भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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गुरुवार, 10 जून 2010

हम किस दिन के इंतजार में है

कथा सम्राट मुंषी प्रेमचंद ने ग्रामीण भारत और किसानों की दुर्दषा पर लगभग आधी सदी पहले लिखा था ‘‘जिधर देखिऐ उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई थी। किसानों की खेती उजड़ जाये उनकी बला से’’। आज भी स्थिति बदली नहीं है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूर यातना झेल रहे हैं। संघर्ष कर रहे है और अपनी आंखों में स्वप्न पाल रहे हैं। वो उस दिन के इंतजार में है जब उनकी जीवन में कुछ तो चमक आएगी। लेकिन सच्चाई तो ये है कि उदारीकरण की इस आंधी में सरकारी नीतियों और उसकी आगोष में खूब मजा लूट रहे देषी-विदेषी पूंजी मालिक अकूत मुनाफा लूट रहे हैं। अब उनकी निगाह ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के नाम पर, ढांचागत बुनियादी विकास को ग्रामीण क्षेत्र में ले जाने के नाम पर, यह गठजोड़ खेती का कंपनीकरण चाहता है। अगर सचमुच देषी-विदेषी पूंजी के गठजोड़ के चलते किसान अपनी जमीन और किसानी से पूरी तरह बेदखल हो गये तो छोटा-मझोला, सीमांत गरीब किसान तो मिट ही जायेगा। साथ ही साथ खेत मजदूरों का विषाल समुदाय भूख-गरीबी, विस्थापन की लपटों का और गंभीर षिकार हो जायेगा। वह समाज में जीवित होकर भी जिंदा नहीं कहलायेंगे। खेती के कंपनीकरण के चलते देष में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी उन्हें बढ़ावा मिल ही रहा है। वास्तव में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां किसानों से नफरत करती हैं। अमरीका और यूरोप में तो किसानों को कंपनियों ने खेती से बाहर ही कर दिया। नतीजे के रूप में देखा जा सकता है कि 30 करोड़ की आबादी वाले अमरीका में खेती करने वालों की संख्या लगभग 7 लाख परिवारों में सिमट गयी है। यूरोप के 15 देषों में महज 70 लाख किसान बचे हुए हैं। इस तरह के कृषि मॉडल के साफ संदेष है कि खेती से किसानों को बाहर निकाला जाये। जब खेती से किसान बाहर निकल जायेंगे तो खेत मजदूरों की हालत तो और भी भयावह हो जायेगी। जनसंख्या की दृष्टि से भारत एक बढ़ता हुआ देष है। भारत आज सबसे जवान देष है। 110 करोड़ की आबादी के 51 प्रतिषत 25 वर्ष की कम आयु के हैं। आबादी का दो तिहाई भाग 35 वर्ष से कम है। अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2020 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष हो जायेगी। हम कैसे अपनी विषाल युवा समुदाय को कृषि एवं औद्योगिक विकास के साथ जोड़कर रोजगार के अवसर देकर उनके जवान जोष और ताकत का इस्तेमाल देष के लिए कर सके यह सबसे बड़ी चुनौती है। आज भी भारत का 70 फीसदी आबादी गांव में रहता है। खेती किसानी से ही लगभग 74 फीसदी लोगों को पूर्ण और अर्ध रोजगार मिलता है। बढ़ते हुए सीमांत और लघु जोतों की संख्या किसानों के सीमांतीकरण की ओर इषारा करती है। 1970-71 में सीमांत जोतों की संख्या 3.568 करोड़ थी जो 2000-01 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर 7.612 करोड़ हो गयी है। लघु जोतों की संख्या 1.343 करोड़ से बढ़कर 2.282 करोड़ हो गयी है। सीमांत और लघु जोतों वाले किसान देष के 82 प्रतिषत किसान हैं और इनकी खेती को किस प्रकार से आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जाये यह हमारी पहल का मुख्य केन्द्र होना चाहिए। कृषि जनगणना 2000-01 के अनुसार देष में औसत जोत का आकार 1.39 हेक्टेयर है। विभिन्न राज्यों में इसका आकार अलग-अलग है। 15 प्रमुख राज्यों में से पांच राज्यों में औसत जोत 1 हेक्टेयर से भी कम है। केरल राज्य में सबसे कम 0.24 कम है। इसके बाद क्रमषः बिहार में 0.58 हेक्टेयर और पष्चिम बंगाल में 0.82 हेक्टेयर है। असम, उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेष में औसत जोत का आकार राष्ट्रीय औसत से कम है।उपरोक्त तथ्यों से आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि विषाल ग्रामीण क्षेत्र और भारत की जनसंख्या का लगभग दो तिहाई हिस्सा आजादी के 62 साल के बाद भी व्यापक बुनियादी परिवर्तन के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा है। वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार देष के 533 खरब-अरबपतियों के पास कुल 12 लाख 32 हजार 135 करोड़ रूपये की दौलत थी। वहीं दूसरी तरफ 2004-05 के अध्ययन के आधार पर कांग्रेसी सांसद प्रो. अर्जुन सेन गुप्ता आयोग ने बताया कि देष की 77 फीसदी जनता अर्थात 83 करोड़ 65 लाख लोगों की रोजाना की आमदनी 20 रूपये से कम है। 2007 के सरकारी आंकडों के मुताबिक मुकेष अंबानी की हजारों करोड़ रूपये की सालाना आमदनी है। लेकिन इसके अतिरिक्त अपनी कंपनी के चेयरमैन की हैसियत में वे तनख्वाह भी लेते हैं। उनकी प्रतिमाह तनख्वाह 2 करोड़ 54 लाख रूपये है। ऐसे ही 578 बड़े उद्योगपति अधिकारी प्रतिवर्ष 1497 करोड़ की तनख्वाह लेते है और 230 लोग दो करोड़ से अधिक की तनख्वाह लेते हैं। देष में दौलत का इतना असमान वितरण चौका देने वाला ही नहीं वरन सोचने पर मजबूर करता है कि सामाजिक अन्याय की भी कोई सीमा होगी। असमान आर्थिक स्थितियों के चलते क्या इस बात की आवष्यकता नहीं है कि देष की दौलत का न्यायिक वितरण किया जाये। पूरे देष की जनसंख्या का 9 प्रतिषत आदिवासी और जनजातियां हैं। वह देष के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 15 प्रतिषत क्षेत्र में निवास करते हैं। वह पहाड़ों, जंगलों और प्रकृति के गोद में गुजर-बसर करने वाले लोग हैं। जिन क्षेत्रों में वे रहते हैं वह खनिज संपदा, वनस्पति, कीमती पत्थरों और जीव जंतुओं से भरपूर हैं। परन्तु आदिवासी जनजाति के लोग प्राकृतिक संपदा के हिस्सेदार नहीं मात्र खामोष तमाषायी बन कर रह गये हैं। देष में कुल 700 जनजातियां हैं। सरकारों की नीतियों के चलते 70 जनजातियां खत्म होने की स्थिति में हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देषी-विदेषी गठजोड़ की निजी कम्पनियों, कार्पोरेट घरानों को उद्योग स्थापित करने के नाम पर आदिवासियों एवं जनजातियों को उजाड़ कर उनकी जमीन दे रही है। उजाड़े हुए लोगों की पुनर्वास की सम्मानजक एवं अर्थपूर्ण कोई योजना भी नहीं है। आजादी के बाद प्रगतिषील भूमिसुधार लागू किये जाने की कोई विषिष्ट पहल नहीं की जा सकी। केरल, पष्चिम बंगाल, त्रिपुरा में भूमि सुधार लागू कर खेत मजदूरों को और ग्रामीण मजदूरों को कुछ न्याय दिया जा सका। अधिकांष राज्य भूमि सुधार से बचते हैं। फलतः समाज के शोषित, पीड़ित जिनमेंअधिकांष अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आदिवासी हैं वह आज सामाजिक और आर्थिक हासिये पर ढकेल दिये गये हैं। वह आज गरीबी रेखा के नीचे जीने पर विवष हैं। बिहार में डी.बंधोपाध्याय आयोग ने भूमि सुधार संबंधी सिफारिषों को बिहार सरकार के सामने रखा परन्तु सरकार ने अपना हाथ खींच लिया है। अगर सरकार इस कमीषन की सिफारिषों पर काम करे तो ग्रामीण गृहविहीनों को आवास भूमि, हदबंदी से फाजिल, भूदान और सरकारी जमीन का वितरण, पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा और बटाईदारों के बेदखली की सुरक्षा संभव हो सकती है। भूमि सुधार के द्वारा हम गांव से खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों के शहर की ओर पलायन को रोक सकते हैं। आज एक अनुमान के अनुसार 7 से 9 प्रतिषत के बीच गांव से शहरों की ओर हर वर्ष पलायन हो रहा है। भूमि सुधार आज एक ज्वलंत राष्ट्रीय कर्तव्य है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूरों को सर्वाधिक कठिन चुनौतियों भरे वक्त से गुजरना पड़ रहा है और इससे निपटने के लिए व्यापक एकता बनाकर संघर्ष के मैदान में अपनी हिफाजत के लिए उतरना होगा। गांव, किसान, खेती और खेत मजदूर की हिफाजत से ही भारत के कृषि क्षेत्र की हिफाजत की जा सकती है। यह आइने के सामने बैठकर कंघी काढ़ने का वक्त या तितलियों से प्रेम का दौर नहीं है। - अतुल कुमार अनजान(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रष्ट्रीय सचिव और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)
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बगुलहिया फार्म की जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिए आन्दोलन

बहराइचः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बहराइच की एक आम सभा सेन्ट्रल सरकारी फार्म गिरजापुरी के बगुलहिया फार्म पर दि. 23 मई को का. ईश्वर दयाल सिंह की अध्यक्षता में हुयी जिसमें लगभग 5000 की जनता उपस्थित थी। यह फार्म लगातार घाटे के कारण टूट रहा है जिसे भारत सरकार बेचना चाहती है। कुछ अधिकारियों का कथन है वन विभाग को दिया जायेगा। समाजवादी पार्टी के कुछ क्षेत्रीय नेता फार्म को बचाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं। जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस फार्म को भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को बंटवाने के लिये आन्दोलन कर रही है।इस क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के जुझारु नेता का. ईश्वर दयाल सिंह जो ग्राम प्रधान भी है फार्म को बंटवाने में जी जान से जुट गये हैं। सन् 1970 ई. में का. ईश्वर दयाल पुरैना अमृतपुर, चहलवा तथा मधवापुर में वसीर मियां के फार्म पर कब्जा कराया था जो जिसका पट्टा भूमिहीन लोगों को मिल गया है।कम्युनिस्ट पार्टी के जिला मंत्री का. सिद्धनाथ श्रीवास्तव, का. रूपनारायण पांण्डे, भाकपा राज्य कौन्सिल सदस्य, का. शशिबाला, का. लाल बहादुर लोधी, का. चन्द्र शेखर विश्वकर्मा आदि ने अपने विचार व्यक्त किये और फार्म को बंटवाने के लिये पूरी लड़ाई लड़ने का एलान किया। पार्टी नेताओं ने यह भी कहा अगर सरकार फार्म की भूमि को नहीं बांटती है तो माह जुलाई अगस्त में जबरन कब्जा भी किया जायेगा। (प्रस्तुतिः रूपनारायन पांडेय)
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पोस्को के लठैत

इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि उड़ीसा के मुख्यमंत्री पोस्को के लठैत बने हुए हैं। आखिर उन्होंने पोस्को का नमक खाया है तो नमक तो अदा करंेगे ही। जब सरकार ने दक्षिण कोरिया की इस महाकय बहुराष्ट्रीय निगम को यहां इस्पात कारखाना खोलने के लिए मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) पर दस्तखत किये थे तो उन्होंने असल में पोस्को को राज्य की जमीन, खनिज सम्पदा और पानी को लूटने की इजाजत देने का ही वायदा तो किया था। इसके अलावा उस मेमोरेंडम में रखा ही क्या है?जब किसी एमओयू पर दस्तखत होते हैं तो लक्ष्मी का आदान-प्रदान होता ही है। इसे देश की जनता अब खूब समझती है। लक्ष्मी का ही प्रताप तो है कि केन्द्र सरकार ने भी तमाम कायदे-कानूनों को ताक पर रख पोस्को को परियोजना का हरी झंडी दे दी हैं। अब जब मामला फंस रहा है तो सफाई दी जा रही है कि हरी झंडी कुछ शर्तो के साथ दी गयी थी। जरूरत सफाई देने की नहीं है बल्कि जरूरत पोस्को को लाल झंडी दिखाने की है। यदि के केन्द्र सरकार पोस्को को लाल झंडी नहीं दिखाती तो उसका इसके सिवा कोई मतलब नहीं कि इस मामले में केन्द्र और राज्य सरकार की मिलीभगत है।जिस जमीन को सरकार पोस्को को देना चाहती है वह वनभूमि हैं। और जो आदिवासी लोग सदियों से वहां रहते आये हैं और उस जमीन और जंगल से अपनी रोजी-रोटी कमाते आये हैं वह वहां से उजड़ने को तैयार नहीं। देश का कानून भी यही कहता है वनों की जमीन को इस तरह किसी बहुराष्ट्रीय निगम के हवाले नहीं किया जा सकता, वह चाहे कोई देशी कंपनी हो या विदेशी। देश के सफेदपोश नेता और मंत्रालयों में बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोग-वे दिल्ली में बैठे हो या भुवनेश्वर में- वे भले ही बिक गये हों पर वनों और जंगलों में रहकर अपनी गुजर-बसर करने वाले ये गरीब लोग वहां से उजड़ने को तैयार नहीं।अपनी जमीन और अपनी झोपड़ियों को इस लूट से बचाने के लिए वे महीनों से वहां जमे हैं; पोस्को के लोगों को वे वहां नहीं घुसने दे रहे। वे शांतिपूर्वक बैठे हैं। पर उड़ीसा की सरकार अब उन पर गोलियां दाग रही है, उनकी झोपड़ियों पर बुलडोजर चला रही है। सशस्त्र बलों की चालीस से अधिक प्लाटूनें इन आदिवासियों पर हमला करने के लिए भेज दी गयी हैं।
- आर.एस.यादव
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वियतनाम को लाल सलाम

960 और 1970 के दशक के आरंभ में हमारे छात्र जीवन के दौरान ”तेरा नाम वियतनाम, मेरा नाम वियतनाम“ नारा लगता था। वियतनाम का नाम लेने से ही लाखों युवाओं एवं लोगों में प्रेरणा का भाव पैदा हो जाता था। शक्तिशाली अमरीकी साम्राज्यवाद का वीरतापूर्ण सामना करने का यह एक प्रतीक था। वियतनाम ने आखिरकर अमरीकी साम्राज्यवाद को हराया लेकिन उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी, इस लम्बी लड़ाई में तीस लाख लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी। 30 मई, 1975 को सैगोन शहर मुक्त हो गया तथा दक्षिण वियतनाम की आजादी और दक्षिण एवं उत्तरी वियतनाम के एकीकरण की घोषणा की गयी तथा एक नया राष्ट्र वियतनाम समाजवादी गणतंत्र अस्तित्व में आया। वियतनाम के एकीकरण की 35वीं वर्षगांठ में मुझे और सीपीआई (एम) पोलिट ब्यूरो सदस्य एसआर पिल्लई को भाग लेने का मौका मिला। वर्षगांठ समारोह का आयोजन 26 अप्रैल से 2 मई, 2010 तक हुआ। यह मेरी पहली वियतनाम यात्रा थी।20वीं सदी के उत्तरार्ध में वियतनाम का संघर्ष साम्राज्यवाद विरोध का प्रतीक बन गया था और इसका प्रभाव अधिकांश देशों में था- प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से। अमरीकी साम्राज्यवाद बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया था तथा यूरोप, एशिया और लैटिन में हर यूनिवर्सिटी एवं कालेज परिसर मानो युद्ध का मैदान बन गया था जब वियतनाम के प्रति एकजुटता प्रकट करने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां एवं प्रदर्शन हुआ करते थे। पूरे अमरीका में सेना में जबरन शामिल करने का विरोध होने लगा। अमरीका में सेना में काम करना प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य है और इसका उल्लंघन दंडनीय है। वियतनाम के वीरतापूर्ण संघर्ष का इतना प्रभाव था।नूतन एवं युवा वियतनामसाढ़े तीन दशक गुजर गये। नई पीढ़ी को वियतनाम की जानकारी नहीं है। यहां तक कि वियतनाम की आठ करोड़ 60 लाख जनसंख्या में से दो तिहाई का जन्म सैगोन एवं दक्षिण वियतनाम की मुक्ति के बाद हुआ। आज वियतनाम के 50 प्रतिशत लोग 25 साल से कम उम्र के हैं। यह मौका है जब हमें वियतनाम के वीरतापूर्ण संघर्ष और वहां के लोगों के बलिदान को याद करना चाहिए जिसके फलस्वरूप सबसे क्रूर साम्राज्यवादियों की पराजय हुई।वियतनाम न केवल एक बहादुर देश है, बल्कि एक सुंदर देश भी है। वहां के लोग विनम्र, शिष्ट एवं परिश्रमी हैं। यह एक विकासशील देश है, अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा किये गये नुकसान की भरपाई करने में लगा है। वर्षगांठ समारोह में बिरादराना प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादा नहीं थी। लेकिन अमरीका, जर्मनी, पोलैंड, रूस एवं अन्य देशों के पूर्व सैनिक एवं वार वेटरन्स मौजूद थे तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठनों एवं मैत्री संघों के प्रतिनिधि भी शामिल थे।हम कुआलालम्पुर (मलेशिया) होकर 26 अप्रैल की शाम को हनोई पहुंचे। यह 10 घंटे की लम्बी यात्रा थी। बाद में मुझे पता चला कि कोलकाता से हनोई सीधी उड़ान होने पर केवल 2 से 3 घंटे लगेंगे। वियतनाम में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर दशकों से 7.6 प्रतिशत है जो काफी महत्वपूर्ण है तथा हमारे दोनों देशों के बीच वाणिज्य एवं बिजनेस के लिए बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं। इस समय दोनों देशों के बीच व्यापार काफी कम है। दुर्भाग्य से इसकी उपेक्षा की गयी है। अगले तीन दिनों तक हनोई में 35वीं वर्षगांठ मनाने के लिए समारोह हुए। हनोई 1000 साल पुराना एक सुंदर शहर है और उसकी प्राच्य संस्कृति है। वहां के लोग मैत्रीपूर्ण और विनम्र हैं। पार्टी के सभी महत्वपूर्ण नेता तथा सरकार के अधिकारियों ने समारोह में भाग लिया। हमें ऐसे अनेक महत्वपूर्ण लोगों को देखकर एवं उनसे मिलकर खुशी हुई जिन्होनंे मुक्ति संघर्ष में अहम भूमिका निभायी थी।होची मिन्ह की सरलताहम वहां गये जहां होची मिन्ह रहते थे। होची मिन्ह जिन्हें लोग चाचा हो कहते हैं, महानायक हैं, राष्ट्रपिता हैं। उन्होंने अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन की यात्रा की थी तथा विश्व की परिस्थिति का अध्ययन किया था। वे फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक नेता थे। वे इंडो-चायना कम्युनिस्ट पार्टी, बाद में वियतनाम कम्युनिस्ट पार्टी, के संस्थापक थे। उन्हें जेल में रखा गया, देश से बाहर निकाला गया लेकिन वे मुक्ति संघर्ष के प्ररेणाóोत बन गये।उनके फोटो से हम सभी जानते हैं कि वे एक सीधे-सीधे सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि वे उत्तरी वियतनाम के राष्ट्रपति के रूप में एक छोटे से घर में रहते थे जिसमें एक बेडरूम, एक वर्किंग रूम तथा काफी कम फर्नीचर था। राष्ट्रपति के रूप में उन्हें एक बड़ा सा सुंदर महल दिया गया लेकिन उन्होंने वहां रहने से मना कर दिया। वे उस महल में विदेशी मेहमानों से मिलते थे लेकिन रहते थे उस छोटे से घर में जहां वे राष्ट्रपति के रूप में 15 सालों तक रहे। वे उतने ही सरल थे जितने महात्मा गांधी। सरलता होची मिन्ह का दूसरा नाम था। होची मिन्ह का निधन 1969 में हुआ लेकिन उनके शव को सुरक्षित रखा गया है। हम उनकी समाधि पर गये और उनके प्रति आदर व्यक्त किया। हर रोज हजारों लोग उन्हें देखने आते हैं और आदर व्यक्त करते हैं।29 अप्रैल को हम सैगोन गये जिसका नाम बदल कर होची मिन्ह सिटी रखा गया है। होची मिन्ह सिटी हनोई से काफी बड़ा शहर है। यह एक आधुनिक शहर है जहां ऊंची-ऊंची इमारतें हैं। यह एक पश्चिमी शहर है जहां बड़े-बड़े होटल, रेस्तरां आदि है। 30 अप्रैल 6 बजे सुबह हम एक बड़े सेंट्रल पार्क में गये जहां शहर एवं दक्षिणी वियतनाम की मुक्ति का समारोह आयोजित किया गया। मौसम थोड़ा गर्म था। हजारों लोग पहले से ही वहां पहुंचे हुए थे। यह समारोह उसी तरह का था जैसा कि हमारे यहां दिल्ली में गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। यह काफी भव्य समारोह था, यह आम लोगों का समारोह, जश्न था। चार घंटों तक हम रंगारंग कार्यक्रम देखते रहे; गर्मी, प्यास सब भूल गये।शाम को बिरादराना प्रतिनिधियों, सरकारी अधिकारियों, पूर्व सैनिकों एवं मैत्रीपूर्ण संघों के साथ मिलने-जुलने का कार्यक्रम था। इस अवसर पर संक्षिप्त भाषण दिये गये और भोजन का आयोजन किया गया।सुरंग से लड़ाई1 मई को हम कू ची जिला गये जो होची मिन्ह शहर से करीब 80 कि.मी. दूर है। यह एक यादगार दिन था। कू ची जिले ने मुक्ति संघर्ष में अहम भूमिका निभायी थी। यद्यपि हमने इसके बारे में सुन रखा था लेकिन यह एक दिलचस्प अनुभव था। कू ची वियतनाम के किसी अन्य क्षेत्र जैसर ही है। लेकिन दक्षिणी वियतनाम की राजधानी सैगोन से काफी नजदीक होने के कारण यह एक रणनीतिक जगह है। वियतनाम के लोगों ने पहले फ्रांसीसी औपनिवेशकों के साथ लड़ाई लड़ी, बाद में जपानी हमलावारों के खिलाफ, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक बार फिर फ्रांसिसियों के खिलाफ और अंततः अमरीकी साम्राज्यवादियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यह एक दिलचस्प कहानी है। कू ची जिला हमेशा इन सभी लड़ाइयों में आगे था। वियतनाम ने सभी प्रकार की लड़ाइयां लड़ी, आकश में, धरातल पर, जल में और भूमिगत भी, सुरंगों से होकर। कू ची जिला सुरंगी लड़ाई (टन्नेल वारफेयर) के लिए मशहूर है। 20 सालों से अधिक समय तक 1948 से 1968 तक और उसके बाद भी सुरंगे खोदी गयीं। पहले उन्होंने दुश्मनों से छिपने के लिए सुरंगे खोदीं। उसके बाद वे सुरंगें खोदते गये ताकि निकलने का दूसरा रास्ता मिल सके। बाद में उन्होंने सुरंगों को ही किचन, स्टोर रूम, डायनिंग हाल, बैठकें करने के लिए रूम और यहां तक कि हथियार, गोला बारुद रखने के लिए भी स्टोर बनाये। केचव कू ची जिले में 265 कि.मी. लम्बी सुरंगें हैं। किसी को विश्वास नहीं होगा जब तक वह अपनी आंखों से देख नहीं ले। उन्होंने सुरंगे खोदने के लिए मशीन का इस्तेमाल नहीं किया। बस हाथों में कुदाल और टोकरी लिये हुए खुदाई करते चले गये। कहा जाता है कि पूरे दक्षिणी वियतनाम में 2500 कि.मी. लम्बी सुरंगें है। उन सुरंगों से वियतनामी गुरिल्लों के अचानक निकलने और गायब हो जाने से अमरीकी सैनिक हैरान थे और वे उन्हें सुरंगी चूहे कहते थे।सुरंगों के चारों तरफ जाल (ट्रैप)वियतनाम सैनिकों की तुलना में अमरीकी सैनिक लंबे, चौड़ा कंधे वाले, हट्टे-कट्टे होते हैं जबकि वियतनाम छोटे कद के होते हैं। यदि सीधी कुश्ती प्रतियोगिता हो तो वियतनामियों के लिए यह लाभदायक नहीं है लेकिन सुरंगों में प्रवेश द्वार छोटे आकर के बनाकर उन्होंने इसे अपने अनुकूल बना दिया। सुरंगों में झुककर जाना पड़ता है जो लंबे-मोटे शरीर वाले के लिए कठिन हो सकता है। उन्होंने प्रवेश द्वारों को छिपा दिया तथा चारों तरफ जाल बिछा दिये। एक बार फंस जाने पर निकलना मुश्किल है। जब सैकड़ों शिकारी कुत्ते प्रवेश द्वारों पर लाये गये तो मिर्च का पाउडर डालकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया गया। यदि दुश्मन सुरंगों के प्रवेश द्वारों का पता लगा लेते और उन्हें खोलने की कोशिश करते तो बम विस्फोट हो जाता जिससे वे मारे जाते तथा प्रवेश द्वार नष्ट हो जाता और बंद हो जाता।अमरीकी सैनिकों को आकाश में, जमीन पर लड़ाई का प्रशिक्षण दिया गया है लेकिन जमीन के अंदर दुश्मनों से उन्होंने कभी लड़ाई नहीं लड़ी। भूक्षेत्र भी उनके अनुकूल नहीं है। घने जंगल एवं छोटी-बड़ी पहाड़ियां अमरीकी सैनिकों के अनुकूल नहीं हैं। उससे क्षुब्ध होकर अमरीकी सैनिक वियतनामियों के प्रति और क्रूर हो गये। उन्होंने पूरे इलाके में बमबारी कर दी जिसे कारपेट बोम्बिंग कहते हैं। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूरे विश्व में जितने बमों को प्रयोग किया था उसके पंाच गुना अधिक बमों का प्रयोग वियतनाम में किया गया। यहां तक कि उन्होंने काफी खतरनाक नैपम बमों एवं अन्य रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया। अधिकांश वियतनामियों को अपना घर द्वार छोड़ने के लिए मजबूर किया गया तथा अमरिकीयों द्वारा बनाये गये शिविरों में रहना पड़ा। जमीन एवं जल को प्रदूषित कर दिया गया और जहर मिला दिया गया। वियतनामी लोगों को मारने के लिए असंख्य माइन बिछाये गये। कुल मिलाकर वियतनाम की लड़ाई में 30 लाख लोग मारे गये।संक्षिप्त पृष्ठभूमिवियतनाम की अपनी सभ्यता है जिस पर उसे गर्व है। प्राचीन काल में एक हजार से अधिक समय तक उस पर चीनी योद्धाओं का दबदबा थाा हालांकि इसका विरोध तथा आजादी के लिए लड़ाई इन वर्षों में होती रही। बाद में वियतनाम में कई योद्धा एवं साम्राज्य स्थापित हुए। उसके बाद 18 सदी में फ्रांस ने उस पर कब्जा कर लिया। वियतनाम, लाओस एवं कम्बोडिया की सीमा समाप्त कर दी गयी तथा इंडो-चाइना नाम से एक नये प्रशासकीय देश का निर्माण किया गया। फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबे अर्से तक संघर्ष चलता रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना ने फ्रांस को हराकर इंडो-चाइना पर कब्जा कर लिया। विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद फ्रांसीसी वहां फिर से आ गये और वियतनाम पर कब्जा कर लिया। वियतनाम के कम्युनिस्ट राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में सबसे आगे थे, उन्होंने अपनी सेना को संगठित किया तथा फ्रांसीसी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी। 1954 में फ्रांस के खिलाफ निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें फ्रांस की हार हुई। इसके बाद एक समझौता हुआ जिसके तहत उत्तरी वियतनाम पूरी तरह आजाद हो गया और दक्षिणी वियतनाम में फ्रांस की सत्ता बनी रही। इसके साथ ही यह समझौता हुआ कि एक साल के अंदर पूरे वियतनाम में आम चुनाव होगा। दक्षिणी वियतनाम में एक कठपुतली सरकार बना दी गयी जिसने आम चुनाव कराने से इंकार कर दिया। एशिया में कम्युनिस्टों का प्रभाव रोकने के नाम पर अमरीका ने फ्रांस की जगह ले ली। पहले वे सलाहकार के रूप में वहां आये और बाद में अमरीकी सेना आ गयी देशभक्त वियतनामियों से लड़ने के लिए। संभवतः किसी दूसरे देश में अमरीका की यह सबसे लंबी लड़ाई थी। अमरीका की पांच लाख सेना वहां पहुंच गयी ताकि समाजवाद का रास्ता अपनाने और होची मिन्ह को अपना नेता मानने के लिए वियतनामी जनता को सबक सिखाया जा सके। अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा वियतनाम पर लादा गया सबसे घिनौना युद्ध द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी थी। वियतनाम के सुंदर जंगलों, जमीन और धान की खेती को रसायनों एवं बमबारी करके नष्ट कर दिया गया तथा लोगों को बेरहमी से मारा गया।इस लंबी लड़ाई में वियतनाम के खिलाफ हरेक हथियार, सभी प्रकार के रासायनिक युद्ध का इस्तेमाल किया गया। यह वियतनामी जनता की शक्तिशाली इच्छाशक्ति ही थी जिसने विश्व की सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी ताकत को हराया। 30 अप्रैल, 1975 को अमरीकी सेना वियतनाम से वापस गयी तथा सैगोन आजाद घेाषित किया गया। वियतनाम का यह कितना शानदार मुक्ति संघर्ष था। अपने देश को आजाद करने के लिए तीस लाख वियतनामी लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी दी। वियतनाम का हर इंच शहीदों के खून से सींचा हुआ है। इसीलिए इसे बहादुर वियतनाम कहा जाता है। यह हम सबके लिए पहले भी प्रेरणा थी और आज भी है।वियतनाम को लाल सलाम!
- एस. सुधाकर रेड्डी
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माओवाद - ताबूत की आखिरी कील

यह परीक्षा की घड़ी है, हमारे लिए। हमने इस विशाल देश में मेहनतकशों की विचाधारा (मार्क्सवाद) को यथोचित सम्मान दिलाने की कसमें खाई थीं, हमने गरीब के आंगन में खुशी बिछाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने की ठानी थी, हमने अपनी जिन्दगी इसी उम्मीद में बीता दी, कि कभी रूस और चीन जैसा इस देश के आकाश में भी लाल सितारा उगेगा। सबसे अधिक हमारे लिए परीक्षा की घड़ी आज आ चुकी है, जो हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही है। आज एक ही प्रश्न सबसे बड़ा बनकर उभर रहा है। क्या हमने किसी गलत विचारधारा पर यकीन किया था? क्या हमने किसी भ्रांत दर्शन को अपना विश्वास सौंपा था? क्या मार्क्सवाद कातिलों की, जल्लादों की, दहशतगर्दों की विचारधारा है, जिसे हमने सर पर ताज जैसा पहन रखा था? समाज हमसे इन सवालों का जवाब मांग रहा है।इन सवालों का जवाब देते हुए, पहले की तरह आज भी हम नहीं झेंपेंगे। बींसवीं कांग्रेस में खुश्चेव ने जब स्तालिन युग के कुकृत्यों का पर्दाफाश किया, तब हमारी पार्टी उनके साथ थी। चीन ने जब भारत की सरहदों पर विश्वासघातपूर्ण हमला किया, तब हमारी पार्टी ने उस हमले की निन्दा की। मार्क्सवाद से किसी भी विचलन को हमने बेपर्द किया चाहे उस विचलन पर स्तालिन का ठप्पा लगा हो, या माओ का। आज जब दन्तेवाड़ा में निश्छल ग्रामीणों को हमले का निशाना बनाया जा रहा है, तब तथाकथित माओवादियों को बेपर्द करने से हम नहीं चूकेंगे। हम साफ तौर पर कहेंगे- यह मार्क्सवाद नहीं है। यह आतंकवाद है, जिसका सहारा घोर नस्लवादी लिट्टेवाले लेते रहा। आखिर एक दिन प्रभाकरण की लाश चील-कौओं का भोजन बन गई। सम्पूर्ण दुनिया में लिट्टे का नामलेवा कोई न रहा। यही दशा गणपति की होगी, माओवादियों की होगी। यह सच्चाई है, इसे कोई टाल नहीं सकता।इसलिए, बिना धीरज खोये, हम इनके विरुद्ध जनमत जाग्रत करने में लगे रहें। हम विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के उन आदि पुरुषों का स्मरण करें - जिन्होंने बाकूनिन के विरुद्ध लोहा लिया था। मार्क्स ने बाकूनिनवाद के आगे घुटने टेकने से बेहतर यही समझा कि फर्स्ट इन्टरनेशनल को भंग कर दिया जाए। ट्रॉटस्की की कटुक्तियों से बिना विचलित हुए महान लेनिन ने प्रोयोगिक मार्क्सवाद की नींव रखी। बोलशेविक पार्टी धूल का एक कण भर थी। धूल के उस कण से लेनिन ने एक आंधी का सृजन किया। दुनिया के नक्शे को इस आंधी ने बदलकर रख दिया।अवश्य ही यह परीक्षा की घड़ी है, हमारे लिये। एक ओर साम्राज्यवादपरस्त सरकार, दूसरी ओर जनता को अपनी हिंसा का शिकार बनाते माओवादी। दोनों एक दूसरे के पूरक। सरकार में इच्छाशक्ति की कमी, जनता के दिलोदिमाग पर भय का साम्राज्य। हमें सरकार को मजबूर करना है ताकि माओवादियों के विरुद्ध कारगर कदम उठाए जाएं, और जनता को जाग्रत भी करना है। काम आसान नहीं है।लेकिन ऐसे ही कामों के लिए बने हैं हम। जिनकी आंखों के आगे उनके बाल-बच्चे भूख से विलख-विलख कर मर जाए, उस मार्क्स ने हमें सिखाया कि विश्वास पर अड़ना होता है, सच्चाई को अपनाना होता है। और देखिए उनकी सादगी। एक बार किसी के पूछे जाने पर उन्होंने कहा- “मैंने कोई मौलिक काम नहीं किया है, सिर्फ मानव-ज्ञान को व्यवस्थित कर दिया है।” उनका ज्ञान, उनके निष्कर्ष, आज तक हमारी राह को रौशन कर रहा है। हमें फिर किसी से क्या डरना? यह परीक्षा की घड़ी है, लेकिन इस परीक्षा में हम खरे उतरेंगे। माओवादी अब जनता को निशाना बना रहे हैं, यही उनकी व्यर्थता का प्रमाण है। जब क्रांतिकारी आतंक फैलाने लगें, तब आप समझें वह जनता तक से डर रहा है। अब उसका अन्त करीब है। दान्तेवाड़ा की जिस घटना ने ग्रामीणों की, निरीह बस यात्रियों की जान ली, वह माओवाद की ताबूत पर आखिरी कील साबित होगी।
- विश्वजीत सेन
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विमर्श - दलित आंदोलन और वर्ग-संघर्ष

दलित आंदोलन की दशा-दिशा के बारे में आजकल जोरो से चर्चा चल रही है। इस चर्चा में भाग लेने वाले लोग प्रायः अपने पक्ष को सही और दूसरे पक्ष को गलत सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसी चर्चाओं में प्रायः वर्तमान सामाजिक स्थितियों के आधार पर दलित को परिभाषित करने और उसकी सामाजिक हैसियत को आंकने का प्रयत्न किया जा रहा है। दलित-जीवन के ऐतिहासिक परिवेश को प्रायः अनदेखा छोड़ दिया जाता है। यदि इतिहास का सहारा लिया जाता है, तो भी अपनी सुविधानुसार अपने लिए उपयोगी पक्ष को ही उजागर किया जाता है। इतिहास को समग्रता से देखने परखने की दृष्टि के अभाव में दलितों को समग्रता से संबोधित करता दिखायी नहीं देता। खंडित रूप में ही वर्तमान दलित आंदोलन चल रहा है। दलितों के ही उच्च और मध्य स्तर के दलितों की मुक्ति के संघर्ष के रूप में यह सीमित हो गया हैं। इसके स्थान पर सभी स्तर के दलितों के मुक्ति आंदोलन के रूप में दलित-आंदोलन को विकसित करना है। वर्तमान दलित आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह दलित की वर्तमान शोचनीय स्थिति की जड़ों की तलाश नहीं करता। यदि करता है तो भी वह जाति केंद्रित रह जाती है। इसलिए, दलित की जातिगत वर्णगत मुक्ति के रूप में तथा दलित अस्मिता की स्थापना के संघर्ष के रूप में दलित आंदोलन सीमित हो गया है। भूमंडलीकृत समाज में ब्राह्मणीकृत दलितों की दृष्टि से संघर्ष चलाने वाला दलित, असल में गरीब दलितों की निर्धनता, गरीबी और फाकें के कारणों को नजरअंदाज कर रहा है। यदि कोई कारण प्रस्तुत करता है, तो वह जातिगत भेदभाव का है। इसलिए उसका आंदोलन जाति-भेद और छुआछूत से मुक्ति आंदोलन के रूप में संकुचित रह गया है।किसी भी आंदोंलन को रूप देने के से पहले समस्या की एक ऐतिहासिक समझ रखना जरूरी है। इतिहास की सही समझ के बिना कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता। दलित अपनी परंपरा की खोज करते हुए भी इतिहास को सही मायने में देखने, परखने और मूल्यांकन करने का प्रयास करते दिखायी नहीं देता। जातिगत और वर्णगत भेदभाव को ही वह अपने पिछड़ेपन का कारण मानता है। छुआछूत को वह सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। जाति-वर्ण भेद से अपने मन में उपजी हीन-भावना से वह मुक्त होना चाहता है। उसके विचार में, जातिगत भेदभव को मिटाकर वह समाज में मान्यता प्राप्त कर सकता है। इसलिए दलित के सामाजिक एवं साहित्यिक आंदोलों में जाति पर आधारित भेदभाव और छुआछूत को तोड़ने की बात मुखरित दिखायी देती है। विडंबना यह है कि जाति के नाम पर सवर्ण जातियों द्वारा अवर्ण जातियों पर हो रहे अत्याचारों और ज्यादतियों से मुक्ति प्राप्त कर सामाजिक हैसियत प्राप्त करने का स्वप्न देखने वाला दलित ही विभिन्न जातियों के आधार पर संगठित हो रहा है। अपनी जातीय अस्मिता की खोज करने वाला दलित सिर्फ छुआछूत से मुक्त होकर सामाजिक मान्यता प्राप्त करना चाहता है। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के संस्थापक ब्राह्मणों को गाली देते वक्त भी दलित ब्राह्मणों के बराबर ही होना चाहता है, बल्कि उस शोषणकारी ब्राह्मण्य व्यवस्था को नष्ट करने की बात प्रायः नहीं उभरती। जाति व्यवस्था को तोड़कर एक जाति-रहित व्यवस्था की स्थापना का स्वप्न तक वह नहीं देख पाता। दूसरे शब्दों में कहें, तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के षड्यंत्र का शिकार होकर उसी के द्वारा निर्धारित संघर्ष ही दलित आज भी चला रहा है। ब्राह्मणों के जातिवाद के शिकंजे में पड़कर, जातिगत गुलाम मानसिकता के कारण, जाति से स्वतंत्र होने की बात तक वह नहीं सोच पाता। यानी मेहनत करने वालों की एकता को तोड़ने के लिए ब्राह्मणों ने जिस जाति-व्यवस्था को स्थापित किया था, उसी व्यवस्था को बरकरार रखकर उसमें ही दलित अपनी जातिगत गरिमा प्राप्त करना चाहता है, अर्थात् जाति से परे होकर दलित सोच भी नहीं पाता। यही दलित आंदोलन की सबसे बड़ी त्रासदी है। ‘मनुस्मृति’ और चातुर्वर्ण्य व्यवस्था पर आक्रमण कर अपनी जाति को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कराने के रूप में दलित आंदोलन को सीमित करना उसकी बड़ी कमजोरी है।इतिहास बताता है कि सभी प्रकार के सामाजिक भेदभाव का मूूल आधार अर्थ है। आर्थिक असमानता के मूल में शोषण है। शोषक व्यवस्था का आधार ही विभाजन है। जन समाज को विभिन्न स्तरों में विभाजित कर उसे दुर्बल बनाना उसकी नीति है। अकसर यह माना जात है कि जनता को कई खेमों में विभाजित कर सुगम ढंग से शासन करने की नीति सबसे पहले अंग्रेजों ने अपनायी थी। लेकिन यह धारणा गलत है। जिस समजा में आर्थिक असमानता बनी रहती है, वहां जनता का विभाजन भी बना रहता है। क्योंकि शोषकसत्ताधारी वर्ग अपने अधिकार और उससे हासिल सुख-सुविधाओं को बनाये रखने के लिए निरंतर प्रयास करता रहता है। दूसरी ओर, जो वर्ग इससे वंचित रहता है, वह उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर संघर्ष करता है। सत्ता प्राप्ति से अपने जीवन के बेहतर होने की आकांक्षा में संघर्ष करते रहने वाले वर्ग को दुर्बल बनाकर अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने की कोशिश सत्ताधारी वर्ग करता रहता है। इस वर्ग-संघर्ष को मिटाकर अपने एकछत्र शासन को बरकरार रखने के लिए एक ओर कठोर नियमों के जरिये उसके संघर्ष को दबा दिया जाता है, तो दूसरी ओर जनता के बीच भेदभाव पैदा करके उसे आपस में लड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार किसी भी शोषक का व्यवस्था में मेहनतकश वर्ग को दमन और विभाजन से जोड़कर उसके मुक्ति संघर्ष को नाकाम बना दिया जाता है। इस दृष्टि से देखें, तो सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष को दुर्बल बनाने के लिए ही प्राचीन भारत के सत्ताधारी आर्यो ने जाति-व्यवस्था की रचना की थी। इस ऐतिहासिक समझ के अभाव के कारण ही दलित आंदोलनकारी वर्ग-संघर्ष को दुर्बल बनाने के लिए ही प्राचीन भारत के सत्ताधारी आर्यो ने जाति-व्यवस्थ की रचना की थी। इस ऐतिहासिक समझ के अभाव के कारण ही दलित आंदोलकारी वर्ग-संघर्ष का विरोध कर जाति-संघर्ष से जुड़ा हुआ है। किसी भी समस्या को कार्य कारण संबंध के वैज्ञानिक बोध से विश्लेषित करना है। जिसमें यह वैज्ञानिक बोध नहीं होता, वह समस्याओं का सही समाधान नहीं निकल पाता। उसकी लड़ाई नकली होने की संभावना है। अक्सर साम्यवाद ही समस्याओं को इस दृष्टि से विश्लेषित करने में सफल दिखायी देता है।मानव सभ्यता के विकास का इतिहास हमें यह बता देता है कि जंगल में विचरण करके अपना जीवन-यापन करते आदिम मनुष्य के बीच न जाति-भेद था, न वर्ण-भेद। जब मनुष्य ने खेती बाड़ी शुरू की और सामूहिक रूप में बसना प्रारंभ किया, तब से ही एक सामाजिक व्यवस्था शुरू हो जाती है। जब खेती से ज्यादा पैदावार मिलने लगी, तो भविष्य में उपयोगी करने के लिए उसे सुरक्षित भी रखना पड़ा। इसके संरक्षण का दायित्व कुछ लोगों को सौंपना पड़ा। लोगों को आवश्यकता के अनुसार अनाज बांटने का दायित्व भी इनके ऊपर आ गया। कालांतर में खाद्य सामग्रियों के संरक्षण और वितरण को वे अपना अधिकार मानने लगे। साथ ही यह भी दायित्व जैसा बन गया कि दूसरे लोग मेहनत करके अनाज पैदा करें, खजाने में उसे पहुंचा दे और वितरण केन्द से ले जाएं। इस प्रकार, संपत्ति के आधार पर मेहनत का विभाजन होने लगा। फिर भी प्रारंभकालीन समाज में जाति-वर्ण भेद कायम नहीं था, क्योंकि संपत्ति के केंद्रीकरण और उस पर अधिकार स्थापित करने तक समाज में सभी लोग एक जैसे काम करते थे। प्रकृति और मौसम की चपेट से कोई मुक्त नहीं था। जब सभी लोग एक जैसे वर्ग के थे, तो वहां वर्ण-भेद की कोई गुंजाइश नहीं थी। जब संपत्ति-तत्कालीन समाज में खाद्य-सामग्री का केंद्रीकरण होने लगा, तब समाज में आर्थिक असमानता पैदा होने लगी। संपत्ति के संरक्षक शरीरिक मेहनत से मुकर कर सुख-सुविधाओं में लीन होने लगे। घर के भीतर आराम से जीवन बिताने वाले अवकाश भोगियों और प्रकृति से निरंतर संघर्ष कर मेहनत करने वालों के बीच रंग-भेद पैदा हो जाना स्वाभाविक है। मेहनतकश वर्ग की शारीरिक मेहनत का शोषण कर भोग-विलास में लीन सुविधा-भोगियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को, उनके रंग के नाम, उनकी नौकरी के नाम पर नीचा दिखाने की प्रथा भी शुरू हुई होगी। यानी मेहनतकश वर्ग के संघर्ष को दबाने और दुर्बल बनाने के लिए सत्ताधारी वर्ग द्वारा कालांतर में की गयी साजिश का परिणाम है भारत की जाति-वर्ण-व्यवस्था। भारतीय जनता को टुकड़ों में विभाजित कर उन्हें आपस में लड़कर दुर्बल होने के लिए छोड़ने वाली शोषणकारी वर्ग-व्यवस्था की समझ के बिना जाति-वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन संभव नहीं होगा।शोषक व्यवस्था में सत्ताधारी वर्ग धन और अधिकार की दृष्टि से ताकतवर है, जबकि संख्या दृष्टि से अल्पसंख्यक है। मेहनतकश वर्ग धन और अधिकार से वंचित है, जबकि वह समाज में बहुसंख्यक है। यह बहुसंख्यकता ही उसकी ताकत है, शोषक वर्ग में मेहनतकश वर्ग की इस ताकत के प्रति हमेशा डर बना रहता है। वह इस भय से आतंकित है कि मेहनतकश वर्ग एकजुट हो जाएं और उसकी ओर बढ़ जाएं तो अपनी सत्ता को बचाये रखना असंभव है। इसलिए, अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए उसनेसुविधाभोगी जीवन में प्राप्त शिक्षा, ज्ञान और बुद्धि को अशिक्षा और अज्ञान के अंधेरे में पड़े जन-सामान्य के खिलाफ प्रस्तुत किया। ‘मनुस्मृति’ आदि ग्रंथों की रचना द्वारा मेहनतकश वर्ग को विभिन्न वर्णों और जातियों में विभक्त कर, भेदभाव पैदा कर उसके एकजुट होकर संघर्ष करने की संभावना को सत्ता वर्ग ने नष्ट कर दिया। ब्राह्मणवादी सत्ता वर्ग की इस साजिश की समझ के बिना कोई भी दलित आंदोलन मर्म पर आक्रमण नहीं कर सकता और इसलिए ही सफल नहीं हो सकता क्योंकि दलित आज भी, विभाजित कर शासन चलाने वाली सत्ता की साजिश का शिकार है। इसलिए ही ‘दलित-अस्मिता’ का आंदोलन विभिन्न खेमों द्वारा विभिन्न मोर्चों पर चल रहा है। ये आंदोलनकर्ता एक मंच पर आना नहीं चाहते, क्योंकि वे अपनी ‘अस्मिता’ के लिए लड़ रहे हैं। जाति-भेद और छुआछूत के कारण जिस हीन-भावना का शिकार है दलित, वह उस हीनभावना से मुक्ति के लिए अपनी जाति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता, बल्कि सवर्णों द्वारा प्रदत्त उस ‘हीन-जाति’ की ‘संस्कृति’ का संरक्षण करना चाहता है। असल में वह अपनी जाति को छुआछूत और अवहेलना से मुक्त करा ‘ब्राह्मणत्व’ के स्तर तक पहुंचा कर गर्व का अनुभव ही करना चाहता है। साथ ही, शायद, वह एक ऐसी जाति की कामना भी करता होगा, जो अपने से निम्न हो जिस पर वह अपना शासन चला सके।दलित आंदोलन अक्सर जाति-भेद को ही संबोधित करता है, वर्ग-भेद को नहीं। मानव की भूख, गरीबी, फाके आदि का कारण सिर्फ जाति-वर्ण-भेद नहीं है। इन भेदों को मिटाने मात्र से मनुष्य की रोटी की समस्या दूर नहीं हो जाएगी। मनुष्य की मेहनत को चुराकर आर्थिक दृष्टि से मनुष्य को दो वर्गो में बांटने वाली शोषक व्यवस्था को नष्ट करने पर ही उसकी रोटी की समस्या का हल हो पायेगा। इसलिए समाज के सर्वहारा वर्ग को जाति-वर्ण आदि सारे भेद भावों को भूलकर, एकजुट होकर, धनाधिकार केंद्रित सत्ता पर आक्रमण करना है। राजसत्ता और धर्मसत्ता की मिली भगत का पर्दाफाश कर कार्ल मार्क्स ने यह समझाने की कोशिश की थी कि धर्म मनुष्य के लिए अफीम है, उससे मुक्त हो जाओ। धर्म ने भक्ति के साथ अपने भक्तों को जाति की अफीम भी खिलायी और उन्हें अपना गुलाम बनाया। इस नशे में ही दलित आंदोलकारी आजकल अपने आंदोलन में साम्यवादियों को जगह नहीं देते, बल्कि उन्हें गाली देते हैं। आजकल दलित का संघर्ष शोषक सामंतवादी जमींदारी, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ है। दलित का संघर्ष मुख्यतः अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए नहीं, बल्कि जातिगत दृष्टि से सामाजिक हैसियत प्राप्त करने के लिए है। इसलिए आरक्षण के जरिये शिक्षा और नौकरी हासिल कर मध्यवर्गीय जीवन बिताने वाले दलित को ‘दलित ब्राह्मण‘ कहकर उनका उपहास किया जाता है। स्पष्ट है कि धन ही सामाजिक प्रतिष्ठा और सामाजिक तिरस्कार का आधार है। वर्तमान भूमंडलीकृत दुनिया में यह यर्थाथ और भी प्रखर दिखायी दे रहा है। अतः दलित की लड़ाई की दिशा में परिवर्तन अनिवार्य है। उसकी लड़ाई सिर्फ छूआछूत से मुक्ति की लड़ाई के रूप में सीमित न रहे बल्कि उसकी लड़ाई चौतरफा शोषण के खिलाफ तथा सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक न्याय के लिए भी हो। लेकिन यह लड़ाई अकेले दलित नहीं लड़ सकता क्योंकि सत्ता इतनी ताकतवर है कि आसानी से वह उसकी लड़ाई को तोड़ सकेगी। दूसरी ओर यह यथार्थ भी है कि दलितों के जैसा कष्टमय जीवन बिताने वाले किसान हैं, मजदूर हैं, कर्मचारी हैं, बेरोजगार हैं, बेघर हैं, निर्धन हैं। वे भी अपने-अपने मोर्चे पर लड़ रहे हैं- बेहतर जीवन के लिए, सामाजिक न्याय के लिए। दलित का संघर्ष इनके संघर्ष से अलग नहीं है, क्योंकि ये लोग भी अपनी जिंदगी में दलितों के ही समान अपमान, अवहेलना, पीड़ा, दमन आदि के शिकार हैं। इसलिए नहीं कि वे निम्न जाति के हैं, बल्कि इसलिए कि वे गरीब हैं, निर्धन हैं, समाज के पिछड़े वर्ग हैं।एक विशाल देश को राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक वर्चस्व के जरिये अपने कब्जे में रखने वाले एक वर्ग के खिलाफ जब तक सर्वहारा वर्ग का एकजुट संघर्ष नहीं होगा, तब तक अन्य छोटे-मोटे आंदोलन छोटे-मोटे परिवर्तन तो ला सकते हैं, किन्तु बुनियादी तौर पर शोषक व्यवस्था को बदल नहीं सकेंगे। अतः शोषक वर्ग की असली शक्ति की समझ रखने वाला साम्यवादी सिद्धांत ही दलित सहित सर्वहारा वर्ग को एकजुट कर मुक्ति संघर्ष चला सकता है। दुनिया भर के मेहनतकश लोगों से एकजुट हो जाने का जो आह्वान कार्ल मार्क्स ने किया था, उसे समाज के दलित-पीड़ितो को कंठस्थ करना पड़ेगा। एकता में ही शक्ति है। सर्वहारा वर्ग की एकता से ही वर्ग-विभाजित समाज को नष्ट कर समाजवादी समाज की स्थापना संभव है। समाजवादी समाज की कल्पना ही ऐसी है कि उसमें जाति या वर्ण पर आधारित भेदभाव के लिए कोई गुंजाइश न रह पाएगी। ऐसा समाज ही बाद में साम्यवादी समाज में परिणत हो जाएगा। अतः दलित आंदोलकारी के लिए यह ऐतिहासिक समझ अनिवार्य है कि वर्ग विभाजन के बाद भी समाज में वर्ग-जाति विभाजन स्थापित हो गया था। इसलिए वर्ण-जाति भेद को मिटाने मात्र से वर्ग-भेद नहीं मिट जाएगा, सामाजिक न्याय की स्थापना भी नहीं हो जाएगी। शोषण पर आधारित शोषक-शोषित के वर्ग भेद के मिट जाने के साथ ही, उस पर स्थापित जाति-वर्ण-भेद भी मिट सकेगा। जब समाज के सभी नागरिकों को आर्थिक एवं सामाजिक न्याय की प्राप्ति होगी, तब अन्य सभी प्रकार का भेदभाव मिट जाएगा। यानी साम्यवाद के द्वारा ही दलित सहित सर्वहारा वर्ग की मुक्ति साध्य है। अतः दलितों को अपने मुक्ति संघर्ष को व्यापक जन-संघर्ष से जोड़ना पड़ेगा।
- वी.जी. गोपालकृष्णन
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पोस्को को लेकर उड़ीसा में बवाल - भाकपा ने पोस्को-विरोधी आंदोलन को तेज किया

उड़ीस में दक्षिण कोरिया की इस्पात कंपनी पोस्को द्वारा संयत्र लगाने के खिलाफ जनभावना उग्र होती जा रही है। पुलिस द्वारा पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के सदस्यों पर जो लोकतांत्रिक ढंग से संघर्ष चला रहे हैं, बर्बर अत्याचार किये जाने के बाद जनभावना और उग्र हो गयी है। केन्द्र एवं राज्य सरकार पुलिस बल का इस्तेमाल करके इस आंदोलन को दबाना चाहती हैं जिससे यह आंदोलन हिंसक हो गया है।उड़ीसा सरकार ने पोस्को संयंत्र स्थल के पास बड़ी संख्या में पुलिस को तैनात कर रखा है। लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प है। 19 मई को भाकपा महासचिव ए।बी. बर्धन ने पोस्को संयंत्र स्थल के निकट एक विशाल विरोध प्रदर्शन को संबोधित करते हुए कहा कि पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति पिछले पांच साल से लोकतांत्रिक ढंग से आंदोलन चला रही है।उन्होंने आरोप लगाया कि धरने पर बैठे हजारों लोगों को तितर-बितर करने के लिए सरकार ने सशस्त्र बल के 40 प्लाटून तैनात कर रखे हैं। पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज, आंसू गैस और रबर की गोलियां दागने से 100 से ज्यादा लोग घायल हो गये जिसमें 60 महिलाएं थीं। बर्धन ने सरकार के इस दावे को गलत एवं झूठा बताया कि कुछ प्रर्शनकारियों ने बम फेंके। उन्होंने कहा, “यह बिल्कुल झूठ है।”बर्धन ने कहा कि पुलिस अत्याचार के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार दोनों दोषी हैं। यहां तक कि पुलिस ने एक 70 वर्षीय महिला को भी नहीं बख्शा जो पोस्को का विरोध करने वहां आयी थी। बर्धन ने कहा कि विरोध प्रदर्शन देखने जो निर्दोष लोग वहां जमा हुए थे पुलिस ने बेरहमी से उनकी पिटाई की और उनके घरों में आग लगायी।भाकपा महासचिव ने प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कहा कि हम चार कारणों से पोस्को का विरोध करते हैं। प्रथम, हम नहीं चाहते हैं कि इतनी अच्छी उपजाऊ जमीन पर पोस्को संयंत्र लगाये। द्वितीय, इस परियोजना को कहीं और ले जायें। तीसरा, सरकार कैप्टिव माइंस और कैप्टिव पोर्ट दे रही है जिससे पाराद्वीप बंदरगाह को खतरा पहुंचेगा। चौथा, परियोजना के लिए पानी महानदी से दिया जायेगा जिससे पेयजल एवं सिंचाई प्रभावित होगी।बर्धन ने कहा कि सरकार ने पेास्को प्रतिरोध संग्राम समिति के नेताओं को बातचीत के लिए कभी नहीं बुलाया। समिति ने नेता सरकार से वार्ता के लिए तैयार हैं। लेकिन साथ ही हम सरकार को यह भी चेतावनी देना चाहते हैं कि हमारा आंदोलन लोकतांत्रिक ढंग से चलता रहेगा। बर्धन ने कहा कि उनकी पार्टी उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक को अनेक पत्र लिख चुकी है, जिनमें उड़ीसा में पोस्को एवं टाटा पोर्ट सहित कई मामलों में आदिवासियों के साथ अन्याय करने तथा उनका हक छीनने का विरोध किया गया है।बर्धन ने कहा कि पोस्को द्वारा कैप्टिव पोर्ट और इस्पात संयंत्र लगाने की मांग स्वीकार नहीं है क्योंकि यदि सब कुछ प्राइवेट हो जायेगा तो ट्रांजेक्शन का कोई हिसाब-किताब नहीं रहेगा।अभव साहू ने विरोध सभा की अध्यक्षता की। उन्होनंे शंातिपूर्ण एवं निर्दोष लोगों पर- जिनमें महिलाएं और बच्चे शामिल है, पुलिस बर्बरता की कड़ी निंदा की। भाकपा के प्रदेश सचिव दिवाकर नायक, सहायक सचिव आशीष कानूनगो, भाकपा राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रामकृष्ण पंडा, सांसद विभु तराई, पार्टी विधायक आदिकंडा सेठी, भाकपा (एम) नेता सुरेश पाणिगृही, आरजेडी नेता हरीश महापात्रा, समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रवि देहरा, फारवर्ड ब्लाक के सचिव संतोष मित्रा और झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रवक्ता अरुण जेना ने भी सभा को सम्बोधित किया। वामपंथी पार्टियों समेत छह गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा राजनीति दलों ने 20 और 21 मई को राज्यव्यापी रास्ता रोको आंदोलन का आह्वान किया है।15 मई, शनिवार को उड़ीसा के जगतसिंहपुर जिले में पुलिस ने सैकड़ों ग्रामीणों पर लाठीचार्ज किया, रबर की गोलियां चलायी और आंसू गैस के गोले छोड़े गये जिसमें करीब 100 लोग घायल हो गये। पुलिस ने यह कारवाई पोस्को इस्पात परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण करने में प्रशासन की मदद करने के लिए की।पुलिस ने परियोजना के प्रवेश द्वार पर जमा हुए ग्रामीणों से तितर-बितर होने के लिए कहा। लेकिन विरोध कर रहे ग्रामीणों ने जब इसकी अनदेखी कर दी तो पुलिस ने लाठीचार्ज करना शुरू कर दिया। इस परियोजना के तहत 12 मिलियन टन क्षमता का इस्पात संयंत्र लगाया जाना है।धिनकिया और आसपास के अन्य गांवों के सैकड़ों किसान एवं अन्य लोग 26 जनवरी से ही परियोजना स्थल बालीटुथा में धरने पर बैठे हुए हैं ताकि प्रशासन एवं पोस्को अधिकारियों को यहां आने से रोका जा सके। 19 मई को सुबह पुलिस ने धारा 144 लागू कर दी और लोगों के जमा होने पर रोक लगा दी। दोपहर बाद दो बजे के करीब आंदोलनकारियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई शुरू हो गयी।पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के प्रवक्ता पैकेरे ने आरोप लगाया कि प्रशासन एवं पुलिस अधिकारियों ने इस तरह से कार्रवाई की मानो वे पोस्को के कर्मचारी है। उन्होंने बर्बरतापूर्वक ग्रामीणों की पिटाई करनी शुरू कर दी जिनमें महिलाएं भी थीं। पुलिस ने 15 लोगों को गिरफ्तार कर लिया जिनमें 5 महिलाएं भी थीं। गंभीर रूप से घायल दो लोगों के नाम हैं- नौगांव के नत्था स्वैन और धिनकिया गांव के रमेश दास।गांव वाले जिस अस्थायी ढांचे के चीचे बैठ पिछले चार महीने से धरना दे रहे थे पुलिस ने उसे भी खाली करा लिया। पुलिस का कहना है कि पोस्को विरोधी कार्यकर्ताओं ने उन पर कुछ देशी बम फेंके जिसमें उनके चार लोग जख्मी हो गये। इसके पहले भाकपा सांसद विभु प्रसाद तराई को पुलिस ने तब गिरफ्तार कर लिया जब वे धरना स्थल पर जाने की कोशिश कर रहे थे।धिनकिया और अन्य गांवों के लोगों ने घर लौटने पर आशंका व्यक्त की कि पुलिस की कार्रवाई फिर हो सकती है क्योंकि बड़ी संख्या में पुलिस के जवान उस क्षेत्र में मौजूद हैं।इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों ने पार्टी सांसद को गिरफ्तार करने तथा पोस्को परियोजना का विरोध करने वालों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के विरोध में भुवनेश्वर, कटक, छतरपुर एवं अन्य जगहों में प्रदर्शन किया। पोस्को ने उड़ीसा में इस्पात संयंत्र लगाने के लिए राज्य सरकार के साथ जून, 2005 में एक समझौता किया था लेकिन ज्यादातर ग्रामीणों द्वारा अपनी भूमि नहीं देने के कारण परियोजना कार्य में काफी देरी हो रही है।आंदोलनकारी पोस्को द्वारा एक कैप्टिव पोर्ट बनाने का भी विरोध कर रहे हैं क्योंकि पारादीप बंदरगाह पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसी तरह पोस्को द्वारा कैप्टिव लौह अयस्क खानें (आयरन और माइन्स) का भी विरोध किया जा रहा है क्योंकि पोस्को कंपनी उड़ीसा सरकार से लौह अयस्क खरीदना नहीं चाहती।पोस्को द्वारा अपनी परियोजना के लिए महानदी बराज से पानी लेने का प्रस्ताव है जिससे राज्य में सिंचाई प्रभावित होगी तथा पर्यावरण संतुलन भी बिगडे़गा। लेकिन इन सभी बातों को नजरअंदाज करके केन्द्र एवं राज्य सरकार पोस्को का समर्थन कर रही है।इस क्षेत्र में तनाव व्याप्त है क्योंकि ग्रामीण एवं अन्य आंदोलनकारी झुकने के बजाय अपने संघर्ष को तेज करने की तैयारी कर रहे हैं। संग्राम समिति के अध्यक्ष अभय साहू ने कहा कि पुलिस और जिला प्रशासन से लोहा लेने के लिए हम गांववालों को संगठित कर रहे हैं। गांवों में 24 घंटे सुरक्षा के प्रबंध किये गये हैं। इस बीच भाकपा के राष्ट्रीय सचिव एवं सांसद डी. राजा ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर पुलिस कार्रवाई पर विरोध जताया है। उन्होंने कहा कि पुलिस की बर्बर कार्रवाई को कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने उड़ीसा सरकार के रवैये की निंदा करते हुए कहा कि पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इस परियोजना को दी गयी मंजूरी वापस ली जानी चाहिए।विपक्षी पार्टियों द्वारा निन्दा16 मई को उड़ीसा की कई विपक्षी पार्टियों और जनसंगठनों ने पुलिस कार्रवाई की निंदा की। विभिन्न कम्पनियों के लिए जमीन अधिग्रहण के लिए निर्दोष लोगों के विरुद्ध पुलिस बल का इस्तेमाल करने के लिए उन्होंने बीजू जनता दल सरकार को चेतावनी दी।विपक्षी दलों ने कहा कि पोस्को इंडिया और टाटा स्टील जैसी कम्पनियों के लिए जमीन अधिग्रहण करने के लिए मुख्यमंत्री पटनायक सरकार जनता के हितों के साथ समझौता कर रही है। राजनेताओं और विस्थापन विरोधी कार्यकर्ताओं ने जनता का आह्वान किया है कि वे राज्य सरकार के जनविरोधी इरादों को नाकाम करें। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव दिवाकर नायक ने अन्य विपक्षी पार्टियों से अपील की कि वे विरोध दिवस कार्यक्रमों-रैलियों, प्रदर्शनों और धरनों में अपना सहयोग दें। कई राजनैतिक पार्टियों और जनसंगठनों ने राज्य की राजधानी में एक राज्य स्तरीय सम्मेलन किया और पोस्को परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों के विरुद्ध बढ़ती पुलिस नृशंसता का विरोध किया।पोस्को परियोजना को लगभग 4000 एकड़ जमीन चाहिए जिसका बड़ा हिस्सा वनभूमि है। कार्यकर्ताओं ने कहा है कि इसके निर्माण से लोगों से खेती की जमीन छिन जायेंगी और 20,000 लोग विस्थापित हो जायेगे। एक किसान ने कहा कि हम जमीन नहीं देंगे, परियोजना के विरुद्ध हमारी लड़ाई जारी रहेगी। एक अन्य किसान ने कहा कि इस तरह की परियोजनाओं को उपजाऊ जमीन नहीं दी जानी चाहिए जहां अधिकांश आबादी की रोजी-रोटी खेती पर निर्भर है।पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के कार्यकर्ता संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं- उन्होंने तीन ग्राम पंचायत धिनकिया, नौगांव और गोविन्दपुर को जाने वाली सड़कों को खोद दिया है ताकि वहां वाहन न जा पायें। बलीटूथा पर कब्जा करने के बाद पुलिस ने वहां स्थायी चौकी बना ली है, और लोगों के आने जाने पर नजर रखे हुए हैं। गांववालों के विरुद्ध अदालत ने वारंट जारी कर दिये हैं। पुलिस उन्हें खोज रही है।आशंका है अगले कुछ दिनों में पुलिस गांवों में दाखिल हो सकती है। पुलिस ने पोस्को स्थल के चारों तरफ सुरक्षा बढ़ा दी है। विपक्षी राजनैतिक पार्टियों और विस्थापन विरोधी ताकतों ने आंदोलनों का एक सिलसिला शुरू कर दिया है।
- सी. आदिकेशवन
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साढ़े तीन करोड़ लोग दरिद्रता में धकेले गये

राष्ट्रसंघ के आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के न्यूयार्क स्थित कार्यालय में भारत सरकार के ही प्रकाशित आंकड़ों के आधार पर बताया है कि विश्वमंदी के बाद भारत में 33.7 मिलियन (3.37 करोड़) लोगों को दरिद्रता के हालात में धकेल दिया गया है। ऐसा मजदूरों की छंटनी, रोजगार के नुकसान, लोगों की आय में भारी गिरावट के कारण हुआ है।इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने “ग्लोबल इम्प्लायमेंट टेªड 2010” नाम से एक प्रतिवेदन प्रकाशित कर बताया है कि पूरी दुनिया में 2008 के मुकाबले 2009 के अंत तक अनौपचारिक (इनफार्मल) मजदूरों की संख्या में तीन प्रतिशत का इजाफा हुआ है। औपचारिक मजदूरों का मतलब होता है कैजुअल रोजगार, अधिकाधिक काम, कम मजदूरी, खतरनाक कार्यदशा कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं। सर्वविदित है कि आईएलओ ने पिछले 10 वर्षो से “उत्कृष्ट श्रम” (डिसेंट वर्क) बनाने का अभियान चला रखा है। उत्कृष्ट श्रम का मतलब होता है, टिकाऊ रोजगार उन्नत कार्यदशा, सम्मानजनक पारिश्रमिक, टेªड यूनियन अधिकार, बेराजगारी की अवस्था में मुआवजा आदि। किंतु इसके बावजूद इसी अवधि में उत्कृष्ट श्रम में भारी कमी आयी है और अनौपचारिक एवं असुरक्षित मजदूरों की संख्या में बाढ़ आ गयी। आईएलओ प्रतिवेदन 2010 में अनौपचारिक मजदूरों की बढ़ती संख्या का आंकड़ाउ निम्नप्रकार दिया गया है।असुरक्षित रोजगार (प्रतिशत में) 2008 2009दक्षिण एशिया 76.9 78.6अफ्रीका 75.5 79.6ओईसीडी देश 9.7 10.7विश्व स्तर पर 49.5 52.8श्रम मंत्रालय द्वारा वर्ष 2005 के प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक भारत में अनौपचारिक मजदूरों की संख्या कुल श्रम बल का 94.34 प्रतिशत है। जिनमें कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या 238 मिलियन (23.8 करोड़) है। श्रमबल का यह हिस्सा तो शत-प्रतिशत कवचविहीन और असुरक्षित है। इन्हें किसी प्रकार का सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है।भारत में सेवाक्षेत्र के रोजगार की बड़ी-बड़ी बातेें की जाती हैं। असंगठित क्षेत्र कमीशन (एनसीईयूएस) के आंकड़ों के मुताबिक आउटसोर्सिंग के माध्यम से पक्का नियमित रोजगार को अनियमित (कैजुअल) बनाया जाता है, जिनमें महिलाओं की संख्या सर्वाधिक है। उत्पादन पद्धति में ठेकाकरण के प्रवेश द्वारा सुरक्षित रोजगार को असुरक्षित बनाया जाता है, जिसके चलते भारी तादात में गरीबी रेखा के नीचे लोगों को धकेल दिया जाता है।एनएसएसओ के (63वें चक्र) आंकड़ों के मुताबिक बगैर लाइसेंस के अनिबंधित प्रतिष्ठानों का प्रतिशत सन् 2000 के 61.3 से बढ़कर 2007 में 63.2 हो गया। सेवा क्षेत्र रोजगार में 3.35 करोड़ लोग कार्यरत हैं।इस तरह नियमित रोजगार में भारी कमी और अनौपचारिक असुरक्षित रोजगार में इजाफा देश की बढ़ती बदहाली और दरिद्रता का सबूत है। ये सरकारी आंकड़े ही उन तमाम सरकारी दावों को बेनकाब करते हैं कि देश का विकास हो रहा है, क्योंकि देश का जीडीपी बढत्र रहा है। अब यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि जीडीपी बढ़ने का आम आदमी की खुशहाली के साथ कोई संबंध नहीं है। यह जीडीपी विकास पूंजीपतियों की तिजोरी भरता है। यही है मनमोहनी अर्थशास्त्र का राज, जो आम आदमी का पेट काटकर मगरमच्छ पूंजीपतियों को मालामाल करता है।
- सत्य नारायण ठाकुर
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ऐतिहासिक विरासत की जन्मशती

सन् 1911 हमारे आधुनिक इतिहास में कई दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। सन् 1905 में साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का बंटवारा अंग्रेजी सरकार ने किया था। इस फैसले के खिलाफ देश भर में आंदोलन छिड़ गया। ऐसा आंदोलन हुआ कि 1911 में सरकार ने बंग-भंग योजना वापस कर ली। यह हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम की पहली बड़ी विजय थी। लेकिन उसी समय बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाने का आंदोलन वल रहा था। 1911 में यह आंदोलन उफान पर था। फलतः 1912 में बिहार-उड़ीसा को बंगाल से अलग कर दिया गया। आगे चलकर 1911 देश के साहित्यिक- सांस्कृतिक इतिहास में इसलिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया कि सन् 1911 में जन्मे कई लोग इतने बड़े और महत्वपूर्ण रचनाकार हो गये कि साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिली, नयी ऊंचाई मिली। अब 2011 में हम उनकी जन्मशती मनाने की तैयारी में लग गये हैं।हम देश की अन्य भाषाओं के रचनाकारों के बारे में नहीं जानते, लेकिन हिन्दी के महान कविगण हैं- शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय। भाषा की और देश की सीमा को लांघकर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की जनता में अत्यंत लोकप्रिय फैज अहमद फैज की भी जन्मशती इसी वर्ष आ गयी है। इन महान रचनाकारों की जन्मशती मनाने का दायित्व हम पर उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने की दृष्टि से नहीं, बल्कि इतिहास के द्वारा सौंपा गया है। एक विरासत के रूप में। क्या है यह विरासत? हम जो आज अपने जीवन में, लेखन में और समाज में लड़ाई लड़ रहे हैं, यह भी कह सकते हैं कि लड़ने को मजबूर हैं, उसे लड़ते हुए ही हम पीछे मुड़कर देखते हैं कि इस संबंध में हमारे पुरखों ने, हमारे पूर्व पुरुषों ने क्या किया है? हम देखते हैं कि जो लड़ाई हम लड़ रहे हैं, वही लड़ाई अपने समय में वे लड़ रहे थे। वे कुछ कर गये, कुछ बाकी रहा। इसे इतिहास की भाषा में यों कह सकते हैं कि ऐतिहासिक विकास के दौर में हमारे पुरखों ने कुछ उपलब्ध किया और कुछ बाकी रह गया। इतिहास ने जो प्राप्त किया, वह हमारी शक्ति है, जो नहीं उपलब्ध किया जा सका वह इतिहास का प्राप्य है, यानी उसे प्राप्त करना है। यह इतिहास का प्राप्य ही हमारी विरासत है। इसलिए विरासत कोई साधारण चीज नहीं है, वह बड़ी ऐतिहासिक जवाबदेही है। साहित्य में वह जवाबदेही इस रूप में आती है कि हमारे पूर्वज कवियों या लेखकों के बाद यथार्थ में जो नयापन आया, जीवन और समाज में विकास की गति से जो नये लक्षण प्रकट हुए, जो नयी समस्याएं आयीं, उन सबका मुकाबला करने, उन्हें प्रगति की दृष्टि से साहित्य में लाने का दायित्व बाद के कवियों-लेखकों पर आता है। हम पर वह उसी रूप में आया है। इस सबको चरितार्थ करने में हम कहां तक सफल हो पाये, यह देखना एक बात है, लेकिन आज जो लड़ाई हम लड़ रहे हैं, उसमें उनसे कितनी मदद मिलती है, यह भी हमें देखना है। इसी प्रक्रिया में विरासत तय होती है। इन कवियों ने अपने-अपने ढंग से छायावादोत्तर काल में युगांतरकारी भूमिका अदा की है। उन्होंने आमतौर से आगे की हिन्दी कविता के विकास का स्वरूप तय किया। इसीलिए हम उन्हें याद करते रहे हैं और अब उनकी जन्मशती मनाने की तैयारी कर रहे हैं। अतः इनकी जन्मशती मनाना कोई औपचारिक काम नहीं, एक दायित्व का निर्वाह करना है।शमशेर बहादुर सिंह तीन जनवरी 1911 को अपनी ननिहाल देहरादून में पैदा हुए। वे जन्मना जाट थे। 12 मई 93 को अहमदाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली जहां वे कई वर्षों से रंजना अरगड़े के साथ रह रहे थे। छायावादोत्त्तर काल के कवियों में, खासकर के शमशेर और नागार्जुन पर, निराला की लापरवाह जीवन पद्धति का असर दिखायी पड़ता है। नागार्जुन पर राहुल सांकृत्यायन का भी असर पड़ा, वे राहुल जी की संगति में रहे भी। सामाजिक दायित्व को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार करते हुए, कविता के óोत के रूप में सामाजिक जीवन को मानते हुए भी छायावादी लापरवाही जीते देख कर हमें कुछ अचरज होता रहा है।शमशेर का जीवन बहुत उतार-चढ़ाव और ऊबाड़-खाबड़ भरा रहा है। यों उनके ननिहाल का वातावरण बहुत अच्छा था। वे कहते हैं - ‘ननिहाल का जो वातावरण था वह बड़ा शाइस्ता, बहुत ही सुसभ्य था, सभी अदब-कायदे सिखाए जाते थे और भाषण गलत नहीं बोलने दिया जाता था।’ इस वातावरण में शमशेर के बचपन में साहित्य और कला के संस्कारों का बीज पड़ा। शमशेर की मां उनके पिता की तीसरी पत्नी थी, वह भी 1920 में चल बसी, जब शमशेर मात्र नौ बरस के थे। पिता तारीफ सिंह अपने पुत्रों को कहानियां सुनाया करते थे। कहानियों में महाभारत, रामायण, अलिफ लैला, चन्द्रकांता संतति, भरतनाथ आदि जैसी कहानियां होती। शमशेर कबूल करते हैं इन कथाओं का रूमानी प्रभाव ही उन्हें कविता की तरफ ले आया। घर में सुधा, माधुरी, सरस्वती, मस्ताना जोगी आदि पत्रिकाएं मंगायी जाती थीं। बेशक इन पत्रिकाओं के पाठक थे शमशेर। इसका भी प्रभाव उनकी चेतना पर पड़ा। 1929 में एंटेªस पास करने के बाद शमशेर की शादी कर दी गयी। लेकिन कुछ साल बाद ही वे चल बसीं। पिता ने दूसरी शादी की बात चलायी, लेकिन शमशेर ने यह कह कर इन्कार कर दिया कि यदि मैं गुजर जाता, तो वह बेचारी जीवन भर वैधष्य झेलती रहती, फिर मैं क्यों उसे भूल कर शादी कर लूं। दूसरी शादी नहीं की। पिता ने गुस्से में घर से निकल जाने को कहा और वे निकल गये। निकल गये तो निकल गये। अपने प्रयत्न से बीए किया, एमए किया अंग्रेजी में। चित्र कला की शिक्षा भी ली। यहां पूरी जीवनी नहीं लिखी जा सकती।शमशेर कम्युनिस्ट आंदोलन के सम्पर्क में आये, मार्क्सवाद को पढ़ा और स्वीकार भी किया। उन्हीं दिनों उन्होंने मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय कम्यून में रह कर ‘जनयुग’ में सम्पादकीय विभाग में काम किया। कुछ साल वहां रहे, फिर निकल गये।शमशेर हिन्दी के अपने ढंग के कवि थे। कह सकते हैं शमशेर जैसा दूसरा कवि नहीं। “दूसरा सप्तक” के कवियों में वे शामिल किए गए, लेकिन उम्र और रचना कर्म की दृष्टि से वे “तारसप्तक” में लिये जा सकते थे, पता नहीं क्यों नहीं लिया गया। एक किंवदंती है कि अज्ञेय ने नागार्जुन से तारसप्तक के लिए कविता मांगी थी, लेकिन उन्होंने कविताएं नहीं दीं। तारसप्तक की योजना, संकलन और प्रकाशन के बारे में काफी बातें हिन्दी आलोचना में हो चुकी हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि इसकी योजना मुक्तिबोध ने बनायी थी, लेकिन प्रकाशन की सुविधा के लिए अज्ञेय जी को तारसप्तक सौंप दिया गया। उसमें शामिल अधिकतर कवि उस प्रयोगवाद के विरोधी थे, जिसकी चर्चा ‘तारसप्तक’ के साथ होती रही। हालत यह है कि छायावादोत्तर कविता के इतिहास को समग्रता में देखने पर उसका महत्व क्षीण होता हुआ लगता है, क्योंकि तारसप्तक वास्तव में किसी प्रवृति का प्रवर्तक अब नहीं महसूस होता।हिन्दी कविता में शमशेर की स्थिति एक अर्थ में निराला की तरह दिखती है और वह अर्थ यह है कि वे लगभग सर्वमान्य कवि हैं, यानि उनकी कविताओं के प्रशंसक प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, नयी कवितावादी, अकवितावादी आदि सभी हैं और उसके यानी बीसवीें सदी के आठवें दशक में और उसके बाद आये कवि भी उनके सामने नतमस्तक हैं। डा. रामविलास शर्मा ने उनकी ऐसी आलोचना जरूर की है, जो उनके अनुकूल नहीं। मैंने देखा कि प्रगतिशील लेखक संघ के जबलपुर अधिवेशन, 1980 में एक विचारगोष्ठी में, जिसके अध्यक्ष अमृत राय थे और संचालन मैं कर रहा था, विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने कह दिया कि शमशेर रेडियो पर अमुक का संगीत सुनकर कविता लिखने को प्रेरित होते हैं, तो शमशेर जी बोले तो कुछ नहीं, लेकिन उनका चेहरा तमतमा जरुर गया था। मुझे याद आता है कि एक बार दिल्ली में प्रलेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक ऐवाने गालिब में हो रही थी, उस समय महासचिव भीष्म साहनी थे। गोष्ठी के अंतराल में नागार्जुन, शमशेर और असमिया के प्रसिद्ध कवि मेरे साथ समय बिताने के लिए अजय भवन चले आये। मेरे कमरे में यह अंतराल गोष्ठी हो गयी। मैंने शमशेर जी से कहा कि जनशक्ति के लिए कविताएं दीजिए न! इस पर उन्होंने कहा- “यहीं मैं संकट में पड़ जाता हूं। मैं जो लिख रहा हूं, वह जनशक्ति के पाठकों के पल्ले तो पड़ेगा नहीं। क्या करूं, मैं शर्मिन्दा हूं।” एक प्रसंग और याद आता है। मैं एक बार भोपाल गया हुआ था। एक कवि मित्र ने डा. कमला प्रसाद से पीएचडी की उपधि के लिए काम करने के संबंध पूछा- किसी आधुनिक कवि पर काम करना चाहता हूं, सुझाव दीजिए। कमला जी ने कहा- ‘शमशेर पर कीजिए’। कवि मित्र ने कहा- नहीं भाई, शमशेर पर काम नहीं कर पाऊंगा, उनको तो समझना ही मुश्किल है। शमशेर के जो प्रशंसक, आलोचक और पाठक हैं, वे दो बाते कहते हैं- एक तो यह कि वे घोषणा करते हैं कि शमशेर प्रगतिशीलता से प्रतिबद्ध हैं लेकिन उनकी कविताएं प्रगतिशील या मार्क्सवादी विचारों से प्रभाव के मुक्त है।शमशेर के प्रिय कवि छायावादियों में निराला थे, प्रयोगवादियों में अज्ञेय और प्रगतिशीलों में नागार्जुन। लेकिन स्वयं शमशेर तीनों से अलग ढंग से कवि हैं, किसी ने शमशेर को मुक्त मन का कहा है, तो किसी ने युद्ध कवि। मैं पूछना चाहता हूं कि कोई आदमी मुक्त मन का हो सकता हैं? यदि कोई समाज से मुक्त होगा, तो भी क्या परिवार से, बच्चों से, उनकी समस्याओं से मुक्त हो सकता है? इनसे मुक्त होगा तो गैर-जवाबदेह होगा या फिर अदृश्य शक्ति को समर्पित हो कर मनुष्यत्व से ही मुक्त हो जाएगा। और युद्ध मनुष्य अथवा युद्ध कवि कैसे होगा? सामाजिक यथार्थ, राजनीतिक यथार्थ या मानवीय चिंतन से अलग मनुष्य अथवा कवि को कुछ लोग शुद्ध कवि कहते हैं। लेकिन क्या शमशेर ऐसे कवि हैं? शमशेर क्या कोई भी कवि शुद्ध होगा तो वह कवि ही नहीं होगा। शमशेर इन सबको पढ़ते तो शायद यही कहते- हमारे भी हैं ये मेहरबान कैसे-कैसे? यह सही है कि शमशेर दुरुह कवि हैं, लेकिन दुरुहता भाषागत नहीं, अंतर्वस्तुगत है। उनकी अभिव्यक्ति में जो पेचीदगी दिखायी पड़ती है, वह उनकी काव्य चेतना से बनती है। उनके प्रशंसकों ने उनकी दुरुहता को स्वीकार किया है और ऐसे विद्वानों ने उन पर जो लिखा है, वह प्रायः प्रभववादी आलोचना हो गयी है। यहां इतना कह कर उनका प्रसंग समाप्त करता हूं कि उनकी अंतर्वस्तु का भेद खुल जाने पर हम पाते हैं कि वे प्रगतिशील चेतना से अलग नहीं है। उनकी काव्य चेतना समष्टिवादी है, व्यक्तिवादी नहीं। यों एक बात और शमशेर पर लिखने वालों को पढ़कर मुझे कहने का मन करता हैं कि शमशेर के कवि व्यक्तित्व को ऐसा आतंक या दबदबा उनके पाठकों और आलोचकों पर है कि कोई सही ढंग से सही समझ नहीं पाता। शायद जन्मशती से संबंधित आयोजन के जरिये उनको समझने का नया प्रयत्न हो। शमशेर ने जिस राजनीति को स्वीकार किया उससे उन्हें तब निराशा भी हुई, जब उसमें उन्हें असंगति दिखयी पडी। वे एक शेर में कहते हैं -“राह तो एक ही थी हम दोनों कीआप किधर से आये-गयेहम यहां लुट गए पिट गयेआप राजभवन में पाये गये।”नागार्जुन का जन्म दरभंगा जिले के तरौनी गांव में हुआ। वर्ष 1911 में ही। वे कहते थे- ज्येष्ठ पूर्णिमा को। तारीख नहीं बताते थे। कबीर का भी जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा को ही हुआ था। इस बार ज्येष्ठ पूर्णिमा चौबीस जून को पड़ेगी। आधुनिक कबीर की जन्मशती का प्रारम्भिक दिन। नागार्जुन को लम्मीकांत वर्मा ने अपने एक लेख में ‘फौजी कवि’ कहा। इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक तो लड़ाकू और हर समय लड़ने को तत्पर रहना, दूसरे किसी के कमान पर लड़ने जाना। कहने का तात्पर्य यह कि नागार्जुन स्वाभाविक कवि नहंी हैं। मुक्त कवि नहीं हैं, नागार्जुन स्वयं अपने को ‘जन कवि’ और प्रतिबद्ध कहते हैं। एकाध अपवाद को छोड़कर प्रायः सभी मानते हैं कि नागार्जुन हिन्दी के अकेले कवि हैं, जो श्रेष्ठता और जनप्रियता में संतुलन बिठा सके हैं। यह गुण उस दौर के किसी और कवि में नहीं है। यहरं फिर शमशेर याद आ गये। अरुण कमल ने स्त्री-देह के प्रति उनकी उत्कंठा को जो उदाहरण दिया है, वह किसी सामान्य नहीं सम्भ्रांत स्त्री का शारीरिक सौन्दर्य है। मैं कहना चाहता हूं कि जिसके मन में स्त्री-देह के प्रति आकर्षण होता है, वह किसी एक दो नहीं सामान्यतः तमाम स्त्रियों की देह के प्रति होता है। दूसरी बात यह कि जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में ऐसे ठोस सौन्दर्य का बिम्ब कई जगह खींचा है और वह शालीन सौन्दर्य से भरा है। नागार्जुन के यहां ऐसे सौन्दर्य बिम्ब का अभाव है। उनकी दृष्टि जीवन की विभिन्न अवस्थाओं पर ज्यादा रहती है। होठ और सीने के उभार तथा जांघों की नदी के बदले पेट और सीने की हड्डियों को देखते हैं, ऐसे लोगों के जीवन के भवितव्य पर वे नजर डालते हैं और उसमें हस्तक्षेप करते हैं। महात्मा गांधी ने प्रेमचंद के बारे में एक बार कहा कि यदि इस दौर का इतिहास खो जाए, तो प्रेमचंद के कथा-साहित्य के आधार पर इतिहास फिर से लिखा जा सकता है। यह बात जरा सी बदल कर नागार्जुन की कविताओं के बारे में कही जा सकती है कि यदि स्वातंत्रयोत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास लिखना हो तो नागार्जुन की कविताओं के आधार पर लिखा जा सकता है। उनके उपन्यास इसमें मददगार साबित होंगे। यों यह कहा जा सकता है कि नागार्जुन के उपन्यासों में मिथिला की परम्परागत संस्कृति तो व्यक्त हुई ही है, इस संस्कृति की सदियों के खिलाफ संघर्ष के माध्यम से एक नयी संस्कृति के निर्माण की रूपरेखा भी उसमें मिलती है। नागार्जुन अथवा यात्री की वैकल्पिक संस्कृति का स्वरूप सामन्तवादी और पूंजीवादी समाज को बदल कर समाजवादी संस्कृति के रूप में बताता हैं। नागार्जुन का बलचनबा प्रेमचंद के गोबर का अगला विकास दिखाई पड़ता है। ‘यात्री’ नाम से वह मैथिली में कविताएं लिखते रहे हैं। उनकी पहली मैथिली कविता 1929 में छपी थी। बौद्ध बन जाने पर उनका नाम नागार्जुन रखा गया। प्रायः दो हजार साल पहले बौद्ध परम्परा में नागार्जुन नाम का एक दार्शनिक हुआ था। वही धारण करके वैद्यनाथ मिश्र नागार्जुन हो गये और हिन्दी, संस्कृत, बंगला और सिंहाली में कविताएं तथा अन्य विधाओं में रचनाएं करते रहे। यह बेशक कहा जा सकता है कि यात्री ने मैथिली साहित्य की विकास धारा को नया मोड़ दिया, यानी नयी मानसिकता, नयी अंतर्वस्तु दी। उसे पूरी तरह से नया मिजाज दिया और मैथिली में नये युग का सूत्रपात किया। एक तरफ वे मिथिला की चेतना को मिथिला से बाहर ले गये, दूसरी तरफ बाहर के जीवनानुभवों को ठेठ मैथिली में चित्रित करते हैं। नागार्जुन की रचनाओं में राजनीति और व्यंग्य संस्कार की तरह घुले हुए हैं। यहां यह कह देना जरूरी है कि संस्कार का संबंध किसी पूर्वजन्म से नहीं होता, क्यांेकि कोई पूर्व जन्म या पुनर्जन्म होता ही नहीं है। गीता में भी कहा गया है -जन्मया जायते शुद्रःसंस्कारद्विजुच्येते।जन्म से सभी शुद्र होते हैं, संस्कार से कुछ लोग द्विज कहे जाते हैं। अतः संस्कार अर्जित किये जाते हैं, और उससे व्यक्तित्व में परिष्कार होता चलता है। इसी तरह राजनीतिक चेतना और व्यंग्य दोनों ही नागार्जुन ने अपने संघर्ष और साहस से अर्जित किये। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि जैसे मध्यकाल में मनुष्य के जीवन का असंतोष और विद्रोह-भाव धर्म के जरिये व्यक्त होते थे, उसी तरह आधुनिक युग में जनता की ऐतिहासिक कार्रवाइयों के द्वारा, जनता के सड़कों पर संघर्ष के लिए उतर जाने के कारण राजनीतिक चेतना, संघर्ष-चेतना और व्यंग्य की भाषा में कविता बोलने लगी। यह कविता के इतिहास में नयी कविता के रूप में सामने आयी, वह नयी कविता नहीं जो छठे दशक में प्रयेागवादियों के द्वारा लिखी गयी। नागार्जुन ने छायावादी कविता को निशाना बना कर कहा- “कुहासे सी भाषा,न सांझ की न भोर की।”यह कविता के रहस्य बन जाने पर चोट है, उसे रहस्यात्मकता से मुक्त करने का आह्वान उसमें है। इसी तरह प्रयोगवादियों को लक्ष्य करके नागार्जुन ने कहा-‘भिंचा-भिंचा है हृदय तुम्हारा,आओ उस पर लोहा कर दें।’अतः नागार्जुन को याद करने का मतलब है, सामाजिक बदलाव के लिए जन-कारवाई में शामिल होना और मनुष्य की रचनाशीलता को नया तेवर देना। भारतेंदु को नागार्जुन ने ‘जनभाषा लिखवैया’ कहा है। स्वयं नागार्जुन ने भी वही किया है। आधुनिकीकरण और जनतंत्रीकरण की प्रक्रिया में जन चेतना और जन कार्रवाई का कोई पहलू उनसे नहीं छूटा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाजिम हिकमत, पाबलो नेरुदा, लोर्का, ब्रेख्त आदि से उनकी संगति बैठती है। जन कविता की एक नयी कोटि अस्तित्व में नागार्जुन के जरिये हिन्दी में और यात्री के जरिए मैथिली में आयी। नागार्जुन और यात्री को याद करने का अर्थ है इतिहास की इस महान परम्परा का नया अध्याय लिखना। मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि नागार्जुन को धीरे-धीरे भुलाने की कोशिश की जा रही है। आज के यानी पिछले पच्चीस-तीस वर्षों के बीच आये कवि रघुवीर सहाय और धूमिल की जितनी चर्चा करते रहे हैं, उतनी नागार्जुन की नहीं। मैं बेहिचक कहना चाहता हूं कि रघुवीर सहाय और धूमिल की कविताओं ने जो हलचल मचायी, वह देश में मध्यवर्ग के द्वारा लोहियावाद की नकारात्मक राजनीति की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। इस पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। मुक्तिबोध और नागार्जुन की काव्य चेतना का भी तुलनात्मक अध्ययन करना जरुरी है। मुक्तिबोध की कविताओं में पूंजीवादी व्यवस्था और शासन का जो आतंक चित्रित है, वह नागार्जुन में नहीं हैं, क्योंकि उनकी कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कवि की अपनी कार्रवाई के अनुभवों से कविता बनी है। पूंजीवादी व्यवस्था और शासन समाज में आतंक तो फैलाते हैं, लेकिन उस आतंक के खिलाफ संघर्ष में शामिल होने से आतंक टूटता है। इसके प्रमाण में नागार्जुन की ये दो पंक्तियां काफी हैं-”जली ठूंठ पर बैठ करगयी कोकिला कूकबाल न बांका कर सकीशासन की बन्दूक।“नागार्जुन के यहां तो कभी-कभी शासन को ही भयभीत होते देखते हैं-”वह अकाल वाला थाना पड़ता है काफी दूर“ को पढ़कर देखें। नागार्जुन ने अपनी जीवन यात्रा का अंत पांच नवम्बर 1998 को किया।केदारनाथ अग्रवाल एक अप्रैल 1911 को पैदा हुए। वे बांदा में रहते थे और वहां वकालत करते थे। वे वहां प्रतिष्ठित वकील थे और कहते थे कि अदालत के आईने में ही उन्होंने समाज का चरित्र देखा, यह देखा कि हमारा समाज कितना अन्यायपूर्ण है। केदार बाबू युवावस्था में ही प्रगतिशील लेखक संघ के सम्पर्क में आये। फिर डा. रामविलास शर्मा से भी सम्पर्क हुआ। वे स्वीकार करते हैं कि इन परिचयों ने उनकी मानसिक बनावट और रचनाशीलता को प्रभावित किया, उसे नयी दिशा में प्रवाहित करने में योगदान किया। इसी प्रक्रिया में वे मार्क्सवाद के समीप पहुंचे, उसे पढ़ा और स्वीकार किया। यहां उल्लेखनीय है कि मार्क्सवाद को तो प्रायः सभी प्रगतिशील कवियों और लेखकों ने अपनाया, लेकिन सबने उसे एक ही तरह से नहीं बरता। शमशेर ने भी मार्क्सवाद को स्वीकार किया, कुछ दिन पार्टी कम्यून में रह कर काम भी किया, कई कविताएं कम्युनिस्ट आंदोलन की घटनाओं और व्यक्तियों पर लिखीं, फिर भी जीवन-अनुभूतियों एवं संवेदनाओं को ऐसी संश्लिष्ट और जटिल अभिव्यक्ति दी कि वहां मार्क्सवाद से कोई सम्पर्क दिखायी नहीं पड़ता। नागार्जुन ने भी मार्क्सवाद को अपनाया, अनेक किसान आंदोलनों में भाग लिया, जेल गये, फिर भी कविताओं की अन्तर्वस्तु वे दृश्य जगत के सम्पर्क से प्राप्त करते हैं, यहां तक कि राजनीतिक व्यक्तियों पर लिखित कविताओं की भी। लेकिन वे कम्युनिस्ट पार्टी और नेताओं की गतिविधियों को क्रांतिकारी परिवर्तन की दृष्टि से शंका की नजर से देखते हैं। केदारनाथ अग्रवाल समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन के बारे में मार्क्सवाद के ऐतिहासिक निर्णय को स्वीकार करके चलते हैं। इस सरलीकरण का प्रभाव उनकी अनेक कविताओं पर है। इसके अलावा मनुष्य की समाजिक पीड़ा और उसके दूर करने की दृष्टि से मनुष्य के पुरुषार्थ पर उनको विश्वास एवं भरोसा है। ‘घर में एक हथौड़े वाला और हुआ’ शीर्षक कविता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है। इसी कविता में आगे चलकर वे कहते हैंः “हाथी सा बलवाल जहाजी हाथों वाला और हुआ।इसके अलावा उन्हें मनुष्य की सामाजिक पीड़ा और उसको दूर करने की दृष्टि से मनुष्य के पुरुषार्थ पर विश्वास एवं भरोसा है। “घर में एक हथौड़े वाला और हुआ” शीर्षक कविता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है। इस कविता में आगे चल कर वे कहते हैं:”हाथी सा बलवान जहाजी हाथों वाला हुआसुन लेगी सरकार कयामत ढाने वाला और हुआ।“वे कविता को भी एक शक्ति मानते है, मानवीय शक्ति। वे कहते हैं कि-“जीवन ने मुझको जब-जब तोड़ा,हमने कविता से नाता जोड़ा।”यह ऐतिहासिक रूप से सही है कि कविता जीवन को शक्ति देती है। हां, सभी तरह की कविताएं नहीं, देखने की बात यह है कि कविता में कैसा मनुष्य चित्रित है। एक कविता में वे कहते हैं-वह जन मारे नहीं मरेगाजीवल की धूल चाट कर जो बड़ा हुआ है।इसका प्रतिलोम सोचें तो पता चलेगा, कि जो आरामतलब है और अकेला है, वह टूट जाता है। एक और कविता में केदार कहते हैं-हम बड़े नहींफिर भी बड़े हैंइसलिए कि लोग जहां गिर पड़े हैंहम वहां तने खड़े हैं.................................काल की मार मेंजहां दूसरे झरे हैंहम वहां अब भीहरे के हरे हैं।केदार की कविताओं में एक नया आदमी दिखायी पड़ता है, जो कवि की चेतना और संघर्षशीलता के प्रभाव से रूप लेता है। एक छोटी सी कविता में केदार कहते हैं-तेज धार का कर्मठ पानीमार रहा है घूंसे कस करतोड़ रहा है तट चट्टानीकेदार की कविताओं का मूल व्यक्तित्व यही है-तेज धार का कर्मठ पानी।केदार के बारे में नागार्जुन ने उन पर लिखी कविता में कहा है-कालिंजर का चौड़ा सीना वह भी तुम हो,केन कूल की कानी मिट्टी, वह भी तुम हो,काल रात्रि में लाठी लेकर खेतों कीकरता जो रखवाली वह भी तुम होइसी तरह की पंक्तियों से नागार्जुन ने केदार के कवि व्यक्तित्व को बड़े सही रूप में व्यंजित किया है। एक कविता में वे कहते हैंःरनिया मेरी देश बहन है।रनिया एक मेहनतकश परिवार की युवती, उससे कवि बहनापा जोड़ता है, इस आधार पर कि वह इसी देश की मिट्टी पर पली-बढ़ी है कवि की तरह ही। रिश्ते का इससे ठोस आधार और क्या हो सकता है? केदार की कविताओं का फलक बहुत व्यापक है, विविधतापूर्ण है। नये-नये बिम्बांे और नये-नये प्रसंगों से हिन्दी कविता को कवि ने समृद्ध किया है। मानव प्रकृति से लेकर मानेवतर प्रकृति तक केदार की कविता फैली हुई है। अपनी जमीन से, अपनी जनता से, और अपनी मिट्टी से कवि का स्वाभाविक और घनिष्ठ संबंध है। न्याय के लिए संघर्ष और प्रेम के लिए ललक उनकी कविताओं का सार तत्व है। जीवन के आखिरी वर्षों में उन्होंने दिवंगता पत्नी को ध्यान में रख कर अनेक गीत लिखे, जो ‘हे मेरी तुम’ के नाम से संग्रहित हैं। लेकिन केदार पाठकों के द्वारा और कविता के इतिहास में अपने रचना काल के पूर्वार्द्ध में लिखित कविताओं के कारण ही जाने जाते हैं। केदार की विरासत हम तक और आगे की पीढ़ियों तक उन्हीं कवितओं के माध्यम से पहुंचेगी। इसके साथ ही शिल्प-शैली और भाषा के निजत्व के कारण भी वे याद किये जाएंगे। नामवर जी ने बहुत पहले कहीं लिखा था कि केदार की कविताओं को पढ़ कर कलेजा ऊंचा हो जाता है। आज जब नयी पीढ़ी में व्यावसायत्मिका प्रवृत्ति विकसित की जा रही है, तब हमारा दायित्व और कर्तव्य होता है कि प्रगतिशीलता और मानवता के लिए संघर्ष करते हुए इन परवर्ती साहित्यकारों ने जो नया सौन्दर्यबोध हमें दिया है, उसे नयी पीढ़ी की चेतना में प्रविष्ट कराने का अभियान चलाएं। यदि जन्मशती मनाते हुए हम इस दिशा में कुछ कर सके, तो यह संस्कृति के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम होगा।प्रगतिशील आंदोलन और कविता के विकास में फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ का योगदान और महत्व सबसे अलग है। जब सज्जाद जहीर इंग्लैंड से लौटे और हिन्दुस्तान में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की कोशिश में लग गये, तो इसी क्रम में अमृतसर डॉ. महमूदद़ जफ़र के यहां पहुंचे तो वहीं अंग्रेजी के युवा अध्यापक फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ से उनकी मुलाकाल हुई और बातचीत के क्रम में मालूम हुआ कि फ़ैज़ तो पहले ही से वहां प्रगतिशील लेखक संघ या ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्नफ़ीन’ बनाने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने कुछ लेखकों की सूची भी बना रखी थी। सज्जाद जहीर मन में सोचने लगे- अरे, यहां मेरे बिना ही और मुझ से पहले से अंजुमन बनाने की तैयारी है। वे चकित भी हुए और प्रसन्न भी। यही फै़ज़ आगे चलकर भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायरों में शुमार किये गये, आज भी किये जा रहे हैं। उन्होंने उन्हीं दिनों वह नज़्म लिखी थी, जिसकी ये पंक्तियां तब से अब तक समाज और जिन्दगी के ही नहीं इतिहास के नये तकाजे का इजहार करती हुई उद्धत की जाती रही हैं-मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात,तेरा गम है तो गम-ए-दहर का झगड़ा क्या हैइन पंक्तियों में यह बात कही गयी है कि प्रेमिका की मुहब्बत के बारे में पुरानी समझ गलत साबित हो गयी। समझ यह थी कि तेरा गम है, तो सांसारिक दुख का क्या मतलब? लेकिन आज की असलियत यह है कि-और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवाराहते हैं और भी वस्ल की राहत के सिवा।मुहब्बत करने से जो गम मिलता है, वह तो है ही, लेकिन गम और तरह के भी हैं। गम की नहीं मिलन के सुख के अलावा सुख भी और तरह के हैं।ं व्यापक नजरिया अनुभव से तो आता ही है, तरक्की पसंद तहरीक से भी आता है। हिन्दी के श्रेष्ठ कवि दिनकर (जिनकी जन्मशती हम हाल में मना चुके हैं) ने एक गीत में लिखा है-माया के मोहक वन की क्या कहूं परदेशीभय है हंस दोगे सुन कर मेरी नादानी परदेसी।जब देश गुलाम हो और गुलामी के खिलाफ आर-पार की लड़ाई चल रही हो तो माया के मोहक वन की कहानी नादानी ही कही जाएगी।“सोच” शीर्षक एक नज़्म में फ़ैज़ कहते हैं कि‘तेरा दिल गमगीं है तो क्यागमगीं ये दुनिया सारी है।’लेकिन वे यह भी कहते हैं कि गम तो हर हालत में घातक है, उसे खत्म होना चाहिए। गम के खिलाफ जंग छेड़ते हैं फैज। दुनिया में जो दौलत वाले सुखी लोग हैं, उनका सुख बांटना चाहिए। इसी नज्म के अन्तिम बंद में वे कहते हैं-हमने माना जंग कड़ी हैसर फूटेगा, खून बहेगाखून में हम भी बह जाएंगेहम न रहेंगे, गम न रहेगा।गम जितना कठिन है, उसके खिलाफ लड़ना जितना कठिन है, उतना ही कठिन है गम को नष्ट करने का फैज का संकल्प।भारत बंट गया, बंटने से एक नया देश पाकिस्तान बना। आगे चल कर पाकिस्तान भी बंट गया और पूर्वी पाकिस्तान हो गया बांगलादेश, फैज ने यह सब देखा।फैज 1911 में अविभाजित पंजाब के स्यालकोट में पैदा हुए थे। बंटवारे के बाद उनकी जन्मभूमि पाकिस्तान में चली गयी। देशभक्त फैज पाकिस्तान में रहे। लेकिन फैज पर भोपाल में आयोजित बहुत बड़े समारोह को संबोधित करते हुए शिव मंगल सिंह सुमन ने कहा-‘फैज को बांट दो तो समझे।’ जाहिर है कि फैज का व्यक्तित्व आज भी भारत के जनगण को प्रिय है। आज भी यहां की जनसभाओं में मेहनतकशों के पक्षधर फैज का गीत गाते हैं-हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे।एक ख्ेात नहीं एक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगेऔर इस देश के अदीबों के लिए तो वे जितने ही अपने हैं, उतने निराला, नागार्जुन या और कोई और जितने रवीन्द्रनाथ, विष्णु दे, सुभाष मुखोपाध्याय या कोई और जितने वल्लातोल, सुब्रहमण्य भारती और श्री श्री या जितने विन्दा करन्दीकर या कोई और। फैज देशभक्त होने के साथ ही जनतंत्र के लिए भी कुर्बान होने को तत्पर रहते थे। जनतांत्रिक व्यवस्था के बिना देश के साथ क्या अपनापन। लेकिन फैज को अपने देश में जनतंत्र नहीं मिला। तानाशाही का प्रहार वे लगातार देखते रहे। वे एक नज्म में किस दर्द के साथ लिखते हैं यह देखिए-निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतनके जहां चली है रस्म के कोई न सर उठा के चलेजो कोई चाहने वाला तवाफ को निकलेनजर चुरा के चले जिस्मों जां बचा के चले।लेकिन फैज यह जानते-समझते हैं कि जनता तानाशाही को बर्दाश्त नहीं कर सकती, वह तो जनतंत्र के लिए न्यौछावर होती है। उसी नज्म में फैज कहते हैं-यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्कन उनकी रस्म नयी है न अपनी रीत नयी,यूं ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूलन उनकी हार नयी है न अपनी जीत नई।फैज जनतंत्र के साथ मनुष्यता की खोज करते हैं और मनुष्यता उनकी नजर में है दूसरों के दर्द को अमानत के रूप में कबूल करना। यह ऐसी चीज है, ऐसी इंसानियत है, जो नाबराबरी वाले समाज में नहीं मिलती। वे एक रूबाई में कहते हैं -मकतल में न मस्जिद न खराबात में कोईहम किसकी अमानत में गम-ए बार--ए जहां देंशायद कोई उनमें से कफन फाड़ के निकलेअब जायें शहीदों के मजारों पे अजां देंकैसा भयानक समाज है यह, कैसा दर्दनाक अनुभव है; यहां कोई धर्मस्थलों में भी दूसरों के दर्द को बांटने वाला नहीं मिलता। लेकिन कोई फैज हर हालत को झेलने के लिए तैयार रहे हैं।वे प्रेम के भी कवि हैं, लेकिन प्रेम भाव को वे कहां तक ले जाते हैं, यह देखिए-गम-ए-जहां हो, रुख-ए-यार हो के दस्ते अदूसलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया।यहां आशिकाना का उदात्तीकरण किया है फैज ने। यह आशिकाना केवल प्रेमिका या प्रेम के लिए नहीं, दुनिया में मिलने वाले गम और दुश्मन के हाथ के लिए भी है। ऐसे ‘आशिकाना’ का इजहार करने वाला फैज ही कह सकता है -मुकाम फैज कोई राह में जंचा ही नहींजो कूए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।ऐसे फैज को याद करना भी कोई मामूली बात नहीं है। लेकिन हम उन्हें याद कर रहे हैं। फैज की शायरी मनुष्य को ताकत देती है, रास्ता दिखाती है।अज्ञेय यानी सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन। जैनेन्द्र ने एक कहानी प्रेमचंद के पास ‘हंस’ में छपने के लिए भेज दी, लेकिन उसमें लेखक का नाम नहीं था। प्रेमचंद ने पूछा- कहानी का लेखक कौन है? जैनेन्द्र ने शायद यह कहा कि वह अपना नाम नहीं देना चाहता। तो फिर प्रेमचंद ने ही अज्ञेय नाम देकर कहानी छाप दी और स.ही. वात्स्यायन का नाम साहित्य में अज्ञेय हो गया। अज्ञेय का जन्म 1911 में ही हुआ। उनका जीवन विविधता पूर्ण कामों से भरा हुआ है। फौज में काम किया, फिर वहां से मुक्त होकर साहित्य में आये। अपने फौजी जीवन का संस्मरण भी उन्होंने लिखा है। साहित्य में आने के बाद कुछ दिनों तक प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े रहे थे। लेकिन प्रगतिशील उन्हें रास नहीं आयी। जो हो, उन्होंने साहित्य के इतिहास में अपनी पहचान अपने लेखन के जरिये बनायी। अज्ञेय से मतभेद होना सहज और स्वाभाविक है, उसी तरह जैसे स्वयं अज्ञेय का प्रगतिवादी साहित्य और प्रगतिशील आंदोलन से मतभेद होना सहज और स्वाभाविक है। मतभेद हो सकता है, लेकिन कोई भी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे कई बार अज्ञेय से मिलने, बातें करने और उनका व्याख्यान सुनने का सुअवसर मिला। इसके बावजूद मैं यह नहीं कह सकता कि मेरा उनसे परिचय था। वे बहुत कम बोलते थे। वे अच्छे वक्ता थे, वक्तृत्व कला की दृष्टि से , यह भी कहा जा सकता है कि वे अच्छे श्रोता भी थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी और कविता तीनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण लेखन किया। ‘शेखर एक जीवनी’ ऐसा उपन्यास है जो हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि यह उपन्यास तब लिखा और प्रकाशित किया गया, जब अपना देश स्वाधीनता के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था। गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा देश को दिया। दिनकर उन्हीं दिनों लिख रहे थे-लहू में तैर-तैर के नहा रही जवानियांनये सुरों में भिंजिनी बजा रही जवानियांउसी समय अज्ञेय जी का शेखर इस पूरे माहौल से अलग रहता है, छात्रावास के अपने कमरे में बैठा रहता है, निकलता है तो नदी किनारे या किसी पार्क के कोने में जा कर बैठा रहता है, या फिर डी.एच. लारेंस की कविताएं पढ़ता है, जिनमें जीवन की अग्रगति के लिए कोई प्रेरणा नहीं है। उनका एक उपन्यास ‘अपने-अपने अजनबी’ का पात्र चारों तरफ बर्फ गिरते हुए देखकर दरवाजें बंद कर घर में बैठ जाता है और बर्फ पिघलने की प्रतीक्षा करता है। स्वयं इस विषय स्थिति का सामना करने का उपक्रम नहीं करता। अज्ञेय की समग्र रचनात्मक चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली यह कविता है -हम नदी के द्वीप हैं.................................हम धारा नहीं है।स्थिर समर्पण है हमाराहम सदा के द्वीप हैं óोतस्विनी के।किन्तु हम बहते नहीं हैं।क्यों कि बहना रेत होना हैहम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।यह अस्तित्ववादी दर्शन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। कवि मनुष्य को बताता है कि अपने अस्तित्व की रक्षा पहले करनी चाहिए, सामाजिक जीवन की धारा में बहना ठीक नहीं है। अज्ञेय आधुनिक कवि हैं, लेकिन उनकी आधुनिकता अस्तित्वाद और पूंजीवाद की लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघती।अज्ञेय का एक निबंध संग्रह 1945 में ही छपा था ‘त्रिशंकु’ नाम से। उसमें प्रकाशित एक लेख में कहते हैं- “साहित्य में प्रगतिशीलता की मांग करने वाले प्रायः एक मौलिक सत्य को भूल जाते हैं। प्रगतिशीलता कहां से उत्पन्न होती है, इसकी परीक्षा करने से पहले एक और बात जानना जरूरी है कि साहित्य-कोई भी कला कहां से उत्पन्न होती है। कला के मूलोदभव की जांच करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि प्रगतिवाद का सिद्धांत राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में भले ही स्वीकार हो सके, साहित्य, साहित्य सृष्टि के क्षेत्र में अस्वीकार्य ही रहेगा।” (त्रिशंकु. पृ. 76)। असल में अज्ञेय जी यह बात भूलते रहे कि स्वयं उनका शेखर, शशि, भुवन, रेखा आदि समाज से ही उठाये गये हैं। हमारा समजा बहुढांचीय है, बहुस्तरीय है, इसलिए उसमें होरी, गोबर और बलचनामा है, तो शेखर और भुवन और रेखा भी हैं। प्रेमचंद, यशपाल, नागार्जुन आदि के साहित्य का यथार्थ एक तरह का है, तो अज्ञेय और जैनेन्द्र के साहित्य का यथार्थ दूसरी तरह का। लेकिन यथार्थ तो दोनों में है। अज्ञेय ने साहित्य और सामान्य जन-जीवन के संबंध का, साधनहीनों के पक्ष की राजनीति का, विषम और अन्यायपूर्ण मानव-संबंध को बदलकर न्यायपूर्ण बनाने का संघर्ष का साहित्य में विरोध करने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया था, अतः इस रूप में उनको अवश्य याद करना चाहिए और नये सिरे से समझने की कोशिश करनी चाहिए।अज्ञेय ने साहित्य को राजनीति से अलग रखने की बात कही, लेकिन वत्सलनिधि की ओर से “जय जानकी जीवन यात्रा” का आयोजन अपने नेतृत्व में करके उन्होंने देश के दायें बाजू की राजनीति को राम जानकी रथयात्रा निकालने की मशाल दिखायी। सम्पूर्ण क्रांति के पक्ष में उन्होंने कविता लिखी जो “महावृक्ष के नीचे” में संकलित है। यों उनकी अनेक कहानियां और अनेक कविताएं ऐसी तो है ही, जो मानव मूल्य को व्यक्त करती हैं। उनकी ‘शरणदाता’ कहानी और ‘इतिहास की हवा’ जैसी कविता मानव-मूल्य के लिए मशहूर हैं। इन बड़े रचनाकारेां ने जिस सदी में अपना साहित्य रचा, वह स्वतंत्रता, समानता, जनतंत्र, वैज्ञानिक बुद्धि आदि के विकास के लिए भीषण संघर्षों, महायुद्धों और भ्रांति के लिए तड़प की सदी रही है।पिछले बीस पच्चीस वर्षों में हिन्दी कविता का विकास हुआ है और जिन कवियों के माध्यम से विकास हुआ है, उन पर जब हम गौर करते हैं, हमें थोड़ी निराशा होती है यह देखकर कि उनमें यह विचार कर रहा है कि किसी आंदोलन और विचारधारा से प्रभावित कविता श्रेष्ठ नहीं होती। मैं यह नहीं कहना चाहता कि कवियों को उसी तरह आंदोलन में उतर जाना चाहिए जैसे राहुल जी उतरे थे, नागार्जुन उतरे थे। केदारनाथ अग्रवाल प्रतिबद्ध कविताएं जरूर लिखते रहे, उनसे प्रेरणा भी मिलती रही है, लेकिन वे जीवन में राजनीति कर्मी नहीं थे। शमशेर कुछ वर्षो तक राजनीतिकर्मी थे, बाद में नहीं। मैं लिख चुका हूं कि उनकी कविताओं से संगति बैठाना कितना कठिन है। फैज तो प्रायः जीवन भर कवि और राजनीतिकर्मी भी रहे, वह भी तानाशाही का मुबाकला करते हुए। आज के युवा कवियों में समाज के प्रति सद्भावना तो है, मानव चेतना तो है। कविता हो या मनुष्यता, संवेदना हो या केवल वेदना उन सबकों कविता में स्थान देते हुए वे अच्छी चीजों और बातों के बचे रहने की आशा और आकांक्षा व्यक्त करते हैं। वे कहते या लिखते हैं कि कविता बची रहेगी, संवेदना बची रहेगी, बचा रहेगा प्रेम। वे इन सबके खरीदारों की पहचान करते हैं, लेकिन यह सब कैसे बचा रहेगा, कौन बचाएगा उन्हें, स्वयं कवियों की कोई भूमिका इसमें होगी या नहीं, इन सबके बारे में आज के युवा कवि प्रायः मौन रहते हैं, या कतरा जाते हैं। जनता किसी न किसी रूप में संघर्ष में है, लेकिन जन कार्रवाई का चित्रण आज भी कविताओं में प्रायः नहीं दिखायी पड़ता है। यह युग ऐसा है, जिसमें चमत्कारों और चमत्कारी लोगों को समाज में बहुत मान मिलता है। यही कारण है कि आज के युवा ‘शार्ट-कर्ट’ से सिद्धि और प्रसिद्धि के चमत्कारी शिखर पर पहुंचना चाहते हैं। आज सुविधा ऐसी है कि सिद्धि के बारे में तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन प्रसिद्धि के लिए बहुत जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती। आज पत्रिकाएं बहुत हैं, कुछ रचनाएं छपा कर ही समस्त हिन्दी क्षेत्र में प्रसिद्धि तो मिल ही जाती है। लेकिन जनता और जन आंदोलन से उनका लगाव कमजोर पड़ा है। साहिर लुधियानी ने कभी कहा था कि ‘वह सुबह हमीं से आएगी।’ आज का कवि इतना कहता है कि वह सुबह कभी न कभी तो आएगी। आज की पीढ़ी के रचनाकार पुरस्कारों को आलोचनात्मक मूल्यांकन या यथार्थ समझते हैं। इससे रचना और रचनाकार पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे साहित्य का तो कल्याण नहीं होता। मैं यह कहते हुए आज के युवा कवियों की प्रतिभा को नजरअंदाज नहीं करता, हां जीवनगत कमजोरी से प्रभावित रचना की ओर संकेत जरूर कर रहा हूं। मैं मानता हूं कि कोई अच्छा कवि दूसरे की तरह नहीं लिखता। मैं यह नहीं कहता कि नागार्जुन या केदार की तरह लिखें, लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि कवि या लेखक जिन जनतांत्रिक मूल्यों को बचाना चाहते हैं, उनको जनता की मदद के बिना नहीं बचाया जा सकता। अतः आज के कवियों के लिए इतना तो जरूरी है ही कि उनकी कविताओं की तरफ जनता आकृष्ट हो, जनता से उनका संबंध कायम हो। साहित्य और जनता के संबंध को तोड़ना पूंजीवाद की पुरानी साजिश है। कभी डा. नामवर सिंह ने कहा था कि पूंजीवादी प्रगतिशीलों को पहले उपेक्षा के द्वारा मारना चाहता है, वे उपेक्षा को झेल जाते हैं, और जिन्दादिली के साथ रहते हैं; तो पूंजीवाद उनका विरोध करके उन्हें खत्म करना चाहता है, विरोध से भी काम नहीं बनता, तो पूंजीवाद प्रगतिशीलों को आदर देने लगता है और यह आदर उनकी धार को अवश्य कुंद कर देता है। इस पर गौर करने की जरूरत है।
- खगेन्द्र ठाकुर
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मौन आहों में बुझी तलवार

1
मौन आहों में बुझी तलवार
तैरती है बादलों के पार।
चूमकर ऊषाभ आशा अधर
गले लगते हैं किसी के प्राण।
गह न पाएगा तुम्हें मध्याह्न
छोड़ दो न ज्योति का परिधान!
2
यह कसकता, यह उभरता द्वंद्व
तुम्हें पाने मधुरतम उर में,
तोड़ देने धैर्य-वलयित हृदय उठा।
परम अंतर्मिलन के उपरांत
प्राप्त कर आनंद मन एकांत
खिला मृदु मधु शांत।
- शमशेर बहादुर सिंह
(1945)
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शमशेर बहादुर सिंह की कविता का रवि कुमार द्वारा कविता पोस्टर


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संस्मरण जन्म शताब्दी वर्ष में विशेष - मिलने आना शमशेर का एक कामरेड से

हिन्दी कविता के विविधतापूर्ण उत्तेजक इतिहास में अपनी तरह के अकेले कवि शमशेर बहादुर सिंह अब कविताएं नहीं लिखते, कवि उन्हें अवश्य लिख रही है, उनकी छवियां उभार रही हैं, उनकी संवेदना को स्वर दे रही है। अब वह कहीं आते-जाते भी नहीं, कहीं कविताएं भी नहीं सुनाते, बेलाग टिप्पणियां भी नहीं करते, किसी पीठ के आचार्य अध्यक्ष भी नहीं। वह तो सुनाई पड़ते हैं, उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं पड़ती। कहीं गहरे से आती हुई, भावों से भरी हुई आवाज। विनम्रता जिसमें कूट-कूट कर समाई होती थी अस्वस्थ नहीं हैं, वह फिर भी। कारण बहुत स्पष्ट है उन्हें हमसे चिर विदा लिये हुए पूरे सत्रह वर्ष हो रहे हैं। साल 93 की 12 मई को उनकी इहलीला समाप्त हुई थी। साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में यह खबर किसी घने दुख सी प्रसारित हुई थी। उनके न रहने पर उनकी उपस्थिति को बहुत शिद्दत से महसूस किया गया; इतनी निःस्वरता के बावजूद बहुत कम लोग इतनी जीवन्तता से रह पाते हैं। शमशेर जी को कई बार देखने सुनने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। बहुत किट से उनके रुबरू होते हुए उन्हें बोलते, कविता सुनाते देखने, महसूस करने के बहुमूल्य क्षण भी मेरे जीवन में आये दरअसल उनके व्यक्तित्व, बाहरी व भीतरी दोनों को संवेदना के धरातल पर अनुभव करने के लिए उन्हें निकट से देखना सुनना जरूरी था। सरलता की केन्द्रीयता तथा जनवादी छट पटाहट के बावजूद जटिल संरचनात्मकता व कठिन बिम्बों की कभी-कभी वैचारिक उलझावों की कविताएं लिखनेवाला कवि इतना सहज-बोधगम्य हो सकता है, यह जानना बहुतों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं। वह भी तब जब अक्खड़ माने जाने वाले जातीय परिवेश से निकल कर आये हों! परन्तु मेरे लिए अधिक विस्मयकारी था, उनका कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के एक पुराने कार्यकर्ता का। नईम खां से मिलने के उद्देश्य से पार्टी के लखनऊ कार्यालय में आना।यह नवें दशक के शुरूआती वर्षों की घटना है। कम्युनिस्ट पार्टी का वह कमरा, जिसमें का. नईम खां पार्टी के आफिस सीक्रेट्री की हैसियत से बैठा करते थे खचाखच भरा हुआ था। शमशेर जी के निकट सम्बन्धी अजय सिंह और शोभा सिंह भी थे। वीरेन्द्र यादव भी रहे ही होंगे। का. नईम खां पार्टी के बड़े नेता नहीं थे। बड़े इंसान जरूर थे। उनके भीतर व्याप्त खास तरह के बड़प्पन ने उनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण भर दिया था कि उनसे जो एक बार भी मिल लेता, वह उन्हें आसानी से भूल नहीं पाता। भारतीय राजनीति तथा साहित्य की कई बड़ी हस्तियों से उनका घनिष्ट परिचय था और ये सब था, कम्युनिस्ट आन्दोलन में उनकी सक्रिय शिरकत के कारण; संकट में लोगों की मदद करना उनके व्यक्तित्व का विशेष पक्ष था। शमशेर जी जब भी लखनऊ आते, नईम खां से मिलना चाहते। अजय सिंह बताते हैं कि नईम खां से मिलने वह कई बार कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर गये, संभव है घर भी गये हों। नईम खां को दिवंगत हुए अर्सा गुजर गया पत्नी भी लखनऊ में नहीं रहती कि ठीक-ठीक कुछ पता लग पाता। विचारधारा के स्तर पर शमशेर की साम्यवाद से निकटता अपनी जगह। एक जमाने में उनकी कविता बहुत मशहूर हुई थी “समय साम्यवादी” जनाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले एक संगठन के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी से उनका गहरा लगाव था, उनकी इन पंक्तियों को भुला पाना मुश्किल है ”बाम बाम दिशा” बम्बई में वह कई वर्षों तक पार्टी कम्यून (1945-46) में भी रहे। ”नया साहित्य” का संपादन भी किया -”मैं जो हूं,मैं कि जिसमें सब कुछ हैक्रांतियां, कम्यूनकम्युनिस्ट समाज के नाना कला विज्ञानऔर दर्शन केजीवन्त वैभव से समन्वितव्यक्ति मैं।मैं, जो वह हरेक हंूजो तुझसे ओ काल परे है।”बम्बई में पार्टी कम्यून तथा पार्टी नेताओं के सम्पर्क में रहते हुए वह मार्क्सवाद के अधिक निकट आये। वह ”नया पथ” के संपादक मण्डल में भी शामिल रहे। यों गहरे आर्थिक दबावों से ग्रस्त उनके जीवन का बड़ा भाग सर्वहारा का जीवन था। जहां भूख किसी भारक अनुभव के समान उनके पीछे लगी हुई थी। आंते छील देने वाली भूख एकाकीपन और साधन हीनता।”उस जमाने में (1941 से 47 के बीच) मैंने अपनी घोर अतार्किक भावुकता, रूमानी आदर्शवाद आदि से रचनात्मक संघर्ष शुरू कर दिया था और मार्क्सवादी माडल प्रबल रूप से मुझे अपनी ओर खींच रहे थे। उर्दू कविता का शानदार प्रगतिशील उभार भी प्रभावित कर रहा था।...” (उदिता 1980)प्रगतिशील आन्दोलन को वह जीवन की सच्ची परख का आन्दोलन मानते थे। यह सही है कि उनके यहां विचारधारा व जीवन के प्रति दृष्टिकोण को लेकर विचलन भी दिखाई पड़ा, एक ही समय में वह कई-कई विचार लोकों में जाते दिखाई दिये; स्वीकार व निषेध के उदाहरण भी सामने आये। प्रबल मानवतावाद का प्रभाव भी ध्वनित होता महसूस हुआ -मुझे अमेरिका का लिबर्टी स्टैचूउतना ही प्यारा है जितनामास्को का लाल ताराबावजूद इसके कम्युनिस्ट पार्टी तथा समानता के संघर्ष के प्रति शिथिलता का भाव उन पर कभी हावी नहीं हुआ।अगर मेरी वाणी में इंसान का दर्द है - छोटा सा ही दर्द सही, मगर सच्चा दर्द... भावुकता, ललक, आकांक्षा, तड़प और आशा कभी घोर रूप से निराशा भी लिये हुए, कभी उदासी, कभी-कभी उल्लास भी...एक प्रेमी, कवि, कलाकार, एक मध्यवर्गीय भावुक नागरिक का, जो मार्क्सवाद से रोशनी भी ले रहा है और ऊर्जा के स्रोत भी (अपनी सीमा में अपनी शक्ति भर) तलाश कर रहा है। एक ऐसा व्यक्ति जिसको सभी देशों और सभी धर्मों और सभी भाषाओं और साहित्य से प्यार है और सबसे अपने दिल को जोड़ता है। (प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया वह मैं देखता हूं कि आकरथ नहीं गया क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम, युद्ध से नफरत और शांति की समस्याओं में दिलचस्पी ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अन्दर पैदा हुई...) तो उपर्युक्त तमाम सूत्रों से मैं इंसान के साथ जुड़ता हूं तो मेरे लिए फिलहाल इतना ही काफी है।(उदिता 1980)इस दृष्टिकोण तथा कम्युनिस्ट पार्टी से आत्मीयता में कहींविरोधाभास नहीं है, बल्कि जीवन के प्रति एक कम्युनिस्ट का ऐसी दृष्टिकोण होना चाहिये। अवश्य ही उनके व्यक्तित्वच में विरोधाभास भी थे लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय आते हुए उसके साथ पुराने रिश्तों की बातें करते हुए वह सभी तरह के अन्तविरोधों-विरोधाभासों से मुक्त होते थे, उनकी एक-एक गतिविधि से पार्टी और उसके लोगों के प्रति प्यार झलकता था। नईम खां के प्रति यह प्यार अधिक आवेगमयी होता था। बहुत संभव है कि का. नईम खा ने संकट के किन्हीं क्षणों में शमशेर जी की मदद की हो, जैसा कि उनका स्वभाव था और काल विशेष तक शमशेर जी पर संकट आते ही रहते थे। वह गजब के स्वाभिमानी थे। फिर भी अभाव के अपने दबाव होते हैं।मेरे लिए उन क्षणों को भुला पाना संभव नहीं जब मैंने अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा व भारतीय उपमहाद्वीप के अत्यन्त लोकप्रिय शायर फैज अहमद फैज को कैसरबाग कोतवाली के पीछे स्थित संकरी गलियों को पार करते हुए का. नईम से मिलने उनके घर जाते देखा था। सांस्कृतिक व मानवीय रिश्तों के इतिहास के वह याादगर क्षण थे, ठीक उसी तरह जैसे शमशेर बहादुर सिंह का का. नईम खां से मिलने आना। उस समय उनका घर भी खचाखच भरा हुआ था। मुहल्ले की औरतें बच्चें, पुरुषों तथा पार्टी कार्यकर्ताओं से का. नईम ने बहुत कठिन समय में फैज का साथ निभाया था। राजा हरिसिंह के महल में सम्पन्न हुई फैज की शादी में वह अकेले बराती थे। दो बड़े कवियों-दो बड़े इंसानों का पुराने रिश्तों का सम्मान करना देखिये! मानवीय संवेदना कविता में ही नहीं जीवन में भी बिम्बित होती है। “अभी चुका नहीं हूं मैं” शमशेर के शब्दों को कवियों से इतर चरितार्थ होते देखना हो तो उनका कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर आना देखिये-“प्रेम का कंवल कितना विशाल हो जाता हैआकाश जितनाऔर केवल उसी के दूसरे अर्थ सौन्दर्य हो जाते हैंमनुष्य की आत्मा में”(कला/इतने पास अपने)कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में उन्हें अपने इतना करीब पाकर मेरा ध्यान बार-बार वर्षो पूर्व संजोये हुए उनके चित्र की तरफ चला जाता है, जिसे मैंने उनके किसी कविता संग्रह से काट कर सुरक्षित कर लिया था। प्रगतिशील आन्दोलन की स्वर्ण जयंती आयोजन के अवसर पर (अप्रैल 1998) रविन्द्रालय लखनऊ में प्रतिशील रचनाकारों के चित्रों की जो प्रदर्शनी लगाई गई थी, उसमें शमशेर जी का वहीं चित्र इन्लार्ज कराकर प्रदर्शित किया था कि मैं ही उस प्रदर्शिनीका संयोजक था। मैं इस शमशेर में उस शमशेर को ढूंढ रहा था, शमशेर जी के चित्र की सबसे बड़ी विशेषता है, उसमें एक बहुत संवेदनशील कवि का समूची जीवन्तता में ध्वनित होना। जहां तक मुझे याद आता है, बन्द कालर का कोट पहने हुए थे या काली शेरवानी, मोटे शीशे का चशमा, उसके पीछे सोच में डूबी हुई चमक भरी आंखे, आकुल सी, कुछ कहने को व्याकुल होंठ। एक बेचैन आदमी का समूचापन उनमें झलकता था संघर्ष जनित अनुभवों का पकापन लिये हुए।
- शकील सिद्दीकी
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भोपाल की दूसरी त्रासदी के सबक

भोपाल में यूनियन कारबाईड नामक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की रसायनिक फैक्ट्री से मिथाईल आइसोसाईनाईड (एमआईसी या मिक) नामक विषैली गैस के रिसाव के कारण हजारों भोपालवासियों के मरने एवं अपाहिज हो जाने के 25 साल से अधिक बीत जाने पर उस जघन्य काण्ड के अभियुक्तों को 7 जून को सजा सुना दी गयी। इस भयावह त्रासदी के अभियुक्तों को केवल दो साल की सजा तथा रू। 1,01,750.00 का जुर्माना किया गया। फैक्ट्री के मालिक को सजा इसलिए नहीं दी जा सकी क्योंकि उसे अमरीका से भारत सरकार ने प्रत्यर्पित नहीं कराया। भोपालवासियों के लिए इस त्रासदी का यह सिला एक दूसरी त्रासदी के समान है। पूरे देश के नागरिक इससे हतप्रभ हैं।यह फैसला इस बात की पोल एक बार फिर खोलता है कि पूंजी राज्यसत्ता एवं उसके घटकों यानी सरकार एवं न्यायपालिका को किस प्रकार निर्देशित एवं नियंत्रित करती है।फैसला सुनाने वाले भोपाल के मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के पास स्वयं को जायज ठहराने का यह आधार हो सकता है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ए में इससे अधिक सजा नहीं दी जा सकती लेकिन क्या सर्वोच्च न्यायालय के उन माननीय न्यायाधीशों को यह नहीं मालूम था कि इस जघन्य घटना में कितने हताहत हुए कि उन्होंने धारा 304 के आरोप को धारा 304-ए में बदल दिया, यह जानते हुए भी कि इस धारा में केवल 2 साल की सजा दी जा सकती है जो ऐसी किसी भी घटना के लिए नाकाफी है। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने तमाम छोटे-मोटे मामलों में यह कहते हुए दखल देने से मना कर दिया कि अगर आरोप साबित नही हुए तो अभियुक्त अधीनस्थ न्यायालय से अंतिम फैसला आने पर बरी हो जायेंगे। क्या सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकील ने इस दूरगामी फैसले के खिलाफ अपील के लिए अनुशंसा नहीं की थी? सरकार का अपना क्या उत्तरदायित्व था? ये सवाल हैं, जनता जिनका उत्तर चाहती है लेकिन इसके जवाब शायद ही उन्हें कभी मिल सकें।फैसले में हुए अत्यधिक विलम्ब के लिए क्या मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय दोषी नहीं है। भोपाल अधीनस्थ न्यायालयों का कई बार मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने निरीक्षण किया होगा और पुराने लंबित मामलों की समीक्षा के समय इन न्यायाधीशों का विवेक इस मामले की त्वरित सुनवाई और निस्तारण के लिए नहीं मा चला। आखिर क्यों? क्या यह उत्तरदायित्वों से विचलन नहीं था? मध्य प्रदेश राज्य सरकार तथा केन्द्रीय सरकार ने भी कभी भी इस केस के त्वरित निष्तारण की बात नहीं सोची।फैक्ट्रीज एक्ट में सुरक्षा एवं संरक्षा को उचित तरह से लागू न करना अपराध माना गया है जिसके लिए बिना किसी घटना के घटित हुए निर्धारित मानदण्डों का पालन न करने पर पहली बार ही दो साल की सजा का प्राविधान है। इस फैक्ट्री के मालिकों पर शायद ही कभी कोई मुकदमा चलाया गया हो। आखिर अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के खिलाफ सरकारी मशीनरी कैसे कोई कदम उठाती।परमाणु उत्तरदायित्व बिल अब जनता के लिए और अहम हो गया है जो भारत सरकार के अमरीकी सरमायेदारों से रिश्ते उजागर करता है।ये तमाम सवाल हमें आगाह करते हैं कि इस तरह की किसी संभाव्य घटना के लिए देश की दण्ड संहिता में उचित बदलाव किए जायें। इसके लिए जनता के मध्य चर्चा और आन्दोलन की जरूरत है जिससे सरकार को उचित बदलावों के लिए विवश किया जा सके।
- प्रदीप तिवारी
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एटक की शिमला वर्किंग कमेटी का आह्वान - मजदूर वर्ग की संपूर्ण एकता की ओर आगे बढ़ो

“जीवन की जरूरियात चीजों के दाम बेलगाम बढ़ रहे हैं। वित्तमंत्री द्वारा बजट पेश किये जाने के बाद यह बढ़त तेजतर हुई है। मजदूर वर्ग को कोई रियायत देने से मना किया गया है, जबकि पूंजीपतियों को टैक्सों में भारी छूट दी गयी है। कार्पोरेट सेक्टर को महज 22 प्रतिशत टैक्स देना पड़ता है। कृषि और शिक्षा क्षेत्र में निवेश कम है। असंगठित क्षेत्र कामगार सामाजिक सुरक्षा कोष में निवेश अत्यल्प है। रोजगार पैदा करने की संभावना क्षीण है। ऐसी स्थिति में मजदूर वर्ग को अपने हकों, की हिफाजत करने के लिए संघर्ष और भी ज्यादा व्यापक और तेज करना होगा।”इन शब्दों के साथ एटक महासचिव गुरूदास दास गुप्त ने 16 मई को एटक की कार्य समिति बैठक में विचार रखे। एटक की वर्किंग कमेटी मीटिंग हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में 16 और 17 मई 2010 को सम्पन्न हुई। ब्रिटिश शासनकाल में शिमला भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी।महासचिव ने संयुक्त संघर्ष और टेªड यूनियन एकता की चर्चा करते हुए बताया कि यह मौजूदा दौर की आवश्यकता है। उन्होंने पिछले दिनों के संयुक्त आंदोलनों के महत्वपूर्ण पक्ष पर जोर दिया कि यह इंटक, भामस समेत वामपक्ष के सभी यूनियनों का व्यापक मंच है, जो एक दिन के राष्ट्रीय हड़ताल पर सहमत हैं। 15 जुलाई के संयुक्त टेªड यूनियन कनवेंशन में राष्ट्रीय औद्योगिक हड़ताल का प्रस्तावविचारधीन है। हमें इसकी तैयारी जोर-शोर से शुरू करनी चाहिए। इतिहास ने व्यापक एकता निर्माण का यह मौका हमें दिया है।शिमला की दो दिवसीय बैठक के प्रथम दिन हिमाचल प्रदेश के विभिन्न कोनों से मजदूरों ने आकर शिमला के सब्जी मंडी मैदान में रैली की। रैली में लोग पहाड़ों के कठिन मार्गों में चलकर आये थे, जिनमें महिलाओं की संख्या काफी थी। रैली में महासचिव गुरूदास दासगुप्त के अलावा अमरजीत कौर, बी.वी. विजयालक्ष्मी, हिमाचल प्रदेश एटक के अध्यक्ष जगदीश भारद्वाज तथा महासचिव आर.एन. डोगरा आदि के भाषण हुए। दो दिवसीय बैठक में विचार विमर्श के बाद अखिल भारतीय औद्योगिक हड़ताल की तैयारी में पूरी ताकत से लगने का निश्चय किया गया। इसकी तैयारी में निम्नांकित सांगठनिक कदम उठाये जाने का निर्णय लिया गयाः-अ एटक राज्य कमेटियों की बैठकें एक महीने के अंदर अवश्य सम्पन्न की जाय।अ प्रमुख औद्योगिक फेडरेशनें कोयला, तेल, बिजली, ट्रांसपोर्ट आदि की बैठकें 45 दिनों के अंदर आयोजित की जायें।अ राज्यों के संयुक्त कन्वेंशन 45 दिनों के अंदर आयोजित किये जायें।अ इन तैयारियों को अंजाम देने के लिए यूनियनों की जी बी बैठकें आयोजित की जायें और संयुक्त संघर्ष के संदेशों को प्रचारित किये जायें।अ राज्य कमेटियों द्वारा मंागों से संबंधित पोस्टर और हैंडबिल निकाले जायंे।अ महंगाई, बेरोजगारी, असंगठित मजदूरों की समस्याओं, विनिवेश, अंधाधुंध ठेका/आउटसोर्सिंग आदि से उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर मजदूरों, कर्मचारियों और आम लोगों के बीच व्यापक प्रचार अभियान चलाये जायें।अ ट्रेड यूनियनों की संपूर्ण एकता मजदूर आंदोलन में एक नया मोड़ है। यह एक ऐतिहासिक मौका है। इसे कामयाब करना है।15 जुलाई को राष्ट्रीय कन्वेंशन15 जुलाई को दिल्ली के मावलंकर हाल में होनेवाले कंेद्रीय टेªड यूनियन संगठनों के राष्ट्रीय कन्वेंशन में एटक की सभी राज्य कमेटियों और एटक के सभी केंद्रीय पदाधिकारी अवश्य भाग लेंगे। इसके अलावा औद्योगिक फैडरेशनों के अध्यक्ष, महासचिव एवं अन्य प्रतिनिधि भी भाग लेंगे। स्वतंत्र टेªड यूनियन संगठनों को भी आमंत्रित किया जा सकता है। प्रमुख यूनियनों के प्रतिनिधि भी भाग लेंगे। इस कन्वेंशन की तैयारी पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से करनी है। यह टेªड यूनियन आंदोलन में निःसंदेह एक नया मोड़ है। हम संपूर्ण मजदूर एकता की तरफ आगे बढ़ रहे हैं।इसके अलावा कतिपय सांगठनिक फैसले लिये गये, जिनमें एटक की सदस्यता सवागुना बढ़ाना, एक करोड़ रुपये का कोष संग्रह, ‘टेªड यूनियन रिकार्ड’ पाक्षिक पत्रिका (हिंदी और अंग्रेजी) की ग्राहक संख्या दुगुना करना, राज्यों/फेडरेशनों में टेªड यूनियन शिक्षण सत्र, दिल्ली में नियमित टेªड यूनियन स्कूल, पुस्तकालय आदि शामिल है। एटक जनरल कौंसिल की आगामी बैठक जयपुर (राजस्थान) में होगी और एटक का अगला राष्ट्रीय महाधिवेशन महाराष्ट्र में करना तय हुआ है। इसके लिए उपसमिति का गठन किया गया।
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बुधवार, 9 जून 2010

CPI condemns the views expressed by Mr. Bhupinder Hooda Chief Minister of Haryana opposing sagothra marriages and marriages among sub-castes

Communist Party of India condemns the views expressed by Mr. Bhupinder Hooda Chief Minister of Haryana opposing sagothra marriages and marriages among sub-castes. He even tried to certify that Khap Panchayats are like social organisations.
The argument that sagothra and sub-caste marriages are not approved by the society is not valid in the 21st Century. Inter-caste marriages, Inter religions marriages and international marriages are valid legally, socially and accepted by the society around us. Some sections of the society always resist change and proclaim themselves the right to guide the society and issue mandates against those who do not accept their dictates.
Mr. Hooda is trying to indulge in cheap Vote bank politics. There cannot be two different types of Laws in the country. Why Mr Hooda does not condemn the socalled "Honour Killing" murders. Mr. Hooda is playing soft to those who are trying to take law into their hands. The message should be clear.
It is surprising to understand, why the Indian National Congress is silent on the views of the Hooda who is the Chief Minister of their Party? The silence amounts to support the outdated, pro-caste panchayat outfits in the country.
Mr. Hooda should withdraw his comments, apologize to the nation and take a firm stand against self-proclaimed courts.
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मंगलवार, 8 जून 2010

SECOND TRAGEDY OF BHOPAL

The Central Secretariat of the Communist Party of India (CPI) has issued the following statement :

The details of the Bhopal tragedy judgement are now available through the Press. The whole nation is shocked with the judgement which gave only two years of imprisonment and a small amount of fine to 8 Indian officials of Union Carbide India Limited (UCIL), for killing more than 15,000 citizens and damaging the health of lakhs of citizens. It exposes the mockery of our prosecution and judicial system. This is an insult on the injury inflicted on the Bhopal victims.

Justice is delayed as the judgement came after 25 years of tragedy. Justice is denied by awarding small punishments to the biggest tragedy in the world. Justice is buried, as there is not even a mention of Mr. Anderson the then Chairman of UCIL in the judgement.

Mr. Anderson the then chairman was arrested, released on bail, escaped to USA but US refused to arrest and handover to us. Our Government instructs CBI not to press for deporting him to India.

It is a shame on Government of India that the culprits neither pay reasonable compensation, nor awarded punishment. The government owes an explanation to the nation. The Judgment on the worst ever industrial disaster of a Multinational Corporation’s chemical unit should be an eye opener to the UPA II government that is trying to push through a Nuclear Liability Legislation that will absolve the nuclear reactor suppliers of all responsibility in case of disaster in nuclear plants
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शनिवार, 5 जून 2010

हम किस दिन के इंतजार में
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने ग्रामीण भारत और किसानों की दुर्दशा पर लगभग आधी सदी पहले लिखा था ‘‘जिधर देखिऐ उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई थी। किसानों की खेती उजड़ जाये उनकी बला से’’। आज भी स्थिति बदली नहीं है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूर यातना झेल रहे हैं। संघर्ष कर रहे है और अपनी आंखों में स्वप्न पाल रहे हैं। वो उस दिन के इंतजार में है जब उनकी जीवन में कुछ तो चमक आएगी। लेकिन सच्चाई तो ये है कि उदारीकरण की इस आंधी में सरकारी नीतियों और उसकी आगोश में खूब मजा लूट रहे देशी-विदेशी पूंजी मालिक अकूत मुनाफा लूट रहे हैं। अब उनकी निगाह ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के नाम पर, ढांचागत बुनियादी विकास को ग्रामीण क्षेत्र में ले जाने के नाम पर, यह गठजोड़ खेती का कंपनीकरण चाहता है। अगर सचमुच देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ के चलते किसान अपनी जमीन और किसानी से पूरी तरह बेदखल हो गये तो छोटा-मझोला सीमांत गरीब किसान तो मिट ही जायेगा। साथ ही साथ खेत मजदूरों का विशाल समुदाय भूख-गरीबी, विस्थापन की लपटों का और गंभीर शिकार हो जायेगा। वह समाज में जीवित होकर भी जिंदा नहीं कहलायेंगे। खेती के कंपनीकरण के चलते देश में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी उन्हें बढ़ावा मिल ही रहा है। वास्तव में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां किसानों से नफरत करती हैं। अमरीका और यूरोप में तो किसानों को कंपनियों ने खेती से बाहर ही कर दिया। नतीजे के रूप में देखा जा सकता है कि 30 करोड़ की आबादी वाले अमरीका में खेती करने वालों की संख्या लगभग 7 लाख परिवारों में सिमट गयी है। यूरोप के 15 देशों में महज 70 लाख किसान बचे हुए हैं। इस तरह के कृषि मॉडल के साफ संदेश है कि खेती से किसानों को बाहर निकाला जाये। जब खेती से किसान बाहर निकल जायेंगे तो खेत मजदूरों की हालत तो और भी भयावह हो जायेगी। जनसंख्या की दृष्टि से भारत एक बढ़ता हुआ देश है। भारत आज सबसे जवान देश है। 110 करोड़ की आबादी के 51 प्रतिशत 25 वर्ष की कम आयु के हैं। आबादी का दो तिहाई भाग 35 वर्ष से कम है। अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2020 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष हो जायेगी। हम कैसे अपनी विशाल युवा समुदाय को कृषि एवं औद्योगिक विकास के साथ जोड़कर रोजगार के अवसर देकर उनके जवान जोश और ताकत का इस्तेमाल देश के लिए कर सके यह सबसे बड़ी चुनौती है। आज भी भारत का 70 फीसदी आबादी गांव में रहता है। खेती किसानी से ही लगभग 74 फीसदी लोगों को पूर्ण और अर्ध रोजगार मिलता है। बढ़ते हुए सीमांत और लघु जोतों की संख्या किसानों के सीमांतीकरण की ओर इशारा करती है। 1970-71 में सीमांत जोतों की संख्या 3।568 करोड़ थी जो 2000-01 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर 7।612 करोड़ हो गयी है। लघु जोतों की संख्या 1.343 करोड़ से बढ़कर 2.282 करोड़ हो गयी है। सीमांत और लघु जोतों वाले किसान देश के 82 प्रतिशत किसान हैं और इनकी खेती को किस प्रकार से आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जाये यह हमारी पहल का मुख्य केन्द्र होना चाहिए। कृषि जनगणना 2000-01 के अनुसार देश में औसत जोत का आकार 1.39 हेक्टेयर है। विभिन्न राज्यों में इसका आकार अलग-अलग है। 15 प्रमुख राज्यों में से पांच राज्यों में औसत जोत 1 हेक्टेयर से भी कम है। केरल राज्य में सबसे कम 0.24 कम है। इसके बाद क्रमशः बिहार में 0.58 हेक्टेयर और पश्चिम बंगाल में 0.82 हेक्टेयर है। असम, उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश में औसत जोत का आकार राष्ट्रीय औसत से कम है।उपरोक्त तथ्यों से आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि विशाल ग्रामीण क्षेत्र और भारत की जनसंख्या का लगभग दो तिहाई हिस्सा आजादी के 62 साल के बाद भी व्यापक बुनियादी परिवर्तन के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा है। वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार देश के 533 खरब-अरबपतियों के पास कुल 12 लाख 32 हजार 135 करोड़ रूपये की दौलत थी। वहीं दूसरी तरफ 2004-05 के अध्ययन के आधार पर कांग्रेसी सांसद प्रो. अर्जुन सेन गुप्ता आयोग ने बताया कि देश की 77 फीसदी जनता अर्थात 83 करोड़ 65 लाख लोगों की रोजाना की आमदनी 20 रूपये से कम है। 2007 के सरकारी आंकडों के मुताबिक मुकेश अंबानी के हजारों करोड़ रूपये की सालाना आमदनी है। लेकिन इसके अतिरिक्त अपनी कंपनी के चेयरमैन की हैसियत में वे तनख्वाह भी लेते हैं। उनकी प्रतिमाह तनख्वाह 2 करोड़ 54 लाख रूपये है। ऐसे ही 578 बड़े उद्योगपति अधिकारी प्रतिवर्ष 1497 करोड़ की तनख्वाह लेते है और 230 लोग दो करोड़ से अधिक की तनख्वाह लेते हैं। देश में दौलत का इतना असमान वितरण चौका देने वाला ही नहीं वरन सोचने पर मजबूर करता है कि सामाजिक अन्याय की भी कोई सीमा होगी। असमान आर्थिक स्थितियों के चलते क्या इस बात की आवश्यकता नहीं है कि देश की दौलत का न्यायिक वितरण किया जाये। पूरे देश की जनसंख्या का 9 प्रतिशत आदिवासी और जनजातियां हैं। वह देश के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 15 प्रतिशत क्षेत्र में निवास करते हैं। वह पहाड़ों, जंगलों और प्रकृति के गोद में गुजर-बसर करने वाले लोग हैं। जिन क्षेत्रों में वे रहते हैं वह खनिज संपदा, वनस्पति, कीमती पत्थरों और जीव जंतुओं से भरपूर हैं। परन्तु आदिवासी जनजाति के लोग प्राकृतिक संपदा के हिस्सेदार नहीं मात्र खामोश तामाशायी बन कर रह गये हैं। देश में कुल 700 जनजातियां हैं। सरकारों के नीतियों के चलते 70 जनजातियां खत्म होने की स्थिति में हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी-विदेशी गठजोड़ की निजी कम्पनियों, कार्पोरेट घरानों को उद्योग स्थापित करने के नाम पर आदिवासियों एवं जनजातियों को उजाड़ कर उनकी जमीन दे रही है। उजाड़े हुए लोगों की पुनर्वास की सम्मानजक एवं अर्थपूर्ण कोई योजना भी नहीं है। आजादी के बाद प्रगतिशील भूमिसुधार लागू किये जाने की कोई विशिष्ट पहल नहीं की जा सकी। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा में भूमि सुधार लागू कर खेत मजदूरों को और ग्रामीण मजदूरों को कुछ न्याय दिया जा सका। अधिकांश राज्य भूमि सुधार से बचते हैं। फलतः समाज के शोषित, पीड़ित जिनमें अधिकांश अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आदिवासी हैं वह आज सामाजिक और आर्थिक हासिये पर ढकेल दिये गये हैं। वह आज गरीबी रेखा के नीचे जीने पर विवश हैं। बिहार में डी. बंधोपाध्याय आयोग ने भूमि सुधार संबंधी सिफारिशों को बिहार सरकार के सामने रखा परन्तु सरकार ने अपना हाथ खींच लिया है। अगर सरकार इस कमीशन की सिफारिशों पर काम करे तो ग्रामीण गृहविहीनों को वास भूमि, हदबंदी से फाजिल, भूदान और सरकारी जमीन का वितरण, पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा और बटाईदारों के बेदखली की सुरक्षा संभव हो सकती है। भूमि सुधार के द्वारा हम गांव से खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों के शहर की ओर पलायन को रोक सकते हैं। आज एक अनुमान के अनुसार 7 से 9 प्रतिशत के बीच गांव से शहरों की ओर हर वर्ष पलायन हो रहा है। भूमि सुधार आज एक ज्वलंत राष्ट्रीय कर्तव्य है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूरों को सर्वाधिक कठिन चुनौतियों भरे वक्त से गुजरना पड़ रहा है और इससे निपटने के लिए व्यापक एकता बनाकर संघर्ष के मैदान में अपनी हिफाजत के लिए उतरना होगा। गांव, किसान, खेती और खेत मजदूर की हिफाजत से ही भारत के कृषि क्षेत्र की हिफाजत की जा सकती है। यह आइने के सामने बैठकर कंघी काढ़ने का वक्त या तितलियों से प्रेम का दौर नहीं है। (लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)
- अतुल कुमार अनजान
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