- दो घड़ी रुके हैं और एक क्षीण आशा है कि शायद घर से वापिस लौटने की खबर आ जाय, नहीं तो आगे तो बढ़ना ही है,
कबीर तो पूरे जीवन को ही क्षण मानकर भक्ति में, दुःख में उसकी सार्थकता ढूंढते हैं। इन मरीजों का जीवन सचमुच ‘दो घड़ी’ का है, ये इस बात को जानते हैं। जानकर भी चीखते-चिल्लाते नहीं। उन्होंने इस बात में सार्थकता ढूंढ ली है कि दूसरों को इस थोड़े समय के जीवन की आत्मीयता दी जाए। ये हर नए रोगी को इस घर-परिवार में शामिल करते हैं। वाचक की झुंझलाहट इस बात को लेकर भी होगी कि इतने संवेदनशील, करुणा-आत्मीयता देने वाले ये मनुष्य ऐसे रोगी क्यों हैं? मानवीयता को इनकी आवश्यकता है। लेकिन शायद ये दुःख के मांजे हुए पात्र हैं। स्थितियों से गुजर कर ऐसे बने हैं। परसाई ने लिखा है कि दुःख सबको मांजता ही नहीं, वह मनुष्य को कमीना भी बनाता हैं लेकिन इस कहानी में परसाई ने वास्तविक दुःख में पड़े हुए मनुष्य की बढ़ी हुई मानवीयता तथा दुःख कातरता का चित्रण किया है।
एक अध्यापक के जीवन का बहुत बड़ा सुख यह है कि उसे जगह-जगह ‘सर नमस्ते’ कहकर पुकारने वाले विद्यार्थी मिल जाते हैं। यह अध्यापक का आत्म विस्तार है। लेकिन यह विस्तार जितना ही अधिक होगा दुःख के कारण भी उतने ही अधिक होंगे। जिसकों चाहने-जानने वाले जितने अधिक होते हैं, उसे सुख-संदेश भी उतने ही अधिक मिलते हैं और दुःखद खबरें भी। शर्मिंदगी का सामना करने की आशंका भी ज्यादा होती है। वाचक ऐसा ही अध्यापक है। वह इस समय सेनेटोरियम में है। अचानक एक नाटकीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है-
‘सर नमस्ते! मैंने चैंककर देखा। एक नव-तरुण है। बोला, ‘आपने मुझे नहीं पहचाना? मैं आपका विद्यार्थी रहा हूं। मेरा नाम नगेन्द्र नाथ है।’
‘सर नमस्ते’ से मेरा पिण्ड नहीं छूटता। शहर के किसी भी मुहल्ले में जाऊं, चाहे वीराने में जाऊं कोई ‘सर नमस्ते’ कह ही देता हैं अगर शहर में कहीं से चोरी करके भागूं, तो जगह-जगह ‘सर नमस्ते’ होगी और पकड़ लिया जाऊंगा। एक बार मित्रों के साथ सिनेमा में बैठा खूब हल्का फिल्म देख रहा था। हंसी-मजाक-चुहल! इण्टरवल हुई तो पीछे से आवाज आयी, ‘सर नमस्ते’ दो विद्यार्थी ठीक पीछे बैठे थे। डटा रहा- सोचा, ‘प्राप्तेषु षोडषे वर्षे।’
यह नगेन्द्र यहां! 3 साल पहले इसे पढ़ाया था। अच्छा खूबसूरत, स्वस्थ लड़का, हाकी बढ़िया खेलता था। और आज यह यहां?’
‘सर नमस्ते’ का स्वर अक्सर सुख देता है। लेकिन कभी-कभी वही ‘सर नमस्ते’ अनुभव कराता है। वाचक के माध्यम से यह परसाई की रचनात्मक झंुझलाहट है। यह हास्य नहीं व्यंग्य है, आत्म व्यंग्य भी और अबूझ लगने वाली परिस्थितियों पर भी। जहां इस स्वर की कोई आवश्यकता-अपेक्षा नहीं, वहां पर भी यह सुनने को मिल जाए तो झुंझलाहट होती है। जिस खूबसूरत, स्वस्थ, बढ़िया हाकी खेलने वाले लड़के को तीन वर्ष पहले पढ़ाया। जिसे कहीं अच्छी जगह देखकर संतोष होता- वह नगेन्द्र नाथ भी यहां सेनेटोरियम में। परसाई जैसे रचनाकारों का दुःख बहुत व्यापक होता है। जो ज्यादा जीवन को जानता है, उसे न जाने क्या-क्या देखना पड़ता है। उसकी यातना ‘काह न देखै नैन भरि जो जीवहु बहु काल’ की तरह होती है। समाज में एक वर्ग ऐसा है जो रोगों के ईलाज के लिए कहीं भी जाकर रह सकता है। जिसके पास फुर्सत और साधक दोनों होते हैं। लेकिन यह रोग उन्हें भी होता है जिनके पास एक दिन की भी फुर्सत नहीं होती। नगेन्द्रनाथ गरीब घर का है। उसकी मां है, छोटा भाई है जो उसी पर निर्भर हैं। वह नौकरी पर जा ही रहा था कि यहां आना पड़ा। छह महीने से यहां हैं और अभी छह महीने और रहना पड़ेगा। उसकी मां और भाई का क्या होगा? यह चिंता उसे है। बीमारी में भी अपनी चिंता की फुर्सत नहीं।
‘मैं उसकी पीठ पर हाथ फेर रहा हूं। उसे धीरज बंधा रहा हूं। बुजुर्ग कहते थे, यह राज-रोग कहलाता है, राजाओं को हुआ करता था- उन्हें फुर्सत थी। पर जो जीवन की कशमश में उलझे हैं, जो पसीने की एक-एक बूंद से एक-एक दाना कमाते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फुर्सत नहीं है, उन्हें यह क्यों होता है? इसने कब से वर्ग-भेद छोड़ दिया?
जिस कवि के चित्रण से कहानी का आरंभ हुआ है केवल उसकी यातना का चित्रण कहानी का उद्देश्य नहीं है। साथ ही नगेन्द्रनाथ का दुःख भी इस कहानी का उद्देश्य नहीं है। लेकिन ये दोनों ऐसे पात्र हैं जिनके आसपास का वर्णन कहानी में है। इनके माध्यम से हम विशिष्ट से सामान्य पात्रों की यातना का अनुभव करते हैं। कहानी के वे सामान्य पात्र 50-60 रोगी हैं। कवि के रोग के कारण का उल्लेख कहानी में है। कवि कहता है- श्च्वअमतजल ेनििमतपदहश् नगेन्द्रनाथ की कहानी भी कवि से अलग नहीं है। कहीं न कहीं कहानी में भी मुख्य है- श्च्वअमतजल ेनििमतपदहश् ‘गरीबी और दुख ऐसे लोगों को बीमार पड़ने की फुर्सत नहीं है जो गरीब हैं, जिनके दुःख और हैं, जो जीवन की कशमश में उलझे हैंः जो पसीने की एक-एक बूंद से एक-एक दाना कमाते हैं। लेकिन जो रोग किसी समय राज-रोग कहलाता था, आज वहीं आक्रमण करता है जहां गरीबी और दुःख देखता है। और ये गरीबी और दुःख कहां से आए- क्या किसी और लोक से आए हैं? क्या ये मनुष्य द्वारा बनाई गई व्यवस्था की ही देन नहीं हैं? इसलिए कहा गया था कि रचनाकार टूटे हुए सम्बन्ध-सूत्रों को जोड़ता हैं धनंजय वर्मा के अनुसार परसाई ने अनेक तरह की अमानवीयता और पाखंडों में छले जाते समकालीन आदमी को रोजमर्रा तकलीफ को जवान दी। यह तकलीफ मनुष्य रचित ही नहीं, मनुष्य रचित भी है। अनेक रोगों का कारण गरीबी तथा दुख है, और गरीबी तथा दुख के कारण हम स्वयं हैं।
सेनेटोरियम के रोगियों में न जाने कितने नगेन्द्रनाथ जैसे रहे होंगे। जो कुछ वे बोलते हैं, उससे वे मूर्त होते हैं, नगेन्द्रनाथ के चित्रण से वे और अधिक मूर्त होते हैं। रोगियों में नर्स को चिड़चिड़ी कहने वाला भी है और ‘कुछ नहीं - त्मचतमेेपवदश् (मौनदमन) है।’ कहने वाला भी। यह दक्षिण का है और पूछने पर बताता है कि ‘मैं टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशलाजी में था। कोर्स का एक साल रह गया था, सो यहां काटना पड़ रहा है। यानी गरीब, दुखी, प्रतिज्ञाशाली सब यहां सेनेटोरियम में रोगी बनकर जीवन बिता रहे हैं। गिंसबर्ग ने अपनी एक कविता में लिखा, ‘मैंने देखा है अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ दिमागों को पागलपन से तहस-नहस होते-भूखे विक्षिप्त नंगे।’
सेनेटोरियम के रोगी मनुष्य नहीं लगते, अस्तित्व मात्र लगते हैं, लेकिन हैं तो मनुष्य ही। जब कोई बाहर से आता है तो उसके सहारे ये बाहर की उस दुनिया से जुड़ना चाहते हैं जो इनसे छूट गई है। नर्स इन्हें बच्चा समझकर डांटती है। बाहर से आए व्यक्ति के सामने ये अपने को बच्चा मानने को तैयार नहीं। नर्स की बातें इन्हीं रोग और अस्पताल की याद दिलाती हैं और बाहर से आया व्यक्ति जीवन से जोड़ता है। परसाई ने रोगियों का मनोविज्ञान ऐसे चित्रित किया है -
‘वे सब डांटे हुए बच्चे की तरह दुबककर रह गये हैं, निर्बल क्रोध और विवशता से एक-दो गले भर आये। इन्हें मीठी बात चाहिए,, स्नेह की वाणी चाहिए। घर से दूर, परिवार से दूर, मित्रों, सम्बन्धियों से दूर इस घेरे में बन्द ये आत्माएं जीवन का संस्पर्श चाहती हैं। उन्हें स्नेह की चाह है, माधुर्य की चाह है- उन्हें वह सब चाहिए जो जीवन को अर्थ देता है। नर्स के कड़वे बोल जैसे उन्हें जीवन से दूर ढकेलते हैं।
परसाई की अनेक रचनाओं में, संकट में पड़कर किसी अज्ञात सत्ता को पुकारते पात्रों का मार्मिक वर्णन मिलता है, अज्ञात को सम्बोधित यह पुकार उन पात्रों की यातना को कई गुणा बढ़ा देती है। साथ ही विडंबना की भी व्यंजना करती है। कस्बे में प्लेग पड़ने पर परसाई जी की मां मर रही थीं और परसाई-परिवार गा रहा था- ‘जय जगदीश हरे...।’ ‘किताब का एक पन्ना’ कहानी में भिखारिन युवती गाती है- ‘भगवान किनारे लगा दे मेरी नैया’ और ‘जिन्दगी और मौत’ के रोगी रोजाना गाई जाने वाली आरती आज फिर बड़े करूणा कंठ से गा रहे हैं- ‘जय जगदीश हरे...।’
‘गले उनके रुंधे हैं। पीड़ित आत्मा का आर्तनाद-सा लगता है। टी.बी. के मरीज को इस युग में भी लगता है कि उसका अन्त आ गया। ये सब अपने को गया हुआ मान बैठे हैं, जीवन इनका खो गया है। इनका विश्वास गया, आशा गयी, निष्ठा गयी! ये किसी अलक्ष्य, पर सर्वोपरि शक्ति से आसरा चाहते हैं। नदी में गिरे उस आदमी जैसे हैं, जो आसपास किसी तैरती लकड़ी को न पाकर चीखता है कि किनारे पर कोई कहीं सुन ले और बचा ले। कण्ठ से धनीभूत पीड़ा प्रवाहित हो रही है।
गाते-गाते, दो-तीन आदमी फूट-फूटकर रोने लगे। बच्चों की तरह सिसक रहे हैं।’
फिर वहीं ‘जय जगदीश हरेे।’ इस प्रार्थना की वास्तविकता परसाई व्यक्तिगत अनुभव से जानते हैं। यह प्रार्थना उनमें आतंक, त्रास और भय उत्पन्न करती है, ‘मैं इससे नफरत करता हूं। जवानी से ही मैं सब प्रार्थनाओं और भजनों से नफरत करने लगा।’
व्यक्तिगत अनुभव, रचनाकार का अनुभव बनकर अपने पात्रों द्वारा भगवान को पुकारते देख उनके दुख का अनुभव करता-कराता है। परसाई के ये पात्र उनके आत्मीय हैं। लेकिन ये जिसे रक्षा के लिए पुकारते हैं, वह भ्रम या धोखा है। परसाई की तटस्थ दृष्टि इस विडंबना को देखती है। विक्षोभ उत्पन्न करती है। जो करूणा पुकार जड़ पत्थर चाहे जड़ हो, कठोर हो - सत्य है, उसका अस्तित्व है। लेकिन जिसे पुकारा जाता है, वह है - इस पर परसाई का पूरा सन्देह है। इस सत्य को केवल परसाई का रचनाकार जानता है, इसलिए उसकी यातना और अधिक बढ़ जाती है, वह कबीर के दुःख के आसपास की है।
कहानी के अंत में वाचक कवि को सेनेटोरियम में छोड़कर, उसके उपचार का प्रबंध करके लौटने लगता है। वाचक चलने लगा तो वही करूण स्थिति वाले रोगी उसे विदा करते हैं, जो दूसरों को संभालने की क्षमता रखते हैं - ‘बाहर चलने लगा, तो उन 40-50 मरीजों ने ‘नमस्कार, जै रामजी की’ की झड़ी लगा दी। कैसी आत्मीयता और दो घण्टे के इस परिचित के जाने का कैसा दुख। जैसे जन्म का साथी जा रहा हो।’
बाबा नागार्जुन ने रास्ते में ही रह जाने वाले असफल, अनाम लोगों पर एक कविता लिखी ‘उनको प्रणाम’, परसाई ने अपने कुछ सात्विक वृत्तियों के पात्रों को अपनी रचनाएं समर्पित की हैं। उनमें से एक है ‘जिन्दगी और मौत’, इस कहानी के रोगियों से उन्होंने रिश्ता जोड़ा, जन्म का साथी माना। इनके आचरण, संवेदनशीलता, सीमित सकर्मकता को देखते हुए क्या ये सचमुच रोगी लगते हैं? डा. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा निराला पर लिखी कविता ‘पागल’ की याद आती हैं -
ओ, नजरूल इस्लाम, रूसो, वान गाग के साथी
हमें तुम्हें पागल कहते हैं
किंतु हमें तुम क्या कहते हो?
परसाई ने समाज रक्षक होने का दंभ करने वालों, करूणा का प्रदर्शन करने वालों, करूणा चुराने वालों और करूणावान होने में समर्थ लेकिन उससे विमुख लोगों पर सीधा व्यंग्य भी किया है। लेकिन उनके रास्ते और भी हैं। इस कहानी के माध्यम से वे ऐसे लोगों पर सार्थक टिप्पणी करते हैं, व्यंग्य का एक रूप यह भी है। गालिब की वे पंक्तियां फिर याद आती हैं -
कैदियों ने मुझे सर आँखों पर बिठाया है। मैं इनकी मुहब्बत पर कितना नाज करूँ? शहर में अगर कहीं वफ़ा है तो वह उन चोरों में है, जो पकड़े जा चुके हैं। मैं उनके साथ रिश्ता जोड़ना चाहता हूँ।’
काश! कोई ऐसा भी सेनेटोरियम बने जिसमें उन वास्तविक मनोरोगियों की चिकित्सा हो जो बाहर घूम रहे हैं। परसाई साहित्य भी ऐसा ही एक सेनेटोरियम है।

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भाकपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक सम्पन्न

महंगाई के खिलाफ सशक्त आन्दोलन का आह्वान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक बंगलौर में 27 से 29 दिसम्बर 2009 को का. अजीज पाशा, सांसद की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई।
बैठक में महासचिव का. ए.बी.बर्धन ने राजनीतिक-संगठनात्मक रिपोर्ट, उप महासचिव का. एस. सुधाकर रेधी ने पार्टी संगठन तथा उसके कार्य-कलाप तथा सचिव का. डी. राजा ने राष्ट्रीय परिषद की पिछली बैठक के बाद की कार्य रिपोर्ट पेश की। महासचिव का. ए.बी.बर्धन ने आर्थिक संकट, संप्रग सरकार की जन-विरोधी आर्थिक नीति, महंगाई को नियंत्रित करने में उनकी विफलता तथा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के अंधाधुंध विनिवेश की उसकी नीति के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला।
उन्होंने देश के सामने विद्यमान अनेक राजनीतिक सवालों तथा सरकार की विदेश एवं घरेलू नीतियों पर भी रोशनी डाली। महासचिव द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल की स्थिति, माओवादी हिंसा, उत्तर-पूर्व में विद्रोह की समस्याओं एवं वाम एकता को मजबूत करने की जरूरत आदि के बारे में भी बताया गया है।
राष्ट्रीय परिषद द्वारा अनेक प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें से कुछ को नीचे दिया जा रहा है।
महंगाई
”आसमान छूती महंगाई, खासकर खाद्य पदार्थों की आसमान छूती कीमतों - जो हर सप्ताह 20 प्वाइंट की दर से बढ़ रही है, चावल की खुदरा कीमत 51 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जो पिछले 6 महीनों से निर्बाध रूप से जारी है - की वजह है खाद्यान्न व्यापार में सट्टेबाजी पर रोक लगाने में केन्द्र सरकार की पूर्ण विफलता और मांग-आपूर्ति के बेमेल होने की स्थिति में सरकार द्वारा वायदा कारोबार की इजाजत देना, खाद्य पदार्थों का बेरोकटोक निर्यात और मुख्य तौर से उदारीकरण की नीति एवं एक निर्बाध बाजार अर्थव्यवस्था की स्थापना। शर्मनाक बात यह है कि करीब बीस वर्षों के बाद देश ने चावल के आयात का सहारा लिया है।
खाद्य सुरक्षा नहीं रही, केरल जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर अनेक राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली खत्म हो गयी है। यह चिन्ताजनक बात है कि देश फिर राष्ट्र की खाद्य संप्रभुता का भीतरघात करते हुए आज खाद्य के आयात पर निर्भरशील हो गया है।
सरकार के पास पूरी दृढ़ता से इस बदतर स्थिति का सामना करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। उसका यह तर्क कि विकास की उच्च दर हमेशा ऊंची कीमत से जुड़ी रहती है, एकदम अतर्कसंगत है। उसकी यह सफाई कि उच्च वसूली कीमत से यह स्थिति पैदा हुई, एकदम अस्वीकार्य है। इसके अतिरिक्त खाद्यान्न की बढ़ती कीमत इन वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट के अनुपात से काफी अधिक है।
फिर कृषि में गंभीर संकट, उत्पादन में गिरावट जो वर्षों से चली आ रही है, की वजह है सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र की घोर उपेक्षा, कृषि में निवेश में लगातार कमी, आसान कर्ज की अनुपलब्धता और सबसे बढ़कर सामाजिक आधारभूत ढांचे का अभाव।
इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद कीमतों में असहनीय अभूतपूर्व वृद्धि एवं आम जनता के सामने उत्पन्न भयंकर मुसीबतों पर गंभीर चिन्ता व्यक्त करते हुए केन्द्र सरकार से अपील करती है कि वह खाद्य पदार्थों की कीमत में अभूतपूर्व वृद्धि का समाधान करने एवं जनता की मुसीबतों को दूर करने के लिए अविलम्ब प्रभावी कदम उठाये।
आवश्यक वस्तु कानून को और अधिक कठोर बनाकर जमाखोरों एवं सट्टेबाजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की मांग करते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपील करती है कि विवेकसम्मत कीमत पर जनता को आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराकर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आम लोगों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पुनस्र्थापित किया जाये एवं उसे सशक्त बनाया जाये। अल्पकालिक कदम उठाते हुए सरकार को अवश्य ही कृषि को पुनर्जीवंत बनाने एवं कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सभी प्रयास करने चाहिए, खाद्य एवं पदार्थों का निर्यात बन्द करना चाहिए, वायदा कारोबार बंद करना चाहिए, बेईमान खाद्यान्न व्यापारियों को आसान बैंक कर्ज देना बन्द करना चाहिए।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ाते हुए बिक्री कीमत बढ़ाने के कदम का विरोध करती है और उसे वापस लेने की मांग करती है।
खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों की बुनियादी मानवीय समस्या का समाधान करने में सरकार की लगातार अकर्मण्यता की निन्दा करते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जनता से अपील करती है कि वह सभी संभव रूपों में कार्रवाई के लिए आगे बढ़े, व्याकतम एकता कायम करे,
अप्रितिरोध्य आंदोलन करे और सरकार को अपनी नीति में बदलाव लाने के लिए मजबूर कर दे।
राष्ट्रीय परिषद महंगाई के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आन्दोलन तेज करने के वामपंथी पार्टियों के निर्णय का स्वागत करती है और वह समस्त पार्टी से आह्वान करती है कि वह हजारों-लाखों लोगों को लामबंद करके इस अभियान को पूरी तरह सफल बनाये और मार्च महीने में संसद मार्च को असाधारण रूप से सफल बनाये।
तेलंगाना
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद दोनों तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के दूसरे हिस्सों में उत्पन्न भारी विक्षोभ पर गंभीर चिन्ता व्यक्त करती है। इस स्थिति की पूरी जिम्मेवारी कांग्रेस की है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के निर्माण का समर्थन करती है। उसने मार्च 2008 में आयोजित हैदराबाद पार्टी कांग्रेस के अनुरूप यह निर्णय लिया है। अन्य प्रमुख पार्टियों ने भी तेलंगाना के निर्माण को स्वीकार किया है। संसद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रवक्ता ने उसके निर्माण का आग्रह किया। उसके साथ ही उन्होंने जोरदार अपील की कि एक आम सहमति कायम करने तथा कार्यविधि एवं अन्य विवरण तैयार करने के लिए तुरन्त एक सर्वदलीय बैठक बुलायी जाये। उसके लिए व्यापक सलाह-मशविरे की प्रक्रिया की जरूरत है।
एक राज्य के विभाजन का तकाजा है कि उससे संबंधित सभी मसलों का समाधान किया जाना है, आम सहमति के लिए व्यापक प्रयास किया जाना है और आशंकाओं को दूर किया जाना है तथा उन लोगों को मनाया जाना है जो उससे मतभेद रखते हैं।
कांग्रेस नेतृत्व ने जिसने तेलंगाना के निर्माण का पूरा श्रेय स्वयं लेने और दूसरी पार्टियों पर भारी पड़ने का सपना संजो रखा था, पूरी प्रक्रिया को जल्दबाजी में पूरा करने का प्रयास किया। तेलंगाना की मांग पर काफी विलम्ब से प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी पर फटाफट मध्यरात्रि में उसकी घोषणा की गयी। यहां तक कि संप्रग के घटकों से भी परामर्श नहीं किया गया। राज्य के दोनों हिस्सों में कांग्रेस नेता अभी तेलंगाना के निर्माण के पक्ष में और विरोध में भावनाओं को भड़का रहे हैं। कुछ ऐसी पार्टियां भी ऐसा ही कर रही हैं।
कांग्रेस की जोड़तोड़ ने पूरे आंध्र राज्य को संकट में डाल दिया है। विधायकों ने सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया है। यहां तक कि मंत्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया है और सरकार भी ठहराव में है। अब कांग्रेस नेतृत्व यह कहते हुए पैर पीछे खींच रहा है कि राज्य विधान सभा को अवश्य ही एक प्रस्ताव पास करना होगा। वह दोनों प्रतिद्वंद्वियों की भावनाएं भड़काने के बाद ऐसा कर रही है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मांग करती है कि कांग्रेस नेतृत्व को यह खेल बंद करना चाहिए। उसे अवश्य ही राज्य के दोनों हिस्सों में अपने पार्टी नेताओं को नियंत्रित और अनुशासित करना चाहिए। उसे अवश्य ही तेलंगाना राज्य के निर्माण के लिए निर्णय लेना चाहिए और विधान सभा में एक एकीकृत प्रस्ताव पेश करना चाहिए ताकि पूरे राज्य की जनता के बीच आम सहमति कायम हो सके तथा एक भाईचारे की भावना में राज्य का विभाजन हो सके।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग गठित करने के किसी कदम का विरोध करती है। यह केवल तेलंगाना पर निर्णय को स्थगित करने का ही एक कदम होगा और उस उलझन भरे दलदल से निकलने का एक प्रयास होगा जिसे स्वयं कांग्रेस ने ही निर्मित किया है। वह मुसीबत का पिटारा खोल देगा और सभी राज्यों में उन तत्वों को प्रोत्साहित करेगा जो राज्यों को दो, तीन या अधिक इकाइयों में बांटने के अभियान में लगे हुए हैं। यह महंगाई, खाद्य सुरक्षा, रोजगार के नुकसान, बेरोजगारी आदि जैसे प्रभावित करने वाले मुख्य मसलों पर संघर्ष करने से जनता के ध्यान को दूसरी ओर मोड़ने का ही काम करेगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद राज्य के दोनों हिस्सों की जनता के सभी तबकों से अपील करती है कि वे वर्तमान आन्दोलन एवं जवाबी आन्दोलन को बंद करे जो कटुता के बीज बो रहे हैं, सामान्य स्थिति बहाल करें तथा तेलंगाना के निर्माण के लिए एवं आंध्र प्रदेश के बाकी हिस्से के अलग राज्य के लिए संयत रूप से कार्य करे जो अब अपरिहार्य हो गया है।
कोपेनहेगन जलवायु शिखर सम्मेलन
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद कोपेनहेगन जलवायु शिखर सम्मेलन के विचार-विमर्श तथा परिणामों का विश्लेषण करने के बाद अमरीका और अन्य विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के संबंध में किसी समझौते पर नहीं पहुंचने के लिए जिम्मेवार समझती है।
तथाकथित कोपेनहेगन समझौते ने धनी औद्योगिक देशों के लिए कोई बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है जैसी कि क्योटो करार (1997) में मांग की गयी थी जिसकी अभिपुष्टि करने में अमरीका लगातार इन्कार करता रहा है। अब उनका प्रयास केवल क्योटो करार को खत्म करना ही नहीं है बल्कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क तथा बाली कार्रवाई योजना (2007) का भीतरघात करना भी है।
हालांकि भारत ने चीन, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर कार्य किया पर अंततः वह ”अंतर्राष्ट्रीय सलाह-मशविरा एवं विश्लेषण“ के लिए सहमत हो गया। यह भारत की घोषित स्थिति में एक बदलाव है। इसे किसी कानूनी बाध्यकारी समझौते के अभाव एवं तकनीकी के स्थानांतरण पर किसी समझौते के अभाव की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यह एक तरह से अमरीका को तुष्ट करने का जोड़-तोड़ है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद भारत सरकार को सावधान करती है कि वह विकासशील देशों की एकता को तोड़ने की अमरीका की दुरभिसंधि से चैकस रहें। वह सरकार से आग्रह करती है कि वह ‘बेसिक’ में हिस्सा लेते हुए जी-77 तथा जी-192 के देशों के साथ घनिष्ठ रूप से काम करे और विकसित देशों को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेवारी को स्वीकार करने एवं क्योटो करार के अनुरूप काम करने के लिए मजबूर करें। विकासशील देशों की एकता अगले वर्ष मेक्सिको में होने वाली वार्ता के लिए आवश्यक है।
वनभूमि पर आदिवासी अधिकार कानून के कार्यान्वयन में भीतरघात के प्रयास का विरोध
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी अधिकार मान्यता कानून 2006 (2007 का कानून) की व्यवस्थाओं तथा उसके नियमों के तहत आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के कब्जे में वनभूमि के वितरण के लिए आदिवासी अधिकार कानून के कार्यान्वयन के लिए 31 दिसम्बर 2009 की तिथि निर्धारित करने के केन्द्र सरकार के कथित निर्णय पर गंभीर चिंता व्यक्त करती है, हालांकि इस कानून ने उसके कार्यान्वयन के लिए कोई समय-सीमा नहीं लगायी है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद समझती है कि समय सीमा लगाने का निर्णय गैरकानूनी है और इस कानून का भीतरघात करने का सरकार का एक सुनियोजित प्रयास है जिसे एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण कानून समझा गया है।
वास्तव में लाखों वनवासी, दोनों आदिवासी तथा अन्य गरीब लोग, अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक दावों का आवेदन भी नहीं दे सके हैं क्योंकि उनका आवास सुदूर जंगल में इलाकों में है और वे अधिकांशतः निरक्षर हैं तथा सूचना का अभाव है एवं आदिवासी आबादी वाले राज्यों के अनेक हिस्सों में माओवादी उग्रवाद एवं विद्रोह द्वारा भारी कठिनाइयां पैदा कर दी गयी हैं। ग्राम सभा तथा पंचायतें भी अभी तक भूमि अधिकार सर्टिफिकेट जारी करने के लिए सिफारिशें देने की औपचारिकताओं की प्रक्रिया को पूरी नहीं कर सकी है। इस घड़ी में एक समय सीमा लगाकर कार्यान्वयन की प्रक्रिया को रोकने का प्रयास गैरकानूनी है और कानून के लाभ प्राप्तकर्ताओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन है।
इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी केन्द्र तथा संबंधित राज्य सरकारों से अपील करती है कि वे आदिवासी अधिकार कानून के कार्यान्वयन की प्रक्रिया को खुला रखें जो ब्रिटिश शासन के समय से ही और उसके बाद शासक वर्गों द्वारा देश की आदिवासी जनता के साथ किये गये ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए बनाया गया था।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आदिवासी संगठनों तथा आदिवासी जनों के बीच काम करने वाले एनजीओ से अपील करती है कि वे इस कानून का भीतरघात करने के केन्द्र सरकार के घृणित प्रयासों को नाकाम करने के लिए एक साथ आयें। इस कानून का राष्ट्र ने स्वागत किया था हालांकि निहित स्वार्थों के दबाव के कारण देरी से उसके नियम बनाये गये। अब किसी भी तरह की समय सीमा लगाये बिना उसके पूर्ण कार्यान्वन की इजाजत दी जानी चाहिए।
खाद्य सुरक्षा कानून
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद खाद्य सुरक्षा पर प्रस्ताववित कानून पर गंभीर चिन्ता व्यक्त करती है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून में अनेक कमियां हैं जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली को केवल बीपीएल श्रेणी तक ही सीमित रखना, सबों के लिए खाद्य सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से वापस होने का केन्द्र का प्रयास और बीपीएल एवं एपीएल श्रेणियों के लिए मानदंड निर्धारित करने के राज्य सरकार के अधिकार को अस्वीकार करना।
योजना आयोग समेत सरकारी निकायों में गरीबी निर्धारण के मानदंड पर मतभेद है।
केन्द्र बीपीएल तथा एपीएल मानदंडों को निर्धारित करने के राज्यों के अधिकार को हड़पने क प्रयास कर रहा है। इसके अतिरिक्त अनेक राज्य सरकारें खाद्यान्न 2 रुपये प्रति किलो तथा 1 रु. प्रतिकिलो की दर से दे रही है। प्रस्तावित कानून कीमत बढ़ाकर 3 रुपये प्रतिकिलो कर देगा एवं खाद्यान्न की मात्रा 35 किलो से घटाकर 25 किलो कर देगा।
कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार समावेशी विकास की बात करती है। लेकिन वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बड़ी संख्या में गरीब लोगों को अलग कर रही है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद केन्द्र सरकार से आग्रह करती है कि वह खाद्य सुरक्षा के मसले पर विचार करने के लिए राज्य के खाद्य मंत्रियों की एक बैठक आयोजित करे और केरल की एलडीएफ सरकार की पहल को भी ध्यान में रखे जिसने इस मसले पर राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया।
वह यह मांग भी करती है कि प्रस्तावित कानून सभी राज्य सरकारों को भेजे जायें तथा उस पर बहस की जाये। सबों को खाद्य सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए।
उत्तर-पूर्व के विद्रोही ग्रुपों से राजनीतिक वार्ता
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने मिलिटेंट ग्रुपों की कार्रवाइयों के चलते जो अलग राज्य तथा संप्रभुता की मांग कर रहे हैं, उत्तर पूर्वी क्षेत्र में उत्पन्न गंभीर स्थिति पर विचार किया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद भारत सरकार से आग्रह करती है कि वह मसले के समाधान के लिए बिना किसी पूर्व शर्त के उल्फा और अन्य मिलिटेंट और अन्य गु्रपों से राजनीतिक बातचीत शुरू करे। भारत सरकार और उत्तर-पूर्व के मिलिटेंट ग्रुपों के नेतृत्व द्वारा किसी भी बहाने पर राजनीतिक वार्ता की प्रक्रिया में विलंब नहीं किया जाना चाहिए।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को तुरन्त वापस करने की मांग करती है जिसका केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा दुरूपयोग किया जा रहा है। इस मामले पर विचार करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त कुछ समितियों का भी यह विचार है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद राजनीतिक पार्टियों, बुद्धिजीवियों, लोकतांत्रिक संगठनों से यह अपील करती है कि वे देश के हित में इस मांग को स्वीकार करने के लिए भारत सरकार पर दबाव डालें।
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ललितपुर के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मुख्यमंत्री को भाकपा राज्य सचिव का पत्र

महोदय,
हम सभी जानते हैं कि प्रदेश का बुन्देलखण्ड क्षेत्र एक बहुत ही पिछड़ क्षेत्र है। उसमें भी ललितपुर जनपद और भी अधिक पिछड़ा है।
इस जनपद के विकास और सम्पर्ण बुन्देलखण्ड के विकास की आवाज भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सदैव से उठाती रही है। आज भी भाकपा मांग कर रही है कि वहां सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम स्थापित किये जायें।
इसके पीछे भाकपा की समझ है कि ललितपुर जनपद और समूचे बुन्देलखण्ड में तमाम पठारी, गैर उपजाऊ तथा वन विभाग की ऐसी जमीन जिस पर वृक्ष नहीं है, मौजूद है जिसके रहते बिना कृषि योग्य भूमि को लिये ही तमाम उद्योग खोले जा सकते हैं।
अब पता चला है कि आपकी सरकार ललितपुर में एक ऊर्जा संयत्र बनाने जा रही है। हम इसका स्वागत करते हैं।
लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की जनपद ललितपुर काउंसिल ने मेरे पास सैकड़ों हस्ताक्षरों से युक्त उस ज्ञापन की प्रति भेजी है जो आपको, महामहिम राज्यपाल जी को तथा माननीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार को भी भेजा गया है।
ज्ञापन से पता चलता है कि उपर्युक्त विद्युत परियोजना के निर्माण के लिये ललितपुर जनपद के विकास खण्ड जखौरा के ग्राम दैलवारा, जैरवारा, टौरिया, रांकड तथा थनवास आदि ग्रामों के किसानों की उपजाऊ जमीनों को अधिग्रहीत किये जाने की योजना चल रही है।
स्पष्ट कर दें कि ये भूमि बेहद उपजाऊ है तथा दो फसल देने वाली सिंचित जमीन है। इन जमीनों के मालिक अधिकतर दलित और आदिवासी हैं तथा राजघाट बांध के डूबे क्षेत्र से भगाये गये किसान हैं जो अभी बर्बादी से उबर भी न पाये थे कि दोबारा बर्बादी के कगार पर लाकर खड़े कर दिये गये हैं।
हम भाकपा के बुन्देलखण्ड के विकास के लक्ष्य को दोहराते हुए कहना चाहते हैं कि उपर्युक्त परियोजना के लिये ‘नरेन्द्रा एक्सप्लोसिव’ नामक वर्षों से बन्द पड़े, उद्योग की 1100 एकड़ जमीन का उपयोग किया जाये। यह जमीन इस उद्योग के लिये किसानों से अधिग्रहीत की गयी थी तथा शेष वन विभाग से ली गयी थी। आज उसे वापस ले वहां विद्युत परियोजना का निर्माण किया जा सकता है।
दूसरे जनपद बुन्देलखण्ड में हजारों एकड़ जंगल की ऐसी जमीन मौजूद है जिस पर वृक्ष नहीं है। उसका इस्तेमाल भी उक्त परियोजना के लिये किया जा सकता है।
केन्द्र सरकार के उद्योग मंत्रालय ने भी राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि उद्योगों के लिये उपजाऊ जमीने न अधिग्रहीत की जायें।
खाद्यान्न संकट, बेरोजगारी और किसानों को बर्बादी से बचाने को भी यह जरूरी है।
अतएव आपसे निवेदन है कि ललितपुर जनपद में राज्य सरकार विद्युत परियोजना का अवश्य निर्माण करे परन्तु परियोजना के लिये किसानों की उपजाऊ जमीनें कतई न ली जायें।
हम समझते हैं कि आप जनहित में, कृषि हित में एवं दलित हित में उक्त परियोजना का निर्माण ‘नरेन्द्रा एक्सप्लोसिव’ की बेकार पड़ी जमीन पर अथवा किसी दूसरी गैर उपजाऊ जमीन पर करायेंगी। अन्यथा भाकपा किसानो के आन्दोलन का पूरा-पूरा सहयोग एवं समर्थन करेगी।
सधन्यवाद।
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कोपनहेगन समझौताः विकासशील देशों पर नया लगाम

कोपनहेगन जाने के पूर्व ही पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने घोषित किया था कि भारत स्वतः कार्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत की कटौती करेगा तो संसद में आपत्ति प्रकट की गयी क्योंकि ऐसी एकतरफा घोषणा से भारत की स्थिति कमजोर पड़ती थी। तब जयराम रमेश ने कहा था कि यह आश्वासन भारतीय जनगण को संबोधित है और ऐसा वे कोपनहेगन में नहीं करने जा रहे हैं और यह भी कि पर्यावरण के क्योटो प्रोटोकाल से पीछे हटने का प्रशन नहीं उठता है। ऐसी दुमंुही बातों पर तब भी किसी ने विश्वास नहीं किया था, पर अब जब जयराम रमेश कोपनहेगन में अपने दोनों ही हाथों से ऐसा ही लिखित समझौते पर हस्ताक्षर कर लौटे हैं तो झेंपते से बोले कि उन्होंने क्योटो संधि पर लचीला रूख अपनाया। लाज छिपाने का यह अनोखा तरीका है। असल बात तो यह है कि उन्होंने क्योटो संधि को अलविदा कर दिया है।

आखिर क्या मजबूरी थी कि भारत क्योटो संधि से पीछे हट गया? विकासमान देशों के साथ मिलकर भारत ने जो दबाव बनाया था, ऐसा करके भारत स्वयं विकासमान देशों से अलग-थलग हो गया। विकसित देशों ने अफ्रीकी देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता का आश्वासन देकर पहले से ही फोड़ने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे में भारत को ज्यादा सावधानी बरतनी थी। इस तरह बेजरुरत भारत-अमरीकी परमाणु संधि के बाद फिर एक बार भारत की घुटनाटेकू विदेश नीति उजागर हुई है। साम्राज्यवाद के समक्ष ऐसी ही घुटनाटेकू नीति के चलते भारत के संबंध अपने ही पड़ोसी देशों के साथ अच्छे नहीं हैं। संप्रग शासनकाल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख हमेशा ही दुविधाजनक संदिग्ध होती गयी है।
राष्ट्र संघ के 187 देशों का सर्वसहमत और अत्यंत न्यायपूर्ण क्योटो संधि को तजने का कोई कारण नहीं था। क्योटो संधि के अंतर्गत विकसित देशों के ऊपर कानूनी प्रतिबंध था कि वह अपना कार्बन उत्सर्जन घटाकर 2.7 टन प्रतिव्यक्ति की सीमा के अंदर करे। वर्तमान में अमेरिका 23.5 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करता है, जबकि भारत में महज 1.7 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन है। क्योटो संधि के अंतर्गत विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन की सीमा घटाकर 1.4 टन प्रतिव्यक्ति करने की है। ऐसी स्थिति में भारत को मात्र 0.3 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन घटाना होता। अमेरिका ने इस संधि पर हस्ताक्षर करना यह कहकर इंकार किया कि इस संधि का बुरा असर उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। तो क्या भारत का अपना कार्बन उत्सर्जन 20 प्रतिशत कम करने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर अच्छा असर पडेगा?
जाहिर है, भारत फिर अमेरिकी फांस में फंस गया है। भारत को नये कोपनहेगन प्रस्ताव के मुताबिक उत्सर्जन कम करने संबंधी नियमित रपट देनी होगी और उसकी जांच, निरीक्षण माॅनिटरिंग, वेरिफिकेशन के नाम पर भारत में अमेरिकी दखलंदाजी बढ़ती जाएगी और तब अमेरिका पर कोई ऊंगली नहीं उठाएगा कि वह क्यों अपना कार्बन उत्सर्जन कम नहीं कर रहा है।
कार्बन उत्सर्जन का संबंध निःसंदेह अर्थव्यवस्थ के साथ जुड़ा है और इसलिए अमेरिका आर्थिक क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखने के लिए पर्यावरण संरक्षण के मामले में टांगे भिड़ा रहा है, उसी तरह जैसा उसने परमाणु अप्रसार संधि; एनपीटी के मामले में किया। सर्वविदित है माल उत्पादन के लिए कारखानों में मुख्यतः कोयला, बिजली और तेल का इंधन इस्तेमाल होता है। कोयला, तेल, बिजली जलाने और तैयार करने से कार्बन डाइआक्साइड गैस बनती है। इसे ही ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहते हैं। धरती पर तापमान बढ़ने से पहाड़ों पर जमे ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं। उत्तर ध्रवु आर्कटिक और दक्षिण ध्रुव अंटार्कटिका की बर्फ भारी मात्रा में पिघल रही है। इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। प्रकटतः इससे दुनिया के समुद्र तटीय शहरों और आवासों का अस्तित्व खतरें में है। कार्बनडाइआक्साइड गैस पृथ्वी के वायुमंडल में लिपटा ओजोन गैर परत को भी कमजोर करता है। ओजोन गैस परत पृथ्वी का कवच है, जो सूर्य की हानिकारक अल्ट्रावायलट किरणों से पृथ्वी को बचाता है। विकसित देशों में ज्यादा कल-कारखानें हैं। इसलिए ये प्रदूषण फैलाने वाले सबसे बडे़ देश हैं। अमेरिकी नीति का मर्म यह है कि वह प्रदूषण फैलाने के अर्थात् कार्बन उत्सर्जन के अपने अधिकार सुरक्षित रखना चाहता है, वहीं वह विकासमान देशों को कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए कानूनी तौर पर प्रतिबंधित करना चाहता है। परमाणु अप्रसार संधि; एनपीटी पर हस्ताक्षर कराकर उन्होंने ऐसा ही किया। वे स्वयं आणविक हथियार रखेंगे, किंतु दूसरों को इसकी इजाजत नहीं देंगे। इससे उनकी वरीयता बनी रहेगी। जाहिर है, औद्योगिक देश अपने कारखानों का माल उत्पादन जारी रखने के लिए पिछड़े देशों को कारखाना विस्तार रोकना चाहते हैं।
आर्थिक विकास की विश्व प्रतियोगिता में हर देश ऊर्जा की खपत में वृद्धि कर रहा है और इससे उसी अनुपात में दुनिया में कार्बन-उत्सर्जन बढ़ रहा है। इस तरह बेलगाम माल उत्पादन और मुक्त बाजारवाद से दुनिया में एक तरफ कुछ देश और कुछ व्यक्ति अपार संपदा समेटे हैं, तो दूसरी तरफ इस दौर में न केवल दुनिया में गरीबी और दारिद्रय का फैलाव हो रहा है, बल्कि संपूर्ण पृथ्वी का अस्तित्व ही गंभीर खतरे के आगोश में है। इस खतरे की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए मालद्वीप की सरकार ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक समुद्र की गहराई में पैैठकर की तो नेपाल सरकार का मंत्रिमंडल ने एवरेस्ट के तुंग शिखर पर जाकर बैठक रचायी। वैज्ञानिकों का आकलन है कि एशिया-अफ्रीका के समुद्र तटीय देशो का बड़ा भाग 2150 तक समुद्र के गर्भ में चला जाएगा। भारत के कलकत्ता, मुंबई जैसे शहर भी खतरे में होंगे। अनुमान है कि बंग्लादेश का एक तिहाई भाग समुद्र में डूबेगा और वहां से कई करोड़ आबादी का पलायन होगा। बंग्लादेशी भागकर कहां जायेंगे? भारत उनके लिए सबसे सुगम है। ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया में बड़ा उलटफेर होने वाला है।
कोपनहेगन में फिर अमेरिकी कूटनीति की जीत हुई। वह 1992 के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी), 1997 की क्योटो संधि और 2004 की बाली कार्ययोजना प्रावधानों को ठेंगा दिखाने में कामयाब हो गया, जिसके मुताबिक विकसित औद्योगिक देशों के लिए पहले अपना कार्बन उत्सर्जन घटाना लाजमी था। जयराम रमेश के ‘लचीलेपन’ के चलते अब ये दोनों ही दस्तावेज बेकार हो गए। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन और क्योटो संधि विकासमान देशों के हित में अत्यंत महत्वपूर्ण थे।
अमेरिका स्वाभाविक ही कोपनहेगन में अपनी दोहरी जीत से प्रसन्न है। विश्व का 4.5 प्रतिशत आबादी वाला देश, जो 22 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन का दोषी है, वह किसी प्रकार की बाध्यकारी वचनबद्धता से साफ बच गया और उलटा वह भारत जैसे विकासमान देशों को वचनबद्धता के दायरा में खींच लाने में कामयाब हो गया, जिसका विकसित औद्योगिक देशों के मुकाबले कार्बन उत्सर्जन ही अत्यल्प है। निश्चय ही, यह विकासशील देशों के आर्थिक विकास पर नया लगाम साबित होगा।

सत्य नारायण ठाकुर
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शनिवार, 2 जनवरी 2010

MANIFESTO OF PROGRESSIVE WRITERS ASSOCIATION ADOPTED IN THE FOUNDATION CONFERENCE 1936

MANIFESTO OF PROGRESSIVE WRITERS ASSOCIATION ADOPTED IN THE FOUNDATION CONFERENCE 1936
Radical changes are taking place in Indian Society. The spirit of reaction, however, though moribund and doomed to ultimate decay, is still operative and is making desperate efforts to prolong it. Indian literature, since the breakdown of classical culture, has had the fatal tendency to escape from the actualities of life. It has tried to fid a refuge from reality in baseless spiritualism and ideality. The result is that it has become anaemic in body and mind and has adopted a rigid formalism and a banal and perverse ideology.
It is the duty of Indian writers to give expression to the changes taking place in Indian life and to assist spirit of progress in the country by introducing scientific rationalism in literature. They should undertake to develop an attitude of literary criticism that will discourage the general reactionary and revivalist tendencies on questions like family, religion, sex, war and society. They should combat literary trends reflecting communalism, racial antagonism and exploitation of man by man.
It is the object of our Association to rescue literature and other arts from the conservative classes in whose hands they have been degenerating so long to bring arts in the closest touch with the people and to make them the vital organs which will register the actualities of life, as well as lead us to the future we envisage.
While claiming to be the inheritors of the best traditions of India civilization, we shall criticize in all its aspects, the spirit of reaction in our country and we shall foster through interpretative and creative work (with both Indian and foreign resources) everything that will lead our country to the new life for which it is striving. We believe that the new literature of India must deal with the basic problems of hunger and poverty, social backwardness and political subjection. All that drags us down to passivity, inaction and un-reason, we reject as reactionary.
All that arouses in us the critical spirit that examines institutions and customs in the light of reason, which helps us to act, to organise ourselves, to transform, we accept as progressive.
The aims and objectives of our Association are as follows :
1) To establish organisation of writers to correspond to the various linguistic zones of India; to co-ordinate these organisations by holding conferences and by publishing literature; to establish a close connection between the central organisations and to co-operate with those literary organisations whose aims do not conflict with the basic aims of the Association.
2) To form branches of the Association in all the important towns of India.
3) To produce and to translate literatures of a progressive nature, to fight cultural reaction, and in this way to further the cause of India's freedom and social regeneration.
4) To protect the interests of progressive authors.
5) To fight for the right of free expression of thought and opinion.
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नव वर्ष की शुभकामनायें

आप सब को सपरिवार नव वर्ष २०१० सुखद एवं सम्रद्धिकारी हो!
देश से साम्राज्यवादी शक्तिओं का नाश हो!
- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
उत्तर प्रदेश
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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

नफ़स-नफ़स कदम-कदम

नफ़स-नफ़स कदम-कदम
बस एक फिक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
जहां अवाम के खिलाफ साजिशें हो शान से
जहां पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहां पे लफ़्ज-ए-अमन एक खौफनाक राज हो
जहां कबूतरों का सरपरस्त एक बाज हो
वहां न चुप रहेंगे हम
कहेंगे, हां, कहेंगे हम
हमारा हक! हमारा हक! हमें जवाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
यकीन आँख मूंद कर किया था जिन पर जान कर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्हीं सरहदों में कैद हैं हमारी बोलियां
वही हमारे थाल में परस रहे हैं गोलियां
जो इनका भेद खोल दे
हरेक बाल बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली किताब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
वतन के नाम पर खुशी से जो हुए हैं बे-वतन
उन्हीं की आह बे-असर, उन्हीं की लाख बे-कफन
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भले न जी सकें, न मर सकें
सियाह जिंदगी के नाम
उनकी हर सुबह ओ शाम
उनके आसमां को सुर्ख आफताब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए।
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
होशियार! कह रहा लहू के रंग का निशान
ऐ किसान होशियार! होशियार नौजवान!
होशियार! दुश्मनों की दाल अब गले नहीं
सफेदपोश रहजनों की चाल अब चले नहीं
जो इनका सर मरोड़ दे
गुरूर इनका तोड़ दे
वह सरफरोश आरजू वही जवाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल, सोच और सोच कर सवाल कर
किधर गये वो वायदे? सुखों के ख्वाब क्या हुए?
तुझे था जिनका इन्तजार वो जवाब क्या हुए?
तू झूठी बात पर न और एकबार कर
कि तुझको सांस-सांस का सही हिसाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!

-शलभ श्रीराम सिंह
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लोग कराह रहे हैं पर महंगाई बढ़ती ही जा रही है

नयी दिल्लीः लोकसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गुरुदास दासगुप्त ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि पर हुई बहस में भाग लेते हुए कहाः मैं समझता हूं कि यह गंभीर बहस पटरी से नहीं उतरेगी। यह बात आर्थिक रूप से साबित नहीं हुई है और न ही यह दावा किया गया है कि उच्च वृद्धि से मुद्रास्फीति होती है। न तो सरकार ने कहा है और न ही आधिकारिक सूत्रों ने कहा कि समर्थन मूल्य में वृद्धि से मुद्रास्फीति हुई है।
समावेशी विकास का अर्थ कीमत की उच्च लागत नहीं है। समावेशी विकास का अर्थ है विवेकसम्मत कीमत पर जनता को खाद्यान्न उपलब्ध कराना। मूल बात है कि क्यों कीमतें बढ़ रही हैं और सरकार को क्या करना चाहिए एवं सरकार ने क्या किया है। क्या इस बात से इन्कार किया जा सकता है कि हर सप्ताह कीमतें बढ़ती रही हैं।
हर सप्ताह कीमतों में वृद्धि की दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। इसीलिए सरकार आज कटघरे में खड़ी है। यह राजनीति का सवाल नहीं है। यह एक समाज कल्याणकारी राज्य का सवाल है। लोगों को अवश्य ही जीवित रहने के लिए खाद्य सामग्री पाने की सुविधा होनी चाहिए। लोगों को अवश्य ही एक मकान चाहिए। लोगों को अवश्य ही एक विवेकसम्मत आय चाहिए। यह कल्याणकारी राज्य है। कांग्रेस प्रतिबद्ध है। इसीलिए सवाल है, क्यों सरकार कीमतों पर अंकुश लगाने में विफल रही है जो हाल की अवधि में एक महाविपदा हो गयी है। इसीलिए सवाल उठता है कि यह बड़ी आशंका है कि सरकार के पास उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई इच्छाशक्ति ही नहीं है जो महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए हमें अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर नहीं डालनी चाहिए कि यह उत्तर प्रदेश विधानसभा नहीं है, न ही यह बिहार विधानसभा है। हमें यह नहीं कहना चाहिए कि कीमतें बढ़ रही हैं क्योंकि राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में विफल रही है।
दिल्ली, भारत की राजधानी के बारे में क्या है? हम दिल्ली में रहते हैं। दिल्ली में आलू 35 रुपये किलो बिक रहा है। केन्द्र सरकार यहां है। राज्य में भी उसी पार्टी की सरकार है। इसलिए हमें राज्य सरकारों के कामकाज के पीछे सरकार को अपनी अकर्मण्यता को नहीं छिपाना चाहिए। पूरे देश में, देश के हर हिस्से में कीमतें बढ़ रही हैं। इसके क्या कारण हैं? क्या इसीलिए क्योंकि 100 दिनों के रोजगार की मांग बढ़ रही है, क्योंकि आबादी में वृद्धि के कारण कीमतें बढ़ गयी हैं और कि अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के कारण कीमतें बढ़ गयी है। हमें इस महान देश की बुनियादी मानवीय समस्याओं पर वास्तविक रूप से विचार करना चाहिए। हर व्यक्ति को इस दृष्टि से इस पर विचार करना चाहिए।
मेरी समझ है कि बुनियादी आर्थिक नीतियां महंगाई के लिए जिम्मेवार है। मेरी समझ है कि सट्टेबाजी अर्थव्यवस्था जिसे सरकार ने पिछले वर्षों में निर्मित किया है, इसके लिए जिम्मेवार है। मैं अमरीका में प्रधानमंत्री द्वारा दिये गये भाषण को पढ़ रहा था। वे सावधानीपूर्वक कार्पोरेट से कह रहे हैं- चिंता न करें उदारीकरण को आगे बढ़ाया जायगा। इसलिए आप आयें और भारत में निवेश करें। यह मूल प्रश्न है। बिना किसी देखरेख के बिना किसी सुरक्षा के उदारीकरण की अतिमात्रा ने देश में हर व्यक्ति को गलत संदेश दिया है कि आप जो कुछ भी चाहें कर सकते हैं क्योंकि सरकार उदारीकरण के लिए प्रतिबद्ध है और उदारीकरण का अर्थ है राज्य का अहस्तक्षेप यानी राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
यह सही है कि उत्पादन की कमी है। वित्तमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि देश में खाद्य उत्पादन में 20 प्रतिशत की कमी हो सकती है। लेकिन मुद्दा है कि कीमतों में वृद्धि उत्पादन में कमी के अनुरूप नहीं है। खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि खाद्यान्न उत्पादन में कमी के अनुपात में नहीं है। वह उससे काफी अधिक है। हमें तीर निशाने पर मारना चाहिए। इसलिए सवाल है कि मूल्यवृद्धि केवल मांग और आपूर्ति का बेमेल होना नहीं है। बुनियादी सुधारात्मक कदम उठाये बिना सरकार खाद्यान्न का अंधाधुंध आयात कर रही है। श्री शरद पवार जी, यह शर्म की बात है कि बीस वर्ष के बाद आप इस देश, भारत में चावल का आयात कर रहे हैं जो विश्व के चावल का कटोरा है, हरित क्रांति का स्थल है, श्री प्रताप सिंह कैरो का स्थल है, क्रांति का स्थल है जिसकी भारत ने बात की। यह एक राष्ट्रीय शर्म है कि भारत बीस वर्षों के बाद चावल का आयात कर रहा है। यह केवल सरकार के लिए नहीं बल्कि हम सबके लिए है जो इसका सामना कर रहे हैं।
हमने खाद्य सुरक्षा खो दी है। हम अपनी आर्थिक संप्रभुता खो देने के कगार पर है। मैं कोई अतिरंजित बयान नहीं दे रहा हूं। एक देश की आर्थिक संप्रभुता खाद्य में आत्म-निर्भरता पर निर्भर करती है। हम खाद्य में आत्मनिर्भरता खो रहे है तो यह आशंका भी है कि हमारी आर्थिक संप्रभुता भी अस्तव्यस्त हो सकती है। हमारी राजनीतिक संप्रभुता भी जोखिम में पड़ सकती है। आज विश्व में खाद्य में संप्रभुता किसी भी देश की राजनीतिक संप्रभुता की बुनियाद है।
महंगाई कोई पहेली नहीं है। हम चकरा देने वाली महंगाई पर बहस कर रहे हैं जो भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है। हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए। वास्तव में यह व्यापारियों का एक हमला है- यह एक अत्यंत उदारीकृत अर्थव्यवस्था में जहां सरकार की अकर्मण्यता, जगजाहिर हो चुकी है, भारतीय उपभोक्ताओं के खिलाफ व्यापारियों का एक हमला है। महंगाई कोई आज की परिघटना नहीं है। हमने पिछले अधिवेशन में भी इस पर चर्चा की थी। इसलिए महंगाई कोई आज की परिघटना नहीं है।
मैं आशा करता हूं कि सरकार बुरा नहीं मानेगी यदि मैं कहूं कि 2004 में जिस दिन से यूपीए सत्ता में आया, महंगाई एक संलक्षण हो गयी है। पिछले छह वर्षों में महंगाई लगातार बढ़ती रही है, इसलिए मैं समझता हूं कि बहस का विषय महंगाई नहीं है। बहसा का विषय सट्टेबाजी एवं जमाखोरी पर प्रशासनिक अंकुश लगाने में सरकार की अकर्मण्यता, उसकी असमर्थता, उसकी भयंकर विफलता है। मैं कहना चाहता हूं कि 65 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर करते हैं। श्री शरद पवार हमेशा कहते है कि वे भी एक किसान हैं। पर उनके नेतृत्व में भी देश में कृषि में गिरावट को रोका नहीं जा सका है। किस गति से महंगाई बढ़ रही है। मैं आंकड़ों में नहीं जाना चाहता हूं। एक सप्ताह में, 7.11.2009 को समाप्त होने वाले सप्ताह में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में 65 प्रतिशत वृद्धि हुई है। उसके पहले सप्ताह में वह वृद्धि 40 प्रतिशत थी। में तीन वस्तुओं चावल, गेहूं तथा आलू का उदाहरण देना चाहूंगा।
भारत 11 करोड़ टन चावल का उत्पादन करता है। अब कृषि मंत्री को इस बात की पुष्टि करनी है कि 10 करोड़ टन चावल का उत्पादन हो रहा है। यह हमारी आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त है। तो मूल्यवृद्धि क्यों हो रही है। एक खास किस्म का चावल कलम चावल 24 रु. प्रति किलो उपलब्ध था। आज वह 40 रु. प्रति किलो उपलब्ध है। यह कैसे हुआ? इससे चिन्ता उत्पन्न होती है। गेहूं के बारे में क्या है? शरद पवार कहते हैं कि 7.8 करोड़ टन गेहूं कर उत्पादन हुआ है। कितना उपभोग किया जाता है। 7.6 करोड़ टन। तो फिर क्यों गेहूं की कीमत प्रति किलो 6 से 8 रु. तक बढ. गयी।
मेरे मित्र जगदम्बिका बाबू बोले और चले गये। वे मांग और आपूर्ति के बीच असमानता की बात कह रहे थे। आप आलू को लें। यह प्रत्येक भारतीय के लिए महत्वपूर्ण सब्जी है। इसकी मूल्यवृद्धि कितनी हुई है? हाल की अवधि में 102.4 प्रतिशत वृद्धि हुई है। पिछले बहस में मैंने कहा था कि वह 6 रु. प्रतिकिलो से बढ़कर 20 रु. प्रति किलो हो गया। 300 प्रतिशत मूल्यवृद्धि हुई। आज फिर उसमें 100 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह दिखलाता है कि केवल उत्पादन में कभी इसका कारण नहीं है। वह बल्कि आपूर्ति में कमी, व्यापारियों द्वारा स्टाक को दबा रखने से इसकी कमी हुई है। वही इसके लिए जिम्मेदार है।
सरकार किसी व्यापारी, किसी जमाखोर पर या किसी भी उस व्यक्ति पर जो जनता के जीवन से खिलवाड़ करते हैं, हाथ डालने से कतराती है। मैं यह नहीं कहता कि सारा दोष केन्द्र सरकार का ही है। राज्य सरकारें भी अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रही है। केन्द्र सरकार को बताना है कि दिल्ली में कितने बेईमान व्यापारी गिरफ्तार किये गये है। यह इस बात को साबित करता है कि मुद्रास्फीति किसी भी विवेकसम्मत दर से परे है। सरकार की नीति और जनता के महत्वपूर्ण सरोकारों के बीच काफी अंतर है। भारतीय अपनी आय का 45 प्रतिशत भोजन पर खर्च करते हैं। वह अमरीका नहीं है, ओबामा का देश नहीं है। हमारे देश में हमारी आय का 45 प्रतिशत भोजन पर खर्च होता है और एक वर्ष में खाद्य पदार्थों की कीमतों में 100 प्रतिशत वृद्धि हुई हैं तो क्या सरकार का कोई दोष नहीं है? हम उसकी नीति को जनता को दी जाने वाली सेवा की कसौट पर परखेंगे।
देश के मुख्य सांख्यिकीविद, एक सिविल सर्वेंट ने कहा है कि मूल्यवृद्धि जमाखोरी तथा स्टाक जमा करने के कारण हुई है। यह मैं नहीं, बल्कि एक नौेकरशाह कह रहा है। इसलिए वह वायदा कारोबार है जो तबाही मचा रहा है जिसकी सरकार ने इजाजत दी है। वह उदारीकृत निर्यात जिसने बर्बादी अंजाम दिया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ध्वस्त हो जाने से बाजार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इसलिए देश में कृषि के ढह जाने की पृष्ठभूमि में यह सब हुआ है और सरकार ने पिछले छह वर्षों में कृषि में सुधार के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया है, कृषि संकट इसकी पृष्ठभूमि रहा है और उसके साथ ही सट्टेबाज तबाही मचा रहे हैं और सरकार काफी उदार एवं नरम बनी हुई हैं। सरकार को दिखाना है कि उसके पास इच्छाशक्ति है या नहीं। यह तो पूरी विफलता है। मैं सरकार के नेताओं से पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि चुनावी विजय हमेशा सरकार की आपराधिक विफलता को माफ नहीं कर सकती है। आखिरकार यह एक लोकतंत्र है, मैं सरकार से आग्रह करूंगा कि वह इस पर विचार करे कि राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन में उसका चूक हुई या नहीं।
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संघ का अंतर्द्वंद्व - भाजपा का अस्तित्व

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दावा तो सांस्कृतिक संगठन होने का करता है परन्तु उसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति एवं सहअस्तित्व की भावना से हमेशा परहेज ही किया। उसके गैर-राजनीतिक होने के दावे की हकीकत से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। बाजपेई और आडवाणी 85 वर्ष के करीब हो गये, वे अपनी उम्र और भूमिका दोनों का सफर तय कर चुके हैं। उनके शरीर नश्वर हैं..... समाप्ति की ओर अग्रसर। लेकिन भाजपा की आत्मा - ”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ“ भी 85 साल की होने के बावजूद न तो स्वयं को मृतप्रायः स्वीकार करने को तैयार और न ही अपने राजनीतिक संस्करण भाजपा को ही।
सत्ता में आने के लिए भाजपा बार-बार अपनी आत्मा यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोषित सोच के साथ समझौता करने के बावजूद राजनीतिक क्षितिज पर पराभव की ओर अग्रसर है। अपने राजनीतिक संस्करण की इस दुर्दशा पर बहुत चिन्तित है संघ। बड़ी कुलबुलाहट, बड़ी छटपटाहट का शिकार है संघ। पूर्व संघ प्रमुख के.सी.सुदर्शन भाजपा नेतृत्व से शिकायतें करते ही रह गये कि भाजपा सत्ता के नशे में परिवार के योगदान को भुला बैठी। भागवत संघ परिवार के मुखिया बनने के बाद लोकसभा चुनावों में पार्टी की पराजय को बर्दाश्त नहीं कर सके। अपनी 60वीं वर्षगांठ की ओर अग्रसर भागवत चीख उठे - ”बदलाव जरूरी है।“ समाचार माध्यमों एवम् राजनीतिक हल्कों में भाजपा ने कुलबुलाहट को शान्त करने का प्रयास किया। राजनाथ सिंह पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र के नाम पर मामले को शान्त करते नजर आये। वे पार्टी के जिस आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई दे रहे थे, पूरा देश उसके अस्तित्वहीन होने से परिचित है।
आखिर 18 दिसम्बर को वह घड़ी आ ही गयी जब संघ के प्रतिनिधि के तौर पर गडकरी ने भाजपा की शीर्षसत्ता यानी उसके अध्यक्ष पद पर आसीन हो गये। भागवत के निर्देशन में ‘हेडगेवार भवन’ में भाजपा को एक बार फिर जिन्दा रखने के लिए जो ब्लूप्रिन्ट तैयार किया गया था, उसको अगली जामा पहनाया जाने लगा।
गडकरी की क्या पहचान होगी? उनके सामने पार्टी की लगभग वही स्थिति है तो सन 1984 में भाजपा की थी। संघ का स्वास्थ्य हमेशा जन-मानस के रूधिर से ही पनपता रहा है। तब संघ को अयोध्या में एक प्रतीक नजर आ गया। उस प्रतीक के झुनझुने को लाल कृष्ण आडवाणी को एक रथ पर बैठा कर पकड़ा दिया गया। वे पूरे देश में उस झुनझुने को बजा-बजाकर आवाम की शान्ति-चैन छीनने निकल पड़े क्योंकि फासिस्ट संघ के राजनीतिक संस्करण भाजपा को जीने के लिए तमाम लाशों की जरूरत थी। उधर संघ परिवार अपने अन्य अनुषांगिक संगठनों के साथ मिलकर अयोध्या के प्रतीक को ध्वंस करने के ब्लूप्रिन्ट को अमली जामा पहनाने की तैयारी करता रहा। उस दौर में पूरे देश में काफी लाशें गिराने में संघ और भाजपा सफल रहे। उन लाशों से गुजर कर आखिरकार भाजपा को एक नया जीवन मिल गया। केन्द्र में सत्तासीन होने का उसका रास्ता प्रशस्त हुआ था परन्तु वह 24 पार्टियों का सर्वमान्य नेता कथित उदारमना अटल बिहारी बाजपेई के नाम पर सहमत होने पर ही सम्भव हो सका था।
उस दौर ने जनता के सामने संघ परिवार की सोच को साफ-साफ पेश कर दिया था। उसके इस चेहरे से भी जनता अब परिचित हो गयी है।
अब देखना होगा कि गडकरी के हाथ में भागवत ”हेडगेवार भवन“ से कौन सा झुनझुना और कैसा रथ भेजते हैं। हमें सतर्क रहना होगा क्योंकि मृतप्रायः भाजपा को नया जीवनदान देने के लिए संघ फिर लाशों की राजनीति करने से नहीं हिचकेगा। हम जनता से यही गुजारिश कर सकते हैं कि जागते रहो और फासिस्ट संघ की नई चाल से सतर्क रहो।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अयोध्या के प्रतीक रूपी झुनझुने की अवधारणा तैयार करने के पहले संघ परिवार ने सत्तर के दशक से अस्सी के दशक के मध्य तक कई पैतरों का इस्तेमाल किया था। पहले उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को अपनाने का प्रयास किया परन्तु स्वामी विवेकानन्द के शिकागो के ऐतिहासिक भाषण की यह लाईनें कि ”भूखों को धर्म की नहीं रोटी की जरूरत होती है“ भाजपा के रास्ते पर आकर खड़ी हो गईं। फिर उन्होंने शहीदे-आजम भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने का प्रयास किया तो भगत सिंह का खुद को नास्तिक घोषित करने का मामला भाजपा के आड़े आ गया। तब उन्होंने ”गांधीवादी समाजवाद“ का प्रलाप शुरू किया तो जनता ने गांधी के हत्यारे के रूप में भाजपा को चित्रित कर उसे लोकसभा में दो सीटों तक पहुंचा दिया। सम्भव है शुरूआती दौर में संघ एक बार फिर इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल करने की असफल कोशिश करे परन्तु अन्तोगत्वा उसे जिन्दा रहने के लिए लाशों की ही जरूरत पड़ेगी। उसका इतिहास तो यही बताता है।

प्रदीप तिवारी
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बुधवार, 23 दिसंबर 2009

स्मरण कामरेड रूद्र दत्त भारद्वाज

भारत का राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम अपने अन्दर प्रवाहित अनेकानेक विरोधी धाराओं को समेटे और उनकी प्रहार क्षमताओं को एक साथ जोड़े एक महानद के विराट स्वरूप में तूफानी गति से आगे बढ़ा था। इस समन्वित शक्तिशाली राष्ट्रीय संघर्ष ने देश में दो सौ साल से अपनी गहरी जड़े जमाये ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ कर सात समुन्दर पार फेंक दिया था। इस राष्ट्रीय आन्दोलन के ही गर्भ में पनपी, पली और बढ़ी एक धारा थी - कम्युनिस्ट आन्दोलन की मानवतावादी धारा जिसका अपना विशिष्ट महत्व है और जिसे समझे बिना भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के सारतत्व को सही अर्थों में समझा नहीं जा सकता।
भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन ने राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए और फिर इस स्वाधीनता को गरीबों के झोंपडों तक पहुंचाने के लक्ष्य के लिये अपना सर्वस्व होम कर देने वाली ऐसी अनेक विभूतियां पैदा की हैं जिन पर संसार की कोई भी कौम गर्व कर सकती है। ऐसी ही अमर विभूतियों में थे - कामरेड रूद्र दत्त भारद्वाज।
कामरेड भारद्वाज उत्तर भारत में - खासतौर पर उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जन्मदाताओं और संस्थापकों में से एक प्रमुख हस्ती थे। वे अल्प आयु में ही पार्टी की केन्द्रीय कमेटी और इसक पोलिट ब्यूरो के सदस्य बन कर शीर्ष नेतृत्व के बीच उभरे और गहन माक्र्सवादी अध्ययन, जनता के बीच सघन कार्य तथा जन संघर्षों की आग में तप कर कुन्दन बने। अपने क्रान्तिकारी व्यक्तित्व से उन्होंने सम-सामयिक राजनीति को न केवल गहराई से प्रभावित किया वरन उसे एक निश्चित दिशा देने में भी समर्थ हुये। उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास, उसकी इमारत की एक-एक ईंट कामरेड भारद्वाज के बलिदानी जीवन, उनकी विद्वता, गहन चिन्तन-मनन तथा राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रश्नों पर चले घनघोर जन संघर्षों में उनके जनूनी जुझारूपन की गवाह है।
मेरठ षडयंत्र केस में जब भारत के मजदूर नेता चुन-चुन कर जेलों में बन्द कर दिये गये थे, तो जिन तीन-चार तरूणों ने भारत में मजदूर किसान पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) के काम को जारी रखा और उसे आगे बढ़ाने के लिए बहुत काम किया, उनमें कामरेड रूद्र दत्त भारद्वाज का नाम सबसे पहले आता है।
कामरेड भारद्वाज का जन्म मेरठ जिले की बागपत तहसील के बूड़पुर गांव में दिसम्बर 1908 में हुआ था। उनके पिता पं. रामानन्द शर्मा संस्कृत के अच्छे पण्डित थे लेकिन उन्होंने यजमानी या पंडिताई को अपने जीविकोपार्जन का साधन नहीं बनाना चाहा। वैसे इस गांव के अधिकांश ब्राम्हण परिवार यजमानी के धंधे से ही अपनी जीविका चलाते थे। उन्होंने महाजनी और अनाज की खरीद-फरोख्त के कारोबार को अपना कर अपने परिवार का भरण-पोषण किया। आर्य समाजी आन्दोलन के प्रसार में अपने गांव से शर्मा जी पहले आर्य समाजी बने और इसके लिए बहुत काम भी किया। तत्कालीन आर्य समाज आन्दोलन और इसमें पिता द्वारा निभाई गई भूमिका का निश्चित ही कामरेड भारद्वाज के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
कामरेड रूद्र दत्त भारद्वाज की आरंभिक शिक्षा अपने गांव और पड़ोसी गांवों के स्कूलों में ही हुई थी। बाद में बड़ौत के हाई स्कूल में पढ़ते हुए वे घनघोर आर्य समाजी और फिर राष्ट्रीय आन्दोलन के जनूनी सिपाही बन गये। उस दौरान उन्होंने गांधी जी के अनशन पर तथा तिलक की गिरफ्तारी पर अपने स्कूल में हड़तालों का नेतृत्व किया। यह समय और उनका स्कूली जीवन राजनीति में प्रवेश और इसके लिए अपने को तैयार करने हेतु एक महत्वपूर्ण पाठशाला बन गया था।
असहयोग आन्दोलन के भरपूर प्रभाव के कारण पिता के विरोध के बावजूद उन्होंने अपना स्कूल छोड़ दिया था। बगैर पैसे के वे चालीस मील पैदल चलकर अपने साथियों के साथ दिल्ली भाग गये और गांधी जी के आदेश के अनुसार चर्खा चलाना शुरू कर दिया। बाद में रोहतक के राष्ट्रीय स्कूल में दाखिला लेकर उन्होंने वहां दो साल की पढ़ाई एक साल में ही पूरी की और मैट्रिक की परीक्षा पास की। अब आगे की पढ़ाई के लिए वे लाहौर के कौमी विद्यालय में दाखिल हो गये। वहीं पर यशपाल, मोहन लाल गौतम और हरनाम दास (भदन्त आनन्द कौसल्यायन) से सहपाठी के रूप में उनका परिचय हुआ।
1924 की जनवरी में कामरेड भारद्वाज 16 वर्ष की आयु में बनारस जाकर वहां के सेण्टल हाई स्कूल में दाखिल हुए। यहां भी दो वर्ष की पढ़ाई एक वर्ष में पूरी कर यहां की मैट्रिक परीक्षा पास की। इस दौरान स्कूली पढ़ाई के साथ वे राष्ट्रीय आन्दोलन से भी गहरा सम्बंध बनाये रखे। साथ ही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं और प्रेम चन्द्र की कहानियों की नियमित पढ़ाई से उनमें गहरी साहित्यिक अभिरूचि जाग्रत हुई। उन दिनों वे कांग्रेस के अनन्य भक्त थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश ले कर वे इतिहास, अर्थशास्त्र और तर्क शास्त्र गहरी दिलचस्पी के साथ पढ़ने लगे। उन्होंने इस दौरान अर्थशास्त्र पर तो अनेकानेक बाहरी पुस्तकें भी गहराई के साथ पढ़ डालीं। वे घोर राष्ट्रवादी युवक थे, इसलिए 1926 में कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के लिये स्वयंसेवक बन कर गये थे। उन्हीं दिनों कामरेड भारद्वाज ने रूसी क्रान्ति के बारे में चर्चा सुनी थी जिससे वे उसके प्रति आकर्षित हुए थे।
बनारस से इंटर पास करने के बाद वे प्रयाग विश्वविद्यालय में दाखिल हुये और यहां भी अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र विषय थे। यहां छात्र जीवन के दौरान कामरेड भारद्वाज स्वराजी देश भक्त से विकास कर धीरे-धीरे अपने अनुभव और सम्पर्क सूत्रों के सहारे कट्टर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बन गये। यहां पर छात्र संघ की एकसभा में उन्होंने कामरेड पूरन चन्द्र जोशी का विद्वतापूर्ण और प्रेरणाप्रद भाषण सुना और उनके गहरे सम्पर्क में आकर धीरे-धीरे राजनैतिक कार्यों में उनके दाहिने हाथ बन गये। ज्ञातव्य हो कि कामरेड पूरन चन्द्र जोशी बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने और भारतीय राजनीति में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कामरेड जोशी का जन्म शताब्दी वर्ष इस समय चल रहा है। इलाहाबाद में छात्र के रूप में ही कामरेड भारद्वाज ने माक्र्स की ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ और लेनिन की ‘राज्य और क्रान्ति’ तथा ‘साम्राज्यवाद’ आदि पुस्तकों का अध्ययन किया। वह प्रयाग तरूण संघ के सचिव भी थे जबकि पं. जवाहर लाल नेहरू उसके अध्यक्ष थे।
कामरेड भारद्वाज के गंभीर अध्ययन ने जहां राजनीति में उन्हें कम्युनिज्म पर पहुंचाया वही धर्म और ईश्वर के फन्दे से छुड़ा कर एकदम कट्टर अनीश्वरवादी बना डाला। उन्होंने अब बी.ए. पास कर लिया था। इसी साल मार्च में कामरेड पूरन चन्द्र जोशी मेरठ षडयंत्र केस में गिरफ्तार कर लिये गये।
मेरठ षडयंत्र केस में बड़े पैमाने पर मजदूर नेताओं की गिरफ्तारी के बाद कामरेड भारद्वाज के ऊपर राजनैतिक कार्यों का अकेले ही सारा बोझ आ पड़ा। उन्हें माक्र्सवाद पर क्लास लेने के लिए प्रयाग से बाहर भी जाना पड़ता। जब वे एम.ए. में राजनीति शास्त्र पढ़ रहे थे। साथ ही घर वालों के जोर देने के कारण कानून की पढ़ाई भी मजबूरन पढ़ रहे थे। 1930-31 का समय कामरेड भारद्वाज के लिए माक्र्सवाद का गहन अध्ययन का समय था। राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए यह उथल पुथल का समय था जब एक ओर लाहौर षडयंत्र केस तथा असेम्बली बम केस मके अभियुक्त के रूप में जेल में बन्द सरदार भगत सिंह, राजगुरू तथा सुखदेव की फांसी ने सम्पूर्ण देश के युवा रक्त में उबाल पैदा कर दिया था तो उधर दूसरी ओर गांधी जी द्वारा छेड़े गये आन्दोलन ग्रामीण अंचल की किसान मजदूर जनता को भी राजनीति में आने के लिए प्रेरणा प्रदान कर रहे थे। देश के राजनैतिक घटनाक्रम का यह तूफान भी कामरेड भारद्वाज को गम्भीर रूप से प्रभावित कर रहा था। 1931 में एम.ए. उत्तीर्ण कर उन्होंने विश्वविद्यालय में दूसरा नम्बर पाया था। कानून का पहला वर्ष पास करके ही उन्हें इसकी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी। उस समय पैदा हो गये घरेलू और राजनैतिक हालात का यही तकाजा था।
जेल में बन्द साथियों से मिलकर उनके परामर्श और निर्देश के आधार पर कामरेड ेभारद्वाज परीक्षाफल आते ही 23 वर्ष की आयु में बम्बई में मजदूरों के बीच काम करने के लिए चले गये। वहां पर उन्होंने कामरेड गंगाधर अधिकारी, का. सरदेसाई तथा का. बी.टी.रणदिवे के साथ काम करना शुरू किया।
बम्बई में कामरेड भारद्वाज ने रेलवे मजदूरों की यूनियन कपड़ा मिल मजदूरों की गिरनी कामगार यूनियन और तरूण कामगार लीग को अपना कार्य क्षेत्र बना कर सघन कार्य किया। वे विभिन्न क्षेत्रों के मजदूरों में व्याख्यान देते और उनका क्लास लेते तथा कामरेड सरदेसाई के साथ मिल कर रेलवे मजदूरों के लिए हिन्दी व अंग्रेजी में दो अखबार निकालते। इसी साल गिरनी कामगारों के एक जुलूस का नेतृत्व करने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर तीन माह की सजा दी यी। वे रेलवे मजदूरों में अपने सघन कार्य की वजह से बीबीसीआई (बम्बई से अजमेर) के मजदूरों की यूनियन के महामंत्री चुन लिये गये। 1934 में बम्बई में हुई कपड़ा मिल मजदूर कांफ्रेंस के अन्दर मालिकों के जुल्म के खिलाफ मजदूर हड़ताल का निर्णय लिया गया। कामरेड भारद्वाज की हड़ताल की तैयार के लिये बम्बई और अहमदाबाद में भी भारी परिश्रम करना पड़ा। इसी तैयारी के लिये अजमेर जाने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि वहां के रेलवे वर्कशाॅप में उसी समय हड़ताल हो गयी थी। कामरेड भारद्वाज को छः सप्ताह की सजा देकर जेल में डाल दिया गया। इसी बीच अहमदाबाद के वारंट पर उन्हें दो साल की सजा हुई और वह पूरा जेल जीवन साबरमती और हैदराबाद (सिंध) की जेलों में सी क्लास के अन्दर बिताना पड़ा।
सन 1936 के अप्रैल महीने में वे जेल से छूटे तो उततर प्रदेश पुलिस ने हिरासत में लेकर प्रयाग में जाकर छोड़ा। इससे पहले ही भारद्वाज के जेल में रहते ही नागपुर में सम्पन्न पार्टी की केन्द्रीय समिति की बैठक में उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति और पोलिट ब्यूरो का सदस्य चुन लिया गया था।
प्रयाग आने पर कामरेड भारद्वाज की कामरेड पूरन चन्द्र जोशी से भेट हुई थी। उन दिनों पार्टी का केन्द्रीय कार्यालय लखनऊ पहुंच गया था। कामरेड भारद्वाज को अब लखनऊ को केन्द्र बना कर काम करना था। पार्टी के गैर कानूनी होने के कारण साथियों को अधिकतर फरारी की हालत में ही काम करना पड़ता था। पार्टी के निर्णय से कामरेड भारद्वाज कानपुर के मजदूरों में काम करने के लिये गये और वहां सालों रह कर भरपूर शक्ति से काम किया।
फरारी की हालत में ही वे पार्टी के काम से लाहौर गये। वहां के लाजपतराय भवन में जब वे मीटिंग कर रहे थे, तभी अचानक पुलिस ने हाल को चारों तरफ से घेर लिया। आस-पास के सभी घर पुलिस के घेरे में थे फिर भी कामरेड भारद्वाज पकड़ में नहीं आये, खिड़की से कूद कर एक के बाद दूसरे घरों में छलांग लगाते हुये पुलिस की आंखों में धूल झोक कर गायब हो गये। दूसरे दिन फिर से उसी हाल में उन्होंने सफलतापूर्वक मीटिंग की जिसकी पुलिस को भनक भी न लग सकी।
फैजपुर कांग्रेस में भी वे फरारी की हालत में ही गये थे। 1942 में रामगढ़ कांग्रेस में भी वे पहुंचे थे। कामरेड भारद्वाज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में कम्युनिस्ट साथियों के पथ प्रदर्शन का दायित्व निभा रहे थे। रामगढ़ कांग्रेस की विषय निर्वाचनी समिति में उन्होंने प्रस्तावित दस्तावेज पर अपना संशोधन भेजा था। निश्चित समय पर गुप्त रूप से चादर ओढ़े वे मंच पर गये थे और संशोधन पेश कर उस पर जम कर बोले थे। पुलिस की भरपूर चैकसी और नाकेबंदी को धता बता कर कामरेड भारद्वाज भाषण के बाद नौ दो ग्यारह हो गये थे। पुलिस उन्हें खोजती ही रह गई थी किन्तु उसके हाथ कुछ भी न लगा था।
सन 1931 की बात है। पूना की एक सभा में कामरेड भारद्वाज बोलना चाहते थे परन्तु सभापति उन्हें इजाजत देने को तैयार न थे क्योंकि वे अपने सीने पर हंसिया और हथोड़ा का बैज लगाये हुये थे। जनता उन्हें सुनने को तत्पर थी। यह भांप कर वे अचानक जबरन मंच पर चढ़कर अध्यक्षत की इजाजत के बगैर धुआंधार भाषण करने लगे थे। तालियों की गड़गड़ाहट में भयभीत होकर सभापति मंच छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था। ऐसे थे क्रान्तिकारी और जुझारू तरूण कामरेड भारद्वाज।
कामरेड भारद्वाज एक सुन्दर वक्ता थे। 1930 में प्रयाग विश्वविद्यालय में भाषणकला में गोल्ड मेडल उन्हें ही मिला था। छात्र जीवन के दौरान भाषण प्रतियोगिताओं में उन्हें समय-समय पर अनेक पुरस्कार मिलते रहे थे। फरारी के जीवन में भाषण कला से तो काम चलता नहीं। उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमता को माक्र्सवादी तरूणों की शिक्षा में बड़ी सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया। वे बहुत ही अच्छे पार्टी शिक्षक थे। उनकी इस क्षमता का उपयोग देवली जेल में नजरबंद साथियों ने भली प्रकार किया था।
उनके अन्दर मात्र सैद्धान्तिक विश्वलेषण की गहरी क्षमता ही नहीं थी वरन वे साथ ही साथ व्यवहारिक विश्लेषण में भी पारंगत थे। कानपुर का मजदूर आन्दोलन उस समय में इतना शक्तिशाली बना था उसमें यदि कामरेड मौलाना संत सिंह यूसुफ के काम और परिश्रम का बड़ा हाथ था तो कामरेड भारद्वाज की बुद्धि का भी इसमें सबसे ज्यादा योगदान था।
रामगढ़ कांग्रेस में पुलिस की चकमा देकर फरार होने के बाद पुलिस करीब सवा लाल के बाद जनवरी 1941 में ही उन्हें गिरफ्तार कर सकी। कानपुर, आगरा आदि की जेलों में कुछ समय उन्हें रखने के बाद उन्हे देवली कैम्प जेल में भेज दिया गया था। दिन रात बरसों तक पार्टी कार्यों से जूझते रहने और फरारी जीवन और जेल की कठिनाईयों के उनके स्वास्थ्य को बुरी तरह से तोड़ कर रख दिया था फिर भी पार्टी कार्य और संगठन निर्माण को दृष्टि में रखकर जेल में साथियों का पार्टी क्लास लेना उनकी जिम्मेदारी थी। बीमारी के दौरान भी वे अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाते रहे।
जेल के बन्दियों के कष्टों और परेशानियों के खिलाफ देवली कैम्प जेल में जो संघर्ष भूख हड़ताल के रूप में चलाया गया था, उसके नेतृत्व का भार कामरेड भारद्वाज के ऊपर ही था। कम्युनिस्ट पार्टी के कानूनी करार दे दिये जाने के बाद जब काफी बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट जेलों से रिहा कर दिये गये तब भी कामरेड भारद्वाज को नहीं छोड़ागया। डाक्टरों की इस घोषणा के बाद भी कि उन पर टी.बी. का भारी आक्रमण है, उन्हें सुल्तानपुर जेल में ले जाकर बन्द कर दिया गया। कुछ समय बाद यह समझ कर कि वे अब मौत के मुंह में जा रहे है, केवल तभी, बेबसी में 24 जनवरी 1943 को उन्हें जेल से रिहा किया गया।
कामरेड भारद्वाज जेल से बाहर तो आ गये थे किन्तु टी.बी. की गंभीर बीमारी उन्हें मौत के मुंह में ढकेलने के लिए अमादा थी। पार्टी के लिये उनका जीवन अमूल्य था। उन्हें कुछ समय के बाद ही भुवाली सेनीटोरियम में भेज दिया गया। वहां रह कर उनके स्वास्थ्य में कुछ सुधार तो हुआ किन्तु मौत का खतरा निरन्तर उनका पीछा करता रहा। फिर भी वे अपनी रही सही क्षमता और शक्ति पार्टी कार्य तथा जनता के आन्दोलनों को समर्पित करते रहे। इसी स्थिति में उनके अगले पांच साल बीमारी के दौरान भी आंधी तूफानों के बीच गुजरे।
उत्तर प्रदेश में उन दिनों इसके विभिन्न स्थानों को केन्द्र बना कर अनेक कम्युनिस्ट नेताओं के अलग-अलग ग्रुप काम कर रहे थे। प्रांतीय स्तर का कोई सांगठनिक ढांचा बनना अभी शेष था। यह स्थिति 1933 से 1937 तक चलती रही। इस दौरान इन अलग-अलग ग्रुपों के कामों में समन्वय स्थापित कर पार्टी के केन्द्रीय प्रतिनिधि के रूप में कामरेड भारद्वाज इनका नेतृत्व और पथ प्रदर्शन करते रहे थे। उन्होंने कामरेड पी.सी.जोशी ओर कामरेड अजय घोष आदि के साथ मिल कर सन 1938 में पार्टी का एक राज्य स्तरीय सम्मेलन गुप्त रूप से लखनऊ में करया और पहली बार एक प्रांतीय कमेटी का निर्माण किया जिसके प्रांतीय मंत्री कामरेड अर्जुन अरोड़ा बनाये गये। उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की प्रारम्भिक प्रक्रिया और इसका इतिहास कामरेड भारद्वाज की अप्रतिम कुरबानियों की लाल स्याही से लिखा गया है। वे ही इसके संस्थापक और निर्माता थे।
देश को राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त हो जाने और केन्द्र एवं राज्यों में कांग्रेस सरकारें बन जाने के बाद भी कामरेड भारद्वाज के संघर्षमय जीवन में कोई फर्क नहीं आया। मजदूरों-किसानों के संघर्षों और सरकारी दमन चक्र ने उनका दामन नहीं छोड़ा। 4 अप्रैल 1948 को 104 डिग्री बुखार की हालत में गिरफ्तार कर उन्हें देहरादून की जेल में डाल दिया गया जहां चार दिन के बाद ही 8 अप्रैल 1948 को उनका दुःखद निधन हो गया।
इस प्रकार चालीस वर्ष से भी कम आयु में ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक शीर्ष नेता की हैसियत में राष्ट्रीय स्वाधीनता एवं समाजवाद के संघर्ष में जनता का नेतृत्व करते हुए अनुकरणीय बलिदान की मिसाल बन कर हमारे बीच से चले गये। वे शहीद हो गये।
देश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मजदूर आन्दोलन के निर्माण तथा विकास पर सरसरी नजर डालने पर भी - खास तौर पर उत्तर प्रदेश में कामरेड रूद्र दत्त भारद्वाज का माक्र्सीय बौद्विकता और क्रान्तिकारी कार्यकलाप से तराश गया गंभीर तथा मुस्कराता हुआ मोहक चेहरा हमारी स्मृतियों के बीच प्रेरक झांकी के रूप में उभर आता है।
कामरेड भारद्वाज की मौत पार्टी के लिए ऐसी शहादत है जो उसकी नींव पत्थर बनी हुई है।
(कामरेड रूद्र दत्त भारद्वाज के जीवन और कृतित्व से संबंधित तथ्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित ‘नये भारत के नये नेता’ नामक पुस्तक से साभार लिये गये हैं।)

(का. जगदीश नारायण त्रिपाठी)
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कामरेड पूरन चन्द्र जोशी: निहित बुद्धिजीवी एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण के प्रणेता

महान इटालियन कम्युनिस्ट नेता कामरेड अंतोनियो ग्राम्शी ने इस शब्द का व्यापक प्रयोग किया है - ‘निहित बुद्धिजीवी’ (आर्गनिक इंटेलेक्युअल)। उन्होंने बताया कि मेहनतकश आन्दोलन परिपक्वता हासिल कर ऐसे बुद्धिजीवियों को जन्म देता है जो उसके ऐतिहासिक उद्देश्यों को एकाकार होते हैं, भले ही वे उसी वर्ग के न भी हों। ग्राम्शी स्वयं इसका उदाहरण थे। वे इटालियन कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री थे जिन्हें मुसोलिनी ने गिरफ्तार कर जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया। गंभीर बीमारी के बाद ही उन्हें 1936 में रिहा करना पड़ा और कुछ ही दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गयी।
जब हम अपने देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास पर नजर डालते हैं तो एक बार उश्भर आती है। कामरेड पूरन चन्द्र जोशी या कामरेड पीसीजे के नेतृत्व में कम्युनिस्ट आंदोलन में बड़ी ही निहित संभावनाएं पैदा हो गईं। जोशी के रूप में आंदोलन को एक ऐसा नेता मिल गया जो सच्चे मानों में ‘निहित बुद्धिजीवी’ था। वे सिर्फ मजदूरों और किसानों की फौरी समस्याओं तक नहीं, और सिर्फ मजदूरों और किसानों तक ही सीमित नहीं रहे। जोशी ने आंदोलन के दूरगामी उद्देश्यों की गहराई में जाकर उसका सार समझने की कोशिश की।
फासिज्म, संस्कृति और साहित्य
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों के बीच के काल का मुसोलिनी और हिटलर के रूप में फासिज्म के उभार का समय था। साथ ही फासिज्म और नाजीवाद के विरोध का भी। उस काल में यूरोप में तथा भारत में भी ‘पापुलर फ्रंट’ तथा संयुक्त मोर्चे संबंधी दिमित्रोव थीसिस पर घनघोर बहस चल रही थी।
रूसी क्रांति के विचारों ने भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को गहराई और व्यापकता से प्रभावित किया। सारे विश्व के पैमाने पर बुद्धिजीवियों का काफी बड़ा तबका फासिज्म-विरोध पर उतर पड़ा। लेकिन बात सिर्फ फासिज्म-विरोध तक सीमित नहीं थी।
बुद्धिजीवियों में आशावादी आंदोलन बहुत बड़े पैमाने पर चल पड़ा। फासिज्म से न सिर्फ लड़ना था बल्कि एक नए समाज का निर्माण करना हमारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है, बुद्धिजीवियों में इस जिम्मेदारी का अहसास गहराता गया और इस भावना ने एक विशाल आंदोलन का रूप ले लिया। सोवियत संघ में अपनी सारी कमियों के बावजूद औद्योगिक विकास की सफलताओं ने समाजवाद के प्रति आकर्षण बढ़ा दिया।
भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण
आजादी का आंदोलन सांस्कृतिक एवं साहित्य बहसों, आंदोलनों एवं संग्इनों के लिए अनुकूल परिस्थिति थी। यह वह काल था जब रोम्यां रोलां, मक्सिम गोर्की, राल्फ फाॅक, क्रिस्टोफर काॅडवेल सरीखे दिग्गज सांस्कृतिक-साहित्यिक पटल पर नक्षत्रों के समान उभर रहे थे। भारत में भी सज्जाद जहीर, मुल्क राज आनन्द, मखदूम मोहिउद्दीन सरीखे साहित्यकार तक सांस्कृतिक क्षेत्र में अनेकानेक नाम उभर रहे थे। आजादी का आंदोलन बुद्धिजीवी को आम जनता, किसानों, मजदूरों एवं मध्यवर्ग से जोड़े दे रहा था। दोनों में अंतरसंबंध निर्मित हो रहे थे। पुनर्जागरण की प्रक्रिया तेज हो रही थी और सांस्कृतिक आशावाद का संचार हो रहा था।
फ्रांस में बढ़ते प्रगतिशील साहित्यक आंदोलन ने नए आयाम जोड़े। रोम्यां रोलां, आंद्रे माल्रो और हेलरी बारब्यूस ने जो विचार-प्रवाह निर्मित किया उसने फासिज्म विरोधी संयुक्त मोर्चा आंदोलन में जान फूंक दी। परिणामस्वरूप 1935 में पेरिस में ‘संस्कृति की रक्षा के लिए लेखकों का विश्व सम्मेलन’ आयोजित किया गया जो एक मील का पत्थर साबित हुआ। 1936-39 का स्पेनी गृह-युद्ध फासिज्म के समर्थकों और फासिज्म के विरोधी प्रगतिशील शक्तियों के बीच विभाजन रेखा बन गई।
कामरेड पूरन चन्द्र जोशी - निहित बुद्धिजीवी की भूमिका में
भारत में साहित्य एवं संस्कृति भी भूमिका और उद्देश्यों के बारे में बहस छिड़ गई। भाषा और संस्कृति को अब अधिकाधिक साधन के रूप में देखा जाने लगा, न कि सिर्फ उद्देश्य के रूप में। साहित्य एवं संस्कृति जीवन की आलोचना का माध्यम भी हो सकते हैं और युग का प्रतिबिम्ब भी। संस्कृति, साहित्य, कला इत्यादि जनगण को प्रेरित एवं आंदोलन कर विशाल मूलगामी पुनर्जागरण का रूप धारण कर सकते हैं।
इस सच्चाई को कामरेड जोशी तथा अन्य साथियों ने पहचाना। इसका एक परिणाम हुआ 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन।
दूसरा परिणाम था 1943 में इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) का गठन।
ये दोनों ही घटनाएं भारत के सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पुनर्जागरण की महत्वपूर्ण कड़िया थीं।
कामरेड पी.सी. जोशी ने कला, साहित्य एवं संस्कृति की भूमिका पहचानी; मात्र राजनैतिक दृष्टि से नहीं, मात्र संगठन की दृष्टि से नहीं। उन्होंने इन माध्यमों को जन आंदोलनों एवं जनशिक्षा का साधन बनाया। जनता जब इन माध्यमों को बड़े पैमाने पर अपना लेती है तो जनमानस तथा जनचेतना के परिवर्तन का वे साधन बन जाते हैं।
पार्टी की देख-रेख में सांस्कृतिक मंच के गठन पर काफी समय से विचार हो रहा था। बम्बई में पहले ही इप्टा का गठन किया जा चुका था। कुछ स्थानों में किसी न किसी रूप में सांस्कृतिक गतिविधियां जोर पकड़ रहीं थीं और संगठन बनाए जा रहे थे।
भाकपा की प्रथम कांग्रेस और सांस्कृतिक गतिविधि
मई 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहली अखिल भारतीय कांग्रेस बम्बई में आयोजित की गयी। इस अवसर पर अत्यंत ही समृद्ध, विकसित एवं विविध सांस्कृतिक गतिविधि आयोजित की गई - शायद फिर कभी ऐसा आयोजन न हो पाया। आंध्र प्रदेश, केरल, हैदराबाद, बंगाल, पंजाब, गुजरात, बम्बई, महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों एवं इलाकों की सांस्कृतिक मंडलियों एवं संगठनों ने अत्यंत ही आकर्षक संस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये। इसमें 150 से अधिक कलाकारों ने भाग लिया। दामोदर हाल, कामगार मैदान तथा अन्य स्थानों में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। गीतों, नाटकों, नृत्यों, सम्पूर्ण प्रहसनों इत्यादि के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलू प्रस्तुत किए गए और राष्ट्र के पुनरूत्थान और पुनर्जागरण का चित्र खींचा। जनता के कलारूप प्रस्तुत गये। उदाहरण के लिए आंध्र की ‘बर्रकथा’ ‘बर्र’ नामक बाजे के सहारे गीत की प्रस्तृति, ‘पिचीकुन्तला’: आल्हा की तरह सामूहिक गायन का रूप; बहुरूपिया नृत्य, हरिजन नृत्य, फासिस्ट विरोधी लोरी इत्यादि।
इन कार्यक्रमों को हजारों लोगों ने बड़ी ही दिलचस्पी से देखा। जनता की चेतना विकसित करने के वे अत्यंत ही प्रभावशाली माध्यम थे।
उन्हें प्रेरित व विकसित करने का अधिकतर श्रेय कामरेड पी.सी. जोशी को जाता है।
इप्टा एवं सांस्कृतिक आन्दोलन
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की प्रथम कांग्रेस के अवसर पर आयोजित यह कार्यक्रम आकस्मिक नहीं था।
विभिन्न प्रदेशों में काफी पहले से प्रगतिशील, राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट शक्तियों की पहल पर जन संस्कृति मंच एवं आंदोलन संगठित हो रहे थे। उनका अपना-अपना अलग इतिहास है।
बम्बई इप्टा की हम चर्चा कर आये हैं। आंध्र क्षेत्र तथा देश के कई अन्य इलाकों में प्रभावशाली सांस्कृतिक आंदोलन विकसित हो रहा था। जिसका पार्टी के केन्द्र से सक्रिय संबंध था। इस बीच बंगाल में यूथ कल्चरल इंस्टीट्यूट (युवा सांस्कृतिक संस्थान) (1940-42) का गठन किया गया।
1939 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने एक शोध संस्थान बनाने का प्रस्ताव रखा जो किन्हीं कारणवश सम्भव नहीं हो पाया। इनमें से कई विद्यार्थी ड्रामे इत्यादि लिखा करते थे और उनका मंचन किया करते थे। इसी वक्त प्रगतिशील लेखक संघ नामक संस्था का निर्माण किया गया था जिसका नाम बाद में बदलकर प्रगतिशील लेखक एवं कलाकार संघ कर दिया गया। इससे तथा अन्य से संबंधित विद्यार्थियों ने 1940 के मध्य में युवा सांस्कृतिक संस्थान की स्थापना की। वह 1942 तक सक्रिय रहा।
इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) की स्थापना में उपर्युक्त संस्थान की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसने कई प्रकार के प्रयोग किये, गीत लिखे, उन्हें धुनें दीं, साहित्यक एवं सांस्कृतिक रचनाएं तैयार कीं। उनमें एक नाटक जापानी फासिस्टों के बढ़ते के सम्बंध में ”एक हाओ“ कामरेड पी.सी. जोशी को भी दिखाया गया।
केन्द्रीय सांस्कृतिक दल और कामरेड जोशी
इप्टा के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी की देखरेख में एक केन्द्रीय सांस्कृतिक दल (सेन्ट्रल कल्चरल स्क्वाड) की स्थापना भी की गई। इसका निर्माण 1944 के मध्य में किया गया। यह पार्टी द्वारा सांस्कृतिक मोर्चे पर बड़ा ही महत्वपूर्ण कदम था। इसे ‘सेन्ट्रल ट्रूप’ भी कहते थे। शांतिवर्धन और उदय शंकर जैसे महान कलाकार कला की खोज में बम्बई तथा अन्य स्थानों में सांस्कृतिक दलों एवं कार्यक्रमों का गठन तथा आयोजन कर रहे थे। शांतिवर्धन तथा अन्य कलाकार जैसे रेखा जैन इत्यादि की मुलाकात इस सिलसिले में कामरेड पी.सी.जोशी से हुई। कामरेड जोशी उदय शंकर की आधुनिक शैली से बड़े ही प्रभावित हुए और जन-माध्यम का रूप देने पर जोर देने लगे। सेन्ट्रल स्क्वाड बनाने में कामरेड पी.सी.जोशी की सक्रिय भूमिका रही। 1944-46 के दौरान इस स्क्वाड ने सारे देश में जगह-जगह कार्यक्रम आयोजित कर धूम मचा दी। इसके साथ कई फिल्मी और गैर-फिल्मी हस्तियां जुड़ गईं।
सुप्रसिद्ध भाषाविद एवं साहित्यकार तथा कला के पारखी गोपाल हालदार के अनुसार चालीस के दशक में बंगाल के महा अकाल, फासिज्म विरोधी युद्ध तथा आजादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि में कम्युनिस्टों के इर्द-गिर्द संस्कृति भी दुनिया के दिग्गज इकट्ठा हो गए। वह कविता, कहानी, नाटक, गीत, चित्रकला इत्यादि के अभूतपूर्व सृजन का युग था। उनके अनुसार संस्कृति में आए इस उफान को कामरेड पी.सी. जोशी ने मुख्यतः प्रोत्साहित और संगठित किया।
1943-44 का बंगाल तथा अन्य क्षेत्रों के महा अकाल को पार्टी के नेतृत्व में प्रगतिशील और क्रांतिकारी आंदोलन ने एक सृजनशील शक्ति में बदल दिया। संस्कृति और कला अकाल तथा निराशा से संघर्ष का साधन बन गए। यह नोट करने लायक तथ्य है कि इप्टा का जन्म इसी दुर्भिक्ष के दौरान हुआ जब साहित्य, कला, कहानी, कविता, गीतों के जरिए सृजनशीलता फूट पड़ी और जनगण को एक बेहतर कल के लिए गोलबंद किया जा सका।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान कामरेड पी.सी.जोशी क्रांतिकारी जनांदोलन के निहित बुद्धिजीवी के रूप में उभर आए।

(का. अनिल राजिमवाले)
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बाबरी मस्जिद का ध्वंस एक राष्ट्रीय विश्वासघात

नयी दिल्लीः लोकसभा में भाकपा के नेता गुरुदास दासगुप्त ने लिब्रहान अयोध्या जांच आयोग की रिपोर्ट तथा सरकार द्वारा की गयी कार्रवाई के मेमोरंेडम पर हुई बहस में भाग लेते हुए कहा:
मैं समझता हूं कि बहस को नियंत्रित होना चाहिए और हमें उस विपदा पर जो घटित हुई, एक सामान्य दृष्टिकोण प्रतिबिंबित करना चाहिए जो 17 वर्ष पहले घटित हुई। मैं इसे बहस नहीं कहता हूं। मैं इसे इस बात पर विचार करने के लिए एक आत्मनिरीक्षण कहता हूं कि क्यों ऐसी विपदा ने 6 दिसम्बर 1992 को देश पर भारी आघात किया जैसा भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ। हम विचार करें कि ऐसा क्यों हुआ। संसद का सत्र चल रहा था, बहुमत के साथ एक सरकार मौजूद थी जिसका नेतृत्व एक धर्मनिरेपक्ष पार्टी कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट भी था। मेरा सवाल है कि एक ऐसी स्थिति में क्यों एक कट्टरतावादी राजनीतिक ताकत राष्ट्र पर अपनी इच्छा थोप सकी जबकि जनता का विशाल बहुमत उस खास धारा की राजनीतिक विचारधारा का विरोध करता था। क्यों उस महाविपदा को रोका नहीं जा सका? क्यों राजनीतिक व्यवस्था विफल हो गयी? व्यवस्था में अंतर्निहित कमजोरी क्या है जिसके चलते यह विफलता हुई और राजनीतिक महाविपदा आयी जिसने देश को प्रभावित किया?
हमें बड़ी शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी, हमारी राष्ट्रीय नीतियां प्रभावित हुई। इस सदन में बोलते हुए मैं काफी आहत महसूस कर रहा हूं क्योंकि मुझे उस घातक घटना को संक्षेप में दोहराना पड़ रहा है जो 6 दिसम्बर 1992 को घटित हुई थी।
मुझे काफी दुख है कि बाद की अवधि में पूरा देश महासंकट में फंस गया। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर गंभीर हमला किया गया। यह अत्यधिक अफसोस की बात है कि राष्ट्र को दिये गये आश्वासन का घोर उल्लंघन किया गया। न्यायपालिका को गुमराह किया गया, सरकार के साथ जो उस समय सत्ता में थी, छल किया गया। लेकिन सवाल है कि क्यों उस समय की सत्तासीन सरकार ने अपने को छलने दिया। मैं समझता हूं कि उस समय केन्द्र में सत्तासीन सरकार ने वह काम नहीं किया जो उसे पूर्व प्रहारक कार्रवाई के रूप में करना चाहिए था। दुर्भाग्य से, रिपोर्ट में केन्द्र सरकार की भूमिका के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिए यह रिपोर्ट व्यापक नहीं है और एक तरह से आंशिक है। मुझे यह कहते हुए शर्म हो रही है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस गंुंडागर्दी की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति की कार्रवाई नहीं थी। यह एक धूर्ततापूर्ण योजना का परिणाम था जिसका एक घृणित राजनीतिक एजेंडा था। मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि बाबरी मस्जिद, रामजन्मभूमि एक मसला नहीं था, 1975 तक तो वह कोई मसला नहीं था। उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा की कार्यवाहियों में उसका कोई उल्लेख नहीं है। किसी तरह कुछ खास राजनीतिक इरादे के लिए इस मसले को उठाया गया। अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा कर ने के लिए देश की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के साथ साठगांठ करके कट्टरतावादी ताकतों की मंडली द्वारा उसे ध्वस्त कर दिया गया। दुर्भाग्य से, मुझे क्षमा करेंगे, उस घातक नाटक के कुछ खिलाड़ी आज इस सदन में हमारे सहयोगी हैं। 1992 में मैं राज्यसभा का एक सदस्य था। मैं 1985 में संसद में आया। मैं यह देखते बूढ़ा हो गया हूं कि राजनीति को प्रदूषित किया जा रहा है। मैं यह भी पा रहा हूं कि कैसे राष्ट्रीय हित को सांप्रदायिक विभाजन के दर्शन, घृणा के मत तथा हिंसा के सिद्धांतों के अधीनस्त किया जा रहा है। मैंने 1992 में राज्यसभा में बहस में हिस्सा लिया था। मैंने वरिष्ठ सहयोगी श्री आडवाणी जी से साफ पूछा था कि क्या उन्होंने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करना चाहा था। जहां तक मुझे याद है, उनका जवाब था नहीं। उन्होंने कहा कि वे ढांचे को स्थानांतरित करना चाहेंगे ताकि राम मंदिर स्थापित किया जा सके।
मुझे याद है कि मैं किसी भी सांसद से पहले अयोध्या गया था। वह बुधवार का दिन था। रविवार को वह त्रासदी हुई थी और मैं बुधवार को गया था। मैंने पाया कि न केवल ढांचे को ध्वस्त किया गया बल्कि उस ढांचे यानी बाबरी मस्जिद के हर चिन्ह को मिटा दिया गया। मलबे तक को हटा दिया गया। फिर कामचलाऊ मंदिर तक निर्मित कर दिया गया, हो सकता है, राम मंदिर। मैं नहीं जानता। मैंने स्थानीय लोगों से भेंट की। दोनों समुदायों के लोग थे। उन्होंने मुझसे कहा कि ढांचे ध्वंस में उनका कोई हाथ नहीं था, बाहरी लोगों ने यह दुष्कृत्य किया, वे गाड़ियों से आये थे। मुझे तीन पैराग्राफ को उद्धृत करने दें जो उस घटना के बारे में बताता है। इसे मैंने एक प्रमुख पत्र में 17 वर्ष पहले लिखा था। ‘उस दिन रविवार की सुबह करीब 11 बजे सुबह मस्जिद के गिर्द बैरिकेेड पर हमला हुआ। कुछ घंटे के भीतर भीड़ ने कुछ आंसू के गैस के गोले तथा हल्के लाठीचार्ज पर भी काबू पा लिया जब वे ढांचे के अंदर घुसे और गुम्बद पर प्रहार करना एवं तोड़ना शुरू कर दिया जो ढांचा 400 वर्षों से खड़ा था। वह टुकड़े-टुकड़े होने लगा क्योंकि वे हाथ जो हमला कर रहे थे, वे सभी ध्वंस के लिए प्रशिक्षित थे।’
मैंने 17 वर्ष पहले लिखे जो आयोग ने आज कहा। मैं उद्धृत करता हूं।
”12 बजे दोपहर तथा 1 बजे दोपहर के बीच स्थानीय प्रशासन ने राज्य मुख्यालय से निर्देश मांगा और पैनिक संदेश लखनऊ भेजा गया। जिला मजिस्ट्रेट को सीआरपीएफ को लामबंद करने की सलाह दी गयी। क्योंकि व्यापक रोडब्लाक ने अतिरिक्त कर्मियों की आवाजाही पर रोक दी। किसी भी समय बाबरी मस्जिद पर हमले को रोकने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाया गया।
जबकि तथाकथित कारसेवाकों का बड़ा दस्ता धार्मिक शो चलाता रहा। दूसरे दस्ते ने मस्जिद पर हमला किया और तीसरे दस्ते ने जो अत्यधिक दुखद है, उस क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदाय के घरों पर हमला किया। मस्जिद ध्वस्त कर दी गयी, मंदिर निर्मित किया गया तथा मुसलमालनों के सभी मकानों को ध्वस्त कर दिया गया। इनमें किसी ने भी कारसेवकों का प्रतिरोध नहीं किया।“
यह तस्वीर रिपोर्ट नहीं है। रिपोर्ट में घृणित कहानी दफना दी गयी है कि कैसे एक स्थानीय मसला देश के राष्ट्रीय विवेक पर एक धब्बा हो गया। स्थानीय विवाद वक्फ बोर्ड और रामचन्द्र दास तथा उनके अखाड़ा के बीच था। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा अपने हाथ में लेने के पहले वह कोई मसला नहीं था। 1980 में विश्व हिन्दू परिषद ने उसे अपने हाथ में लिया। 1982 में विश्व हिन्दू परिषद ने उसे मुक्त करने की अपील की। किसे मुक्त किया जाये? एक मस्जिद के विध्वंस पर मंदिर को मुक्त किया जाये। 1984 में विश्व हिन्दू परिषद के युवा संगठन ने जो बजरंग दल के रूप में सामने आ चुका था, आंदोलन को एक नयी गति प्रदान की। 1985 में विश्व हिन्दू परिषद ने पचास लाख कैडर बनाने का निर्णय लिया जिसे रामभक्त का नाम दिया गया।
देश में एक मिलिटेंट ढांचा निर्मित करने का इरादा व्यक्त किया गया जो राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को चुनौती देगा।
1989 में भाजपा की एक बैठक पालमपुर में हुई। वह एक सुंदर जगह थी। उन्होंने क्या निर्णय लिया? उन्होंने उस लड़ाई में कूदने तथा आंदोलन में भाग लेने का निर्णय लिया। उस समय दो मुहावरे ईजाद किये गये। एक मुहावरा है ”अल्पसंख्यक तुष्टीकरण“ और दूसरा है ”छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद“। इस तरह से देश का ध्रुवीकरण करने के निश्चित उद्देश्य से एक राजनीतिक आंदोलन का जन्म हुआ।
दो अन्य कारकें को ध्यान में रखा जाना चाहिए। फरवरी 1986 को फैजाबाद जिला कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि द्वार को खोल देना चाहिए ताकि पूजा की जा सके। यह अभी तक रहस्य ही बना हुआ है कि उस समय सरकार क्यों नहीं द्वारा पर खोलने पर रोक लगाने के लिए हायर कोर्ट गयी। क्या उसके पीछे कोई राजनीतिक इरादा था? क्या कट्टरतावादी तबके को रिआयत देने के लिए ऐसा किया गया या क्या कुछ अन्य राजनीतिक पार्टी को निरुत्तर करने के इरादे से ऐसा किया गया?
शिलान्यास किया गया। यह कैसे किया गया। यह सुविदित है। इसने मुक्ति आंदोलन को गति प्रदान की। जनवरी 1986 में धर्मसंसद ने शिलापूजा के लिए एक योजना बनायी। इस तरह से एक सांप्रदायिक टकराव की जानबूझकर योजना बनायी गयी। एक राजनीतिक दल के साथ मिलकर राजनीतिक ताकतों के एक ग्रुप ने इसे संगठित किया और भाजपा की भागीदारी ने आंदोलन को ताकतवर तथा प्रभावी बना दिया। रिपोर्ट क्या कहती है? रिपोर्ट कहती है: एक आंदोलन के लिए भी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है? ”मुझे एक व्यक्ति का नाम लेना है जो सदन में उपस्थित नहीं है। मैं रिपोर्ट को उद्धृत कर रहा हूं।“
रिपोर्ट कहती है: ”एक आंदोलन के लिए इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती है कि मेरे वरिष्ठ सम्मानित भारत के नेता जिनका मैं सम्मान करता हूं, अटल बिहारी वाजपेयी, मेरे वरिष्ठ सहयोगी श्री आडवाणी, श्री जोशी संघ परिवार के इरादे को नहीं जानते थे।“ रिपोर्ट कहती है कि यह विश्वास नहीं किया जा सकता है? इसका अर्थ है? आंदोलन का राजनीतिक नेतृत्व इस बात से अवगत था कि उनका गंतव्य कहां है। वे सभी अपने लक्ष्स से अवगत थे, अपने उद्देश्य से अवगत थे जो उनके दिमाग में था। इसे सार्वजनिक नहीं बनाया गया बल्कि वह उनके दिमाग में था।
रिपोर्ट के अनुसार, ”यह एक संयुक्त आम उद्यम था“ मैं उनके मुहावरे का इस्तेमाल कर रहा हूं। कौन साझेदार थे? वे थे आर.एस.एस., विहिप, शिवसेना, भाजपा तथा बजरंग दल। यह सुविदित है। अब यह रिपोर्ट में है जो विलंब से पेश की गयी और दूसरे सदन में किसी ने कहा कि इस आयोग पर पैसा बर्बाद किया गया। यह राजनीतिक मसले को कम करके आंकने का एक तरीका है।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री की इसमें सांठगांठ थी। वे इस बात के लिए मुस्तैद थे कि केन्द्र सरकार द्वारा या सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई पूर्व प्रहारक कार्रवाई न हो। इसका अर्थ है? कानून प्रवर्तन एजेंसी का कैप्टन स्वयं एक धर्मयोद्धा हो गया और स्वयं उस अपराध का सहभागी हो गया। एक सभ्य विश्व में इससे अधिक भयावह और क्या हो सकता है? इसे हमारे विवेक को झकझोर देना चाहिए। आंसू बहने चाहिए। हमें अवश्य ही इस त्रासदी की गहराई तथा उसके आयाम में जाना चाहिए। यह बाबरी मस्जिद के खिलाफ धर्मयुद्ध नहीं है, यह कानून प्रवर्तन ऐजेंसियों की साठगांठ है, यह केन्द्र सरकार की विफलता है। यह सुप्रीम कोर्ट की विफलता है। यह राष्ट्र की विफलता है कि हम उसे रोक नहीं पाये। जब यह घटना घटी तो मैं उस समय सदन में था। हम प्रधानमंत्री के पास गये। हम चाहते थे कि सेना को भेजा जाये। भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि किसी संवैधानिक मर्यादा से अधिक महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से कोई पूर्व प्रहारक कार्रवाई नहीं की गयी।
आंदोलन की तैयारी के लिए रथयात्रा संगठित की गयी। श्री आडवाणी उसके सूत्रधार थ। जानबूझकर कट्टरतावादी ताकतों, अंधराष्ट्रवादी ताकतों को मजबूत करने के लिए ऐसा किया गया। ऐसा एक अपराध को अंजाम देने के इरादे से किया गया। एक उन्माद पैदा करने के लिए ऐसा किया गया। रथयात्रा एक उन्माद था। अयोध्या में रास्ता को आसान बनाने के लिए ऐसा किया गया।
बाबरी मस्जिद पर हमले के पूर्व वहां एक तथाकथित धर्मानुष्ठान, धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। भजन गाये गये। क्या त्रासदी है? भारतीय संस्कृति द्वारा रचे गये महान भजन का अपने नारों तथा धर्मनिरपेक्ष भारत के खिलाफ मुहिम को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया। वहां नेता उपस्थित थे। वे बोेले भाषण क्या थे? मस्जिद के ध्वंस के बचाव के लिए सभी भाषण दिये गये। यह कहा गया, उनके वहां राम का जन्म हुआ था। वहां मुस्लिम संप्रदायवादियों द्वारा मस्जिद की स्थापना की गयी। हमें अवश्य ही एक खास धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए उसे ध्वस्त करना चाहिए।
एक धार्मिक उन्माद फैलाया गया और पुलिस के साथ सांठगंाठ करके कायराना अपराध किया गया। आज विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं द्वारा इस कायराना कार्रवाई के वीरता की कार्रवाई कहा जा रहा है। इस तरह बड़ी ही धूर्तता से मस्जिद को ध्वस्त करने की योजना बनायी गयी। घृणित राजनीतिक प्रचार अभियान चलाया गया। शिला पूजा की गयी। रथयात्रा निकाली गयी और हजारों कारसेवक संगठित किया गये जिन्हें ध्वस्त करने के काम में प्रशिक्षित किया गया। उन सबों को गाड़ियों से, बसों से वहां लाया गया। राज्य सरकार ने अपनी आंखे मूंदी थी तो केन्द्र सरकार ने क्यों नहीं अपनी आंखे खोली?
इसलिए मैं इस सदन में सीधा सवाल करना चाहता हूं। 6 दिसम्बर 1992 को जो कुछ हुआ उनकी जिम्मेवारी एवं दोष को भी अपने ऊपर लें। उन लोगों के राजनीतिक साहस को भी देखें जिन्होंने चुनावी लाभ के लिए पुलिस तथा प्रशासन की साठगंाठ से कायराना ढंग से यह काम किया। दुर्भाग्य से भारतीय इतिहास यह दिखलाता है कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस से उन्होंने अपनी चुनावी संभावना बढ़ायी। यह इतिहास का एक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है। या तो आप सभ्य जीवन के सभी मानदंडो के उल्लंघन की जिम्मेवारी लें और उसका बचाव करें या 1992 में जो कुछ हुआ, उसे अस्वीकार करें और राष्ट्र से क्षमा मांगे। यह सीमित विकल्प उपलब्ध है। कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता। या तो 6 दिसम्बर राष्ट्रीय विश्वासघात का दिन, ब्लैकमेल की कार्रवाई का दिन था या वीरता का दिन। देश को निर्णय करने दें। हम कब्र को नहीं खोद रहे हैं, किसी पुरानी चीज पर बहस नहीं कर रहे हैं। हम एक सबक लेने के लिए बहस कर रहे हैं। मैं उन नेताओं के खिलाफ किसी दंडात्मक कार्रवाई की वकालत नहीं कर रहा हूं जिन पर रिपोर्ट में दोषारोपण किया गया है। मैं समझता हूं कि राजनीतिक अलगाव एकमात्र उपाय है। यह समय है कि देश की सभी धर्मनिरेपक्ष ताकतें एकताबद्ध होने के लिए सबक लें। कांग्रेस पार्टी की एक जिम्मेवारी है यदि वह समझती है कि वह देश की एक सबसे बड़ी पार्टी है। पर एक चीज है। संप्रदायवाद के खिलाफ संघर्ष फलदायी नहीं हो सकता है यदि भूख के खिलाफ संघर्ष, बेकारी के खिलाफ संघर्ष को संयुक्त नहीं किया जाये।
इसीलिए देश को चैकस करने का यह समय है। देश को आयोग की रिपोर्ट के आधार पर चैकस किया जाना है। यह कट्टरतावाद क्या है और आज यह किससे संबंधित है? कट्टरतावाद ने महात्मा गांधी की हत्या की। वही कट्टरतावाद है जिसने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या की वे उसी राजनीतिक श्रेणी या दर्शन से संबद्ध है जो बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए जिम्मेदार है, उसी कट्टरतावाद के ब्रांड से संबंद्ध है जिन्होंने गुजरात में हजारों लोगों का कत्ल किया।
मैं यहां कहना चाहता हूं कि कट्टरतावाद का खतरा खत्म नहीं हुआ है। यह एक बड़ा खतरा बना हुआ है। इसलिए कार्रवाईगत एकता की जरुरत है। रिपोर्ट एक चेतावनी देती है और इस चेतावनी से एक बोध होना चाहिए और इस बोध को कार्रवाई में परिणत होना चाहिए। रिपोर्ट के बाद एकताबद्ध होने एवं ऐसी ताकतों को पराजित करने की चिन्ता होनी चाहिए। यह चिन्ता की बात है कि ध्वंस करके तथा अपराधिक कार्रवाई करके राजनीतिक ताकतों ने अपनी शक्ति बढ़ायी।
हमें अवश्य ही पीछे की ओर देखना चाहिए, हमें अवश्य ही विचार करना चाहिए। हमें एक आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिए कि क्यों मस्जिद को ध्वस्त किया गया, राजनीतिक पार्टियों की क्या भूमिका थी, केन्द्र सरकार की क्या भूमिका थी। देश को आगे बढ़ना चाहिए एवं पूरी गरिमा तथा निष्ठा के साथ हर कीमत पर देश की धर्मनिरपेक्ष छवि की रक्षा की जानी चाहिए।
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